बतकही : दलित लेखिका डॉ. सुशीला टाकभौरे से माणिक की बातचीत

                    बतकही : ''केवल सहानुभूति की अनुभूति होती है, ‘सम्मान की नहीं।''/ डॉ. सुशीला टाकभौरे                                                                    (दलित लेखिका डॉ. सुशीला टाकभौरे से माणिक बातचीत)

सुशीला टाकभौरे जी (चित्र गूगल से साभार)


साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आपने लिखा है। कौन सी विधा आपकी सबसे प्रिय और इस दौर के लिए जरूरी विधा है और क्यों?

मैंने कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, लेख, समीक्षा, आलोचना, आत्मकथा सभी विधाओं में लेखन किया है। मेरी दृष्टि से तो सभी विधाएँ प्रिय और जरूरी हैं। सभी का अपना-अपना महत्त्व है लेकिन मैंने यह भी महसूस किया है कि कविता-कहानी की अपेक्षा उपन्यास विधा को पाठक समाज में ज्यादा पसंद किया जाता है। यद्यपि यह सत्य है कि उपन्यास विधा में जीवन के यथार्थ के साथ कल्पना का भी समावेश रहता है जिससे उपन्यास पूर्णत: सत्य और प्रामाणिक नहीं माने जाते हैं।

जीवन से जुड़ी सबसे सत्य और प्रामाणिक विधा आत्मकथा को माना जाता है। मेरी आत्मकथा 2011 में शिकंजे का दर्द प्रकाशित हुई। तब से मैंने यह महसूस किया है कि आत्मकथा ही साहित्य की वह विधा है जिसके माध्यम से किसी जाति-वर्ग-समाज का सम्पूर्ण सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, नैतिक, राजनीतिक परिचय प्रामाणिकता के साथ मिल सकता है। सामाजिक-शोधकर्ता और अनुसंधानकर्ता भी साहित्य की अन्य विधा की अपेक्षा आत्मकथाओं का अध्ययन आवश्यक मानते हैं। इस दृष्टि से आत्मकथा सबसे प्रिय और इस दौर की जरूरी विधा है। आजकल आत्मकथाओं का अध्ययन विशेष रूप से किया जा रहा है। एक दलित आत्मकथा के साथ एक दलित स्त्री की आत्मकथा होने के कारण शिकंजे का दर्द का अध्ययन-अध्यापन और विश्लेषण अखिल भारतीय स्तर पर देशव्यापी रूप में हो रहा है। यह मेरे लिए खुशी की बात है कि इसके माध्यम से दलित समाज, दलित स्त्री और एक स्त्री के जीवन की समस्याओं और उसके साथ होने वाले शोषण और अन्याय को समझा जा रहा है।


दलित वर्ग के भीतर ही मौजूद आंतरिक भेदभाव पर आपका क्या मत है? क्या इससे लड़े बगैर ब्राह्मणवाद से मुकाबला सफल होगा?

सामाजिक विषमता और भेदभाव हमारी समाज व्यवस्था में ही मौजूद हैं। वर्ण और जाति ही हमारे देश में व्यक्ति की पहचान मानी जाती है। यहाँ हर व्यक्ति जाति के नाम पर किसी से छोटा होने की हीनता को महसूस करता है, वहीं वह किसी से उच्च होने का अभिमान भी मानता है। यही कारण है कि हीनता से ग्रस्त लोग अपने अभिमान या गौरव को भी ढूँढ़ते रहते है जिससे दलित वर्ग के भीतर भी भेदभाव दिखाई देता है। मेरा उपन्यास नीला आकाश 2013 में प्रकाशित हुआ है। इसमें दलित समुदाय की अलग-अलग जातियाँ किस तरह आपस में भेदभाव मानती हैं, यह समाज का सच इस उपन्यास में सच्चाई के साथ चित्रित हुआ है।

