वैचारिकी: निजीकरण की नीति और आत्मनिर्भरता की प्रतिज्ञा/ घनश्याम कुशवाहा

          'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020

           निजीकरण की नीति और आत्मनिर्भरता की प्रतिज्ञा- घनश्याम कुशवाहा

चित्रांकन: कुसुम पाण्डे, नैनीताल

 भारत के प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम उद्द्बोधन आत्मनिर्भरता’ और लोकल’ शब्द प्रमुखता से छाया रहा। जिसमें कोरोना महामारी के फलस्वरूप देश में उत्पन्न आर्थिक चुनौतियों का सामना करने हेतु देश को आत्मनिर्भर’ बनाने पर जोर दिया गया। सामान्यत: आत्मनिर्भर’ शब्द से तात्पर्य दूसरों पर निर्भरता’ को कम करने से है। अर्थात् विश्व में बढ़ते उत्पादों की गुणवत्ता की माँग को पूरा करने की क्षमता को बढ़ाना तथा देश को उन समृद्ध देशों की श्रेणी में लाना है जिनके उत्पादों को लोग अपनी पसंद से खरीदें। ऐसी क्षमता और गुणवत्ता के माध्यम से अपने देश को दूसरे देशों पर से निर्भरता को कम करना है। भारत देश कभी सोने की चिड़िया’ के रूप में जाना जाता था। इसका कारण यहाँ की भूमि का उपजाऊ होना है। एक कारण यह भी रहा है कि विश्व के तमाम देश और वहाँ  के शासकों ने भारत को लाभ की दृष्टि से देखा। यह भारत की आत्मनिर्भरता’ का ही परिणाम था कि समय-समय पर भारत ने अपनी उर्वरता और उत्पादों की गुणवत्ता के चलते विश्व के तमाम देशों कोव्यापार-सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आकर्षित किया।


प्राचीन काल से ही भारत का चीन के साथ ही अन्य देशों से भी व्यापारिक सम्बन्ध बने रहे। इसके बाद पुर्तगाल, डच, फ्रांसीसी, मुग़ल और अंग्रेजों ने भी भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते कायम किये। यह क्रम लगातार चलता रहा और भारत बाहरी देशों को प्रभावित करने के साथ ही उनसे प्रभावित भी होता रहा। यह वैश्वीकरण की प्रक्रिया कही जा सकती है। भारत में वैश्वीकरण के प्रक्रिया की आधिकारिक शुरुआत 1990 के दशक से मानी जाती है, जब भारत सरकार ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया को अपनी अर्थव्यवस्था के आधारभूत ढाँचे में अपनाना शुरू कर दिया। 1995 में विश्व व्यापार संगठन’ की स्थापना ने इस प्रक्रिया को और गति प्रदान की। वैश्वीकरण के चलते विश्व के तमाम देशों की अर्थव्यवस्था एक-दूसरे से जुड़ती चली गईं और इस तरह की व्यापारिक निर्भरता ने उनके आपसी व्यापार के लिए एक अलग आयाम स्थापित किए। डेविड हेल्ड इसको परस्पर निर्भरता के रूप में परिभाषित करते हैं, क्योंकि वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने दुनिया को सामाजिक और आर्थिक संबंधों में बाँध दिया है। भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन वैश्वीकरण को ऐतिहासिक प्रक्रिया मानते हुए कहते हैं कि यह अनिवार्य रूप से पश्चिमी नहीं है। साथ ही उन्होंने इसमें सुधार की जरूरत पर बल दिया है। वहीं जगदीश भगवती मुक्त व्यापार के समर्थक हैं, इनका मानना है कि मुक्त व्यापार ने अर्थव्यवस्था के विकास में व्यापक रूप से मदद की है। वैश्वीकरण से चीन और भारत जैसे कई विकासशील देशों ने फायदा उठाया है तो वहीं अफ्रीका के अल्पविकसित देशों को खामियाजा भी भुगतना पड़ा है।


