शोध आलेख : महिला पत्रकारिता : महिला केन्द्रित पत्रिकाओं का एक अध्ययन / ज्ञानी कुमारी जाट
शोध सार :
स्वातंत्र्योत्तर भारत में महिलाओं पर केंद्रित पत्रिकाओं की पहल से महिला पत्रकारों ने एक महती दायित्व को अपनाया है। आज की महिला का दायित्वबोध केवल माँ-बच्चे तक सीमित न रहकर, परिवार व समाज की जबाबदेही के रूप में व्यापक स्वरूप ग्रहण कर रहा है। वह नई सदी की तकनीकी व वैज्ञानिक चुनौतियों के बीच बाल, किशोर, युवा, वृद्ध इत्यादि की मानसिकता के साथ जीवनयापन कर रही है। उसके हाथों में आजकल गृहलक्ष्मी, वनिता, मुक्ता, गृहशोभा और मेरी सहेली जैसी अनेक पत्रिकाएँ भी पहुँच रही हैं। प्रस्तुत शोध पत्र में उपर्युक्त महिला केन्द्रित पत्रिकाओं के नवीनतम अंकों के आलोक में इस बात की पड़ताल की गई है कि महिला पत्रकार किस प्रकार अपने दायित्व का निर्वहन कर रही हैं? क्या वे केवल स्त्री की समस्याओं पर केन्द्रित हैं? क्या वे समकालीन ज्वलंत मुद्दों पर भी सार्थक रूप से काम कर रही हैं?
बीज शब्द : पत्रकारिता, आत्म स्वावलंबन, सकारात्मकता, सामाजिक समरसता, शक्तीकरण, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक , भूमण्डलीकरण, बाजारवाद आदि।
मूल शोध :
भारत की आजादी ने राजनीतिक क्षेत्र के साथ ही साथ सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी व्यापक परिवर्तन उपस्थित किए। इससे महिलाओं की दशा में भी कुछ बदलाव देखने को मिले। इस क्रम में महिलाएं पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपनी पहचान स्थापित करने लगीं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में पत्रकारिता के प्रचलित साधनों- रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र, पत्रिका आदि ने महिलाओं के मुद्दों के प्रति जागृति फैलाकर, उन्हें सशक्त बनाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान, रविवार, कादम्बिनी, माधुरी, सरिता इत्यादि पत्रिकाओं ने भी हिन्दी पाठकों के बीच अच्छी पैठ बनाई। धीरे-धीरे बालबोधिनी की परंपरा में महिलाओं पर केंद्रित पत्रिकाओं की पहल हुई। हिन्दी पत्रकारिता के ऐतिहासिक विश्लेषण से भी यह बात साफ होती है कि महिला पत्रकारों ने पिछले दो-तीन दशकों में काफी प्रगति की है। आजकल हिन्दी की ऐसी अनेक पत्रिकाएँ हैं, जो महिलाओं की समस्याओं को समझकर उन पर तार्किक व विश्लेषणात्मक रवैया अपना रही हैं। महिलाओं पर केन्द्रित कई समकालीन पत्रिकाओं ने भी अनेक महिला पत्रकारों को मौका दिया है।