नीला आकाश उपन्यास के माध्यम से समाज को मैंने यह सन्देश दिया है कि आपसी भेदभाव छोड़कर एकता जरूरी है तभी हमारा दलित, शोषित, पीड़ित समाज सशक्त होकर अन्यायी वर्ग का सामना कर सकेगा। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर का संदेश- शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो, यह मैंने अपने सम्पूर्ण साहित्य के माध्यम से समाज तक पहुँचाने का प्रयत्न किया है। इसके साथ अंतर्जातीय विवाह की आवश्यकता सामाजिक एकता के लिए जरूरी है। यह संदेश भी मेरी कहानियों और उपन्यासों में मौजूद है। ब्राह्मणवाद का मुकाबला करने के लिए दलित वर्ग में सामाजिक एकता और भाईचारा जरूरी है। तुम्हें बदलना ही होगा उपन्यास में दलित पात्रों के विवाह सवर्णों के साथ बताते हुए मैंने भविष्य की यह संभावना भी बताई है। वह लड़की उपन्यास में भी यही संदेश है कि भविष्य में दलित और सवर्ण समाज बराबर होंगे। वर्तमान में युवा पीढ़ी उच्च शिक्षा लेकर इस क्षेत्र में आगे बढ़ रही है। समाज को जागरूक बनाकर सभी भेदभाव मिटाए जाने चाहिए।


2011 में आपकी आत्मकथा आई। इस बीच आठ वर्ष गुजर गए। क्या समाज में अपेक्षित बदलाव आया? अगर हाँ, तो कैसा?

कुछ लोगों ने मुझसे यह आग्रह किया है कि मैं अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग भी लिखूँ। उनका तात्पर्य यही है कि शिकंजे का दर्दके समय के बाद की बातों की भी अभिव्यक्ति होनी चाहिए। मेरा भी यही विचार है। शिकंजे का दर्द में 2009 तक के समय की बातें ही आई हैं। इसके बाद प्रकाशन प्रक्रिया में 2 वर्ष लगे थे। बहुत कुछ बदला है, हम कह सकते हैं लेकिन यह बदलाव पूरी तरह से नहीं आया है। यह ऊपरी रूप में ही कहीं-कहीं दिखाई देता है। यथार्थ में सबकुछ यथास्थिति है। मैं मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक कस्बे में जन्मी हूँ। मैं देखती हूँ कि मध्यप्रदेश में अभी भी कुछ नहीं बदला है। अभी भी वैसा ही जातिभेद है, अछूतों की बस्ती गाँव के बाहर और शहरों में अलग मोहल्ले के रूप में हैं। यही स्थिति महाराष्ट्र में भी है। राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, सभी जगह ऐसी ही स्थिति है। उच्च शिक्षित या उच्च अधिकारी को भी सवर्ण अपने बराबर नहीं मानते। दलित शोषण अभी भी वैसे ही हो रहा है। दलितों में शिक्षा की कमी अभी भी है। महिलाएँ घर-परिवार और समाज में अभी भी उसी तरह शोषित और पीड़ित हैं। फिर क्या बदला है?

मैंने स्वयं महसूस किया है, एक प्राध्यापिका और लेखिका के रूप में सवर्ण समाज में सम्मान दिया जाता है, मगर बराबरी का वह दर्जा नहीं मिलता। केवल सहानुभूति की अनुभूति होती है, ‘सम्मान की नहीं। सवर्ण हमें घर बुलाकर खिलाने-पिलाने में हर्ज नहीं मानते मगर वे यह भी जताना नहीं भूलते कि देखो हम आपसे जातिभेद नहीं मानते हैं। तब ज्यादा अपमान और दु:ख महसूस होता है। अपने पैतृक व्यवसाय से जुड़े दलित अछूत अभी भी उपेक्षा, अपमान और नफरत के योग्य ही माने जाते हैं।


जनसामान्य का कहना है कि अब जात-पात कुछ नहीं होती है। भेदभाव समाप्त हो गया। आप क्या कहती हैं?

दलित जनसामान्य यह बात नहीं कहते, सवर्ण उच्च वर्ण के लोग ही समाज में यह वहम फैलाते हैं कि उच्च समाज में जात-पात नहीं है, भेदभाव समाप्त हो गया है। जाति और वर्ण के कठघरे तो अभी भी बने हुए हैं। शादी-विवाह जैसे रिश्ते अभी भी अपनी ही जाति में किए जाते हैं। अभी भी लोग गोत्र-सरनेम का पता लगाकर तुरंत जाति पहचान लेते हैं। यह जाति का भेदभाव अभी भी मन से गया नहीं है। फिर कैसे कह सकते है कि जातिभेद समाप्त हो गया है?

