आलेख : गोदान:एक संवाद / सचिन मिश्र

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar

                                       'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)  

         आलेख : गोदान:एक संवाद / सचिन मिश्र

    

लाज़िम नहीं, कि खिज्र की हम पैरवी करें

जाना कि इक बुजुर्ग हमें हम-सफर मिले

'ग़ालिब' 

प्रेमचंद 'हंस' पत्रिका में लिखते है "साहित्य उस उद्योग का नाम है, जो आदमी ने आपस के भेद मिटाने और उस मौलिक एकता को व्यक्त करने के लिए किया है, जो इस ज़ाहिरी भेद की तह में, पृथ्वी के उदर में व्याकुल ज्वाला की भाँति , छिपा हुआ है। जब हम मिथ्या विचारों और भावनाओं में पड़कर असलियत से दूर जा पड़ते है, तो साहित्य हमें उस सोते हुए तक पहुँचाता है, जहाँ reality अपने सच्चे रूप में प्रभावित हो रही है"       

                'हंस' के पूर्व प्रेमचंद ने मर्यादा, माधुरी, जागरण  पत्रिकाओं का संपादन किया, उन सभी के साथ उनका साहित्यिक जुड़ाव जगज़ाहिर है, परन्तु 'हंस' के साथ उनका आत्मिक लगाव था। जब वह मृत्युशय्या पर थे, तब भी उनके जेहन में 'हंस' पत्रिका थी। उनके अंतिम दिनों में साथ रहे जैनेन्द्र कुमार लिखते है"चिंता का केंद्र यही था कि हंस कैसे चलेगा?नही चलेगा तो क्या होगा?हंस के लिए तब भी जीने की चाह उनके मन में थी और हंस न जियेगा, यह कल्पना उन्हें असह्य थी, पर हिंदी संसार का अनुभव उन्हें आश्वश्त न करता। "2 प्रेमचन्द्र की मृत्यु के पश्चात कुछ दिन 'हंस' का सम्पादन जैनेन्द्र ने किया, फिर किसी कारणवश पत्रिका बंद हो गई। बाद में 1980 में हंस को राजेन्द्र यादव ने संचालित किया। उन्होंने अपनी मेधा की बदौलत 'हंस' पुनः प्रतिष्ठित किया। राजेन्द्र यादव के पश्चात 'हंस' के संपादक के रूप में उत्तराधिकारी है-संजय सहाय। विगत दिनों फ़ेसबुक पर एक इंटरव्यू के दौरान संजय सहाय ने एक बयान देकर प्रेमचंद पर विवाद खड़ा कर दिया है। उन्होंने कहा है कि प्रेमचंद की 20-25 कहानियों को छोड़ बाक़ी सब कूड़ाहैं। यह कोई पहला मौका नही जब प्रेमचन्द के माध्यम से सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए इस तरह की बयानबाजी की गई है। यह बयानबाज़ी धर्मवीर के 'सामन्तो के मुंशी' कहने का यह अगला पड़ाव है। जहाँ धर्मवीर ने निजी जीवन के प्रसंगों को अपनी मेधा से प्रेमचन्द को उनकी रचना के विचारों से अलगाते हुए सामंती मानसिकता से ग्रसित बता दिया था। सम्भवतः संजय जी यह भूल गए कि गुलेरी जी केवल एक कहानी 'उसने कहा था' की बदौलत आज हिंदी साहित्य में स्थापित है। भुनेश्वर कहानी विधा में 'भेड़िये' की बदौलत जाने जाते है। लेकिन इन रचनाकारों की अन्य रचनाओं को कूड़ा नही कहा जा सकता। एडिसन ने बल्ब बनाया, उसे खूब प्रसिद्धि मिली लेकिन हम उसके पूर्व में किये गए असफल प्रयोगों की तौहीन तो नही कर सकते। इस तरह की परिस्थिति में हमारे लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम प्रेमचन्द के साहित्य को कूड़ा व सामंती विशेषण के बरख्श उन्हें नए संन्दर्भों में परिभाषित करें। जब आज प्रेमचंद पर इतने आक्षेप है, उनमें विसंगतियों की भरमार सी लगा दी गयी हो तो हम उन्हें हमारे समय में क्यों पढ़े?उनके साहित्य का हमारे आज के जीवन, समाज से क्या सरोकार है?क्या, वह हमारे समय की समस्या पर बेहतर तरीके से बात करती है?क्या, उसमें इतना माद्दा है कि वह हमारे समय को बदल सकती है?परन्तु इस सब के बावजूद हमारी समझ इतनी होनी चाहिए कि प्रेमचन्द का साहित्य उत्तम, सर्वोत्तम हो सकता है, लेकिन इतना खराब नही कि वह कूड़ा हो जाये।

             साहित्य एक सतत अनिवार्य प्रक्रिया है जिसमें उसके समय व समाज का सत्य अपने वास्तविक रूप में अभिव्यक्त होता है। इस प्रक्रिया में वह समय व समाज में नए संदर्भ, नए मूल्य, नए विचार जोड़ते हुए व पुरानी बनी-बनाई रूढ़ियों से दो-दो हाँथ करते हुए अपना विकास करती रहती है। साहित्य में उसके समय का सत्य अभिव्यक्त होता है, इसलिए साहित्य की अनिवार्यता के सम्बंध में अरस्तू ने विचार करते हुए कहा था कि- 'काव्य(साहित्य) इतिहास से अधिक दार्शनिक और उच्चतर वस्तु है क्योंकि काव्य सामान्य को अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है और इतिहास विशेष को' इस बात से किसी का इनकार भी नही हो सकता। क्योंकि साहित्य का सीधा सरोकार जनता से जुड़ा होता है। अब यदि हम प्रेमचन्द की कहानी 'ईदगाह' के हामिद को देखें तो वह सामान्य जनता का प्रतिनिधि है न कि इतिहास के किसी विशेष पात्र का। वहीं कहानी में जो मूल समस्या उठाई गई है जैसे-गरीबी, यह जनता की पीड़ा है, जनता का प्रश्न है। इसी संदर्भ में गोर्की भी कहते है दुनिया के लिए सृजनात्मकता का इतिहास बहुत जरूरी है। क्योंकि जब हम आज की गरीबी के तलाश में जाएंगे तो शायद इतिहास में हमें गरीबी प्रमुखता से न दिखे, परन्तु उसी समय के ईदगाह में वह गरीबी और उसका प्रभाव आसानी से दिख सकता है। जब हम प्रेमचन्द के साहित्य में हमारे समय की पड़ताल के लिए जाएं तो हमारे मन, मष्तिष्क में यह बात रहे जो कभी जर्मन आलोचक रोबर्ट वाईमैन ने कहा था- उनका सूत्र था –" Past Significance and Present Meaningfulness - अर्थात् विगत की महत्ता और वर्तमान की अर्थवत्ता। "3 अब इस वाक्य के महत्व को हम अनुवाद से हटकर यदि विश्लेषण की दृष्टि से देखें तो हम इसे एक नए सन्दर्भ में व्याख्यायित कर सकते है कि अतीत हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है;क्योंकि वह हमारे वर्तमान में नवीन अर्थवत्ता भरता रहता है। हम आज जो है उसके प्रक्रिया की तलाश हम अपने अतीत(प्रेमचन्द के साहित्य) में कर सकते है, यही अतीत हमारे वर्तमान (हमारे समय) को नए संदर्भ में व्याख्यायित कर सकता  है। 

