शोध आलेख : 'कुलटा' उपन्यास में नारी का सामाजिक द्वन्द्व / विवेकानन्द

                               शोध आलेख : 'कुलटा' उपन्यास में नारी का सामाजिक द्वन्द्व / विवेकानन्द

शोध सार : 

राजेन्द्र यादव हिन्दी साहित्य में केवल कथाकार, कहानीकार और आलोचक के रूप में सीमित रहने वाले लेखक नहीं थे बल्कि अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और स्त्री के मुद्दों पर भी बहुत मुखर रहने वाले लेखक और विचारक थे। इसीलिए उन्होने अपनी रचनाओं में स्त्री के प्रतिदिन हो रहे शोषण, वैवाहिक सम्बन्धों में परिवर्तन, दाम्पत्य जीवन के द्वन्द्व, दूसरी तरफ फैशन परस्ती में अकेलापन, सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन, अर्थ के पीछे भागता हुआ मनुष्य, संत्रास, घुटन, अत्याचार और प्रेम सम्बन्धों आदि को प्रमुखता से स्थान दिया। उनकेकुलटा उपन्यास में शोषित, पीड़ित और पद दलित स्त्री की कथा है। यह उपन्यास विवाह के बाद यौन अतृप्ति और विवाहेतर यौन संबंधों पर केंद्रित है। साथ ही इस उपन्यास में दहेज, अनमेल विवाह, बाल विवाह, पति-पत्नी का सम्बन्ध आदि अनेक सामाजिक-पारिवारिक समस्याओं को दर्शाया गया है।

इसमें स्त्रियों के प्रति पुरुष समाज की संकुचित मानसिकता को प्रदर्शित किया गया है। स्त्री को हमारा समाज अलग-अलग नामों से परिभाषित करता रहा है। वह कुलटा, छिनाल, और पतिता है क्योंकि वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करती है। कुलटा उपन्यास में स्वतंत्र रहने वाली महिला मिसेज तेज पाल के रोमांटिक एवं दु:साहसिक चरित्र का वर्णन है। जो अपने संवेग, आवेग और यौन अतृप्ति के लिए अपने पति को छोड़ एक वायलिन वादक के साथ चली जाती है। उपन्यास में नारी जीवन को चित्रित करते हुए उसे वर्तमान परिस्थितियों से जोड़ा गया है। इसमें समाज की दुर्बलताओं तथा उससे स्वतंत्र स्त्री के संघर्ष को प्रमुखता दी गई है। इसके साथ ही समाज द्वारा स्त्री के प्रति बरते जाने वाले पक्षपातपूर्णरवैये को ध्यान में रखते हुए इस उपन्यास का ताना बाना बुना गया है।

मूल आलेख : 

राजेन्द्र यादव आजादी के बाद के प्रमुख साहित्यकारों में से एक हैं। वे उपन्यासकार, कहानीकार और आलोचक के साथ-साथ हंसपत्रिका के सफल संपादक के रूप में प्रसिद्ध हैं। वे प्रगतिशील चेतना से युक्त एक विद्रोही रचनाकार थे। उनका व्यक्तित्व क्रांतिकारी था। समाज में व्याप्त धार्मिक पाखंड, कुरीतियों, रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों की उन्होंने मुखर होकर आलोचना की। उन्होंने जाति-पाति, ऊँच-नीच, छुआछूत, शोषण, वर्गभेद का विरोध किया। उन्होने दलित, आदिवासी, खेतिहर मजदूर और गरीब किसानों को सदैव अपने लेखन के केंद्र में रखा।

स्त्री विमर्श जैसे सामाजिक मुद्दों को ध्यान में रखते हुए ही उन्होने अपने उपन्यास का नाम कुलटा रखा है। राजेन्द्र यादव के अनुसार साहित्य और समाज की सबसे बदनाम, बहिष्कृत और गुमराह औरतें वह हैं जो अपने शरीर और मन को अपने पतियों, स्वामियों या अभिभावकों तक ही सीमित नहीं रख पाईं यानी शरीर की माँग ने जिनके भीतर एक स्वतंत्र इच्छाशक्ति जगा दी। वे पुंश्चली, कुलटा, छिनाल, रंडी, पतिता इत्यादि के नाम से सजा की अधिकारिणी हुईं। इसस्वतंत्रता की सजा मौत ही थी। उन्हें गुपचुप या सावर्जनिक रूप से सजा देने को हर समाज ने जायज ही माना।[1] समाज की धार्मिक रूढ़ियों एवं पाखण्डों से स्त्री कभी निकल ही नहीं पाई। स्त्री को देवी का रूप बता कर सदियों से पुरुष समाज उनका शोषण करता रहा है। समाज ने परम्परा के नाम पर स्त्री को गुलाम बना रखा है और उसके पाँव में जिम्मेदारियों के नाम पर बेड़ियाँ डाल रखी हैं।