सामान्यतः महिला पत्रकारिता को लेकर यह आम धारणा बन जाती है कि इनमें मुख्य रूप से खान-पान, सौन्दर्य, घरेलू हिंसा, दहेज-प्रताड़ना, बलात्कार, कन्या-भ्रूण हत्या आदि मामलों को ही महत्त्व दिया जाता है और इन सब से अलग महिला विकास के मुद्दों को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता है। लेकिन अनेक महिला संगठन ज्वलंत मुद्दों पर केंद्रित अपनी पत्रिका निकालते हैं। मानुषी, अनसुया, जननी आदि इसी कोटि की पत्रिकाएँ हैं। विशेषकर ‘नब्बे के दशक और उसके बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ी है।’1 आजकल कई प्रकाशन समूह स्त्री को केंद्र में रखकर पत्रिकाओं का प्रकाशन कर रहे हैं। इस क्रम में जागरण समूह की पत्रिका ‘सखी ’ को देखा जा सकता है। यह पत्रिका पिछले दो दशकों से प्रकाशित हो रही है और यह स्त्री समाज को ‘मैं हूँ मेरी पहचान’ के माध्यम से आत्म स्वावलंबन का पाठ पढ़ाने का दावा करती रही है। इस पत्रिका की संपादक प्रगति गुप्ता हैं, जो विनीता कुमारी, गीतांजलि और वंदना अग्रवाल की सहयोग से दायित्व का निर्वहन कर रहीं हैं। अभी हाल ही अंक के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि इस पत्रिका ने सामाजिक सोद्देश्यता के निर्वहन के क्रम में ‘व्यक्तित्व पर 10 प्रतिशत, साहित्य पर 15 प्रतिशत, सेहत पर 10 प्रतिशत, सौन्दर्य पर 20 प्रतिशत, फैशन पर 10 प्रतिशत, रिश्ते पर 5 प्रतिशत, खानपान पर 20 प्रतिशत तथा अन्य विषयों पर 10 प्रतिशत स्थान दिया गया है। ’2 इससे स्पष्ट होता है कि महिला पत्रिका केवल कुछ ही बिन्दुओं के इर्दगिर्द नहीं घूमती है। महिला पत्रिकाओं में महिला पत्रकार अपने दायित्व का निर्वहन स्त्री की समस्याओं के साथ ही साथ अन्य ज्वलंत मुद्दों को अपनाकर कर रही हैं। इस क्रम में यहाँ पर इस वर्ष प्रकाशित कुछ समकालीन महिला पत्रिकाओं, यथा- गृहलक्ष्मी, वनिता, मुक्ता, गृहशोभा और मेरी सहेली का आंकलन व गुणात्मक विश्लेषण किया गया है।
गृहलक्ष्मी पत्रिका डायमंड मैगजीन्स प्राइवेट लिमिटेड के अंतर्गत मुद्रित है और इसकी संपादक सिनेजगत् से जुड़ीं तबस्सुम हैं। यह पत्रिका अपने मुख्य पृष्ठ पर ‘महिलाओं की अपनी पत्रिका’ होने का दावा करती है। इस वर्ष के आरंभिक अंक में कुछ आलेख नवीनता प्रस्तुत करते हैं। कविता देवगन ने कैंसर से लड़ने में मददगार जरूरी बातों पर प्रकाश डाला है। पूनम मेहता ने अपने लेख हम नारियों की व्यथा में कोरोना महामारी पर व्यंग्य किया है। कलात्मक अभिरुचि बढाने की दिशा में जरा हट के लेख में ज्योति सोही चीन में बने भगवान बुद्ध के एक मंदिर और ताइवान में बाँस के इस्तेमाल से बनाई गई अनोखी दीर्घा की जानकारी देती हैं। चयनिका निगम ने वृंदावन के खास मंदिरों के बारे में और सोनल शर्मा ने बच्चों में पर्यावरण के प्रति जागरुक और प्रकृति से प्रेम करने के संबंध में बताती हैं। वे बच्चों की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए खेल-खेल में सिखाने पर बल देती हैं। ज्योति सोही ने आत्मरक्षा के क्षेत्र में जागरूक करने वाली अपर्णा राजावत, गैर-सरकारी संगठन के साथ कार्यरत वंदना सैगल तथा डॉ. नम्रता रूपानी जैसी प्रेरक महिलाओं की उपलब्धियों की चर्चा कर महिलाओं के स्वाभिमान को बढ़ाती हैं। चयनिका निगम ने अपने लेख में मेकअप करने के अलग तरीकों पर चर्चा के साथ-साथ सौन्दर्य प्रसाधनों को घर पर बनाने की प्राकृतिक विधियाँ भी बताती हैं। मोनिका अग्रवाल ने अपने लेख में सौंदर्य प्रतियोगिता के लिए खूबसूरती के साथ ही साथ स्वाभाविक लक्ष्य, सकारात्मकता और स्वयं पर विश्वास रखने की आवश्यकता बताई है।
