भारत
में आदिवासी अधिकार मानवाधिकार के रूप में और भौगोलिक संकेतक की प्रासंगिकता
डॉ. आशुतोष मिश्रा
शोध सारांश
भारत, विविध संस्कृतियों, भाषाओं और जीवन शैलियों
का देश है, जहाँ आदिवासी समुदाय, जिन्हें अक्सर 'जनजाति' या 'अनुसूचित जनजाति' कहा
जाता है, एक महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग हैं। ये समुदाय सदियों से देश के विभिन्न भौगोलिक
क्षेत्रों, विशेषकर वनों, पहाड़ों और दुर्गम इलाकों में निवास करते आए हैं। उनका जीवन
प्रकृति से गहराई से जुड़ा हुआ है और उन्होंने पारंपरिक ज्ञान का एक विशाल भंडार विकसित
किया है जो टिकाऊ जीवन, जैव विविधता संरक्षण और अद्वितीय सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों
का आधार है।
हालांकि, औपनिवेशिक काल
से लेकर आधुनिक विकास प्रक्रियाओं तक, आदिवासी समुदायों को उनके पारंपरिक अधिकारों
- भूमि, वन संसाधनों और स्वयं-शासन के अधिकारों - के गंभीर क्षरण का सामना करना पड़ा
है। उन्हें अक्सर विकास परियोजनाओं के नाम पर विस्थापन, संसाधनों से अलगाव, भेदभाव
और सामाजिक हाशिए पर धकेले जाने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। यह समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि आदिवासी अधिकार मूल रूप से मानवाधिकार हैं।
गरिमा, समानता, गैर-भेदभाव, आत्मनिर्णय और सांस्कृतिक अधिकारों जैसे सार्वभौमिक मानवाधिकार
सिद्धांत आदिवासी समुदायों पर पूरी तरह लागू होते हैं। उनके भूमि, संसाधन और सांस्कृतिक
पहचान के अधिकार केवल विशिष्ट समूह के अधिकार नहीं हैं, बल्कि वे प्रत्येक व्यक्ति
की गरिमा और उनके सामूहिक अस्तित्व के लिए अपरिहार्य बुनियादी मानवाधिकार हैं।
बीज शब्द -आदिवासी ,अधिकार ,समुदाय ,मानवाधिकार ,भूमि ,जंगल ,संस्कृति
आलेख -
यह लेख भारत में आदिवासी अधिकारों को मानवाधिकारों
के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करता है। यह भारतीय संविधान और विभिन्न कानूनों के तहत
उन्हें प्राप्त सुरक्षा उपायों की पड़ताल करता है, उनके समक्ष मौजूदा चुनौतियों पर
प्रकाश डालता है, और विशेष रूप से इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि कैसे उनका पारंपरिक
ज्ञान और अद्वितीय उत्पाद उनके अधिकारों से जुड़े हैं। लेख भौगोलिक संकेतक
(Geographical Indications - GI) की अवधारणा और भारत में आदिवासी उत्पादों और ज्ञान
के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता का गहराई से विश्लेषण करेगा। हम देखेंगे कि कैसे
GI आदिवासी समुदायों के आर्थिक सशक्तिकरण, पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण और मानवाधिकारों
की सुरक्षा में एक उपकरण के रूप में कार्य कर सकता है, साथ ही इसके उपयोग में आने वाली
चुनौतियों पर भी विचार करेंगे।
मानवाधिकार
और आदिवासी समुदाय
मानवाधिकार वे अंतर्निहित अधिकार हैं जो प्रत्येक
मनुष्य को जन्म से प्राप्त होते हैं, चाहे उसकी जाति, लिंग, राष्ट्रीयता, जातीयता,
भाषा, धर्म या कोई अन्य स्थिति कुछ भी हो। ये अधिकार सार्वभौमिक, अविभाज्य और परस्पर
निर्भर होते हैं।
आदिवासी समुदायों के संदर्भ में, मानवाधिकारों में
निम्नलिखित पहलू शामिल हैं:
1.
आत्मनिर्णय का अधिकार: आदिवासियों को अपनी राजनीतिक स्थिति को स्वतंत्र
रूप से निर्धारित करने और अपने आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को आगे बढ़ाने
का अधिकार है। इसमें उनके अपने संस्थानों के माध्यम से स्वशासन का अधिकार शामिल है।
2.
भूमि, क्षेत्र और संसाधनों पर अधिकार: आदिवासियों को अपनी पारंपरिक रूप से कब्जे वाली,
उपयोग की जाने वाली या अधिग्रहित की गई भूमि, क्षेत्रों और प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार
है। यह अधिकार उनकी आजीविका, संस्कृति, पहचान और आध्यात्मिक कल्याण के लिए मौलिक है।
3.
सांस्कृतिक अधिकारों का संरक्षण: आदिवासियों को अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान,
परंपराओं, भाषाओं और जीवन शैली को बनाए रखने, संरक्षित करने और विकसित करने का अधिकार
है। इसमें उनके पारंपरिक ज्ञान, कला, शिल्प और प्रथाओं का संरक्षण शामिल है।
4.