 ‘कुलटा उपन्यास में प्यार के एक दूसरे धरातल की कथा और व्यथा है। इसमें मिसेज तेजपाल जैसी स्त्री अकेले पहाड़ी झरने के एकांत किनारों और घाटियों की हरियल सलवटों की अंगड़ाई लेती भूल-भुलैया..मखमली बाँहें और रेशमी बाल वाली स्त्री है...जो एक अभिजात सौन्दर्य से भरपूर नारी है...लेकिन उसने अपने पति को चुनकर पवित्र प्यार और प्रेमिका की राह चुनी थी। यह कथा या उपन्यास स्त्री के अपने चुनाव और संघर्ष की कहानी है। प्रेम के माध्यम से समाज की उन जड़ों तक पहुंचना है, जहां हमारा आधुनिक समाज इस तरह के रिश्तों को कतई बर्दाश्त नहीं करता है और ना ही मान्यता देता है। स्त्री यदि इस तरह अपनी राह स्वयं चुनती है तो समाज में उसके लिए कोई क्षमा या माफ़ी का मार्ग नहीं हैं। इसलिए वह समाज को चुनौती देती है। मिसेज तेजपाल को समाज के द्वारा पागल और कुलटा घोषित कर दिया जाता है। ऐसा सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि वह समाज की बनाई व्यवस्था के विरुद्ध एक चुनौती बनकर खड़ी हो जाती है। अपने पति का घर छोड़ कर अपने प्रेमी के साथ चली जाती है। प्रथम समस्या मिसेज तेजपाल की कोई अपनी संतान होना है। जिसके चलते समाज के द्वारा उसको बाँझ घोषित करके उसके साथ भेद-भाव किया जाता है। इसमें सबसे ज्यादा भेदभाव करने वाली समाज की महिलाएं ही हैं। इस तरह की विचारधारा मर्द और औरत दोनों की संकुचित मानसिकता को दर्शाता है।

दूसरी समस्या समाज में स्त्री की तथाकथितपवित्रता की होती है जिसको पुरुषवादी समाज तय करता है कि स्त्री पवित्र है या नहीं। स्त्रियों को हमारा समाज सिर्फ इस्तेमाल या संभोग की वस्तु मानता है। स्त्रियों के प्रति इस तरह की शोषणवादी अवधारणा किसी विशेष वर्ग या स्थान तक सीमित होकर दलित, आदिवासी और अन्य धर्मावलंबी समाजों में भी व्यापक रूप में व्याप्त है। समाज कदम-कदम पर स्त्रियों और उनकी सामाजिक भूमिका को बांधने या संकुचित करने का प्रयास लगातार करता रहता है। क्योंकि धर्म और समाज को तर्क और वैज्ञानिक सोच से कोई लेना-देना नहीं होता है। बावजूद इसके हम देख सकते हैं कि स्त्रियाँ नौकरी कर सकती हैं, सिनेमा जा सकती हैं, वायुसेना और आर्मी में भर्ती हो सकती हैं, संसद और विधानसभाओं में जा सकती हैं, विश्वविद्यालय जा सकती हैं, डॉक्टर बन सकती हैं, वैज्ञानिक बन सकती हैं, अंतरिक्ष में जा सकती हैं, यहाँ तक कि ओलंपिक में अपना लोहा मनवा सकती हैं।

