समीक्षा : दर्द, उपेक्षा तथा घृणा से भरे जीवन की कथा है ‘किन्नर कथा‘ / भारती

        दर्द, उपेक्षा तथा घृणा से भरे जीवन की कथा है ‘किन्नर कथा‘ / भारती

 


    हिन्दी कथा साहित्य में खास तौर पर उपन्यासकारों में महेन्द्र भीष्म, गिरजा भारती, प्रदीप सौरभ, चित्रा मुद्गल आदि कई ऐसे रचनाकार हैं जो वर्तमान में इन हाशिए के समूहों एल.जी.बी.टी. पर अपनी कलम चला रहे हैं। महेन्द्र भीष्म द्वारा लिखित ‘किन्नर कथा’ उपन्यास है, जिसमें किन्नर समुदाय के कई पहलुओं पर लेखक ने हमारा ध्यान आकर्षित किया है। महेन्द्र भीष्म ने कई उपन्यास जैसे:- ‘किन्नर कथा’, ‘मैं पायल’ तो लिखे ही साथ ही विभिन्न विधाओं को भी अपनी रचना-कला का हिस्सा बनाया। फिर चाहे वह कहानी, कहानी संग्रह या फीचर फिल्म ही क्यों न हो - (कहानियाँ) तेरह करवटें, एक अप्रेषित पत्र, क्या कहें, तीसरा कंबल, लाल डोरा आदि। (कहानी संग्रह) - जय हिन्द की सेना। दो कहानियों पर लघु फिल्म और एक उपन्यास किन्नर कथा पर फीचर फिल्म का निर्माण किया। महेन्द्र भीष्म को कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। जो इस प्रकार हैं- मुंशी प्रेमचंद-कथा सम्मान, विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार, महाकवि अवधेश-साहित्य सम्मान आदि। उपन्यासकार के अलावा मा० उच्च न्यायालय इलाहाबाद की लखनऊ पीठ में प्रथम श्रेणी के अधिकारी रहे महेन्द्र भीष्म संवेदनात्मक एवं विचारोत्तेजक विचारों को अपने प्राक्कथन में कुछ यों व्यक्त करते हैं- ‘‘आखिर ईश्वर ने इनके साथ अन्याय क्यों किया? क्यों हम उन्हें अपने से दूर सामाजिक दायरे से बाहर हाशिए पर रखते चले आ रहे हैं? उनके प्रति हमारी सोच में अश्लीलता का चश्मा क्यों चढ़ा रहता है? किसी किन्नर के साथ बेहिचक घूमने-टहलने या उसे अपने ड्राइंगरूम में बैठाकर उसके साथ जलपान करने में हम क्यों हिचकते हैं? इस पर विचार करना होगा, उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ना होगा, उनका पूरा सम्मान करना होगा।उनके अनुसार उनके अनुरूप उन्हें रोज़गार प्रदान कराने होंगे। वे भी हमारी तरह अपनी माँ की कोख से जन्में अपने पिता की संतान हैं, वे ज़्यादा नहीं मांग रहे, ‘हमें हिजड़ा नहीं, इन्सान समझा जाए।बस इतनी सी मांग हैं।”1

 

बस इतनी-सी माँग है उनकी, वे समाज की मुख्यधारा से जुड़ना चाहते हैं। देश के विकास में वे भी अपना योगदान सुनिश्चित करना चाहते हैं। ज़रूरत है तो बस हमें उनकी बुनियादी आवश्यकताओं को समझनें की। ऐसे ही प्रश्न महेन्द्र जी अपने पूरे उपन्यास (किन्नर कथा) में जगह-जगह पर उठाते हैं। वह किन्नर समुदाय के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक पक्ष के प्रश्नों को न केवल उठाते हैं बल्कि साथ ही साथ उसका समाधान भी प्रस्तुत करते चलते हैं।  किन्नर कथाउपन्यास में महेन्द्र भीष्म ने किन्नरों के जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला है। यह उपन्यास एक समस्या प्रधान तथा किन्नरों के जीवन की विडम्बनाओं को बताने वाला उपन्यास है। तमाम आधुनिकताओं एवं आंदोलनों के बावजूद वस्तुस्थिति यह है कि किन्नर आज भी तिरस्कृत, अप्रिय, आवंछित एवं वर्जित महसूस करते हैं, उन्हें यह अहसास निरंतर दिलाया जाता है कि वह इस समाज में आदरणीय नहीं हैं। उनके सामाजिक बहिष्करण की झलक का संज्ञान उनकी आत्मक्रूरता, हीन भावना से आत्मग्रसिम, आत्मदंडित, विवशतापूर्वक संबंध आदि से भरे जीवन से लगाया जा सकता है।

 

 

