शोध : हिंदी - मलयालम साहित्य और सिनेमा में क्वीर विमर्श : एक झांकी / डॉ. निम्मी ए.ए

हिंदी-मलयालम साहित्य और सिनेमा में क्वीर विमर्श : एक झांकी / डॉ. निम्मी ए.ए

 

शोध-सार :

    स्त्री और पुरुष के अतिरिक्त समाज में तृतीय प्रकृति या इतर्लिंगी के लोग रहते हैं जो हाशियेकृत और समाज द्वारा परित्यक्त है। क्वीर समुदाय अपनी अधूरी देह को लेकर जन्म से मृत्यु तक तिरस्कृत, अपमानित और संघर्षमयी जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। उपेक्षित समुदाय को शब्दबद्ध करना साहित्य की अहम खासियत रही हैं। बशर्ते तमाम साहित्य में इनकी व्यथा कथा को उभारने की कोशिश हुई हैं। खासकर हिंदी और मलयालम साहित्य में इनकी अस्मिता और ज़िंदगी को बचाने की जद्दोजहद की पहल ज़ाहिर हैं। समलैंगिकता को लेकर बहुत सी भ्रांतियां हमारे समाज में मौजूद हैं। अपनी संस्कृति एवं संस्कार को बरकरार रखते हुए अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति हमें जागरूक रहना चाहिए। इस मायने में एलजीबीटी की एक सही व्याख्या करने की पहल की गई है। हिन्दी व मलयालम साहित्य और सिनेमा के तहत तमाम क्वीर समुदाय को उजागर करने की कोशिश है। क्वीर विमर्श को ज़ेहन में रखकर उनके स्वरूप, दिशा एवं दशा सरीखे तमाम पहलुओं को रूबरू करने की पहल है। जिससे साहित्य का वह अछूता कोना झांक सके।


बीज-शब्द : क्वीर समुदाय, एलजीबीटी, थर्ड जेंडर, विमर्श, अस्मिता, संघर्ष, साहित्य, सिनेमा।

 

मूल-आलेख :

    साहित्य का वास्तविक मुद्दा मानवीय मुक्ति एवं जनजीवन के जनतांत्रीकरण का रहा है। अतः यह अस्मिता विमर्श का दौर है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तमाम स्तरों पर हिस्सेदारी और अपने हक व अधिकारों की माँग को लेकर हाशिए की अस्मिताओं का संघर्ष व स्वर उभरे है जो कि उत्तर आधुनिक दौर की खास पहचान है। लिहाज़ा वर्ग, जाति, वर्ण, लिंग, स्थानिकता, सांस्कृतिक पहचान, विस्थापन आदि के तहत नई अस्मिताएँ उभरकर सामने आई है। इन्होंने समानता, न्याय, हिस्सेदारी एवं आत्मसम्मान के लिए प्रतिरोध, आंदोलन, अभियान व संघर्ष को अपना मुक्ति पथ घोषित किया है। लिहाज़ा स्त्री, दलित, परिस्थिति, आदिवासी, किसान, पुरुष, मुस्लिम, अल्पसंख्यक, विकलांग या दिव्यांग, प्रवासी, थर्ड जेंडर, व क्वीर विमर्श फिलहाल चर्चा के केंद्र में है।

      

    अंग्रेजी भाषा में क्वीरका अर्थ है कुछ अलग, अजीब, असाधारण या विचित्र। ऐसा माना जाता है कि पहले पहल इस शब्द का इस्तेमाल किसी का मज़ाक उड़ाने के वास्ते किया गया था। अतः 19वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटेन में इसका इस्तेमाल उन मर्दों के मज़ाक उड़ाने के लिए किया जाने लगा जो या तो समलैंगिक (गे) थे या औरतों वाली प्रवृति रखते थे। दरअसल सुप्रसिद्ध साहित्यकार ऑस्कर वाइल्ड ने पहले पहल क्वीरशब्द का इस्तेमाल समलैंगिक मर्दों के अपमान के लिए लिखित रूप में दर्ज किया था। समय के साथ कई लोग इस शब्द का इस्तेमाल अपशब्द के रूप में या उपहास के वास्ते करने लगे।

       

बहरहाल ‘क्वीर सिद्धांत एक ऐसा शब्द है जो 1980 के दशक के अंत में लिंग, कामुकता, और व्यक्तिवाद के मुद्दों पर आलोचना के एक ऐसे निकाय के लिए उभरा था जो साहित्यिक आलोचना, राजनीति, समाजशास्त्र और इतिहास जैसे क्षेत्रों में पुरुष समलैंगिक और स्त्री समलैंगिक छात्रवृत्ति से बाहर आया था।[i] लिहाज़ा ‘क्वीर’ यौन और लिंग अल्पसंख्यकों के लिए एक छत्र शब्द है जो कतई विषमलैंगिक नहीं हैं। 20 मार्च, 1990 को, साठ एलजीबीटीक्यू लोग प्रत्यक्ष कार्रवाई संगठन बनाने के लिए न्यूयॉर्क के ग्रीनविच के एक सामुदायिक सेवा केंद्र में एकत्र हुए। उस संगठन का लक्ष्य होमोफोबिया को खत्म करना था, और विभिन्न प्रकार की रणनीति के ज़रिए स्त्री-समलैंगिक, पुरुष-समलैंगिक और उभयलिंगी लोंगों का समर्थन करना।

