शोध : साहित्य, समाज एवं संस्कृति का अंत:संबंध / डॉ. अर्चना त्रिपाठी

साहित्य, समाज एवं संस्कृति का अंत:संबंध / डॉ. अर्चना त्रिपाठी

 


शोध-सार

    साहित्य जनसमूह के हृदय का सैलाब है जो समाज के प्रतिबिंब को हमारे सामने प्रस्तुत कर अपनी संस्कृति से रु-ब-रु कराता है। साहित्यिक कृति को एक सामाजिक उपादान कहा गया है जो साहित्य के जातीय स्वरूप और समकालीन राजनीति को साक्षात प्रकट करता है।"दर्पण-बिम्ब" वाला दृष्टिकोण साहित्य को दस्तावेज के रूप में देखता है। इसके अनुसार सामाजिक संरचना के विभिन्न पक्षों, सम्बन्धों, प्रवृत्तियों अर्थात् समाज की पूरी बनावट का साहित्य में सीधा प्रतिबिम्ब होता है। साहित्य सदैव संस्कृति के केन्द्र में रहा है लेकिन धीरे-धीरे यह सांस्कृतिक होता गया है। यहाँ तक की समाज के लगभग हर पहलू को संस्कृति से जोड़ा जाने लगा गया है। राजनीति भी संस्कृति के सहारे चल रही है। सांस्कृतिक विश्लेषण का मुख्य उद्देश्य है नैतिक बुनावट और कोमल भाव दशाओं की पहचान करते हुए सामूहिक अर्थों का विवेचन क्योंकि ऐसी आत्मगत और अंतरंग भावनाएँ दुनिया पर शासन करती है।

 

बीज-शब्द : साहित्य, समाज, संस्कृति, डॉ. अर्चना त्रिपाठी


मूल आलेख 


    साहित्य की रचना में समाज की भूमिका की स्वीकृति किसी न किसी रूप में बहुत पहले से ही रही है, लेकिन एक पद्धति के रूप में इसका विकास बाद के दिनों में हुआ। इस विकासक्रम में मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र की निर्वाचक भूमिका रही है लेकिन यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि दोनों एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं।साहित्य के समाजशास्त्र की यह मान्यता है कि साहित्य का मुख्य सरोकार मनुष्य का सामाजिक जगत होता है और रचनाकार की सामाजिक चेतना उसके कथानक, पात्रों के चयन में, प्रतीक, अलंकार और भाषा आदि के माध्यम से व्यक्त होती है।[1] साहित्य के समाजशास्त्र का लक्ष्य केवल कृति की व्याख्या करने तक सीमित नहीं है बल्कि उसका लक्ष्य रचना की साहित्यिक अस्मिता की व्याख्या ऐतिहासिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में किए जाने से है, इसीलिए साहित्य की समाजशास्त्रीय पद्धति में उस पूरी प्रक्रिया को समझने की कोशिश की जाती है जिसमें किसी रचना का जन्म होता है। इस प्रक्रिया में सामाजिक संरचनाओं तथा सांस्कृतिक संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। साहित्य और समाज के सम्बन्धों का उल्लेख करते हुए मैनेजर पाण्डेय का कहना है कि - "समाज से साहित्य का सम्बन्ध मान लेना एक बात है और उस सम्बन्ध के स्वरूप को ठीक से जानना पहचानना दूसरी बात। जरूरी नहीं कि जो मानते हों वे जानते भी हों। साथ ही मानने और जानने से अधिक उस सम्बन्ध की विश्वसनीय व्याख्या करना। यहीं दृष्टि और पद्धति का प्रश्न सामने आता महत्वपूर्ण है है।[2]


