शोध आलेख : हिन्दी दलित उपन्यासकारों की नारी विषयक दृष्टि / कुलदीप सिंह

                     शोध आलेख : हिन्दी दलित उपन्यासकारों की नारी विषयक दृष्टि / कुलदीप सिंह 

शोध सार : 

       प्रस्तुत शोध आलेख में केवल दलित उपन्यासकारों के दलित स्त्री विषयक दृष्टिकोण की जांच-पड़ताल की गई है। इस शोध आलेख में दलित शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए प्रमुख दलित चिंतकों के विचारों के माध्यम से दलित की अवधारणा पर भी प्रकाश डाला गया है। प्रमुख दलित उपन्यासों का परिचय देते हुए उनमें अभिव्यक्त दलित स्त्रियॉं के जीवन के विविध संदर्भों का विश्लेषणात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है। इस मूल्यांकन में दलित स्त्रियों के शोषण के प्रमुख कारणों की चर्चा की गई है तथा साथ ही साथ इस शोषण से उनकी मुक्ति के कुछ उपाय भी सुझाए गए हैं। दलित स्त्रियों के शोषण के लिए प्रमुख रूप से पुरुषवादी मानसिकता, धार्मिक अंधविश्वास, समाज की रूढ़ियों, वर्ण एवं जाति व्यवस्था, अशिक्षा आदि को जिम्मेदार ठहराया गया है और स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता, स्त्री शिक्षा, पारिवारिक सहयोग आदि को स्त्री मुक्ति का प्रमुख आधार बताया गया है। 

बीज शब्द : समाज, दलित, निम्न समाज, नारी, पुरुषवादी सत्ता, उत्पीड़न, शिक्षा, दलित उपन्यास, वर्ण  व्यवस्था। 

मूल आलेख :      

      ‘दलित’ शब्द निश्चित अर्थ का द्योतक होता है। इसका सामान्य अर्थ है- समाज द्वारा उपेक्षित, प्रताड़ित, शोषित, घृणित, दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर वे लोग जो अमानुष भावना का शिकार हुए हैं तथा समाज द्वारा बहिष्कृत कर घृणित कार्य करने को बाध्य कर दिए गए हैं। प्रसिद्ध दलित चिंतक कंवल भारती के अनुसार दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है। जिसे कठोर और गंदे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया है। जिसे शिक्षा ग्रहण करने और स्वतंत्र व्यवसाय करने से मना किया गया है और जिस पर सछुतों ने सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की वही और वही दलित है, और इसके अंतर्गत वही जातियाँ आती हैं जिन्हें अनुसूचित जातियाँ कहा जाता है।1 मराठी रचनाकार नामदेव ढसाल के शब्दों में “अनुसूचित जातियाँ, बौद्ध श्रमिक, मजदूर, भूमिहीन किसान, गरीब किसान और ख़ानाबदोश जातियाँ, आदिवासी आदि सभी दलित हैं।“2 इस प्रकार कहा जा सकता है कि सामाजिक व्यवस्था द्वारा जो व्यक्ति शोषित है, पीड़ित है वे दलित हैं।

       हिन्दी साहित्य में दलित लेखन के बीज तो बहुत पहले से- सिद्धों, नाथों और संतों के साहित्य में देखे जा सकते हैं, किन्तु प्रामाणिक तौर पर 1914 ई० में सरस्वती पत्रिका में हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत से वास्तविक हिन्दी दलित लेखन का प्रारम्भ माना जाता है। हिन्दी में दलित साहित्य की शुरुआत मराठी साहित्य के प्रभाव से होती है। दलित रचनाकारों ने कम समय में उच्च कोटी के साहित्य का सृजन कर दलित साहित्य को विशेष पहचान दी है। हिन्दी दलित उपन्यास के संदर्भ में देखें तो 1954 ई० में प्रकाशित मानव की परख’, तथा बंधन मुक्त उपन्यासों की चर्चा हिन्दी के प्रारम्भिक दलित उपन्यासों के रूप में की जाती है। औपन्यासिक तत्वों के आधार पर सभी विद्वान एक मत होकर जयप्रकाश कर्दम के छप्पर’(1995) उपन्यास को हिन्दी का पहला दलित उपन्यास स्वीकार करते हैं। दलित समाज का चित्रण करने में यह उपन्यास एक मानदंड स्थापित करता है। इस उपन्यास में दलित समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों को रेखांकित किया गया है। 1995 ई० से लेकर अब तक के उपन्यासों का उल्लेख करें तो मोहनदास नैमिशराय के कई उपन्यास प्रकाशित होते हैं जिनमें क्या मुझे खरीदोगे’, मुक्तिपर्व’, वीरांगना झलकारी बाई’, आज बाज़ार बंद है’, ज़ख्म हमारे’, महानायक बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर’, गया में एक अदद दलित’, अड़गोड़ा आदि हैं। सत्यप्रकाश का जस तस भई सबेर’, उमराव सिंह जाटव का थमेगा नहीं विद्रोह’, अजय नावरिया का उधर के लोग’, कैलाश चंद चौहान का भंवर’, सुबह के लिए’, विद्रोह’, कावेरी का मिस रमिया सुशीला टाकभौरे का तुम्हे बदलना ही होगा’, नीला आकाश’, वह लड़की’, रूपनारायण सोनकर का डंक’, सूअरदान’, गटर का आदमी’, विपिन बिहारी का एक स्वप्नदर्शी की मौत’, धन धरती’, हमलावर’, अपने भी’, मरोड़’, रघुबीर सिंह का आक्रोश’, प्रेम कपाड़िया का मिटटी की सौगंध’, ठंडी आग’, टेकचंद का दाई’, श्यामलाल राही प्रियदर्शी का कमलकांत’, डिप्टी साहब’, पागल’, ढूलैत’, जूतियों का ताज’, जल समाधि’, वैशाख पूर्णिमा’, ढोला मारू’, आखिरी मंजिल आदि दलित जीवन से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। इन उपन्यासों में दलित नारी का चित्रण व्यापक रूप में हुआ है। 

