शोध आलेख : मिथकीय चेतना और कुँवर नारायण का काव्य / कुमार सौरभ और डॉ. अनुशब्द

                  शोध आलेख : मिथकीय चेतना और कुँवर नारायण का काव्य / कुमार सौरभ और डॉ. अनुशब्द 

शोध सार :

            कुँवर नारायण आधुनिक हिंदी-कविता की चिंतनशील परंपरा के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं उनकी कविताएँ चिंतन-मनन के लिए व्यापक सन्दर्भों का पता देती हैं कुँवर नारायण की कविताओं में मिथक का महत्वपूर्ण स्थान है समकालीन सन्दर्भों और सवालों को मिथक के द्वारा इतनी सहजता और प्रभावकारी ढंग से व्यक्त कर पाना उनकी सिद्धहस्त लेखनी का प्रमाण है इन कविताओं में मिथक को अनुभव के साथ एकाकार होते हम पाते हैं इस मिथकीय प्रयोग में कहीं भी दार्शनिकता, अनुभव पर हावी नहीं हुई हैचक्रव्यूह, ‘आत्मजयी औरवाजश्रवा के बहाने मिथकीय प्रयोग की दृष्टि से उनकी महत्वपूर्ण काव्यकृतियां हैं इसके अलावा कई मुक्तक कविताओं में भी उन्होंने मिथक को अपने काव्य-विषय का आधार बनाया है 

बीज शब्द : मिथक, दार्शनिकता, चेतना, सार्थकता, बाज़ारवाद, प्रतिस्पर्धा, अन्तश्चेतना, युगबोध, आधुनिक, प्रतिबद्ध, स्मृति, मुक्तक 

मूल आलेख :

हिंदी साहित्य में मिथक शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया है उन्होंने मिथक-मीमांसा को विस्तार से प्रस्तुत किया है द्विवेदी जी के शब्दों में, “मिथक शब्द वास्तव में भाषा का पूरक है सारी भाषा इसके बल पर खड़ी है आदिमानव के चित्त में संचित अनेक अनुभूतियाँ मिथक के रूप में प्रकट होने के लिए व्याकुल रहती हैं मिथक वस्तुतः उस सामूहिक मानव की भावनिर्मात्री शक्ति है जिसे कुछ मनोविज्ञानी आर्किताईपल इमेज (आद्यबिम्ब) कहकर संतोष कर लेते हैं।1

किसी भी देश के लोक की मनःस्थिति के निर्माण में मिथक का महत्वपूर्ण स्थान है यह तयशुदा तथ्य है कि मिथक, इतिहास नहीं है, ही उसे तर्क से साबित किया जा सकता है परन्तु देश की सांस्कृतिक विकास-यात्रा को कई बार इतिहास से भी ज़्यादा सच्चाई से ये मिथक व्यक्त कर जाते हैं भारत के इतिहास और मिथकों के सन्दर्भ में बात करते हुए हिंदी साहित्य के विद्वान विचारक शंभूनाथ लिखते हैं - “साहित्यिक मिथकों और सांस्कृतिक संकेतों को बाहर रख कर भारत के इतिहास को ठीक से समझा नहीं जा सकता2

 आधुनिक कविता के विकास-क्रम में कुँवर नारायण एक ऐसे कवि के रूप में हमारे सामने अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, जिन्होंने मिथकों का समकालीन सन्दर्भों में बेहतरीन प्रयोग किया हैआत्मजयी और वाजश्रवा के बहाने दोनों ही रचनाएँ मिथकीय प्रयोग की दृष्टि से कुँवर नारायण के काव्य का शीर्ष हैं दोनों ही खंडकाव्यों में कवि ने मिथकीय घटनाओं को आधार बनाकर हमारे समय के प्रश्नों को स्वर दिया है इन दोनों खंडकाव्यों के अलावा कई कविताओं में भी वे पुराण, रामायण आदि से संबंधित मिथकों का प्रयोग करते नज़र आते हैं अपनी कविताओं में मिथकीय प्रयोग के सन्दर्भ में कुँवर नारायण लिखते हैं किकई बार लगता है यथार्थ से अधिक हमारे यहाँ मिथक जीवित हैं! और वे भावभूमि को ही नहीं, यथार्थ जीवन को प्रभावित करते हैं - कभी अच्छे के लिए, कभी बुरे के लिए यह एक चैलेंज है कि मिथक जो जीवित हैं, उनका इस्तेमाल कैसे करें इस्तेमाल में चुनौती और ख़तरा भी है...3

