कहानी: मय्यत के फूल- डॉ. आयशा आरफ़ीन
चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल |
“साहब,
फूल ले लो” ।
साहब मुस्कुराए और रफ्ता
से मोटर का शीशा ऊपर चढ़ा लिया।
साहब लगभग ६० साल की उम्र
के रहे होंगे। आँखों में मोटा सा चश्मा। चश्मे के अन्दर आँखों में तैरता पानी साफ़
नज़र आता था। अक्सर वो सूट बूट में टाई के साथ होते थे, उस दिन भी थे ।
उनके गंभीर चेहरे के पीछे एक सूनापन, एक ख़ला का एहसास
होता था। गुफ्तगू में ठहराव और तर्जुबे की झलक। मुस्कराहट में थकन और उदासी। साहब का मशगला क्या था, ये हमें नहीं
मालूम। मगर उनकी मोटर रोज़ इसी सड़क से गुज़रती थी। वक़्त- यही कोई दिन के १० बजे।
सामने एक नौजवान ड्राईवर सफ़ेद लिबास में मलबूस होता और उसके सर पर सफ़ेद टोपी होती
थी।
ड्राईवर जब उनके यहाँ आया
था तब १७-१८ साल का नौजवान लड़का हुआ करता था। उसे सिर्फ ड्राइवरी आती थी सो साहब
ने उस के मुताल्लिक़ कुछ न जानते हुए भी महज़ अपने माली के कहने पर अपने यहाँ उसे
ड्राईवर रख लिया था। साहब ने उसके लिए एक क्वार्टर का भी बन्दोबस्त कर दिया था। वो
अपना काम ख़त्म कर अपने क्वार्टर में तन्हा रहता था, ना किसी से मिलता
था, ना ही कहीं और जाता था। दरअसल वह घर से भाग आया
था जब मोहल्ले की एक तेरह साल की लड़की चल बसी थी।
साहब और ड्राईवर के
दरमियान सिर्फ ज़रूरत पड़ने पर बात होती थी। साहब ज्यादातर गुमसुम और उदास ही रहते
थे, मगर फिर भी ड्राईवर कुछ सहमा सा ही नज़र आता था
या फिर ये भी हो सकता है कि वो उनका एहतराम करता हो इसलिए मोअद्दब ही रहता था।
हमेशा की तरह,
दूसरे दिन फिर मोटर चौराहे पर रुकी, लड़की फिर दौड़ी
चली आई और बोली, “साहब फूल ले लो”। साहब ने शीशा
नीचे किया। लड़की बिना रुके बोलती चली गयी, “साहब,
लिली, गुलाब,
ट्यूलिप, ग्लेडियोलस,
डैफोडिल, कारनेशन,
क्रुसान्थेमम (गुल-ए-दाऊदी), आर्किड...
गुल-ए-दाऊदी मौत की सच्चाई याद दिलाने के लिए, गहरा लाल सदमे का
साथी...”
उसने अभी इतना ही बोला था
कि हरी बत्ती हो गयी, साहब मुस्कुराए, और मोटर चल पड़ी।।
अगले दिन फिर यही वाक़ेया
हुआ। लड़की बताने लगी, “साहब,
आर्किड, ग्लेडियोलस,
तुलिप, रोज़मेरी,
सूरजमुखी और...”
वो बस इतना ही बोल पाई थी
कि फिर से हरी बत्ती हो गयी, साहब एक बार और
मुस्कुराए, और मोटर अपनी मंज़िल की ओर गामज़न हो गयी।
अगले दिन वही लडकी दौड़ कर
आई और बोली, “साहब फूल ले लो ना!”
इस बार साहब ने अज़ रहे
तकल्लुफ़ पूछा, “कितने के हैं?”
लड़की ने कहा, “आपके लिए मुफ्त
है” । साहब
हैरान हुए, दोनों अब्रुओं को इकठ्ठा किया जैसे कुछ पूछना
चाहते हों, मगर फिर बिना कुछ पूछे उसी पुर असरार मुस्कराहट
के साथ अपनी मंज़िल की तरफ़ रवाना हो गए ।
अगले दिन साहब ने पूछा,
“कहाँ रहती हो?”