     प्रख्यात दलित विचारक ओम प्रकाश वाल्मीकि सभी वर्गों की स्त्रियों को दलित मानते हैं, क्योंकि परम्परा से चली आ रही परिपाटी के अनुसार नारी सदा से ही उपेक्षित, घृणित, माया का प्रतीक, पुरुषों को पथभ्रष्ट करने वाली आदि के रूप में मानी जाती रही हैं। इन मान्यताओं ने स्त्रियों को दोयम दर्जे का करार दिया है। दलित स्त्रियाँ तो समाज में रहते हुए दोहरे शोषण का शिकार होती हैं। स्त्री होने के कारण एक ओर उन्हें पुरुष-प्रधान समाज के पितृसत्तात्मक मूल्यों का शिकार होना पड़ता है तो दूसरी तरफ अनुसूचित (दलित) जाति की होने की वजह से उच्च्वर्गीय सामाजिक व्यवस्था के शोषण तंत्र का दंश झेलना पड़ता है। दलित रचनाकारों ने भी अपने उपन्यासों में दलित नारी की इस स्थिति का चित्रण किया है। 

     मोहनदास नैमिशराय ने आज बाज़ार बंद है उपन्यास के माध्यम से समाज में व्याप्त उन रूढ़ियों और परम्पराओं का उल्लेख किया है जिनकी वजह से समाज के निम्न तबके के लोगों को अपने जीवन में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। आस्था तथा देवता से साक्षात्कार के नाम पर कैसे दलित लड़कियों को देवदासी बनाया जाता है और बाद में मंदिर के पंडित और पुरोहित लड़की के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं, इसका बड़ा ही हृदयविदारक चित्रण मिलता है। बच्चा ठहर जाने की स्थिति में जबर्दस्ती गर्भपात करवा दिया जाता है। मना करने पर उसे डराया धमकाया जाता है फिर भी न माने तो उसे मार दिया जाता है। प्रस्तुत उपन्यास में पार्वती की माँ देवदासी बनना स्वीकार नहीं करती है तो उस पर देवी का प्रकोप बता दिया जाता है। उसके पागल होने के पीछे लोग यहीं तर्क देते हैं कि “सुबन्नी पर यलम्मा का प्रकोप है। उससे अवश्य ही कोई न कोई गलती हुई है जो उसकी ऐसी हालत हुई है। अपनी-अपनी रूढ़ियों की गिरफ्त में बंधे हुए वे विवश थे। गाँव में न कोई डॉक्टर था और न हाकिम। झाड़-फूँक और वेद मंत्र पढ़ने वाले बहुत थे। वे भाग्य और भगवान में विश्वास रखते थे और यलम्मा के क्रोध के खिलाफ जाने को तैयार न थे।“3 इस पेशे के फलने-फूलने का मुख्य कारण गरीबी तथा लोगों की अज्ञानता है। डॉ प्रमोद कोवप्रत इसकी ओर संकेत करते हुए लिखते हैं कि “ध्यान देने कि बात है कि गरीबों का ही यौन शोषण ज्यादा होता है। जीवन परिवेश उसे मजबूर करके यौन-मजदूर बना देते हैं। सत्ताधीश वर्ग भी कभी मान्यता प्राप्त काम के रूप में इसे देखता है। इसलिए खुलेआम लाल बाज़ार चल रहा है। जब वेश्यावृत्ति पेशा बन जाती है, तब इसमें पीढ़ियाँ पैदा होती हैं। फिर इसका अंत होने कि उम्मीद नहीं रख सकता।“4