            इस्तेमाल की इस चुनौती को कुँवर नारायण स्वीकार करते हैं और इन मिथकों के सहारे अपने रचना संसार को बहुआयामी विस्तार देते हैं ध्यातव्य है कि मिथक केवल हमारी स्मृति का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि वर्तमान में भी कई मिथक प्रतीक रूप में हमारी चेतना में सक्रिय हैं, इसलिए जब बात मिथकों के जरिए कही जाती है, तो उसका प्रभाव व्यापक स्तर पर पड़ता है यक़ीनन कुँवर नारायण इस सत्य से अनजान नहीं रहे होंगे चक्रव्यूह के माध्यम से कविता की दुनिया में कुँवर नारायण प्रवेश करते हैं दार्शनिक प्रतीतियों को जिस प्रकार इस काव्य-ग्रंथ में उठाया गया है, वह कविता की दुनिया में एक अलग मिज़ाज की शख्सियत से हमारा परिचय कराता है बाद के काव्य-ग्रंथों में यह प्रतिभा और भी निखरकर सामने आती है कुँवर नारायण को मिथक, चिंतन-मनन के लिए एक विस्तृत आधार देता है, इसलिए इस भूमि का उपयोग करते हुए वे अपनी मननशीलता को व्यापक सन्दर्भ देते हैं अगर कुँवर नारायण महाभारत के अभिमन्यु को अपनी कविता के पात्र के रूप में चुनते हैं, तो उसकी एक महत्वपूर्ण वजह यह है कि अभिमन्यु कई मायनों में आधुनिक मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है इस महाजीवन के समर में अंत तक युद्ध लड़ना आधुनिक मनुष्य की भी नियति है, और अभिमन्यु की भी-

             मैं नवागत वह अजित अभिमन्यु हूँ

             प्रारब्ध जिसका गर्भ ही से हो चुका निश्चित,

             अपरिचित ज़िन्दगी के व्यूह में फेंका हुआ उन्माद,

             बाँधी पंक्तियों को तोड़

             क्रमशः लक्ष्य तक बढ़ता हुआ जयनाद : 4

यह युद्ध अभिमन्यु द्वारा ठाना हुआ युद्ध नहीं है यह पैत्रिक युद्ध है, इसलिए आघात सहने के लिए अभिमन्यु विवश है कुँवर नारायण महाभारत की कथा के माध्यम से आधुनिक जीवन-सन्दर्भों को उठाते हैं मानव-विवेक में उनकी दृढ़ आस्था है वे मनुष्य को असीमित संभावनाओं से युक्त मानते हैं मानवीय सत्ता में उनका दृढ़ विश्वास है इसी विश्वास से अनुप्राणित होकर वे लिखते हैं- उपजने दो खुली, संतुष्ट, रस जलवायु में/ क्योंकि विकसित व्यक्ति ही वह देवता है/ इतर मानव जिसे केवल पूजता है ; /आँक लेगा वह पनप कर/ विश्व का विस्तार अपनी अस्मिता में.../ सिर्फ उसकी बुद्धि को हर दासता से मुक्त रहने दो 5

जब हम कुँवर नारायण की कविताओं में मिथकीय चेतना पर विचार करते हैं, तो एक बात ध्यान देने योग्य है कि कुँवर नारायण ने यद्यपि राम के मिथक पर भी कविताएँ लिखीं हैं, परन्तु उनका मन उपनिषदों और वेदों की दार्शनिक परंपरा में ज़्यादा रमा है इसका एक प्रधान कारण यह भी है कि धर्म के क्षेत्र में प्रायः आस्था से काम लिया जाता रहा है, परन्तु दर्शन वह क्षेत्र है, जहाँ तर्क का प्राधान्य है संभवतः इसलिए यह क्षेत्र कुँवर नारायण को अधिक आकर्षित करता है तर्क को महत्त्व देने की वजह से ही कुँवर नारायण आत्मजयी जैसी कृति रचते हैंआत्मजयीमें प्रयुक्त मिथक के माध्यम से कुँवर नारायण ने पुरानी और नयी पीढ़ी के संघर्ष, भौतिक और आत्मिक प्रगति के द्वंद्व को अभिव्यक्त किया हैआत्मजयी में जिस समस्या को उठाया गया है, वह आधुनिक मनुष्य के जीवन से गहरे अर्थों में जुड़ा है कुँवर नारायण ने आत्मजयी की भूमिका में स्वयं भी इस बात को स्वीकारा है किइसलिए मैंने आत्मजयी के धार्मिक या दार्शनिक पक्ष की विशेष चिन्ता करके उन मानवीय अनुभवों पर अधिक दबाव डाला है जिनसे आज का मनुष्य भी गुज़र रहा है, और जिनका नचिकेता मुझे एक महत्वपूर्ण प्रतीक लगा6

