शोध : जयशंकर प्रसाद की कहानियों का सौन्दर्यबोध / भरत

जयशंकर प्रसाद की कहानियों का सौन्दर्यबोध / भरत

 

    जयशंकर प्रसाद को अक्सर नाटकों और निबन्धों के लिए पहचाना जाता है। लेकिन उनकी कहानियाँ जुड़ाबी अस्तित्वबोध की अभिव्यक्ति है। क्योंकि एक तरफ प्रेमचन्द कहानियाँ लिख रहे थे दूसरी तरफ प्रसाद।दोनों दो बिन्दुओं के कहानीकार हैं। एक स्तर पर आकर प्रेमचन्द समझौतावादी कहानीकार हो जाते हैं। उनका आदर्श यथार्थ में और यथार्थ आदर्श में तब्दील होने लगता है लेकिन प्रसाद अपनी आरम्भिक कहानी ग्रामसे लेकर अंतिम कहानी सालवतीतक समझौतावादी नहीं होते। चाहे वे प्रसाद की कहानियों का भाव पक्ष हो या कला पक्ष। उनकी कहानियों तक पहुँचने के लिए पाठक को एक सूक्ष्म दृष्टि से जिरह करना आवश्यक है। तभी वे प्रसाद की श्रमपूर्ण कहानियों से जद्दोजहद कर सकते हैं। कहानी आलोचक विनोदशंकर व्यासऐसा मानते हैं कि प्रसाद की कहानियाँ भावात्मक अधिक है जिस कारण से उनकी कहानियों को कहानी कला पर कसना कठिन है।प्रसाद जी ने किसी उदेश्य अथवा प्रोपेगैंडा के लिए कहानियां नहीं लिखी हैं। उनके मन में भावनाएं उठीं और उन्होंने कहानियां लिखीं। उनकी अधिकांश कहानियां भावात्मक हैं। भावात्मक कहानियों को कहानी-कला की कसौटी पर कसना कठिन है।”1 


    अपनी बात के मन्तव्य को अभिव्यक्त करने के लिए वह प्रसाद की निराकहानी के संवाद कोरेखांकित करते हैं–“जैसे एक साधारण आलोचक प्रत्येक लेखक से अपने मन की कहानी कहलाना चाहता है। और हठ करता है कि नहीं, यहां तो ऐसा न होना चाहिए था।”2लेकिन प्रसाद की जिस बात को उन्होंने उद्घाटित किया है उसका मन्तव्य उनके कहन से किसी भी प्रकार से तारतम्य लिए हुए नहीं हैक्योंकि प्रसाद का स्पष्ट मानना था कि लेखक को कभी भी आलोचकों के अनुरूप नहीं होना चाहिए बल्कि आलोचकों को लेखन के अनुरूप ढलना चाहिए इसी बात की व्यंजना उपर्युक्त कथन से होती है।


