शोध आलेख : हस्तिनापुर नाटक में स्त्रियों का सामाजिक द्वंद्व / आरती शर्मा

               शोध आलेख : हस्तिनापुर नाटक में स्त्रियों का सामाजिक द्वंद्व / आरती शर्मा 

शोध सार :

            हस्तिनापुर नाटक में महाभारत की कथा को स्त्रियों के परिप्रेक्ष्य से प्रस्तुत किया गया है। नाटक महाभारत की कथा को आधार बना कर तो लिखा गया है पर उसमें कथा भारतीय नारियों की ही है। यहाँ उन नारियों को नाटक में स्थान दिया गया है, जिनको पौराणिक महाभारत की कथा में गौण कर दिया गया है। सत्यवती, अम्बिका, और कुंती यह पात्र पौराणिक कथा के ही पात्र है और शुभा जो कि विदुर की माँ हैं उसको नाटककार ने अपनी कल्पना शक्ति के माध्यम से गढ़ा है, जो हस्तिनापुर नाटक की केन्द्रीय पात्र बन गई है। भीष्म, व्यास और विदुर पुरुष पात्रों में लिए गए हैं। हस्तिनापुर नाटक की कथा उस रात्रि के अंतिम पहर की कथा है जिसमें महाभारत के समाप्त हो जाने के बाद अगली सुबह युधिष्ठिर का राज्याभिषेक होना होता है। शुभा कुंती को महाभारत के एक ऐसे हिस्से से अवगत कराती है जिसको महाभारत की कथा में गौण कर दिया गया। नाटक की कथा एक स्त्री के द्वारा स्त्रियों की वेदना की कहानी को व्यक्त करती है। कथा में पुरुषों के वर्चस्व, जाति-प्रथा, बलात्कार, राजनीति के दोगलेपन, रक्तशुद्धि का प्रश्न, स्त्रियों के स्वतंत्र अस्तित्व आदि मुख्य रूप से उठाए गए प्रश्न हैं।

बीज शब्द

         पौराणिक, हस्तामलक, कामेषणा, मंत्रणा, महिमामंडन, ब्रह्मचर्य, उत्तराधिकारी,  अंतर्विरोध, आत्मबिंब, अस्मिता, समष्टिगत, जुगुप्सा, अभिव्यंजित, विडम्बना, सामाजिक द्वंद्व, कामातुरता, नियोग, प्रतिज्ञा, यातना, त्याग, राजाज्ञा, रक्तशुद्धि, राज्याभिषेक, प्रासंगिकता।   