            मिथकों में कुँवर नारायण आज के मनुष्य को देखते हैं, उसके जीवन को देखते हैं, और उस जीवन को सार्थक बनाने की युक्ति भी देखते हैं नचिकेता अपने पिता को भविष्य का अधिकारी नहीं मानता क्योंकि वाजश्रवा अपने सुख के आगे नहीं सोच पा रहा है ध्यातव्य है किनचिकेता के लिए केवल सुखी जीना काफ़ी नहीं, सार्थक जीना ज़रूरी है7 इसी सार्थकता की तलाश का उपक्रम है आत्मजयीआत्मजयी का नचिकेता एक ऐसे युवक के रूप में हमारे सामने उपस्थित होता है, जिसके लिए सत्य की खोज ऐंद्रिय सुखों की लालसा से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उसके सवाल पिता की मान्यताओं को चुनौति देते हैं - यही कारण है कि वह पिता की दृष्टि में विद्रोही बन जाता हैआत्मजयी को पढ़ते हुए हम पाते हैं कि कठोपनिषद की यह कथा हमारे समक्ष इस तरह से प्रस्तुत की गयी है, जिससे चिंतन के लिए एक विस्तृत धरातल हमें मिलता हैआत्मजयी के विषय में सुस्मित सौरभ अपनी पुस्तक मिथक और कुँवर नारायण में लिखते हैं- “कवि ने आत्मजयी में मिथक योजना द्वारा एक ओर जहाँ परंपरा और युग सापेक्ष दृष्टि के प्रति अपनी सजगता का परिचय दिया है वहीं वर्तमान के प्रति आस्था, विश्वास एवं कर्मण्यता का संचार के द्वारा भविष्योज्वल की नवीन कल्पना की है8 कितनी अजीब विडंबना है कि मृत्यु के दरवाजे पर खड़ा नचिकेता जीवन की सार्थकता को तलाशने के लिए प्रतिबद्ध है वह उन अमर जीवन-मूल्यों को तलाश रहा है जिसे प्राप्त कर जीवन से भी बड़ा और चिरस्थायी हुआ जा सके भौतिक और शारीरिक इच्छाओं की परिधि को पार कर ही उन अमर जीवन-मूल्यों को पाया जा सकता हैआत्मजयी का कवि इस सत्य के प्रति आश्वस्त है कि मनुष्य का जीवन देह तक सीमित नहीं हो सकता- व्यक्ति दास ही नहीं देह का/ स्वामी भी है/ अनुशासित ही नहीं/ मुक्त अनुशासक भी है इच्छाओं का9 जीवन की व्यापकता को देह की सीमाओं से परे जाकर ही तलाशा जा सकता है यही कारण है कि नचिकेता के लिए दैहिक-दैनिक स्तर पर जीवन जीते रहना असंभव हो गया था, और यह भौतिक जगत उसे अपर्याप्त लगने लगा

आत्मजयी मिथकीय कथा तो है परन्तु उसका मूल्यांकन करते हुए हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि उसका मूल वह आत्मबल है, जो असहमति का साहस देता है अपने पिता की मान्यताओं को अस्वीकार करने का जो साहस नचिकेता ने दिखाया है, वह उसके चेतना संपन्न व्यक्तित्व का परिचायक है पिता-पुत्र के संवाद में नचिकेता का तर्क मानवीय जीवन को व्यापक फ़लक देने वाला है नचिकेता ग़लत शर्तों पर जीना अस्वीकार करता है वह जीवन-शैली जिसमें ग़लत को भी अपने क्षणिक लाभ के लिए आचरण का हिस्सा बना लिया जाए, नचिकेता को बर्दाश्त नहीं है, क्योंकि वह जानता है कि ग़लत जीने से/ सही बातें ग़लत हो जाती हैं-/ सच्चाइयाँ झूठ लगतीं/ अच्छाइयाँ गुनाह/ धर्म पाप हो जाता/ ईश्वर आततायी/ प्यार रोग बन जाता लोग भयावह...10 नचिकेता की साहसिकता, मनुष्य की वह अमूल्य थाती है जिसपर मनुष्य के भविष्य का आकार निर्भर करता है नचिकेता द्वारा हिंसात्मक मनोवृत्तियों और धार्मिक आडम्बरों का किया गया विरोध उस नये जीवन-बोध का परिचायक है जिसे अपनी धार्मिकता, सहिष्णुता और उदारता को सिद्ध करने के लिए किसी रूढ़ परंपरा के अनुयायी समाज से प्रमाण-पत्र नहीं चाहिएनचिकेता अपने सवालों से स्थापित मान्यताओं को चुनौती देता है, इसलिए समाज की दृष्टि में वह विधर्मी है -

