आलेख : तुलसीदास के काव्य में अभिव्यक्त राम का स्वरुप / डॉ. अनिल शर्मा

           तुलसीदास के काव्य में अभिव्यक्त राम का स्वरुप              

       
राम और उनका चरित्र प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं. तुलसीदास के आविर्भाव से बहुत पहले भारतीय जनमानस में ‘राम’ का चरित्र व्याप्त था. महर्षि वाल्मीकि से पूर्व वाचिक और श्रुति परम्परा में राम की कथा और उनका चरित्र व्याप्त था. महर्षि वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ में राम का स्वरुप मानवीय गुणों से युक्त पुरुषोत्तम के रूप में चित्रित है. ‘अध्यात्म रामायण’ में राम ब्रह्म-स्वरुप थे. पुराणों में राम विष्णु के दस अवतारों में से एक माने गए. संत कबीरदास ने राम को निर्गुण ब्रह्म का प्रतीक-नाम माना. इन सबके बाद आने वाले महाकवि तुलसीदास ने अपने पूर्ववर्ती कवियों के काव्य में व्यक्त राम की अवधारणा से प्रेरित और प्रभावित होते हुए राम की कथा और उनके स्वरुप को तद्युगीन सन्दर्भों में पुनर्व्याख्यायित करने का प्रयास किया.राम को ब्रह्म मानकर तुलसी ने राम संबंधी पूर्ववर्ती धारणाओं एवं कथाओं को इस प्रकार समेट लिया है कि सहसा यह प्रतीत ही नहीं होता कि इस प्रक्रिया में उन्होंने राम के रूप को स्थान-स्थान पर अपना मौलिक सर्जनात्मक स्पर्श देकर उसे पहले से बहुत बदल दिया है, कहीं अधिक उद्दात, करुण, कोमल और मानवीय बना दिया है.” (पृष्ठ : 33, तुलसी के हिय हेरि, विष्णुकांत शास्त्री) वर्तमान भारत के जन-मन में उपस्थित राम की छवि और उनका स्वरुप अधिकांश रूप में महाकवि तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ और उनकी अन्य रचनाओं में वर्णित श्री राम के चरित्र पर ही आधारित है.

अपने पूर्ववर्तियों के समान तुलसीदास ने भी राम को ब्रह्म-स्वरुप माना है किन्तु उस स्वरुप में जनता की विविध रुचियों और विभिन्न मान्यताओं के अनुसार अन्य कई गुणों को भी सम्मिलित कर दिया है. राम के स्वरुप का वर्णन करते हुए तुलसी उपनिषदों के ‘नेति-नेति’ अवधारणा का भी समर्थन करते दिखाई पड़ते हैं -

   “राम स्वरुप तुम्हार, बचन अगोचर बुद्धि पर I
   अविगत, अकथ, अपार नेति, नेति, नित निगम कह II”  
                            (मानस, 1/116/5,8)