प्रश्न यह है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया में आज हम जिस स्थिति में हैं, क्या हम वहाँ  से अपनी दूसरों पर से निर्भरता को कम कर सकते है? अगर हाँ, तो कैसे? और इसकी प्रक्रिया क्या होगी? आज जब हम वैश्विक उत्पादों से इतने जुड़ चुके हैं कि इनके बिना जीवन की कल्पना करना ही कठिन है। तब इन सारी जटिलताओं को समझने के लिए हमें अपने अतीत की व्यवस्था की ओर झाँकना होगा। किसी भी व्यवस्था को समझने और चलाने के लिए उस व्यवस्था के विस्तृत आयामों के अध्ययन और विश्लेषण की जरुरत पड़ती है। जिसको समझे बगैर हम आगे नहीं बढ़ सकते। प्रसिद्ध मानवशास्त्री रोबर्ट रेडफिल्ड ने मैक्सिको के टोपोजालान’ गाँव का अध्ययन कर गाँव को लघु समुदाय की संज्ञा दी थी। उन्होंने इसकी चार विशेषताओं जिसमें विशिष्टता (Distinctiveness), लघुता (Smallness), समरूपता (Homogeneity) तथा आत्मनिर्भरता(Self-Sufficiency) को व्याख्यित किया था। चार्ल्स मेटकाफ ने भारतीय गाँव को आत्मनिर्भर मानते हुए इसे ग्रामीण गणतंत्र’ (Village Republic)की संज्ञा दी। उनका मानना है कि ग्रामीण समुदाय एक छोटा गणतंत्र हैं, यहाँ लगभग सभी वस्तुएँ उनके पास होती हैं, जिनकी उन्हें आवश्यकता है और वे किसी भी तरह के बाहरी सम्बन्ध से प्रायः स्वतंत्र होते हैं। मेटकाफ के अनुसार भारत का प्रत्येक गाँव अपनी जीविका के लिए आवश्यक वस्तुओं जैसे गेहूँ, धान, सरसों, मसाला और यहाँ तक कि नमक का भी स्वयं उत्पादन कर लेता है। इस तरह उसे किसी दूसरे गाँव पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में यह विचार गैर भारतीयों द्वारा दिया गया था। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। धार्मिक कर्मकांडो और वैवाहिक सम्बन्धों के आधार पर एक गाँव की निर्भरता दूसरे गाँव पर बनी रहती है। अगर हम इसे भारतीय समाजशास्त्रियों की दृष्टि से देखें तो बी। आर। चौहान का राजस्थान के सदड़ी’ गाँव के अध्ययन में केवल दो विशेषताएँ सामने आती हैं: विशिष्टता और लघुता। डी। एन। मजुमदार का मुहाना’ गाँव तथा एस। सी। दुबे का शमीरपेट’ गाँव का अध्ययन भी यही दर्शाता है कि इन गाँवों में पूर्ण रूप में आत्मनिर्भरता नहीं पायी जाती।