       प्रेमचन्द के साहित्य का मूल्यांकन किसी एक फ्रेम को आधार बनाकर नही किया जा सकता है। उनके साहित्य का विविध स्वरूप है, जो आदि से अंत तक एक जैसा नही रहा। उनकी एक रचना में ही विविध स्वरूप दिखाई पड़ता है। वह किसी एक प्रमुख समस्या को लेकर साहित्य सृजन करते है, लेकिन उसके साथ ही अन्य समाज की अन्य समस्याओं के भी सूत्र छोड़ जाते है। जैसे- 'गबनमें प्रेमचन्द ने मध्यवर्ग के यथार्थ जीवन और मनोवृत्तियों का चित्रण किया है। उसके साथ ही देवीदीन के बेटों के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन व रतन के अनमेल विवाह की समस्या को भी गबन में अभिव्यक्त किया है। 

             हमें प्रेमचंद के विचारों और विश्वाशों कि तलाश उनकी रचनाओं में करनी चाहिए। वह रचना जो उनके वैचारिक विश्वाशों की सबसे गहनतम अभिव्यक्ति हो। इस संदर्भ में हम गोदान को एक आधार बनाकर अपने समय की टोह ले सकते है। गोदान को आधार मानने के पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण है-

 

--  यह प्रेमचन्द की अंतिम कृति है।

--   जनमानस में सबसे लोकप्रिय कृति है।

--   आलोचकों का ध्यानाकर्षण सर्वाधिक है।

 

गोदान यदि अंतिम कृति है तो इसमें प्रेमचन्द की समग्र वैचारिकी समाहित है। उसके विचार सहजता से लोगों तक पहुंच जाते है, यह लोकप्रियता का प्रमुख कारण है। गोदान में बाद के आलोचकों के लिए कुछ न कुछ छूट जाता है, इसलिए वह आलोचकों के इल्म में बनी रही। उसपर आजतक वाद-विवाद, पाठ-नए पाठ होते रहे। जिसने हिंदी की वैचारिकी को समृद्ध किया। प्रत्येक व्यक्ति ने अपने समय के अनुसार गोदान परिभाषित किया है। हमें यह इल्म होना चाहिए कि साहित्य मैराथन दौड़ नही कि जहाँ एक व्यक्ति जीतने के लिए भागता है, साहित्य एक रिले रेस की तरह है जहाँ साहित्यकार को अपने साथ दौड़ने वालों के साथ समन्वय बनाकर चलना पड़ता है। इसलिए वह समाज, राजनीति में आई सुस्ती को एक तीव्रता में बदलता है और लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास करता है। इसी रिले रेस के दौरान प्रेमचंद भी अनेक सूत्रों का विकास करते है जिसका विकास हमारे समय तक उपस्थित है। इसी लिए वह समसामयिक है। कलम का सिपाही में अमृत राय प्रेमचंद के सन्दर्भ में कहते हैं, “कोई इसे गुण माने या दोष, सामयिकता मुंशी जी के कृति मन की प्रधान वृत्ति है। मुंशी जी वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान के लिए लिखते हैं। वर्तमान को फलाँग कर भविष्य में नहीं पहुँचा जा सकता। वर्तमान से परांग्मुख होकर कोई कालजयी नहीं हुआ। वर्तमान को छोड़ते ही भविष्य की स्थिति आकाशबेल-सी हो जाती है, जो कभी नहीं फूलती। वर्तमान ही भविष्य का आधार है। उसकी खाद-मिटटी, और भविष्य की वर्तमान की सहज दिशा है, उसका गंतव्य। ”4प्रेमचन्द इसलिए हमारे समय से संपृक्त है क्योंकि उनकी समस्याएं लगभग वही है जो हमारी आज की समस्या है। हम भी अपने भविष्य को प्रेमचन्द जैसे समर्थ रचनाकार के माध्यम से बेहतर निर्मित कर सकते है। वह अपने वर्तमान के लिए जिस तरह का साहित्य रचने के हिमायती है वह उसकी एक कसौटी भी तैयार करते है। उसके सम्बन्ध प्रेमचंद कहते हैं, “हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमे उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो- जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है। ”5 इस बेचैनी, संघर्ष, , गति और न सुलाये देने की क्षमता से परिपूर्ण है-गोदान। 