आधुनिक समाज में पिछले कुछ वर्षों से अस्तित्व से आए लिव-इन-रिलेशनशिप पर चर्चा करते हुए पूनम अरोड़ा ने इसे एक आभासी परिदृश्य माना है। इसमें संबंधों के मायने भी अलग हैं और उन्हें निभाने के तौर-तरीके भी अलग हैं। संसद में इससे संबंधित कानून बनाकार इसे मान्यता भी दी गई है तथा ऐसे संबंधों में विश्वसनीयता बनाए रखना जरूरी है। ज्योति सोही अपने लेख सर्दियों में कुछ इस तरह रखें बुजुर्गों का ख्याल में मौसम के साथ बुजुर्गों को होने वाली परेशानियों और तरीकों पर चर्चा करती हैं। वे ‘रोग प्रतिरोधक क्षमता तथा वायरल संक्रमण के खतरे के प्रति आगाह करती हैं। ’3 ज्योति सोही ने लोगों को जागरुक करने के क्रम में हैंड सैनिटाइजर से होने वाले नुकसान एवं सही चुनाव पर चर्चा करते हुए कहा कि जितना संभव हो साबुन का इस्तेमाल करना ज्यादा उचित होता है। चयनिका निगम अपने लेख मेडिटेशन में नींद नहीं डालेगी खलल में ध्यान का महत्त्व बताती हैं और मोनिका अग्रवाल हीलिंग टच थेरेपी के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि हीलिंग थेरेपी के जरिए शरीर, आत्मा के ऊर्जा प्रवाह को ठीक किया जाता है, जिससे व्यक्ति को शांति मिलती है। सरिता शर्मा ने लुट गए हम तो तेरे प्यार में लेख के माध्यम से यह बताया कि एकतरफा प्यार को पाना कठिन होता है और यह प्यार इंसान को बर्बाद कर देता है या अपने प्यार को पाने के लिए जिद्दी बना देता है। प्यार होना दुनिया का खूबसूरत अहसास है और इसे किसी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता है। इसे समझते-समझाते पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है और यह एक-दूसरे की भावनाओं को समझने का जरिया है। चयनिका निगम ने स्पष्ट किया है कि ‘असल जिंदगी के प्यार में अक्सर हम फिल्मों वाले प्यार से तुलना शुरू कर देते हैं। लेकिन फिल्मी और वास्तविक जीवन के प्यार में काफी अंतर होता है। फिल्मी कहानी तो खत्म हो जाती है, वहीं वास्तविक जीवन की प्रेम कहानी में प्रेम के अलावा भी कई रंग दिखते हैं। ’4 प्राची प्रवीण माहेश्वरी ने भारतीय पौराणिक संदर्भों के माध्यम से प्यार की महत्ता को बताया है। मोनिका अग्रवाल ने अपने लेख के माध्यम से आधुनिक शादीशुदा जीवन में खत्म होते जा रहे रोमांस के कारणों का पता लगाते हुए, उनका हल भी बताया है। वे यौन-संबंध से संबंधित गलतफहमियों को दूर करने के लिए उचित शिक्षा की आवश्यकता पर बल देती हैं। इस रूप में यह पत्रिका समाज में प्रचलित नए अंदाजों को प्रमुखता से विश्लेषित करती हैं। यहाँ खान-पान, स्वास्थ्य, फैशन व सौंदर्य के नवीन बाजारी उत्पादों को आकर्षक बनाकर प्रस्तुत किया गया है। गंभीर और अत्यावश्यक मुद्दों के लिए जगह कम ही दिखाई पड़ती है। ग्रामीण, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक आदि महिलाओं के मुद्दे नदारद नजर आते हैं। यह पत्रिका केवल शहरी महिलाओं के मुद्दों तक केन्द्रित पत्रिका बन कर रह जाती है।