मूल आलेख

      महाभारत की कथा भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानी जाती है, जिसमें कई कथाएँ शामिल हैं। महाभारत की कथा के आधार पर विभिन्न भाषाओं में उपन्यास, नाटक और काव्य की रचना हुई है। जिसमें कथा तो महाभारत की है पर उसको आधुनिक युग के अलग-अलग संदर्भों के आधार पर लिखा गया है। हिन्दी साहित्य में भी महाभारत की कथा के विभिन्न पहलुओं को देखा जा सकता है। जैसे - काव्य में रश्मिरथी और कुरुक्षेत्र (दिनकर), पांचाली (रांगेय राघव), उपन्यासों में प्रतिदान (रांगेय राघव), महासमर (नरेंद्र कोहली), द्रौपदी की आत्मकथा, द्रोण की आत्मकथा, कर्ण की आत्मकथा, कृष्ण की आत्मकथा और गांधारी की आत्मकथा (मनु शर्मा), सुतो वा सूत पुत्रो वा और पांचाली (बच्चन सिंह), टेराकोट (लक्ष्मीनारायण वर्मा), माँ और अश्वत्थामा (रवीन्द्र वर्मा)  तथा नाटकों में माधवी (भीष्म साहनी), अंधा युग (धर्मवीर भारती), महाभारत पूर्वार्द्ध (माधव शुक्ल), कृष्णार्जुन युद्ध (माखनलाल चतुर्वेदी), सूर्यमुख, मिस्टर अभिमन्यु और यक्ष प्रश्न (लक्ष्मीनारायण लाल), द्रौपदी और शकुंतला की अंगूठी (सुरेन्द्र वर्मा), एक और द्रोणाचार्य (शंकर शेष), कुरुक्षेत्र का सवेरा (जयशंकर त्रिपाठी), अभिमन्यु चक्रव्यूह में (चिरंजित), एक प्रश्न मृत्यु (डॉ. विनय) और हस्तिनापुर, देहांतर (नंदकिशोर आचार्य) आदि। इन सभी रचनाओं में महाभारत की कथा को अलग-अलग तरीके, अलग-अलग समस्याओं और विभिन्न संदर्भों में चित्रित किया गया है। नन्दकिशोर आचार्य कवि होने के साथ-साथ नाटककार भी हैं। आचार्य ने नौ नाटकों की रचना की है- देहांतर, जूते, हस्तिनापुर, किमिदम् यक्षम्, गुलाम बादशाह, जिल्ले सुब्हानी, किसी और का सपना’,  पागल घर और बापू आदि। नेमिचन्द्र जैन लिखते हैं- “नन्दकिशोर आचार्य के नाटक हैं, जिनमें नाट्यविधा को समझ और गम्भीरता के साथ लिया गया है। आचार्य के नाटकों में अन्तर्वस्तु और भाषा का वास्तव में नाटकीय इस्तेमाल है।... वह हिन्दी के एक ऐसे नाटककार हैं जिन्होंने हिन्दी नाटक लेखन को एक नया स्तर दिया है।”[i] आचार्य ने पौराणिक कथा महाभारत को आधार बना कर हस्तिनापुर नामक नाटक की रचना की। हस्तिनापुर नाटक में नाटककार ने महाभारत की कथा को स्त्री की दृष्टि से नया आयाम दिया है। हस्तिनापुर महाभारत की कथा न होकर स्त्री की वेदना, त्रासदी, बंधन और संभावनाओं की कथा है। जिसमें प्रमुख हैं सत्यवती, अंबिका और कुंती जो महाभारत के ही पात्र हैं, वहीं शुभा कल्पना की सर्जन शक्ति से गढ़ा गया पात्र है। नाटककार ने अम्बिका के चरित्र और महाभारत की कथा को विस्तार देने के लिए इस (शुभा) पात्र को गढ़ा था। पर यह पात्र (शुभा) स्वयं ही नाटक का केंद्रीय पात्र बन गई है। जयदेव तनेजा की बातचीत के दौरान लेखक से पूछे गए प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं- “हस्तिनापुर के लिए कहा जा सकता है कि मुझे केवल अंबिका का द्वंद्व दिखाई दिया कि एक स्त्री भीष्म के प्रति आकर्षित है, पर उनकी जगह वेदव्यास का आना - किस तरह के मानसिक-भावात्मक संघर्ष का क्षण रहा होगा वह - मुझे उसमें भी अभिनय की असीम संभावनाएँ दिखाई दीं अंबिका को लेकर। उसी को रूपायित करने के प्रयास में अन्य चरित्र आते गए। शुभा को तो शुरू में केवल कथा बताने वाले के रूप में लाया गया था, पर वह नाटक का केंद्रीय चरित्र हो गई जैसे।”[ii] पूरी कथा अर्ध रात्रि के समय में शुभा के द्वारा कुंती को सुनाई जाती है। पौराणिक कथा महाभारत में द्रौपदी ही एक मात्र स्त्री पात्र है जो गलत का विरोध करती हुई दिखाई पड़ती है। अन्य जितने भी स्त्री पात्र हैं उनमें विद्रोह या विरोध नहीं दिखाई पड़ता बल्कि वह उस पीड़ा को बरदाश्त करती नज़र आती हैं। पुरुष पात्रों में भीष्म, व्यास और विदुर महाभारत के प्रमुख पात्रों को लिया गया है। नाटक की कथा एक रात में पूरी की गई है। जहाँ एक ओर पौराणिक महाभारत की कथा पुरुष सत्ता के वर्चस्व को प्रदर्शित करती है वहीं हस्तिनापुर नाटक की कथा स्त्री जीवन के संघर्ष को दर्शाती है। नाटक के संबंध में जयदेव तनेजा लिखते हैं - “महाभारत के तथाकथित महान् चरित्रों और परम नाटकीय घटना-प्रसंगों के बहाने राजनीति के सनातन दोगलेपन, रक्त की शुद्धता और उत्तराधिकार के प्रश्न तथा धर्म, न्याय और नियम के नाम पर होने वाले अत्याचार, सम्बन्धों के सूक्ष्म एवं अव्यक्त रेशों के जाल और विशेष रूप से स्त्री पर होने वाले प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अत्याचारों का रोचक एवं उत्तेजक उद्घाटन करता है - नन्दकिशोर आचार्य का नया नाटक हस्तिनापुर।”[iii]