       गाँधी, अम्बेडकर और दलितप्रश्न-इस संदर्भ को 70 के बाद आये दलित वैचारिकी के दायरे में नही समझा जा सकता। लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि प्रेमचन्द्र दलितों के सवालों को उसी रूप में रखते है जिस तरह दलितों के सवालों को बुद्ध, अश्वघोष, सिद्धों, नाथों, कबीर, रैदास, नानक आदि ने रखा है। वह दलित आंदोलन का हिस्सा नही है, लेकिन उनकी वैचारिकी में यह सवाल चल रहा कि कैसे दलितों को वाज़िब हक़ दिए जाने चाहिए। दलितों के सम्बंध में प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में एक पूरी परम्परा गढ़ी है। उपन्यास के सम्बंध में देंखे तो   रंगभूमि में पहली बार हिंदी उपन्यास में नायक एक दलित है, कर्मभूमि में दलितों के मंदिर-प्रेवश करना प्रमुख मुद्दा है, प्रेमाश्रममें अछूतों से बेगारी व किसानों द्वारा भी उनसे अच्छा व्यवहार न किए जाने का चित्रण हुआ है। कायाकल्पमें भी दलितों द्वारा बेगार करवाए जाने की प्रथा के प्रतिरोध के स्वर मुखरित हुए हैं। कायाकल्पमें प्रेमचंद पहली बार हम चमारों के लिए मजदूर शब्द का प्रयोग देखते हैं। गबन में प्रेमचंद ने देवीदीन खटीक के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन में दलितों के योगदान को रेखांकित किया है। इन उपन्यासों की चेतना से लैस होकर प्रेमचंद गोदान रचते है। हम दलितों के प्रश्न को गोदान के अंदर तलाशेंगे।

 

                 प्रेमचन्द ने 'गोदान' उपन्यास को 1936 में लिखा था। यह वही दौर है जब भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन तथा उसके अगुआ गाँधी राजनैतिक आंदोलनों से हटकर सामाजिक आंदोलनों की ओर रुख करते हैं तथा दूसरी ओर भारतीय राजनीति की मुख्य धारा में भीमराव अम्बेडकर जैसे सामाजिक एक्टिविस्ट का आगमन होता है। महार आंदोलन 1928 में हो चुका था सफलता यह कि दलितों के साथ तमाम प्रगतिशील सवर्ण समाज के लोग जो ऊँच-नीच, छुआछूत के विरोधी तथा समाज में समता को स्वीकारने वाले थे उन्होंने भी इस आंदोलन का भरपूर समर्थन किया। वहीं गाँधी भी हरिजन सेवक संघ की स्थापना 1932 में कर चुके थे। वह भी अपने तरीके से हरिजनों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने का प्रयास करते है। उधर रैम्जे मैकडोनाल्ड भी इसी दौर में साम्प्रदायिक पंचाट का प्रस्ताव रखता है। इस पंचाट के पीछे उसका उद्देश्य था कि दलितों को हिन्दू समाज से बाँटकर अलग कर दिया जाए । इसका गाँधी ने जमकर विरोध किया और स्थित यह कि पहली बार आमरण अनशन पर बैठने को नौबत आ गई। वहीं अम्बेडकर मैकडोनाल्ड के उस पंचाट(जो यह निर्धारित कर रहा था कि दलित एक अलग इकाई के रूप में हो)से सहमत थे। इस सहमति के पीछे मुख्यतः दो प्रमुख कारण थे पहला यह कि अम्बेडकर अपने सामाजिक जीवन के प्रारंभ से ही हिन्दू धर्म व उसमें व्याप्त कुरीतियों, दलितों पर हो रहे अत्याचार का लगातार विरोध करते आ रहे थे। उनका मानना रहा कि दलितों का उत्थान हिन्दू समाज के मध्य सम्भव नही तथा दूसरा यह कि इस पंचाट का मुख्य आधार अम्बेडकर द्वारा दूसरे दशक में  तैयार की गई रिपोर्ट थी। मैकडोनाल्ड का पंचाट तो सफल न हो सका पर उसका परिणाम यह हुआ कि देश मे एक नई बहस छिड़ गई। अंततः गाँधी के राजनैतिक रसूख के चलते अंग्रेज व अम्बेडकर पीछे हट गए। गाँधी-अम्बेडकर में दलितों के मुद्दे पर एक समझौता हुआ वह था - पूना पैक्ट।

 

       इस तरह की राजनैतिक परिस्थिति के मध्य मुंशी प्रेमचन्द गोदान रचते है। इन राजनैतिक परिस्थितियों का प्रभाव गोदान स्वयं में समेटे हुए है;क्योंकि कोई भी रचना अपने समकालीन संदर्भो को संपृक्त किये हुए रहती है, उसमें समकालीन समाज की गूंज सुनाई पड़ती है।   

 

       रचनाकार जिस कृति की निर्मिति करता है वह प्रकाश में आने से पूर्व जितनी उसकी होती है प्रकाश में आने के पश्चात उतनी ही समाज की होती है। गोदान भी इस संदर्भ से अछूती नही है, उसमे भी उसके समय व राजनीति का यथार्थ झांकता है। वह महज झाँकता है नग्नता के साथ नही है। यह प्रेमचन्द की कला है कि सृजनात्मकता इस तरह हो कि वह केवल अपने समय का बयान होकर न रह जाए। उसमें यथार्थ हो वह केवल यथास्थितिवाद होकर न रह जाये, वह हर उस समय का बयान करे जब तक इस तरह की समस्याएं बनी रहे। गोदान में हम होरी के चरित्र को गाँधी सरीखा व गोबर को अम्बेडकर मान सकते है;क्योंकि यही दो प्रमुख है जो उस समय की राजनीति के असल चेहरे थे। इन्ही की बाइनरी से तत्कालीन राजनीति व समाज निर्मित हो रहा था, जो आज के हमारे समय को भी प्रभावित करता है। हम इनकी बाइनरी को गोबर व होरी के माध्यम से समझ सकते है। इस सम्बंध एक प्रसंग है जो दोनों की वैचारिकी को प्रदर्शित करता है। रायसाहब के यहाँ जब होरी गया तो उन्होंने अपने मन की सारी व्यथा होरी को कह सुनाई कि हम ज़मीदार तो है पर हमारे ऊपर तमाम तरह के नैतिक, राजनैतिक दबाव रहते है इसलिए हमें भी मजबूरन असामियों को दबाना पड़ता है। सब मिलाकर लब्बोलुआब यही था कि हम 'नाम बड़े पर दर्शन छोटे'सरीखे है। यह बात होरी अपने घर आकर बताता है कि इस तरह दीन-हीन की तरह रायसाहब मुझसे अपनी पीड़ा कह रहे थे तभी गोबर कहता है"तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नही दे देते!हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार है। करेंगे बदला?यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी। जिसे दुख होता है, वह दर्जनों मोटरें नही रखता, महलों में नही रहता, हलवा पूरी नही खाता और न नाच रंग में लिप्त रहता है। मजे से राज का सुख भोग रहे है उस पर भी दुखी है!"6 उपन्यास में उल्लेखित है कि इसका जवाब होरी झुंझलाहट के साथ देता है कि"अब तुमसे बहस कौन करे भाई!जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वह छोड़ देंगे?हमीं को खेती से क्या मिलता है?...लेकिन खेतों को छोड़ा तो नही जाता। खेती छोड़ दें तो करे क्या?नौकरी कहीं मिलती है?फिर मरजाद भी तो पालन पड़ता है। खेती में जो मरजाद है वह नौकरी में नही। इसी तरह जमींदारों का हाल समझ लो।"7 

