आलेख : रामचरितमानस की मिथकीयता / सुस्मित सौरभ

रामचरितमानस की मिथकीयता 
             
मिथक रचना मानव मन की सहज प्रवृति है। कवि की अनुभूति का निजी स्तर इतिहास के पटल पर विकसित होकर अपने अंतर्विरोधों के साथ जब राष्ट्रीय और सामाजिक आयामों में बंध  जाता है तब काव्य में मिथकीय संचेतना का उद्भव होता है। मिथक स्वयं में काव्य तो नहीं परन्तु काव्य का प्रमुख उपादान होता है। विद्वानों की ऐसी मान्यता रही है कि मिथकीय प्रयोग की यह प्रवृति विश्व के समस्त देशों के काव्यों में प्राप्त होती है। भारतीय वैदिक वाङमय से लेकर संस्कृत और हिन्दी के अद्यतन वाङमय के काव्य में मिथक का सजीव चित्रण हुआ है। मिथक जब कविधर्म बन जाता है तो काव्य धर्म एवं कवि समय जैसी मान्यताएं जन्म लेने लगती हैं जैसे क्रौंच-वध और कविता का जन्म, नीरक्षीर विवेक और साहित्यिक आदर्श आदि जैसे अगणित मिथक उसे समृद्ध बनाते हैं । वस्तुतः  मिथक आदिम काव्य है क्योंकि आदिम मानव की कल्पनात्मक वृत्ति ने इन कथाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति पाई है। विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी विशाल मिथक सम्पदा ऋग्वेद से लेकर संस्कृत के अभिजात काव्य ,महाकाव्य ,आख्यायिका और पाली , प्राकृत और अपभ्रंश के साहित्य में भरी पड़ी है।

               काव्य से मिथक का घनिष्ठ सम्बन्ध है ऐसी मान्यता सिर्फ भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी रही है।  हिन्दी साहित्य के विकासक्रम को देखने से ज्ञात होता है कि हिन्दी साहित्य का कोई भी युग मिथकीय अवधारणा से अछूता नहीं है।  कवि समाज का एक अंग होता है इसलिए मिथक उसके काव्य में अनायास ही प्रवेश कर जाते हैं। हिन्दी काव्य में मिथकों से सम्बंधित जो काव्य रचना हुई वह परिणाम और महत्त्व दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । साहित्यिक घटनाओं और पात्रों को मिथकीय आयाम काव्य द्वारा ही प्राप्त होता है।  भारत में वैदिक या उसके परवर्ती युग का और पश्चिम में यूनानी या हिब्रू भाषा के कवि सर्जना के क्षणों में जिस प्रक्रिया से मिथक की रचना करते थे मध्य युग तथा आधुनिक युग के कवि की सर्जनात्मक चेतना भी उसी का प्रयोग करती है। इस प्रकार केवल आदिम युग के कवियों ने ही नहीं बल्कि प्रत्येक युग के कवि ने अपने ढंग से मूलतः मिथक की रचना  की है। अभिप्राय यह है कि होमर ,इलियड ,मिल्टन आदि ने अपने अपने देशकाल के रागात्मक उपकरणों और भाषिक साधनों के आधार पर एक प्रकार से मिथक की रचना की है।  भारतीय संदर्भ में वैदिक कवि के सूक्तों में वाल्मीकि के रामायण ,व्यास के महाभारत ,तुलसीदास के रामचरितमानस ,प्रसाद की कामायनी आदि में विभिन्न युगों के सामूहिक संस्कारों तथा भाषिक उपकरणों के अनुरूप मिथक सर्जना की एक परंपरा व्याप्त है। फलतः मिथक और काव्य में अभेद सम्बन्ध है।
 
हिन्दी काव्य में मिथकीय प्रयोग:
  
           हिन्दी साहित्य का प्रादुर्भाव और विकास निरंतर मिथकों से जुड़ा प्रतीत होता है। इसके विकासक्रम  को देखने पर ज्ञात होता है कि हिन्दी साहित्य का कोई भी युग मिथकीय अवचेतना से अछूता नहीं है। भावबोध से लेकर कलात्मक अभिव्यक्ति तक सर्वत्र मिथकों की उपादेयता दर्शनीय है।  