      जब भी हम बाज़ार जाते हैं तो पाते हैं कि वहाँ विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ खरीद-फरोख्त या प्रदर्शनी में रखी रहती हैं, जो ग्राहकों की इच्छानुसार उन्हें दी जाती हैं। किन्तु स्त्रियों और पुरुषों को भी वस्तु के रूप में खरीदा जाना अमानवीयता की पराकाष्ठा है। स्त्रियों को तो कुछ लोग कुछ घंटों के लिए खरीदते हैं और अपनी देह की गर्मी शांत करके चले जाते हैं। आक्रोश उपन्यास में रघुवीर सिंह बताते हैं कि “स्त्रियों के बाजार भी उसी प्रकार लगते थे जिस प्रकार जानवरों के लगते हैं उनके बाजार तो आज भी गरम हैं। पहले तो उनकी खुल्लम-खुल्ला बिक्री जानवरों की भांति होती थी। आज भी ऐसा छिपे रूप में होता है।“5 आखिरी मंजिल उपन्यास में कोकिला के साथ भी समाज के दबंग कई बार बलात्कार करते हैं किन्तु वहाँ उसका अपना स्वार्थ कार्य करता है। ज़ख्म हमारे उपन्यास की नायिका जब रात को अपने काम से लौटती है तो कई मनचले उसके साथ ज़ोर जबर्दस्ती करना चाहते हैं क्योंकि वह अल्पसंख्यक समाज से आती है। वैशाख पूर्णिमा उपन्यास में उपन्यासकार बताता है कि छठवीं शताब्दी के वैशाली में भी दलित स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। यहाँ पर भी दासों और दासियों की खरीद-फरोख्त के लिए बाजार थे - “दासों का अलग-अलग बाज़ार था, जहां यवन, गांधार तथा भारत के विभिन्न भागों से दास-दासी क्रय-विक्रय के लिए आते थे। दास बाज़ार का प्रधान कोषाधिकारी पणजेट्ठक या दासों का आढ़ती कहलाता था। दासियों की विक्रय अधिकारी कंचुकी भंडायन कहलाती थी।“6 पूरे वैशाली में शूद्र स्त्रियाँ केवल धनाढ्यों के भोग की वस्तु थीं। सुणीत की पत्नी का शीलहरण बिंबसार द्वारा तब कर दिया गया था जब वह मात्र 13 वर्ष की होती है। सूअरदान उपन्यास में सुनयना और उसकी बहन मैना इसी तरह की एक पात्र हैं। वे उनका विरोध भी करती हैं किन्तु अंततः असफल होती हैं। सुनयना अपनी आप-बीती एस. डी. एम. को बताते हुए कहती है- “मोहका सत्यनारायण त्रिपाठी अपने घर मा रखाइल बनके राखत है। वह हमका धमकी दयात है कि यदि मैं वह के घर से भगिहौं तो वह हमारे बाप और भाई क जान से मार देई।“

       बलात्कार की समस्या कैसे हल हो इसके लिए डंक उपन्यास का सौरभ बताता है कि बलात्कारी पुरुष को रासायनिक इंजेक्शन लगाकर यदि नपुंसक बना दिया जाए अथवा आजीवन कारावास या मृत्युदंड के प्रावधान को यदि कानून बनाकर सख्ती से पालन का आदेश दे दिया जाये तो इससे बहुत जल्द ही निजात मिल जाएगी और कोई भी महिला बलात्कारित होने, योनि में छड़ घुसाए जाने की पीड़ा तथा ब्लैकमेल होकर घुट-घुट कर मरने के दर्द से बच जाएगी।  

      जब भी परिवार में कोई लड़की पैदा होती है तो जन्म के समय से उनमें कई संस्कार डाल दिये जाते हैं ताकि वह उसी के अनुरूप वह व्यवहार करें। जन्म लेते ही उन पर तमाम तरह के नियम थोप दिये जाते हैं जैसे –उन्हें कैसे उठना है, कैसे बैठना है, कैसे बात करनी है, कैसे कपड़े पहनने हैं, किसी से कैसे बात करनी है, घर में कैसे रहना है, घर से बाहर कैसे रहना है, किसी का प्रतिवाद नहीं करना है, पति के घर जाने पर कैसे ससुराल वालों को खुश रखना है, शादी के बाद उन्हें प्रत्येक स्थिति में ससुराल में ही रहना है इत्यादि। इन संस्कारों को लेकर जब भी कोई लड़की घर से बाहर निकलती है तो उसके सामने सबसे बड़ी समस्या परिस्थिति से सामंजस्य बैठाने में आती है। वे प्रतिकूल स्थिति का विरोध करने की अपेक्षा घुट-घुट कर जीने को मजबूर हो जाती हैं क्योंकि उन्हें यही सिखाया गया होता है। इन्हीं संस्कारों की वजह से आज बाज़ार बंद है उपन्यास की पार्वती देवदासी बनने को तैयार हो जाती है जहां मंदिरों में उसका शोषण होता है। इन्हीं संस्कारों की वजह से वह लड़की उपन्यास की शम्मा को दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। चूंकि शम्मा पढ़ी-लिखी नहीं थी और गाँव से बाहर नहीं निकली थी इसलिए अपने माँ-बाप के संस्कार को ही लकीर का फकीर मान रही थी। इस संस्कार के कारण ही वह अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर है। नमिता को भी उसके माता-पिता द्वारा दिये गए संस्कार के कारण दुख उठाना पड़ता है। वह अपने पति के बर्ताव से खीझकर उसका विद्रोह करना चाहती है किन्तु उसके संस्कार उसे रोक देते हैं। इन संस्कारों के चलते स्त्रियाँ घर में केवल काम करने वाली मशीन बनकर रह गयी हैं। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक वे कामों में व्यस्त रहती हैं। घर का काम निपटाने के बाद रात में पति के हाथ पैर दबाना, उसके नखरे उठाना उनकी नियति बन गई है। 