    प्रसाद की कहानी कला पर भावनात्मकता को व्यंजित करते हुए नन्ददुलारे वाजपेयी लिखते हैं- प्रसाद की कहानियाँ कल्पना-प्रधान हैं और प्राकृतिक वातावरण का बड़ा सुन्दर उपयोग करती हैं।उनकी अधिकांश कहानियों की रंगभूमि प्रकृति केखुले प्रसार में हैं। उन्मुक्त वायुमंडल की विस्मयकारक और साहसिक घटनावली के बीच मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक चित्रण प्रसाद की कहानियों की विशेषता है।”3सत्यप्रकाश मिश्र लिखते हैं- कहानियों में प्रसाद की कविताओं से पहले एक विशेष प्रकार का लोककथात्मक वैचित्र्य और भावोन्मुखता मिलती है। कथा का बाहरी ढाँचा विशेष भावनात्मक प्रवृत्ति या मन के विशेष आवेग, मानसिक उथल-पुथल के लिए प्रयुक्त किया हुआ लगता है।”4 लेकिन जब प्रसाद की कहानियों  और उपर्युक्त विद्वानों के कथन को आमने-सामने रखते हैं तो देखते हैं कि यह आलोचकीय विद्वानों कीहठधर्मिता की अभिव्यक्ति हैक्योंकि प्रसाद की कहानियों में कल्पना प्रधान नहीं है बल्कि कल्पना का पुट है। कल्पना-प्रधान और पुट मेंअंतर है क्योंकि जब कथा की सहायता कल्पना अत्याधिक करती है तो वह प्रधान होती है और जब यथार्थ केन्द्र में होकर कथा का संप्रेषण करता है तो कल्पना किनारे पर होती है। न की केन्द्र में। रही बात भावनात्मकता की तो यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि प्रसाद की कहानियों में भावना एक स्तर तक ही है। उन्होंने कभी भी कहानियों पर भावना को हावी नहीं होने दिया। उनकी कहानियों में निरन्तर यह बात मुखर होती है। इस बात को स्पष्ट समझने के लिए रसिया बालमकहानी को देखा जा सकता है। जिसका कथानक केवल इतना है कि एक राजकुमारी से एक युवक प्रेम करता है।उसके दर्शन के लिए उसके द्वार के सम्मुख रहता है ताकि एक बार वे उसे निहार सके। अंतिम में अपने प्रेम की अभिव्यक्ति वे युवक राजकुमारी को करा देता है। राजकुमारी के पिता तो उस युवक को अपनी पुत्री के लिए स्वीकारने को तैयार होते हैं लेकिन महारानी एक अजीब शर्त रखती है। कहती है किमहल के पास एक झरना है और उसकेसमीप एक पहाड़ी है जिसे इस युवक कोपहाड़ी काटकर रास्ता बनाना है और केवल एक रात में उसे यह काम करना है। इस कठोर काम में युवक की मृत्यु हो जाती है। उस युवक के अंतिम शब्द हैं-मैं नहीं जानता था कि तुम इतनी निठुर हो। अस्तु; अब मैं यहीं रहूँगा; पर याद रखना; मैं तुमसे अवश्य मिलूँगा, क्योंकि मैं तुम्हें नित्य देखना चाहता हूँ, और ऐसे स्थान में देखूँगा, जहाँ कभी पलक गिरती ही नहीं।”5 इसी के बाद राजकुमारी भी अपना शरीर त्याग देती है। कथावस्तु इतनी ही है। इसी प्रकार तानसेनऔर चंदाइत्यादि कहानियाँ भी हैं।जो भावनात्मकता के प्रतीक नहीं हैं और न ही उसमें लोककथात्मक वैचित्र्यहै। जैसा उपर्युक्त आलोचकों ने माना है। बल्कि भावनात्मकता और लोककथात्मक वैचित्र्य से अधिक प्रसाद की कहानियाँ एक टीसकी कहानियाँ हैं। जो सामाजिक धरातल और यथार्थ के द्वंद्व से पनपी हैं न की लोककथाओं से।


    प्रसाद की कहानियों के सौन्दर्यबोध को समझने के लिए उनकी कहानियों को तीन खंडों में विभाजित करना होगा।पहला प्रसाद की कहानियों का सामाजिक पक्ष, दूसरा ऐतिहासिक पक्ष और तीसरा स्त्री पक्ष। यह तीन खंड ही प्रसाद की कहानियों के चिन्तन के सौन्दर्यबोधिपन हैं।उनकी प्रथम कहानी ग्रामअपने  कलेवर की एक भिन्न कहानी हैं।भिन्न इस रूप में कि कथ्य और शिल्प  आधुनिकता के रंग में रंगा हुआ है। जहाँउस समय एक तरफ आदर्शवादी कहानियाँ लिखी जा रही थी। दूसरी तरफ प्रसाद इस कहानी के माध्यम से यथार्थ के धरातल पर सामाजिक करुणा को रेखांकित कर रहे थे इसलिए सत्यप्रकाश मिश्रइस कहानी को कथ्य और शिल्प के प्रयोग की नवीनता के लिए आधुनिक कहते हैं।“’ग्रामहिन्दी की पहली आधुनिक कहानी है। क्योंकि शिल्प और अंतर्वस्तु दोनों ही दृष्टियों से यह एक भिन्न पथ का संकेत करती है।”6 इसके साथ ही ग्रामीण जीवन की बारीकियों को सूक्ष्मता के साथ अभिव्यक्त कर रहे थे।सत्यप्रकाश मिश्र इस कहानी के सन्दर्भ में लिखते हैं-उसमें एक विशेष प्रकार की आयरनी का संकेत है, जो उस युग के सामाजिक-राजनैतिक संकट और मानसिक उद्वेलन तथा वेदना को अनूठेपन के साथ नहीं: एक विशेष प्रकार की प्रश्नचिन्हात्मक मुद्रा के साथ अभिव्यक्त करता है। इस कहानी की अंतर्वस्तु में ग्रामीण समस्या का वह पहलू है, जिसकी ओर संकेत प्रसाद की किसी कहानी में नहीं हुआ है।”7मिश्र ठीक ही कहते हैं इस कहानी में एक तेज है जो बाहर और भीतर कीवेदना को अभिव्यक्त करता है।


