कविताएँ और रचना यात्रा : -पयोद जोशी

कविताएँ और रचना यात्रा

विरूद्धों के मध्य संवाद: कविता का शाश्वत स्वर -पयोद जोशी

हमारे समय के प्रख्यात कवि राजेश जोशी अपनी एक कविता में कहते हैं कि “यह कविता पिछली कविता का पुनश्च है।” उनका कहना है कि जो पहले कई बार कहा जा चुका है, उनमे जो कुछ अनकहा रह जाता है, उसी को जोड़ घटाकर फिर कोई कवि कहता है। (राजेश जोशी की कविता पुनश्च, उल्लंघन कविता संग्रह ) एक कवि के साथ-साथ समाज-विज्ञान के विद्यार्थी के रूप में मुझे यह बात बिल्कुल सत्य लगती है। समय के साथ समाज का बाहरी आवरण तो बहुत कुछ बदल जाता है किन्तु उसके भीतर की आत्मा, उसके भाव बहुत ज्यादा नहीं बदल पाते क्योंकि उसे रचने वाले मनुष्य का मूल स्वभाव वही रहता है। कपड़े बदल जाते हैं, उपकरण बदल जाते हैं, शहर बदल जाते हैं, गाँव शहर बन जाते हैं, नदियों की रफ्तार बदल जाती हैं, पहाड़ बौने हो जाते हैं किन्तु आदमी की सोच और उसके भावों का क्या? हम अपने आपसे पूँछे कि दुनियां में बदला क्या है ? वैसे तो बहुत कुछ बदल गया है। सड़कें पहले से बहुत चौड़ी हो गई हैं। दो पहिये वाले चार पहियों वाले हो गए हैं। कच्चे मकान पक्के हो गए हैं। दो कमरे की जगह चार कमरे, चार की जगह आठ कमरे हो गए हैं। बाजार फैल गए हैं। विकल्प बढ़ गए हैं । दुनियां लोगों की मुट्ठी में है। किन्तु चौड़ी होती जाती सड़कों ने लोगों के बीच की दूरियों को कहाँ पाटा है ? चार पहियों वाले वाहनों ने अनेक पहियों पर चलने वाले रेल यात्री को ज्यादा से ज्यादा पाँच आदमियों तक सीमित कर दिया है। पक्के होते गए मकानों के भीतर रिश्ते के धागे कितने कच्चे होते चले गए हैं ? बढ़ते विकल्पों वाले बाजार ने मनुष्य को जाति, धर्म, भाषा, विचार या शब्दों के विकल्प चुनने की आजादी कहाँ दी है ? मुठ्ठी में बन्द दुनियाँ में आदमी निर्वासित सा क्यों महसूस करता है दरअसल आदमी के सुख के जरिए बदले हैं किन्तु उसकी पीड़ाओं के कारण वही हैं। न वह सोच से आधुनिक हुआ और न उसकी परम्पराएँ पुरातन पड़ी। इसलिए बदलाव के लिए लिखने वाले हर कवि का स्वर आज भी वही है जो कबीर, सुर, तुलसी और मीरा के समय था। कविता में नयापन खोजना बेतुका सा है। मैं अपनी कविताओं में किसी नयेपन का दावा नहीं करता। समाज का आवरण बदला है, आभ्यंतर वही हैं। मेरी कविताएँ उसी समाज के अनुभव से उपजी हैं जो बहुत कुछ बदला नहीं है ....... खासकर भीतर से। इसलिए कुछ नया लिखता भी तो क्या ? पुरानी पड़ चुकी चिर चिंताओं को नई रोशनी में लिखने का प्रयास है - मेरी कविताएँ। चूँकि कविता में बिम्बों का चुनाव प्रायः समाज के बाह्य आवरण से होता है इसलिए कविता में बिम्ब बदल गए हैं किन्तु कविता का मूल स्वर वही है - मनुष्य की चिरन्तन पीड़ाएँ।

 

“.........चुनाव होता है

बाहरी आवरण का

जो अक्सर

सजा संवरा होता है

नयी नवेली

दुल्हन के मानिंद।”

                                                                 (मेरी कविता – ‘चुनाव’ से)

 