विश्व में भारत की लड़कियों का परचम लहराया और पदक जीत कर देश का नाम रोशन और गौरवान्वित किया। लेकिन आज स्त्रियों के प्रति जो तात्कालिक प्रोत्साहन समाज में दिख रहा है क्या वो आगे भी बना रहेगा? क्या भारतीय संस्कृति के नाम पर स्त्रियों पर थोपी गई धारणाएँ जो पुरुषों की अहं और कुंठा पर आधारित हैं बदल जाएगी? क्या भारतीय समाज में कुछ मंदिर इतने अधिक पवित्र है कि स्त्रियों की उपस्थिति मात्र से उन मंदिरों की पवित्रता नष्ट हो जाती है? हम सबने देखा था कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने स्त्रियों के मंदिर प्रवेश को परंपरा का हवाला देते हुए इस मुद्दे से दूरी बनाने की कोशिश की थी। कितनी अजीब बात है की स्त्री के शरीर से पैदा हुआ पुरुष मंदिर मे जा सकता है लेकिन उस पुरुष को जन्म देने वाली स्त्री उसी मंदिर में नहीं जा सकती है। इस सामंतवादी एवं रूढ़िवादी भारतीय समाज में जब तक महिलाओं को समानता और बराबरी की दृष्टि से नहीं देखा जाएगा तब तक इसमें कोई सकारात्मक बदलाव नहीं होगा।

तीसरी समस्या मिसेज तेजपाल को सिर्फ इसलिए दूषित माना जाता है क्योंकि वह पति के रहते हुए किसी और से प्रेम संबंध स्थापित करती है और उसके साथ चली जाती है। स्त्री को पुरुष समाज अपनी जागीर समझता है। इसलिए स्त्री का पुरुष को छोडकर जाना वह स्वीकार नहीं कर पाता है। पुरुष को लगता है कि वह जब चाहे किसी स्त्री को छोड़ सकता है लेकिन उसे कोई स्त्री छोडकर चली जाए यह निर्णय उसे स्वीकार नहीं हो पाता।

            चौथी समस्या पति और पत्नी के विचार आपस में मेल नहीं करना। नारी, समाज और सभ्यता में एक कड़ी है। समाज के निर्माण में महिलाओं का बहुमूल्य योगदान है। जिसे समाज द्वारा नकारा नहीं जा सकता है। नारी की वीरता, नारी के त्याग, नारी की ममता, नारी के वात्सल्य, नारी की करुणा, नारी के बलिदान, शहादत आदि अपने आप में एक मिसाल हैं।

आजादी की क्रांति में सभी वर्ग के लोग कूद पड़े थे। जिसमें स्त्री-पुरुष, छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, किसान-मजदूर, हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई सभी ने आजाद भारत के सपने देखे थे। लेकिन आजादी के बाद निम्न एवं मध्यवर्ग के नसीब में श्रम और शोषण ही आया। मंत्रियों, नेताओं, अफसरों के द्वारा भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, अवसरवादिता, स्वार्थपरता आदि की समस्या देश में तेजी से व्याप्त हो गई। सामाजिक और भावनात्मक स्तर पर व्याप्त उन विसंगतियों के कारण सभी का शोषण और उन पर अत्याचार हुआ है। जैनेन्द्र कुमार का मानना है कि स्त्री की सार्थकता मातृत्व है।[2] इसको व्याख्यायित करते हुए अरविन्द जैन कहते हैं- कि स्त्री-जीवन में बिना माँ बने निष्फल, निरर्थक है। जैनेन्द्र की मानें तो स्त्री को अपना जीवन सार्थक करने के लिए विवाह करना ही पड़ेगा क्योंकि बिना विवाह के बच्चे अवैध और हरामी कहलाएंगे और वह खुद कुलटा, छिनाल या व्यभिचारिणी कहलाएगी। विवाह के बाद अगर पति से संतान हुई तो भी वह बाँझ ही कहलाएगी। आजन्म कुमारी रहने की उसे कोई स्वतंत्रता नहीं।[3] लेकिन यही बात हम राजेन्द्र यादव के अनुसार कहें तो- सामंती समाज ने स्त्री को सिर्फ तीन नाम दिये हैं: पत्नी, रखैल और वेश्या। इसके अलावा वह किसी चौथे सम्बन्ध को स्वीकार ही नहीं करता है। जब औरत को वह संरक्षण यानी रोटी, कपड़ा और मकान देने के साथ अपना नाम देकर सामाजिक स्वीकृति देता है तो कहता है पत्नी, लेकिन जब संरक्षण देकर अपना नाम नहीं देता तो वह रखैल है। जहाँ वह संरक्षण देता है, सामाजिक स्वीकृति, तो वह वेश्या होती है, क्योंकि संरक्षण के लिए उसे बहुतों पर निर्भर करना पड़ता है, नतीजे में सामाजिक सम्मान का प्रश्न ही नहीं उठता।[4]