    प्रसाद समाज के दो वर्गों को भी निरन्तर देख रहे थे। एक पूंजीपति दूसरा श्रमिक वर्ग। बल्कि देख नहीं रहे थे श्रमिक वर्ग के भीतर पनपते आक्रोश को महसूस कर रहे थे। कार्ल मार्क्स अपने सम्पूर्ण चिन्तन में शोषक और शोषितों की निरन्तर बात करते हैं लेकिन प्रसाद इन दोनों के बीच संवाद को दिखाकर शोषितों के भीतर पनपते आक्रोश को व्यक्त करते हैं।पत्थर की पुकारकहानी का यह संवाद-शिल्पी ने कफ निकालकर गला साफ करते हुए कहा- आप लोग अमीर आदमी हैं। अपनी कोमल श्रवणेन्द्रियों से पत्थर का रोना, लहरों का संगीत, पवन की हँसी इत्यादि कितनी सूक्ष्म बातें सुन लेते हैं, और उसकी पुकार में दत्तचित हो जाते हैं। करुणा से पुलकित होते हैं, किन्तु क्या कभी दु:खी हदय के नीरव क्रन्दन को भी अंतरात्मा की श्रवणेन्द्रित को सुनने देते हैं, जो करुणा का काल्पनिक नहीं किन्तु वास्तविक रूप है?”8 पात्र के माध्यम से इस बात को कहलाना इस ओर संकेत करता है कि समाज का एक वर्ग जिसको सबकुछ सुनाई देता है और महसूस होता है लेकिन गरीब और शोषित तबके की न उसे करुणा सुनाई देती हैं और न ही दर्द।इसी प्रकार की कहानियाँ चित्रवाले पत्थर’, ‘सन्देहऔर  परिवर्तनहैं।


    प्रसाद की मधुआकहानी की चर्चा काफी हुई है। क्योंकि एक तरफ सामंतवाद का खत्म होने का डर दूसरी ओर गरीबी का भयंकर चित्रण इसका मुख्य बिंदु है।  इसके सन्दर्भ में प्रेमचन्द लिखते हैं-प्रसाद जी ऐसी कहानी लिख सकेंगे, ऐसा मुझे विश्वास नहीं था। मैं उसे उनकी उत्कृष्ट रचना समझता हूँ।”9इसी सन्दर्भ में सत्यप्रकाश मिश्र ने लिखा है–“’मधुआमें ही प्रसाद अपनी और अपने समकालीन कहानी दृष्टि पर टिप्पणी भी करते हैं और पतनोन्मुख सामन्ती चरित्र तथा गरीबी के उस सम्बन्ध की ओर संकेत भी करते हैं, जिससे समाज की ऐतिहासिक स्थिति का उद्घाटन होता है और विद्रोह करने की इच्छा भी। शराबी और मधुआ दोनों का मत विद्रोह वैयक्तिक होते हुए भी लोकोन्मुख है। वर्ग सहानुभूति के माध्यम से जिस ओर इस कहानी में संकेत किया गया है वह नियतिके उल्लेख के बाद भी महत्वपूर्ण है।”10


    प्रसाद ने अस्मितामूलक कहानियों की भी रचना की है। जिसमें हाशिये के समाज को विषयवस्तु बनाया गया है। उनके छोटे-छोटे जीवनरंग को अभिव्यक्त किया गया है। जिसमें चूड़ीवाले, विसाती, दासियाँ, बनजारे, भिखारी इत्यादि की जीवनानुभूति को दर्शाया गया है। दलित समाज का अस्मिताबोधविराम चिन्हकहानी में मुखर रूप से हुआ है।इस कहानी का प्लेटफार्म अछूतों के मन्दिर प्रवेश की समस्या पर आधारित है-दूसरे दिन मन्दिर के द्वार पर भारी जमघट था। आस्तिक भक्तों का झुण्ड अपवित्रता से भगवान की रक्षा करने के लिए दृढ़ होकर खड़ा था।”11 प्रसाद कुछ ही शब्दों में दलित और मुख्यधारा समाज के संघर्ष को दर्शा रहे थे। उनके एकजुट होने के संघर्ष पर बल दे रहे थे। इस बात को समझा रहे थे कि हाशिये के समाज को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी अपने अधिकारों के लिए। इसी हाशिये के समाज की अभिव्यक्ति दुखिया’, ‘भिखारिन’, ‘दासी’, ‘बनजारा’, ‘सलीम’, ‘चूड़ीवालीऔर घीसूआदि कहानियाँ करती हैं।    