महिलाओं पर केन्द्रित पत्रिका वनिता मलयाली मनोरमा प्रकाशन समूह की दो दशकों से ज्यादा पुरानी पत्रिका है। इस पत्रिका ने महिलाओं के बीच स्वयं को ‘आपकी हमदम आपकी दोस्त‘ के रूप में प्रचारित किया है। इस पत्रिका के माध्यम से रूबी मोहंती, निशा सिन्हा, निष्ठा गांधी आदि आधुनिक सामाजिक जीवन शैली की समालोचना प्रस्तुत में करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने का कार्य कर रहीं हैं। वनिता दो भाषाओं में छपने वाली एक पाक्षिक पत्रिका है। इस वर्ष फरवरी के अंक में कोरोना महामारी के दौरान परिवारों की दिनचर्या में आए बदलाव पर चर्चा के साथ 299
रोचक बातें साझा की गई हैं, जो हर स्त्री के फायदे की बात करती हैं।
आज की स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध को लेकर जागृति के क्रम में ‘‘बॉयफ्रेंड ना होने का कॉम्पलेक्स’ लेख के माध्यम से रूबी ने यह बताया है कि लड़कियों के लिए बॉयफ्रेंड का होना स्टेटस सिंबल बन चुका है। पारस हॉस्पिटल, गुरूग्राम की मनोचिकित्सक डॉ.ज्योति कपूर के अनुसार, ‘‘रिश्ते और परिवार में काफी बदलाव आ रहा है। एक बड़ा बदलाव आज की किशोरी लड़कियों में भी देखा जा सकता है। सोशल मीडिया के माध्यम से वे कई फ्रेंड्स बनाती हैं। वेस्टर्न कल्चर को फॉलो करने और वैसा बनने की भी कोशिश करती हैं। खासतौर पर इस उम्र की लड़कियों के लिए डेटिंग करना, बॉयफ्रेंड का होना सब स्मार्ट होने की कैटेगरी में आता है। जिनके बॉयफ्रेंड नहीं है, वे कूल, मॉडर्न और नार्मल नहीं मानी जातीं। ’’5 इसी प्रकार रश्मि काव अपने लेख में समाज की अड़ियल व भद्दी सोच के बारे में बताती हैं कि अगर कोई भी रिश्ता समाज की नजर में एक बार गलत साबित हो गया, तो उसको सही करने में सदियाँ लग जाती हैं। वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक डॉ. शची माथुर बलहारा सास-बहू के रिश्ते के बारे में बताती हैं कि सास-बहू का रिश्ता बहुत ही नाजुक रिश्ता है और कभी-कभी सास-बहू में शक्ति को लेकर नोक-झोंक भी हो सकती है।
‘क्या सेंटेड सैनिटररी नैपकिन सेफ है’’ लेख में डॉ.एकता बजाज सभी स्त्रियों को एलर्जी व यूटीआई के खतरे के प्रति सावधान करती हैं। इस अंक में शरीर और घर की साज-सज्जा के अतिरिक्त ब्रांडेड प्रोडक्ट्स की आड़ में बिक रही नकली चीजों की धोखाधड़ी से बचने के तरीकों पर भी चर्चा की गई है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण लेख में निशा सिन्हा अलग-अलग डॉक्टरों से बातचीत करके बताती हैं कि किस तरह किशोर वय के बच्चों की संवेदनशीलता को समझा जा सकता है। रूबी आज की लड़कियों के