      शुभा जिसका महाभारत से सीधे-सीधे जुड़ाव नहीं है। पर वह कथा को वक्ता और भोक्ता दोनों ही रूप में प्रस्तुत करती है। वह केवल तटस्थ भाव से कथा को नहीं कहती बल्कि उसका कथा के साथ बहुत गहरा जुड़ाव भी है, जिसको लेखक ने बखूबी शुभा के माध्यम से प्रदर्शित किया है। भारत रत्न भार्गव शुभा के चरित्र के संबंध में कहते हैं कि - “हस्तिनापुर की शुभा एक ऐसा चरित्र है जो हस्तिनापुर के अन्तःपुर के चप्पे-चप्पे में मौजूद है। सत्यवती और भीष्म के बीच हुई मंत्रणा वह कुंती को इस तरह बताती है जैसे वह किसी खंभ की ओट में खड़ी सुन रही थी। सत्यवती और अम्बिका के बीच के अन्तरंग संवाद भी वह कुन्ती को इस तरह बताती है जैसे सारा दृश्य उसके लिए हस्तामलक हो। सत्यवती अम्बिका, अम्बालिका सभी की कामेषणाओं के संबंध में वह स्वयं का भाष्य कुन्ती को बताती है। कुन्ती चकित-सी सुनती रहती है। हस्तिनापुर की पूर्व दासी शुभा अत्यंत वाचाल है, जिसके मन में कुरुवंश के प्रति भयंकर विष भरा है।”[iv] इस प्रकार महाभारत के युद्ध से शुभा का किसी भी प्रकार का सीधा संबंध नहीं है। युद्ध में होने वाली हार-जीत के कारण, उसके जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। पर वह युद्ध के मायने जानती है, ज़िंदगी में युद्ध के अर्थ को समझती है, जो समस्त मनुष्य की व्यथा को कहती है। कथा पौराणिक होने के बावजूद भी आधुनिक युग की स्त्रियों की कथा को कहती है।

      भीष्म महाभारत में एक ऐसे महिमामंडित पुरुष हैं, जिनकी विफलताओं को इस महिमामंडन के पीछे दबा-छिपा दिया गया है। वह अपनी छोटी-सी जिद के कारण ईश्वर तक की प्रतिज्ञा तुड़वा देते हैं, पर अपनी आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा नहीं तोड़ते, चाहे उसके कारण पूरे वंश का सर्वनाश ही क्यों न हो जाए। उनमें ज्ञान का भंडार है पर अंततः वह अज्ञानी ही साबित होते हैं। उनके समान तीनों लोकों में कोई भी शूरवीर नहीं हुआ, पर एक सत्य यह भी है कि उनके समान महाभारत में कोई कायर पुरुष भी नहीं हुआ। भीष्म ने स्वयं विवाह नहीं किया पर वह अन्य सभी का विवाह करवाते रहे। चाहे पिता का विवाह हो, अपने भाइयों का या भाइयों के पुत्रों का। भीष्म महान विचारक तो हैं, परंतु उनकी करनी और कथनी दोनों में अंतर है। नाटक में सत्यवती भीष्म से कहती हैं- “धर्म गतिशील है, भीष्म। इसलिए वह सनातन है। मृत अतीत से चिपटे रहना धर्म नहीं, जड़ता है, मूढ़ता है -.................. अब न सन्तान है, न उस के उत्तराधिकारी। राज्य राजाविहीन है, वंशबेल मुर्झा रही है। ऐसे में क्या अर्थ रह जाता है तुम्हारी प्रतिज्ञा का? तुम्हारे सिवा कौन है कुरुवंश में जो वंशवृद्धि कर सके?  प्रतिज्ञा कर्तव्य निभाने के लिए की जाती है, उस से भागने के लिए नहीं।”[v]