सब कुछ स्त्री पर निर्भर लगता है। कर्म, स्त्री पर टिका है। सभ्यता, स्त्री पर टिकी है। जोखिम भरा जीवन स्त्रियों के लिए पुरुष बनाता है। कहा जाता है कि भय और लज्जा, स्त्री का आभूषण हैं। अगर इन आभूषणों का अनुसरण वह नहीं करती है तो परिवार की प्रतिष्ठा को बिगाड़ देती या दाव पे लगा देती है। बेकार की नैतिक मान्यताओं ने समाज में जड़ बना लिया है। समाज नैतिक बंधनों का उलाहना लिए फिरता है। स्त्रियों की व्यथा कठपुतलियों की तरह हो गई है। राजेन्द्र यादव के अनुसार हमारे सारे परम्परागत सोच में नारी को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है। कमर से ऊपर की नारी और कमर से नीचे की औरत। हम पुरुष को उसकी सम्पूर्णता में देखते हैं। उसकी कमियों और कमजोरियों के साथ उसका मूल्यांकन करते हैं। नारी को हम सम्पूर्णता में नहीं देख पाते। कमर से ऊपर की नारी महिमामयी है, करुणा-भरी है, सुन्दरता और शील की देवी है, वह कविता है, संगीत है, अध्यात्म है और अमूर्त है। कमर से नीचे वह काम-कन्दरा है, कुत्सित और अश्लील है, ध्वंसकारिणी है, राक्षसी है और सब मिलाकर नरक है। इसी बँटे और दुहरे रवैए से हम उसके शरीर की ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की यात्राएँ करते हैं, उसके मातृत्व की शारीरिकता को नहीं, वात्सल्य की भावना को गरिमा देते हैं। नारी से अधिक नारी का आइडिया हमें हमेशा सम्मोहित करता रहा है और हमारे द्वारा निर्मित सारी संस्कृति इस आदर्श नारी के साँचे में ही उसे ढालने का प्रयास कर रही है।[5] सामाजिक ऐतिहासिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में यह सोच तर्कसंगत या उपयुक्त ही लगती है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज और यौन कुंठाओं के अनेक कारण गिनाए जा सकते हैं। पुरुष कितना निर्मम एवं कठोर होता है।

 इसका वर्णन करती हुई तसलीमा नसरीन लिखती हैं- नारी, तुम जो मुँह के बल पड़ी हुई हो, तुम्हरे सारे बदन में पुरुष के पैने दाँतों के निशान हैं, तुम्हें सूंघने के लिए आया हुआ एक कुत्ता भी दर्द के मारे नीला पड़ जाएगा। तुम्हें देखने के लिए आए हुए कौए-चील भी अपने नाखून छिपाएँगे और तुम्हें फिर से यदि कोई काटे तो वह कोई सूअर नहीं, कोई काला नाग नहीं, कोई पुरुष ही होगा। वह देखो वे तुम्हें नोच खाने रहे हैं, वे तुम्हें चखने रहे हैं, फाड़ने रहे हैं, वे मृत्यु का दूसरा नाम है। वे बीभत्सता का एक और नाम हैं, वह तुम्हें लीलने रहे हैं, चाटने रहे हैं, वे तुम्हें दलने रहे हैं, वे पुरुष हैं, मनुष्य नहीं।[6]व्यावहारिक रूप से सामाजिक भावनाओं एवं व्यक्तिगत इच्छाओं में द्वन्द्व हैं। जिसमें घर, पति, परिवार, बच्चे, शादी और विवाह की जिम्मेदारी स्त्रियों की ही होती है। उनका अपना कोई करियरनहीं हैं क्योंकि परिवार या समाज में स्त्री के अस्तित्व को सीधे-सीधे नकार देना और उन पर दबाव बनाकर शारीरिक और मानसिक रूप से उनका शोषण करना है।