लड़की बोली,
“आप ये फूल ले लो, ठिकाना भी हो ही
जाएगा।”
लड़की अगले दिन फिर बोली,
“साहब बड़ी मेहनत से ये फूल लाती हूँ, ले लीजिये”
। साहब बोले, “मुफ्त में दोगी
तो तुम्हें क्या हासिल होगा? लड़की बोली,
“साहब, सुकून”
।
अगले दिन साहब ने पूछा,
“तुम्हारी उम्र क्या होगी?” लड़की ने कहा,
“यही कोई १२-१३ साल” । साहब बोले,
“मगर छोटी लगती हो” । लड़की कुछ न
बोली, फिर अचानक बोल उठी, “साहब ये फूल...”
लड़की की उम्र १३ साल थी
मगर जिस्म में जान नहीं थी। क़द ठिंगना था और आँखें छोटी, जो धूप में लगभग
बन्द मालूम होती थीं। चपटी नाक और बाल सुनहरे थे। ढीली सी शलवार क़मीज़ पर मटमैले
रंग की शाल ओढ़े ऐसी लगती मानो टाट ओढ़ रखा हो। चेहरा बे रौनक़ था अलबत्ता संजीदगी का
रंग गाढ़ा था ।
मोटर अगले दिन जब रुकी तो
साहब ने लड़की से कहा, “मैं घर में तन्हा ही होता
हूँ, फूल ले भी जाऊं तो किसके लिए?”
लड़की ने कहा, “आप बस ले जाइये,
घर भी आबाद हो जाएगा” ।
साहब की बीवी लगभग बीस
साल क़ब्ल उनसे अल्हैदा रहने लगी थी। अभी एक साल पहले उनका इंतक़ाल हो गया था। उनकी
वफ़ात की खबर साहब को कुछ ३ दिन बाद हुई। वो ताज़ियत के लिए भी न जा सके और ग़म ग़लत
करने वो जाते भी किसके पास? बीवी भी अकेले ही
रहा करती थी। दोनों का मिज़ाज एक जैसा था। दोनों को अपनी ज़िन्दगी में किसी का भी
दखल पसंद नहीं था। दोनों ने अना की वजह से बात करने में पहल न की। दोनों ने खुद को
काम में इतना मसरुफ़ कर लिया कि वक़्त फिसलता गया और उनको इसकी खबर भी न हुई और जब
एहसास हुआ तब तन्हाई उनकी ज़िन्दगी का मुक़द्दर बन चुकी थी । दोनों के मिज़ाज में
बुनयादी फर्क़ ये था कि साहब मामूल के पाबंद थे और उनकी बीवी को किसी भी मामूल का
ग़ुलाम बनना पसन्द न था।
मगर चौराहे की कहानी
ज्यूँ की त्यूं वहीं पर क़ायम थी... साहब की तरह मामूल की बेड़ियों में जकड़ी हुई और
लड़की को अपनी बेड़ियों में महसूर किए हुए। मोटर रुकी।
इस बार साहब ने लड़की से
पूछा, “अच्छा, तुम्हारे पास
काला गुलाब होगा?” लड़की का चेहरा मुरझा गया।
उसने जवाब दिया,
“नहीं साहब” । फिर बोल उठी,
“काला गुलाब आपको क्यूँ चाहिए?”
साहब ने फिर मुस्कुराते
हुए कहा, “बताओ तुम्हारे फूल बाक़ी बच्चों के फूलों से
जुदा क्यूँ हैं? वो सब तो एक तरह के फूल बेच रहे हैं,
मगर तुम...?
लड़की ने आँखें नीची करके
कहा, “साहब वो फूल मुरझा जाएँगे और मेरे फूल आपको
आपके बोझ से आज़ाद कर देंगे” ।
साहब मन ही मन एक गहरी
सांस छोड़ते हुए बोले, “आज़ाद...!”
और फिर अगले ही पल कुछ
गंभीर हो गए मगर बत्ती हरी होने की वजह से साहब मुस्कुराते हुए मंज़िल की तरफ़ रवाना
हो गये ।
अगले दिन लड़की उदास थी।
बड़ी देर से उसे साहब की मोटर नज़र नहीं आई थी। कुछ दिन और ऐसे ही बीत गए। फिर अचानक
लैंप पोस्ट के नीचे बैठी उस लड़की की नज़र साहब की मोटर पर पड़ी,
वो दौड़ती हुई गई और बोली, “साहब ये फूल...”
इस बार साहब ने उसे कह
दिया कि उनको वो फूल नहीं चाहिए। मोटर चल पड़ी और लड़की मोटर के पीछे कुछ देर तक भागती रही और साहब रियर मिरर से उसे
देखते रहे...