      शुभा कुंती से कहती हैं कि अपने पौरुष के बल पर भीष्म जिन तीन स्त्रियों को उनके स्वयंवर से उठा कर लाते हैं, उन स्त्रियों को कुरुवंश से प्राप्त क्या होता है? अम्बा को आत्महत्या करनी पड़ती है क्योंकि जिससे वह प्रेम करती है वह उसको अब अपना नहीं सकता। जन्मदाता पिता के घर में भी अब उसके लिए कोई स्थान नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात जो व्यक्ति उसको भरी सभा में से हरण करके लाया है वह भी उसको स्वीकार नहीं कर सकता, क्योंकि उन्होंने तो आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया है। एक स्त्री मात्र वस्तु हो गई है जिसका समाज का प्रत्येक पुरुष अपने हिसाब से त्याग या ग्रहण करता है। अम्बिका और अम्बालिका विचित्रवीर्य को ही अपनी नियति स्वीकार कर उससे विवाह कर लेती हैं, क्योंकि इसके अलावा उन दोनों के पास दूसरा रास्ता ही क्या था? पर नियति का खेल तो कुछ और ही था। विचित्रवीर्य न तो दोनों बहनों को शारीरिक सुख ही दे पाता है और न ही वह कुरु वंश को वारिस। मिलता है तो सिर्फ दोनों बहनों को ज़िंदगी भर का वैधव्य। इतने पर ही कथा समाप्त नहीं होती। एक राजवंश के लिए उसके वारिस का होना बहुत ही आवश्यक होता है। पर अब क्या ही किया जा सकता था? क्योंकि विचित्रवीर्य निःसंतान स्वर्ग सिधार गए थे। तब सत्यवती भीष्म से विवाह की बात करती हैं। ताकि कुरु वंश यूँ ही समाप्त न हो जाए। परंतु भीष्म अपनी बात पर अड़े रहते हैं। वह अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए तैयार ही नहीं होते। सत्यवती - “अब वह स्थिति ही नहीं रही। जब संतान ही नहीं रही तो उसके अधिकार को चुनौती का प्रश्न ही कहाँ रहा? तुम्हारी प्रतिज्ञा का भी कोई अर्थ नहीं रहा अब।”[vi] पर भीष्म अपनी बात पर अडिग रहते हैं। वह अपने कर्तव्य निर्वाह से भाग रहे हैं, जिसका परिणाम महाभारत है। नाटक में प्रस्तुत किए गए भीष्म के चरित्र पर राधावल्लभ त्रिपाठी अपनी विशेष टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि- “यह सत्य है कि आचार्य का यह नाटक भीष्म के इन्हीं अन्तर्विरोधों में सम्पृक्त कतिपय उज्ज्वल पक्षों को छोड़ देता है। यह सत्य हो सकता है कि भीष्म वंश की कथित पवित्रता की एक थोथी धारणा से धृतराष्ट्र और पाण्डु की सन्तान में भेद करते हैं, और वे दुर्योधन के साथ भी अन्त तक इसी लिये बने रहते हैं। पर यह भी सत्य है कि भीष्म ज्ञानी होने के कारण अपने इन कृत्यों के परिणाम को जानते हैं। महाभारत युद्ध का आरम्भ होने के पहले समर भूमि में ही युधिष्ठिर रथ से उतर कर सारे हथियार अलग रख कर उन्हें प्रणाम करने जाते हैं, भीष्म उन्हें विजयी होने का आशीर्वाद देते हैं। भीष्म ही अपनी मृत्यु का उपाय भी पाँडवों को बताते हैं।............. क्या यह सब इस लिये कि भीष्म अपनी जो छवि गढ़ते हैं, उसमें कहीं से कोई खरोंच वे नहीं लगने देते। नाटक में सत्यवती सही कहती है कि भीष्म ने अपना एक आत्मबिम्ब बना लिया है - आजन्म ब्रह्मचारी होने का बिम्ब। इस बिम्ब से उन्हें मोह है।”[vii]

      भारतीय समाज में स्त्रियाँ अपना निर्णय स्वयं नहीं ले सकती। उन पर उनके पिता, पति और पुत्र का ही वर्चस्व रहता है। यही स्थिति महाभारत में भी है। जहाँ अम्बिका और अम्बालिका को न तो अपने जीवनसाथी को चुनने का अधिकार मिला और न ही स्वयं की इच्छा से नियोग करने का ही। भीष्म के द्वारा विवाह करने से मना कर देने पर सत्यवती व्यास को आमंत्रित करती हैं। राजमाता तो अम्बिका से कह देती हैं कि नियोग के लिए तुम्हारे देवर आएंगे उनको अच्छे से संतुष्ट करना। साथ ही वह यह भी कहती हैं कि नियोग में दोनों की संतुष्टि होनी आवश्यक है। अम्बिका तो इसी भ्रम में रहती है भीष्म जो एकमात्र कुरुवंश के वंशज बचे हैं वही नियोग के लिए आएंगे। पर आते हैं व्यास। और इस अनचाहे नियोग से पैदा होती हैं अंधी और रोगी संताने। धृतराष्ट्र के अंधे और पांडु के रोगी पैदा होने से भीष्म को कुरुवंश के भविष्य को लेकर चिंता और भी अधिक बढ़ जाती हैं, जिसके कारण वह अम्बिका के पास पुनः व्यास का प्रस्ताव लेकर आते हैं नियोग के लिए। अम्बिका भीष्म से कहती हैं- “....और क्या करतीं हम? अनिच्छा होते हुए भी अपने को सौंप तो दिया एक पर पुरुष को।”[viii]

      स्त्री की क्या स्वयं की कोई अस्मिता नहीं होती? वह तो मात्र केवल संपति है, जिस पर पुरुषों का ही अधिकार होता है। वह पैदा ही ज़िम्मेदरियों को पूरा करने के लिए हुई है। अम्बिका व्यास से प्रश्न करते हुए कहती हैं-“स्त्री की कोई स्वतंत्र अस्मिता नहीं है, प्रभु? वह भी क्षेत्र की तरह सम्पति है?[ix] भारतीय समाज में स्त्री का स्वतंत्र वर्चस्व नहीं हो सकता। उसको सब कुछ दिया जाता है। पर नहीं दिया जाता है तो बस उसके स्वयं के निर्णय लेने का अधिकार। जहाँ वह अपनी इच्छा, अपनी कामना, अपने हित की बात करने लगती है, तभी समाज और तथाकथित समाज के लोग उसको व्यक्तिगत न रहने के बजाए संमष्टिगत होने की बात करने लगते हैं। इसमें चाहे वह खुश हो या न हो। अम्बिका और भीष्म का संवाद यहाँ दृष्टव्य है - अम्बिका - आप की इच्छा! क्या अर्थ है उसका मेरे लिए जब मेरी इच्छा का आप के लिए कोई अर्थ नहीं? भीष्म - तुम्हारी इच्छा व्यक्ति केन्द्रित है, अम्बिका। मैं कुरुवंश के लिए चिन्तित हूँ। अम्बिका- कुरुवंश। उस की चिंता मैं क्यों करूँ? क्या दिया है उस ने मुझे? एक अशक्त पति के साथ सात वर्ष और लम्बा वैधव्य। यही तो। इतनी ही चिन्ता है कुरुवंश की तो विवाह कर लें भीष्म देव।[x]