सामाज, संस्कृति, एवं मर्यादा के मकड़जाल में स्त्री अपने आपको असहाय, असुरक्षित एवं जड़हीन महसूस कर रही है। धार्मिक पाखंड, अंधविश्वास, राष्ट्रीय अस्मिता, आदर्श एवं इतिहास के गौरव गान के नाम पर समाज में असमानता बनी हुई है। स्वतंत्रता के बाद भी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक दृष्टि से असमानता की परिस्थितियाँ आज भी मौजूद हैं। कुछ रचनाकारों की रचनाएं समाज के सम्बन्धों पर पड़ने वाले प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए लिखी गई हैं। जैसे- सेवासदन, निर्मला (प्रेमचन्द), त्यागपत्र (जैनेन्द्र), चित्रलेखा (भगवतीचरण वर्मा), मुझे चाँद चाहिए (सुरेन्द्र वर्मा), वसन्ती (भीष्म साहनी), अर्द्धनारीश्वर (विष्णु प्रभाकर), बिना दरवाजे का मकान (रामदरश मिश्र) इत्यादि रचनाएं अपने समाज की वास्तविकता, अपने समय की सच्चाई और इतिहास की गति की अभिव्यक्ति करती हुई नजर आती हैं। कुलटा उपन्यास में पुरुष और महिला समाज की मानसिकता दोनों समान ही दिखाई पड़ती हैं। ब्याही, अनब्याही, लड़कियों को समाज में आवारा, बदचलन और चरित्रहीन घोषित कर दिया जाता है। पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था और पुरुषवादी परिवेश के अनुसार उनके चरित्र को तौला जाता है। पुरुषवादी मानसिकतायुक्त विचारधारा वाले समाज में पुरुष के भी कई प्रकार के अनैतिक संबंध होते हैं लेकिन हमारा समाज इस तरह की उपमा या नकारात्मक प्रतिक्रिया सिर्फ स्त्रियों के खिलाफ ही देता है। अगर ध्यान दें तो पता चलेगा की हमारे इस पितृसत्तात्मक समाज में नित्य होने वाली घटनाओं जैसे छेड़छाड़, बलात्कार, बाल यौनशोषण, कन्या भ्रूण हत्या, बाल वेश्यावृति, बाल विवाह इत्यादि की समस्या सिर्फ निम्न और मध्यम वर्ग में ही नहीं है बल्कि उच्च वर्ग और शिक्षित समाज के लोग में भी भरपूर मौजूद है।

हालात इतने खराब हो चले है कि सरकार को बाकायदा अभियान चलाना पड़ रहा है। बलात्कारियों से महिलाओं को बचाने के लिए सरकार को नारा देना पड़ता है कि बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओं।सवाल यह है कि स्त्रियों को बचाना किन से है? स्वतंत्र समाज में क्यों गुलाम जैसी स्थिति है महिलाओं की? स्त्री आत्मनिर्भर और कामकाजी क्यों नहीं हो पा रही है? इसके लिए दोषी कौन है? सारा समाज या समाज में रहने वाले कुछ लोग? वह लोग जो स्त्रियों के विरुद्ध आपराधिक, अमानवीय और घृणित कार्य कर रहे हैं उनकी पहचान कैसे की जाए? पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री को अपनी सुविधा और विकल्प के अनुसार बाँट रखा है। जैसे पार्वती, सीता, दुर्गा, काली आदि देवियों के स्वरूप के अनुसार नारी को निर्धारित कर दिया है लेकिन यही पुरुष कभी खुद के लिए कोई नैतिक मापदण्ड क्यों नहीं निर्धारित करता है? वह क्यों चाहता है की स्त्री सदैव पुरुष की आज्ञा को, इच्छा को सर्वोपरि मानकर शीश झुकाकर पालन करे? वह क्यों अपने पुरुष पति को देव और ईश्वर मानती रहे? आखिर पुरुषों द्वारा दिए गए पतिव्रता, सती सावित्री, साध्वी स्त्री के विशेषण कब तक स्त्री को बांधे रहेंगे? अगर यह विशेषण इतने अच्छे हैं तो पुरुष खुद क्यों नहीं पत्निव्रता की उपाधि धारण कर लेते।