उपन्यास का नाम (शीर्षक) किन्नर कथाकिन्नरों के जीवन को पूर्ण रूप से जानने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। जो इसके नाम से ही स्पष्ट होता है। किन्नर कथाकिन्नर के जीवन की कथा है। किन्नर जीवन को कथा वस्तु का आधार बनाते हुए लेखक ने किन्नर समाज और सामान्य समाज के मध्य स्थित विभिन्न मिथकों व यथार्थ परिस्थितियों को अलग-अलग पात्रों के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखा है। महेन्द्र भीष्म इस दिशा में बहुत हद तक सफल भी हुए हैं। सोना, तारा, सोनिया, नगीना जैसे किन्नर पात्रों के जीवन को प्रस्तुत करते हुए लेखक बीच-बीच में किन्नरों से संबंधित अनेक तथ्यों को भी उजागर करते हैं। विडम्बना यह है कि खुद इतने दर्द, उपेक्षा तथा घृणा से भरे जीवन को जीने के बावजूद किन्नर हमारी जिंदगी में आनंद भरने, मनोरंजन करने तथा दुआएँ देने में कभी कंजूसी नहीं करते। हाँ इसकी शर्त यह भी है कि इन्हें बदले में अपना पेट भरने तथा जीवन गुजर करने के लिए रूपये भी चाहिए होते हैं। महेन्द्र अपने उपन्यास में किन्नरों के इस पक्ष को तो दिखाते ही हैं साथ में यह भी बताते हैं कि इन किन्नरों का भी अपना अलग समाज, संस्कृति, रीति-रिवाज़, राजनीति, धार्मिक मान्यताएँ, जीवन जीने के सिद्धांत, आर्थिक आदि पक्ष होते हैं। किन्नर कथाउपन्यास की विषय वस्तु की शुरूआत बुंदेलखण्ड के चित्रकूट और छतरपुर की पृष्ठभूमि पर उपजी है इसमें बुंदेली राजघराने में जन्मी एक बच्ची सोना की कहानी है। जो पैदा होते ही राजघराने के लिए मुसीबत बन जाती है। लेखक ने इतिहास के ताने-बाने में इसके कथासूत्र को बढ़ाया है। महाराज छत्रसाल के वंशज राजा परीक्षित की कभी राजधानी रही जैतपुर, जिसने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पूर्व सन् 1842 में अंग्रेजों के विरोध में स्वतंत्रता का बिगुल फूँका था। इस राजघराने कुल में पैदा हुई एक किन्नर बच्ची (सोना उर्फ चंदा) के जीवनवृत्त को आधार बनाकर इस कथा का विस्तार हुआ है। उपन्यास के प्रारम्भ में ही लेखक ने यह संकेत दिया कि कोई अप्रिय घटना होने वाली है। वह लिखते है- ‘‘जैतपुर व उसके आसपास का क्षेत्र पिछले दो दिन से लगातार हो रही मूसलाधार बारिश से जलाप्लावित हो चुका था। सूर्यदेव के दर्शन पिछले शुक्रवार से नहीं हुए थे। यद्यपि जलवृष्टि थम चुकी थी, भादों मास की अंधियारी रातों में सबसे गहन आज सोमवारी अमावस की रात थी।”2

 

 

 उपन्यास की विषय वस्तु सोना उर्फ चंदा के जन्म से प्रारंभ होकर शोभना द्वारा चंदा के ऑपरेशन व परिवार वालों द्वारा अपनाने पर समाप्त होती है। शोभना आभा को आश्वासन दिलाते हुए कहती है- ‘‘आप निश्चिंत रहें समधिन जी। रूपा के साथ ही हम चंदा को भी अपने साथ कनाड़ा ले जाएंगे वहां सोना का चैकअप कराएंगे, अब तो विज्ञान का युग है, नई-नई टैक्नोलॉजी आ गई है। सांइस ने बहुत तरक्की कर ली है। अब तो ऑपरेशन से सैक्स तक चेंज हो जाता है। फिर सोना उर्फ चंदा का तो छोटा-सा ऑपरेशन होगा, जो इसकी जिंदगी बदल देगा और यह भी विवाह कर अपना घर बसा सकती है। मैं सोना की सारी जिम्मेदारी लेती हूँ।”3 उपन्यास के कथानक की बात करें तो महेन्द्र भीष्म स्वयं प्राक्कथन में कहतें है कि-  ‘‘उपन्यास का कथानक यथार्थ से उतनी ही सच्चाई के साथ जुड़ा है, जितना कि आप इन पंक्तियों को इस समय पढ़ रहे हैं और इसमें कल्पना का समावेश उतना ही है, जितना भोजन में नमक की ज़रूरत महसूस होती हैं।”4 परन्तु महेन्द्र भीष्म का उपन्यास परी कथा की तरह लगता है। यह उपन्यास बचपन में सुनी एक सच्ची घटनापर आधारित है। जिसे लेखक ने अपने छोटे चाचाजी से सुना था लेकिन इस कृति को पढ़ते हुए प्रथम धारणा यह बनती है कि इसका कथानक सुनियोजित तरीके से गढ़ा हुआ है। जिस तरह की नाट्कीयता इस उपन्यास में है, वह यथार्थ से परे लगती हैं किन्तु फिर भी यह सत्य है कि भले ही उपन्यास की कथा, काल्पनिक व परी कथा सी लगे लेकिन यह सच्ची घटनापर आधारित है। लेखक लिखतें है-‘‘सच्ची घटना कहानी सी लगे या कहानी सच्ची सी घटना लगे, तब इसे क्या कहा जाए?”5 

 

महेन्द्र भीष्म ने किन्नर कथामें हाशिए के समाज (किन्नरों) के जीवन के प्रत्येक पहलू पर अत्यंत बारीकी से नज़र दौड़ाई है फिर चाहे वह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक हो या शैक्षणिक, मनोवैज्ञानिक, यौन समस्याएँ आदि।  वैसे तो किन्नरों की दशा समाज में हर मायने में दयनीय है किन्तु इसमें भी मुख्य रूप से सामाजिक और आर्थिक दशा अत्यंत सोचनीय है जो कि किसी भी व्यक्ति के जीने की आरम्भिक शर्त होती है। महेन्द्र भीष्म किन्नर कथामें बताते हैं कि किन्नरों का घर विकसित जगह से परे गाँव तथा अविकसित इलाकों में होता है और साथ ही उनके गुरूधाम व डेरों की संरचना का वर्णन भी लेखक ने अत्यंत विस्तार से किया है जो कि अक्सर लोगोंके लिए एक रहस्य बना रहता है। लेखक लिखते हैं- तारा अपने किन्नर समाज का गुरू है। यह पद उसने काफी संघर्षों के बाद पाया था। किन्नर समाज में सात घर होते हैं। जिसका मुखिया नायक होता है, जो गुरू नियुक्त करता है। गुरू का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। किन्नर चाहे वह हिन्दू के यहां पैदा हुआ हो, मुस्लिम या किसी अन्य धर्म से किन्नर समाज में सम्मिलित हो, वह सभी एक पंथ के गामी बन जाते हैं, जो स्व-अर्जित आय का निर्धारित हिस्सा अपने गुरू के चरणों में ईमानदारी के साथ रखते हैं।’’6 किन्नरों के गुरूधाम के साथ-साथ उनके डेरों के बारे में भी लेखक उपन्यास में बताते हैं जैसे किन्नरों के डेरे में कोई व्यक्ति नाते-रिश्तेदार, जो किन्नर न हो, नहीं रह सकता। ऐसा करने के लिए किन्नर समाज के मुखिया को जुर्माना देना पड़ता है। उपन्यास में मुंशी मातिन की ओर इशारा करते हुए तारा से पूछता है-‘‘डेरे में हिजड़ों के अलावा कोई अन्य रहें तो हिजड़ों को ऐतराज नहीं होता माई?” तारा मुंशी को उत्तर देती हुई कहती है-होता है, हम लोग किसी भी घर-परिवार या जान-पहचान वाले को यदि वह हिजड़ा नहीं है तो अपने साथ नहीं रख सकते।’’7