      पुरुषवादी सत्ता ने महिलाओं को निम्न कोटी का बना दिया है। आश्चर्य की बात तो यह है कि महिलाएं खुद पुरुषों द्वारा सताई जाती हैं किन्तु वे नहीं चाहती हैं कि उनकी बेटी या बहू इस परंपरा को तोड़े। वे अभी भी चाहती हैं कि वे परंपरागत रूप से वही काम करें जो अब तक करती आयी हैं अर्थात घर की चारदीवारी के भीतर ही सिमटी रहें, घर का चूल्हा चौका करें, सास-ससुर की सेवा करें, पति के हाथ पैर दबायेँ, पति के कथनों को निःस्वार्थ भाव से मानें, घूँघट में रहें इत्यादि। यह स्थिति केवल निम्न वर्ग की महिलाओं की नहीं बल्कि सवर्ण स्त्रियों की भी थी। रानी लक्ष्मीबाई को भी इसका मलाल है तभी तो वह झलकारी से कहती हैं कि “मुझे ही देख लो इस तलवार चलाने के कारण राजा साहब की कितनी बातें सुननी पड़ती थीं। वे राजा थे और मैं रानी होकर भी कुछ नहीं। हमेशा महल की चारदीवारी में रहूँ। घोड़े की सवारी न करूँ, बस शृंगार कर राजा के लिए बैठी रहूँ ...। वे नाचने के लिए कहे तो नाचने लगूँ ..... फूलों से भरी सेज पर लेटने के लिए कहें तो बिछ जाऊँ .... सभी पति अपनी पत्नियों को अंकशायिनी बनाकर रखना चाहते हैं .... जांबाज बनाकर नहीं।8 झलकारी के गाय मारे जाने के प्रसंग में जब पंचायत बैठती है तो लोग पूरन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि “ तुम्हें मालूम है कि बहुओं का घूँघट खोलकर डांग में फिरना, बंदूकें चलना हमारे जातीय धर्म के खिलाफ है।“9 जल समाधि’ उपन्यास में उपन्यासकार बताते हैं कि राम-राज्य में जो स्त्रियाँ शूद्र समाज से आती थीं, उन्हें शृंगार करने की आजादी न थी। साज-शृंगार के नाम पर उन्हें वन्य-फूलों, पुष्पों, सीपियों, घोंघों, साधारण पाषाणों, लौह, ताम्र, से निर्मित वस्तुएँ ही धारण करने का अधिकार था। अपनी तथा अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए शूद्र समाज की स्त्रियाँ मजबूरी में अयोध्या की अनेक नाट्यमंडलियों में काम करती हैं उनका निवास भी नगर की बाह्य सीमा के पास था-“यहीं पर गणिकाओं के लिए कुछ आरक्षित क्षेत्र थे। जहां प्रजा जन अपना आनंद का समय व्यतित करती थी।“10 इन गणिकाओं में कुछ के संबंध तो राजपरिवार ऋषिगणों तथा अन्य कुलीन लोगों से था। वे इनका भरपूर यौन शोषण करते और गर्भवती हो जाने पर छोड़ देते।

     कई महिलाएँ तो मजबूरी में गलत रास्ता चुन लेती हैं क्योंकि उनके सामने घर परिवार की ज़िम्मेदारी होती है। आज बाजार बंद है उपन्यास में कई वेश्याएँ इस वृत्ति में केवल इसलिए आई थीं ताकि उनके परिवार वालों को कुछ आर्थिक मदद मिल सके। किसी को अपने माँ-बाप की चिंता थी तो किसी को और अपने बच्चे की, तो किसी को बहन-भाई की। आखिरी मंजिल उपन्यास की कोकिला जानती थी कि ठाकुर के यहाँ जाने से ठाकुर उसके साथ गलत व्यवहार करेगा, बावजूद इसके वह अपने बीमार पिता के लिए दवा लेने वहाँ जाती है जहां ठाकुर उसके साथ ज़ोर-जबर्दस्ती करता है। 