     इन दोनों संवादों को देखा जाए और तत्कालीन गाँधी-अम्बेडकर की बहसों को देखा जाए तो हमे यह मानने में कोई गुरेज नही होगा कि वह उस समय की चल रही वैचारिकी से उपजे पात्र है। प्रेमचन्द के ध्यान में तत्कालीन राजनीति जरूर रही होगी जब वह इन संवादों को गढ़ रहे होंगे। यह बात तब और अधिक पुष्ट हो जाती है जब गोबर तमाम प्रगतिगामी चेतना के बावजूद अंततः होरी द्वारा लिखे गए पत्र को पढ़कर वापस अपने गाँव बेलारी चला आता है। क्या अम्बेडकर भी वापस नही आये थे तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद?इसके बाद आगे इतिहास में बहुत कुछ घटित होता है लेकिन तब तक गोदान लिखा जा चुका होता है, प्रेमचन्द आगे नही रहे।

           उधर एक और अन्यत्र प्रसंग है, जब मेहता और मालती जनसेवा हेतु गाँव की ओर जाते है, तो वह बेलारी (होरी का गाँव)पहुँच जाते है। बेलारी शहर की आबोहवा से बिल्कुल दूर अपनी गंवई संवेदना और अपनी पारम्परिक जड़ता में बिंधा हुआ है, जिसे नही पता कि देश मे क्या चल रहा?समाज का ढाँचा किस तरह बदल रहा है?वह बिल्कुल निष्कपटता और निरीहता के साथ महाजनी सभ्यता की व्यवस्था से शोषित हो रहे है। प्रेमचन्द यह प्रदर्शित करते है कि गाँव अभी इतिहास की गति से न चल कर अभी कितना पिछड़ा हुआ है। इन सब स्थितियों को देख मेहता कहते है"काश ये आदमी ज्यादा देवता कम होते ठुकराए न जाते। देश मे कुछ भी हो, क्रांति ही क्यों न आ जाये, इनसे कोई मतलब नही। कोई दल उनके सामने सबल के रूप में आये, उनके सामने सिर झुकाने को तैयार। उनकी निरीहता जड़ता की हद तक पहुंच गई है, जिसे कठोर आघात ही कर्मण्य बना सकता है। उनकी आत्मा जैसे चारो ओर से निराश होकर अब अपने अंदर ही टाँगे तोड़कर बैठ गई है। उनमें अपने जीवन की चेतना ही जैसे लुप्त हो गई है। "8यह संवाद प्रदर्शित करने को काफी है कि प्रेमचन्द युगीन गांव तथाकथित सभ्य बनने की प्रक्रिया में किस स्तर पर है। प्रेमचन्द उस समय का उल्लेख कर रहे है जब इतिहास में मिलता है कि 'महात्मा गांधी ने आम जनता के लिए कांग्रेस के दरवाजे खोल दिये थे। 'इससे पता चलता है कि उस दौर में चल रहे राजनैतिक, सामाजिक आंदोलनों से जनता कितनी दूर थी। देश की क्रांति से उसका कुछ नही होने वाला था। कहने को तो कानून का राज था परंतु वह गांव में नोखेराम सरीखे लोगों के घर तक सिमट गया था। मुझे लगता है कि इस तरह की जो जड़ता, कुण्ठा, पिछड़ी मानसिकता से शोषण की जो परिस्थित उपजी है तथा उनके नाम पर चल रहे विभिन्न आंदोलनों का पर्दाफाश करते है प्रेमचन्द और हथियार है-गोदान। स्थितियाँ आज भी ठीक वैसी ही है पहुँच वाले लोग नोखेराम सरीखे है जहाँ आज भी प्रशाशन के पहुँचते ही अनन्य कारणों से उसकी धार कुंद हो जाती है। आज जब हम प्रेमचन्द के समय से अपने को बहुत आगे देखते है कि अचानक खबर मिलती है-किसी दलित की बारात रोक दी गई, दबंगों ने दलितों के घरों में आग लगा दी, उन्हें पीट दिया। यह घटनाएँ फिर से हमें गोदान के पास ले जाती है, वहीं यह उपन्यास हमें आईना दिखा रहा होता है।

   

        गाँव, शहर और अर्थ(धन)--" महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है, तो इसलिए कि महाजनों, पूँजीपतियों को ज़्यादा से ज़्यादा नफ़ा हो। इस दृष्टि से मानों आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शकित और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने बस में किये हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, ज़रा भी रू-रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाये, खून गिराये और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाय। अधिक दुख की बात तो यह है कि शासक वर्ग के विचार और सिद्धान्त शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं, जिसका फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उसका शरीर है समाज। वह खुद समाज से बिल्कुल अलग है। अगर कोर्इ संबंध है, तो यह कि किसी चाल या युकित से वह समाज का उल्लू बनावे और उससे जितना लाभ उठाया जा सकता हो, उठा ले। "9 यह प्रक्रिया किस तरह से रूपायित हुई उसकी तलाश हम गोदान में कर सकते है।

 

              1990 के वैश्वीकरण ने भारतीय समाज की संरचना को नए मूल्यों से परिभाषित करना प्रारम्भ कर दिया। उसके प्रभाव का मूल्यांकन हम आज कर सकते है। अब सबकुछ आर्थिक लाभ पर आधारित है। हम आज के प्रश्नों को सामने रखें और  प्रेमचंद के 'महाजनी सभ्यता' लेख को तो पाएंगे कुछ खास नही बदला है। जिनकी तरफ प्रेमचंद ने ध्यान दिलाया वह  समस्याएं आज और बिकराल हो गई है। यह प्रक्रिया किस तरह से रूपायित हुई, हम इसकी तलाश गोदान में कर सकते है।