       

1980 के आसपास, एलजीबीटी कार्यकर्ताओं ने इस शब्द को अपना लिया। बजाय ये मानने के कि अलग होना एक बुरी बात है, और बजाय ये मांग करने के कि उन्हें क्वीर न बुलाया जाए, उन्होंने इस शब्द को ना सिर्फ अपना बनाया बल्कि उसके मतलब को भी पलट दिया। ये कहकर कि अगर सब हमें अपने से अलग मानते हैं तो मानें औरों से अलग होना तो खुशी की बात है। अब क्वीर शब्द का एक नया मतलब था। क्वीर यानी, वो मज़बूत और काल्पनिक विचार, जो नॉर्मेटिविटीया मानदंड को ना माने। नॉर्मेटिविटी से तात्पर्य है समाज के बनाये गए नियमों के दायरे में आता है, या यूं कहें कि जिन्हें समाज नार्मलमानता है। जो कि सर्वमान्य होता है। चूंकिहम जानते हैं कि हम में से हर कोई, हर शरीर, हर योनी, हर दिल, हर गुदा और हर लिंग अपने अंदर आनंद के सागर दबाये रखता है, जिसमें अपार संभावनाएं होती हैं। हां, हम एक सेना हैं क्योंकि हमें सेना बनने की ज़रूरत है। हम एक सेना हैं क्योंकि हम सशक्त हैं।[ii]


दरअसल 1990 में, जूडिथ बटलर, ईव सेडगविक, टेरेसा डी लॉरेटिस और जैक हैलबर्स्टम सरीखे नारीवादी लोगों की कोशिशों से क्वीर सिद्धांतका विकास हुआ। इसमें जेंडर और सेक्सुअलिटी की मदद से पावर या शक्ति के दोनों पहलुओं की जांच हुई, प्राकृतिक और काल्पनिक[iii] 1997 में, राजनीतिक वैज्ञानिक, नारीवादी और एक्टिविस्ट कैथी जे कोहेन ने क्वीर समाज के बारे में इस प्रकार अपना अभिमत दिया है- हम में से कई लोग आज भी एक नई राजनीतिक दिशा और एजेंडा की खोज में लगे हुए हैं। इसका मकसद ये नहीं कि हम भी समाज के प्रभावशाली ढांचों से अपने को जोड़ लें। बल्कि ये उन ढांचों पर सवाल उठाता है जो समाज में भेद भाव, ऊंच नीच को बढ़ावा देते हैं, जिनकी वजह से एक तबके का दूसरे पर अत्याचार बना रहता है, और बढ़ता भी रहता है। हममें से कुछ लोगों के लिए, क्वीयर सोच, गे और लेस्बियन यानी समलैंगिक समाज की भी परम्पराओं और राजनीति पर सवाल उठाने का मौक़ा रहा है।[iv]

      

दरअसल किशोरावस्था के दौरान ही यौन अभिविन्यास और प्रकटीकरण की समस्या उभरती है। किशोरावस्था एक अवधि है जब एक व्यक्ति की, उसके माता-पिता और परिवार से भिन्न स्व-पहचान और स्वायत्तता विकसित होती है। किशोरावस्था जीवन का ऐसा वक़्त बन सकता है जब प्रयोगों का अनुभव किया जाता हैं। कई युवाओं के सामने उनकी यौन भावनाओं से संबंधित सवाल खड़े हो सकते हैं। यौन भावनाओं से अवगत होना किशोरावस्था के दरमियान व्यक्तिगत विकास का सामान्य पड़ाव है। कभी-कभी किशोरों को समलैंगिक भावनाएँ महसूस होती हैं, या समलैंगिक अनुभव आते हैं। उन्हें उनके यौन अभिविन्यास के बारे में अनिश्चितता हो सकती है। यह अनिश्चितता समय के साथ कम होती है। अलग व्यक्तियों के लिए इसका समाधान अलग होता है।

      