कुलटाउपन्यास में में उसी स्त्री को केंद्र में रखा गया है जो पुरुष द्वारा निर्धारित खांचे में फिट नहीं आती हैं और उनके द्वारा निर्धारित सीमाओं को लांघ जाती हैं। इसी कारण समाज उन्हें कुलटा, पुनश्छली, कर्कशा, वेश्या, बदचलन, व्यभिचारिणी आदि अभद्र संज्ञाओं से आलोचित करता है। समाज उनको इस प्रकार से अपमानित करके मजबूर करता है की वह पतिव्रता, सती सावित्री, साध्वी स्त्री के खांचे में आने को मजबूर हो जाए। पुरुषवादी समाज स्वतंत्र स्त्री के प्रति इन अपमानजनक संज्ञाओं के सहारे अपना वर्चस्व बनाए रखता है।

कुलटा उपन्यास समाज की संकुचित सोच पर आधारित है। जिसे विरोध एवं विद्रोह करते हुए अनमेल विवाह की तरफ केंद्रित किया गया है। कुलटा उपन्यास एक स्त्री केंद्रित उपन्यास है। स्वतंत्र रहने वाली महिला मिसेज तेज पाल के रोमांटिक एवं दुस्साहसिक चरित्र का वर्णन है। जो अपने संवेग, आवेग एवं यौन अतृप्ति के हेतु एक वायलिन वादक के साथ अन्यत्र चली जाती है। मिसेज तेजपाल असीम सौन्दर्य सम्पन्न, सुकोमल, शिष्ट और सहज सरल स्वभाव की स्त्री है। जो अपने मित्रमंडली में लोकप्रिय है। वे मानसिक अतृप्ति की शिकार है। जो हँसमुख चेहरे पर बनावटी मुस्कान लिए हुए अंदर ही अंदर टूट कर त्रस्त हो गई है। ऐसा महसूस होता है कि राजेन्द्र यादव के सभी चरित्र मानसिक दबाव, उलझन और वेदना से ग्रसित है। कुलटा उपन्यास की यह लाइन तुम औरतें बस, एक जैसी ही होती हो। मैंने अंग्रेजी में कहा। महिलाएं शब्द कठिन हो जाता और औरतें बाजारू। तुम्हारी राय क्या ठीक है? अच्छा, नहीं ठीक है, बस। उसने सिर झटककर गाल फुला लिये।[7]

भारतीय समाज ने एक पैमाना रख लिया है। उस पैमाने के अंदर अगर स्त्री ठीक-ठाक बैठती है तो पतिव्रता। अगर नहीं बैठती तो कुलटा है। इसी अन्यायी पैमाने के अनुसार आधुनिक खयालात अपनाने वाली स्त्रियां कुलटा होती हैं। पुरुषवादी समाज हमेशा से एक नजरिया बनाए हुआ है। जिससे हर एक-दूसरे व्यक्ति का चरित्र तय करता हैं कौन कुलटा है? कौन पतिव्रता है? कौन चरित्रहीन है? यह समाज तय करता आया है। सबसे दिलचस्प बात है कि इस प्रमाणपत्र वितरण का कोई सार्वजनिक पैमाना निर्धारित ही नहीं है। जिसे देखो वही मुंह उठाए चला आता है और किसी को कुछ भी प्रमाणपत्र देकर चला जाता है।

तरीका तो यह होना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष समाज में न्याय से वंचित नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत देखा जा सकता है कि सामाजिक, राजनीतिक, और समानता की दृष्टि से नारी की खुद की कोई स्वतंत्रता नहीं है। कोई स्वतंत्र पहचान नहीं है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। वह किसी कि माँ है, बेटी है, बहन है, पत्नी है, बुआ है, मौसी है, नहीं है तो स्वतंत्र मनुष्य।

 स्त्री की समस्याओं को केंद्र में लाने का राजेन्द्र यादव ने गंभीर प्रयास किया। उन्होने स्वयं भी स्त्री केन्द्रित रचनाएं लिखीं और साथ में औरों को भी लिखने को प्रेरित किया। उन्होने स्त्री केन्द्रित रचनाओं को अपनी पत्रिका हंस में प्रमुखता दी। राजेन्द्र यादव स्त्री केन्द्रित मुद्दों को लेकर कितने गंभीर थे इसका सबूत है हंस के कई स्त्री केन्द्रित विशेषांक। राजेन्द्र यादव ने हिन्दी समाज को स्त्री के मुद्दों से केवल अवगत कराया बल्कि स्त्रियों के नजरिए से समाज को नए सिरे से शिक्षित करने का काम किया।