हिन्दी साहित्य के आदिकाल को वीरगाथा काल के नाम से जाना जाता है। इस काल में वीर काव्यों की प्रधानता थी। अधिकांश कवि राज्याश्रित थे परन्तु इस राज्याश्रित परंपरा के अतिरिक्त एक अन्य धारा अविरल गति से प्रवाहित हो रही थी जो सीधी सीधी मिथ कथाओं से जुड़ती है।  विद्यापति ने अपने पदों में शिव और कृष्ण के सम्बन्ध में अनेक रमणीय प्रसंगों की कल्पना की है  जिसमें शिव और कृष्ण पौराणिक चरित्र के रूप में चित्रित हुए है। चंदरबरदायी के पृथ्वीराजरासो और दूसरे काव्यों में ऐतिहासिक चरित्रों को कल्पना प्रसूत अतिरंजनाओं के बीच में रखकर चित्रित करने की प्रक्रिया दिखाई पड़ती है।  बौद्ध धर्म से सम्बन्ध रखने वाली कथायें तथा उनके रचयिता सबरपा ,लुइपा , डोम्बिम्पा, ककुरिपा आदि मुख्य है जिनके साहित्य में बौद्ध दर्शन का ही वर्णन मिलता है। जैन धर्म परम्परा में देवसेन का काव्य श्रावकाचारजिनकेश्वर का भारतेश्वर बाहुबली रास आसगु का चंदनबालारास विजयसेन सूरी का रेवंतगिरीरास सुमतिगणि का नेमिनाथरास महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। भारतेश्वर बाहुबली रास में राम कथा और नेमिनाथ रास में कृष्ण कथा को नए रूप प्रदान किये हैं।
 नाथ पंथियों के हठयोग ,वाममार्ग , तंत्र मंत्र आदि का वर्णन भी आदिकालीन साहित्य में मिलता  है।  इस धारा में विशेष चर्चा का विषय गोरखनाथ रहे हैं जो मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे।  गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं में गुरु महिमा, इन्द्रिय निग्रह ,वैराग्य ,समाधि ,हठयोग , ज्ञानयोग आदि वार्ताओं को प्रमुख स्थान दिया जिनमें मिथक का प्राचुर्य  प्रयोग मिलाता है। 

पूर्वमध्य काल तक पहुंचते पहुंचते सिद्ध-नाथ की रचनाओं ने काव्यधारा का रूप धारण कर लिया  जो निर्गुण ब्रह्म परक ज्ञानाश्रयी शाखा कहलायी।  इस शाखा के प्रमुख कवि रैदास ,नानकदेव, जम्भनाथ , हरिदास , लालदास ,दादूदयाल , मलूकदास आदि हैं। संत मत में अनेक विख्यात भक्त हुए जिनमें कबीर का स्थान सर्वोपरि है। कबीर निःसंग कवि होते हुए भी मिथक कथाओं से अलग नहीं रह पाए। कबीर ने इन्द्र ,नारद ,कृष्ण ,उद्धव,शंकर आदि के अनेक मिथकों का वर्णन सविस्तार किया है। उनके पदों में राम के प्रति विशेष भक्तिभाव का अंकन मिलता है। राम भजन से तो भीलनी और गणिका भी संसार सागर तार गयी , पत्थर तैरने लगे।

पूर्व मध्यकाल की प्रेमाश्रयी निर्गुण काव्यधारा सूफी संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुई । सूफी कवियों में जायसी ,मंझन , उस्मान ,आलम, मुल्ला दाऊद, कुतुबन, गणपति विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । सूफी काव्यों पर भी पुराण कथाओं का प्रभाव रहा है। जायसी ग्रंथावली के आधार पर यह कहा जा सा सकता है की मुख्य कथा में यत्र तत्र अनेक मिथकों को पिरोया गया है।  भारतीय पद्धति के अनुसार परमात्मा के तीन रूप होते हैं रचयिता,पालनकर्ता और संहारक। इन तीनों रूपों को सूफी भक्तों ने स्वीकार किया। जायसी ने जिन दो वृक्षों को श्वेत- श्याम कहा है उनमें एक जड़ है दूसरा चेतन। चेतन जीव को भी जायसी परमात्मा के साथ एक कर देते हैं।