मानस में लड़कों से दोस्ती को लेकर पलते सोच पर विचार करती हैं। स्त्री स्वास्थ्य के विशेष पहलू और व्यायाम की आवश्यकता पर भी चर्चा की गई हैI लव में जेहाद कहाँ लेख में सिया ए. लव जिहाद पर चर्चा करती हैं। सिया ए. का कहना है कि ऐसे अनेक उदाहरण देखे गए हैं कि लड़कियाँ अपने धर्म में शादी करने पर भी जिंदा जला दी जाती हैं। रति अपने लेख दांपत्य सुख में यौन क्रिया संबंधी उदासी पर बेबाक चर्चा करती हैं। कुल मिलाकर इस पत्रिका ने महिलाओं के स्वास्थ्य को ज्यादा अहमियत दी है। यह पत्रिका रिश्ते, बच्चों के पालन-पोषण, फैशन, सौंदर्य आदि जैसे लोकप्रिय विषयों के अलावा के अलावा, हमारे समाज में मौजूद अंधविश्वास एवं रूढ़ियों को तोड़ने, खेल क्षेत्र में लड़कियों की भागीदारी के साथ-साथ सैनिटरी नैपकिन के प्रयोग जैसे मुद्दे को भी प्रस्तुत करती है। इस कारण मध्यवर्गीय घरेलू महिलाओं में आत्मविश्वास के बीज बोने में इस पत्रिका की महत्त्व को स्वीकार किया जा सकता है। पत्रिका की भाषा में युवा पीढ़ी द्वारा धड़ल्ले से प्रयोग किए जाने वाले अंग्रेजी के शब्दों की उपस्थिति का अनुरूप नहीं लगता है।
दिल्ली प्रेस प्रकाशन समूह पत्रिका मुक्ता के संपादन का दायित्व किसी महिला पर न होकर प्रकाशक पर ही है। इस पत्रिका में सोमा घोष, किरण आहूजा आदि सक्रियता से कार्य कर रहीं हैं। वैसे इस पत्रिका में स्त्रियों के द्वारा रचित लेख काफी कम मात्रा में मिलते हैं। शहनाज ने चुनौतियों का सामना करने वाला साल लेख के माध्यम से देश में फैली महामारी एवं उसके प्रभाव से आर्थिक तंगी से प्रभावित युवा वर्ग के भविष्य की चिंता एवं उनके लक्ष्यों की पूर्ति पर चर्चा की है तथा इस बात पर भी चर्चा की है कि नए साल में आने वाली चुनौतियों के लिए खुद को किस प्रकार तैयार करें?6 गरिमा पंकज प्यार के खूबसूरत एहसास पर चर्चा कर बताती हैं कि यह खूबसूरत एहसास किसी एक गलती से दर्द की वजह भी बन सकती है। इसे खूबसूरत बनाए रखने के लिए कुछ बातों का ख्याल रखना चाहिए। कम्प्यूटर विजन सिंड्रोम से बचें ऐसे लेख में सोमा घोष ने कंम्प्यूटर विजन सिंड्रोम के लक्षणों पर चर्चा करते हुए बचाव के तरीके भी बताए। पत्रिका के अंक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 48 पृष्ठों की इस पत्रिका में महिला पत्रकारों के कम लेख प्रकाशित हुए हैं। महिला केन्द्रित पत्रिका में किसी महिला संपादक के न होने की कमी भी खलती है। अधिकांश लेख केवल नयापन लाने के उद्देश्य से लिखे गए लगते हैं।