    पुरुषवादी सत्ता द्वारा निर्मित दहेज प्रथा की वजह से लड़कियों के शोषण का कुचक्र गर्भ से ही शुरू हो जाता है। समाज में दहेज प्रथा को कानूनन जुर्म बताया गया है, बावजूद इसके यह समाज में गुप्त रूप से चल रही है। शादी-विवाह के अवसर पर व्यय होने वाले खर्चे के चलते माता-पिता लड़की को बोझ समझने लगते हैं। जब कभी भी समाज में किसी के घर लड़का पैदा होता है तो खुशियाँ मनाई जाती हैं, किन्तु लड़की के पैदा होने पर दुःख प्रकट किया जाता है। लड़कों को सारी सुविधाएं प्रदान की जाती हैं, किन्तु लड़कियों को तमाम तरह के बंधनों में रखा जाता है। गटर का आदमी उपन्यास में रूपनारायण सोनकर ने स्त्रियों की इस समस्या को सुगना और संजना के माध्यम से उजागर किया है। जब दोनों बेटियाँ अपनी माँ से पूछती हैं कि क्यों उन्हें अपने भाई की तरह खुलकर जीने की आज़ादी नहीं है तो माँ कहती है “देखो बेटियों, लड़के से वंश चलता है। इसलिए लड़के को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। यह भारतीय परंपरा है।“11 लड़की की शादी में लाखों का खर्चा, ऊपर से दहेज आदि ऐसे तमाम कई कारण हैं जिनकी वजह से लोग लिंग-परीक्षण कर भ्रूण हत्या करने को मजबूर हो जाते हैं। भ्रूण हत्या की वजह से समाज में लड़कियों के अनुपात में कमी आई है। इस समस्या को सूअरदान उपन्यास में देखा जा सकता है। उपन्यास में चारों नवयुवकों- रामचन्द्र त्रिवेदी, सज्जन खटीक, घसीटे चमार, सलवन्त यादव की उम्र तीस साल से कम थी। चारों शादी करना चाहते थे किन्तु लड़की नजर नहीं आ रही थी इसलिए चारों ने मिलकर एक ही लड़की से शादी की। वह लड़की उपन्यास में शम्मा आदि पात्रों को बार-बार लड़की पैदा होने पर सास तथा पति के कड़े रुख का सामना करना पड़ता है। जल समाधि उपन्यास का एक पात्र कहता है “हमारी मान्यताओं में स्त्री पूज्य और सम्माननीय तो है पर किसी भी परिवार में स्त्री का बालिका के रूप में जन्म बहुत सुखद और शुभ नहीं माना जाता। यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि यहाँ समाज के सबसे उपयोगी, समाज का भार अपने कंधों पर उठाने वाले शूद्र और स्त्री समाज में प्रायः सम्मान नहीं पाते। यह हम कुलीन लोगों की अनीति तथा दोषपूर्ण अवधारणा है। जिससे यह दोनों वर्ग पीड़ित होते हैं। स्त्री हर गृह का आवश्यक अंग है। वह पुरुष से किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है। पर समाज के पथ प्रदर्शकों ने अपने निहित स्वार्थों के कारण उसे द्वितीय स्तर की नागरिक बना रखा है।"12 

      दलित महिलाओं पर अत्याचार बाहर तो होता ही है साथ ही साथ घर में भी उन्हें प्रताड़ित होना पड़ता है। वह लड़की उपन्यास में नमिता के ससुराल वाले ही उसपर तमाम तरह के अत्याचार करते हैं। वहीं शादी के कुछ साल बाद ही रेणुका का पति मर जाता है। पति के मरते ही उसके जेठ, उसके जीजा और ससुर की कामुक नजर उसे घूरने लगती है। वह सभी जगह उनका प्रतिकार नहीं कर सकती थी क्योंकि वह जानती थी कि लोग उसी को दोषी ठहराएंगे। फिर वहाँ से वह दिल्ली आ जाती है, जहां ऑफिस में काम करते हुए वहाँ के बड़े-बड़े बाबुओं को भी उसका यौवन खटकने लगता है किन्तु रेणुका स्वाभिमानी लड़की है। वह अपनी पवित्रता को नापाक होने नहीं देती। इस आषाढ़ में उपन्यास में मूंगरी की सास कभी भी उसके अच्छे काम की सराहना नहीं करती है। वहीं आखिरी मंजिल उपन्यास में कोकिला अपने ही समाज के लोगों से भेदभाव करती है। वह मोती महतिया से विवाह करके महतैन बन जाती है और पासी, चमार आदि महिलाओं से ज़ोर जबर्दस्ती उपले पथवाती है। 