समलैंगिकता से तात्पर्य है किसी भी समान लिंग के व्यक्ति के साथ यौन आकर्षण। समलैंगिकों को आम बोलचाल की भाषा में एलजीबीटी (LGBT) यानी लेस्ब‍ियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर कहते हैं। वहीं कई और दूसरे वर्गों को जोड़कर इसे क्वीर (Queer) समुदाय का नाम दिया गया है। इसलिए इसे LGBTQ भी कहा जाता है। लेस्बियन (L) यानी उन महिलाओं के लिए उपयोग किया जाता है जो दूसरी महिलाओं की ओर आकर्षित होती हैं। तथा उनसे प्यार करती हैं और यौन संबंध बनाना चाहती है। गे’ (G) शब्द उनके लिए इस्तेमाल किया जाता है जो एक पुरुष होकर पुरुष की ओर आकर्षित हो। ट्रांसजेंडर (T) थर्ड जेंडर होते हैं, जिनके जननांग पैदा होते वक्त पुरुष की तरह होते हैं और जिसे लड़का माना जाता है। मगर समय के साथ जब ये लोग बड़े होते हैं और अपने अस्तित्व को पहचनाते हैं तो खुद को लड़की मानते हैं। तो उन्हें ट्रांसवुमेनया परा-स्त्री कहा जाएगा और इसके उलट हो जाए तो उन्हें ट्रांसमेनया परा-पुरुष कहा जाएगा। इंटर-सेक्स (I) ट्रांसजेंडर का हिस्सा माना जाता है। ये वह लोग होते हैं जिनके पैदा होने के बाद उनके जननांग देखकर ये साफ नहीं हो पाता कि वह लड़का है या लड़की। बहरहाल सारी एलजीबीटीआई (LGBTI) समुदाय को कुल मिलाकर क्वीर (Q) समुदाय कहते हैं। ये भी कह सकते हैं जो इंसान ना अपनी पहचान तय कर पाए हैं ना ही शारीरिक चाहत, यानी जो ना खुद को आदमी, औरत या ट्रांसजेंडरमानते हैं और ना ही लेस्बियन’, ‘गेया बाईसेक्सुअल’, उन्हें क्वीयरकह सकते हैं। इन लोगों के सरोकारों को समझते हुए दुनिया को देखने की नज़रिए को क्वीयर नज़रिया कहा जाता है। हालाँकि, यह LGBT समुदाय के भीतर भी एक सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत शब्द नहीं है। उभयलिंगी (Bisexual/Bi) दोनों जेंडर के लिए यौन आकर्षण तो पैनसेक्सयूएल (Pansexual) सभी जेंडर और सेक्स के लिए होने वाला यौन आकर्षण को कहते है। अतिरिक्त इसके एक और वर्ग भी है जिन्हें असेक्सयूएल (Asexual) कहलाता है। यानी आइडेंटिटी के ऐसे परिवेश जिसमें लोगों को यौन इच्छाएं होती ही नहीं हैं। ‘1975 से अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन ने मनोवैज्ञानिकों को निर्देश दिया है कि समलैंगिक गे और लेस्बियन और बायसेक्शुअल (उभयलैंगिक) प्रवृत्ति पर लगे मानसिक बीमारी के कलंक को खत्म किया जाये। पुरुषों, महिलाओं, या दोनों लिंगों की तरफ होने वाली रोमांटिक, जज़्बाती या यौन आकर्षण की स्थायी वृत्ति को यौन अभिविन्यास कहते हैं। सेक्शुअल ओरिएंटेशन का मतलब है वह आत्म-पहचान जो आकर्षण और इससे सम्बंधित व्यवहार पर निर्भर हो। इस प्रकार के आकर्षण को महसूस करने वाले लोगों का आपस में जुड़कर समुदाय बनना यह भी लैंगिक अभिविन्यास का असर है।[v]

            

ये वाकई प्रकृति के क्रूर मज़ाक का पात्र है जो माता-पिता के क्रोमोसोंस के असंतुलन से पैदा होते है। हालाँकि संख्या में बहुत कम होते है। इन्हें जीव विज्ञान में ट्रू हेर्माफ़्रोडाइट्स और स्यूडो हेर्माफ़्रोडाइट्स नाम से अभिहित किया गया है। चूंकि जन्म के अवसर पर इनके बाह्य रूप से अंग स्त्री या पुरुष का होता है लेकिन भीतर उनके स्त्री और पुरुष दोनों का अंग होता है। या कभी बाहर का अंग अविकसित होगा। या कहिए जिसके बाह्य जननांग उसके या उसके यौन संबंध के अनुरूप नहीं होता हैं। ये दरअसल जननग्रंथि की विभिन्नता हेतु लैंगिक विकलंकता का शिकार होते हैं। मगर लेसबियन, गे आदि जो है मनोवैज्ञानिक विकृति ही हो सकती है।

      