             तुम्हारी दृष्टि में मैं विद्रोही हूँ

             क्योंकि मेरे सवाल तुम्हारी मान्यताओं का उल्लंघन करते हैं

             नया जीवन-बोध संतुष्ट नहीं होता

             ऐसे जवाबों से जिनका सम्बन्ध

             आज से नहीं अतीत से है

             तर्क से नहीं रीति से है11

हर युग में विचारशील व्यक्ति ख़ुद को नचिकेता की मनोदशा में पाता है नचिकेता की समस्या प्रबुद्ध चेतना से संपन्न व्यक्ति की समस्या है हम जिस समय में जी रहे हैं, यह बाज़ारवाद का समय है बाज़ार ने हमारी समझदारी तक को हाईजैक कर लिया है भौतिक लालसाओं की प्राप्ति के लिए हम अपनी पूरी ज़िन्दगी खपा देते हैं नचिकेता इस छीना-झपटी वाली प्रतिस्पर्द्धा में शामिल होने से इंकार करता है शंभूनाथ जी इस विषय में लिखते हैंवह शरीर के लिए शरीर द्वारा जीकर और सिर्फ शरीर का होकर रह जाना नहीं चाहता...कुँवर नारायण ने वैदिक कर्मकांड के सामान ही आधुनिक भौतिकतावादी जीवन की भी आलोचना की और अपने आत्मबोध को उपनिषदकालीन मिथकीय प्रतीकों के जरिए व्यक्त किया12 आत्मजयी को पढ़ते हुए हम कई बार इस सत्य को महसूस करते हैं कि यहाँ नचिकेता कठोपनिषद का पात्र होकर हमारा समकालीन बन गया है मिथकीय ढांचे को आधार बनाकर लिखा गया काव्य अगर हमें समकालीनता का बोध कराने लग जाए, और हम अपने समय के सवालों को उसमें व्यंजित होता पाएँ, तो इसे कवि की सिद्धहस्त लेखनी का प्रमाण ही मानना चाहिएआत्मजयी के विषय में वागीश शुक्ल का मत दृष्टव्य है, “आत्मजयी पिछली आधी सदी के हिंदी साहित्य में सबसे महत्वकांक्षी सर्जनात्मक प्रयासों में से एक है13

मिथकीय प्रयोग की दृष्टि से कुँवर नारायण की एक और महत्वपूर्ण काव्य-कृति है - ‘वाजश्रवा के बहाने इस काव्य-ग्रंथ का उपजीव्य भी कठोपनिषद है आत्मजयी के प्रकाशन के लगभग पाँच दशक बाद वाजश्रवा के बहाने एक ऐसे काव्य-ग्रंथ के रूप में अपने पाठकों के समक्ष उपस्थित होता है जो आत्मजयी से तारतम्यता बनाये हुए है बकौल कवि “‘आत्मजयी में यदि मृत्यु की ओर से जीवन को देखा गया है, तो वाजश्रवा के बहाने में जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की एक कोशिश है14 यह कोशिश पुत्र की वापसी के अमूल्य अवसर से प्रारंभ होती है यह अवसर इसलिए भी अमूल्य है क्योंकि पुत्र को पाकर पिता के हृदय से जो शब्द निकले हैं, वे मूल्यवान हैं वाजश्रवा के मुख से निकले शब्द जीवन के पुनःसृजन का मार्ग दिखाते हैं इस काव्य-कृति में कुँवर नारायण के जीवन-दर्शन की गहरी छाप है मानव-जीवन और उसकी विडम्बनाओं को वाजश्रवा के बहाने में हम सफलता पूर्वक अभिव्यक्त होते हुए देखते हैं दो पीढ़ियों के जीवन-बोध के अंतर को कितनी सरलता से कवि ने व्यक्त किया है-

            अच्छा हुआ तुम लौट आये

             मेरे जीवन में,

             लेकिन जानता हूँ

             नहीं सकोगे

             -चाह कर भी नहीं-

             वापस मेरे युग में !