आर्थिक दृष्टिकोण के आधार पर भारतीय समाज का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि भारतीय कृषि जीवन जीने की एक विधि मानी जाती थी। लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था फैक्ट्रियों और कारखानों की जरूरतों को पूरा करने की दृष्टि से उसकी भूमिकाजीविका के लिए कृषि’ से बदलकर बाजार के लिए कृषि’ पर टिक गई। ग्रामीण क्षेत्र फैक्ट्री और कारखानों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराने के स्रोत बन गए। जो वस्तुएँ पहले ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से तैयार हो जाया करती थीं, उसके उत्पादन की जिम्मेदारी इन कल-कारखानों ने ले ली। फलस्वरूप रोजमर्रा की आवश्यक चीजों के लिए ग्रामीण कारखानों के केंद्र शहरों पर निर्भर रहने लगे। ब्रेड बटर से लेकर टूथब्रश, पेस्ट, साबुन तथा कपड़ों के लिए एक बड़ी आबादी शहरों पर निर्भर हो गयी। आत्मनिर्भर ग्रामीण क्षेत्र की पराश्रितता शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों पर बढ़ने लगीं। यातायात और संचार विस्तार के साधनों ने उनकी एक दूसरे पर पारस्परिक निर्भरता को और भी बढ़ा दिया। एक सामान्य-सा लगने वाला ग्रामीण जीवन सम्बन्धों की जटिलता में तब्दील होने लगा। बढ़ते शहरीकरण और उसके विस्तार ने मानव संबंधों को और भी जटिल बना दिया। श्रम विभाजन के फलस्वरूप कार्यों के  विशेषीकरण’ के चलते उनकी पारस्परिक निर्भरता इतनी बढ़ गई कि वे एक दूसरे के बगैर जीवन की कल्पना नहीं कर सकते थे। इस प्रकार के समाज को प्रसिद्ध समाजशास्त्री और मानवशास्त्री एमिल दुर्खिम सावयवी समाज’ (Organic Society) की संज्ञा देते हैं। इस समाज के लोगों की एक-दूसरे पर निर्भरता इतनी ज्यादा बढ़ गई कि एक के बिना दूसरे का जीवन चलना लगभग असंभव होने लगा। उदहारण के तौर पर अगर फैक्टरी से आज नमक, ब्रेड, बटर, टूथपेस्ट, दवाई, कपड़ा, गाड़ी, मोटर, फ्रीज़, कूलर, ए। सी। इत्यादि का उत्पादन बंद हो जाए तो उस पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर लोगों का जीवन काफी संकट में आ जायेगा। चूँकि ये वस्तुएँ ग्रामीण क्षेत्रों में पैदा नहीं होतीं। श्रम विभाजनके आधार पर विशेषीकरण (स्पेशलाइजेशन)के इस दौर में लोगों की एक दूसरे पर परस्पर निर्भरता ने, आत्मनिर्भरता के महत्व को काफी कम कर दिया है।


 भारतीय अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में देखें तो सरकारों ने समय-समय पर देश की आत्मनिर्भरता के लिए प्रयास किया है। देश की पहली पंचवर्षीय योजना से ही आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को हासिल करने का प्रयास किया जाने लगा था। प्रथम पंचवर्षीय योजना में यह घोषणा की गई थी कि देश विभाजन के बाद उत्पन्न हुई परिस्थितियों के फलस्वरूप शरणार्थियों की सुरक्षा हेतु पुनर्वासयोजना पर जोर दिया गया। साथ ही खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की बात भी की गयी। इसके बादतृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-66) ने  आत्मनिर्भर एवं स्वयं – स्फूर्ति अर्थव्यवस्था की स्थापना का लक्ष्य रखा। इस योजना के दौरान ही सन 1962 में चीन तथा 1965 में पाकिस्तान युद्ध के कारण उत्पन्न हुई स्थिति, फिरदो साल लगातार भीषण सूखा पड़ने, मुद्रा का अवमूल्यन होने, कीमतों में हुई वृद्धिके कारण चौथी योजना’ को अंतिम रूप देने में देरी हुई। इसे ध्यान में रखते हुए 1966 से 1969 तक तीन वार्षिक योजनाएँ बनायी गईं जिन्हें योजना अवकाश’ (Plan Holiday) कहा गया। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969-1974)में भी प्रमुख रूप से आर्थिक विकास तथाआत्मनिर्भरता की अधिकाधिक प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित किया गया।