समाज ने तृतीय लिंग वाली सन्तान का नामकरण क्लीव, हिजड़ा, किन्नर, शिव-शक्ति, कोठी, जोगप्पा, मंगलामुखी, सखी, जोगता, अरिधि तथा नपुंसक आदि अनेक नामों से किया है। क्लीव और किन्नर संस्कृत भाषा के शब्द हैं, जबकि हिजड़ाउर्दू शब्द है, जो हिजरनामक अरबी शब्द से आया हुआ है। हिजरसे तात्पर्य है कबीले से पृथक। यानी कि अपनी बिरादरी छोड़ा हुआ या उस बिरादरी से बाहर निकला हुआ। जब संकट इनके ऊपर आता है, तो वे अपने परिवार छोड़ने के लिए अभिशप्त होता है। मतलब स्त्री-पुरुषों के हमेशा के समाज से बाहर निकलकर स्वतंत्र समाज बनाकर रहने वाला। समूचे देश में हिजड़ा समाज है और अलग-अलग भाषाओं में उसके लिए अलग-अलग शब्द है। उर्दू में हिजड़ाऔर ख्वाजासराशब्द प्रयुक्त है। तो हिंदी में हिजड़ाऔर किन्नर। मराठी में हिजड़ाऔर छक्काशब्द प्रयुक्त है तो गुजराती में पावैयाहै। पंजाबी में खुस्राया जनखाप्रचलित है तो तेलुगु में नपुमसकुडु’, ‘कोज्जा’, ‘मादाकहा जाता है। तमिल में शिरूरनान गाई’, ‘अली’, ‘अवन्नी’, ‘अरावनी’, ‘अरूवनी’, अँग्रेज़ी में ‘Eunuch’ शब्द इस्तेमाल किये जाते है। बहरहाल किसी भी भाषा में चाहे जो कहकर बुलाये मगर थोड़े बहुत फर्क के साथ हिजड़ाशब्द की संकल्पना बराबर ही है। स्वयं लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी के लफ़्ज़ों में हिजमतलब पवित्र आत्मा। जिस शरीर में यह आत्मा रहती है, वो हिजड़ाहोते है। यहां व्यक्ति को महत्व नहीं है, महत्व है उस आत्मा का, और उसे धारण करने वाले हिजड़ा समाज का। इस समाज से भगवान प्यार करते हैं और इसलिए उसने हिजड़ों के लिए एक अलग राह, अलग जगह तैयार की। जो हमेशा स्त्री पुरुष की कक्षा से बाहर है। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी के लफ्जों में स्त्री और पुरुष इन दो रेखाओं के बीच के हम बिटवीन द लाइन्स। हम में स्त्रीत्व है पर हम स्त्री नहीं है। पुरुषत्व है, पर हम पुरुष भी नहीं है।[vi]

       

दरअसल किन्नर शब्द से हिन्दी में तात्पर्य देव योनी की एक जाति से है। आमतौर पर किन्नर हिमालय के क्षेत्रों में बसने वाली एक मनुष्य जाति का नाम है, जिसके प्रधान केंद्र हिमवत्‌ और हेमकूट थे। वे संस्कृतिक रूप से समृद्ध थे। इन्हें गायन विद्या का मर्मज्ञ माना जाता था। अश्वमुखी पुरुष कहते हुए किन्नरों को पुरुष और ऐसी स्त्रियों को किन्नरी कहते हैं। हालाँकि वर्तमान समय में किन्नर का आशय हिजड़ों से ही लिया जाता है। बहरहाल कौटिल्य के अर्थ शास्त्र, रामायण व महाभारत सहित तमाम इतिहास ग्रन्थों तथा पौराणिक कथाओं में हिजड़ों के बारे में कहा गया है। महाभारत में हिजडों का स्पष्ट उल्लेख है कि राम जब वनवास के लिए निकलते हैं, तब अयोध्या के नगर द्वार पर हिजड़े उनकी राह देखने के लिए रुके रहे थे। महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध से पूर्व पांडवों को जीत मिली इसके लिए अरावन ने अपना खून काली माता को दिया था। उसके बदले में काली माता ने उसे खास शक्ति देने का आश्वासन दिया था। युद्ध के पहले अरावली ने मरने से पूर्व रात में शादी करने की इच्छा व्यक्त की थी। मगर कोई भी उससे शादी करने के लिए तैयार नहीं थी। तब कृष्ण ने स्वयं एक मनमोहिनी स्त्री का रूप अख्तियार लिया और उससे शादी की थी। लिहाज़ा फिलहाल भी दक्षिण भारत में हिजड़े आरावन को अपना मूल पुरुष मानते हैं और खुद को अरावली कहते हैं। तमिलनाडु के आरावानी मंदिर में हर साल अप्रैल-मई के महीने में 18 दिनों का धार्मिक उत्सव होता है। पूरे देश के हिजड़े यहाँ आते-रहते है। इस अवसर पर उक्त कथा प्रस्तुत करते है।

       

महाभारत में धनुर्धर अर्जुन को बृहन्नला के रूप में रहना पड़ा था। दरअसल अप्सरा उर्वशी के शाप से उसे क्लीवयानी तृतीय पंथी बनना पड़ा था। एक और स्थान पर महाभारत में शिखंडी का उल्लेख भी मिलता है। वह दरअसल अम्बा थी। उसने भीष्म से बदला लेने के वास्ते तपस्या करके शिखंडी के रूप में पुरुष जन्म लिया था। मुग़ल शासन काल में कई हिजड़ों ने राजनीति में साझेदारी की थी। इसका मतलब है उस समय उन्हें सम्मान व् आदर मिलता था। उस समय के कमोबेश मुसलमान हिजड़े अमीर रह चुके थे। वात्स्यायन के कामसूत्र में तृतीय प्रकृति कहकर हिजड़ों का उल्लेख किया गया है। मुगल काल में भी किन्नरों को खास सम्मान व आदर अमूमन मयस्सर था। वह राज्य के सलाहकार, प्रशासक और हरम के रक्षक पद पर तैनात रहते थे। इनके पास अपनी ज़मीनें थीं और ये आदर व सम्मान के साथ समाज में रहकर अपना जीवन यापन करते थे।