             नहीं लाँघ पाओगे

             प्रतिपल चौड़ी होती जाती उस खाई को

             जो अलग करती है

             तुम्हारे आज से

             मेरे कल को15

जाहिर है कि वाजश्रवा की जीवन-दृष्टि नचिकेता की जीवन-दृष्टि से मेल नहीं खाती है बावजूद इसके दोनों को समझने के लिए उसकी अंतश्चेतना में झाँकना ज़रूरी है दो पीढ़ियों के अंतर्द्वंद्व को समझने के लिए आत्मजयी औरवाजश्रवा के बहानेको साथ रखकर पढ़ना चाहिए पिता और पुत्र की जीवन-दृष्टि के विषय में ओम निश्चल का मत दृष्टव्य है- “यहाँ पिता और पुत्र के बीच केवल दो पीढ़ियों के बीच के अंतराल का मसला है बल्कि यह दो दृष्टियों के बीच के अंतराल का भी मामला है16 वह वाजश्रवा जोआत्मजयी में पुत्र से “...मृत्यवे त्वा ददामि...17 कहकर कठोर हृदय का परिचय देता है, पुत्र की अनुपस्थिति में उसके महत्त्व को समझ पाता हैअस्तिबोध और वस्तुबोध का जो अंतर है उसे वाजश्रवा अपने पुत्र की अनुपस्थिति के क्षणों में ही जान पाता है

मेरी सबसे प्रिय वस्तु ! भूल हुई

           ‘वस्तु माना अपने सब से प्रिय को

           अपना अभिन्न नहीं

           उस नाज़ुक पल में जाना कि अंतर है

           बहुत बड़ा अन्तर है

           अस्तिबोध और वस्तुबोध में18

नचिकेता जब वापस लौटकर अपने पिता के पास आता है तब पिता उस संवाद को जारी रखने की बात करते हैं, जो बीच में ही छूट गया था इस वक्त पिता के शब्दों में करुणा है और एक स्वाभिमान भी है वह वाजश्रवा जिसने अपना जीवन इच्छाओं से संचालित होकर जिया, जीवन में बुद्धि से ज़्यादा अपनी मर्जी को तवज्जो दी, वह चौरासी साल की अवस्था में भी पुत्र से यह आग्रह करता है कि मुझसे बराबर की मैत्री का संबंध रखो यह वाजश्रवा की अंतश्चेतना का वह पक्ष है जो आत्मजयी में वर्णित उसके व्यक्तित्व के विपरीत प्रतीत होता है दरअसल किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझने के लिए उसकी चेतना के परतों को कुरेदना पड़ता है कुँवर नारायण ने वाजश्रवा के माध्यम से एक पिता की चेतना को कुरेदकर उसके व्यक्तित्व के उस कोमल पक्ष को भी प्रस्तुत किया है जो प्रायः कठोरता के परदे में छिप जाता है वाजश्रवा का स्वाभिमान दरअसल एक पिता का स्वाभिमान है-

            मुझे दया से नफ़रत है

             दे सको तो बराबर की मैत्री दो,

             पर अपनी दया दे कर

             दयनीय मत बनाओ मुझे

             सम्मानित जीवन दो,

             या फिर एक सम्मानित मृत्यु

             मरने दो मुझे...19

आशय यह है कि वह पीढ़ी सम्मान से जीना चाहती है किसी भी सूरत में उसे अपने सम्मान से समझौता बर्दाश्त नहीं कुँवर नारायण बड़े कवि हैं, इसलिए समकालीनता के धरातल पर वे मिथकों को बिल्कुल नये अर्थ सन्दर्भों के साथ पुनर्जीवित करते हैं उनके यहाँ मिथकीय कथा, मिथकों का बयान मात्र बनकर नहीं रहती, बल्कि उसमें कवि का जीवन-बोध और जीवन-विवेक शामिल हो जाता है विनम्रता और बुद्धिमत्ता के प्रति आग्रह का भाव कुँवर नारायण के जीवन में भी है और उनकी कविता में भी-

            कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है

             एक जीवन-दृष्टि-

             की उसमें विनम्र अभिलाषाएँ हों

 बर्बर महत्वकांक्षाएँ नहीं20

दरअसल कुँवर नारायण ने वाजश्रवा के बहाने के द्वारा जीवन-विवेक के बीजारोपण का कार्य किया है साथ ही उपनिषद के रुढ़िग्रस्त पाठ को नकार कर उसे नये अर्थ-सन्दर्भों के साथ प्रस्तुत किया है वाजश्रवा के बहाने के विषय में अवधेश प्रधान लिखते हैं किआधुनिक जीवन के विभिन्न सन्दर्भों को ध्वनित करने वाली कलात्मक अंतर्ध्वनियों के बीच एक सम्यक जीवन-बोध इसकी अपनी लक्षणीय विशिष्टता है21

मिथकीय चरित्रों को कुँवर नारायण ने अपने कई मुक्तक-काव्यों का भी विषय बनाया है ध्यातव्य है कि व्यक्ति की चेतना का निर्माण सिर्फ़ उसका वर्तमान नहीं करता है बल्कि इसमें उसके अतीत का भी योगदान होता है व्यक्ति के मानस के निर्माण में मिथक की भी भूमिका है, कुँवर नारायण इस सत्य से अनजान थे वे यह भी जानते थे कि यदि मिथकों का दुरुपयोग किया गया, तो इसके भीषण परिणाम होंगे अयोध्या का उदाहरण उनके सामने था यही कारण है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद वे अयोध्या 1992’ शीर्षक से एक कविता लिखते हैं, जोकोई दूसरा नहीं में संगृहीत हैराम के नाम का राजनीतिक मंशा से किया जाने वाला प्रयोग कवि को दुःख पहुँचाता है-

            इससे बड़ा क्या हो सकता है

 हमारा दुर्भाग्य

 एक विवादित स्थल में सिमट कर

 रह गया तुम्हारा साम्राज्य                                                                                      

 अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं

 योद्धाओं की लंका है,

 मानस तुम्हारा चरित नहीं

 चुनाव का डंका है!”22

कुँवर नारायण के काव्य में केवल हिन्दू धर्म के मिथकों का प्रयोग हुआ है बल्कि बौद्ध, जैन आदि धर्मों के मिथकों का भी बखूबी प्रयोग मिलता है मिथक का प्रयोग करते हुए कुँवर नारायण किसी धर्म विशेष तक सीमित रहते हैं ही देशकाल तक कुँवर नारायण का युगबोध विभिन्न संस्कृतियों को स्वयं में शामिल करता है इसलिए उनके मिथक भी सिर्फ़ भारतीय संस्कृति से संबंधित होकर दूसरे देशों की संस्कृति से भी संबंधित हैं इस दृष्टिकोण से ट्यूनिशिया का कुआँ उत्कृष्ट उदाहरण है -

            ट्यूनिशिया में एक कुआँ है    

             कहते हैं उसका पानी

             धरती के अंदर ही अंदर

             उस पवित्र कुएँ से जुड़ा हुआ है

             जो मक्का में है

             मैंने तो यह भी सुना है

             कि धरती के अंदर ही अंदर

             हर कुएँ का पानी

             हर कुएँ से जुड़ा है23

कुँवर नारायण मिथक में जीवन-दर्शन को तलाशने वाले कवि हैं जब कवि महाभारत को केंद्र में रखकर वे क्यों हारे जैसी कविता लिखते हैं, तो दुर्योधन के हार के बहाने शाश्वत जीवन-सत्य को भी उद्घाटित कर रहे होते हैं जिस लड़ाई की शुरुआत ही अधर्म से हुई हो उसका परिणाम धर्म से संचालित नहीं हो सकता सवाल उठता है कि दुर्योधन क्यों हारा? क्या कौरवों की सैन्य शक्ति पांडवों से कम थी? बिल्कुल नहीं कुँवर नारायण महाभारत की पूरी घटना को एक भिन्न दृष्टि से देखते हैं कौरव सेना को जिन गुरुओं का आशीर्वचन लेकर युद्ध करना था, उसे ही दुर्योधन ने अपने पक्ष से युद्ध में उतरवा दिया जो धर्म, दुर्योधन को जीवित रख सकता था, उसे उसने भरी सभा में द्रोपदी को अपमानित करते हुए कुचल डाला मृत्यु के मुख पर खड़ा दुर्योधन जब चिल्ला रहा था कि मुझे अधर्म ने मारा, उस वक्त के दृश्य को कृष्ण की निगाह से देखते हुए कुँवर नारायण लिखते हैं-