हमारे लिए बदलाव का कोई भी प्रक्रम तब तक आधा - अधूरा है, जब तक कि मनुष्य के स्वभाव में पैठ बना चुकी संकीर्णताओं पर चोट नहीं की जाए। सारा द्वंद्व वर्चस्व और उसके प्रतिरोध का है। मनुष्य समाज में वर्चस्व का शोर और प्रतिरोध की आवाजें सदैव विद्यमान रही हैं। हम चाहें इतिहास बाँच रहें हों , राजनीति को पढ़ रहें हों या साहित्य को परख रहे हों - यह दो स्वर ही इन सभी के मूल में दिखलाई पड़ते हैं- वर्चस्व और उसका प्रतिरोध। कविताएँ या तो किसी वर्चस्व को स्थापित करने के लिए उसके यशोगान हेतु लिखी जाती रही हैं या फिर वर्चस्व के प्रतिरोध में । लेकिन एक तीसरी तरह की कविता भी है जो प्रकृति , मनुष्य और समाज के मूल स्वभाव से उपजीं है - यह कविता मुझे ज्यादा आकृष्ट करती है। यह कविता प्रकृति , मनुष्य और समाज के मूल स्वभाव का यशोगान भी करती है और उसकी संकीर्णताओं पर चोट भी।

 

हमारे समय के आज में जैसे-जैसे समाज का बाहरी आवरण नयी-नवेली दुल्हन के गहनों की तरह चमकदार होता चला गया है, वर्चस्व का शोर बढ़ गया है। सड़कों और सूचनाओं के जुड़ाव से वर्चस्ववादी ताकतों ने दुनियां को जरूर अपनी मुठ्ठी में कर लिया है किन्तु प्रतिरोध की खंडित आवाजें भी अब आपस में जुड़ने लगी हैं। दोनों के अपने खतरे हैं। वर्चस्व का दमन सांगठनिक हो गया है तो प्रतिरोध जाने कैसे प्रतिशोध के स्वर में बदल गया हैं। हम जाने क्यों समझ नहीं पाए कि दमन और उसका प्रतिशोध दोनों एक ऐसे हिंसक समाज की रचना करेंगे जो अन्ततः सभी को अंधा बना देगा। वर्चस्व और प्रतिरोध - दोनों अतियों के बीच संवाद गायब है। दोनों अपनी अतिवादिता को त्याग जब तक संवाद कायम नहीं करेंगे ....... एक अहिंसक, शान्तिपूर्ण और न्यायप्रिय समाज का निर्माण असम्भव होगा। मुझे लगता है कि आज के कवि को यह भार उठाना होगा - अतियों के बीच संवाद का भार। आज की कविता की सार्थकता इसी में है।

 

बाबा साहिब डॉ. भीमराव अम्बेड़कर कह गए हैं कि समाज में न्याय की स्थापना की पूर्व शर्त बन्धुता है। समाज में यदि बन्धुता होगी तो न्याय स्वतः स्थापित हो जाएगा। बन्धुता के लिए संवाद आवश्यक है। इसीलिए अम्बेड़कर ने माना कि समाज के प्रत्येक स्तर पर संवाद के निर्विवाद बिन्दु होने चाहिए। समाज के प्रत्येक स्तर पर गहरे ‘अन्तर’ मौजूद हैं जिनको पाटने के लिए ‘संवाद के सेतु’ जरूरी हैं। मुझे लगता है कि कवि और उसकी कविता यह ‘सेतु’ बन सकते हैं बशर्ते संवाद इतना बोझिल नहीं हो कि सेतु टूट जाए। अति शास्त्रीयता और प्रतिशोध के स्वर संवाद को बोझिल कर देते हैं। इसीलिए कविता लिखते समय मैनें काव्य शास्त्र से मुक्ति पा ली और सीधा संवाद स्थापित करने को महत्त्व दिया।

 

जब तुम्हारे बारे में

मैं कुछ सोचता हूँ,

तुम्हें कहने को कुछ

शब्द खोजता हूँ,

मगर मेरी खोज

महज एक खोज बनकर रह जाती है,

जाने कब, कैसे

एक कविता बन जाती है,

मैं नहीं जानता

पर हाँ ........मैं सोचता हूँ

 

     कविता लिखने के लिए बस सोचना जरूरी है। मनुष्य होने के लिए भी सोचना जरूरी है। देकार्त ने ठीक ही कहा था - मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ। बेट्रोल्ट ब्रेष्ट की कविता है-

 

जनरल तुम्हारा टैंक एक मजबूत वाहन है

जनरल, आदमी कितना उपयोगी है

वह उड़ सकता है और मार सकता है।

लेकिन उसमें एक नुक्स है-

वह सोच सकता है।

 