  

महेन्द्र भीष्म उपन्यास में किन्नरों के जीवन की दयनीय अवस्था बड़ी ही बारीकी से दर्शाते हैं इसमें भी वह किन्नरों की सबसे बड़ी समस्या विस्थापन के दर्द को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि विस्थापन दंश किन्नरों को सबसे पहले अपने परिवार के लोगो से ही झेलना पड़ता है। उपन्यास में तारा, चन्दा, सोनिया व रेखा जैसे बहुत से किन्नर विस्थापन के इस दर्द को झेलते हुए दिखते हैं। परन्तु सवाल यह उठता है कि जब हम विकलांग या मानसिक रूप से अक्षम बच्चे को ईश्वरीय मर्जीं समझकर अपना लेते हैं तो यौनिक अक्षमता के साथ पैदा हुए बच्चे को ईश्वरीय मर्जीं समझकर क्यों नहीं अपनाते? क्यों उन्हें परिवार में जगह नहीं देते? क्यों उन्हें शर्मिंदगी का कारण मान लेते है? क्यों उन्हें विस्थापन के इस दंश को सहने के लिए छोड़ देते हैं? उपन्यास में तारा और चंदा को यह विस्थापन सहना पड़ा। तारा को उसके परिवार द्वारा विस्थापित किया गया- चौदह-पंद्रह का होते-होते उसे उसके ही घर-परिवार से दूर कर दिया गया। बहनों की शादी का वास्ता, घर परिवार की मान-मर्यादा का खयाल, उसे दूर जाने के लिए विवश किया था। अपने भाग्य और नियति की इच्छा जान वह हिजड़ो के साथ हो लिया था।’’8 किन्नरों में भी कई प्रकार होते हैं। उपन्यास में किन्नरों के इन प्रकारों का वर्णन लेखक ने किया है। हमसे से ऐसे कितने ही लोग होंगे जो किन्नरों के इन प्रकारों के बारे में जानते होंगे, शायद बहुत कम या न के बराबर। महेन्द्र किन्नरों के इन प्रकारों का वर्णन करते हुए लिखते हैं-

 

  “लिंगोच्छेदन कर बनाए गए हिजड़ों को छिबराऔर नकली हिजड़ा बने मर्दों को अबुआकहते हैं। वैसे हिजड़ों की चार शाखाएँ हैं- बुचरा, नीलिमा, मनसा और हंसा। बुचरा पैदाइशी हिजडें हैं, नीलिमा स्वयं बने, मनसा स्वेच्छा से शामिल तथा हंसा शारीरिक कमी के कारण बने हिजड़े हैं।’’9 यहाँ साफ पता चलता है कि लेखक को इन किन्नरों के बारे में गहरी जानकारी है। वह गहन अध्ययन के साथ इन किन्नरों के बारे में यहाँ बताते हैं कि किन्नरों में भी कई प्रकार के किन्नर होते हैं जैसे बुचरा, नीलिमा, मनसा, हंसा, छिबरा और अबुआ। सोना उर्फ चंदा और तारा बुचरा यानि पैदाइशी हिजड़े हैं। जिसका उदाहरण उपन्यास में जगह-जगह देखने को मिलता है। जब सोना के पिता जगतराज को पता चलता है कि उनकी दो बेटियों में से एक बेटी स्त्री और दूसरी बेटी पैदाइशी किन्नर है-‘‘एक साथ हज़ारों बिजलियां जगतराज की आंखों के सामने कौंध गईं, ‘है भगवान! हमारी संतान हिजड़ा!’ ”10उपन्यास में असली और नकली किन्नरों का विवाद भी दिखाई देता है। असली व नकली किन्नरों के विवाद के कारण पूरे उपन्यास में कई महत्त्वपूर्ण सवालों को लेखक ने उठाया है, फिर चाहे यह प्रश्न इन असली किन्नरों की पहचान से लेकर उनके आर्थिक संकट का ही क्यों न हो। नकली किन्नर किस प्रकार असली किन्नरों की छवि को बिगाड़ रहे हैं, यह भी उपन्यास में देखने को मिलता है। लेखक लिखते हैं-कोई भी हिजड़ा कभी नहीं चाहता कि अगले जन्म में वह फिर हिजड़ा ही पैदा हो। बावजूद इसके कुछ मर्दों को हिजड़ा भेष धर ताली पीटने से गुरेज नहीं है और ऐसे ताली पीटने वाले न केवल किन्नरों की रोज़ी-रोटी में सेंध लगा रहे हैं, बल्कि आम जन के मन-मस्तिष्क में किन्नरों से तटस्थ रहने की भावना को बल दे रहे हैं।’’11