                     गोदान पर एक सवाल उठता रहा है कि, प्रेमचन्द ने इस उपन्यास में शहर की कथा को क्यों जोड़ कर उपन्यास का वितान इतना विराट कर दिया?यह सवाल सबसे पहले जैनेन्द्र ने 'यदि मैं गोदान लिखता'लेख के माध्यम से उठाया था। उनके अनुसार यदि मैं गोदान लिखता तो शहर की कथा को निकाल देता तात्पर्य यह कि यदि उसे निकाल दिया जाए तो कथा और सुदृढ़ हो सकती थी।

       मैं उनके इस तर्क से सहमत नही हूँ। मुझे लगता है कि गाँव के साथ शहर दिखाने के पीछे जो कारण रहा होगा हमे उनकी तलाश करनी चाहिए। यह प्रेमचन्द के अंतिम दिनों का उपन्यास है प्रारम्भिक दिनों का नहीं कि वह अभी उपन्यास कहना या लिखना सीख रहे थे। मेरे हिसाब से इसके दो तीन महत्वपूर्ण आस्पेक्ट हो सकता है- 

    पहला -जब कोई गाँव से बाहर शहर में जाता है तो पहली बार वह उन सच्चाइयों से रुबरु होता है जिसके बारे में वह बिल्कुल नही जानता। वह दुनियावी समझ को विकसित करता है। वह समझता है कि दुनिया मे सम्बन्धो के विकसित होने की प्रक्रिया में किस तरह का बदलाव आ रहा है, कानून की नजर में सब बराबर है वहाँ कोई बड़ा या छोटा नही है। उदाहरण के लिए देखें तो जब गोबर कुछ दिन शहर में रह लेने के पश्चात वापस आता है तो वह देखता है कि होरी पर गांव के कुलीनों ने मिलकर डाँड़ लगा दिया है परिणाम यह कि होरी अब अपने ही खेत मे मजदूरी करने को अभिसप्त है। समस्त परिस्थिति को जान कर वह कहता है कि"पंचो को उस पर डाँड़ लगाने का अधिकार क्या है?कौन होता है कोई उसके बीच मे बोलने वाला?उसने एक औरत रख ली तो पंचो के बाप का क्या बिगाड़ा?अगर इसी बात पर वह फौजदारी में दावा कर दे, तो लोगों के हाथ मे हथकड़ियां पड़ जाएं। सारी गृहस्थी तहस-नहस हो गई। क्या समझ लिया है उसे इन लोगों ने। "10 उसके इस तेवर को देख कर झुनिया कहती है कि"सहर की हवा खा आये हो, तभी ए बातें सूझने लगी है"11यह सचमुच शहर का प्रभाव या सीख थी कि गोबर जैसे लोग भी जानते थे कि फौजदारी के बाद फैसला अपने पक्ष में आ सकता है। यह जो पंचो ने गलती की है उसकी सजा उन्हें कानून के माध्यम से दी जा सकती है। शहर जाने का प्रभाव था कि गोबर में इतनी कूबत आती है कि वह अपना एक नया यूनियन तैयार करता है;क्योंकि उसके बारे में प्रेमचन्द लिखते है कि वह लखनऊ में लोगों के भाषण सुना करता था। उसे भी संघ में शक्ति है इसका आभास होता है। पहली बार होली नोखेराम के घर न होकर गोबर के घर पर होती है इस संबंध में प्रेमचंद लिखते है"लेकिन अबकी गोबर ने गाँव के सारे नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच लिया है और नोखेराम की चौपाल खाली पड़ी हुई है। "12 यह शहर जाने का प्रभाव है कि गोबर अपने गाँव के सभी महाजनो झिंगुरी, दातादीन, पटेशरी, नोखेराम सबकी खबर एक व्यंग दृश्य के माध्यम से लेता है। जहां इन सभी का मजाक उड़ाया जाता है। 

      दूसरा यह कि शहर के पात्र भी कहीं न कहीं गंवई पात्रों से जुड़े हुए है। जैसे मिर्जा खुर्शेद का गोबर को नौकरी पर रखना, मालती मेहता का बेलारी आना, मालती का प्रगतिगामी विचारों से गाँव की औरतों का परिचय करना, मालती का नई रहन-सहन संस्कृति के बारे में उल्लेख करना व ग्रामीण स्थिति के बारे में जानकारी लेना , झुनिया-गोबर का मालती के घर मे रहना। यह प्रसंग गाँव और शहर के बीच सेतु का काम करते है। क्या इन प्रसंगों के अभाव में हम यह कल्पना कर सकते है कि गोदान का प्रवाह ठीक उसी प्रकार का होता जैसा हम आज अनुभव करते है?ज्यादा सटीक उत्तर 'नहीं' के रूप में ही होता।

         तीसरा हम जिस नए भारत की ओर बढ़ रहे थे उसमे यह जरूरी था कि हम गाँव व शहर की बाइनरी को समझे कि उससे किस तरह का नया समाज विकसित हो रहा था। प्रेमचन्द की यह भी मंशा रही होगी;क्योंकि वह इसके सूत्र बराबर छोड़ते चलते है। इस उपन्यास को ध्यान से देखा जाए तो शहर में जो सम्बंध विकसित हो रहे है वह मूलतः धन पर आधारित है उनमें मानवीयता, संवेदना लेश मात्र नही है वह उपन्यास के अंत तक आकर टूट जाते है। इस संदर्भ में खन्ना, तंखा, ओमकारनाथ, रायसाहब को देखा जा सकता है। खन्ना एक बैंकर है वह रायसाहब के अजीज दोस्त है सहपाठी भी रह चुके है वह उनके दुःख में व्यथित नही होते वह उन्हें लोन दिलाने की एवज में खुद के कमीशन की मांग करते है"कभी आपसे कोई पर्दा नही रखा, लेकिन व्यापार एक दूसरा ही छेत्र है। यहाँ कोई किसी का दोस्त नही, कोई किसी का भाई नही। जिस तरह मैं भाई के नाते आपसे यह नही कह सकता कि मुझे दूसरों से ज्यादा कमीशन दीजिये, उसी तरह आपको भी मेरे कमीशन में रियायत के लिए आग्रह न कफ़न चाहिए।"13 