       

अठारहवीं शताब्दी में राजशाही खत्म होते ही हिजड़ों के जीने के रास्ते कम हो गए। आखिरकार उन्हें पेट के वास्ते सडकों पर अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए भीख मांगना पड़ा। सभ्य समाज को यह अच्छा नहीं लगा। वे उन पर सख्त नियम लादने लगे। इस तरह वे हाशियेकृत होने लगे। अंग्रेजों के शासन काल में उनकी स्थिति और बदत्तर होने लगी थी। अतः ब्रिटिश हुकूमत के तहत इनकी ज़मीनें अख़्तियार कर इन्हें बदतर जीवन जीने के लिए छोड़ दिया गया। स्वतन्त्र भारत में भी इनकी हालत में कोई खास बदलाव नहीं आया है। परिणामतः इनकी जीवन रीति में काफी बदलाव आयी। कतिपय जहाँ अपराध में मग्न हो गए तो शेष भीख मांगकर जीवनयापन करने लगे। आहिस्ता देश के आमजन ने भी इन्हें हिकारत की दृष्टि से देखना प्रारम्भ कर दिया। बहरहाल इन्हें मुख्यधारा से दरकिनार किया गया।

       

गौरतलब है कि दुनिया के अन्य जितने भी समुदाय हैं उनमें कहीं न कहीं रक्तिम सम्बन्ध होता है। किन्तु इनके समुदाय के किसी भी सदस्य का आपस में किसी भी प्रकार का कोई रक्तिम सम्बन्ध कतई नहीं होता है। बावजूद ये लोग भावनात्मक रूप से एक दूसरे के साथ जुड़कर एक पृथक समाज की स्थापना करके अपना जीवन यापन करते हैं। बच्चे के जन्म से लेकर विवाह समारोह तक में लोगों की मंगलकामना करके बख्शीस हासिल करना ही अमूमन इनका खास पेशा है। अन्यथा इन्हें कोई नज़दीक रखते नहीं। काबिले गौर है कि किन्नर पारिवारिक अनुष्ठानों में आशीष व शुभकामनाएँ देने का कार्य करते हैं गोया, इस वर्ग का आशीर्वाद आनुवांशिक समृद्धि लाती है। मगर विडम्बना की बात है कि इनकी ज़िंदगी खुद तो शुभकामना से वंचित व भष्ट है।

       

अप्रैल 2014 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने किन्नरों को थर्ड जेंडर अर्थात् तृतीय लिंग के रूप में परिभाषित किया था। तीसरे लिंग के रूप में ट्रांसजेंडर्स की मान्यता एक सामाजिक या चिकित्सा मुद्दा नहीं है, बल्कि एक मानवाधिकार मुद्दा है। जिसमें लेसबियन और गे को स्थान नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सन् १९४५ में मानव अधिकारों के सन्दर्भ में जारी घोषणा पत्र में कहा गया है कि रंग, लिंग, प्रजाति, भाषा, धर्म, राजनीति, पद, जन्म, सम्पत्ति या अन्य किसी भी आधार पर किसी के भी साथ किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। भारतीय संविधान के भाग-३ के अनुच्छेद 14 से 18 तक सभी नागरिकों को समानता का हक हासिल है। संविधान के आर्टिकल 14, 16 और 21 का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रांसजेंडर देश के नागरिक हैं और शिक्षा, रोजगार एवं सामाजिक स्वीकार्यता पर उनका समान अधिकार है।[vii] अर्थात् जाति, धर्म, जन्म-स्थान और लिंग के आधार पर किसी के भी साथ भेदभाव करना दरअसल गैरकानूनी है। थर्ड जेंडर में स्त्री और पुरुष दोनों के गुण एक साथ पाये जाते है। कानूनी रूप से भले ही इन्हें प्रावधान व हक मिल गए हो मगर वह महज़ कागज़ी कार्यवाई तक सीमित है। चूंकि समाज की मानसिकता से इनकी संघर्ष गाथा अविचल जारी है। हालांकि सरकार तथा विभिन्न सामाजिक संगठनों के ज़रिए इस समुदाय को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने की पहल समय−समय पर हो रही है। उच्चतम न्यायालय ने थर्ड जेंडर को सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानते हुए सरकारी भर्तियों एवं शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने के निर्देश दिये है। गोया संविधान की धारा 14, 1621 के तहत इनको सामान्य नागरिक अधिकार शिक्षा रोज़गार एवं सामाजिक स्वीकार्यता पर समान हक देने के निर्देश जारी किए है। हाल ही में नोएडा मेट्रो रेल कॉरपोरेशन एन.एम.आर.सी ने सामाजिक नज़रिए में बदलाव हेतु एक्वा लाइन के सेक्टर-50 के मेट्रो स्टेशन को थर्ड जेंडर समुदाय को भेंट किया था। 14 अप्रैल 2014 को हर सरकारी दस्तावेज़ में महिला और पुरुष के साथ-साथ थर्ड जेंडर के कॉलम का विधान किया गया। आज सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के बाद थर्ड जेंडर को अन्य नागरिकों की तरह मौलिक अधिकार हासिल हैं। फिलहाल इन्हें पिछड़ा वर्ग घोषित करके शैक्षिक संस्थानों और नौकरियों के लिए इनके आरक्षण का मुहिम भी चल रही है। हाल में थर्ड जेंडर के अधिकारों का सवाल चर्चा में फिर से तब आया जब उत्तर प्रदेश सरकार की कैबिनेट ने थर्ड जेंडर को संपत्ति में अधिकार देने के कानून को मंजूरी दे दी। इससे पैतृक संपत्ति में उनको भी हक़ मिलेगा। यह एक तरह से कानूनी एवं सामाजिक मान्यता के लिहाज से महत्वपूर्ण फैसला है। उत्तर प्रदेश सरकार ने थर्ड जेंडर के व्यक्ति को भूमि पर हिस्सेदार के तौर पर परिवार के सदस्य के रूप में शामिल करते हुए उसे भूमि पर अधिकार व उत्तराधिकार देने के मकसद से राजस्व संहिता की धारा-4(10), 108(2) 109 और 110 में संशोधन प्रस्तावित किया। इससे पहले तक सिर्फ स्त्री और पुरुष को ही संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त था। अब इसका विस्तार थर्ड जेंडर तक कर दिया गया है। इससे थर्ड जेंडर समुदाय के लोगों को आर्थिक और सामाजिक तौर पर सुरक्षा तो मिलेगी ही साथ में उनकी पहचान को सामाजिक स्वीकृति मिल सकती है।[viii] चिकित्सा, बच्चा गोद लेने का अधिकार, अलग शौचालय, पासपोर्ट, राशन कार्ड, आधार कार्ड, स्कॉलरशिप, पेंशन, पैन, विल, बैंक खाता, लोन, अक्षय केंद्र, यात्रा में सुविधाएँ भी बड़े मुद्दे हैं। २०१६ में कैबिनेट में ट्रासजेंडर पर्सनल बिल को भी मंजूरी मिली। इस स्टेशन का नाम अब रेनबो स्टेशनहोगा और इस स्टेशन पर काम करने वाले लोगों में भी ट्रांसजेंडर को वरीयता दी जाएगी। सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव लाने के प्रयास स्वरूप यह एक महत्वपूर्ण पहल है मगर इन सबके बावजूद फिलहाल भी इन्हें इंसान का दर्जा मयस्सर नहीं। हालांकि बीते वर्ष २०१८ में धारा ३७७ के तहत आया सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय क्वीयर समुदाय के लिए काफी राहतकारी है।