  तुलसी-काव्य में एक पात्र के रूप में राम का चरित्र एक मनुष्य के जीवन की विभिन्न परिस्थितियों के रूप में दिखलाया गया है. बाल्यावास्था से ही राम अपने शील और वीरत्व पूर्ण उत्साह के बल पर विकट-से-विकट स्थितियों का सामना बड़े धर्य और विवेक से करते हैं, उनके गंभीर चरित्र में कहीं भी स्खलन नहीं आता है. अपने काव्य में तुलसीदास बार-बार राम को अवतारी पुरुष कहते हैं किन्तु उन्होंने राम का चित्रण एक सामान्य मनुष्य के रूप में ही किया है और इसीलिए उन्होंने बाल्मीकि की भाँति राम के द्वारा बलि का वध छिपकर करवाया है. इस संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विचार ध्यान देने योग्य हैं – “राम के चरित्र की इस उज्ज्वलता के बीच एक धब्बा भी दिखाई देता है. वह है बालि को छिपकर मारना. बाल्मीकि और तुलसीदासजी दोनों ने इस धब्बे पर कुछ सफ़ेद रंग पोतने का प्रयत्न किया है. पर हमारे देखने में तो यह धब्बा ही संपूर्ण रामचरित को उच्च आदर्श के अनुरूप एक कल्पना मात्र समझे जाने से बचाता है. यदि एक यह धब्बा न होता तो राम की कोई बात मनुष्य की सी न लगती और वे मनुष्यों के बीच अवतार लेकर भी मनुष्यों के काम के न होते. उनका चरित्र भी उपदेशक महात्माओं की केवल महत्त्वसूचक फुटकर बातों का संग्रह होता, मानव-जीवन की विशद अभिव्यक्ति सूचित करनेवाले संबद्ध काव्य का विषय न होता. यह धब्बा ही सूचित करता है कि ईश्वरावतार राम हमारे बीच हमारे भाई-बन्धु बनाकर आए थे और हमारे ही समान सुख-दुःख भोगकर चले गए. वे ईश्वरता दिखाने नहीं आए थे, मनुष्यता दिखाने आए थे. भूल-चूक या त्रुटि से सर्वथा रहित मनुष्यता कहाँ होती है? इसी एक धब्बे के कारण हम उन्हें मानव जीवन से तटस्थ नहीं समझते – तटस्थ क्या कुछ भी हटे हुए नहीं समझते हैं.”  (पृष्ठ -116, गोस्वामी तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल) – इस प्रकार राम के माध्यम से तुलसीदास सामान्य मनुष्य को भी मर्यादित ढंग से जीवन जीने का अचूक मन्त्र और लोक-व्यवहार की सीख देते दिखाई पड़ते हैं. साथ ही, वे यह सन्देश भी देते हैं कि इसी मनुष्य देह के द्वारा हम रामत्व को प्राप्त कर सकते हैं और रामत्व पाने की इस यात्रा में यदि हमसे कोई भूल-चूक हो जाती है तो उसके कारण स्वयं को अपराध-बोध या हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि राम जैसे अवतारी मनुष्य से भी त्रुटियाँ हुई थीं.

 तुलसी काव्य में आये राम सौन्दर्यवान हैं. जब वे पैदा होते हैं तो उनकी माँ कौशल्या उनके रूप-सौन्दर्य की अद्भुत आभा देखकर हतप्रभ रह जाती हैं. हालांकि तुलसी के काव्य में राम की बाल्यावस्था के चित्र बहुत अधिक नहीं हैं किन्तु जितने भी हैं उनमें राम के नयनाभिराम सौन्दर्य और बाल-सुलभ चेष्टाओं का मनोहारी वर्णन कवि ने किया है.

तुलसीदास ने राम मनुष्योचित शीलता को की कसौटी के रूप में चित्रित किया है. वे अहंशून्य और अत्यंत विनम्र स्वभाव के हैं और सदैव अपने माता-पिता, गुरु और अग्रजों के समक्ष नत-मस्तक रहते हैं और बिना किसी शंका या आग्रह के इनकी आज्ञा को शिरोधार्य रखते हैं. वे शरणागतों की रक्षा करने वाले हैं. उनके इस गुण का का सर्वाधिक प्रभावशाली परिचय राजा जनक के दरबार में सीता-स्वयंवर से पूर्व धनुष-प्रसंग में मिलता है. धनुष के टूटने एवं चपल लक्ष्मण की चंचलता भरी बातों से अत्यंत क्रोधित हुए परशुराम के क्रोधाग्नि को अपनी विनयशील उद्गारों से न केवल परशुराम के क्रोध को शांत करते हैं वरण उन्हें आशीर्वचन देने के लिए बाध्य कर देते हैं. राम के सम्पूर्ण जीवन के समस्त क्रियाकलापों और आचार-व्यवहार में समाहित उनके स्वभाव के शील-गुण का हृदयग्राही और मर्मस्पर्शी चित्रण तुलसीदास ने इस प्रकार किया है

       सुनि सीतापति सील-सुभाउ I
     मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ I
     सिसुपन तें पितु मातु बन्धु गुरु सेवक सचिव सखाउ I
     कहत राम बिधुबदन रिसौहैं सपनेहु लखेउ न काउ II
     खेलत संग अनुज बालक नित जुगवत अनट अपाउ I
     जोति हारि चुचुकारि दुलारत डेट दिवावत दाउ II
     सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ I
    दई सुगति सो न हेरि हर्ष  हिय, चरन छुए को पछिताउ II
    भवधनु भंजि निदरि भूपति  भृगुनाथ खाइ गए ताउ I
    छमि अपराध छ्माइ पायं  परि इतो न अनत समाउ I
    कह्यौ राज बन दियो नारि-बस गरि गलानि गयो राउ I
   ता कुमातु को मन जोगवत ज्यों निज तनु मर्म कुघाउ I I
   कपि-सेवा बस भए कनौड़े, कह्यौ पवन-सूत साउ I
    दैबे को न कछू ऋनिया हौं, धनिक तू पत्र लिखाउ I
    अपनाए सुग्रीव-बिभीषन तिन न तज्यो छल छाउ I
    भरत-सभा सनमानि सराहत होत न ह्रदय अघाउ II
   निज करुना-करतूति भगत पर चपत चालत चरचाउ I
   सकृत प्रणाम सुनत जस बरनत सुनत कहत फिरि गाउ I I”

