शोध आलेख : भारतीय स्त्री मुक्ति आन्दोलन और प्रतिरोध के विविध स्वरों का अध्ययन -कुमारी मंजू आर्य

भारतीय स्त्री मुक्ति आन्दोलन और प्रतिरोध के विविध स्वरों का अध्ययन

कुमारी मंजू आर्य

 

शोध सार :

स्त्री मुक्ति आन्दोलन और उसका प्रतिरोध आज सामाजिक विमर्श हैं और अपने आतंरिक स्वरूप में सांस्कृतिक विमर्श भी है। स्त्री के उत्पीड़न की कहानी सभ्यता की शुरुआत से ही परिलक्षित होती है, क्योंकि आदमी का स्वभाव शक्ति पाना और शक्ति पाने की कोशिश में वह वर्चस्व का आकांक्षी होता है । इसमें कमजोर शोषित होता है और मजबूत शासक। इस बुनियादी प्रवृति ने स्त्री को शोषण का शिकार बनाया। संयुक्त परिवार में बीस-पच्चीस लोगों के लिए रोटी पकाने की जद्दोजहद से लेकर आर्थिक रूप से स्वतन्त्र न होने के कारण वस्तु की तरह प्रयुक्त होने वाली स्त्रियों का इतिहास सामंती युग से लेकर आज के लोकतंत्र तक कमोवेश दोहराया जा रहा है। इन सभी के खिलाफ आज स्त्री प्रतिरोध का स्वर जारी है। प्रगतिशीलता के आज तमाम दावों के बावजूद समाज में स्त्री सम्बन्धी आचार-विचार में अभी भी मूलभूत अंतर उपस्थित नहीं हुआ है।           

आजादी के बाद संवैधानिक एवं क़ानूनी संरक्षण ने भारतीय समाज में स्त्रियों के लिए अनेक वर्जित क्षेत्रों में प्रवेश सुगम बनाया। किन्तु आये दिन अखबारों में स्त्रियों की अनेक कारणों से हत्या, दमन, बलात्कार जैसी घटनाएँ भी लगातार जारी हैं। वह आत्मनिर्भर एवं स्वतन्त्र स्त्री के प्रति पुरुष के दमन का ही परिणाम है। इन सभी के खिलाफ स्त्री का प्रतिरोध जारी है। आज भी स्त्री आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हो पाई है और उसके अनुरूप सामाजिक स्वाधीनता स्त्रियों को नहीं मिल पाई है बल्कि यही उसके दोहरे शोषण का कारण भी है। आज की स्त्री का इस दोहरे शोषण के विरुद्ध भी प्रतिरोध है। समाज में स्त्री भी अनेक वर्गों में बंटी हुई है और विभिन्न अलग-अलग वर्ग में एक तो समान बात है कि स्त्री का शोषण हुआ लेकिन इसके भी विभिन्न स्तर है।  इसलिए स्त्री के प्रतिरोध के भी भिन्न-भिन्न स्वरूप है जिसे भिन्न-भिन्न स्थितियों के अनुसार वह अभिव्यक्त करती है। इस प्रकार उसके दमन के विभिन्न स्तर है उसी प्रकार उसके प्रतिरोध के भी विभिन्न स्वरूप है।           

प्रस्तुत शोध पत्र के अंतर्गत यह देखने की कोशिश की गई है, कि समाज में जितने भी तरह के विभाजन मौजूद हैं उन्ही के अनुरूप स्त्रीमुक्ति आन्दोलन के स्वरूपों में किस तरह की विविधता है। समय के साथ इन आंदोलनों के मुख्य स्वरों में क्या परिवर्तन आए हैं । यह शोध पत्र नारीवादी शोध प्रविधि के माध्यम से स्त्री मुक्ति के विविध स्वरों के संघर्षों के प्रति समाज की मानसिकता को भी समझने का प्रयास करेगा।

 

बीज शब्द : लिंग भेदस्त्री मुक्ति आन्दोंलन, भारत में स्त्री आन्दोंलन का उदय, प्रतिरोध के अवधारणा और स्त्री मुक्ति आन्दोलन, सामाजिक स्तरीकरण और पितृसत्ता के विविध रूप, स्त्री मुक्ति आन्दोलन और प्रतिरोध के विविध स्वर।

 