भेदभाव से मुक्ति और समानता: आदिवासियों को बिना किसी भेदभाव के सभी मानवाधिकारों
और मौलिक स्वतंत्रताओं का पूर्ण और समान रूप से आनंद लेने का अधिकार है।
5.
विकास में भागीदारी: आदिवासियों को उन सभी मामलों में प्रभावी ढंग से
भाग लेने का अधिकार है जो उन्हें प्रभावित करते हैं, विशेष रूप से उनके विकास की योजना
और कार्यान्वयन में।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, स्वदेशी लोगों के अधिकारों
पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा (United Nations Declaration on the Rights of
Indigenous Peoples - UNDRIP), 2007, एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो स्वदेशी लोगों के
अधिकारों को मान्यता देता है, जिसमें आत्मनिर्णय, भूमि और संसाधन अधिकार, सांस्कृतिक
संरक्षण और पारंपरिक ज्ञान पर अधिकार शामिल हैं। हालांकि भारत ने आधिकारिक तौर पर
'स्वदेशी लोग' शब्द को मान्यता नहीं दी है और इसके बजाय 'अनुसूचित जनजाति' का उपयोग
करता है, UNDRIP में निहित सिद्धांत भारत में आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा और संवर्धन
के लिए अत्यधिक प्रासंगिक हैं।
भारतीय
संवैधानिक और कानूनी ढाँचा
भारतीय संविधान आदिवासी समुदायों के संरक्षण और
कल्याण के लिए कई विशेष प्रावधान प्रदान करता है। ये प्रावधान आदिवासियों को शेष समाज
के साथ समानता के स्तर पर लाने और उनकी विशिष्ट पहचान को संरक्षित करने के उद्देश्य
से हैं।
●
पांचवीं अनुसूची: यह असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम को छोड़कर
किसी भी राज्य में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण
से संबंधित है। यह क्षेत्रों के प्रशासन के लिए राज्यपाल को विशेष शक्तियां प्रदान
करती है और जनजातीय सलाहकार परिषदों (Tribes Advisory Councils - TAC) की स्थापना का
प्रावधान करती है।
●
छठी अनुसूची: यह असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों में
आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित है, जो स्वायत्त जिलों और स्वायत्त क्षेत्रों
के निर्माण का प्रावधान करती है जिनमें विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियां होती
हैं।
●
अनुच्छेद 15 (4): राज्य को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नागरिकों
के किसी भी वर्ग, या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिए विशेष
प्रावधान करने का अधिकार देता है।
●
अनुच्छेद 16 (4): राज्य के तहत सेवाओं में नियुक्तियों या पदों के
आरक्षण के लिए प्रावधान करने का अधिकार देता है यदि राज्य को लगता है कि सेवाओं में
उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
●
अनुच्छेद 46: राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों
के शैक्षिक और आर्थिक हितों को विशेष देखभाल के साथ बढ़ावा देने और उन्हें सामाजिक
अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से बचाने का निर्देश देता है। यह एक निर्देशक सिद्धांत
है, लेकिन आदिवासी कल्याण के लिए राज्य की जिम्मेदारी को रेखांकित करता है।
●
अनुच्छेद 243D और 243T: पंचायतों और नगरपालिकाओं में अनुसूचित जातियों
और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण का प्रावधान करते हैं, जिससे स्थानीय
शासन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित होती है।
●
अनुच्छेद 330 और 332: क्रमशः लोक सभा और राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित
जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण का प्रावधान करते हैं।
●
अनुच्छेद 334: मूल रूप से लोक सभा और राज्य विधान सभाओं में सीटों
के आरक्षण और विशेष प्रतिनिधित्व को 10 साल के लिए निर्धारित करता था, जिसे समय-समय
पर बढ़ाया गया है।
●
अनुच्छेद 341 और 342: राष्ट्रपति को विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित
प्रदेशों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की सूची अधिसूचित करने का अधिकार
देते हैं।
संवैधानिक प्रावधानों के अलावा, कई महत्वपूर्ण कानून
आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए हैं:
●
अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन
अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (FRA): यह अधिनियम वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजातियों
और अन्य पारंपरिक वनवासियों के वन भूमि पर उनके अधिकारों को मान्यता देता है। यह उन्हें
व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकार प्रदान करता है, जिसमें आजीविका, निवास, लघु वनोपज
संग्रह, और सामुदायिक वन संसाधनों के प्रबंधन और संरक्षण का अधिकार शामिल है। यह अधिनियम