इस दया, इस क्षमा, इस संकोच-भाव, इस कृतज्ञता, इस विनय, इस सरलता को राम ऐसे सर्व-शक्ति-संपन्न के आश्रय में जो लोकोत्तर चमत्कार प्राप्त हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है. शील और शक्ति के इस संयोग में मनुष्य ईश्वर के लोक पालक रूप का दर्शन करके गद्गद हो जाता है. जो गद्गद न हो, उसे मनुष्यता से नीची कोटि में समझना चाहिए. असामर्थ्य के योग में इन उच्च वृतियों के शुद्ध स्वरुप का साक्षात्कार नहीं हो सकता. राम में शील की यह अभिव्यक्ति आकस्मिक नहीं अवसर विशेष की प्रवृत्ति नहीं उनके स्वभाव के अंतर्गत है, इसका  निश्चय कराने के लिये बाबाजी उसे सिसुपनसे लेकर अंत तक दिखाते हैं. यह सुशीलता राम के स्वरुप के अंतर्गत है. जो उस शील-स्वरुप पर मोहित होगा, वही राम पर पूर्ण रूप से मुग्ध हो सकता है.” (पृष्ठ-53, गोस्वामी तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल)

  इस प्रकार राम न केवल अपने माता-पिता और गुरुजनों के प्रति विनम्र एवं शीलवान हैं वरन वे अपने बन्धु, सखा, सचिव, सेवक, शरणागत आदि सब पर अपनी शील की धारा प्रवाहित करते हुए शीतल करते चलते हैं और किसे एक स्थल पर भी अपनी शक्ति, साहस और बल का परिचय देते हुए सामने वाले को किसी भी रूप में संकुचित होने का अवसर नहीं देते. राम के इसी गुण को देखते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तुलसीदास के काव्य में राम के स्वरुप पर विचार करते हुए कहा है – “अनंत शक्ति के साथ धीरता, गंभीरता और कोमलता ‘राम’ का प्रधान लक्षण है. यही उनका ‘रामत्व’ है.” (पृष्ठ -114, गोस्वामी तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल)

तुलसीदास  के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं. मनुष्योचित मर्यादा का पालन वे अपने जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में करते हैं. यहाँ तक कि स्वयंवर से पूर्व पुष्पवाटिका प्रसंग में सीता के दर्शन के समय ‘कंकन किंकिनि नुपूर धुनि सुनि’ वाली प्रथम-प्रेम की स्थिति में भी उनका युवावस्था सुलभ कोमल व्यवहार अत्यंत शिष्ट, मर्यादित व संतुलित बना रहता है. श्रृंगार रस के प्रसंग में राम और सीता का उक्त दृश्य अपनी शालीनता और मनोहारिता की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है.

 सामाजिक दृष्टि से राम राम आदर्श पुत्र, भाई, पति व सखा हैं जो अपने कुल की मर्यादा के अनुरूप दिए हुए वचन का का पालन करते हैं. इस बात का सबसे सटीक उदाहरण चौदह वर्ष के वनवास की आज्ञा वाला प्रसंग है. एक ओर तो राम के राज्याभिषेक की तैयारियां हो रही हैं तो दूसरी ओर राम को चौदह वर्ष के वनवास की सूचना मिलती है. राम तनिक भी विचलित हुए बिना अत्यंत प्रसन्नता के साथ अपने पिता की इस अनचाही आज्ञा को तुरंत स्वीकार कर लेते हैं और अपने व्यवहार से कहीं भी पिता, माता कैकेयी व भाई भरत को संकोच, हीनता या अपराध का बोध न होने देने का भरसक प्रयत्न करते हैं. इसी प्रकार राम-कथा में आये अन्य पात्रों यथा- अहिल्या, शबरी, वानर, सुग्रीव, जटायु, विभीषण आदि सभी के साथ अपने आत्मीय और मैत्रीपूर्ण व्यवहार के कारण राम एक आदर्श मनुष्य के रूप में चित्रित हुए हैं.