हाँ, यह कह सकते है कि वर्तमान पीढ़ी के सवर्णों के पूर्वज, जितनी छुआछूत और भेदभाव के साथ दलितों का अपमान तिरस्कार करते थे, वैसा व्यवहार आज के शिक्षित और समय के साथ चलने वाले सवर्ण नहीं करते हैं। पहले जहाँ अछूतों की छाया को भी अपवित्र माना जाता था अब वैसा नहीं है। अच्छी शिक्षा, नौकरी और अच्छे रहन-सहन वालों से ही सवर्ण भाईचारा दिखाते हैं। उनके घर में सफाई का काम करने वालों को बराबरी से अभी भी नहीं बैठने देते हैं। जातिभेद न मानने वालों की संख्या बहुत कम हैं। कुछ लोग सिर्फ दिखाने के लिए भी बाहरी रूप से समतावादी व्यवहार करते हैं। सवर्ण और दलितों में भेदभाव सामाजिक और मानसिक रूप से अभी भी मौजूद है। दलितों में भी यह भेदभाव अभी भी मौजूद है। वाल्मीकि और चमार जाति के बीच विवाह सम्बन्ध नहीं किए जाते। कोई इक्का-दुक्का ही प्रगतिवादी बनकर ऐसा कदम उठाते हैं जिसका अंजाम उस विवाहित जोड़े को कई वर्ष तक झेलना पड़ता है। निष्कर्ष रूप में मैं यही कहूँगी कि यथार्थ में अभी समाज से जात-पात का भेदभाव गया नहीं है। अभी भी दलित शोषण और अपमान का जीवन जी रहे हैं। दलितों पर अन्याय की घटनाएँ समाज में आज भी घटित होती रहती हैं।


दलित वर्ग की सामाजिक संस्थाओं, दलित एक्टिविस्टों और लेखकों के राजनीतिक मोर्चों की कार्य प्रणाली पर आपकी टिप्पणी?

दलित वर्ग की सामाजिक संस्थाएँ और दलित कार्यकर्ता अपने जाति समुदाय की प्रगति के लिए लगातार प्रयत्न कर रहे हैं। दलित लेखक भी दलित समुदायों की जागरूकता और उन्नति के लिए अपना लेखन कार्य करके समाज तक पहुँचा रहे हैं। अपने समाज की भलाई और उन्नति करना ही व्यक्ति का कर्तव्य है। लेकिन यही व्यक्ति जब राजनीतिक मोर्चों से जुड़ जाते हैं तब उनकी सामाजिक भलाई की चेतना में फर्क आ जाता है। राजनीति में इतने दाँव-पेच, गुटबाजी, दल-बदल की बातें रहती हैं कि राजनीति में जाने के बाद व्यक्ति समाज की उन्नति को प्राथमिकता नहीं दे पाता बल्कि अपनी कुर्सी बचाने के चक्कर में ही प्रयत्नशील रहता है।

यद्यपि यह भी सत्य है जो डॉ. अम्बेडकर जी ने कहा है कि सत्ता की ताकत से दलितों की स्थिति में बदलाव जल्दी किया जा सकता है। लेकिन यह करना आसान भी नहीं है। सत्तारूढ़ पार्टी की ताकत भी अपना काम करती है। यदि दलितों की पार्टी पूरी तरह सत्ता में आती है तब वह जरूर अपनी सत्ता की ताकत का उपयोग दलितों के विकास और अधिकारों की रक्षा में कर सकती हैं अन्यथा सत्ता के हाथ में मोहरे बनकर रह जाना भी नियति बन जाती है। दलित संस्थाओं, दलित कार्यकर्ताओं और लेखकों का राजनीतिक मोर्चे के साथ चलना कभी-कभी कठिन हो जाता है। दलित-साहित्य दलित-आंदोलन का ही एक भाग है। दलित आंदोलन दलित जागृति के लिए हो रहे हैं। यह अच्छी बात है लेकिन इसके साथ अपने दलित समाज के प्रति निष्ठा और ईमानदारी होना भी जरूरी है तभी वह अपने दलित समुदाय को लाभ पहुँचा सकेंगे।


दलित साहित्य का भविष्य इस विषय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी?