वन संसाधनों पर आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान और स्थायी उपयोग को भी मान्यता देता है।
ग्राम सभा इस अधिनियम के कार्यान्वयन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
●
पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार)
अधिनियम, 1996 (PESA): यह
अधिनियम पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में पंचायतों के प्रावधानों का विस्तार करता है।
इसका उद्देश्य आदिवासी समुदायों को स्वशासन का अधिकार प्रदान करना और प्राकृतिक संसाधनों
पर ग्राम सभाओं के नियंत्रण को मजबूत करना है। यह भूमि अधिग्रहण, लघु वनोपज और स्थानीय
योजनाओं पर ग्राम सभाओं की सहमति को अनिवार्य बनाता है।
●
भूमि अलगाव से संबंधित राज्य कानून: विभिन्न राज्यों ने आदिवासी भूमि के गैर-आदिवासियों
को हस्तांतरण को रोकने और पहले से हस्तांतरित भूमि को बहाल करने के लिए कानून बनाए
हैं। हालांकि, इन कानूनों का कार्यान्वयन अक्सर जटिल और धीमा रहा है।
●
जैविक विविधता अधिनियम, 2002: यह अधिनियम जैविक संसाधनों और संबंधित पारंपरिक
ज्ञान तक पहुंच को विनियमित करने और लाभ साझाकरण को सुनिश्चित करने के लिए एक तंत्र
प्रदान करता है। इसमें स्थानीय स्तर पर जैव विविधता प्रबंधन समितियों
(Biodiversity Management Committees - BMCs) के गठन का प्रावधान है, जो पारंपरिक ज्ञान
के दस्तावेज़ीकरण और संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
आदिवासी
समुदायों के समक्ष चुनौतियाँ
उपरोक्त संवैधानिक और कानूनी सुरक्षा उपायों के
बावजूद, भारत में आदिवासी समुदाय आज भी कई गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जो
उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन करती हैं:
●
भूमि अलगाव और विस्थापन: विकास परियोजनाओं (जैसे बांध, खदानें, उद्योग),
वन संरक्षण उपायों और गैर-आदिवासियों द्वारा धोखाधड़ी या जबरदस्ती के माध्यम से भूमि
का अलगाव आदिवासी समुदायों के लिए एक प्रमुख समस्या बनी हुई है। विस्थापन से उनकी आजीविका,
सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक पहचान और पारंपरिक ज्ञान का नुकसान होता है। भूमि बहाली
कानूनों का कार्यान्वयन अक्सर अप्रभावी रहा है।
●
वन अधिकारों से वंचित: FRA के कार्यान्वयन में धीमी गति और बाधाएं आदिवासियों
को उनके वन अधिकारों का पूर्ण रूप से प्रयोग करने से रोकती हैं। वन विभाग के साथ संघर्ष,
अधिकारों के दावों के सत्यापन में देरी और सामुदायिक वन अधिकारों की मान्यता की कमी
आम समस्याएं हैं।
●
संसाधनों तक पहुंच की कमी: वनों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण खोने
से आदिवासियों की आजीविका प्रभावित होती है जो ऐतिहासिक रूप से वनोपज संग्रह, शिकार
और कृषि पर निर्भर रहे हैं।
●
भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार: आदिवासी समुदायों को अक्सर समाज के अन्य वर्गों
द्वारा भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, जिससे उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य
सेवा और रोजगार जैसे अवसरों से वंचित होना पड़ता है।
●
पारंपरिक ज्ञान का क्षरण और शोषण: आधुनिकीकरण, बदलती जीवन शैली और पर्यावास के नुकसान
के कारण पारंपरिक ज्ञान का मौखिक हस्तांतरण कमजोर पड़ रहा है। इसके अलावा, पारंपरिक
ज्ञान का अक्सर फार्मास्युटिकल, कृषि या कॉस्मेटिक उद्योगों द्वारा बिना समुदायों की
सहमति या उचित लाभ साझाकरण के व्यावसायिक शोषण किया जाता है (बायो-पायरेसी)।
●
स्वास्थ्य और शिक्षा तक पहुंच की कमी: दूरस्थ क्षेत्रों में निवास और गरीबी के कारण,
आदिवासी समुदायों को अक्सर गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा तक पर्याप्त पहुंच
नहीं मिल पाती है।
●
गरीबी और ऋणग्रस्तता: भूमि और संसाधनों तक पहुंच के नुकसान के साथ-साथ
रोजगार के सीमित अवसरों के कारण आदिवासी समुदायों में गरीबी और ऋणग्रस्तता व्यापक है।
●
स्वशासन की कमजोर पड़ना: PESA जैसे कानूनों के बावजूद, ग्राम सभाएं अक्सर
पूरी तरह से सशक्त नहीं होती हैं और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनकी भूमिका सीमित
होती है।
पारंपरिक
ज्ञान और सांस्कृतिक विरासत
भारत के आदिवासी समुदायों के पास पारंपरिक ज्ञान
का एक अविश्वसनीय रूप से समृद्ध और विविध भंडार है। यह ज्ञान पीढ़ियों से संचित अनुभव
और सीखने का परिणाम है और उनके जीवन, संस्कृति और पर्यावरण के साथ उनके संबंधों को
दर्शाता है। इस पारंपरिक ज्ञान में शामिल हैं:
●
पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां: पौधों, जानवरों और खनिजों के औषधीय गुणों का गहरा