    वस्तुतः साहित्य के सामाजिक और रचनात्मक पक्षों के बीच आलोचक का सामाजिक दायित्व भी सामने आता है। यह भूमिका किसी रचना, रचनाकार या किसी ऐतिहासिक प्रकृति के मूल्यांकन तक सीमित नहीं रहती बल्कि उसके अन्तर्गत ऐतिहासिक प्रक्रिया के वर्तमान दौर के तमाम वैचारिक, राजनीतिक, भावनात्मक एवं मूल्यगत संघर्ष समाविष्ट हो जाते हैं। यदि यह सत्य है कि साहित्य जीवन के यथार्थ का प्रतिबिम्ब है तो आलोचक के लिए यह स्वाभाविक रूप से विचारणीय है कि रचनाकार यथार्थ को कितने प्रभावी ढंग से दिखाने में सफल हुआ है। हिन्दी आलोचना के अतीत पर नज़र डालें तो हम पाएंगे कि भारतेंदु युग में सामाजिक चिन्ता इसका मुख्य स्वर रहा है। इस सन्दर्भ में विश्वनाथ त्रिपाठी लिखते हैं कि-सामाजिक दायित्व का निर्वाह हिन्दी आलोचना की घुट्टी में पड़ा है। हिन्दी आलोचना का उद्भव वैचारिक निबन्धों से हुआ। हिन्दी के प्रारम्भिक समालोचकों में से अधिकांश पत्रकार थे और उनका सरोकार साहित्य तक ही सीमित न था। हिन्दी आलोचना के विकास का युग स्वाधीनता का युग है। इसने हिन्दी आलोचना की प्रकृति को स्वस्थ् सामाजिक दायित्व से जोड़ा।"[3] हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि आलोचना ही नहीं बल्कि नाटक, निबन्ध कविता जैसी अनेक विधाओं के उदय के कारणों की व्याख्या करें तो हम पाएंगे कि इसके गहरे सामाजिक सरोकार थे। भारतीय नवजागरण का साहित्य पर जो प्रभाव पड़ा, उसने साहित्य और समाज के रिश्ते को मजबूत किया। इस प्रक्रिया को समझने के लिए साहित्य की समाजशास्त्रीय पद्धति ही सर्वाधिक प्रभावशाली भूमिका हो सकती है।


    साहित्य और समाज के सम्बन्धों की खोज का प्रश्न काफी पुराना है। प्राचीन और मध्यकालीन सौन्दर्यशास्त्र में जहाँ यह प्रश्न गौण हो गए वहीं समकालीन साहित्य के चिन्तन का यह प्रमुख प्रश्न बन गया है। साहित्य का वास्ता काफी हद तक उन्हीं सामाजिक और आर्थिक तथा राजनीतिक संरचनाओं से पड़ता है जिनसे समाजशास्त्र का। लेकिन कलात्मक रचना के रूप में साहित्य वस्तुगत के विश्लेषण से आगे बढ़कर सामाजिक जीवन की गहराई में प्रवेश करता है। इस सम्बन्ध में रिचर्ड होगार्ट का यह कथन स्मरणीय है कि साहित्य की समझ के लिए जिस प्रकार समाज की समझ जरूरी है उसी प्रकार - "पूरे साहित्यिक प्रभाव के अभाव में समाजशास्त्र का विद्यार्थी समाज की पूर्णता से बेखबर रहेगा।"[4] साहित्य के समाजशास्त्र के अन्तर्गत समाज से साहित्य के सम्बन्ध की व्याख्या की दो पद्धतियाँ उल्लेखनीय है। एक पद्धति तो वह है जिसमें समाज को समझने के लिए साहित्य का उपयोग होता है। दूसरी पद्धति वह है जिसमें साहित्य को समझने के लिए खालिस समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाया जाता है। ऐसे में अच्छे-बुरे, सतही और गम्भीर साहित्य का अन्तर करना मुश्किल हो जाता है और महान साहित्य और लोकप्रिय साहित्य महत्व के साबित होते हैं इनसे अलग दूसरी तरफ वैसे लोग हैं जो साहित्यिक कृतियों के विशिष्ट रूप की उपेक्षा नहीं करते। वे अन्य बातों के अलावा यह समझने की कोशिश करते हैं कि साहित्य सृजन में समाज की क्या भूमिका होती है और रचना की जड़े समाज में कितनी गहरी हैं और रचना पर युग की प्रभावशाली विचारधारा का प्रभाव कैसा है और कृति की अन्तर्वस्तु और रूप को उसने कहाँ तक प्रभावित किया है।