      यहाँ एक स्त्री की इच्छा न होने पर भी केवल उसे राजाज्ञा का पालन करना पड़ता है। जिसका वह पालन करती भी है। पर संतान के स्वस्थ उत्पन्न न होने पर भी उसी को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। अम्बिका भीष्म से कहती हैं- “यही है क्या धर्म? बिना इच्छा के अपने को सौंप देना? बलात्कार क्या है फिर?[xi] नाटककार ने स्त्री के स्वतंत्र निर्णय लेने की बात को दिखाया है। अम्बिका भीष्म से तर्क करती है। साथ ही सवाल भी करती है कि क्या केवल स्त्रियों की ही ज़िम्मेदारी और कर्त्तव्य है कुरुवंश के प्रति, पुरुष (भीष्म) की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है? वह अपनी थोथी प्रतिज्ञा को मात्र ढोने के लिए रह गए हैं? पहली बार तो अम्बिका कुछ कर नहीं पाती पर जब दुबारा व्यास के आने के बारे में पता चलता है तो वह  अपनी जगह शुभा को भेज देती है।

       प्रेम के महत्व को भी नाटक में दिखाया गया है। जब तक दो लोगों में प्रेम नहीं होगा तब तक उनके रिश्ते में अपनत्व का भाव नहीं होगा। एक स्त्री स्वयं को उसी पुरुष को पूर्णतः समर्पित करती है जिससे वह प्रेम करती है। अतः किसी भी रिश्ते में प्रेम का होना सबसे पहले और अनिवार्य शर्त है। अम्बिका और शुभा के संवाद से यह स्पष्ट होता भी है। “अम्बिका – नहीं, जुगुप्सा नहीं है। कोई भी स्त्री किसी पुरुष को प्रेम के बिना कैसे सह सकती है? प्रेम के बिना देह सौंप देने से बड़ा अपमान भी क्या हो सकता है किसी का? मैं मुनिवर का सम्मान करती हूँ। उनका यह अपमान कैसे करूँ। शुभा – पर यह नियोग है, महारानी। पति के न रहने पर ही तो आवश्यकता होती है इसकी। अम्बिका – तभी तो स्वतंत्रता होनी चाहिए वरण की। नियोग में दोनों पक्षों की सहमति इसीलिए अनिवार्य है।”[xii]   नाटक में वंश को आगे बढ़ाने के लिए संतान का होना और वह भी पुरुष का होना अधिक आवश्यक बताया गया है। इसीलिए सत्यवती नियोग क्रिया के लिए भीष्म और भीष्म के मना कर देने पर व्यास को आमंत्रित करती हैं। ताकि कुरुवंश को सन्तान की प्राप्ति हो और वह सन्तान पुरुष ही हो। एक स्त्री द्वारा ही जब इस तरह की अवधारणा और मान्यताएँ एक स्त्री पर थोपी जाती हैं तो पीड़ा और अधिक बढ़ जाती है। एक पुरुष के द्वारा दी गई पीड़ा तो असहनीय होती ही है। पर उससे भी ज्यादा कष्टप्रद होता है एक स्त्री के द्वारा दूसरी स्त्री को वही पीड़ा देना जिसका अनुभव उसने स्वयं किया हो। यही राजमाता सत्यवती अम्बालिका और अम्बिका के साथ करती हैं। “हस्तिनापुर एक सास के हाथों अपनी पुत्रवधू के दुरुपयोग की कहानी है।”[xiii] आज भी भारतीय समाज में वंश को आगे बढ़ाने के लिए एक बेटे का होना अनिवार्य माना गया है। जो उनके वंश को तो आगे बढ़ाता ही है और उनके मरने के बाद अंतेष्टि की सारी क्रियाएँ भी वही करता है। भारतीय परंपरा में स्त्री केवल और केवल बिस्तर और रसोई की वस्तु मात्र समझी गयी है। आज भी आजादी के कई दशक बाद समाज की मानसिकता में कोई सुधार नहीं आया। आज भी स्त्री को अपवित्र समझा जाता है। आज भी स्त्रियों के द्वारा संस्कार की यह सब क्रियाएँ नहीं की जा सकती। हस्तिनापुर नाटक के संदर्भ में कुन्दन माली लिखते हैं - “स्त्री असल में सृष्टि का अर्द्धांश नहीं बल्कि उसकी धूरी है, और समाज जब-तब इस धूरी को नजरंदाज, उपेक्षित और तिरस्कृत करने को तत्पर रहता है, तत्पर क्या उसे तिरस्कृत करने का अभ्यस्त हो गया है, सिर्फ इसलिये कि हमारा समाज, पुरुष-प्रधान संस्कृति का समाज है। यही वजह है कि स्त्री को कभी माँ, कभी पत्नी, कभी पुत्री और कभी रक्षिता के रूप में प्रताड़ित किया जाता है, उसका दमन किया जाता है। उसकी आवाज़ कहीं भी नहीं सुनी जाती, सुनी जाती है तो उसे अनसुनी कर दिया जाता है, दबा दिया जाता है, उसकी अवहेलना की जाती है। या फ़िर पुरुष उसके (स्त्री के) तर्कों को अपने हक और हित में इस्तेमाल कर लेता है - महज इसलिये कि वह किसी का पिता, पति या पुत्र है। इसलिये यह कहना कि नन्दकिशोर आचार्य के नाटक स्त्री-जीवन की उस विडम्बना को अभिव्यंजित करने वाले हैं, जिसे हमने नियति का नाम दे दिया है, नितांत उचित लगता है। जितनी जटिल यह नियति है, उतनी ही जटिल है यह कथा।”[xiv]