      मिस्टर तंखा जो एक दलाल(ब्रोकर) है वह भी रायसाहब को गाढ़े समय जब वह तमाम प्रकार की समस्या से घिरे है उन्हें धोखा देकर वह राजासाहब की चुनाव में पैरवी को तैयार हो जाते है जबकि रायसाहब की मनाही के बावजूद वह राय साहब को फिर चुनाव में खड़े करते है। इसके पीछे दोनों का आर्थिक समझौता था। इसके बावजूद तंखा रायसाहब पर विश्वास करने को तैयार नही। तंखा कहता है"राय साहब अब साफ-साफ न कहलवाए। यहाँ न मैं सन्यासी हूँ न आप। हम सभी कुछ न कुछ कमाने ही निकले है। आँख के अंधो और गाँठ के पूरों की तलाश आपको भी उतनी ही है, जितनी मुझको। आपसे मैने खड़े होने का प्रस्ताव किया। आप एक लाख के लोभ में खड़े हो गए;अगर गोटी लाल हो जाती तो आज आप एक लाख के स्वामी होते...मगर आपके दुर्भाग्य से यह चाल पट पड़ गयी। जब आप ही ठाठ पर रह गए तो मुझे क्या मिलता?आखिर मैने झख मारकर उनकी पूँछ पकड़ी। किसी न किसी तरह यह बैतरणी तो पर करनी ही है"। "14 यहां भी सम्बंध धन आधारित था बैतरणी पार करनी थी सो तंखा मौके का फायदा देख मजबूत बाँह थाम ली। 

       ओमकारनाथ से भी सम्बन्धों में कड़वाहट पैसों के कारण ही आई। उनका भी सिद्धान्त पैसों के सामने चरण वन्दन करने लग गया। यहाँ कोई होरी जैसा नही था कि रायसाहब के दुख को सुनकर व्यथित होता, उनकी वेदना को समझता;क्योंकि यहां सम्बन्ध धन पर आधारित थे जब तक आप लाभ देंगे संबंध मधुर रहेंगे। जब आप लाभ हेतु अनुपयुक्त हुए तो आप त्याग दिए जाएंगे। 

             वही मेहता और मालती का सबन्ध धन की नींव पर विकसित नही हुआ है वह सहज मानवीय संवेदना पर विकसित है वह कुछ भी करके अंत तक बने रहते है।  प्रेमचन्द इस धन पर विकसित हो रही नवीन सम्वेदना को नकारने हेतु गोविंदी को अपना माध्यम चुनते है। जब मिल जलकर राख हो गई तो गोविंदी कहती है"मैं मानती हूँ कि धन के लिए थोड़ी तपस्या नही करनी पड़ती;लेकिन फिर भी हमने उसे जीवन मे जितने महत्व की वस्तु समझ रखा है, उतना महत्व उसमे नही है। मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारे सिर से यह बोझ टला। अब तुम्हारे लड़के आदमी होंगे, स्वार्थ और अभिमान के पुतले नही। जीवन का सुख दूसरो को सुखी करने में है, उनको लूटने में नही। "15 यह प्रेमचन्द की अपनी वैचारिकी है। उनके लिए मनुष्यता व उसकी संवेदना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह उसे ही जीवन का उद्देश्य मानते है। यह समस्त वैचारिकी बिना गाँव-शहर के उल्लेख की बिना सम्भव नही। इसी गाँव-शहर की बाइनरी से अर्थ पर आधरित समाज की स्थिति जो हम भुगत रहे वह भी उपन्यास में मिलती है। इसीलिए मेरे हिसाब से गाँव और शहर दोनों गोदान की कथावस्तु हेतु आवश्यक थे। यह ग्लोबलाइज़ेशन के नकारात्मक प्रभावों को दिखाते है। 

    किसान, मजदूर और राष्ट्रवाद--जब भारत एक राष्ट्र के रूप में आजादी के सपने देख रहा था तब उसकी स्वाधीन चेतना को प्रमुख स्वर देने वालों में प्रेमचन्द प्रमुख है। लेकिन उनकी आजादी केवल राजनीति तक महदूद नही है। वह सामंती, महाजनी, ब्राम्हणवादी परम्परा से भी आजादी की बात करते है। इसीलिए जब उनके समक्ष राष्ट्र की अवधरणा की बात आती है तो वह इसे बहुत किनारा करने की कोशिश करते है। वह राष्ट्र के सम्बंध में कहते है "राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शान्ति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बॅंटा हुआ है, और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अन्त न होगा, संसार में शान्ति का होना असम्भव है। जागरूक आत्माएँ संसार में अन्तर्राष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती हैं और कर रही हैं, लेकिन राष्ट्रीयता के बन्धन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है। ’ 16 राष्ट्रवाद के मुलम्मे से बहुत कुछ ओझल हो जाने का खतरा होता है। यह एक भावना होती है जहाँ हम राष्ट्र के नाम पर सबकुछ दाँव पर लगा बैठते है, वहीं हमारे लगाए दाँव से जुआ कोई अन्य खेल रहा होता है। राष्ट्रवाद व पूंजीवाद के  अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है; क्योंकि राष्ट्रवाद वह विचार है, जो अनेक जनतांत्रिक मूल्यों के निषेध को आमंत्रित करती है। यदि राष्ट्रवाद है, तो उससे संपृक्त पूंजीवाद, धर्मवाद, जातिवाद और अस्मितावाद के विचार स्वयं सक्रिय हो जाते हैं। ये परस्पर गुथे हुए हैं, जिनका आपस में एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पूंजीवाद ने जनता के शोषण का जो साम्राज्य कायम किया है, राष्ट्रवाद धर्म और जाति के हथियारों से उसकी सुरक्षा करता है। डा. आंबेडकर ने पूंजीवाद की शिनाख़्त दलितों के दुश्मन के रूप में की है, तो प्रेमचन्द भी इसे अंधा पूंजीवाद कहते हैं, जो गरीबों का दुश्मन है। उनके अनुसार राष्ट्र तो किसानों, दमित लोगों का भी होना चाहिए। लेकिन राष्ट्रवाद की दौड़ पूंजीवाद पर जाकर रुक जाती है और वहाँ से प्रारम्भ है 'किसान का मजदूर में बदलना। 'वह पूंजीपतियों को ध्यान में रख लिखते है-"जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है। किसानों की खेती उजड़ जाय, उनकी बला से। कहावत के उस मूर्ख की भाँति जो उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था, यह समुदाय भी उसी किसान की गर्दन काट रहा है, जिसका पसीना उसी की सेवा में पानी की तरह बह रहा है। ’ 17 यह पूंजीवाद भारतीय किसानों को मजदूर बनाने पर तुली है। वह किस तरह से इस प्रक्रिया को अंजाम दे रही है, उसका प्रेमचन्द के साहित्य बख़ूबी पर्दाफाश किया गया है। 