  

असली किन्नरों की अपेक्षा नकली किन्नर अधिक संख्या में हैं। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि आखिर नकली किन्नर कौन होते हैं? नकली किन्नर मर्द होते हैं, इनमें भी बहुत से ऐसे है जिनके दो या तीन बच्चे होते हैं लेकिन बेरोज़गारी गरीबी और मजबूरी में इन्हें किन्नर बनना पड़ता है-‘‘बेशक, हिजड़ा सुनना किसी भी मर्द के लिए कान में पिघला शीशा उड़ेल देने जैसा होता हैं, मगर बेरोज़गारी और गरीबी ने इन नकली बने हिजड़ों को यह सहन-शक्ति भी दे दी हैं।”12  उपन्यास में असली किन्नर है-तारा, सोना उर्फ चंदा, सोनिया व नगीना आदि। तो वहीं दूसरी ओर नकली किन्नरों में-लम्बू हिजड़ा, रहमान व अब्दुल आदि हैं। लम्बू हिजड़ा एक ऐसा अपराधिक गिरोह चलाता है जिसमें वह रहमान व अब्दुल से उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर गलत काम करवाता है। रहमान एक स्थान पर कहता है-‘‘जी हुजूर मैं रहमान हूँ, गाँव में स्वांग मंडली के साथ नाच-गाने का काम करता हूँ, दो रोज़ पहले अब्दुल भाई मुझे छतरपुर लेकर आए थे। मेरे बाप ने गरीबी से तंग आकर खुदकुशी कर ली थी हुजूर। तीन छोटी बहनें हैं, बूढ़ी माँ है, हुजूर गाँव में काम मांगने पर कोई काम नहीं देता। स्वांग वाला, खसुआ, जनखा, हिजड़ा कहकर टरका दिया जाता है। माँ और बहनों को खिलाकर ही कुछ खाने की कसम खाई थी। हुजूर सच कह रहा हूँ, खुदा कसम।“13  मजबूरी के कारण ही रहमान नकली किन्नर बनता है, ताकि वह अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा कर पाए परन्तु यह कहाँ तक ठीक है, ऐसा करने से लोगों में असली किन्नरों के प्रति नकारात्मक भाव पैदा हो रहा है। जो अच्छी बात नहीं है।  असली-नकली किन्नर के विवाद के साथ-साथ यह भी बताया गया है कि नकली किन्नर जब असली किन्नरों का रूप धारण कर लेते हैं तो उनमें अंतर कैसे किया जा सकता है कि नकली किन्नर कौन है या असली किन्नर कौन है? आयुष द्वारा जब उपन्यास में यह प्रश्न पूछा जाता है कि असली किन्नरों की पहचान कैसे की जाती है? तो नगीना इसका उत्तर देते हुए कहती है-‘‘असली हिजड़ा कभी दो-चार रूपयों के लिए मेले-ठेले में भीख-सी मांगते नहीं घूमते। पैसा न मिलने पर किसी को कोसते नहीं है और न ही लड़ाई-झगड़ा करते हैं, जिसने जो प्रेम से दे दिया, ले लिया। ये नहीं कि गुस्से में घाघरा उठाकर दिखा दिया। ये सब काम नकली हिजड़े करते हैं, हम लोग कभी नहीं। असली हिजड़ा मन व आत्मा से स्त्री होती है। शरीर उसका पुरूष की तरह हो सकता है, पर मन से वह एक पुरूष का साथ चाहता है, स्त्री की तरह उसकी चाहत पुरूष से जुड़ने की होती है, जबकि नकली हिजड़े पुरूष होते हैं और सैक्स के लिए स्त्री की चाहत रखते हैं।”14  लेखक ने किन्नरों के ताली ठोकने पर भी इस उपन्यास में जिज्ञासा व्यक्त की है। वह जिलाधिकारी आयुष द्वारा किन्नरों की ताली ठोकने पर प्रश्न उठाते हैं और इससे पाठकों को भी अवगत कराते हैं। तारा अपनी समस्या ले जिलाधिकारी के पास पहुँचती हैं। वह अचानक ताली बजाती है। तब अधिकारी पूछता है आप लोग ताली क्यों बजाते हैं? तब वह कहती है- ‘‘ये हमारा लहजा है साब। नाच-गाकर पेट पालते हैं, बधाइयाँ देते हैं, ताली पीटकर हम ऊपर वाले से सबके लिए खुशियाँ मांगते हैं।”15 

 

 लेखक किन्नर समाज की एक पहेली से पाठकों को अवगत कराता है। ये किन्नर बात-बात पर ताली बजाते हैं, ऐसा तो सबने देखा है पर क्यों बजाते हैं किसी को नहीं पता। इसी तीसरे वर्ग यानि किन्नर समाज की ताली जितनी बेसुरी होती है उतनी ही मर्म तथा दर्द से भरी होती है इनकी जिंदगी, जिस पर अन्य लोगों का ध्यान ही नहीं जाता है। किन्नरों के भी जीवन जीने के अपने कुछ सिद्धांत नियम व कानून होते हैं। इन किन्नरों में आपस में भी कई श्रेणियाँ होती हैं। देह व्यापार में संलग्न किन्नर शादी-ब्याह आदि अवसरों पर नाच-गाकर पैसा कमाने वाले किन्नरों को अपने से नीचा समझते हैं, तो वहीं नाचने-गाने वाले, किन्नर सिगनलों पर भीख मांगने वालों को अपने से नीचे। ऐसे ही उपन्यास में लेखक ने किन्नरों के यौन कर्म में संलग्न होने पर भी कई प्रश्नों को अपने पात्रों के माध्यम से पाठकों के समक्ष उजागर किया है जैसे-‘‘आप लोगों की मुख्य पहचान यौन कर्मियों की क्यों है?‘‘ (जिलाधिकारी आयुष ने तारा से प्रश्न किया?) ‘‘यह सच है सर कि शिक्षा की कमी, अन्य व्यवसाय में जुड़ने के सीमित अवसर, आर्थिक तंगी व परिवार का भावात्त्मक लगाव न होना ही अधिकांश हिजड़ों को यौन कर्म की ओर ले जाता हैं।”16  (तारा ने प्रश्न का उत्तर दिया)