       

दरअसल यह तीसरी दुनिया की हक़ीक़त है कि लगातार वे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसकी व्यथा कथा को उभारने की सराहनीय कोशिश समकालीन हिन्दी व मलयालम साहित्य में पर्याप्त मात्रा में हुई हैं। बहरहाल समाज की नज़रिया किन्नरों के प्रति हिराकत की है हालाँकि हिन्दी व मलयालम सहित तमाम साहित्य में इन्हें मुख्य धारा की ओर लाने की सराहनीय पहल फिलहाल जारी है। अतः इस यहाँ तमाम क्वीयर समुदाय की बदहालत को ज़ेहन रखकर हिन्दी-मलयालम साहित्य व सिनेमा की परख की गयी है। अतः इसमें हिंदी-मलयालम साहित्य और सिनेमा में क्वीयर समुदाय के जीवन संघर्ष को उभारने की कोशिश की गई हैं। वैसे तो पहले भी हिन्दी साहित्य में तृतीय लिंगी समुदाय का जिक्र हुआ है। मगर कृति के केंद्र में उनकी चर्चा न के बराबर थी। पहले पहल नीरजा माधव ने यमदीपउपन्यास के ज़रिए सराहना की है। इसके दरमियान किन्नरों के लिए उपन्यास का फ़लक कहानी, नाटक व कविता की अपेक्षा पूरी तरह फला-फूला। प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’, भगवंत अनमोल का ‘ज़िन्दगी 50-50’, निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाम मंडी’, डॉ. अनुसूया त्यागी का ‘मैं भी औरत हूँ’, महेन्द्र भीष्म के ‘किन्नर कथाऔर मैं पायल’, चित्रा मुद्गल कापोस्ट बॉक्स नंबर 203’, ‘नाला सोपरा’, पारू मदन नाइक का ‘मैं क्यों नहीं’, गिरिजा भारती का ‘अस्तित्व’, सुभाष अखिल का ‘दरमियाना’, राजेश मलिक का ‘आधा आदमी’, हरभजन सिंह महरोत्रा का ‘ऐ ज़िंदगी तुझे सलाम’, मुक्ति शर्मा का ‘श्रापित किन्नर’, श्रीगोपाल सिंह सिसौदिया का वह’, भुवनेश्वर उपाध्याय का ‘हाफ़ मैन’, शरद सिंह का ‘शिखंडी’, लता अग्रवाल का ‘मंगलमुखी’, रेनू बहल का ‘मेरे होने में क्या बुराई है’, मोनिका देवी का अस्तित्व की तलाश में सिमरन’, नीना शर्मा हरेश का मेरे हिस्से की धूपसरीखे उपन्यासों की लंबी फहरिस्त है।