        स्त्रियों की स्थिति में सुधार के लिए जरूरी है कि वे शिक्षा ग्रहण करें। शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा वे अपनी तथा अपने परिवार की स्थिति बदल सकती हैं। स्त्री शिक्षा के बारे में कहा गया है कि एक स्त्री यदि शिक्षित होती है तो अपने पूरे परिवार को शिक्षित करती है जबकि एक पुरुष की शिक्षा केवल उसी तक सिमट कर रह जाती है। यही कारण है कि सभी उपन्यासकारों ने स्त्री शिक्षा पर ज़ोर दिया है। शिक्षा की बदौलत आज की आधुनिक नारी अबला नहीं सबला हो रही हैं। वह अब खुली आँखों से सपने देखने लगी है। वह भी अब कुछ करना चाहती है। विद्रोह उपन्यास में अंबरा जैसी लड़कियों की वजह से समाज में नया परिवर्तन देखने को मिल रहा है। अंबरा के माध्यम से हमें यह पता चलता है कि स्त्री अगर चाह ले कि उसे कुछ करना है तो कोई भी बाधा उसे रोक नहीं सकती। अंबरा के व्यवहार से ऐसा लग रहा है जैसे समाज में व्याप्त पुरुषवादी मानसिकता को तोड़ दिया गया है। पुरुष प्रधान समाज एवं परिवार में उसकी तूती बोलती है। पूरे उपन्यास में हम देखते हैं कि प्रणव वैचारिक रूप से पीछे खड़ा है और अंबरा हर जगह उस पर बीस ही होती है। इस बात को उपन्यास की भूमिका में भी बखूबी बताया गया है। वह अपने पति से कहती है कि “देखो प्रणव, ऐसा मत समझना कि मैं एक औरत हूँ तो कमज़ोर हूँ। अकेली मैं कहीं भी आ जा सकती हूँ। कदम-कदम पर तुम मेरे साथ रहो, ऐसी पराश्रिता मैं पसंद नहीं करती। मानती हूँ कि तुम मेरे मर्द हो, लेकिन हर वक्त तुम मेरे पीछे पड़े रहो या मैं तुम्हारे पीछे पड़ी रहूँ, मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं तुम्हारी पत्नी होते हुए भी मैं अपना अलग अस्तित्व खड़ा करना चाहती हूँ।“13 अनुभवी होने के कारण ही वह समझ जाती है कि दलित समाज के पिछड़ने का कारण उसकी पुरातन सोच है। इसलिए वह अपने पति को समझाते हुए कहती है “इसी सोच की वजह से तुम लोग आज दलित बने हुए हो। आगे निकलना है तो अपनी सोच में पंख लगाने ही होंगे। जिस तेजी से दुनिया भाग रही है। उस तेजी से हम नहीं भागेंगे तो जहां हैं वहीं रह जाएंगे अपना सिर घुनते हुए। ऊँचा उड़ेंगे नहीं तो पाएंगे क्या?”14 चूंकि स्नेहा, विक्रम की बहन है इसलिए उसमें वे संस्कार स्वतः ही स्थानांतरित हो गए हैं। एम. फिल. तक की पढ़ाई पूरी करवाने में उसके भाई का बहुत बड़ा हाथ है। बहुधा दलित समाज की लड़कियां इस मुकाम तक नहीं पहुँच पातीं है किन्तु, विक्रम पढ़ाई के महत्व को जानता था इसलिए वह अपनी बहन को पढ़ाने में कोई कमी नहीं करता है। वह अपनी बहन को एंडरायड मोबाइलउपलब्ध करवाता है ताकि कॉलेज न जाने पर भी वह अपनी सहपाठियों से उसके बारे में जानकारी ले सके। इसी दौरान उसकी घनिष्ठता राघवेंद्र से हो जाती है। पूजा के साथ हुए बर्ताव से वह चेत जाती है और सोचती है कि यदि वह भी राघवेंद्र से शादी कर लेगी तो उसकी भी हालत वैसी ही हो जाएगी इसलिए वह राघवेंद्र को शादी के लिए साफ-साफ मना कर देती है। कारण यह है कि राघवेंद्र के दलित होने के बावजूद भी उसका पूरा परिवार देवी-देवताओं और तमाम तरह के कर्मकांडों को मानने वाला होता है। शादी से मना करने बाद उसके मन में थोड़ी भी आत्मग्लानि नहीं होती है। चूंकि दलित समाज में लड़कियों को पढ़ने-पढ़ाने का माहौल नहीं होता और उसी माहौल से जब एक दलित लड़की उच्च शिक्षित हो जाती है तो उसकी विचारधारा से मिलता-जुलता व्यक्ति मिलना टेढ़ी खीर हो जाती है। किन्तु यह समस्या भी विक्रम की मदद से दूर हो जाती है और स्नेहा का रिश्ता तय हो जाता है। इस रिश्ते के माध्यम से कैलाश चंद चौहान ने जाटव और वाल्मीकि समाज के मध्य उपज रहे जातीय दंभ को समाप्त करके उपजातीय भेदभाव की समस्या का समाधान प्रस्तुत किया है।

       भँवर उपन्यास की पुष्पा एक पढ़ी-लिखी, जुझारू और जागरूक महिला है। वह अन्य महिलाओं की तरह घर में बैठकर पुरुषों की कृपापात्र बनकर नहीं रहना चाहती है, बल्कि वह भी आत्मनिर्भर बनना चाहती है। जब उसका पति उसे केवल घर के कामों में ही उलझाकर रखना चाहता है तो वह विरोध करती है “पढ़-लिखकर भी केवल घर के धंधे में लगी रहूँ, यह मेरे लिए संभव नहीं।“15 बीमार होने पर जब पुष्पा अपनी माँ बिमला को घर लाती है तो लोकेश उन्हें अपने साथ रखने से मना कर देता है। विवाद जब बढ़ने लगता है तो पुष्पा अपने पति से कहती है “दिखा दी न अपनी औकात। लेकिन इतना समझ लो, मैं उस ज़माने की औरत नहीं हूँ जिस ज़माने में माँ थी। माँ को हक लेना नहीं आया। लेकिन मैं अपना हक सीधी अंगुली से ना मिले तो टेढ़ी अंगुली से लेना जानती हूँ। दूसरी बात, मैं पूरी जिंदगी माँ की तरह अकेले भी नहीं बिताऊँगी। मैं तुम्हें छोड़ने के बाद दूसरी शादी भी करना जानती हूँ, और अपना हक लेना भी।"16 पुष्पा की तरह यदि सभी स्त्रियाँ जागरूक और शिक्षित रहें तो वे पुरुषवादी सत्ता को चुनौती दे सकती हैं। 