पूर्वमध्यकालीन सगुण भक्ति साहित्य मिथकीय प्रभाव से पूर्णरूपेण आच्छादित रहा है। सूर, तुलसी, मीरा , रसखान आदि भक्त कवि  और महात्माओं द्वारा सृजित यह साहित्य नैतिक ,धार्मिक एवं सामाजिक मूल्यों और उच्च आदर्शों से समन्वित है। सगुण भक्तिकाल साहित्य में मिथकों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। राम, कृष्ण, गज, गणिका, अजामिल, प्रहलाद, जटायु, रावण आदि चरित्रों, पशु-पक्षियों की कथाओं का उल्लेख भक्ति साहित्य में यत्र-तत्र प्राप्त हो जाता है।

मिथक और रामचरितमानस

भारतीय साहित्य का अत्यंत प्राचीन काल से मिथक से गहरा संबंध रहा है। इतिहास तथा मिथक में  एक मौलिक अंतर होता है। इतिहास की कथा में घटनाक्रम पर आग्रह रहता है पर मिथक में कथा की भावात्मक, कल्पनात्मक, ज्ञान संवेदनात्मक शक्ति का प्रधान्य रहता है। मिथक के पात्र केवल मानव मात्र नहीं होते बल्कि उनमें अवतार तत्व, देवत्व अलौकिक अतिप्राकृत तत्व का सदैव सन्निवेश रहता है। इस दृष्टि से तुलसीदास रामचरितमानसकी कथा एक मिथक है, सांस्कृतिक जातीय चेतना का मूल्य मिथक। रामचरितमानस की सृष्टि परंपरा और मिथक दोनों की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप मानी गयी है। रामचरितमानस मिथकों से गठित विशुद्ध मिथक काव्य भले ही न हो परंतु इसमें मिथकों के साथ लोककलाएँ इस तरह घुली मिली हैं कि इन्हें अलग कर पाना कठिन है। रामचरितमानस कोई ऐतिहासिक कथा नहीं बल्कि मिथक का सशक्त उत्कर्ष है। इस कथा में अभिप्राय, प्रयोजन और परिवेश सभी मिथकों का अनुसरण करते हैं।

तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के राम दिव्य चरित्र के धनी नायक के रूप में ,आराध्य ईश्वर  के रूप में तथा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में रामयण काल से लेकर वर्तमान साहित्य तक अनवरत वर्णित किये जा रहे हैं। अनेक मिथ इस चरित्र से जुड़ गये हैं जो प्राचीन से लेकर आधुनिक साहित्य तक मिलते हैं। रामभक्ति शाखा में राम के अवतार की पूर्ण ब्रह्म रूप में कल्पना की गई है। तुलसी के रामचरितमानस से स्पष्ट होता है
                
            जेहि राम भावाईं वेद बुध, जाहि धरहि मुनि ध्यान ।
        सोई दशरथ सुत भगत हित कौसल पति भगवान। ।


परस्पर विभिन्नता संसार का आवश्यक लक्षण और गुण है परन्तु तुलसीदास ने अपने काव्य में समरसता के मिथक को इतना प्रभावशाली बना दिया है कि वही उनके काव्य-प्रेरणा का मुख्य लक्षण बन गया है। उन्होंने समन्वय के भव को एक मिथक का रूप देकर सर्वजन-हितायसर्वजन-सुखायकी कल्पना की और इसका माध्यम राम चरित्र को बनाया। सर्व साधारण को लक्ष्य कर समन्वय की कल्पना रामराज्य के मिथक द्वारा ही पूर्णत्व प्राप्त कर सकती है। राम भक्ति तुलसी के मिथक विषयक मोह का सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि वे राम चरित की गाथाओ तक ही सीमित नहीं रहे । उन्होंने विष्णु के अवतार कृष्ण से भी संबद्ध पुराकथाओं को भी अंकित किया। सीता की महत्ता को स्वीकार करते हुए वे कहते हैं

    वाम भाग सोभित अनुकूला
     आदि शक्ति छवि निधि जगमूला ।
     जास अंस उपजहिं गुन खानी ,
    अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ।
    भृकुटि विलास जासु जग होई
    राम बाम दिसि सीता सोई ।