      

पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र के कहानी संग्रह चॉकलेट’, निराला की चतुरी चमार’, एस. जी. सीसोदिया की हिजड़ा गली’, डॉ. लता अग्रवाल की बुलबुलशकुन’, शिवप्रसाद सिंह की बिंदा महाराज’, सलाम बिन रज़ाक की बीच के लोग’, गरिमा संजय दुबे की पन्ना बा’, किरन सिंह की संझा’, रश्मि दीक्षित की नियति’, डॉ. कादंबरी मेहरा की हिजडा’, डॉ.पद्म शर्मा की इज्जत के रहबर’, अंजन वर्मा की कौन तार से बीनी चदरिया’, ललित शर्मा की रतियावन की चेली’, दीपिका की खुश रहो क्लीनिकआदि किन्नरों पर रचित कुछ चर्चित हिंदी कहानियाँ हैं। मच्छिन्द्र मोरो कृत ‘जानेमन’, फैजेह कृत ‘शिखंडी’, सुरेश मेहता कृत किन्नर गाथाआदि नाटक भी चर्चा के केंद्र में रहे है। डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह के सम्पादकत्व में एकाध कविता संकलन अस्तित्व और पहचानभी किन्नरों की दर्दनाक दास्तां से हमारा साझा कराता है। मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मीपुरुष तन में फँसा मेरा नारी मनसरीखे आत्मकथाएं इस दिशा में बेशक सफल सिद्ध हुई हैं। कमोबेश फिल्मों में किन्नरों का थोड़ा बहुत हास्यास्पद रोल ही दिखाया गया है हालाँकि 1974 में पहली बार किसी बड़े एक्टर यानी संजीव कुमार ने नया दिन नई रात मेंट्रांसजेंडर का रोल किया। १1997 में आई महेश भट्ट की तमन्नामें किन्नर बने परेश रावल पराई बेटी के लिए अपनी बेटी जैसी संवेदनाएँ रखते दिखाये गए हैं। दरमियाँ इन बिट्वीनमें माँ किरण खेर की बेटी किन्नर है और वह चाह कर भी बेटी को किन्नर समाज की अँधेरी बंद गलियों से बचा नहीं पाती, उसे सामान्य बच्चों सी परवरिश नहीं दे पाती।

      

माधविक्कुट्टी की चन्दनमरंङल’ (चन्दन के पेड़) माधविक्कुट्टीयुटे कथकल संपूर्णम्, ‌इन्दु मेनोन की ओरु लेसबियन पशु’, ‘हिजडयुटे कुट्टी’, (कथकल-इंदु मेनोन), प्रमोद रामन की रतिमाताविन्टे पुत्रन्(रतिमाताव का पुत्र), ‘छेदांश जीवितम्’, पी. वत्सला की दुष्यन्तनुम् भीमनुमिल्लात्त लोकम्’ (पी. वत्सलायुटे कथकल संपूर्णम्)‌, सिंधु बाला की लेसबियन कथकल’, मीरा की लेसबियन बस यात्रा’, एम.पी. नारायण पिल्लै की हिजडा’, ‘सितारा. एस की चान्तुपोट्टु’, सारा जोसेफ की अवन’, माधविक्कुट्टी की नपुंसकङ्ङल’ (नपुंसक) आदि कहानियाँ। विजयमल्लिका ट्रांसजेंडर के ज़रिए लिखा गया एकाध काव्य संग्रह दैवत्तिन्टे मकल’ (ईश्वर की बेटी) मलयालम जगत में काबिलेगौर है। वी. टी. नंदकुमार के रंडु पेण्कुट्टिकल’ (दो लड़कियाँ), के. वी. मणिकन्डन के मूनामिडंगल’ (तीसरी जगह), संगीता श्रीनिवासन के एसिड’ (अम्ल), के. दिलीप कुमार के बुद्धसंक्रमणम’ (बुद्धसंक्रमण), एस. गिरीष कुमार के उपन्यास अलिंगम’ (समलैंगिकता), बशीर के शब्दन्गल(ध्वनि) आदि उपन्यास बहुचर्चित है। जेरीना की आत्मकथा एक मलयाली हिजडयूडे आत्मकथा(एक मलयाली हिजड़ा की आत्मकथा) भी इस खेमे की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। अर्धनारी’, ‘ओडुम राजा आड़ुम रानी’, ‘चान्दुपोट्ट’, ‘नान मेरिक्कुट्टी’, ‘उडलाषमऔर आलोरुक्कमआदि मलयालम फिल्में ट्रांसजेंडेरों को ज़ेहन में रखकर लिखी गई है।

       