इस दौर को स्त्री केन्द्रित बनाने में महिला लेखिकाओं ने अपना ऐतिहासिक योगदान दिया। महिला लेखिकाओं ने जिनमें प्रमुख हैं-उषा प्रियंवदा (पचपन खम्भे लाल दीवारे), मन्नू भण्डारी (आपका बंटी), दीप्ति खण्डेलवाल (कोहरे), मृदुला गर्ग (चित्तकोबरा), मणिका मोहिनी (पारू ने कहा था), मंजुल भगत (अनारो), कृष्णा अग्निहोत्री, सूर्यबाला (सुबह के इंतजार तक), कृष्णा सोबती (सूरजमुखी अँधेरे के), निरुपमा सेवती (मेरा नरक अपना है), चित्रा मुद्गल (एक जमीन अपनी), राजी सेठ (तत-सम), प्रभा खेतान (छिन्नमस्ता), नासिरा शर्मा (पत्थर गली), नमिता सिंह (स्त्री प्रश्न), सुधा अरोड़ा (रहोगी तुम वही), मैत्रेयी पुष्पा (अल्मा कबूतरी) एवं ममता कालिया (बेघर)

राजेन्द्र यादव के पहले वाले दौर में क्रांतिकारी विचारों वाले कुलटाउपन्यास की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। त्यागपत्र उपन्यास (जैनेन्द्र) की नायिका मृणाल कहती है- मैं समाज को तोड़ना-फोड़ना नहीं चाहती हूँ। समाज टूटा कि फिर हम किसके भीतर बनेंगे? या कि किसके भीतर बिगड़ेंगे? इसलिए मैं इतना ही कर सकती हूँ कि समाज से अलग होकर उसकी मंगलाकांक्षा में खुद ही टूटती रहूँ।[8] जो समाज सारी समस्याओं की जड़ है उसे ही जैनेन्द्र जी तोड़ना नहीं चाहते लेकिन अगर अन्यायी और शोषक समाज नहीं टूटेगा तो वेश्यावृति, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, दहेज-प्रथा और विधवा महिलाओं का नाश कैसे होगा। जाहिर है वह समाज टूटा तभी तो राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय मंच पर नारी-मुक्ति आन्दोलन, यौन क्रांति, गर्भपात के कानूनी अधिकार, बालिकाओं को शिक्षा का अधिकार मिल पाया। अन्यथा आज भी हम स्त्री को जिंदा जलाते और सती कहते। समस्याएँ तो आज भी बहुत हैं मगर स्त्रियों कि स्थितियाँ पहले से काफी बेहतर हुई हैं।

पुरुषवादी सोच वाला हमारा समाज बराबरी की बड़ी-बड़ी बातें भले ही खूब ज़ोर-शोर से करता हो लेकिन स्त्रियों को बराबरी का हक देने में अब भी यकीन नहीं करता है। यह आज भी समाज में एक बड़ी विडम्बना है। कुलटा उपन्यास का पात्र रणधीर कहता है कि नॉट एक्जैकटली...नहीं, इस गम ने मेजर तेजपाल को पागल नहीं किया। वह गम बहुत गहरा था, दूसरा था। जैसाकि तुम कहते हो , कि मिसेज तेजपाल का गाना, चहचहाना सब बनावटी और नकली लगते थे, उसी तरह मुझे भी लगता है कि मेजर तेजपाल का दबदबा, खूंखारपना, और कठोरता भी असली नहीं थे..और दोनों अपने-अपने नकली हथियारों से एक-दूसरे से लड़ रहे थे....मजा यह कि दोनों जानते थे कि हथियार दोनों के पास नकली हैं...यह लड़ाई खुद नकली है! असली मोर्चा तो कुछ भीतरी ही था और वहीं वह उन्हें हरा गई...[9]