      आज भी समाज में स्त्री को ही सारे बलिदान और त्याग करने पड़ते हैं। भारतीय समाज में स्त्री को ही सब कुछ सहन करना पड़ता है। एक पुत्र की चाह में न जाने कितनी ही अनचाही बेटियाँ पैदा हो जाती हैं। कुछ को तो जन्म से पहले ही मौत के घाट उतार दिया जाता है। और कुछ कचरे के डिब्बों में फेंक दी जाती हैं। आज के समय में जब एक पुरुष संतानोत्पत्ति करने में समर्थ नहीं होता तो स्त्री को देवर या ससुर के साथ संबंध बनाने के लिए जबर्दस्ती बाध्य किया जाता है।

      जाति प्रथा हमारे देश में उस दीमक की तरह है, जो हमें अंदर ही अंदर खोखला कर रही है और आज भी हमारे देश के विकास में रुकावट बन कर खड़ी है। जब तक हम इन सब रूढ़ियों से ऊपर नहीं उठते तब तक विकास का स्तर धीमा ही रहेगा। महाभारत की कथा में कर्ण इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जो पांडु पुत्र सूत पुत्र होने के कारण कर्ण का अपमान करते हैं वही लोग कर्ण का सच जान लेने के बाद उसको अपना भाई मान लेते हैं। यह कैसी दोगली भावना है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसमें संबल है, सामर्थ्य है, आत्मविश्वास है, जिसको धनुर्विद्या का ज्ञान है, जो आपसे भी अधिक पराक्रमी है पर समाज उसको नहीं अपना सकता क्योंकि वह एक सूत पुत्र है। पर यही समाज और इसी समाज के तथाकथित लोग उसको तब अपना लेते हैं जब उसकी सच्चाई जान लेते हैं। यही बात विदुर के संबंध में भी उठती है। जहाँ व्यास सत्यवती के पुत्र होने के कारण कुरु वंश के कानन पुत्र हो गए और राज गद्दी पर केवल धृतराष्ट्र या पांडु का ही अधिकार हुआ। वहीं विदुर जिसके पिता भी व्यास हैं और जो बाकी दोनों से शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों से स्वस्थ भी है, साथ ही  ज्ञानी भी पर वह राजा नहीं हो सकता, क्योंकि वह दासी पुत्र है। इस प्रकार नाटक में रक्त शुद्धि के सवाल को भी उठाया गया है। अर्जुनदेव चारण लिखते हैं – “एक और प्रसंग राजा कौन होगा के लिए शुभा और भीष्म के बीच स्थापित संवाद योजना है जहाँ भीष्म को लगभग निरुत्तर हो जाना पड़ता है। असल में वहाँ भीष्म के रूप में इतिहास निरुत्तर हो रहा है जिससे वर्तमान प्रश्न पूछ रहा है, रूढ़ि निरुत्तर हो रही है, जिस से परंपरा प्रश्न पूछ रही है, व्यवस्था निरुत्तर हो रही है जिस से परिवर्तन प्रश्न पूछ रहा और इसी सिलसिले में सत्यवती का भीष्म को यह कहना महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह राज्य नहीं स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व चाहती है। और इसीलिए हस्तिनापुर अपनी चेतना के स्वतंत्र विस्तार के लिए संघर्षरत स्त्री की कथा है- हस्तिनापुर उसकी मुक्ति है।”[xv] नाटक में भी भीष्म और शुभा के संवाद में राजा कौन होगा प्रश्न को देखा जा सकता है। भीष्म- “स्त्री की कोई जाति नहीं होती। वह पति की जाति से जानी जाती है। शुभा - मैं स्त्री नहीं हूँ? यह तर्क मुझ पर क्यों नहीं लागू होता? भीष्म- तुम दासी थी, राजा की पत्नी नहीं।”[xvi] सारे नियम, धर्म, रूढ़ियाँ, परम्पराएँ ढ़ोने के लिए औरते ही हैं। उसके बाद भी उनको मिलता क्या है? दर्द, यातना, त्याग, अकेलापन, सामाजिक बहिष्कार, अत्याचार यही सब। यहाँ राजनीति का दोगलापन भी नाटक में दिखलाई पड़ता है।