    यह सही है कि साहित्यिक कृति एक सामाजिक उत्पादन है। लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि साहित्य की रचना व्यक्ति करता है। इसलिए समाज से साहित्य के सम्बन्ध को समझने के लिए रचनाकार के समाज से सम्बन्ध की समझ भी आवश्यक है। उन्नीसवीं सदी में प्रचलित साहित्यक समाजशास्त्रीय चिन्तन समाज को साहित्य की उत्पत्ति और उसके रूप का नियामक मानते हुए साहित्य को समाज के दर्पण के रूप में देखता था, यह दृष्टिकोण विधेयवाद (Positivism) से प्रभावित था। जिसके तहत साहित्य और समाज के बीच कार्य-काल सम्बन्ध की मान्यता थी। द्विवेदी युग में कुछ हद तक इसके प्रभावों को देखा जा सकता है। साहित्य से समाज के रिश्तों की खोज सम्बन्धी चिन्तन के विकास में अग्रगामी भूमिका निभाने वाली मादाम दी स्ताल ने साहित्य की उत्पत्ति में समाज की भूमिका और समाज पर साहित्य के प्रभाव का विवेचन किया था। इसमें गौर करने की बात यह है कि उन्होंने साहित्य के जातीय स्वरूप औरसमकालीन राजनीति से उसके गहरे सम्बन्ध को विशेष महत्व दिया था। इस चिन्तन को अधिक व्यवस्थित रूप देने वाले तेन ने भी साहित्य की सामाजिक भूमिका और उसके जातीय स्वरूप पर बल देते हुए उसे समाज के बारे में ज्ञान का प्रमुख स्रोत माना था।

    

     "दर्पण-बिम्ब" वाला दृष्टिकोण साहित्य को दस्तावेज के रूप में देखता है। इसके अनुसार सामाजिक संरचना के विभिन्न पक्षों, सम्बन्धों, प्रवृत्तियों अर्थात् समाज की पूरी बनावट का साहित्य में सीधा प्रतिबिम्ब होता है। लेकिन इसमें साहित्य को सूचनाओं के संग्रह के रूप में देखने का खतरा रहता है। यहाँ गौर करने की बात यह भी है कि रचनाकार समाज का सीधे-सीधे वर्णनात्मक भाषा में चित्रण करने में कभी प्रवृत्ति नहीं होता, बल्कि वह सामाजिक यथार्थ की पुनर्रचना करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह सामाजिक यथार्थ का चयन करता है। यह चयन उसके दृष्टिकोण और मूल्यों से निर्धारित होता है। इन मूल्यों की प्रवृत्ति को ही रेमण्ड विलियम्स ने "भाव की संरचना" कहा है। समकालीन समाजशास्त्रीय चिन्तन में अन्तर्वस्तु के स्तर पर ही समाज की खोज नहीं की जाती बल्कि रचना के हर स्तर पर उसके शिल्प संरचना और भाषा में समाज की अभिव्यक्ति पाई जाती है। आखिर क्या कारण है कि छायावाद की भाषा प्रगतिवाद में जारी न रह सकी और प्रयोगवाद की भाषा अकविता के दौर में बदल गयी। वस्तुतः नए भावों की अभिव्यक्ति के लिए नयी भाषा की जरूरत होती है। क्या कारण है कि भारतेन्दु को गद्य के लिए नयी भाषा गढ़नी पढ़ी और कविता में ब्रजभाषा के संस्कारों से लड़ना पड़ा तो निराला को "छायावाद' के दौर में मुक्त छन्द की तलाश करनी पड़ी?