25 सितम्बर 2014 कोशुरू हुआ मेक इन इंडिया’ मिशन भी आत्मनिर्भरता के क्षेत्र में एक कदम था। यह मिशन अब तक कोई बड़ा आयाम स्थापित नहीं कर पाया था कि पुनः एक नया मिशन देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में 'आत्मनिर्भर भारत मिशन'नाम से घोषित हो गया। इस मिशन के तहत इकॉनमी, इन्फ्रास्ट्रक्चर, डेमोग्राफी, डेमोक्रेसी और सप्लाई चेन नामक पाँच स्तम्भों के कन्धों पर आत्मनिर्भर भारत की इमारत खड़ी करने की कवायद की गई है। इसका पहला स्तंभ इकॉनमी है जो इन्क्रीमेंटल चेंज (वृद्धिशील परिवर्तन) नहीं बल्कि क्वांटम जंप (बड़ी उछाल) पर आधारित होगी। दूसरा स्तंभ इन्फ्रास्ट्रक्चर अर्थात बुनियादी ढाँचा पर आधारित है जो आधुनिक भारत की एक नई पहचान स्थापित करेगी। तीसरे स्तंभ के रूप में देश की 130 करोड़ की आबादी है जिसकी महत्वपूर्ण भूमिकायें भारत के निर्माण में होगी। चौथा स्तंभ हमारी डेमोग्राफी है। दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी के रूप में में डेमोग्राफी डिविडेंड हमारी सबसे बड़ी ताकत है। पाँचवा स्तम्भ हमारी अर्थव्यस्था में डिमांड और सप्लाई चेन की जो ताकत है, उसे पूरी क्षमता से इस्तेमाल किए जाने की जरूरत है।


1991 में आर्थिक सुधार को अपनाकर भारत सरकार ने अपनी अर्थव्यवस्था में कई सुधार किये। तथा उसमें आने वाली बाधाओं को समाप्त कर अर्थव्यवस्था को विश्व के लिए खोल दिया। अर्थव्यवस्था में यह सुधार अपने तीन प्रमुख अवयवों को समेटा है-वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण। इसके उद्देश्यों में अर्थव्यवस्था के विकास की दर को बढ़ाना, अतीत में प्राप्त लाभों का समायोजन करना तथा उत्पादन इकाइयों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता को बढ़ाना प्रमुख रहे हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कई प्रमुख परिवर्तन किये गए, जैसे– लाइसेंस व्यवस्था की समाप्ति, निजी निवेश के लिए एम। एन। सी। को प्रोत्साहन, विदेशी विनिमय पर लगी रुकावटों को समाप्त करना, कीमत तथा वितरण संबंधी सारी रुकावटों को हटाना और एम। आर। टी। पी। अधिनियम को समाप्त करना आदि। इस तरह इस आर्थिक नीति को पुरानी आर्थिक नीति के यू-टर्न की संज्ञा दी जा सकती है। अब इस व्यवस्था में सभी व्यक्तियों को अपनी आवश्यकतानुसार निजी आर्थिक निर्णय लेने की आजादी प्राप्त हो गई। वैश्वीकरण के तहत देशों के बीच व्याप्त आर्थिक दूरियाँ धीरे-धीरे कम होने लगीं और आवागमन की सभी तरह की रुकावटें समाप्त हो गईं।


तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार ने इसे एक अवसर के रूप में भुनाने का कार्य किया। भारत ने अपनी विदेश नीति, आर्थिक नीति में काफी बदलाव किए। विदेशी विनिवेश को बढ़ावा दिया गया जिसके फलस्वरूप विदेशी कम्पनिओं ने अपनी संस्थाएँ और उद्योग स्थापित किये। यहाँ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना पैर पसारने का सुनहरा अवसर प्रदान किया गया। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के चलते धीरे-धीरे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों अपनी गुणवत्ता और ब्रांड के नाम पर भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रमुख स्थान बना लीं। अपनी तकीनीकी क्षमता और कुशलता के चलते इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भारतीय कंपनियों के सामने विकट समस्याएँ उत्पन्न कर दीं। अपनी गुणवत्ता और बाज़ार विज्ञापन के द्वारा इन उत्पादों ने यहाँ के लोगों में इसे स्वीकारने की रुचि पैदा की। फलतः लोगों का ध्यान और निर्भरता इन वस्तुओं के प्रति बढ़ती चली गई। यहाँ यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विदेश कंपनियों को भारत जैसा वृहत बाज़ार उपलब्ध होने के कारण भारत के लोगों की स्वयं की वस्तुओं के प्रति आकर्षण में कमी आई। हमारी पंचवर्षीय योजनाओं में आत्मनिर्भरता’ की प्रस्थिति को हासिल करने का जो लक्ष्य निर्धारित किया जाता रहा है, उससे हम काफी दूर होते चले गए। वैश्वीकरण के इस दौर में सरकारों ने यह स्वीकार कर लिया था कि विश्व की अर्थव्यवस्था से जुड़े बगैर अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में टिके रहना मुश्किल है। भारतीय अर्थव्यवस्था का पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था से जुड़ने के साथ ही उनसे प्रतिस्पर्धा का दौर शुरू हो गया। यह तर्क दिया गया कि पूँजीवादी देश अपनी निजी संस्थाओं के माध्यम से विश्व में आर्थिक उपनिवेश को बढ़ावा दे रहे हैं। अतः इस तरह की प्रतिस्पर्धा का सामना सार्वजनिक उत्पादन क्षेत्र वैश्विक उत्पादन में बढ़ती गुणवत्ता की माँग को पूरा नहीं कर पायेगा, इसलिए उसका निजीकरण करना आवश्यक है। धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था निजीकरण की तरफ अग्रसर होने लगी। सरकारें भी विनिवेश के माध्यम से धन अर्जित करने में रुचि लेने लगीं। तब से लेकर आज तक लगभग सभी सरकारें सार्वजनिक संस्थानों को बेचने पर लगी हुईं हैं। निजीकरण ने भारतीय समाज में और ज्यादा आय असमानता की खाई पैदा कर दी है। एक तरफ भारत से एक कल्याणकारी राज्य के रूप में ज्यादा से ज्यादा लोगों के लाभ और कल्याण हेतु कार्य करने की अपेक्षा की जाती है। इसके लिए यह आवश्यक है कि देश में अधिक से अधिक सरकारी सार्वजनिक संस्थान खोले जाएँ तथा संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण किया जाए। निजीकरण पर अंकुश लगाया जाय, क्योंकि निजी संस्थान बगैर लाभ के कोई कार्य नहीं करता।


आज देश जब कोरोना महामारी (Covid-19) के चलते काफी विकट परिस्थिति का सामना कर रहा है, ऐसे में निजी संस्थान स्वयं को सार्वजनिक हितों से दूर होकर लॉक-डाउन कर चुके हैं। देश को सँभालने और आवश्यक सुविधाओं के संचालन हेतु केवल सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी ही इन कार्यों में लगे हुए हैं। सरकार की अदूरदर्शिता के कारण सीमित होते इन सार्वजनिक क्षेत्रों को निजीकरण से बचाये रखने हेतु कोई नीति नहीं बनाई जा सकी है। आज अगर सरकार यह कहती है कि हमारे पास सीमित संसाधन हैं तो सर्वप्रथम उसे अपने सार्वजनिक संस्थानों को निजीगत हाथों में बेचने से रोकना होगा। इतना ही नहीं बल्कि उसे और भी संस्थानों का राष्ट्रीयकरण करना होगा, जैसे - इंदिरा गाँधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। हमारी आत्मनिर्भरता का मूल मंत्र इसी राष्ट्रीयकरण पर आधारित होना चाहिए।