ज्ञान और विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए उनका उपयोग।
●
टिकाऊ कृषि और संसाधन प्रबंधन: स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के अनुकूल कृषि तकनीकें,
बीज संरक्षण, मिट्टी और जल प्रबंधन के तरीके, और वन संसाधनों के स्थायी उपयोग के लिए
सामुदायिक नियम।
●
पारंपरिक कला और शिल्प: पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने वाली अद्वितीय
कलात्मक शैलियाँ, तकनीकें और डिज़ाइन, जो उनकी संस्कृति, विश्वासों और पर्यावरण को
दर्शाते हैं (जैसे पेंटिंग, बुनाई, धातु का काम, मिट्टी के बर्तन)।
●
पर्यावरण ज्ञान: स्थानीय जैव विविधता, पारिस्थितिक प्रक्रियाओं
और जलवायु पैटर्न की गहरी समझ।
●
सामाजिक संरचनाएं और प्रथाएं: समुदाय के भीतर व्यवस्था बनाए रखने, संघर्षों को
सुलझाने और सामाजिक सामंजस्य सुनिश्चित करने के लिए पारंपरिक शासन प्रणालियां और प्रथाएं।
●
मौखिक परंपराएं: इतिहास, पौराणिक कथाएं, गीत, नृत्य और कहानियों
के माध्यम से ज्ञान और मूल्यों का हस्तांतरण।
यह पारंपरिक ज्ञान न केवल आदिवासियों की सांस्कृतिक
पहचान के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह जैव विविधता संरक्षण, जलवायु परिवर्तन अनुकूलन
और सतत विकास के लिए भी मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह मानवता की सामूहिक
विरासत का एक हिस्सा है। पारंपरिक ज्ञान का अधिकार मानवाधिकारों का एक अभिन्न अंग है,
विशेष रूप से सांस्कृतिक अधिकारों और आत्मनिर्णय के अधिकार का।
भौगोलिक
संकेतक (Geographical Indications - GI)
भौगोलिक संकेतक (GI) एक ऐसा चिन्ह है जिसका उपयोग
उन उत्पादों पर किया जाता है जिनकी एक विशिष्ट भौगोलिक उत्पत्ति होती है और जिनमें
उस उत्पत्ति के कारण गुण या प्रतिष्ठा होती है। किसी उत्पाद का GI टैग यह दर्शाता है
कि उत्पाद उस विशेष क्षेत्र में उत्पन्न हुआ है और उसके गुण या विशेषता मुख्य रूप से
उस क्षेत्र की जलवायु, मिट्टी या पारंपरिक उत्पादन विधियों जैसे भौगोलिक कारकों के
कारण हैं।
विश्व व्यापार संगठन (WTO) के व्यापार-संबंधित बौद्धिक
संपदा अधिकार समझौते (TRIPS Agreement) के तहत GI को बौद्धिक संपदा अधिकार के एक रूप
के रूप में मान्यता प्राप्त है। भारत में, भौगोलिक संकेतक (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम,
1999 GI को सुरक्षा प्रदान करता है। यह अधिनियम भारत में GI के पंजीकरण और बेहतर सुरक्षा
के लिए एक कानूनी ढाँचा प्रदान करता है। वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के तहत उद्योग
और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (Department for Promotion of Industry and
Internal Trade - DPIIT) GI के पंजीकरण की देखरेख करता है। एक बार पंजीकृत होने के
बाद, GI 10 साल के लिए वैध होता है और इसे नवीनीकृत किया जा सकता है।
GI टैग का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि केवल
अधिकृत उपयोगकर्ता ही विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र से उत्पन्न होने वाले उत्पाद के लिए
पंजीकृत GI नाम का उपयोग कर सकें। यह अनधिकृत उपयोगकर्ताओं को ऐसे उत्पादों के उत्पादन
या विपणन से रोकता है, जिससे उपभोक्ताओं को गुणवत्ता और उत्पत्ति के बारे में आश्वासन
मिलता है और पंजीकृत उपयोगकर्ताओं के हितों की रक्षा होती है।
भौगोलिक
संकेतक (GI) और भारत में आदिवासी उत्पाद
भारत के विभिन्न आदिवासी समुदाय अपनी अनूठी कला,
शिल्प, कृषि उत्पादों और पारंपरिक ज्ञान पर आधारित अन्य उत्पादों के लिए जाने जाते
हैं। इनमें से कई उत्पादों में GI टैग प्राप्त करने की क्षमता है क्योंकि वे विशिष्ट
भौगोलिक क्षेत्रों से उत्पन्न होते हैं और उनमें उस क्षेत्र या समुदाय की पारंपरिक
प्रथाओं से उत्पन्न विशिष्ट गुण होते हैं।
GI टैग आदिवासी उत्पादों और पारंपरिक ज्ञान के संदर्भ
में अत्यधिक प्रासंगिक हो सकता है क्योंकि यह:
1.
पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण और मान्यता: GI टैग पारंपरिक ज्ञान और प्रथाओं को मान्यता और
कानूनी सुरक्षा प्रदान करने में मदद कर सकता है जो किसी उत्पाद की विशिष्टता में योगदान
करते हैं। यह अनधिकृत उपयोग और बायो-पायरेसी के खिलाफ एक प्रकार की सुरक्षा प्रदान
कर सकता है।
2.
आर्थिक सशक्तिकरण: GI टैग आदिवासी उत्पादों को एक प्रीमियम मूल्य
प्राप्त करने और बाजारों तक बेहतर पहुंच प्राप्त करने में मदद कर सकता है। यह उनकी
विशिष्टता को प्रमाणित करता है, जिससे उपभोक्ताओं का विश्वास बढ़ता है और उत्पाद की
मांग बढ़ती है। यह बदले में, आदिवासी कारीगरों, किसानों और उत्पादकों की आय बढ़ा सकता
है और उनकी आजीविका को मजबूत कर सकता है।
3.
सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण: GI टैग पारंपरिक कला, शिल्प और उत्पादन तकनीकों
को संरक्षित करने और पुनर्जीवित करने के लिए प्रोत्साहन प्रदान कर सकता है, क्योंकि
ये तकनीकें उत्पाद की विशिष्टता का आधार हैं। यह युवा पीढ़ी को इन पारंपरिक कौशलों
को सीखने और बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है।
4.
सामुदायिक गौरव और पहचान: GI टैग आदिवासी समुदायों को उनके अद्वितीय उत्पादों
और पारंपरिक ज्ञान के लिए मान्यता प्रदान करता है, जिससे उनमें गौरव और पहचान की भावना
बढ़ती है।
5.
जैव विविधता संरक्षण: कई आदिवासी उत्पाद स्थानीय जैव विविधता और टिकाऊ
प्रथाओं से जुड़े होते हैं। GI टैग इन प्रथाओं और संबंधित जैव विविधता के संरक्षण को
बढ़ावा दे सकता है।
भारत
में GI टैग प्राप्त कुछ आदिवासी या आदिवासी-संबंधित उत्पाद (उदाहरण):
हालांकि "आदिवासी उत्पाद" के रूप में
एक अलग श्रेणी नहीं है, भारत में कई GI-टैग वाले उत्पाद आदिवासी समुदायों द्वारा बनाए
जाते हैं या आदिवासी क्षेत्रों से जुड़े हैं:
●
बस्तर ढोकरा (छत्तीसगढ़): यह ढोकरा कला आदिवासी समुदायों, विशेष रूप से घड़वा
जनजाति द्वारा की जाने वाली एक प्राचीन धातु शिल्प है। इसमें मोम कास्टिंग तकनीक का
उपयोग किया जाता है।
●
वारली पेंटिंग (महाराष्ट्र): वारली जनजाति द्वारा बनाई गई यह पारंपरिक चित्रकला
उनकी जीवन शैली, रीति-रिवाजों और प्रकृति से उनके संबंध को दर्शाती है।
●
कोटा डोरिया (राजस्थान): यह एक विशेष प्रकार की बुनाई है जो मुख्य रूप से
राजस्थान के कोटा क्षेत्र में कुछ आदिवासी और पारंपरिक बुनकर समुदायों द्वारा की जाती
है।
●
कन्नडिप्पया (केरल): यह केरल के कुछ आदिवासी समुदायों द्वारा बनाया
गया एक पारंपरिक हस्तशिल्प है, जिसे हाल ही में GI टैग मिला है। यह इस क्षेत्र में
आदिवासी हस्तशिल्प के लिए पहला GI टैग है।
●
जीराफूल चावल (छत्तीसगढ़): यह छत्तीसगढ़ में उगाई जाने वाली चावल की एक सुगंधित
किस्म है जो कुछ आदिवासी और स्थानीय समुदायों द्वारा पारंपरिक तरीकों से खेती की जाती
है।
●
अराकू वैली कॉफी (आंध्र प्रदेश और ओडिशा): पूर्वी घाटों के आदिवासी क्षेत्रों में उगाई जाने
वाली यह कॉफी अपनी विशिष्ट गुणवत्ता के लिए जानी जाती है और इसे GI टैग मिला है। कॉफी
की खेती में यहां के आदिवासी समुदायों की पारंपरिक और टिकाऊ प्रथाएं महत्वपूर्ण हैं।
ये कुछ उदाहरण हैं, और भारत में कई अन्य आदिवासी
उत्पाद, जैसे विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्प (बांस और बेंत का काम, लकड़ी की नक्काशी,
मिट्टी के बर्तन), वस्त्र, कृषि उत्पाद (विशेष प्रकार के बाजरा, दालें, फल), और वनोपज
(शहद, औषधीय पौधे), जिनमें GI टैग प्राप्त करने की क्षमता है।
आदिवासी
समुदायों के लिए GI की चुनौतियाँ और सीमाएँ
GI टैग आदिवासी समुदायों के लिए अवसर प्रस्तुत करता
है, लेकिन इसके साथ कई चुनौतियाँ और सीमाएँ भी जुड़ी हुई हैं:
●
जागरूकता और जानकारी का अभाव: आदिवासी समुदायों में अक्सर GI की अवधारणा, इसके
लाभ और पंजीकरण प्रक्रिया के बारे में जागरूकता का अभाव होता है।
●
दस्तावेज़ीकरण की कठिनाई: पारंपरिक ज्ञान और उत्पादन प्रक्रियाओं का दस्तावेज़ीकरण
करना जो अक्सर मौखिक रूप से हस्तांतरित होती हैं, एक जटिल और समय लेने वाली प्रक्रिया
हो सकती है।
●
पंजीकरण प्रक्रिया की जटिलता और लागत: GI पंजीकरण प्रक्रिया में कानूनी औपचारिकताएं और
वित्तीय लागतें शामिल होती हैं जो आदिवासी समुदायों के लिए दुर्गम हो सकती हैं।
●
सामूहिक कार्रवाई और संगठन: GI टैग आमतौर पर उत्पादकों के संघ या सामूहिक निकाय
को दिया जाता है। आदिवासी समुदायों के लिए एक साथ आना, एक औपचारिक निकाय बनाना और पंजीकरण
प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
●
प्रवर्तन और सुरक्षा: GI टैग प्राप्त करने के बाद, अनधिकृत उपयोग या
नकली उत्पादों के खिलाफ प्रवर्तन और सुरक्षा सुनिश्चित करना मुश्किल हो सकता है, खासकर
दूरदराज के क्षेत्रों में।
●