मूल - आलेख : महिलाओं को आम जीवन में बहुत सारे सामाजिक भेद भाव को झेलना पड़ता हैं। अच्छा खाना- अच्छा पहनना सब घर के मर्दो के लिए ही होता है। एक स्त्री, स्त्री कई सारे रिश्ते में बंधी होती है सिर्फ उसका रिश्ता खुद की भावनाओं से ही नहीं होता क्योंकि कोई यह मानता ही नहीं कि स्त्री का अपना कोई सुख़- दुःख भी होता होगा। अधिकांश घरों में जो खाने की अच्छी वस्तु होती है उस पर बेटों का हक होता है, माँ अगर कहती है कि जा यह फल अपने भाई को दे, तो वह अपने भाई को फल देने चल देती है क्योंकि उसके अंदर यह चेतना ही नहीं है कि भाई के देने बजाए वो खुद भी फल खा सकती हैं। यह एक परम्परागत स्थिति है जहाँ माँ ने भी अपनी माँ से और उनकी माँ ने अपनी माँ से सीखा होगा,यानी जिस प्रकार पुरुषों को अहंकार, दमन और सत्ता समाज के द्वारा विरासत में मिली है ठीक उसी प्रकार अपने ना होने का हर पल अहसास स्त्रियों को भी विरासत मे मिली हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था “जब तक महिलाओं की दशा को सुधारा नही जायेगा तब तक विश्व कल्याण संभव नहीं है, परिंदे के लिए एक पंख से उड़ना संभव नहीं हैं।”[i] 

वर्तमान समय में स्त्री और उनके मुद्दों को लेकर कितनी - कितनी बहसें हो रही है।  स्त्रीवादी विमर्श स्त्री की मानवीय अस्मिता रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। कहने को स्त्री आधी दुनिया है लेकिन बात अगर तराजू और पैमाना लेकर पुरुष-स्त्री के बीच जमीन-आसमान,घर- समाज और संसद से सड़क को आधा-आधा बाटना नहीं चाहता हैं। वर्गो और विभिन्न सामाजिक श्रेणियों में बंटे समाज में स्त्री की हालत इसलिए भी बुरी है क्योंकि वह इन विभेदों के साथ-साथ पितृसत्तात्मक समाज को भी झेल रही हैं। आजादी के बाद देश में जो सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक बदलाव हुये उस बदलाव में स्त्रियों की साझेदारी रही है। साझेदारी से ज्यादा उसने घर और बाहर के मोर्चे पर दोहरी लड़ाई लड़ी हैं पर ये  लड़ाइयाँ इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं हुई। जो कुछ नाम दर्ज हैं वे इसलिए कि इन नामों के बिना इतिहास लिखा नहीं जा सकता था वर्जीनिया वुल्फ़ ने एक जगह लिखा है इतिहास में जो कुछ अनाम है वह औरतों के नाम है। जब-जब नियंत्रण हुआ है महिलाएँ अपने मुक्ति का रास्ता खुद ही निकालती रही है। डॉ.पायल लिल्हारे डॉ. रोहिणी अग्रवाल का हवाला देकर लिखती हैं,कि “मनुष्य की सोच और दृष्टि में अपेक्षित परिवर्तन के बिना स्त्री- मुक्ति बेईमानी है।”[ii] स्त्री- मुक्ति के लिए सर्वप्रथम पुरुष की संकीर्ण मानसिकता में परिवर्तन करना अत्यंत आवश्यक हैं, तभी वह स्त्री को एक ‘वस्तु’ न मानकर मनुष्य का दर्जा दे पायेगा। रेखा कस्तवार लिखती हैं ‘‘साहित्य जगत में विगत दस वर्षों में स्त्री का समाज के केन्द्र में आना और उससे आगे बढ़कर विचार के केन्द्र में आना हमारे आर्थिक सामाजिक विकास का परिणाम है। इन दस वर्षों में स्त्री मुक्ति के सभी प्रश्न उठे, आयोग बने, कानून बदले, नए कानून बने। जनसंचार, पत्रकारिता, शिक्षा, तकनीकी क्षेत्र, व्यापार के क्षेत्र में पढ़ी लिखी महिलाओं ने एक महत्त्वपूर्ण स्थिति दर्ज की।’’[iii] स्त्री चाहे किसी भी वर्ग की हो वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था की मार सहती ही है। आज स्त्री शिक्षित हुई है, वह पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही है। भूमंडलीकरण के दौर में स्त्री घर से बाहर निकली और आर्थिक रूप से स्वावलम्बी हुई, कई ऐसे क्षेत्र थे जहां स्त्रियों को जाना वर्जित था, वहां वे आज अपनी भूमिका निभा रही हैं। शिक्षा एवं रोजगार ने उसके जीने का नजरिया बदला। 