    अब ज्यादातर साहित्यिक समाजशास्त्री इस पर एकमत है कि रचना के हर स्तर अर्थात् उसकी अन्तर्वस्तु, शिल्प, भाषा और संरचना में समाज की अभिव्यिक्त होती है। इसके लिए लावेंथल नेंअर्थ के मर्म" के विवेचन पर बल दिया है तो गोल्डमान नेंविश्वदृष्टि" के विश्लेषण पर। अडोर्नोअन्तर्वस्तु के सत्य" का बोधा आवश्यक मानते हैं तो रेमण्ड विलियम्स "अनुभूति की संरचनाओं की पहचान को।"[5] अर्थ के मर्म से लावेंथल का आशय "रचना की अर्थवत्ता" और "सार्थकता" से है। दूसरी तरफ विश्वदृष्टि की संरचनाओं के द्वारा गोल्डमान रचना के मूल सामाजिक वर्ग, लेखक की सामाजिक चेतना और रचना की सामाजिक संरचना को जोड़ते हैं। रेमण्ड विलियम्स में कृति में स्थायित मूल्यों के ऐतिहासिक आधार और उसके बदलते रूपों को अधिक महत्व दिया है। "साहित्य में समाज की खोज का एक महत्वपूर्ण एक कड़ी है - साहित्यिक कल्पना के सामाजिक अभिप्राय की पहचान। साहित्य-रचना का समूचा व्यवहार कल्पना का व्यापार है। कल्पना की मदद से ही जीवन-जगत का बोध, यथार्थ की चेतना, चरित्रों का निर्माण, भावों-विचारों की व्यंजना के तरीकों की खोज सम्भव हो पाती है। लावेंथल के अनुसार-यह साहित्य के समाजशास्त्री की जिम्मेदारी है कि वह लेखक के काल्पनिक पात्रों की स्थितियों का सम्बन्ध उस ऐतिहासिक वातावरण से जोड़े जहाँ से लिए गए है।[6] साहित्य में समाज की खोज और साहित्य की कलात्मक स्वायत्तता से अलग दृष्टियों का विकास होने लगा है। एक नयी अवधारणा के अनुसार साहित्य को - "रेवेलेशन ऑफ ए हिडन लाइफ"[7]माना क्या है। लेवी स्त्राउस सरीखे आधुनिक नृतत्वशास्त्री तक की साहित्य से अपेक्षा का रूप यह है कि वह उसे मानव समाज से छुटकारा दिलाकर एक भिन्न समाज से प्रवेश दिलाएगा। इस अपेक्षा को पलायनवाद या प्रतिक्रियावादी कह देना आसान न होगा क्योंकि व्यक्तिवादी तथा कलावादी कही जाने वाली प्रवृत्तियों के साथ सबसे ज्यादा गहरी और तात्विक लड़ाई नृतत्वास्त्र की ज़मीन पर ही लड़ी गयी है। "साहित्य अगर दर्पण है तो उसे सामाजिक परिवर्तन को प्रतिबिम्बित करना चाहिए और अगर यह "जीवन की छुपी सम्भावना का उद्घाटन" या एक बेहतर, सूक्ष्मतर जीवन का सूचन है तो भी शायद एक विधायक प्रेरणा के रूप में उसे सामाजिक परिवर्तन का दिशा निर्देशक बन सकना चाहिए।[8]


    साहित्य में समाज की खोज का एक तीसरा पक्ष है- "लेखक का व्यक्तित्व'। साहित्य के रूप में समाज की जो छाया प्रकट होती है वह लेखक के व्यक्तित्व के ही माध्यम से ही की जाती है। साहित्य के निर्माण में इस बीच की कड़ी - लेखक के व्यक्तित्व - का बहुत महत्व है। यह महत्व इस बात में है कि एक ओर इसका सम्बन्ध समाज से है तो दूसरी और साहित्य से।" "साहित्य-रचना की प्रक्रिया में समाज, लेखक और साहित्य परस्पर एक दूसरे को इस तरह प्रभावित करते हैं कि इनमें से प्रत्येक क्रमशः परिवर्तित और विकसित होता रहता है - समाज से लेखक, लेखक से साहित्य और साहित्य से पुनः समाज।''[9] फिर भी कुछ लेखकों का ख्याल है कि मार्क्सवादी समीक्षा से लेखक का महत्व स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि "लेखक के व्यक्तित्व" से उनका जो मतलब है उसे मार्क्सवाद स्वीकार नहीं करता। लेकिन यह भी पूरा सच नहीं है। साहित्य-रचना में जब हम लेखक के व्यक्तित्व का महत्व स्वीकार करते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह स्वयंभू और सर्वोपरि है। इस सन्दर्भ में यह कहना समीचीन होगा कि लेखक की प्रतिभा एक निश्चित परिस्थिति और परम्परा की उपज होती है। लेखक की विशिष्टता उसकी व्यक्तिगत ईकाई के अतिरिक्त अधिकांशतः उसके सम्बन्धों और सम्बन्धों की समझदारी पर निर्भर है।