  

  जिस प्रकार कोई मनुष्य (मुख्य धारा के लोग) अपनी इच्छा से यौन-कर्मी नहीं बनता वैसे ही किन्नर समुदाय भी अपनी इच्छा से इस कार्य में संलग्न नहीं होता। आर्थिक तंगी, व्यवसाय से न जुड़े होने व परिवार द्वारा विस्थापित किए जाने आदि इन सभी चीज़ों के अभाव में अपना पेट पालने, समाज में खुद को जिंदा रखने व मजबूरी में ही कोई भी किन्नर यौन कर्मी बनता है। आवश्यकता है तो बस इतनी कि समाज इनके प्रति अपनी सोच व नजरिया बदले और साथ ही जिस अश्लीलता के चश्में से समाज इन्हें देख रहा हैं उसे उतारकर फेंके। तारा कहती है-‘‘लोगों की सोच में यह रचा-बसा है कि सारे हिजड़े यौन कर्मी हैं, जो गलत है। इसी कारण हमें सामाजिक सम्मान नहीं मिल पा रहा हैं, हमें समाज में अवांछित माना जाता है, हमारा सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। लोगों को हमें देखने, समझने व परखने के लिए अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होना पड़ेगा, जो अश्लीलता का चश्मा लगाकर हमारे बारे में देखते-सुनते हैं, वह उतारना होगा।”17  उपन्यास में किन्नरों के जीवन पर आधारित कई ऐसे पहलू हैं, जो आमजन को सामान्यतः पता ही नहीं होते। इसी में से एक है इनके रीति-रिवाज़, रहन-सहन, तीज़-त्योहार आदि अर्थात् किन्नरों के सांस्कृतिक पक्ष को जानने में यह उपन्यास (किन्नर कथा) अत्यंत लाभप्रद है। किन्नरों की संस्कृति का एक अहम पक्ष इनकी शव-यात्रा भी है, जिसे लेकर समाज में तरह-तरह के मिथक भी हैं। लेखक ने इस शवयात्रा का वर्णन भी बारीकी से किया है। किन्नरों की शवयात्रा किसी ने नहीं देखी होगी, देखेंगे भी कैसे, क्योंकि यह मध्यरात्रि के बाद जो शुरू होती हैं जिस कारण इनकी शवयात्रा को लेकर चारों दिशाओं में विभिन्न प्रकार की अटकले हैं-‘‘तारा हिजड़ा था, वह भी जन्मजात बुचरा हिजड़ा। अपने धाम का गुरू। उसके धाम के हिजड़ो ने, उसके शिष्यों ने, उसे परंपरानुसार रात में दफनाने की बात रखी, परंपरा में है कि हिजड़ा को दोबारा हिजड़ा का जन्म न मिले, इसलिए उसे रात में जब लोग सो चुके होते हैं, चुपके से दफना दिया जाता है। उसकी अर्थी पर जूते-चप्पल भी मारते हैं ताकि मृत अभागा पुनः किन्नर के रूप में जन्म न ले।”18

  

किन्नरों की शवयात्रा जिस प्रथा के अनुसार होती है या होती रही है उस प्रथा का विरोध भी उपन्यास में तारा की मृत्यु पर उसके बड़े भाई के बेटे मनीष द्वारा देखा जा सकता है। मनीष द्वारा इस विरोध से किन्नर समुदाय के प्रति उनके परिवारों द्वारा अपनाए जाने की पहल साफ देखी जा सकती है, जो इस समुदाय के लिए उठाया गया एक अच्छा कदम है-‘‘मनीष ने इस प्रथा का पुरज़ोर विरोध किया। मातिन, चन्दा व कुछ किन्नरों को मनीष के तर्क समझ में आए, धीरे-धीरे शेष किन्नरों को भी राज़ी होना पड़ा। मनीष ने कहा तारा गुरू हिजड़ा थे, ठीक है, पर वह वंश के नाते उसके चाचा या बुआ भी थे। अतः वह उन्हें दफनाएगा नहीं, उनका दाह-संस्कार करेगा और मुखाग्नि स्वयं देगा। मनीष के इस निर्णय से किन्नर समुदाय हतप्रभ था। सोनिया ने किन्नर बिरादरी के जुर्माना भरने की बात पर हामी भर दी और नायक के आदेश के साथ सबकी इच्छा का आदर करते हुए गुरू बनना स्वीकार कर लिया।”19

  