      बलात्कार जैसी गंभीर और सार्वजनिक समस्या आज निरंतर बढ़ती ही जा रही है। बलात्कारी के लिए उम्र मायने नहीं रखती उसको तो बस अपनी हवस मिटानी है। नाटककार ने यही स्थिति नाटक में एक अलग तरीके से प्रस्तुत की है। धृतराष्ट्र और पाण्डु नियोग क्रिया के द्वारा पैदा होते हैं। नाटक में प्रदर्शित नियोग प्रक्रिया में बहनों की सहमति नहीं होती केवल व्यास की ही सहमति होती है। कुंती और शुभा की बातचीत के माध्यम से यह स्पष्ट होता है। कुंती – “अनचाहा नियोग हुआ यह तो। एक प्रकार से बलात्कार। इसे स्वीकार ही क्यों किया देवी अम्बालिका ने? शुभा : लोकनिन्दा के भय से। सत्यवती और भीष्म का दबाव भी था- मुनिवर के शाप का भय भी। स्त्री चारों ओर से कितनी त्रस्त रहती है, यह केवल हम जान सकती हैं। पुरुष इस भय को नहीं समझ पाते - कुरुवंश के पुरुष तो बिल्कुल नहीं जो स्त्री को उपभोग की वस्तु मानते रहे- अधिक से अधिक अपना क्षेत्र।”[xvii]

      आज भी यहीं स्थितियाँ समाज में मौजूद हैं। जहाँ स्त्री चाँद पर तो जा सकती है पर अपनी पसंद के लड़के से विवाह नहीं कर सकती। सारी मान–मर्यादा, परम्पराएँ, रूढ़ियाँ, लोग क्या कहेंगे, समाज में क्या इज्जत रह जाएगी जैसे ताने उसके सिर पर मढ़ दिए जाते हैं। जिसके कारण विवश होकर उन्हें वही स्वीकार कर लेना पड़ता है जो परिवार या समाज चाहता है। जो स्वीकार नहीं करती उनको मौत के घाट उतार दिया जाता है। समाज के द्वारा बनाई गई यह सब सीमाएं केवल और केवल स्त्रियों के लिए ही हैं। पुरुष तो नारी पर अपने अधिकार और वर्चस्व की बात करता है। समानता की बातें तो बहुत ज़ोर-शोर के साथ की जाती हैं पर असलियत में अभी भी कहाँ मिली है स्त्रियों को समानता? देश तो आज़ाद हो गया पर हम क्या आज भी अपनी कुत्सित और भद्दी मानसिकता से आज़ाद हो पाएं हैं? आज लड़कियाँ दिन में ही सुरक्षित नहीं है, रात की तो बात ही क्या कहें। सबसे महत्वपूर्ण बात जब एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के लिए अपशब्दों का प्रयोग करती है। पुरुष द्वारा किए गए अत्याचार और बलात्कार के लिए उस पीड़ित स्त्री को ही जिम्मेदार समझा जाता है।

      “वह क्यों गई थी इतनी रात को उस सुनसान रास्ते पर? “क्या जरूरत थी उसको उस समय वहाँ जाने की?” “इतनी छोटे कपड़े पहनेगी तो पुरुष भड़केंगे ही।” इस तरह के सवाल सिर्फ और सिर्फ एक औरत के लिए ही गढ़े जाते हैं। पुरुष से कोई नहीं पूछता कि “वह इतनी रात में वहाँ क्या कर रहा था? “क्या जरूरत थी उस पुरुष को इतनी रात में वहाँ जाने की?” पुरुष द्वारा पहने जाने वाले कपड़ों पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं होती। यह दोगलापन तथाकथित भारतीय समाज की विशेषताओं में गिना जाता है। नाटक का आखिरी संवाद महाभारत की ही नहीं अपितु मानव जाति की सभी स्त्रियों की करुण वेदना की कहानी को उजागर करता है। शुभा विदुर से कहती है - “तुमने देखा होता वह सब। युवती सत्यवती की मनोदशा जब वह अशक्त वृद्ध की कामातुरता को संतुष्ट करने का माध्यम बनने को विवश थी। अम्बा का आत्मदाह क्योंकि उसे कोई स्वीकारने को तैयार न था। अम्बिका की वेदना जब वह अनिच्छापूर्वक अपनी देह सौंप रही थी। जिसकी वह कामना कर सकती है, वह एक मूढ़ प्रतिज्ञा में बँधा था - सृष्टि की विरोधी प्रतिज्ञा में शापग्रस्त हो जैसे। यह सब देख पाते तब तुम जानते वेदना क्या होती है। नहीं, विदुर। तुम यहाँ नहीं रहोगे। यह मेरा आदेश है। तुम जाओ! और मुझे यहीं रहने दो - इस नये हस्तिनापुर में- अपनी मुक्ति में।”[xviii]