दिल्ली प्रेस प्रकाशन समूह की एक अन्य पत्रिका गृहशोभा महिलाओं की एक लोकप्रिय पत्रिका है। इस पत्रिका ने सुमन वाजपेयी, गरिमा पंकज, प्रीता जैन, स्नेहा सिंह, पूनम अहमद आदि को पनपने का मौका दिया है। इन महिला पत्रकारों ने समाज के विभिन्न मुद्दों को पत्रिका में नियमित रूप से जगह दिलाने का काम किया है। गरिमा पंकज का लेख जिंदगी की बाजी जीतने के 15 उपाय कोरोना महामारी के चलते जीवन पर पडे़ प्रभाव पर चर्चा करती हैं। वे सकारात्मकता पर बल देते हुए कहती हैं कि ‘माना कि जीवन में समस्याएँ है मगर इन से उबरने के भी तो उपाय है। ’7 पारूल भटनागर ने अपने लेख में अनेक प्रकार के दर्द एवं उनके निवारण पर चर्चा की है। ‘सेहत वाले स्नैक्स’ में विभिन्न प्रकार में व्यंजनों एवं उनसे सेहत पर पड़ने वाले प्रभाव पर चर्चा की गई है। नीरा कुमार ने कामकाजी महिलाओं के लिए स्वास्थ्य के उपयोगी और शीघ्र तैयार होने वाले व्यंजनों की चर्चा की है। शाहनवाज़ ने हाउसवाइफ से मेयर बनी अनामिका मिथिलेश के बारे में चर्चा की है। इसमें अनामिका जी कहती हैं कि ‘पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ अधिक अच्छी राजनीतिज्ञ साबित हो सकती हैं। ’8
धार्मिक कट्टरवाद खतरे में इंसानियत लेख में धार्मिक कट्टरता पर चर्चा के क्रम में बताया गया है कि धार्मिक कट्टरता अक्सर आंतकवाद में बदल जाती है। शाहनवाज़ का यह लेख निर्भीक पत्रकारिता की निशानी है। ‘गांधी के अनुसार लोकसेवक पत्रकारों को निडर होना चाहिए तथा उन्हें संपत्ति एवं प्रेस के जब्त होने की एवं यहाँ तक की मौत का डर भी छोड़ देना चाहिए। ’9 इस पत्रिका में नवोदित लेखिकाओं की कहानियाँ भी जगह दी गई है- ट्रिक, गुलमोहर, चश्मा और अपने लिए। फिर भी यहाँ आवश्यक है कि यह पत्रिका “महिला समस्याओं व उसकी गरिमा के प्रति संवेदनशील रिपोर्टिंग करे, समाज में उसकी वास्तविक स्थिति तथा महिला मुद्दों को गंभीरता से प्रकाशित करे। ”10 इस अंक पर यह राय बनती है कि पत्रिका का प्रकाशन महिलाओं के सौंदर्य, स्वास्थ्य, व्यंजन, गृहसज्जा आदि को प्रमुखता देते हुए किया गया है, जिसमें स्त्री का जो रूप उभरता है, वह पारंपरिक और आधुनिक दौर के बाजार के लिए उपलब्ध ‘उपभोक्ता’ स्त्री का ही रूप है। कुछ समकालीन समस्याओं पर ध्यान देते हुए चर्चा भी है।
मेरी सहेली पत्रिका सिनेमा जगत की प्रसिद्ध नायिका हेमा मालिनी द्वारा सम्पादित है। हेमा मालिनी भरतनाट्यम की नर्तिका और सांसद भी हैं। तीन दशकों से प्रकाशित इस पत्रिका ने अनेक महिलाओं को पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम बढ़ने के अवसर दिए हैं। संपादक के अतिरिक्त संपादकीय प्रमुख, फूड एडीटर, कार्यकारी संपादक, सहायक कार्यकारी संपादक, फीचर संपादक, उपसंपादक, डिजिटल संपादक आदि पदों का दायित्व स्त्रियों ने ही संभाल रखा है। साधना पाहवा, जूही वरुण पाहवा, प्रतिभा तिवारी, गीता शर्मा, उषा गुप्ता, पूनम नागेन्द्र शर्मा, कमला बडोनी आदि ने पत्रकारिता के नवीन तकनीकी में भी हिस्सेदारी निभाई है। इनकी सफलता से समाज में अन्य महिलाएँ भी प्रेरित हुई हैं। पत्रिका के एक महत्त्वपूर्ण लेख ‘रिश्तों में बढ़ता इमोशनल अत्याचार’ में रिश्तों में बढ़ते खोखलेपन पर चर्चा की गई है। आजकल के रिश्ते ऊपरी तौर पर हमें मजबूत लगते हैं, मगर सच तो यह है कि ये अंदर से