उपन्यास की मिसेज तेजपाल का मुक्त व्यवहार मध्यवर्गीय समाज में चर्चा का विषय बन जाता है। कुलटा उपन्यास की नायिका मिसेज तेजपाल ने अपने बारे में जो सुना वह राजेन को बताती है- “अपने बारे में वह सब मैं भी सुन चुकी हूँ। यह शोर तो उन दिनों सुनते जब मैं आई-आई थी। यहाँ तो लोग रेडियो भी सुनते हैं तो कमरा बंद करके ताकि बाहरवाला कोई सुन ले। मैंने पूरा गला फाड़कर गाना शुरू कर दिया तो बड़ी चर्चा कोई कहता- मैनर्स नहीं आते, कोई कहता- भले आदमियों में नहीं रही, किसी के हिसाब से मुझे कपड़े पहनने का सलीका नहीं था, साड़ी कहीं जाती थी, पल्ला कहीं, और किसी के लिए मैं ग्रामोफोन थी, किसी के लिए रेडियोग्राम। चलने-फिरने की तमीज नहीं है। फ़्लर्ट है, फिल्म-ऐक्ट्रेस है। मेजर तेजपाल जाने किस गानेवाली को पकड़ लाए हैं और तो और, एक दिन मैंने अपने बारे में यह सुना है कि मैं किसी बार में नाचा-गाया करती थी और वहीं मैंने मेजर तेजपाल को फाँस लिया, तो बड़ी हँसी आई। ऐसे रिमार्क सुनना तो अब आदत बन गई। मैं भी कहती हूँ, कुढ़ो। कितनी कुढ़ती हो, मैं उतना ही कुढ़ाऊँगी।[10]

मध्यवर्गीय समाज, संस्कृति-सभ्यता, रीति-रिवाज, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, रूढ़िवादी व्यवस्था से नारी के उत्थान और पतन के लिए जिम्मेदार कौन लोग है? आज भी हम देखते हैं की लड़की स्वतंत्र रूप से रात में बाहर घूमने-फिरने नहीं जा सकती। शर्ट-पेंट नहीं पहन सकती। बाइक नहीं चला सकती। यह जो करने देने का दबाव है उसे कौन बनाता है? बुर्का, घूंघट और पर्दा प्रथा तो सदियों पुरानी है सवाल यह है की इसे आज भी कौन और क्यों जारी रखना चाहता है? स्त्री-पुरुष की इस असमानता का दोषी कौन है? इतना तो तय है की पितृसत्तात्मक समाज और पुरुषवादी मानसिकता वाले जो लोग आज भी स्त्री के विकास में बाधक बने हुए हैं बहुत ज्यादा दिन तक स्त्रियों को रोक नहीं पाएंगे। एक दिन आएगा जब हर क्षेत्र और हर काम में स्त्री पुरुष की बराबरी में खड़ी मिलेगी। जो भी स्त्री मुक्ति के इस अभियान मे शामिल होगा या होना चाहेगा उसे राजेन्द्र यादव का कुलटाउपन्यास मार्गदर्शक के रूप में पथ प्रदर्शित करता हुआ मिलेगा। 

संदर्भ :


1.  अर्चना वर्मा / बलवन्त कौर: राजेन्द्र यादव रचनावली खण्ड-15, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, 2015, पृ. 18

2.  अरविन्द जैन : औरत अस्तित्व और अस्मिता , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 2018, पृ. 45

3.  वही, पृ. 45

4.  अर्चना वर्मा / बलवन्त कौर: राजेन्द्र यादव रचनावली खण्ड-15, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, 2015, पृ. 21

5.  वही, पृष्ठ.16

6.  डॉ विनय कुमार पाठक : स्त्री विमर्श,  भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2005, पृ. 89

7.  अर्चना वर्मा / बलवन्त कौर: राजेन्द्र यादव रचनावली खण्ड-2, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, 2015, पृ. 388

8.  अरविन्द जैन : औरत अस्तित्व और अस्मिता , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 2018, पृ. 54

9.  अर्चना वर्मा / बलवन्त कौर: राजेन्द्र यादव रचनावली खण्ड-2, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, 2015, पृ. 447

10.  वही, पृष्ठ. 424

 

                       विवेकानन्द, पी-एच.डी-शोधार्थी, हिन्दी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय त्रिपुरा

            vivekanandjnu@gmail.com, 9621224500,9013048887

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

Post a Comment

और नया पुराने