महेन्द्र भीष्म किन्नर कथाउपन्यास में पाठकों को किन्नर समुदाय के जीवन में होने वाले कई रीति-रिवाज़ों व मान्यताओं से भी अवगत कराते हैं। जिसे पढ़कर पाठक के मन में इनके रीति-रिवाज़ों व मान्यताओं को जानने की जिज्ञासा पैदा होती है। ऐसा ही एक उदाहरण हैं किन्नरों द्वारा मनाया जाने वाला कुवागम का मेला। शायद हममें से ज़्यादातर को यह मालूम भी नहीं होगा कि कुवागम कौन सी जगह है? उपन्यास में लेखक लिखते हैं -‘‘तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले के कुवागम गाँव के कूथान्डावार मंदिर परिसर में प्रत्येक वर्ष के अप्रैल-मई माह में अट्ठारह दिन कूथान्डावार महोत्सवमनाया जाता है, जिसमें सम्मिलित होने के लिए देश-विदेश से हज़ारों की संख्या में किन्नर पहुँचते हैं। सारे किन्नर अर्वान देवता से ब्याह रचाते हैं, रात भर उनकी मृत्यु का शोक मनाते हैं। अपनी चूड़ियाँ फोड़ते हैं।”20  कुवागम के मेले के साथ-साथ किन्नरों को लेकर धार्मिक आस्था व मान्यताओं को भी उपन्यास में अलग-अलग रूपों में लेखक ने प्रकट किया है। तारा धार्मिक आस्था व मान्यताओं को बताते हुए कहती है-पांडवों को कुरूक्षेत्र के युद्ध में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए किसी अच्छे योद्धा की बलि माँ काली के चरणों में दी जानी थी, जिसके लिए अर्जुन व नागकन्या से उत्पन्न पुत्र अर्वान स्वयं की बलि हेतु प्रस्तुत हुआ। अर्वान ने यह शर्त रखी कि वह अपनी बलि देने से पूर्व की रात एक सुंदर स्त्री से विवाह करेगा। ऐसे वर से विवाह हेतु कोई स्त्री राजी नहीं हुई। जिसकी मृत्यु अगले दिन सुनिश्चित हो। विष्णु अवतार भगवान कृष्ण ने एक सुन्दर स्त्री मोहिनीका रूप धारण कर अर्जुन पुत्र अर्वान से विवाह किया।’’21 इसी मान्यता के आधार पर सभी किन्नर कुवागम के मेले में एक साथ इक्ट्ठा होकर अर्जुन और नागकन्या पुत्र अर्वान से विवाह करते हैं।

 

किन्नर समाज की धार्मिक आस्थाओं और विश्वासों से निहित उनके समाज में पूजी जाने वाली मुर्गे की सवारी करने वाली बहुचरा माता का इतिहास भी बताया है। लेखक ने इस उपन्यास में किन्नर समाज से जुडे़ अनेक पहलुओं को दिखानें की कोशिश की है, जिनमें से एक मुर्गा देवी का भी प्रसंग है। किन्नरों की गुरू तारा बताती है-अलाउद्दीन खिलजी की सेना जब माँ बहुचरा देवी के मंदिर को विध्वंस करने पहुँची, तब उसके तमाम सैनिकों ने मंदिर की मुर्गियाँ खा लीं। जब देवी के संज्ञान में यह आया, तब उन्होंने उन सारी मुर्गियों को आवाहन कर अपने पास बुलाया। देवी के आवाहन करने से सारी मुर्गियाँ सैनिकों का पेट फाड़कर देवी के समक्ष उपस्थित हुईं। उन सैनिकों के प्राण बच गए, जिन्होंने मुर्गियाँ नहीं खाई थीं। वे सारे के सारे जीवित सैनिक देवी के अनुयायी बन गए और देवी की प्रसन्नता के लिए उन्होंने स्त्री वेश धारण कर लिया। माँ बहुचरा देवी ने उन्हें हिजड़ा रूप प्रदान कर उन सभी को अपनी सेवा में ले लिया।”22  उपन्यास में भगवान राम का गढ़ा हुआ मिथक भी है। जिसमें यह कथा प्रचलित है कि जब राम वनवास से वापस आए तब सभी लोग खुशी में नाच-गा रहे थे, थोड़ी देर बाद राम ने सभी स्त्री-पुरूष को घर जाने को कहा। सभी स्त्री और पुरूष तो अपने घर चले गए, किन्तु किन्नर नाचते रहे तभी भगवान राम ने खुश होकर उन्हें यह आशीर्वाद दिया कि अब तुम ऐसे ही नाचते-गाते रहोगे। उपन्यास में महंत जी भगवान राम के कथन को बताते हुए कहते है-‘‘वनवास पूरा कर जब भगवान राम वापस अयोध्या आ रहे थे, तब सर्वप्रथम उन्होंने इन हिजड़ों को अपनी प्रतीक्षा करते पाया। आश्चर्यचकित भगवान राम ने उनसे पूछा, ‘‘आप लोग यहां कैसे? वापस क्यों नहीं गए?”तब हिजड़ों ने जवाब दिया, ‘‘आपने ही तो कहा था पुरूष और स्त्रियाँ वापस जाए, हम लोगों के लिए कुछ नहीं कहा। अतः हम लोग वापस नहीं गए।भगवान राम हिजड़ों के कथन से बहुत प्रभावित हुए और प्रसन्न होकर हिजड़ों को वरदान दिया कि, जब पृथ्वी पर कलयुग आएगा, तब तुम लोग राज करोगे।”23

 