बिल्कुल खोखले और बेजान से होते जा रहे हैं। इनमें अब गहराई नज़र नहीं आती। इसलिए लोग अपनों को भावनात्मक रूप से प्रताड़ित करने की कोशिश करते हैं। कई बार घरवालों के दबाव से रिश्ते थोप दिए जाते हैं, लेकिन ऐसे थोपे हुए रिश्ते निभाये नहीं जा सकते। इसी प्रकार भावनात्मक तानों का असर बच्चों पर पड़ता नजर आता है, जिसकी वजह से माता-पिता बच्चों का जीना दुश्वार कर देते हैं। मनोवैज्ञानिक डॉ. माधवी सेठ कहती हैं - ‘‘यदि पैरेंट्स पॉजिटिव तरीके से अपने बच्चे की किसी से तुलना करते हैं या उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं तब तो ठीक है, वरना इससे बच्चों पर नकारात्मक असर पड़ता है। ’’11
पीरियड से जुड़े 10 मिथक में स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ.कोमल चव्हाण के माध्यम से श्वेता सिंह ने विभिन्न जानकारियाँ दी हैं। उनका कहना है कि पीरियड्स के बारे में सही जानकारी नहीं होने पर अधिकांश महिलाएँ कई तरह की गलतफहमियों की शिकार हो सकती हैं। माँ से पहले मैं लेख में यह बताया गया कि हर माँ के लिए उसका बच्चा सबसे पहले होता है और बच्चे के लिए वह खुद को भी भुला देती है। लेकिन सबसे पहले एक माँ को खुद के स्वास्थ्य पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि जब तक वो खुद स्वस्थ और खुश नहीं रहेगी, तो माँ होने की जिम्मेदरी पूर्ण रूप से नहीं निभा पाएगी। मनोवैज्ञानिक मीता दोषी और मनोचिकित्सक नीता शेट्टी के वैज्ञानिक और तार्किक मतों से भरा लेख महत्त्वपूर्ण है। इसमें माँ के ‘स्व’ के महत्त्व को रेखांकित किया गया है। मीता स्पष्ट रूप से कहती हैं कि ‘ सभी माताओं को कम से कम एक घण्टा अपने लिए जरूर निकालना चाहिए’। 12
इस प्रकार स्पष्ट है कि समकालीन पत्रिकाओं में महिला पत्रकारों ने स्त्रियों की सामान्य समस्याओं के अतिरिक्त कई आधुनिक मुद्दों को भी उठाया है। इन्होंने महिलाओं को नवीनतम जानकारियों से लैस करने का कार्य भी किया है। यद्यपि इनके लेखों पर बाजार के प्रभाव को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। स्वास्थ्य और सौंदर्य संबंधी अधिकांश लेखों में परोक्ष रूप से भूमण्डलीकरण से पनपी बड़ी कंपनियों के उत्पादों के लाभ का गुणगान मिलता है। ‘यदि विज्ञापन जगत का लगभग अस्सी प्रतिशत विज्ञापन हिन्दी में बनता है तो इसका मुख्य कारण वह मध्य वर्ग रहा है, जो बाजार में मौजूद उत्पादों का उपभोक्ता है और जिसकी भाषा सदैव या तो हिन्दी रही है अथवा वह हिन्दी भाषा को जानता-समझता है। ’13 लेकिन इन पत्रिकाओं की भाषा अँगरेजी मिश्रित हिन्दी के रूप में सामने आती है। यह उचित नहीं है और महिला पत्रकारों को हिन्दी भाषा के देशजता को बरकरार रखने की दिशा में सतर्कता के साथ काम करना चाहिए।