    व्यक्ति के मनोविश्लेषण और दमित इच्छाओं पर भी प्रसाद ने कहानियाँ लिखी हैं।फ्रायड ने इंटरप्रटेशन ऑफ़ ड्रीममें जिन दमित इच्छाओं का बिम्बन किया है, इसी बिम्बन की अभिव्यक्ति प्रसाद की कुछ कहानियों में देखने को मिलती है। सुनहरा सांपऔर प्रतिध्वनिइसी प्रकार की कहानियाँ हैं। इस सन्दर्भ में सत्यप्रकाश मिश्र लिखते हैं-“’सुनहरा सांपमें सांप काम भावना के प्रतीक रूप में प्रयुक्त है और कहानी को विशिष्टता प्रतीक के धन पक्ष की बजाय निषेधात्मक पक्ष से प्राप्त होती है। रामू के मालिक का गुस्सा नेरा के प्रति उसकी दमित इच्छा की अभिव्यक्ति है, जो एक प्रकार का हिंसा(क्रोध) में परिणत होती है।”12इसी प्रकार की मानसिक अभिव्यक्ति स्वर्ग के खंडहरकहानी में भी मुखर रूप में होती है। व्यक्ति के भीतर चेतन-अवचेतन में चलने वाले द्वंद्व को अभिव्यत किया गया है।जिसका विकसित रूप हिन्दी कहानियों में इलाचन्द्र जोशी और जैनेन्द्र की कहानियों में मिलता है।


    प्रसाद ने ऐतिहासिक आवरण की कहानियाँ भी लिखी हैं लेकिन ऐतिहासिकता में वे तत्कालीन समाज की समस्याओं को पिरोकर कहानी में अभिव्यक्त करते हैं। एक ओर उनकी ऐतिहासिक कहानियों में भारतीय इतिहास के किसी एक गौरव का अंश, उसकी मर्यादा, भारतीय संस्कृति के रंग-रूप होते हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं कहानियों के भीतर तत्कालीन किसी समस्या को दिखाकर एक सेतु का निर्माण करते हैं। जिससे ऐतिहासिकता और तात्कालिकता का संबंध बनता है। इस सन्दर्भ में उनकी कहानी ममताको लिया जा सकता है। जो एक व्यक्तिव के साथ-साथ ऐतिहासिक सामाजिक सच्चाई को अभिव्यक्त करती है। इस सन्दर्भ में सत्यप्रकाश मिश्र ने लिखा है-“ ’ममताकहानी अपने अंत में वैयक्तिक कम ऐतिहासिक सामाजिक सच्चाई की ओर अधिक उन्मुख है, जो यह रेखांकित करती है कि जिस स्थान पर मानवीय की मूल्यवत्ता की दृष्टि से ममता का नाम होना चाहिए था वहाँ सत्ता प्रतिष्ठान के तर्क से शासक का नाम है अगर वहां ममता का नाम होता तो एक मूल्य की प्रतिष्ठा होती। जगह अशरण को शरण देने से नहीं हुमायूँ के कारण महत्वपूर्ण हुई। जमीन के खुदने का डर और अंतत: मौत ममतको अधिक मानवीय और महत्वपूर्ण बना देती है।”13 इसी ऐतिहासिक सन्दर्भ में तत्कालिक सामाजिक कलेवर की अभिव्यक्तितानसेन’, ‘सिकन्दर की शपथ’, चित्तौर-उद्धार’, ‘अशोक’, जहाँनाराऔर गुदड़ी में लालआदि कहानियों में होती है।