    इस तरह लेखक के वैयक्तिक वैशिष्ट्य के वस्तुवादी आधार पर जोर देकर हम अधिक रचनात्मक काम कर सकते हैं। साहित्य में समाज की अभिव्यक्ति और उसके स्वरूप के बारें में मुक्तिबोध मानते हैं किसाहित्यकार अपनी विधायी कल्पना द्वारा जीवन की पुनर्रचना करता है। यह पुनर्रचित जीवन जिए और भोगते हुए जीवन से मूलतः एक होते हुए भी पूर्णतः भिन्न होता है।"[10] सभ्यता के विकास के साथ निरन्तर जटिल होते समाज और मानव स्वभाव को समझने के लिए समाजशास्त्रीय कल्पना की जरूरत बढ़ती जा रही है जिसके बारे में मिल्स का कहना है कि- "यह कल्पना मानव की ऐसी शक्ति है जो नितांत निर्वैयक्तिक परिवर्तनों से लेकर मानव मन की अत्यन्त निजी विशेषताओं तक पहुंचती है और दोनों के सम्बन्ध को उद्घाटित करती है।''[11] साहित्य और समाज के सम्बन्ध को अस्वीकारने वाले चिन्तन के बावजूद यह स्थायित्व सत्य है कि साहित्य और समाज के बीच महत्वपूर्ण सम्बन्ध है। यह अलग बात है कि साहित्य और समाज के सम्बन्ध के स्वरूप को लेकर अलग-अलग विचारधाराएँ हैं। प्रो. पाण्डेय संस्कृति के प्रश्न पर बार-बार कहते हैं कि संस्कृति के नाम पर संस्कृति का बहुत दुरुपयोग हुआ है लेखकी संस्कृति से मुक्ति की संस्कृति तक संस्कृति का प्रसार हो गया है संस्कृति के अर्थ की अनिश्चितता उसके समाजशास्त्र को भी अनिश्चित बनाती है, मनमानेपन की छूट देती है। पाण्डेय जी मानते हैं संस्कृति एवं समाजशास्त्र दोनों पश्चिम की देन है परिणामस्वरूप ज्ञान की विभिन्न प्रवृतियों के विकास का प्रभाव समाजशास्त्र पर भी पड़ता है। वर्तमान समय में सम्पूर्ण दुनियां में ज्ञान के क्षेत्र में एक सांस्कृतिक मोड़ आया है। साहित्य सदैव संस्कृति के केन्द्र में रहा है लेकिन धीरे-धीरे यह सांस्कृतिक होता गया है। यहाँ तक कि समाज के लगभग हर पहलू को संस्कृति से जोड़ा जाने लगा गया है। राजनीति भी संस्कृति के सहारे चल रही है। सांस्कृतिक विश्लेषण का मुख्य उद्देश्य है नैतिक बुनावट और कोमल भाव दशाओं की पहचान करते हुए सामूहिक अर्थों का विवेचन क्योंकि ऐसी आत्मगत और अंतरंग भावनाएँ दुनिया पर शासन करती है। कुछ समय पहले तक जो कुछ सभ्यता के अंतर्गत आता था वह सब संस्कृति का अंग बन गया है। ए.के सरन ने लिखा है कि अगर संस्कृति विश्व दृष्टि है, तो विज्ञान उसका एक पत्र है, क्योंकि विश्वदृष्टि मनुष्य को समग्रदृष्टि है जो प्रकृति तथा मनुष्य के जीवन और इतिहास से सम्बन्धित सोच का परिणाम है।


    संस्कृति के समाजशास्त्र पर बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि समाजशास्त्रियों के दृष्टि में संस्कृति क्या है, कला और सौन्दर्य की तरह संस्कृति भी ऐसी वस्तु है जिसके होने और न होने का हम अनुभव करते हैं, लेकिन उसे ठीक सो जानते नहीं। प्रो. पाण्डेय के अनुसार, "संस्कृति मनुष्य की रचना है। वह मनुष्य की मनुष्यता और समाजिकता की अभिव्यक्ति है उसके रूप से मनुष्य का श्रम और सृजन मूर्तिमान होता है। ये दोनों सगुण और साकार रूप में व्यक्त होते हैं, आमतौर पर संस्कृति को कला और धर्म से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन व्यापक रूप में मानव समाज के सभी प्रतीकात्मक और प्रबुद्ध क्रिया-कलापों को सांस्कृतिक समझा जाता है।" एडवर्ड टलर ने कहा था कि संस्कृति एक समाज के ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून और रीति-रिवाज का समुच्चय है। संस्कृति किसी भी समाज की मान्य परंपरा होती है। एक तरह से कहें तो अपनी संपूर्ण संजीवनी समाज अपनी संस्कृति से ही प्राप्त करता है। मैनेजर पाण्डेय ने संस्कृति के समाजशास्त्र को भी काफी गम्भीरता से विश्लेषित किया है। वे 'संस्कृति' को भारतीय परंपरा का शब्द न मानकर इसे अंग्रेजी के 'कल्चर' का अनुवाद बताया है। उन्होंने बताया कि हमारे यहां 'सभ्यता' शब्द संस्कृत में मिलता है।[12] कुछ समय के बाद 'सभ्यता' के स्थान पर संस्कृति का प्रयोग अधिक होने लगा और आज प्रचलन में है। संस्कृति के समाजशास्त्र को विकसित करने में पाण्डेय जी ग्राम्शी, रेमंड विलियम्स, अल्थुसेर, अडोर्नो आदि की भूमिका महत्वपूर्ण मानते हैं।