दूसरी तरफ अपनी आर्थिक नीतियों में देश हित को ध्यान में रखते हुए उसमें बदलाव किये जाने की जरुरत है। विश्व व्यापार संगठन (WTO) की नीतियाँ हमारी संप्रभुता को नुकसान पहुँचा रही हैं। इसकी नीतियाँ विकसित देशों के लाभ को देखते हुए निर्धारित की जाती हैं। अमेरिका समय-समय पर उस पर अपने हित को साधने के लिए दबाव डालता रहता है। अभी हाल में ही अमेरिका ने भारत को विकासशील देशों की श्रेणी’ से हटाने की कवायद की है। अमेरिका का मानना है WTO ने कई देशों को विकासशील देश होने का दावा करने का अवसर प्रदान किया है, जबकि ये देश पर्याप्त आर्थिक विकास कर चुके हैं तथा विकासशील देशों की स्थिति से ऊपर उठ चुके हैं। विकासशील देश का आशय उन देशों से है जो अपने आर्थिक विकास के प्रथम चरण से गुज़र रहे हैं तथा जहाँ के लोगों की प्रति व्यक्ति आय विकसित देशों की अपेक्षा काफी कम है। इन देशों में जनसंख्या काफी अधिक होती है जिसके कारण इन्हें गरीबी और बेरोज़गारी जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अंतर्गत विकासशील सदस्य देशों को WTO द्वारा मंज़ूर विभिन्न बहुपक्षीय व्यापार समझौतों की प्रतिबद्धताओं जैसे आयात-निर्यात शुल्क और सब्सिडी से अस्थायी छूट प्राप्त करने की अनुमति होती है। उनका मानना है कि भारत खाद्य सुरक्षा का तर्क देते हुए भारतीय किसानों को भारी मात्रा में सब्सिडी देता है। साथ ही स्थानीय उत्पादकों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से संरक्षणवादी नीति जैसे आयात शुल्क का भी प्रयोग करता है। भारत में सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य ही सरकारी अनाज के खरीद का आधार है। अगर इस आधार को ही डब्ल्यूटीओ ने ध्वस्त कर दिया तो न केवल किसानों के हितों को चोट पहुँचेगी, बल्कि खाद्य सुरक्षाके भविष्य पर भी संकट आ जाएगा। इसी प्रकार डब्ल्यूटीओ का कृषि समझौता खाद्य सुरक्षा नीति के विरुद्ध होने के साथ ही देश की नीति-निर्धारण की संप्रभुता में भी हस्तक्षेप है।


आज जब हमारी निर्भरता विश्व बाजारों पर ज्यादा है, इकॉनोमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वैश्विक रैंकिंग में भारतीय अर्थव्यवस्था पाँचवें स्थान से फिसलकर सातवें नंबर पर आ गई है। वित्त वर्ष 2018 के लिए जारी विश्व बैंक के आँकड़े भी यहीं बताते हैं कि जीडीपी के मामले में भारत सातवें नंबर पर रहा है। इस सूची में ब्रिटेन और फ्रांस पांचवें और छठे स्थान पर पहुँच गए हैं। हालाँकि आर्थिक सर्वेक्षण 2020में बताया गया है कि अप्रैल-सितंबर 2019 के दौरान सेवा क्षेत्र ने कुल एफडीआई इक्विटी में कुल  33 प्रतिशत की बढ़त हुई है। इसकी वजह सूचना तथा प्रसारण, विमान परिवहन, दूर-संचार, परामर्श सेवाओं तथा होटल और पर्यटन जैसे उप-क्षेत्रों में एफडीआई निवेश है। अभी हाल ही में रक्षा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को 49 प्रतिशत से बढाकर 74 प्रतिशत किया जा रहा है। कोयला क्षेत्र पर से भी सरकार अपने एकाधिकार को कम कर निजीगत हाथों में सौंपने का विचार कर रही है। क्या यही हमारा आपदा को अवसर’ में बदलने का मूल मंत्र है? एक तरफ हम रोजगार सृजन की हकीकत से काफी दूर होते जा रहे हैं और तो वहीं दूसरी तरफ सभी सार्जनिक उपक्रमों का निजीकरण करना उसे और भी हतोत्साहित करने का प्रयास साबित हो सकता है। इस प्रकार का विदेशी निवेश कितना हमें आत्मनिर्भर बनायेगा यह कहना बहुत मुश्किल है क्योंकि यह विषय देश की सुरक्षा और संप्रभुता से भी जुड़े हैं। यही स्थिति रही तो धीरे-धीरे सभी उपक्रम सरकार के नियंत्रण से बाहर चले जायेंगे और हमारी निर्भरता विदेशी निवेशकों पर ज्यादा हो जाएगी। यह सोचने का विषय है कि इस तरह तमाम भारतीय सार्वजनिक संस्थाओं में बढ़ती विदेशी हिस्सेदारी हमारी आत्मनिर्भरता को किस रूप में निर्धारित कर रही है? दूसरी तरफ हम विदेशी उत्पादों के इस्तेमाल के इतने ज्यादे अनुकूलित हो गए हैं कि उसे आसानी से त्यागने में बहुत ज्यादा दिक्कतें आयेंगी। क्या हम विदेशी ब्रांड की वस्तुओं का इस्तेमाल करना बंद कर देंगे, यह संभव नहीं है। लेकिन यह जरूर हो सकता है कि उसके इस्तेमाल को कम कर दें। आज स्वदेशी वस्तुओं की हालत और भी ख़राब है। आज जरूरत है उसके पुनर्जीवीकरण की जिसमें उसका अवसंरचनात्मक आधुनिकीकरण करना भी सम्मिलित है।