आज आवश्यकता इस बात की है कि एक सामान्य स्त्री बाजारवाद के लुभावने मायाजाल में न फँसे और किसी उत्पाद के प्रयोग न करने मात्र से ही हीन भावना का शिकार न हो। वस्तुतः स्त्री के शक्तीकरण के लिए स्त्री में अपने रूप-रंग और व्यक्तित्व को लेकर स्वाभिमान पैदा करने की आवश्यकता है। कुछ महिला पत्रकारों ने इसे समझा है और कुछ को इस दिशा में सतर्क रहने की आवश्यकता है। महिला पत्रकारों का दायित्वबोध केवल माँ-बच्चे तक सीमित न रह कर, परिवार व समाज की जबाबदेही के रूप में व्यापक स्वरूप ग्रहण कर रही है। आज की महिला पत्रकार वृद्धावस्था की चिंता, बालमन की आधुनिक चुनौती, वेब टीवी के ओ.टी.टी की गतिविधियों के सामाजिक मनोविज्ञान की दृष्टि आदि नवीन व ज्वलंत मुद्दों पर विचार प्रस्तुत करने लगी हैं। पहले पर्यटन जैसे विषय केवल पुरुषों तक सीमित थे, लेकिन अब स्त्रियाँ भी स्वच्छंद रूप से भ्रमण कर अपने अनुभव साझा करने लगी हैं। चयनिका निगम जैसी पत्रकार पर्यटन में सामाजिक समरसता के पहलुओं को उभारती हैं। यद्यपि महिला पत्रिकाओं में राजनीति, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, थर्ड जेंडर आदि क्षेत्र की कमी महसूस होती है। इन पत्रिकाओं में महिला पत्रकार बताती हैं कि लड़कियों को अब सिर्फ पांरपरिक नौकरी ही नहीं, बल्कि वे अब नृत्य निर्देशन, फोटोग्राफी जैसे नए क्षेत्रों में भी अपना कैरियर बना रही हैं। लेकिन स्त्रियों के नए क्षेत्रों में दखल और सफलता को काफी हद तक परिवार एवं समाज के द्वारा प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
संदर्भ :
1. आलोक मेहता:- भारत में पत्रकारिता, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास , दिल्ली, 2015, पृ. 57
2. सखी, अप्रैल 2021, पृ.-10
3. ज्योति सोही:- सर्दियों में कुछ इस तरह रखें बुजुर्गों का ख्याल, गृहलक्ष्मी, फरवरी 2021, पृ. 49
4. चयनिका निगम:- असल जिंदगी में प्यार से क्यों अलग है फिल्मी प्यार ,गृहलक्ष्मी, फरवरी 2021, पृ. 62
5. डॉ. ज्योति कपूर:- बॉयफ्रेंड ना होने का कॉम्पलेक्स, वनिता, फरवरी 2021, अंक 276, पृ. 62
6. सोमा घोष:- चुनौतियों का सामना करने वाला साल, मुक्ता, जनवरी 2021, पृ. 12
7. गरिमा पंकज:- जिंदगी की बाजी जीतने के 15 सबक, गृहशोभा, फरवरी 2021, पृ. 13
8. शाहनवाज:- हाउसवाइफ से मेयर बनने तक का सफर, गृहशोभा, फरवरी 2021, पृ. 44
9. कमल किशोर गोयनका:- गांधी: पत्रकारिता के प्रतिमान, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, दिल्ली, 2020, पृ. 148
10. आसीन खां:- भारत में महिला, दलित और अल्पसंख्यकों की समस्याएँ : मीडिया की
भूमिका (मीडिया : अतीत, वर्तमान और भविष्य) नटराज प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृ. 125
11. डॉ. माधवी सेठ:- रिश्तों में बढ़ता इमोशनल अत्याचार, मेरी सहेली, मई 2021, पृ. 34
12. मीता दोषी:- माँ से पहले मैं, मेरी सहेली, मई 2021, पृ. 98
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा UGC Care Listed Issue 'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)