      इसका सर्वप्रथम उल्लेख हम रंगभूमि उपन्यास में भी देख सकते है। इस उपन्यास में यह दिखाने का प्रयास है कि कैसे पूँजी नौकरशाही के सह पर सबकुछ दबोच लेना चाहती है। सूरदास की जमीन जो गोदाम के पीछे थी, जहाँ जानवर चरा करते थे, जहाँ मजदूर काम के बाद आराम करते थे। उसपर जानसेवक सिगरेट का कारखाना बनाना चाहता है। पूँजी उसे मनाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाती है, परन्तु अंधा सूरदास उसका अंततः उसका मुखर विरोध करता है। लेकिन गोदान तक आते-आते पूँजी किसान को मजदूर बनने को मजबूर कर देती है, प्रेमचंद गोदान में रामसेवक से कहलवाते  है" यहाँ तो जो किसान है, वह सबका नरम चारा है। पटवारी को नजराना और दस्तूरी न दे, तो गाँव में रहना मुश्किल। जमीन्दार के चपरासी और कारिंदों का पेट न भरे तो निबाह न हो। "18 इसी उपन्यास की बिनाह पर देंखे तो गोबर पहले ही मजदूर बन चुका है, अपनी तमाम प्रयासों के बावजूद अंततः होरी को मजदूर बनना ही पड़ा। जो होरी उपन्यास के प्रारम्भ में खेत मे ऊँख गोड़ने की बात करता है अंत मे उसके बारे में प्रेमचंद लिखते है कि "उसी दिन एक ठीकेदार ने सड़क के लिए गाँव के ऊसर में कंकड़ की खुदाई शुरू की। होरी ने सुना तो चट-पट वहाँ जा पहुँचा, और आठ आने रोज पर खुदाई करने लगा"19  यह सब इसलिए कि"बस, इस साल रिन से गला छूट जाए, तो जिंदगी दूसरी हो"20  यह है समाज की सच्चाई जहाँ राष्ट्रवाद अपने चरम पर है और उसकी नीचे किसान मजदूर बनने को अभिशप्त है। इसीलिए राष्ट्रवाद को प्रेमचंद नकारते है। यह वही समय है जब किसान नेता सहजानन्द सरस्वती कहते है'किसानों को विदेशी शाशकों और देशी शोषकों दोनों से लड़ना है।' 

     आज फिर से हम राष्ट्रवाद के चरम उत्कर्ष पर है जहाँ किसान, दलितों, महिलाओं, नौजवानों के सवाल को राष्ट्र की आहुति में भष्म कर दिया जा रहा है। अब इस राष्ट्र का मुख्य मुद्दा यह नही कि किसानों की बढ़ती आत्महत्या को कैसे रोका जाए, किसानों का विकास किस तरह हो कि किसानी हीनताबोध के स्तर पर न रहे, उन्हें पूरा हक़ दिया जाए जिनका अधिकार रहा है। यहाँ मुद्दा है कि कैसे फोर्ब्स की सूची में मुकेश अम्बानी दुनिया के अमीरों में किस पायदान पर है, प्रधानमंत्री को कैसे दुनिया के प्रमुख लोगों में शुमार किया जाता है, स्थिति यह है कि हम आज के समय मे होने वाली हानियों को पाकिस्तान से तुलना करके खुश हो जाते है, हम दुनिया के उन चंद देशों में है जो सर्वाधिक हथियार आयात करते हुए राष्ट्र को सुरक्षित रखे हुए है। यह सबकुछ राष्ट्रवाद की चादर के नीचे क्रियान्वित हो रहा, जिसकी शिनाख़्त हम प्रेमचंद के माध्यम से आज के अपने समय में कर सकते है।

      साम्प्रदायिकता, विश्वास और लोकतंत्र-साम्प्रदायिकता हमारे समय और औपनिवेशिक परम्परा से दाय में मिला यथार्थ है। इसे झुठला कर हम इस बात से मुँह नही मोड़ सकते। साम्प्रदायिक ताकतों ने हमें भाषा, संस्कृति, समाज प्रत्येक स्तर पर बाँट कर रख दिया। इसने हमारी बहुलता-वादी अस्मिता को विखंडित कर एक अलग पहचान दे दी है। "रवींद्रनाथ ने इस भारतवर्ष को 'महामानवसमुद्र' कहा है। विचित्र देश है यह। असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्व आए - न जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गईं। जिसे हम हिंदू रीति-नीति कहते है, वह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है। एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्‍मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित है। "21 एक साँझी संस्कृति को तोड़ने में लोग प्रेमचंद के समय में भी लगे हुए थे। कैसे धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता का चोला ओढ़ कर, हमारे समाज में विरोधी ताकते प्रवेश कर रही। उनके समय मे ही मुस्लिम लीग व हिंदुत्व की ताकतों का उभार हो रहा था। इनसे बचते हुए प्रेमचंद किस तरह के समाज की परिकल्पना कर रहे थे, वह इनके साहित्य में बखूबी दिखता है। कर्मभूमि उपन्यास में अमरकांत व सलीम की उपस्थिति सम्प्रदाय निरपेक्षता के रूप में की गई है। इस सम्बंध में हमे गबन के देवीदीन व वैश्या जोहरा को भी साम्प्रदायिक निरपेक्षता के रूप में देखना चाहिए। प्रेमचंद ने मुस्लिम पात्रों को बस विरासत के लिए नही रखा। वह भी इसी समाज का हिस्सा है। यदि अच्छे पात्र है तो बुरे भी है, हमें गौस खां(कर्मभूमि), ताहिर(रंगभूमि)जैसे को नही भूलना चाहिए है। यह समाज मे पनप रही बुराई के पुर्जे है जिसकी पहचान हम प्रेमचंद के साहित्य में कर सकते है।