किसान अर्थव्यवस्था की धुरी है, उसके संरक्षण हेतु सरकार को ठोस कदम उठाने की जरुरत है। आज  लोकल के लिए वोकल’ होने की बात कही जा रही है। ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि इस स्थिति में किसानों की पहाड़ जैसी दिक्कतों के समाधान के लिए सरकार के पास कौन-सी योजना है ? यह बात भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इतना तो जरूर है कि किसान से लेकर श्रमिकों की सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा हेतु एक सही रणनीति की जरुरत होगी। कृषि उत्पादों की सुरक्षा तथा उसकी खरीद के लिए उचित मूल्य का निर्धारण तथा भण्डारण की योजना को विस्तार देना होगा। इन सभी उपायों के साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली को और भी ज्यादा कारगर और सशक्त बनाया जाय। हमें कृषि में आत्मनिर्भरता’ को जमीनी स्तर पर प्राप्त करने हेतु स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करना होगा। इस रिपोर्ट के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान इस प्रकार हैंकृषि को राज्यों की सूची के बजाय समवर्ती सूची में लाया जाए ताकि केंद्र व राज्य दोनों के समन्वय से किसानों की मदद हो सके। दूसरा कि किसानों को अच्छी क्वालिटी का बीज कम से कम दाम पर मिले और उन्हें फसल की लागत का पचास प्रतिशत ज़्यादा दाम मिले। अन्य सुझावों मेंसभी गाँवों में किसानों की मदद और जागरूकता के लिए विलेज नॉलेज सेंटर’ या ज्ञान-चौपाल’ की स्थापना की जाए। इसके अलावा महिला किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड की व्यवस्था की जाए तथा किसानों के लिए कृषि जोखिम फंड बनाया जाये ताकि प्राकृतिक आपदाओं में किसानों को मदद मिल सके।