विपणन और बाजार तक पहुंच: GI टैग उत्पाद को प्रीमियम मूल्य दिलाने में मदद
कर सकता है, लेकिन आदिवासी उत्पादकों के लिए व्यापक बाजारों तक पहुंच बनाना और अपने
उत्पादों का प्रभावी ढंग से विपणन करना अभी भी एक चुनौती है।
●
लाभ साझाकरण तंत्र: यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि GI से होने
वाला आर्थिक लाभ समुदाय के सभी सदस्यों, विशेष रूप से पारंपरिक ज्ञान रखने वाले और
उत्पाद बनाने वाले कारीगरों या किसानों के बीच समान रूप से साझा किया जाए। स्पष्ट और
न्यायसंगत लाभ साझाकरण तंत्र की आवश्यकता है।
●
ज्ञान का व्यावसायीकरण बनाम संरक्षण: वाणिज्यिक लाभ पर अत्यधिक ध्यान पारंपरिक प्रथाओं
के व्यावसायीकरण और संभावित रूप से पारंपरिक ज्ञान के क्षरण या विकृति का कारण बन सकता
है यदि इसे सावधानी से प्रबंधित न किया जाए।
●
सरकारी सहायता की आवश्यकता: पंजीकरण प्रक्रिया, दस्तावेज़ीकरण, गुणवत्ता नियंत्रण
और विपणन में सरकारी एजेंसियों और सहायक संगठनों से पर्याप्त सहायता की आवश्यकता होती
है।
GI,
पारंपरिक ज्ञान और मानवाधिकारों का अंतर्संबंध
GI टैग पारंपरिक ज्ञान को मान्यता और सुरक्षा प्रदान
करके और आदिवासी समुदायों को उनके उत्पादों से आर्थिक लाभ प्राप्त करने में मदद करके
आदिवासी मानवाधिकारों, विशेष रूप से सांस्कृतिक अधिकारों और आर्थिक अधिकारों को मजबूत
करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
●
जब आदिवासी
पारंपरिक ज्ञान को GI टैग के माध्यम से मान्यता मिलती है, तो यह उनकी सांस्कृतिक विरासत
के संरक्षण के अधिकार को सुदृढ़ करता है। यह ज्ञान अब केवल सांस्कृतिक प्रथा नहीं रहता,
बल्कि एक कानूनी रूप से संरक्षित संपत्ति बन जाता है जो समुदाय से अविभाज्य है।
●
GI टैग
से प्राप्त आर्थिक लाभ आदिवासियों के जीवन स्तर को सुधारने, गरीबी को कम करने और उन्हें
अपनी आजीविका पर अधिक नियंत्रण रखने में मदद कर सकता है। यह आर्थिक सशक्तिकरण के अधिकार
को साकार करने में योगदान देता है।
●
GI प्रक्रिया
में समुदाय की भागीदारी, विशेष रूप से GI उत्पाद से संबंधित पारंपरिक ज्ञान और प्रथाओं
के दस्तावेज़ीकरण और प्रबंधन में, आत्मनिर्णय और विकास में भागीदारी के अधिकार को बढ़ावा
दे सकती है।
●
जैविक
विविधता अधिनियम, 2002 के तहत लाभ साझाकरण प्रावधानों को GI ढांचे के साथ एकीकृत करने
की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जैविक संसाधनों और संबंधित पारंपरिक
ज्ञान के व्यावसायिक उपयोग से होने वाले लाभ आदिवासी समुदायों के साथ उचित रूप से साझा
किए जाएं। यह संसाधनों पर उनके अधिकार और उनके ज्ञान पर उनके नियंत्रण को सुदृढ़ करेगा।
●
समता
जैसे न्यायिक निर्णय, जो अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि और संसाधनों पर आदिवासियों के
अधिकारों को कायम रखते हैं, GI टैग से जुड़ी आर्थिक गतिविधियों के लिए एक सहायक वातावरण
प्रदान करते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि आदिवासी अपने संसाधनों पर नियंत्रण बनाए
रखें।
GI अकेले आदिवासी अधिकारों और पारंपरिक ज्ञान के
संरक्षण की गारंटी नहीं दे सकता। इसे FRA और PESA जैसे मौजूदा कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन
के साथ-साथ, पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण के लिए विशिष्ट कानूनी और नीतिगत उपायों और
समुदायों के सशक्तिकरण के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
सरकारी
योजनाएं और नीतियां
भारत सरकार और राज्य सरकारें आदिवासी विकास के लिए
विभिन्न योजनाएं चला रही हैं, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास, आजीविका संवर्धन
और बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया है। जनजातीय मामलों के मंत्रालय
आदिवासी कल्याण और विकास के लिए केंद्रीय नोडल एजेंसी है।
GI के संदर्भ में, DPIIT, जनजातीय मामलों के मंत्रालय
और अन्य संबंधित विभाग आदिवासी उत्पादों के लिए GI पंजीकरण को बढ़ावा देने और आदिवासी
समुदायों को GI प्रणाली का लाभ उठाने में सहायता करने के लिए मिलकर काम कर सकते हैं।