 

     गोदान में देंखे तो मिर्जा खुर्शेद की कहानी अपने ही मूड में चलती है। "सूफी मुसलमान थे। दो बार हज कर आये थे, मगर शराब खूब पीते थे। कहते थे, जब हम खुद का हुक्म नही मानते तो दीन के लिए जान क्यों दें!बड़े दिल्लगीबाज़ , बेफिक्र जीव थे। " 22  वह साम्प्रदायिकता से निरपेक्ष है, उनकी समस्त गतिविधि हिन्दू मुस्लिम-भेद को समाप्त करने व उनमें सहयोग तथा सद्भाव स्थापित करने वाली है। मिर्जा खुर्शेद रायसाहब की हर सभा में उपस्थित रहते है, वह धनुषयज्ञ में भी मेहमान थे, शिकार में भी यह सबके साथ गए, इनके साथ उपन्यास में कहीं किसी किस्म का भेदभाव नही किया गया है। उनका हाता(लान) सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यों का अड्डा था। उसी हाते में गोबर को भी उन्होंने ही शरण दी थी, मिल के ख़िलाफ़ हड़तालियों के साथ वह भी विरोध में थे। तो प्रेमचंद इस तरह के समाज की परिकल्पना करते है, जहाँ सहभाव हो। लोकतंत्र पर सबसे मार्के की  टिप्पड़ी प्रेमचंद ने खुर्शेद के माध्यम से ही कराई"अब इस डेमोक्रेसी में भक्ति नहीं रही। जरा-सा काम और महीनों की बहस। हाँ, जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहे, चाहे वह हिंदुस्तानी हो, या अंग्रेज, इससे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मजे से हजारों मील खींच ले जा सकता है, उसे दस हजार आदमी मिल कर भी उतनी तेजी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देख कर कौंसिल से बेजार हो गया हूँ। मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूँ। जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रुपए हैं। रुपए के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले, जो अपने जबान और कलम से पब्लिक को जिस तरफ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं, मैंने तो इरादा कर लिया है, अब इलेक्शन के पास न जाऊँगा। मेरा प्रोपेगंडा अब डेमोक्रेसी के खिलाफ होगा। ''23 क्या यह कथन लोकतंत्र की खामियों को उजागर नही करता?    आजादी के बाद हम लोकतांत्रिक होने का सपना देख रहे थे, तब यह प्रेमचंद का नीति-नियामकों की ओर एक इशारा था कि देश चलाने की पद्धति को हम दुरुस्त कर लें। लेकिन इन खामियों की ओर ध्यान न दिया गया यह खामियां आज तक हमारी लोकतांत्रिक संरचना में मौजूद है, जो लोकतंत्र को अंदर से खोखला किये जा रही है। इसी लूपहोल का इस्तेमाल कर साम्प्रदायिकता का प्रवेश हमारे समाज में हो रहा है। लोकतंत्र में साँझी विरासत को विश्वास दिलाकर हम साम्प्रदायिकता को खत्म कर सकते है। 

     यह कुछ सूत्र है जिससे हम अपने समय की जटिल स्थितियों को पहचान कर, समाज के सामने रख सकते है। प्रेमचंद के साहित्य की वास्तविकता से रूबरू हो सकते है। जिससे अनुभव लेकर जनता अपने अतीत को ध्यान में रख, वर्तमान को समृद्ध करते हुए, बेहतर भविष्य की तलाश कर सकती है। अंत में बात प्रेमचंद की तो हम उनके महत्व को अल्लामा इक़बाल की उस पंक्ति से समझें कि-          

 

हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा

 

  संदर्भ

1--(प्रेमचन्द, रामविलास शर्मा, पृष्ठ संख्या 39)

2--(एक शांत नास्तिक सन्त : प्रेमचन्द्र, जैनेन्द्र कुमार, gadykosh.org)

3--(प्रेमचंद का रचना संसार: पुनर्मूल्यांकन, संपादक- डॉ. सुशीला गुप्ता, ‘नयी सदी में प्रेमचंद’, डॉ. शिवकुमार कुमार मिश्र का लेख, पृष्ठ-27)

4--(कलम का सिपाही, अमृत राय, पृष्ठ-306)

5--(गोदानऔर दलित प्रसंग- ओम प्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ- 71, ‘वर्तमान साहित्य’, अप्रैल- 2009)

6--(गोदान, प्रेमचन्द्र, अनुराग प्रकाशन, पृष्ठ 11)

7--(वही, पृष्ठ11, 12) 

8--(वही, पृष्ठ 248)

9--(महाजनी सभ्यता, प्रेमचंद, sahityvimarsh.com)

10--(गोदान, प्रेमचन्द्र, अनुराग प्रकाशन, पृष्ठ 167)

11--(वही, पृष्ठ 167)

12--(वही, पृष्ठ 172)

13--(वही, पृष्ठ 187)

14--(वही, पृष्ठ184, 185)

15--(वही, पृष्ठ 235)

16--(विविध प्रसंग, 2, अमृतराय, 1980, पृष्ठ 333-34)

17-- (वही, पृ. 331)

18--(गोदान, प्रेमचन्द्र, अनुराग प्रकाशन, पृष्ठ 282)

19--(वही , पृष्ठ 287)

20--(वही, पृष्ठ 287)

21--अशोक के फूल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 10, 11)

22--(गोदान, प्रेमचन्द्र, अनुराग प्रकाशन, पृष्ठ 47)

23--(वही, पृष्ठ 73)

 

सचिन मिश्र

(शोध छात्र, हिंदी विभाग), काशी हिन्दू विश्वविद्यालय(B H U), वाराणसी 221005

ईमेल-sachinmishra225@gmail.com, संपर्क-9161412122

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