हकीकत में कमोबेश किन्नर आमजन के बतौर उच्च शिक्षा हासिल कर नौकरी और रोज़गार अख़्तियार कर सम्मानजनक जीवन यापन करना चाहते है। मगर रूढ़िवादी मान्यताओं की वजह खुद इनका परिवार और समाज इन्हें अस्वीकार कर मुख्य धारा से ख़ारिज करते हैं। फिलहाल समाज में किन्नरों के साथ यौन शोषण की घटनाएं घट रही हैं। हिजड़े से हिजड़े पैदा नहीं होता। यह सभ्य समाज की देन है। हम स्त्री और पुरुष से ही पैदा होते हैं। बस वह हमको अपना नहीं पाते त्याग देते हैं। ऐसा क्यूँ?’[ix] सिमरन के इस क्यूँ का जवाब हम पाठकों को ढूँढना है। बहरहाल लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी के बतौर तमाम किन्नर उस सभ्य कहने वाले समाज से यही बिनती व ख्वाइश करती हैं – ‘हमें किन्नर नहीं, इंसान समझा जाए[x] बस इतनी-सी माँग है उनकी, वे समाज की मुख्यधारा से जुड़ना चाहते हैं। वे समाज में स्वयं की हिस्सेदारी चाहते हैं। देश के विकास में अपना योगदान सुनिश्चित करना चाहते हैं।

       

बहरहाल क्वीर समुदाय की लड़ाई मैं भी हूँकी लड़ाई है। इस लड़ाई में सफल थर्ड जेंडरों की लंबी फेहरिस्त फिलहाल मौजूद है। संवैधानिक संरक्षण और संघर्ष के कारण कल और आज के किन्नर की स्थिति में काफ़ी अंतर आया है[xi] मसलन, राजस्थान की गंगाकुमारी 2017 में पुलिस में भर्ती हुई। पृथिका याशिनी देश की प्रथम ट्रांसजेंडर सब इंस्पेक्टर बनी। कलकत्ता में जन्मी जोयिता मण्डल प्रथम जज बनी। शबनम मौसी प्रथम किन्नर विधायक हैं। किन्नर समाज कर्ता व सेलिब्रिटी लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी (संयुक्त राष्ट्र संघ में एशिया पैसिफ़िक का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रथम ट्रांसपर्सन थी)। प्रथम ट्रांसजेंडर प्रिन्सिपल के रूप में मानबी बंदोपाध्याय ने पश्चिम बंगाल के कृशन नगर विमेन कॉलेज में पदभार सँभाला। छतीसगढ़ के रायगढ़ में मधु किन्नर मेयर पद पर आसीन होने वाली प्रथम ट्रांसजेंडर हैं। क्लासिकल नर्तकी पद्मिनी प्रकाश पहली न्यूज़ एंकर हैं। रोज़ वेंकटेश्वर प्रथम टी.वी. होस्ट बनी। उनके पास इंजीनियरिंग में स्नातक और बायो इंजीनियरिंग में मास्टर की डिग्री है। विद्या या स्माइली प्रथम पूर्णकालिक ट्रांसजेंडेर थिएटर कलाकार हैं। कल्कि सुब्रहमण्यम लेखक और कलाकार हैं तथा किन्नरों के उत्थान के लिए कार्यरत हैं। उनके पास जनसंचार में स्नातकोत्तर की डिग्री है। विजयंती वसंत मोगली भी ढेरों मुश्किलातों का सामना करने के बाद सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में स्थापित हुई। पद्मिनी प्रकाश (समाचार संवाददाता), इशा किशोर (पहली ट्रांसजेंडर मतदाता), शीतल श्याम (अभिनेत्री), विजयराज मल्लिका (कवयित्री) आदि का अलग शिनाख्त हैं। बहरहाल क्वीर समुदाय समाज में स्वयं की हिस्सेदारी चाहते हैं। देश के विकास में अपना योगदान सुनिश्चित करना चाहते हैं। बस हमें इनकी बुनियादी ज़रूरतों को समझने की दरकार है।


संदर्भ 

 

[i]Queer theory is a term that emerged in the late 1980s for a body of criticism on issues of gender, sexuality, and subjectivity that came out of gay and lesbian Scholarship in such fields as literary criticism, politics, sociology, and history'. - From books  (the Encyclopaedia of Postmodernism, in Credo Reference

[ii]https://books.google.co.in/ Cynthia Weber - Queer International Relations:

Sovereignty, Sexuality and the Will to Knowledge, Oxford University press, 2016),  पृ - 21

[iii]वही, पृ - 18

[iv]वही, पृ - 30

[v]वही, पृ - 29

[vi]वही, पृ - 18

[ix]मोनिका देवी - अस्तित्व की तलाश में सिमरन, माया प्रकाशन, कानपुर,  2019, पृ - 95

[x]लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी - मैं हिजड़ा... मैं लक्ष्मी,वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2015, पृ - 43

[xi]http://sahityakunj.net/entries/view/third-gender-samaaj-aur-sahitya, 1-4-2019

 

डॉ. निम्मी ए.ए

सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग

राजकीय महिला महाविद्यालय, तिरुवनंतपुरम, केरल-69501

9747864786, dr.nimmyanas@gmail.com

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)अंक-35-36, जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' 

( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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