साथ ही स्थानीय स्तर पर पंचायतों को और भी सशक्त और जबाबदेह बनाया जाये क्योंकि उसी संस्था के माध्यम से स्थानीय नेतृत्व को मजबूत बनाया जा सकता है। मनरेगा जैसे रोजगारपरक उपायों को ज्यादा महत्व देने के साथ ही उसमें पारदर्शिता और सामाजिक ऑडिट के तहत मूल्यांकन ही बेहद जरुरी है। जिससे इसका पूरा लाभ जरूरतमंदों को प्राप्त हो सके। स्थानीय सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों को भी पुनर्जीवित करने की जरूरत है। इनमें  आपार क्षमता होते हुए भी ये उद्योग सीमित धन और संसाधन के चलते ज्यादा प्रभावी नहीं हो पाते। कोरोना महामारी (Covid-19) ने हमें यह भी सीख दी है कि चिकित्सा के क्षेत्र में अभी बहुत कार्य करना बाकी है। आज हमारे पास इस महामारी से बचने हेतु साधन बहुत ही कम हैं। यूँ कहा जाये कि हमारे पास स्वास्थ्यगत आधारभूत ढाँचा का काफी अभाव है। यह शायद इसलिए भी है कि अधिकतर सरकारों ने इस तरफ ज्यादा ध्यान ही नहींदिया। भारत जैसे देश में केवल चुनाव के दौरान ही आम आदमी के जीवन से जुड़े मुद्दे जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार शब्द सुनाई पड़ते हैं। जब तक हम अपनी आबादी को स्वास्थ्य की दृष्टि से जरुरी बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करा पाते हमें एक जिम्मेदार नागरिक या सरकार कहलाने का हक़ नहीं है। हमें अपनी जीडीपी का 6 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करना होगा जो कि वैश्विक स्तर पर निर्धारित मानदंड है। लेकिन अफ़सोस कि वर्तमान में हम जीडीपी का केवल 1.5 प्रतिशत ही खर्च कर रहे हैं जिसे 2025 तक 2.5 प्रतिशत करने का अनुमान है।


दूसरी तरफ भारतीय अर्थव्यवस्था पर नज़र रखने वाली संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी’ ने अपने ताजा आकलन में बताया है कि लॉक डाउन के चलते बेरोजगारी की दर काफी बढ़ गई है। 2019-20 के दौरान कुल औसत रोजगार 40.4 करोड़ था जो अप्रैल 2020 में गिरकर 28.2 करोड़ रह गया अर्थात 12.2 करोड़ रोजगार घट गया है। इंडियन चाटर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ़ इंडिया ने माना है कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और प्रवासी मजदूरों को मनरेगा की तर्ज पर स्थानीय स्तर पर जॉब क्रिएट करना होगा। इससे इकॉनमी मजबूत होगी, डिमांड बढ़ेगा, प्रोडक्टिविटी बढ़ेगी और रोजगार के अवसर पैदा होंगे।


किसान और श्रमिक ही देश की आत्मनिर्भरता की धुरी हैं जिनके परिश्रम के बगैर यह शब्द केवल एक संकल्पना मात्र बनकर रह जाएगा। ऐसा नहीं है कि अर्थव्यवस्था की दृष्टि से भारत में आत्मनिर्भरता’ शब्द का पहली बार इस्तेमाल हो रहा है, लेकिन हर बार की तरह लोकल’ को निम्नस्तरीय या महत्वहीन समझकर इसकी अनदेखी करना एक गंभीर अपराध होगा। हमें अपने संसाधनों को संरक्षित कर उसे आधुनिक और सक्षम बनाने की जरूरत है न कि बेकार समझकर उसे निजी हाथों में सौपने की। इन्दिरा गाँधी ने कहा था कि एक राष्ट्र की शक्ति उसकी आत्मनिर्भरता में है, दूसरों से उधार लेकर काम चलाने में नहीं। हमें अपने निजी स्वार्थगत लाभ को त्यागना होगा। कहीं ऐसा न हो कि अपने इन संसाधनों को बेचने के क्रम में हम इतने अन्धे हों जाएँ कि एक दिन राष्ट्रीय संपत्ति के नाम पर हमारे पास कुछ न बचे। आत्मनिर्भरता से ही मनुष्य की प्रगति सम्भव है। आत्मनिर्भरता की स्थिति को प्राप्त करने की दिशा में हमें हमारे संसाधनों पर निर्भरता जरूरी है, लेकिन उससे भी जरूरी है उन संसाधनों का बचे रहना।



घनश्याम कुशवाहा
सहायक प्रोफेसर-समाजशास्त्र
पं.दी.द.ऊ.राजकीय बालिका महाविद्यालय सेवापुरी, वाराणसी

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