विशेष योजनाएं शुरू की जा सकती हैं जो आदिवासी समुदायों को GI पंजीकरण प्रक्रिया के
लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करें, दस्तावेज़ीकरण में मदद करें, और विपणन और
ब्रांडिंग रणनीतियों का समर्थन करें।
हालांकि, इन योजनाओं की सफलता के लिए यह महत्वपूर्ण
है कि वे नीचे तक पहुंचें, पारदर्शिता हो, और कार्यान्वयन प्रक्रिया में आदिवासी समुदायों
की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
गैर
सरकारी संगठनों और न्यायपालिका की भूमिका
गैर सरकारी संगठन (NGOs) और नागरिक समाज संगठन भारत
में आदिवासी अधिकारों की रक्षा और संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वे
जागरूकता पैदा करते हैं, advocacy करते हैं, FRA और PESA के कार्यान्वयन में समुदायों
की सहायता करते हैं, भूमि अधिकारों के मुद्दों पर लड़ते हैं, और पारंपरिक ज्ञान के
दस्तावेज़ीकरण और संरक्षण में समुदायों का समर्थन करते हैं। कई संगठन आदिवासी उत्पादों
के विपणन और GI पंजीकरण प्राप्त करने में भी सहायता प्रदान कर रहे हैं।
न्यायपालिका ने भी आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा
में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने कई निर्णयों
के माध्यम से आदिवासियों के भूमि अधिकारों, वन अधिकारों, विस्थापन के खिलाफ अधिकारों
और पारंपरिक जीवन शैली के महत्व को बरकरार रखा है। ये निर्णय कानूनी मिसाल कायम करते
हैं और आदिवासी अधिकारों के संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण आधार प्रदान करते हैं।
आगे
की राह और सुझाव
भारत में आदिवासी अधिकारों को मानवाधिकारों के रूप
में पूर्ण रूप से साकार करने और उनके पारंपरिक ज्ञान को प्रभावी ढंग से संरक्षित करने
के लिए बहुआयामी और ठोस प्रयासों की आवश्यकता है। GI एक उपयोगी उपकरण हो सकता है, लेकिन
यह एक बड़े ढांचे का हिस्सा होना चाहिए।
●
कानूनों का प्रभावी कार्यान्वयन: FRA और PESA जैसे मौजूदा कानूनों का अक्षरशः और
भावना से कार्यान्वयन सुनिश्चित किया जाए। ग्राम सभाओं को पूरी तरह से सशक्त बनाया
जाए और उन्हें उनके अधिकार और जिम्मेदारियों के बारे में जागरूक किया जाए।
●
भूमि अधिकारों की सुरक्षा और बहाली: आदिवासी भूमि के अलगाव को सख्ती से रोका जाए और
पहले से अलगावित भूमि की बहाली में तेजी लाई जाए। भूमिहीन आदिवासी परिवारों को पर्याप्त
भूमि उपलब्ध कराई जाए।
●
पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा के लिए विशेष ढाँचा: पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण, प्रलेखन, स्वामित्व
और उपयोग को संबोधित करने के लिए एक 'सui generis' प्रणाली या विशिष्ट राष्ट्रीय कानून
विकसित किया जाए, जो आदिवासी समुदायों के अधिकारों को प्राथमिकता दे। इसमें मुफ्त,
पूर्व और सूचित सहमति (Free, Prior and Informed Consent - FPIC) का सिद्धांत महत्वपूर्ण
है।
●
GI प्रणाली को आदिवासी-अनुकूल बनाना:
○
GI पंजीकरण
प्रक्रिया को सरल और लागत प्रभावी बनाया जाए ताकि आदिवासी समुदाय इसे आसानी से एक्सेस
कर सकें।
○
आदिवासी
समुदायों को GI की अवधारणा, लाभ और प्रक्रिया के बारे में जागरूक करने के लिए विशेष
आउटरीच कार्यक्रम चलाए जाएं।
○
दस्तावेज़ीकरण,
सामूहिक निकाय के गठन और आवेदन प्रक्रिया में आदिवासी समुदायों को तकनीकी और वित्तीय
सहायता प्रदान की जाए।
○
GI से
होने वाले आर्थिक लाभों के उचित और न्यायसंगत साझाकरण के लिए स्पष्ट तंत्र स्थापित
किए जाएं, जिसमें पारंपरिक ज्ञान धारकों को मान्यता और लाभ का हिस्सा शामिल हो।
○
GI-टैग
वाले आदिवासी उत्पादों के लिए प्रभावी विपणन और ब्रांडिंग रणनीतियों का समर्थन किया
जाए।
●
क्षमता निर्माण: आदिवासी समुदायों, विशेष रूप से ग्राम सभाओं और
सामुदायिक निकायों के सदस्यों की क्षमता का निर्माण किया जाए ताकि वे अपने अधिकारों
को समझ सकें, कानूनों का उपयोग कर सकें और विकास प्रक्रियाओं में प्रभावी ढंग से भाग
ले सकें।
●