मैनेजर पाण्डेय संस्कृति के समाजशास्त्र की मुख्यतः दो दिशाएं मानते हैं 'एक है अनुभववादी, जिसे निरीक्षणमूलक भी कहा जाता है और दूसरी है भौतिकवादी या मार्क्सवादी। अनुभववाद के अंतर्गत संस्कृति की सामाजिक और आर्थिक संस्थाओं की गतिविधियों का अध्ययन होता है।[13] तथा संस्कृति के समाजशास्त्र की भौतिकवादी या मार्क्सवादी पद्धति में संस्कृति और उसके विभिन्न रूपों के सामाजिक आधार, वर्गीय स्वरूप, सांस्कृतिक व्यवहारों की परिस्थितियों और संस्कृति तथा विभिन्न कलाओं में निहित तथा व्यक्त मूल्यों में मौजूद सामाजिक संबंधों का विवेचन होता है।[14]फ्रांस के पिरे बोर्दिए एकमात्र ऐसे समाजशास्त्री हैं जिन्होंने उपरोक्त दोनों परम्पराओं का उपयोग अपने संस्कृति के समाजशास्त्रीय विवेचन में किया है।[15] चूंकि संस्कृति पश्चिम की देन है और यह उपनिवेशवाद के साथ भारत में आया है, जो कि एक सर्वग्रासी संस्कृति थी। यहाँ संस्कृति के आगमन से 'सभ्यता' शब्द का लोप हो गया और संस्कृति के अर्थ में विस्तार होता गया। यह विस्तार सार्थक दिशा की अपेक्षा निरर्थक दिशा में अधिक हुआ है। इसे विश्लेषित करते हुए पाण्डेय जी कहते हैं कि-खेल की संस्कृति से मुक्ति की संस्कृति तक संस्कृति का प्रसार हो गया है। प्रायः अर्थ की ऐसी अनंतता का अंत अर्थहीनता में होता है। संस्कृति के अर्थ की अनिश्चितता उसके समाजशास्त्र को भी अनिश्चित बनाती है, मनमानेपन की छूट देती है। संस्कृति के सर्वव्यापी और सर्वग्रासी होने के कारण उसको ज्ञान के किसी अनुशासन में रखना कठिन हो रहा है।"[16]


    संस्कृति के समाजशास्त्र को परंपरा से जोड़ते तथा विश्लेषित करते हुए पाण्डेय जी कहते हैं कि- "संस्कृति के समाजशास्त्र का एक मुद्दा है परंपरा का विश्लेषण। प्रायः परंपराएं समाज की होती हैं, कलाओं की होती हैं और साहित्य की भी होती है, जो मिलजुलकर संस्कृति का विशिष्ट स्वरूप निर्मित करती हैं।[17] इन सभी के बोध की प्रक्रिया में चयन, संग्रह और त्याग की दृष्टि होती है जो मूलतः सामाजिक होती है। मैनेजर पाण्डेय रेमंड विलियम्स की तरह साहित्यिक सिद्धांतों को सांस्कृतिक सिद्धांतों के अंतर्गत ही मानते हैं। उनके अनुसार कुछ हिन्दी के आलोचकों की साहित्यिक मान्यताओं में हम संस्कृति के समाजशास्त्र की सीधी अभिव्यक्ति पाते हैं जिसके सहारे आलोचना का समाजशास्त्र विकसित किया जा सकता है। अपनी बात रखते हुए वे कहते हैं कि-हिन्दी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की साहित्यिक सिद्धांत संबंधी मान्यताओं में उनका सांस्कृतिक दृष्टिकोण मौजूद है। उनकी लोकमंगल की धारणा का सांस्कृतिक संदर्भ है और हृदय की मुक्तावस्था का भी। मुक्तिबोध आलोचना को 'सभ्यता समीक्षा' कहते थे। रामचंद्र शुक्ल और मुक्तिबोध की आलोचना को संस्कृति के समाजशास्त्र के अंतर्गत विवेचित करते हुए उनकी आलेचना का समाजशास्त्र निर्मित किया जा सकता है।''[18] आलोचना के समाजशास्त्र की निर्मिति की जोरदार वकालत करते हुए मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि"आलोचना, चाहे वह सैद्धांतिक हो या व्यावहारिक, उसका एक सामाजिक आधार होता है और सामाजिक प्रयोजन भी, उसकी सामाजिक सार्थकता होती है और सामाजिक भूमिका भी। फिर उसका समाजशास्त्र क्यों नहीं हो सकता? केवल साहित्य का आलोचनात्मक सिद्धांत ही नहीं, कोई भी आलोचनात्मक सिद्धांत सामाजिक होने या न होने के कारण ही सार्थक या निरर्थक होता है। इसलिए आलोचना का समाजशास्त्र निर्मित किया जा सकता है।''[19]