राजनैतिक सन्दर्भों में देखा जाय तो तुलसीदास के काव्य में राम एक ऐसे शासक के रूप में उपस्थित हुए हैं जो अपनी प्रजा के मध्य मर्यादा, सुनीति, सुव्यवस्था, शुचिता और सुशासन बनाए रखने के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ और भावनाओं का भी त्याग करने में किंचित भी समय नहीं लगाते. इस रूप में आज के शासकों को श्री रामचन्द्र से सीख लेनी चाहिए. जहाँ आज के भारत के अधिकाँश राजनेता एवं शासक स्वार्थी स्वभाव के कारण भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की विकृति से ग्रस्त हैं वहीं “रामराज्य की व्यवस्था पूरी तरह लोकतान्त्रिक है। उत्तरकाण्ड में राम प्रजा को सम्बोधित करते हुए स्पष्ट शब्दों में सभी को अभय होकर सत्ता की किसी भी चूक को या किसी भी अनीति को बरजने का निर्देश देते हैं। ' जौ अनीति कछु भाखहुँ भाई । तौ मोहि बरजेहु भय बिसराई' वही राजा कह सकता है, जो स्वयं भी पूरी तरह अनुशासित एवं मर्यादित है। यही है राम का राज्यादर्श, जिसमें राजा भी प्रजा के अनुशासन की परिधि में अपने को बांधकर राजा के प्रजारंजक रूप को परिभाषित करता है और प्रजा की इच्छा का, चाहे वह अनुचित अथवा त्रुटिपूर्ण ही क्यों न हो, समादर करते हुए स्वयं और अपने परिवार को भी दंडित करने को प्रस्तुत है। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने समय के और आनेवाले समय के सभी शासकों के सामने एक आदर्श शासन-व्यवस्था का यह जो रूपक प्रस्तुत किया है, यही है जो मनुष्यता के विकास को एक नया आयाम दे सकता है। आज हमारे तथाकथित प्रजातांत्रिक शासकों के लिए रामराज्य की शासकीय मर्यादा एक चुनौती है। राम का शील, उनकी मर्यादा का शतांश भी यदि आज की शासन-व्यवस्था में आ जाये, तो रामराज्य की स्थापना में बहुत देर नहीं लगेगी।“ आधुनिक युग में भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के मुख्य अग्रदूत राष्ट्र-पिता महात्मा गाँधी राम-राज्य की उपरोक्त अवधारणा से ही तो प्रभावित हुए थे. उनके स्वप्न और उनकी मनोकामना स्वाधीन भारत में इसी रामराज्य की स्थापना से जुडी हुई थी जो उनके द्वारा लिखित विभिन्न लेखों में दृष्टिगोचर होती हैं.

  इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महाकवि तुलसीदास के काव्य में अभिव्यक्त राम के स्वरुप के विविध आयाम हैं जो अपने-आप में सम्पूर्ण भी हैं. राम एक सामान्य मनुष्य के रूप में जन्म लेकर सामान्य मनुष्य की ही तरह जीवन-संग्राम में एक शीलवान, साहसी, धर्यवान, विनम्र, मर्यादाशील मनुष्य की भाँति विभिन्न परिस्थतियों में व्यवहार करते दिखाई देते हैं. तुलसीदास के काव्य में एक मनुष्य और एक राजा के रूप में राम यह सन्देश देते हैं कि मनुष्य को जीवन के आपद-काल में धीरज और विवेकपूर्ण दृष्टि अपनाते हुए समुचित कर्तव्यों का पालन करना चाहिए. साथ ही, जीवन के सुखद और सफल क्षणों में अपनी उपलब्धियों के कारण मनुष्योचित गरिमा को बनाए रखते हुए अहं भाव से दूर रहने का प्रयास करना चाहिए. अतः कहा जा सकता है कि महाकवि तुलसीदास ने अपने काव्य में चित्रित राम के माध्यम से विश्व को मानवता का सन्देश दिया है.

डॉ. अनिल शर्मा, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग,
 ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज (सांध्य),दिल्ली विश्वविद्यालय
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

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