शिक्षा प्रणाली का पुनर्गठन: शिक्षा प्रणाली को इस तरह से पुनर्गठित किया जाए
कि वह आदिवासी भाषाओं, संस्कृतियों और पारंपरिक ज्ञान को महत्व दे और युवा पीढ़ी को
अपनी विरासत से जोड़े।
●
अंतर-क्षेत्रीय समन्वय: विभिन्न सरकारी विभागों (जनजातीय मामले, वन, राजस्व,
वाणिज्य और उद्योग, स्वास्थ्य, शिक्षा) और संस्थानों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित किया
जाए ताकि आदिवासी मुद्दों पर एक एकीकृत और समग्र दृष्टिकोण अपनाया जा सके।
●
न्यायिक सक्रियता को प्रोत्साहन: न्यायपालिका को आदिवासी अधिकारों के उल्लंघन से
संबंधित मामलों में सक्रियता बनाए रखने और ऐतिहासिक अन्यायों को दूर करने के लिए साहसिक
निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
●
अनुसंधान और प्रलेखन का समर्थन: आदिवासी पारंपरिक ज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर और
अधिक शोध और प्रलेखन को बढ़ावा दिया जाए, यह सुनिश्चित करते हुए कि शोध समुदाय के लाभ
के लिए हो और उनके अधिकारों का सम्मान करे।
निष्कर्ष
भारत में आदिवासी अधिकार केवल कानूनी या नीतिगत
मुद्दे नहीं हैं; वे मानवाधिकारों का एक मौलिक हिस्सा हैं। आदिवासी समुदायों की गरिमा,
समानता, आत्मनिर्णय और सांस्कृतिक अस्तित्व को सुनिश्चित करना एक नैतिक और संवैधानिक
अनिवार्यता है। उनके भूमि, वन और संसाधनों पर अधिकार उनकी आजीविका और पहचान के लिए
अपरिहार्य हैं, और इन अधिकारों का उल्लंघन सीधे तौर पर उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन
करता है।
पारंपरिक ज्ञान, जो इन समुदायों के जीवन का आधार
है, एक बहुमूल्य विरासत है जिसे संरक्षित करने और संवर्धित करने की आवश्यकता है। भौगोलिक
संकेतक (GI) आदिवासी उत्पादों और ज्ञान को मान्यता और सुरक्षा प्रदान करने, आर्थिक
सशक्तिकरण को बढ़ावा देने और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में एक सहायक उपकरण के रूप
में कार्य कर सकता है। हालांकि, GI प्रणाली को आदिवासी समुदायों के लिए अधिक सुलभ,
समावेशी और न्यायसंगत बनाने की आवश्यकता है।
अकेले GI टैग आदिवासी समुदायों के सामने आने वाली
जटिल चुनौतियों का समाधान नहीं कर सकता। आदिवासी अधिकारों को पूरी तरह से साकार करने
के लिए कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन, भूमि अधिकारों की सुरक्षा, पारंपरिक ज्ञान
के लिए विशिष्ट कानूनी सुरक्षा, समुदायों के सशक्तिकरण और विकास प्रक्रियाओं में उनकी
सक्रिय भागीदारी सहित एक व्यापक और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
जब तक भारत अपने आदिवासी नागरिकों के अधिकारों को
मानवाधिकारों के रूप में पूरी तरह से पहचानता और उनकी रक्षा नहीं करता, तब तक सच्चा
न्याय और समावेशी विकास प्राप्त नहीं किया जा सकता। आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान
और अद्वितीय उत्पादों को महत्व देना और उन्हें सुरक्षित रखना न केवल उनकी भलाई के लिए
आवश्यक है, बल्कि यह भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और जैविक विविधता के संरक्षण के लिए
भी महत्वपूर्ण है। यह एक सामूहिक जिम्मेदारी है जिसे ईमानदारी और समर्पण के साथ निभाने
की आवश्यकता है।
संदर्भ
:
- मानवाधिकार : नई
दिशाएँ (खंड 9, 2012)। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, भारत।
- आदिवासी मानवाधिकार
रक्षकों हेतु (हैंडबुक)। AIPP (Asia Indigenous Peoples Pact) और AWN (Asian
Women's Network)।
- राष्ट्रीय मानव
अधिकार आयोग की वार्षिक रिपोर्ट (जैसे 2016-2017 की रिपोर्ट)। गृह मंत्रालय, भारत
सरकार।
- भारत में मूल निवासी होने का आशय तथा... RIS (Research and Information System for Developing Countries)।
- वैदिक संहिता में निहित मानवाधिकार स्रोत। डॉ. रामजीत मिश्रा। MSRVVP.ac.in।
- आदिवासी ज्ञान परंपरा का महत्व। प्रभात खबर (ओपिनियन पीस)।
डॉ. आशुतोष मिश्रा,
सहायक प्रोफ़ेसर,
विधि संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय
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