स्त्री संघर्ष का इतिहास काफी पुराना रहा हैं या कहें तो स्त्री शोषण के साथ ही उनका संघर्ष की शुरुआत होती हैं। महिलाओं को जीवन के हर क्षेत्र में समानता का अधिकार दिलाने का प्रयास और उनके स्वस्थ और खुशहाल जीवन के प्रयासों इत्यादि को नारीवाद के रूप में जाना जाता हैं। स्त्रियों की आजादी का पहला पाठ संयुक्त राज्य अमेरिका के मैसाच्यूएट्स राज्य में 1611 में वोट देने का अधिकार से शुरू हुआ। इसके लिए भी उन्हें संघर्ष करना पड़ा था। मगर दुर्भाग्य यह रहा कि कुछ स्त्री विरोधी विचारकों की वजह से उनका यह मताधिकार इसी राज्य में1780 में वापस ले लिया गया था। इन निर्णयों से दुनिया में स्त्रियों के समर्थन और विरोध के स्वर एक साथ गुजने लगे थे। जहाँ उदारवादी पुरुष समुदाय स्त्रियों की स्थितियाँ सुधारने का प्रयास कर रहा था तो अनुदारवादी वर्ग उनके कदमों को पीछे खींच रहा था। स्त्रियों के अधिकार माताधिकर, शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों की शुरुआत से उन्हे संगठित करने की मांग उठी। किसी भी संगठन और संघर्ष को मूर्त रूप शिक्षा के पाठ से प्रारम्भ होता है। यह बात भारत मे डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलितों के विकास के लिए तीन सूत्र देकर कही थी। शिक्षित हो, संगठित हो,और संघर्ष करों।[iv]उन्होंने शिक्षित होने की बात पहले की थी। स्त्री मुक्ति के बारे में भी यही फार्मूला लागू होता है। वे शिक्षित होंगी तो संगठित भी होंगी और अपने हकों के लिए संघर्ष भी कर सकती हैं।

           नारी मुक्ति या नारीवादी चिंतन पश्चिमी विचारधारा के शब्द भले हो। मगर पूरी दुनिया की स्त्रियाँ दोयम दर्जे का जीवन जीती रही है। अशिक्षा की मार के साथ-साथ घरेलू हिंसा का शिकार होती रही। आर्थिक रूप से पराधीन तो बनी ही रही। आज भी स्त्रियों की बड़ी आबादी खासकर दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग की स्त्रियाँ वर्ग संघर्ष कर अधिकार प्राप्त करना तो चाहती है पर सफलता गिनती मात्र की मिलती है। वर्तमान में सबरीमाला का उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद भी स्त्रियाँ मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन कर रही है। कामाख्या पीठ भी उन्हें कुछ समय के लिए इजाजत नहीं देता। महाबारी के समय घर से बाहर कर सबसे अलग थलग कर देना विज्ञान को खुली चुनौती देता है। स्त्रियों में पहले गुलामी से मुक्ति की छटपटाहट पैदा हुई और उन्हें आजादी भी मिली। आज नारी मुक्ति से आशय एक वर्ग देह मुक्ति से जोड़ कर देखता है परंतु बीसवीं सदी के लगभग मध्य मे सिमोन  द बोउवारस्त्री मुक्ति की मुख्य पैरोकार के रूप मे उभरी थी। दुनिया में उन्होंने अपना मुकाम बनाया था। जिसका दुनिया की उन सभी चेतनशील स्त्रियों पर प्रभाव पड़ा जो शिक्षित थी और जो स्त्री मुक्ति के सपने देखती थी। भारत की कुछ जागी हुए शिक्षित स्त्रियाँ उनके सिद्धान्त को अतिवादिता से भी जोड़ती थी। सिमोन दुनिया की औरतों से कहती थी कि स्त्री पैदा नहीं होती बना दी जाती हैं।[v] यह वह विचार था जो स्त्रीत्व के बोध से मुक्ति चाहता था। लेकिन इसके चिंतन मे स्त्री को आत्मनिर्भर बनाना पहली शर्त थी। तभी वह अपनी मुक्ति की वास्तविक लड़ाई लड़ सकती है। उन्होंने एक स्त्री के बारे मे कही थी जो सीधे- सीधे दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग कि स्त्रियों से जुड़ती हैं। वे कहती हैं स्त्री अधीनस्थ जाति हैं। जाति का अर्थ है कि कोई उस जाति में उत्पन्न हुआ है और उससे बाहर नही जा सकता। जब कि सिद्धांतत: एक व्यक्ति एक वर्ग से दूसरे वर्ग में स्थानांतरित हो सकता हैं। लेकिन यदि आप औरत है तो कभी पुरुष नही बन सकती। और विशुद्ध रूप से एक जाति है, वर्ग नही। आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से औरतों के साथ होने वाला व्यवहार उन्हें एक अधीनस्थ जाति के रूप में निर्मित करता हैं।[vi]यहाँ स्त्रियों की स्थिति दलित जैसी ही हैं।