परशुराम, विश्वामित्र, हनुमान, बालि, सुग्रीव, कुम्भकर्ण, कुबेर आदि से संबद्ध प्रचलित समस्त मिथकों का प्रयोग तुलसी के इस काव्य में मिलता है। 

तुलसीदास जी का कथन नाना पुराणनगमागम तुलसी रघुनाथ गाथाअति महत्वपूर्ण है जिसने रामचरितमानस के सृजन को साकार किया है। इस महाकाव्य में  पौराणिक कथाओं का इतना अधिक प्रयोग है कि बहुत से विद्वान इसे पुराण महाकाव्य की उपमा देते रहे हैं। भारतीय लोक में राम भगवान होते हुए भी मानव हैं और मानव होते हुए भी भगवान। रामचरितमानस के राम कोई इतिहास पुरुष नहीं हैं। नायिका सीता कोई ऐतिहासिक नायिका नहीं हैं। सीता और राम के जन्म प्रसंग में भी मिथकों का सुंदर प्रयोग मिलता है। जहां राम का जन्म किसी तप के वरदान का फल था वहीं सीता विदेहराज जनक को हल चलाते हुए मिलती हैं। राम अवतारवाद की परंपरा की सृष्टि हैं और न जाने कितने मिथकों ने रामकथा में रूपकार पाया है। राम कथा के बारे में वर्णित है कि नारद मुनि रामकथा की महिमा वाल्मीकि को सुनाते हैं। वाल्मीकि उस रामकथा को गाते हैं और फिर उस कथा को लवकुश भी गाते हैं। परंतु मूल कथा भगवान शिव कहते हैं और पार्वती जी सुनती हैं।
                 
      रची महेश निज मानस राखा। 
      पाया सुसमय शिवा सन भाखा॥

एक प्रसंग यह भी मिलता है कि रामचरित मानस की रचना के लिए तुलसी दास को पवनसुत ने प्रेरित किया। तुलसीदास इस कथा में में इतने रमे कि इसे कहे बिना नहीं रह सके-

            राम चरित जे सुनत अघाही। 
            रस विशेष जाना तिन नाहीं॥

तुलसीदास जी मोक्ष नहीं चाहते थे बल्कि वे सियाराममय जगत में जीना चाहते थे। शिव पार्वती कथा, नारद वाल्मीकि कथा, राजा प्रताप भानु कि कथा जैसी भगवान के अवतार की न जाने कितनी कथाएँ हैं जो राम जन्म के मिथक से जुड़ी हुई हैं और रामचरितमानस की मिथकीयता को दर्शाती हैं। रामकथा एक प्रतीक कथा है सद-असद वृतियों की कथा। राम सद-वृतियों के प्रतीक हैं, रावण असद वृतियों का प्रतीक है और सीता जनसंस्कृति रूपी धरती की पवित्रता की प्रतीक  हैं।  भारतीय पुराणों  में मानवीय संवेदनाओं को छूने वाले जितने भी मिथक हैं सभी को तुलसी दास जी ने राम चरित मानस में एकत्रित कर लिया है। मानस का रूपक कहता है कि इसमें अनेक प्रसंगों की मिथक कथाएँ वर्णित हैं। साथ ही साथ पुरानी पुराण कथा का इसमें भरपूर उपयोग हुआ है।
                 
            औरउ कथा अनेक प्रसंगा। 
          तेई सुक पिक बहुबरन विहंगा॥

रामचरितमानस की कथा का समझदारी पूर्वक परिमार्जन किया गया है। भारतीय कल्पना में शिव तत्व सभी कलाओं के आदि स्रोत हैं। शिव ही जीवन के विरूद्धों में सामंजस्य को स्थापित करने की शक्ति रखते हैं। शिव का वरण समस्त मिथक परंपरा का वरण है। शिव ही हैं जो रघुपति महिमा का अनेक मिथकों के साथ बखान करते हैं। शिव निरंतर राम का जाप करते हैं और राम शिव का। रामकथा की परमब्रह्मता को नर लीला में उतारकर तुलसी ने लोकमत से आत्मीयता स्थापित की है। रामकथा को शिव कहते और रचते हैं। हिमालय और गंगा के मिथकों को भी जोड़ने का काम शिव करते हैं। तुलसी कृत रामचरितमानस सदा से यह कहता आया है कि राम देश और काल से बंधे चरित्र नहीं हैं। राम कथा की सुरसरिता में अनेक मिथक कथाएँ मिलकर उसे सागर बना देती हैं। रामकथा की बनावट में पुराणों की संवाद कला भी गुंफित है। यह एक ऐसा प्रबंध काव्य है जिसमें राम नायक और रावण प्रति नायक है और मुख्य रस भक्ति रस है। मानस में पौराणिक शैली का गहरा प्रभाव दृष्टिगत होता है।