       इस प्रकार नाटक में हस्तिनापुर की उन स्त्रियों की कथा और व्यथा को कहा गया है जिन्होंने महाभारत की यातनाओं को न केवल सहा अपितु जीवन पर्यंत उसको ढोती भी रही। यह सम्पूर्ण स्त्री समाज की व्यथा कहती कथा है, जिसको नाटककार ने आज की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर महाभारत को माध्यम बनाकर या केंद्र में रखकर कई समस्याओं को एक साथ दिखाने की कोशिश की है। आज भी सम्पूर्ण विश्व में नारी की यदा-कदा यही स्थिति है।

      स्त्री आज अगर अपने बारे में सोचने लगे तो वह स्वार्थी हो जाती है, जबकि हमारा समाज तो औरतों को त्याग की मूर्ति मानता है तो वह कैसे केवल और केवल अपने बारे में सोच सकती है? यह अधिकार तो हमारे समाज ने स्त्रियों को न तब दिए थे और न अब दिए हैं। इस प्रकार नाटक स्त्रियों के सामाजिक द्वंद्व को प्रदर्शित करता है, जहाँ राज कन्या और रानी होने के बाद भी वह अपनी ज़िंदगी के महत्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकती। वह विवश है यातनाओं को झेलने के लिए।


[i] नेमिचन्द्र जैन : रंग-यात्रा, (सम्मतियों से), सूर्य मंदिर प्रकाशन, बीकानेर, राजस्थान, 2014

[ii] जयदेव तनेजा : रंग साक्षात्कार, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, परिवर्द्धित संस्करण, 2016, पृष्ठ 323.  

[iii] जयदेव तनेजा : नयी रंग-चेतना और हिन्दी नाटककार, तक्षशिला प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1994, पृष्ठ 173.

[iv] भारत रत्न भार्गव : नाटक का शब्द, अर्थ, लय और भंगिमा’, मधुमती (अंक 7-8), जुलाई-अगस्त, 2000, पृष्ठ 172.

[v] नंदकिशोर आचार्य : रंग-यात्रा, सूर्य मंदिर प्रकाशन, बीकानेर, राजस्थान, 2014, पृष्ठ 104.

[vi] नंदकिशोर आचार्य : रंगत्रयी. वाग्देवी प्रकाशन: बीकानेर, राजस्थान, 1996, पृष्ठ 77.

[vii] नंदकिशोर आचार्य : रंग-यात्रा. सूर्य मंदिर प्रकाशन. बीकानेर, राजस्थान, 2014, पृष्ठ 14

[viii] नंदकिशोर आचार्य : रंगत्रयी. वाग्देवी प्रकाशन: बीकानेर, राजस्थान, 1996,  पृष्ठ 93.

[ix] नंदकिशोर आचार्य  : रंग-यात्रा. सूर्य मंदिर प्रकाशन. बीकानेर, राजस्थान, 2014, पृष्ठ 112.

[x] वही, पृष्ठ 116-117.

[xi] वही, पृष्ठ 115.

[xii] वही, पृष्ठ 119.

[xiii] लहरी राम मीणा : नन्दकिशोर आचार्य के नाटकों की अन्तर्वस्तु और रंगानुभव’, नटरंग (अंक 103-104), पृष्ठ 110.

[xiv] कुन्दन माली : बड़ी जटिल कथा है यह’, मधुमती (अंक 7-8), जुलाई-अगस्त, 2000, पृष्ठ 185

[xv] नंदकिशोर आचार्य  : रंग-यात्रा. सूर्य मंदिर प्रकाशन. बीकानेर, राजस्थान, 2014, पृष्ठ 133.

[xvi] नंदकिशोर आचार्य : रंगत्रयी. वाग्देवी प्रकाशन: बीकानेर, राजस्थान, 1996, पृष्ठ 105.

[xvii] वही, पृष्ठ 91.

[xviii] वही, पृष्ठ 114.

आरती शर्मा, पी-एच.डी. हिन्दी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, सूर्यमणिनगर

संपर्क-9250458560,   ईमेल- arti6945@gmail.com

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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