    रेमंड विलियम्स के संस्कृति सम्बन्धी दृष्टिकोण को जीवन तथा समाज कीसमग्रता में ही सार्थक ढंग से समझा जा सकता है। वे संस्कृति के तीन रूपों और स्तरों- संस्कृति एक जीवन्त अनुभव है, दूसरा दस्तावेजी रूप तथा तीसरा इन दोनों के संबंध से बनता है जिसे परंपरा की संस्कृति कहते हैं[20] की बात करते है। ग्राम्शी के योगदान को रेखांकित करते हुए पाण्डेय जी कहते हैं कि- "संस्कृति के समाजशास्त्र को ग्राम्शी की एक बड़ी देन है प्रभुत्व य वर्चस्व की धारणा।"[21] इसके साथ ही वे अपने विश्लेषण में 'लोक संस्कृति' के महत्त्व का भी विश्लेषण करते हैं। अल्थुसेर के योगदान को बताते हुए पाण्डेय जी कहते हैं कि- "अल्थुसेर की विचारधारा की धारणा संस्कृति के समाजशास्त्र के निर्माण में सहायक तो है ही, साथ ही वह संस्कृति की राजनीति को समझने में भी मदद करती है।"[22] अडोर्नो का मूल्यांकन वे इन शब्दों में करते हैं- "संस्कृति के समालोचक के रूप में अडोर्नो की ख्याति का मुख्य कारण संस्कृति के उद्योग की धारणा है। इस प्रकार उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों का मूल्यांकन कर संस्कृति के समाजशास्त्र के कई आयामों को दिशा दी है।" भारतीय संस्कृति बहुलतावादी संस्कृति से युक्त है। यहां कई संस्कृतियां हैं, जिससे उनमें सामंजस्य की समस्या मुख्य है। कुछ वर्चस्वशाली संस्कृतियाँ अपेक्षाकृत सामान्य संस्कृतियों को अपने में मिला लेने के लिए प्रयत्नशील हैं। ऐसे में पाण्डेय जी कहते हैं कि-आत्मसातीकरण के बदले संस्कृतियों में निहित सार्वभौमिकताओं की पहचान और उनका समन ही उचित होगा। संस्कृतियों के अंतर और अलगाव के स्वीकार के बाद जो समावेशन और परस्पर निर्भरता की प्रक्रिया चलती है वही लोकतांत्रिक होती है।[23] आगे वे कहते हैं कि-किसी एक संस्कृति को भारतीय संस्कृति मान लेना दूसरी संस्कृतियों के साथ अन्याय होगा। वह असांस्कृतिक भी होगा, क्योंकि न्याय-भावना संस्कृति का एक बुनियादी लक्षण है।"[24] भारतीय संस्कृति का समाजशास्त्र रचने में वे बौद्धिकता की आवश्यकता पर बल देते हैं न कि आस्थावादी दृष्टिकोण पर। वे कहते हैं कि- "अगर हम यह मान लें कि भारतीय संस्कृति रहस्यवादी और आध्यात्मिक ही है तो भारतीयसंस्कृति का समाजशास्त्र बनाना कठिन होगा, क्योंकि रहस्यवाद और आध्यात्मिकता का सारा कारोबार आस्था के सहारे चलता है जबकि समाजशास्त्र के लिए बुद्धि और विवेक की जरूरत होती है।[25]