हिन्दी दलित साहित्य 1980 के दशक से ही लिखा जा रहा है। वर्तमान में 2020 तक देखें तो दलित साहित्य बड़ी मात्रा में और लगभग सभी विधाओं में प्रकाशित हुआ है। यद्यपि अभी तक दलित महिला साहित्यकारों की संख्या बहुत कम है फिर भी महिला साहित्यकारों द्वारा लिखा साहित्य अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। हम कह सकते है कि महिला लेखन से ही समाज में स्त्रीवादी स्वर को पहचान मिली है जो आज की महत्त्वपूर्ण बात है। आजकल विश्व स्तर पर साहित्य में स्त्रीवादी स्वर की खोज करके, उसके माध्यम से समाज में स्त्रियों की स्थिति, समस्याओं और उनके भविष्य के विषय में निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं।

दलित स्त्री और दलित पुरुषों द्वारा लिखी गई आत्मकथाओं ने भी साहित्य के क्षेत्र में बहुत हलचल मचाई है जिनमें ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की जूठन, मोहनदास नैमिशराय जी की अपने अपने पिंजरे, श्यौराज सिंह बेचैन की मेरा बचपन मेरे कंधों पर, कौसल्या बैसंत्री की दोहरा अभिशाप आदि हैं। कावेरी जी, रजनी तिलक, अनीता भारती की आत्मकथाएँ भी छपी हैं। दलित साहित्यकारों द्वारा लिखे साहित्य को भी गंभीरता से पढ़ा और देखा जा रहा है। दलित साहित्य अब हिन्दी पाठ्यक्रमों में भी अनिवार्य रूप से पढ़ाया जा रहा है। अनेक शोधार्थी और अनुसंधानकर्ता दलित साहित्य पर लगातार शोध कार्य कर रहे हैं। इन सबको देखते हुए कह सकते हैं कि दलित साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है।

दलितों की सांस्कृतिक विरासत पर आपने आत्मकथा में लिखा है, जिसकी जरूरत भी थी। आपकी आत्मकथा में आक्रोश के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं पर भी पर्याप्त वर्णन है? ऐसा क्यों?


जी, मेरा जन्म 1954 में मध्यप्रदेश के एक छोटे गाँव में हुआ था। तब वहाँ हिन्दूवाद-मनुवाद का सर्वत्र वातावरण था। अछूतों की स्थिति वहाँ कैसी थी, मैंने अपने बचपन के संदर्भ में शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक दृष्टिकोण को बताया है। स्कूल-कॉलेज में शिक्षा प्राप्ति के समय मैंने उन स्थितियों का सामना किया था। उन दिनों बदलाव-परिवर्तन की बातें वहाँ नहीं थी। हिन्दू रीति परम्पराओं के अनुसार हिन्दू त्योहार मनाए जाते थे। रक्षाबंधन, होली, दीपावली, कृष्णजन्म आदि का अनुकरण हम भी करते थे। रामायण और महाभारत की कथाएँ व्याप्त थीं। समाज-संस्कृति की परम्पराओं को जिन्हें बचपन से देखा था उनका उल्लेख मैंने किया है। लेकिन बाद में अपनी सही स्थिति को समझने पर उनके प्रति आक्रोश का भाव है कि क्यों हम वैसा अंधानुकरण करते रहे। 1974 में नागपुर महाराष्ट्र आने के बाद मैंने अंबेडकरवाद को समझ कर मैंने हिन्दूवादी परम्पराओं का विरोध किया है साथ ही दलितों की मूल संस्कृति का अनुकरण करने की बात कही है।

दलित-अछूत अपनी सांस्कृतिक विरासत को नहीं जानते, इसलिए हिन्दूवादी प्रपंचों में फँसाए जाते हैं। अपनी सांस्कृतिक विरासत को समझकर ही हम ब्राह्मणवाद का विरोध करके अपने अधिकार पा सकेंगे। जिन दलित जातियों में अंबेडकरवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार हो गया है, वे जाग्रत होकर अपनी संस्कृति को समझ रही हैं। वे अपनी भूली संस्कृति को पहचाने यह प्रयत्न मैं कर रही हूँ।


स्त्री चेतना आपके लेखन का मुख्य स्वर है। आपके आसपास आज का स्त्री समाज कैसा है? खासकर दलित स्त्रीवाद पर कोई टिप्पणी?