अगले दिन लड़की लैंप पोस्ट
के नीचे बैठी थी। मोटर आई। वो उठ खड़ी हुई। उसे लगा साहब इशारे से बुलाकर फूल ले
लेंगे। मगर ऐसा कुछ न हुआ। मोटर चल पड़ी। साहब ने रियर मिरर से देखा,
एक और मोटर आकर लड़की के पास रुकी। लड़की ने मगर फूल नहीं
बेचे और वहां से बिना फूल बेचे निकल गयी।
दूसरे दिन मोटर फिर रुकी
मगर लड़की वहां मौजूद न थी। साहब ने हर तरफ देखा मगर उन्हें लड़की कहीं भी नज़र नहीं
आई। साहब को कुछ बेचैनी सी हुई और मोटर हमेशा की तरह रवाना हो गयी।
उसके अगले दिन भी लड़की का
कहीं अता पता न था। साहब कुछ परेशां से दिखाई दिए। उन्होंने अपना चश्मा निकाला,
सफ़ेद रुमाल जेब से निकाली और पसीना पोंछा। अपनी टाई उनको
फांसी का फंदा मालूम होने लगी थी। उन्होंने टाई को ढीला करते हुए अपने ड्राईवर से
पूछा, “अच्छा, वो लड़की जो हमें
फूल देने आती थी, क्या वो तूम्हें फिर दिखाई दी?”
ड्राईवर ने पूछा,
“साहब, कौनसी लड़की?
यहाँ तो बहुत से बच्चे फूल बेचते हैं”। साहब ने कहा,
“अरे, हमारी मोटर के
पास तो एक ही लड़की आती थी, वही चपटी नाक और
सुनहरे बाल वाली लड़की...” ।
ड्राईवर गहरी सोच में पड़
गया। वो आज हमेशा की तरह खामोश न रह सका। उसने साहब की तरफ पीछे मुड़ कर देखते हुए
कहा, “साहब, हमारा शीशा तो
हमेशा बंद रहता था। हमारी मोटर के पास तो कभी कोई भी फूल बेचने नहीं आया...”।
ड्राईवर ने शाम को घर आ
कर मुंह हाथ धोये, खाने को बैठा मगर आज भूख नहीं लगी उसे,
बस किसी सोच में गुम था। उसने अभी तक किसी को ये नहीं बताया
था कि साल भर से हर रात एक अधेड़ उम्र की औरत की आवाज़ आती है,
वो आवाज़ सिर्फ इतना कहती है, “बहुत हो गया बेटा,
अब घर जाओ” बस इतना ही कहती
और आवाज़ रात की तारीकी में खो जाती है । शुरू शुरू में ड्राईवर डर गया था मगर ये
सिलसिला अब साल भर से रोज़ चलता आ रहा था और कुछ हद तक वो इसका आदि भी हो चुका था।
उस रात साहब के यहाँ एक
अजीब वाक़ेया हुआ, दो साये दो मुख्तलिफ़ हिस्सों से निकल कर एक
दूसरे से मिले और ऐसा मालूम हो रहा था जैसे ये साए पहली बार नहीं मिल रहे हैं
बल्कि जैसे ये उनका रोज़ का मशगला रहा हो, और दूसरी तरफ़
इससे बेखबर दो शख्स नींद के आलम में अपने अपने ख्वाबगाह में लेटे रहे।
दूसरे दिन साहब ड्राईवर
के क्वार्टर में गए और उसकी टेबल पर कारनेशन के फूलों का एक गमला रखा,
साथ में एक पर्ची जिस पर लिखा था, “अब अपने घर लौट
जाओ !”
साहब फिर मोटर की तरफ चल दिए, जब दरवाज़ा खोला तो देखा पीछे की सीट पर जहाँ वो बैठा करते थे, उस पर एक काला गुलाब रखा हुआ है। साहब ने फूल हाथ में लिया और बच्चों की मानिंद रोने लगे।
डॉ. आयशा आरफ़ीन
(जे.एन.यू., नई दिल्ली से समाज शास्त्र में पी.एच.डी.। पहली कहानी “स्कूएर वन” परिकथा पत्रिका में प्रकाशित। )
801, C - ब्लॉक, सुपरटेक, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश- 244001
सम्पर्क: 7452005251, ayesharfeen@gmail.com