    जयशंकर प्रसाद की कहानियों में स्त्री जीवन के विभिन्न आयाम अलग-अलग रूपों में आते हैं। प्रेमिका, मजदूर, रानी, सामन्त वर्ग, माँ, पुत्री और हिंसा- अहिंसा के प्रतिकार आदि रूपों में। स्त्री की हर छवि को उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से उकेरा है। उनकी लगभग सभी कहानियों में किसी न किसी रूप में स्त्री की किसी न किसी छवि को रेखांकित किया गया है।इन कहानियों में मुख्य रूप से चंदा’, ‘रसिया बालम’, ‘शरणागत’, ‘उस पार का योगी’, ‘कलावती की शिक्षा’, ‘देवदासी’, ‘बनजारा’, ‘नीरा’,  ‘अनबोला’, ‘गुंडाऔर सालवतीकहानियों को देख सकते हैं।


    इसके साथ ही जयशंकर प्रसाद की कुछ ऐसी कहानियाँ हैं जो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती हैं अर्थात् उन कहानियों का अंत खुला हैं। पाठक अपने अनुसार समझ सकता है।जिसमें मुख्य रूप से आकाशदीप’,  ‘पुरस्कार’, ‘ममता’,  ‘अपराधी’, ‘स्वर्ग के खंडहरऔर बनजाराइत्यादि कहानियों को लिया जा सकता है। इसी का विकसित रूप अज्ञेय की कहानियों का भी प्लेटफार्म  भी बना है। लेकिन श्रीयुत कृष्णानन्द ने प्रसाद की कहानियों की कटु आलोचन की है। वे लिखते हैं- उनकी अन्य अधिकांश कहानियों के सम्बन्ध में भी मेरी यही राय है। उनमें कहानी के आर्ट की बड़ी भारी कमी है। वे कहानियां नहीं हैं और कुछ भले ही हों। उनमें कथोपकथन और वर्णन की स्वाभाविकता नहीं। वाक्-संयम नहीं। घटना-चमत्कार नहीं। सरसता नहीं।”14 दूसरी तरफ नन्ददुलारे वाजपेयी लिखते हैं-प्रसाद की कहानियों में वातावरण का चित्रण विशुद्ध कहानी के लिए कुछ अधिक हो जाता है। उनमें वस्तु-अंकन की प्रवृत्ति अधिक है, जिसके कारण कहानियों की गति में किंचित शीतलता भी दिखाई पड़ती है। अतीत को सजीव करने की चिंता प्रसादजी को अधिक रहती है कदाचित् इसलिए संपूर्ण कहानी असाधारण काव्यत्व के साथ प्रस्तुत होती है।”15अब दोनों विद्वानों के कथनों को देखे तो पाते हैं कि वाजपेयी जी ने ठीक कहा है। प्रसाद की कहानियाँ गतिशील कम है, आराम से उन्हें समझना पड़ता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनमें कहानीपन नहीं है बल्कि पाठक को धैर्य के साथ उनकी कहानियों को साधना पड़ता है। उनका अपना एक यूटोपिया है जिसमें जो प्रवेश कर सकता है वहीं उनकी कहानी के सौन्दर्यबोध का रसपान कर सकता है।