     ज़ख्म हमारे उपन्यास में सादिया एक पढ़ी लिखी महिला है जो परम्पराओं में बंधकर नहीं रहना चाहती है। मुस्लिम समाज से होते हुए भी बुरका में रहना, उर्दू ही पढ़ना उसे स्वीकार नहीं। वह अपनी खालाजान से कहती है “पर क्यों ज़रूरी है हम औरतों को बुरका ओढ़ना ?”17 दाई उपन्यास में रेशम के पिता रेलवे में काम करने की वजह से कई जगह घूमा करते थे। जिसकी वजह से उनकी मानसिकता में गाँव समाज के अन्य लोगों की तरह व्यवहार नहीं दिखता था। पिता के इस बर्ताव का बेटी पर भी प्रभाव पड़ा था जिसकी वजह से रेशम भी अन्य लड़कियों की तरह दब्बू और संकीर्ण मानसिकता वाली नहीं होती है। वह एक खुले विचारों वाली लड़की रहती है जिसके बात-व्यवहार और पोशाक पुरुषों जैसे होते हैं। 

         आक्रोश उपन्यास में उमा तथा बालदीन के प्रयास से दलित समाज की स्त्रियों में चेतना का संचार हुआ है। वे भी अब लोक-लज्जा और समाज के भय को दरकिनार कर शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। इन दोनों के प्रयास ने उनके अंदर भी छटपटाहट पैदा कर दी है- “यदि स्त्री शिक्षा न हुई तो पुरुष स्त्री का इसी प्रकार शोषण करता रहेगा जैसा कि अभी तक होता आ रहा है।“18 उधर के लोग उपन्यास में यह बताया गया है कि अशिक्षा के कारण महिलाएं बहुत ही जल्द दूसरों के बहकावे में आ जाती हैं। उपन्यास में आयशा जो कि एक हाई प्रोफ़ाइल वेश्या रहती है, इसी बात की ओर संकेत करती है। आयशा मास्टर जी से कहती है “शुरू में, मुझे मेरी जाति का एक आदमी मिला था। वह मुझे इस प्रोफेशन में दु:खी देखकर दुखी हुआ था। वह मुझे किसी एन. जी. ओ. में काम देना चाहता था, पर मैं गयी नहीं। वह साला जाति के नाम पर मुझसे अकेले में मजे लेता और महीने के पाँच-छह हजार पकड़ा देता।"19 

          तुम्हें बदलना ही होगा उपन्यास में महिमा के विविध प्रसंगों के माध्यम से उपन्यासकार ने यह बताने का प्रयास किया है कि यदि महिलाएं शिक्षित रहेंगी तो वे कहीं भी अपने अधिकारों के लिए लड़ सकती हैं। महिमा अपने पति चमनलाल की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर नौकरी नहीं छोड़ती है वरना बाद में उसे पछताना पड़ता। अपनी नौकरी के रहते वह किसी से कमज़ोर नहीं है इस बात का उसे ज्ञान था। समाज में हो रहे दलित उत्पीड़न से महिमा वाकिफ थी इसलिए जब उसके ससुराल में उसे घर में घुसने नहीं दिया जाता है तो हताश और निराश नहीं होती बल्कि हुंकार भरते हुए कहती है कि “हूँ ! मुझे हाथ लगाकर तो देखे, हाथ तोड़ दूँगी। कोई मेरा अपमान करके तो देखे, उसके बारह बजा दूँगी। मैं भी दलित आंदोलन की शेरनी हूँ। एक-एक को चीर कर रख दूँगी। होंगे बड़ी जात के, हम भी क्या अब छोटे हैं ? हम भी किसी से, किसी बात में कम नहीं हैं। जो मेरे साथ जातिभेद करेगा, उसे जेल की चक्की पीसने भेज दूँगी।"20 महिमा को इतनी ताकत अपनी आत्मनिर्भरता से मिलती है जिसका आधार उसकी नौकरी थी।    