स्त्री चेतना का मुख्य स्वर मेरे साहित्य में है। मैं 1980 से ही दलित स्त्री मुक्ति आंदोलन से जुड़ी हूँ। स्त्री शोषण की अनेक घटनाएँ मैंने सुनी हैं, देखी हैं और स्वयं भोगी भी है। इसके विरुद्ध विरोध, आक्रोश और विद्रोह होना स्वाभाविक है। मैंने यह भी देखा है कि जो स्त्रियाँ बचपन से ही सहन करना और चुप रहना जैसे संस्कारों के साथ बड़ी होती है, अबला नारी की मानसिकता के कारण सरलता से शोषण का शिकार बनाई जाती हैं। घर-परिवार में भी और समाज में भी वह अन्याय-अत्याचार की शिकार बनती हैं। यदि बचपन से ही लड़कियों को सबल, साहसी, मुखर, उग्र और विद्रोही रूप में विकसित किया जाए तो उनका शोषण करना आसान नहीं होता है।

हमारे भारतीय समाज में स्त्रियों के आदर्श रूप के मानदंड अभी भी यही हैं कि वह त्याग, तपस्या, उत्सर्ग के नाम पर अपना जीवन, अपनी खुशियाँ लुटाती रहें। अपने कर्तव्य निभाती रहें, कभी अपने सुख और अधिकारों की बात न सोचे। यदि कोई स्त्री अपने लिए समानता और स्वतन्त्रता की बात करती है तो उसे अच्छा नहीं कहा जाता। इस तरह अभी भी स्त्रियाँ उसी पुराने साँचे में ढाली जा रही हैं। मूक और अबला नारी कभी माँ के गर्भ में, कभी पिता के घर, कभी ससुराल में, कभी समाज में बेकसूर होकर भी दण्ड और कभी मृत्युदण्ड पा रही है। मेरे आसपास का स्त्री समाज भी अधिकतर ऐसा ही है। उच्च शिक्षित और स्वावलंबी स्त्रियाँ भी शोषित पीड़ित का जीवन जी रही हैं। आश्चर्य है कि ऐसी स्त्रियाँ भी अपने उत्पीड़न को समझ नहीं पाती हैं। वे अपने कर्तव्य और सद्गुण के नाम पर सहती रहती हैं। इस तरह दलित स्त्रियों की स्थिति सबसे दुखदायी है, वे स्त्री के नाम पर दलित होने के कारण और अपनी अभावग्रस्त स्थिति के कारण तिहरा संताप भोगती हैं। दलित पुरुष भी मनुवादी मानसिकता से ग्रस्त होकर अपने परिवार की स्त्रियों पर अन्याय और अत्याचार करते हैं और स्त्रियाँ चुप रहकर सहन करती हैं।


गाँधी, अम्बेडकर और गौतम बुद्ध; तीनों का आपके जीवन पर एक-एक प्रभाव बता सकें, तो अच्छा होगा।

विवाह के पहले तक का मेरा जीवन मध्यप्रदेश के छोटे गाँव में गाँधीवादी विचारधारा के वातावरण में ही बीता था। प्राइमरी और मिडिल स्कूल तक की कक्षाओं में पढ़ते समय मुझे सुशीला हरिजन कहा जाता था। छठी-सातवीं कक्षा में तीन सुशीला थी; सुशीला जैन, सुशीला रघुवंशी और एक मैं। तब उन्हें तो सुशीला ही कहा जाता था मगर मुझे सुशीला हरिजन कहकर शिक्षक और विद्यार्थी संबोधित करते थे। स्वयं को हरिजन कहने पर मुझे अपनी जाति का स्पष्ट बोध होता था तब मन दुखी हो जाता था। मैंने एक लेख लिखा है- एक अछूत विद्यार्थी की गाँधी जी को चिट्ठी। यह लेख कई जगह प्रकाशित हुआ है। मेरी पुस्तक हासिए का विमर्श में भी यह संकलित है। इसमें मैंने गाँधीजी और उनकी विचारधारा का विश्लेषण अपनी दृष्टि से किया है। गाँधीजी का एक स्पष्ट प्रभाव यह रहा कि मैं अपने सामान्य जीवन में विद्रोही नहीं बन पाई। विवाह के बाद नागपुर आने के बाद अंबेडकरवादी विचारधारा से जुड़कर ही मैंने विरोध, आक्रोश और विद्रोह की शक्ति को पहचाना। यही मेरे जीवन में डॉ. अम्बेडकर और उनकी विचारधारा का प्रभाव है कि मैं यह समझ सकी कि हम कौन हैं? हम निरीह प्राणी नहीं बल्कि समता, स्वतन्त्रता और सम्मान के अधिकारी हैं। तभी मैंने यह समझा था कि स्त्री पुरुष की दासी नहीं बल्कि बराबर के सम्मान की अधिकारी है- तभी से मैंने दलित चेतना और स्त्री चेतना के साथ अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना सीखा। मेरी आत्मकथा में इसका उल्लेख है। इसी विरोध और विद्रोह को व्यक्त करने के लिए दलित साहित्य लिखना शुरू किया था। अब यह मेरे जीवन का उद्देश्य बन गया है।