    जयशंकर प्रसाद के पांच कहानी संग्रह है, ‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाश-दीप, ‘आंधीऔर इंद्रजाल। इन कहानी संग्रहों के नाम अनायास नहीं बल्कि सायास हैं। जो कहानी के माध्यम से  प्रसाद के मन्तव्य को अभिव्यक्ति करते हैं।छायाकहानी संग्रह में मानवीय प्रेम, करुणा, ऐतिहासिकता के आवरण में वीरता और अहिंसा को मूल्य की कसौटी पर कसा गया है। इसके उपरांत प्रतिध्वनिसंग्रह में छायावादी मानवीकरण सूक्ष्म रूप में अभिव्यक्त होता है। सत्यप्रकाश मिश्र के शब्दों में कहें तो इसमें चिंतनशीलता, सूचनात्मकता और रिपोटिंग को व्यंजित किया गया है।छाया की कहानियों के प्रवाह और आकर्षण की जगह इसमें एक प्रकार की चिन्तनशीलता, सूचनात्मकता और रिपोटिंग ने ली है।”16‘आकाशदीपकहानी संग्रह की कहानियाँ मानवीय मन की जटिलताओं और अँधेरों की पहचान को उजागर करती हैं। मन की विचलित अभिव्यक्ति  मुखर रूप से इस संग्रह की कहानियों में हुई है। आगे चलकर जिससे जिरह जैनेन्द्र करते हैं उसका बीजारोपण प्रसाद के इस संग्रह में है।इसके साथ ही धार्मिक रुढ़ियों पर भी वह प्रहार करते हुए चलते हैं। इसलिए सत्यप्रकाश मिश्र मानते हैं कि -छायावाद की रहस्यात्मकता धर्म के कर्मकाण्ड को उद्घाटित करने में रूचि रखती है। जो सामन्तवाद की प्रमुख विचारधारा थी। प्रसाद धर्म के शोषण के प्रति प्रेमचन्द की अपेक्षा अधिक उद्घाटनशील हैं।”17 इस संग्रह की कहानियों पर चिन्तन करते हुए ऐसा मानते हैं कि प्रसाद, प्रेमचन्द की तुलना में धार्मिक पाखंड को बहुत ही कटाक्ष रूप से अभिव्यंजित करते हैं।आंधीसंग्रह तक आते-आते प्रसाद ज्यादा विषय केन्द्रित यथार्थमुखी होने लगते हैं। इस सन्दर्भ में इस संग्रह की कहानियों के शीर्षक मधुआ’, ‘दासी’, ‘घिसू’  और नीराको देख सकते हैं जो सामाजिक धरातल का यथार्थवादी नजरिया है। इसलिए सत्यप्रकाश मिश्र इस संग्रह के बारे में लिखते हैं-आंधी संग्रह की अधिकांश कहानियों में सत्यग्रह युग की प्रतिध्वनि भी है। शराबखोरी की निंदा, परिश्रम की महत्ता, देशप्रेम, मानव सेवा, नारी सुधार आदि की चेतना व्रतभंग’, ‘विजय’, ‘पुरस्कारआदि में है।18प्रसाद का अंतिम कहानी  संग्रह इंद्रजालमें सामाजिक विषमता और विवशता पर आधारित कहानियाँ हैं। जो प्रसाद की मुखर अभिव्यक्ति को व्यंजित करती हैं और उनके कहानी सौन्दर्यबोधिपन की छटाओं को उजागर करती हैं।

                             

सन्दर्भ -

1. विनोदशंकर व्यास : प्रसाद की कहानियां’, प्रसाद सन्दर्भ, (सं. प्रमिला शर्मा)आयोग पुस्तक केन्द्रगाजियाबादपृ. 313

2. वहीपृ. 313

3. नन्दुलारे वाजपेयी :जयशंकर प्रसादलोकभारती प्रकाशनइलाहाबाद, 2009, पृ. 26

4. सत्यप्रकाश मिश्र (सम्पादक): जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली (खण्ड-2), लोकभारती प्रकाशनइलाहाबाद, 2010, पृ. 7

5. वहीपृ. 23

6. वहीपृ. 8

7. वहीपृ. 8

8. वहीपृ. 93

9. विनोदशंकर व्यास : प्रसाद की कहानियां’, प्रसाद सन्दर्भ, (सं. प्रमिला शर्मा)आयोग पुस्तक केन्द्रगाजियाबादपृ. 319

10. सत्यप्रकाश मिश्र(सम्पादक) : जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली (खण्ड-2), लोकभारती प्रकाशनइलाहाबाद, 2010, पृ. 14

11. वहीपृ. 367

12. वही,  पृ.12

13. वहीपृ. 11

14. श्रीयुत कृष्णानन्द गुप्त : ‘प्रसादजी की एक कहानी’, प्रसाद सन्दर्भ, (सं. प्रमिला शर्मा)आयोग पुस्तक केन्द्रगाजियाबादपृ. 312

15. नन्ददुलारे वाजपेयी :जयशंकर प्रसादलोकभारती प्रकाशनइलाहाबाद, 2009, पृ. 26

16. सत्यप्रकाश मिश्र(सम्पादक) :जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली (खण्ड-2), लोकभारती प्रकाशनइलाहाबाद, 2010, पृ. 9

17. वहीपृ. 13

18. वहीपृ. 15


भरत
असिस्टेंट प्रोफेसरहिन्दी विभाग
गवर्मेंट आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज,

वांकलगुजरात-394430

           अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' 

( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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