आदमी का यह नुक्स ही कविता की पैदाइश के लिए जिम्मेदार है। सोच पर विराम जड़ता है और जड़ता से कविता पैदा नहीं होती। जड़ता से बचने के लिए यथास्थितिवाद का प्रतिरोध जरूरी है। कविता अवश्य ही प्रतिरोध की आवाज है। किन्तु प्रतिरोध को प्रतिशोध में नहीं बदलना चाहिए। कविता में प्रतिशोध के स्वर हिंसा को जन्म देते हैं। हिंसा का समर्थन एक कवि और मनुष्य के रूप में मेरे लिए कर सकना सम्भव नहीं है। चीर देंगे, मार देंगे, जैसी भाषा किसी कविता की भाषा नहीं हो सकती ........ यह हिंसा की भाषा है। कविता प्रेम की भाषा है, मिलन का माधुर्य है, बिछुड़न की पीड़ा है, अलगाव का दर्द है। प्रतिरोध की आवाज बनते हुए भी कविता प्रेम, दया, करूणा और अहिंसा के शाश्वत मूल्यों को नहीं भूलती। वह समाज के विरोधाभासों को कबीर की तरह उभारती है, बदलाव के लिए बात करती है किन्तु अमानवीय हिंसा को महिमामंडित नहीं करती। मुझे हमेशा लगता है कि समाज के अंतर्विरोधों को उभारकर, बदलाव के लिए समाज से सीधा संवाद करने का माध्यम है कविता। यह परिवर्तन का अहिंसक रास्ता है। मैनें अपने शीघ्र प्रकाशित होने वाले कविता संग्रह ‘अहिंसा-सर्कल’के माध्यम से यही प्रयास किया है।

 

मेरी कुछ कविताएँ-

 

(1)

मेरे उस के बीच

 

इस पार मेरे और उस पार  उस के बीच  बहुत कुछ है

अनसुना, अनकहा सा।

सड़क

सड़क पर दौडते लोग  ,

वाहनों का शोर

चीखता चिल्लाता बाजार और बडा होता जाता थोड़ा सा फासला।

रात हुई थमा शोर और

बीच सड़क हमारे हाथों में हाथ थे

दिन भर की थकान के बाद मिलन की रात

भली थी

कभी दिन ना निकलने की चाह लिए

हम लेट गये

सड़क के बीचों बीच सारी आशंकाओं को

फुटपाथ पर ढकेल कर।

यकायक

कानून    से लम्बे

कुछ हाथ झपटे और उठा ले गये दोनों को कैद कर दिया

हमें अपनी -अपनी दीवारों में। अब वह अपनी राह है

और मैं अपनी,  हमें यकीन है

किसी मुकाम पर मिल जायेंगी राहें

लेकिन उन्हें लगता है

उन्होंने सब ठीक कर दिया है।

 

(2)

चुनाव

 

बहुत मुश्किल होता है

चुनाव किसी का

आसान नहीं है

किसी के भीतर घुसकर

खंगालना उसे

पूरी तरह से ।

 

गोताखोर की तरह

भीतर समुद्र की तह में जाना

और

जमी काइयों को

अलग कर

मोती ढूंढ लाना

सरल तो नहीं होता ।

खासकर तब

जबकि हमने खुद को

नहीं बाँचा अच्छे से

अब तक।

इसलिए चुनाव होता है

बाहरी आवरण का

जो अक्सर

सजा संवरा होता है

नयी नवेली

दुल्हन के मानिंद ।

 

 

(3)

गुलमोहर की पाठशाला

 

नाना का घर जहाँ

एक पेड है गुलमोहर या यूँ कहें

कि है उनके

ज्ञान की धरोहर।

छुट्टियों  में

रोज शाम वहाँ

लगती थी पाठशाला, नाना बातों बातों में समझाते थे

जीवन का गणित और

हिसाबों का गडबडझाला।

इतिहास की

लम्बी होती थी कहानी, क्योंकि लम्बे थे

नाना के आँखों देखे घटित अनुभव,

जिन्हें सुनाते वे

अपनी जुबानी।

उनमे

गाँधी, नेहरू, विनोबा, तिलक के

किस्से थे

इतिहास  के

ना जाने कितने हिस्से थे।

 

गुलमोहर के नीचे पाठशाला में

राजनीति का हर विचार था,

साहित्य का अम्बार था। झगडे भी थे,

मसले भी थे,

पर सुलझा देता था वह जो

नाना में भरा इंसानी प्यार था।।

नाना की गुलमोहर की पाठशाला ने

सब कुछ सिखाया हमको, सच कहूँ तो

उस ज्ञान निधि ने आगे बढाया हमको

हर कठिनाइयों में

जिताया हमको।।

अब ना आांगन में गुलमोहर खडे हैं ना घर में

नाना जैसे अनुभव बड़े हैं

जो थोडे बहुत गुलमोहर बचे हैं संकीर्णताओ में धसे हैं

धन के विस्तार में फंसे हैं

 

चलो नाना सरीखे लोग ढूँढ लायें

हर आांगन

एक गुलमोहर लगायें।।

 

                                                                            
                                                                            पयोद जोशी
                        सह आचार्य, राजनीति शास्त्र, माणिक्य लाल वर्मा राजकीय महाविद्यालय, भीलवाड़ा
                                                    9414980940,  joshipayod75@gmail.com


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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