तथागत गौतम बुद्ध के प्रभाव को स्वीकारने की बात वहीं से शुरू होती है जहाँ से मैं बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर से प्रभावित हुई हूँ। बुद्ध का संदेश-’अप्प दीपो भव’- अपना दीपक आप स्वयं बनो हम सब के जीवन के उत्थान का संदेश है। मैं अपने जीवन में स्वयं संघर्ष करते हुए आगे बढ़ती रही हूँ।


क्या आत्मकथा का अगला भाग लिखकर आप समाज की बदलती हुई स्थितियों पर पाठकों को कुछ कहने की योजना बनाना चाहती हैं?

आत्मकथा शिकंजे का दर्द का दूसरा भाग जरूर लिखा जाना चाहिए। कुछ लोगों का बहुत आग्रह है। कई बार फोन भी आते है कि मैं आत्मकथा का अगला भाग लिखना कब शुरू कर रही हूँ। मैं भी चाहती हूँ कि बहुत सी बातें है, बहुत से प्रश्न हैं; मुझे उनके विषय में बात करनी चाहिए। जैसा कि आपका प्रश्न है, कई लोग मेरी कलम से यह भी जानना चाहते है कि शिकंजे का दर्द के बाद की बदली हुई स्थितियों की सच्चाई क्या है? वे अब कितनी बदल चुकी हैं। जात-पात को खत्म करके सामाजिक समता कहाँ तक आ गई है? वे इसी दृष्टि से इस बात को जानना चाहते हैं। इसलिए मैं भी चाहती हूँ कि मैं फिर से शिकंजे के विषय में आगे की बातें लिखूँ।

यहाँ दो बातें स्पष्ट हैं- समाज की बदलती हुई स्थितियाँ और दूसरा पाठक वर्ग। समाज की बदलती हुई स्थितियों को कौन किस नजर से देखता है- यह एक बात या एक स्थिति नहीं है बल्कि सबके अपने-अपने चश्में हैं। अब पाठकों की बात ही लीजिए- कौन पाठक? किस वर्ग के पाठक; दलित या गैर-दलित? वे भी अपने अनुभवों से, अपनी नजर से देखते हैं। मैं जो भी कहूँगी सच-सच ही कहूँगी। बस उस समय का इंतजार है कि मैं आत्मकथा का अगला भाग लिखूँ। समय पर न लिख पाने की और अधिक न लिख पाने के मेरे साथ अनेक कारण है। मुझे वह सुविधा कभी मिली ही नहीं कि मैं फुल टाईम लेखिका बनकर अपना साहित्य अधिक और उत्तम रूप में लिखूँ। घर, गृहस्थी और परिवार की जिम्मेदारी अभी भी चल रही है। घर भी ऐसा नहीं कि जहाँ अपना एक कमरा हो, जहाँ निश्चिंत होकर लिखा जा सके। मेरा एक लेख है- अपने कमरे की बात’, यह ‘स्त्रीकाल’ पत्रिका में छपा था। उसमें मेरी मनोव्यथा है, यह अनेक पाठकों तक पहुँची है। आप भी याद दिलाते रहें, आत्मकथा का अगला भाग जरूर आएगा।

धन्यवाद। 

डॉ. सुशीला टाकभौरे, ख्यात दलित साहित्यकार, नागपुर (महाराष्ट्र), सम्पर्क : 9422548822 

डॉ. माणिक, संस्कृतिकर्मी, कंचन-मोहन हाऊस, 1, उदय विहारमहेशपुरम रोड़, चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान, सम्पर्क : 9460711896, manik@spicmacay.com

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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