            उसके बाद तो केवल अधर्म की लड़ाई बची थी :

             धर्म की दुहाई मत दो

              तुमने अपने दुष्कर्म से उसी की हत्या कर दी

              जो आज तुम्हारी रक्षा कर सकता था...24

सारतः यह कहा जा सकता है कि कुँवर नारायण मिथक की यात्रा करते हुए अतीत के उन पृष्ठों को खंगालते हैं, जो हमारी स्मृति में रचे-बसे हैं इन मिथकों के माध्यम से कुँवर नारायण समकालीन जीवन-सन्दर्भों को और कई बार तो शाश्वत-जीवन सन्दर्भों को खोजने की कोशिश करते हैं जिन प्रश्नों को इन कविताओं में उठाया गया है, वे उनके चिंतन-मनन के व्यापक सरोकारों को दर्शाते हैं हमारी सांस्कृतिक विकास-यात्रा के साक्षी इन मिथकों का हमारी चेतना के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान है हमारे अवचेतन में प्रतीक रूप में विद्यमान ये मिथक हमारे रोजमर्रा के जीवन से अविच्छिन्न रूप में संपृक्त हैं इसलिए जब इनके माध्यम से कुँवर जी कोई बात कहते हैं तो उसका गहरा असर होता है 

सन्दर्भ :                                                                                               

1.      हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथमाला, खंड-7, पृ. 85

2.      शंभूनाथ : हिंदू मिथक आधुनिक मन. वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019, पृ. 77

3.       विनोद भरद्वाज(सं.) : तट पर हूँ पर तटस्थ नहीं. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 , पहला संस्करण : 2010, पृ. 22

4.      कुँवर नारायण : चक्रव्यूह, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, संस्करण 2010, पृ. 135

5.       वही, पृ. 130

6.      कुँवर नारायण : आत्मजयी, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली-110032, नौवाँ संस्करण : 2009,

पृ. 11-12

7.      वही, पृ. 5

8.      सुस्मित सौरभ : मिथक और कुँवर नारायण. बोधि प्रकाशन, जयपुर-302006, पृ. 127

9.       कुँवर नारायण : आत्मजयी. भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली-110032, नौवाँ संस्करण : 2009,

 पृ. 93

10.   वही, पृ. 22

11.   वही, पृ. 26

12.   शंभूनाथ, हिंदू मिथक : आधुनिक मन, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2009, पृ. 233

13.   यतीन्द्र मिश्र(सं.) , कुँवर नारायण : उपस्थिति. वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली-110002, पृ. 66

14.   कुँवर नारायण : वाजश्रवा के बहाने, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली-110003, चौथा संस्करण 2017, पृ. 7

15.   वही, पृ. 96

16.  ओम निश्चल(सं.) : कविता की सगुण इकाई : कुँवर नारायण. पृ. 67

17.   कुँवर नारायण : आत्मजयी, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली-110032, नौवाँ संस्करण : 2009,

 पृ. 30

18.   कुँवर नारायण : वाजश्रवा के बहाने, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली-110003, चौथा संस्करण      

 2017, पृ. 109

19.   वही, पृ. 100

20.   वही, पृ. 120

21.   ओम निश्चल(सं.) : अन्विति : साहित्य के परिसर में कुँवर नारायण. राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., पहला संस्करण 2018, पृ. 391

22.   कुँवर नारायण : कोई दूसरा नहीं, राजकमल प्रकाशन, चौथी आवृत्ति : 2011, पृ. 70

23.   कुँवर नारायण : हाशिए का गवाह, मेधा बुक्स, दिल्ली-110032, प्रथम संस्करण 2009, पृ. 32

24.   कुँवर नारायण : सब इतना असमाप्त, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. , पहला संस्करण : 2018, पृ. 61 

कुमार सौरभ, शोधार्थी, हिंदी विभाग, तेजपुर विश्वविद्यालय

saurabhpoet@gmail.com, 7667829089

                                   डॉ. अनुशब्द, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, तेजपुर विश्वविद्यालय

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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