भले ही रामचरितमानस पुराण काव्य की  परिपाटी पर खरा न उतरता हो परंतु पुराण के बहुत सारे व्यापार इसमें सक्रिय हैं जैसे रामकथा की प्राचीन परंपरा का उपयोग, अवतारवाद  के महत्व की प्रतिष्ठा, शिव- नारद, काक-भुशुंडि आदि अवांतर कथाओं को स्थान, अलौकिक, अतिप्राकृत तथा आकाशवाणी का वर्णन आदि। तुलसीदास जी ने स्वयं इस काव्य को गाथा, कथा और चरित्र का संगम माना है। उल्लेखनीय है कि रामचरितमानस पौराणिक शैली का ऐसा मिथक कोश है जिसमें चरित काव्य परंपरा की धारा प्रवाहित होती है। चरितकाव्य को कुछ हद तक मिथक काव्य का रूप माना जा सकता है। रामचरितमानस की मुख्यकथा और अवांतर कथा दोनों ही पौराणिक हैं । मानस के राम की  कल्पना  वाल्मीकि रामायण के राम के आधार पर की गई है। इसी प्रकार अहिल्या उद्धार, मारीच प्रसंग, धनुष भंग और हनुमान जी द्वारा संपादित और अतिप्राकृत कार्यों से यह कथा भरी पड़ी है।  यह कथा रामजन्म, बाललीला, जानकी विवाह आदि के बाद सीता की प्राप्ति पर जाकर समाप्त हो जाती है। राम चरित मानस की कथा में श्रोता-वक्ता की परंपरा के साथ भी अनेक मिथकों को पिरो दिया गया है।

तुलसीदास जी रचित मानस जन-जन का बल बन चुका है और हर निराशा, हर संत्रास, हर पीड़ा, हर त्रासदी में भी राम हमारे सखा-स्वामी बनकर संग हो जाते हैं। भले ही रामकथा को धार्मिक, सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा हो पर यह कथा उस सामूहिक अवचेतन के भीतरी अमृत मंथन से निकली है जो क्षुद्रताओं से मुक्त है। देवता भले ही हिन्दू धर्म के हैं पर उनमें किसी भी जाति के प्रति परायापन नहीं है। इस कथा में व्यक्त मिथक अहंकार उयर दंभ को तोड़कर जन जन को जीवन का सहज पंथ दिखाते हैं। आज क समाज में भी राम अपनी निर्वासित सीता को खोजते नजर आते हैं और रावण अन्यायी शक्तियों के साथ अट्टहास करता नजर आता है। इस प्रकार मानस एक ऐसा मिथक काव्य है जो हमारे जीवन मूल्यो को जीवित रखे हुए है। राम चरित मानस की कथा के माध्यम से तुलसीदास जी ने अपने हृदय के सम्पूर्ण भक्ति भाव को बाहर उड़ेल दिया है। ये मिथक आज के परिपेक्ष्य में भी आपण सहज अर्थ देते हैं। तुलसी ने रामचरितमानस के अलावा रामलला नहछू ,वैराग्य संदीपिनी, बरवै रामायण, विनय पत्रिका आदि की रचना की जिसमें उन्होनें राम के मर्यादित रूप को मानव जीवन का आदर्श बनाने का प्रयास किया ।


संदर्भ:-

1.    रामचरित मानस तुलसीदास
2.    साहित्य और मिथक: डॉ नगेंद्र
3.    सीय राम मय सब जग जानी- कृष्ण दत्त पालीवाल

सुस्मित सौरभ, नागपुर, महाराष्ट्र।, मो-7028557577 

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

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