    स्त्री पराधीनता के यथार्थ तथा आदिवासी संस्कृति के चित्रण भारतीय साहित्य में असंख्य हैं लेकिन क्या कोई इनकी संस्कृति की चिन्ता करता है, जबकि वे भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। पाण्डेय जी अत्यन्त आक्रोशित होकर सवाल करते हैं कि- "क्या भारतीय समाज में स्त्री पराधीनता के यथार्थ और स्वाधीनता की आकांक्षा की अभिव्यक्ति को भी भारतीय संस्कृति के समाजशास्त्र में जगह मिलेगी? या केवल सीता और सावित्री के पातिव्रत्य का गुणगान और सती की महिमा का मंडन ही होगा?"[26] जिस प्रकार भक्तिकाल में सभी धर्म, संस्कृति और जातियों ने मिलकर उसे स्वर्ण युग के स्थान तक पहुंचाया था, आज भी आवश्यकता कुछ वैसी ही है यानी कि सर्वसमावेशी सांस्कृतिक, सामाजिक एकता की। इसी बात को और धार देते हुए मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि-भारतीय संस्कृति का समाजशास्त्र बनाने का जो भी प्रयास होगा उसके केन्द्र में भक्ति आंदोलन और उसकी सांस्कृतिक सर्जनाओं को रखना होगा। आज भारतीय संस्कृति का कोई ऐसा समावेशी विवेचन नहीं हो सकता जिसमें तानसेन, तुलसीदास और ताजमहल को शामिल न किया जाए।[27] अन्य संस्कृतियों के प्रति उपेक्षाभाव रखने वाली तथा संस्कृति की ही संस्कृति को एकमात्र भारतीय संस्कृति मानने वालों की दृष्टि को नकारते हुए वे कहते हैं कि- "जो लोग संस्कृत की संस्कृति को ही भारतीय संस्कृति समझते हैं वे भक्ति आंदोलन और उसके काव्य का अपमान करते हैं। भक्ति आंदोलन संपूर्ण भारत की जनता की मातृभाषाओं के सर्जनात्मक उत्थान का आंदोलन था, जिसने संस्कृत की संस्कृति से संघर्ष करते हुए स्त्रियों तथा दलितों को आत्माभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी।"[28]


    पाण्डेय जी भारत की संस्कृति के संबंध में किसी एक मत या भाषा को लेकर उसी के आधार पर सम्पूर्ण भारतीयता का विश्लेषण गलत मानते हैं। जबकि किसी देश में कई संस्कृतियाँ हैं तो उसका सांस्कृतिक स्वरूप उन सभी के संघात में निर्मित किया जाना चाहिए, फुटकर रूप में नहीं। इस बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि-केवल वैदिक-पौराणिक साहित्य के आधार पर निर्मित संस्कृति का समाजशास्त्र अधूरा और एकांगी होगा उसका पूर्णता के लिए संस्कृत के साथ पालि, प्राकृत, उपभ्रंश, लोकभाषाओं और आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य को भी ध्यान में रखना होगा।"[29]अन्त में पाण्डेय जी कहते हैं कि- "संस्कृत की वही चिंता सार्थक है जो मनुष्य की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ी हो अन्यथा मौन की संस्कृति क्या बुरी है।"[30]

 

संदर्भ-


[1]निर्मला जैन : साहित्य का समाजशास्त्रीय चिन्तन

[2]मैनेजर पाण्डेय : साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, पृ. 13

[3]विश्वनाथ त्रिपाठी : ‘आलोचना का सामाजिक दायित्व’, आलोचना, अंक-86, नवांक, पृ. 23

[4]Richard Hoggart – Speaking to Each other, Page-20.

[5]मैनेजर पाण्डेय : साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, पृ. 15

[6]L. Lowenthal – The Art of Narative, page-10.

[7]रमेश चन्द्र शाह : ‘साहित्य और सामाजिक परिवर्तनः कुछ विचारणीय मुद्दे’ साक्षात्कार, अंक-53, नव-दिस-1982

[8]वही, पृ. 35

[9]नामवर सिंह : इतिहास और आलोचना, पृ. 37-38

[10]वही, पृ. 37-38

[11]C. wright Mills – The socialogical Imagination, page-14.

[12]समकालीन जनमत, पृ. 80

[13]मैनेजर पाण्डेय : समेकित निबंध, पृ. 208

[14]वही, पृ. 208

[15]वही, पृ. 208

[16]समकालीन जनमत, पृ. 80

[17]संकलित निबंध, पृ. 203

[18]वही, पृ. 202

[19]वही, पृ. 202

[20]वही, पृ. 200

[21]वही, पृ. 205

[22]वही, पृ. 206

[23]वही, पृ. 210

[24]वही, पृ. 211

[25]वही, पृ. 212

[26]वही, पृ. 213

[27]वही, पृ. 214

[28]वही, पृ. 215

[29]वही, पृ. 215

[30]वही, पृ. 215

                      डॉ. अर्चना त्रिपाठी
            असिस्टेंट प्रोफेसर
जीसेस एण्ड मैरी कॉलेज
             दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)अंक-35-36, जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' 

( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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