   महेन्द्र भीष्म ने किन्नर कथाउपन्यास में जहाँ एक ओर किन्नरों के आर्थिक संकट, मान्यताओं, असली-नकली किन्नर व सांस्कृतिक पक्ष को दिखाया है तो वहीं दूसरी ओर वर्तमान युग में किन्नर अपने जीवन को एक नई उम्मीद के साथ पाएं अपना घर बसाएं व मुख्यधारा के लोगों की तरह सपने देखें आदि को भी दिखाया है। उपन्यास में लेखक ने ऑपरेशन के माध्यम से किन्नरों के जीवन में एक नए बदलाव की ओर इशारा किया है। जिस लिंग की वजह से किन्नर समाज नरक से भी गंदा जीवन जीने के लिए अभिशप्त है तो उसी लिंग ऑपरेशन के द्वारा चेंज कर वह बिना किसी दर्द व घृणा के जीवन जी सकते हैं। उपन्यास में ऐसे तीन किन्नर है जो ऑपरेशन के बाद अपना जीवन एक पहचान के साथ जी रहे हैं, इनमें एक है रेखा जो ऑपरेशन के बाद अपने पति रवि नायक के साथ विवाह कर रहती है तो वहीं दूसरी किन्नर दीपिका है जो ऑपरेशन के बाद मॉडलिंग की दुनिया में अपना नाम कमा रही हैं। इनके साथ ही तीसरी किन्नर व उपन्यास की मुख्य पात्र सोना उर्फ चंदा है, जो ऑपरेशन से सैक्स चेंज करने व मनीष के साथ अपनी नई जिंदगी जीने के लिए कनाडा जाती है। ऑपरेशन के माध्यम से ही किन्नर समुदाय भी अपना जीवन आम मनुष्यों (मुख्य धारा के लोगों) की तरह जी पाएगा। यह किन्नर समाज के लिए एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कदम है, जो उनके जीवन में एक आशा की किरन अवश्य हो सकती है-‘‘नकली हिजड़ो के अलावा हिजड़े ऑपरेशन से लिंग परिवर्तन करा पूर्ण स्त्री या पूर्ण पुरूष बन सकते हैं। कुल हिजड़ों में तीस प्रतिशत हिजड़े ऐसे हैं, जिन्हें ऑपरेशन द्वारा स्त्री या पुरूष बनाया जा सकता है।”24  तारा गुरू ने अपने डेरे में रहने वाले दो किन्नरों का ऑपरेशन करा, उनको एक नया जीवन प्रदान किया। वह चंदा के ऑपरेशन का भी सपना देखते हुए सोचती है-‘‘उसका ऑपरेशन करा वह उसे संपूर्ण स्त्री के रूप में देखना चाहती थी। तारा चंदा के लिए उपयुक्त वर देखकर उसका विवाह करा देने के लिए दृढ़ संकल्पित थी।”25

 

उपन्यास में सोना उर्फ चंदा से प्रेम करने वाला मनीष वस्तुतः एक नए समाज का अगुआ है। वह प्रतिभावान, साहसी और होनहार छात्र है और हिजड़ों के प्रति मानवीय भाव रखता है और चाहता है कि इस तीसरे जेण्डर के लोगों को भी वही सम्मान और अवसर प्राप्त हो, जो किसी भी स्वस्थ और बेहतर समाज में आम लोगों को मिलते हैं। उपन्यास में लेखक भी यही चाहता है कि हिजड़ों को जीने का बेहतर अवसर मिले, उन्हें समाज का और परिवार का वही स्नेह और प्यार मिले जो अन्य किसी भी व्यक्ति को मिलता है। वह चंदा से प्रेम करता है और इसे छिपाता भी नहीं। वह सभी तरह के जोखिम उठाने को तैयार है। वह हिजड़ों के प्रति अपने कॉलेज के छात्रों द्वारा किए जाने वाले व्यवहार से तिलमिला जाता है और प्रतिक्रया करना चाहता है लेकिन मन मसोसकर रह जाता है। वह जानता है कि इसके लिए व्यापक सामाजिक बदलाव की आवश्यकता है और यह रातों रात नहीं हो सकेगा बल्कि इसके लिए समूचे समाज को सभ्य और शिक्षित बनना पड़ेगा। वह हिजड़ा समुदाय की बौद्धिक आवाज़ है। वह अपने मित्र ओम से कहता है-‘‘सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए जिससे हिजड़े समाज भी मुख्यधारा से जुड़ सके, मध्यकाल के शासन काल में हिजड़ों को पहरेदारी-सुरक्षा के कार्यों में लगाया जाता था। उसी तरह वर्तमान सरकार को भी चाहिए कि इन्हें जहाँ महिलाएँ काम करती हैं या रहती हैं, खासतौर से महिला सुधार गृह, महिला कॉलेज, महिला हॉस्टल, महिला अस्पताल आदि में बाकायदा नौकरी प्रदान करके सुरक्षा गार्ड या पहरेदारी में भर्ती किया जाए, साथ ही सरकार को चाहिए कि इन्हें राशनकार्ड जारी करें, वोट देने का अधिकार प्रदान करें, मतदाता फोटो पहचान पत्र जारी करें, लाभकारी सरकारी योजनाओं में इनकी सहभागिता सुनिश्चित करें, बल्कि मैं तो यह भी कहूँगा कि संविधान द्वारा राष्ट्रपति को जिस तरह एंग्लो-इण्डियन से प्रतिनिधि मनोनित कर संसद में भेजने का अधिकार प्राप्त है इसी तरह संविधान संशोधन कर पूरे देश में जहाँ लाखों हिजड़े हैं, उनमें से कम से कम दो प्रतिनिधियों का संसद के लिए मनोनयन करें। बल्कि यह व्यवस्था ग्राम पंचायत से लेकर विधानसभा तक और विधानसभा से लेकर संसद तक होनी चाहिए।”26  उसका मित्र ओम चाहता है कि-‘‘देश में हिजड़ों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का सर्वेक्षण कराया जाना चाहिए। उन्हें राष्ट्र व राज्य की मुख्यधारा में लाने के लिए माकूल प्रयास होने चाहिए। देश की जनगणना में अन्य समुदायों की तरह इनकी भी रायशुमारी होनी चाहिए।”27

 