        माँ-बाप की गरीबी और पुरातन सोच की वजह से भी बहुत सी महिलाओं को शादी के वक्त समस्याओं से जूझना पड़ता है। डंक उपन्यास में सियानी देवी बहेलिया समाज की महिला रहती है और उसकी बेटी शकुंतला फॉरेस्ट ऑफिसर। सियानी देवी नहीं चाहती कि उसकी बेटी किसी दूसरे समाज में शादी करे, इसलिए अपने ही समाज के अनपढ़ लड़के से उसकी शादी करने की जिद पाले रहती है। धन के अभाव में बहुत सी दलित महिलाओं का विवाह ऐसे पुरुषों से कर दिया जाता है जिसके साथ उसका मेल किसी भी मामले में ठीक नहीं बैठता। ‘आखिरी मंजिल उपन्यास की नायिका कोकिला का विवाह अपने से बहुत बड़े और विधुर मोती महतिया से कर दिया जाता है, जबकि थमेगा नहीं विद्रोह उपन्यास में भागमली का विवाह तपेदिक रोग से ग्रस्त पुरुष से। दलित समाज में बाल विवाह आम बात है जिसके मूल में माँ-बाप की अज्ञानता, उनकी गरीबी, और दबंगों की दबंगई आदि होती है। रमिया, भागमली, शबनम, मूंगरी, सरसतिया, रेशम आदि विभिन्न पात्रों का कम उम्र में विवाह कर दिया जाता है। 

         कानून को भी चाहिए कि जो लोग दहेज की मांग करते हैं उनके खिलाफ सख़्त कार्रवाई करे जिससे कोई भी माँ-बाप लड़की पैदा होने पर दुःख प्रकट न करें। वसीयत में उनकी हिस्सेदारी भी निर्धारित की जाए ताकि वे अपने आप को किसी से कमजोर न समझें और घर के महत्त्वपूर्ण निर्णयों में उनकी भी हिस्सेदारी हो तभी जाकर समाज में उनके प्रति रवैये में बदलाव आएगा और उनकी असली प्रतिभा निखर कर सामने आएगी। उन्हें तमाम ऐसे अवसर देने चाहिए जिससे वे दूसरी पि. टी. उषा, आशा भोसले, लता मंगेशकर, प्रतिभा पाटिल, हिमा दास, गिन्नी माही आदि बन सकें।

निष्कर्ष :

      निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है समाज में रहते हुए दलित नारियाँ दोहरे शोषण का शिकार होती रही हैं। नारियों के शोषण में समाज में व्याप्त रूढ़ियाँ, मान्यताएँ, परम्पराएँ, पुरुषवादी मानसिकता, समाज की न्याय व्यवस्था, माँ-बाप की गरीबी, उनकी दक़ियानूसी मान्यताएँ, दबंगों की दबंगई आदि बहुत से कारणों ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अगर उनकी स्थिति में सुधार लाना है तो सबसे पहले उन्हें शिक्षित करने की आवश्यकता है। वे शिक्षित हो जाएंगी तो बाकी समस्याएँ अपने-आप समाप्त हो जाएंगी। इस दिशा में वे निरंतर आगे बढ़ भी रहीं हैं। विभिन्न क्षेत्रों में उनका आगे बढ़ना निश्चय ही उनके उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत करता है। 

संदर्भ :

1. ओमप्रकाश वाल्मीकि : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2015, पृ. 13

2. विमल थोराट : मराठी दलित कविता और सठोत्तरी हिन्दी कविता में सामाजिक और राजनैतिक चेतना, हिन्दी बुक सेंटर, नई दिल्ली, 1996, पृ. 51

3. मोहनदास नैमिशराय : आज बाजार बंद है, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृ. 131

4. प्रमोद कोवप्रत : आज बाजार बंद है : देहव्यापार की रंगरलियाँ, हिन्दी दलित साहित्य एक मूल्यांकन (प्रमोद कोवप्रत), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ. 67

5. रघुवीर सिंह : आक्रोश, साहित्य संस्थान प्रकाशन, गाजियाबाद, 2004, पृ. 150

6. श्यामलाल राही : वैशाख पूर्णिमा, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, 2011, पृ. 120

7. रूपनारायण सोनकर : सूअरदान, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 55

8. मोहनदास नैमिशराय : वीरांगना झलकारी बाई, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003, पृ. 86

9. वही, पृ. 68

10. श्यामलाल राही : जल समाधि, नवभारत प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2009, पृ. 24  

11. रूपनारायण सोनकर : गटर का आदमी, अनिरुद्ध बुक्स प्रा. लि., दिल्ली, 2015, पृ. 47

12. श्यामलाल राही : जल समाधि, नवभारत प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2009, पृ. 161

13. कैलाश चंद चौहान : विद्रोह, कदम प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 31  

14. वही, पृ. 95

15. कैलाश चंद चौहान : भंवर, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृ. 100

16. वही, पृ. 105

17. मोहनदास नैमिशराय : ज़ख्म हमारे, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ. 58

18. रघुबीर सिंह : आक्रोश, साहित्य संस्थान प्रकाशन, गाजियाबाद, 2004, पृ. 150

19. अजय नावरीया : उधर के लोग, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. नई दिल्ली, पेपरबैक संस्करण, 2008, पृ. 15

20. सुशीला टाकभौरे : तुम्हें बदलना ही होगा..., सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृ. 132 

 

कुलदीप सिंह, शोधार्थी, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, नेहू, शिलांग

kuldp85@gmail.com, 9402395023

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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