       यहाँ बड़े उदाहरण देने का अभिप्राय इतना भर है कि मनीष और उसका मित्र ओम वस्तुतः हिजड़ा समुदाय के विमर्श का स्वर है। इस समुदाय की अपेक्षाओं को वह आवाज़ देने वाले हैं। मनीष उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों पर नज़र रखे हुए है और उनके उत्सव आदि के प्रति सचेत दृष्टि रखता है।  उपन्यास में यद्यपि हिजड़ा तारा लंबरदार की आहत मर्दानगी के षड्यंत्र में मारी जाती है किन्तु अंत में घायल चंदा के प्राणों के बचने के साथ ही उपन्यास का एक सुखद अंत होता है। लेखक बताता है कि न सिर्फ जैतपुर के बुन्देल राज परिवार ने अपनी हिजड़ा बेटी चंदा को स्वीकार कर लिया बल्कि उसकी बहन रूपा की सास शोभना ने अपने पति और बेटे को भी इस बात के लिए तैयार कर लिया कि कनाड़ा में वे लोग सोना का ऑपरेशन करवाकर उसे नई ज़िंदगी जीने का एक मौका पाने में उसकी मदद करेंगे ताकि वह अपने प्रेमी मनीष से विवाह करके सुखपूर्वक जीवन बिता सके। खजुराहों हवाई अड्डे पर कनाडा जा रही चंदा उर्फ सोना को विदा करने आया उसका हिजड़ा समाज उपन्यास में अपनी माँ बहुचरा देवी से यह विनती करते बताया गया है कि-‘‘हे देवी माँ! जैसे दिन चंदा के बहुरे, वैसे हमारे सबके दिन बहुरे।”28  भले ही उपन्यास का सुखद अंत होता है परन्तु यह अंत पाठक के मन में कई सवाल भी पैदा कर देता है। जैसे-तारा जो सबके हित की सोचता था। उसने ही मातिन को उसका हक दिलाया था, तो क्या उसे चंदा की शिक्षा का खयाल नहीं आया? उसे नृत्य की शिक्षा से बेहतर था कि स्कूली शिक्षा दी जाती। दूसरी बात ये कि जो बात शोभना ने सोची वो क्या जगतराज नहीं सोच सकते थे? जगतराज के पास ना तो धन की कमी थी ना ही वह अशिक्षित थे जो विज्ञान ने कितनी उन्नति कर ली है, ये नहीं जानते थे। अपने स्नेह का गला घोंट कर उन्होंने अपनी बच्ची को मारने का आदेश दे दिया, इसके आगे वह कुछ सोच ही ना सके।

 

   मुझे लगता है कि उपन्यास में अगर चंदा को शिक्षित कर मुख्यधारा से जोड़नें का प्रयास हुआ होता तो किन्नरों के लिए समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत होता उनके लिए नए आयाम खुलते। चंदा को नाच-गाने के लिए ना तैयार कर उसे शिक्षित और स्वावलंबी बनाया जा सकता था। पंचम सिंह के सन्यासी बनने से अच्छा था कि वह किन्नरों के हित के लिए कुछ कार्य करते उनकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था करते। दयाजू से कह कर गढ़ी में खुद रोजगार उपलब्ध कराते तो सही मायने में उनका पश्चाताप होता और तारा मारा भी नहीं जाता। यहाँ पर कुछ पल के लिए कहानी, कहानी से इतर साक्षात्कार-सी लगती है। वहीं उपन्यास की मूल कथा से हट कर पंचम सिंह का लम्बा प्रवचन उबाऊ लगता है। इसके बावजूद किन्नर कथामें बहुत कुछ है जो पाठक को बांधे रखती है। अतः यह कहना गलत न होगा कि भले ही उपन्यास का अंत पाठक के मन में कई प्रश्नों को पैदा करता है परन्तु फिर भी यह उपन्यास पाठकों की जिज्ञासा को शांत करने में सफल रहा है। यह किन्नर समाज के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक पहलुओं को दिखाता है। किन्नरों को हाशिए पर ले जाने के कारणों के साथ-साथ पुरूष समाज की मानसिकता का भी जिक्र बहुत ही रोचक ढंग से किया गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह आमजन की मानसिकता को बदलने में सहायक होगा। फिर भी हाशिए के ऐसे लोगों को अपना विषय बनाने, जो कि लगभग अनछुआ सा था, के लिए महेन्द्र भीष्म की प्रशंसा अवश्य ही करनी पड़ेगी, क्योंकि उपन्यास को पढ़कर यह अवश्य पता चलता है कि इस विषय पर लिखना आसान नहीं है। इसके लिए एक विस्तृत शोध किया गया है। अतः यह अपने आप में एक साहसी कदम है।

  

  

संदर्भ-

1. किन्नर कथा, महेन्द्र भीष्म, (सामयिक पेपरबैक्स, दरियागंज, नई दिल्ली 2016)- उपन्यास के प्राक्कथन से, पृष्ठ सं० 8

2. वही, पृष्ठ सं० 11

3. वही, पृष्ठ सं० 78

4. वही, पृष्ठ सं० 9 (प्राक्कथन से)

5. वही, पृष्ठ सं० 7

6. वही, पृष्ठ सं० 47

7. वही, पृष्ठ सं० 83

8. वही, पृष्ठ सं० 50

9. वही, पृष्ठ सं० 60

10. वही, पृष्ठ सं० 24

11. वही, पृष्ठ सं० 9 (प्राक्कथन से)

12. वही, पृष्ठ सं० 106

13. वही, पृष्ठ सं० 122

14. वही, पृष्ठ सं० 91

15. वही, पृष्ठ सं० 90

16. वही, पृष्ठ सं० 91

17. वही, पृष्ठ सं० 91

18. वही, पृष्ठ सं० 133

19. वही, पृष्ठ सं० 134

20. वही, पृष्ठ सं० 92

21. वही, पृष्ठ सं० 92

22. वही, पृष्ठ सं० 93

23. वही, पृष्ठ सं० 39

24. वही, पृष्ठ सं० 60

25. वही, पृष्ठ सं० 60

26. वही, पृष्ठ सं० 153-154

27. वही, पृष्ठ सं० 155

28. वही, पृष्ठ सं० 192

 

भारती

शोधार्थी

एम.फिल. हिंदी, दिल्ली विश्वविद्यालय

mebharti19bharti@gmail.com

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)

अंक-35-36, जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' 

( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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