 ज्ञानेन्द्र रावत ने अपनी पुस्तक औरत अस्मिता और यथार्थ में कहते  है किआदिम समाज में नारी का स्वतंत्र और सम्मानजनक आस्तित्व था, इसकी पुष्टि सिंधु-उपत्यका से प्राप्त नारी मूर्तियों से होती है। बहुसम्मत विचारों के अनुसार ये महामातृ देवी (महीमाता) या मातृरूप में स्थिति प्रकृति की मूर्तियाँ हैं। यह भारत के धार्मिक अनुश्रुति के अनुकूल भी है जहाँ अनादिकाल से मातृदेवी, आदीशक्ति या प्रकृति की पूजा प्रचलित रही है जिसे वेदों में पृथ्वी या पृथिवी कहा गया है। यही ऋग्वेद के आदित्यों की माता अदिति है। आर्य और अनार्य दोनों प्रकार की भारतीय प्रजा भुइयाँ आदि ग्राम देवियों से लेकर आज तक इसी अम्बिका या मातृदेवी के नाना रूपों की पूजा करती आई हैं।[vii]           

भारत में स्त्री मुक्ति आंदोलन के बारे में प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका लिखती हैं-भारत मे स्त्रीवादी आंदोलन के तीन चरण थे। उन्नीसवीं शताब्दी मे पंडिता रामबाई, ज्योतिबा फूले, सावित्री बाई फूले, राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि ने स्त्री- शिक्षा और स्वावलंबन की मुहिम का मार्ग प्रशस्त किया। कई ऐसी रूढ़ियाँ तोड़ते हुये जो स्त्रीजीवन, खासकर विधवाओं और अन्य एकाकी स्त्रियों का अंतरंग जीवन क्षत- विक्षत रखती थी।[viii] 

भारत में सभी वर्णों की स्त्रियों की मुक्ति की व्यवस्थित और कानूनी लड़ाई डॉ. भीमराव अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिलदेकर लड़ी थी। इस बिल के तहत पुत्र के समान पुत्री को भी पिता की संपत्ति में अधिकार देने की बात कही गई थी। विवाह और तलाक के अधिकारों की मांग भी थी। जिसे तत्कालीन संसद ने यह बिल पास नही होने दिया था। जिससे निराश होकर डॉ.भीमराव अंबेडकर ने कानून मंत्री पद से 10 अक्टूबर 1951 को इस्तीफा दे दिया था। इससे उन्हें बहुत दु:ख पहुँचा था। इस बिल का विरोध करने वाले हिन्दू समाज के करपत्री जी जैसे साधू संत थे जो नहीं चाहते थे कि उनकी बेटियों को आर्थिक रूप से पिता कि संपत्ति में से कानूनी हक मिले और उनकी स्थिति सुधरे। वे आजाद भारत मे भी अछूतों की तरह स्त्रियों पर भी हिन्दू वर्ण व्यवस्था के कानून को लादना चाहते थे। बाद मे यह हिन्दू कोड बिलटुकड़ों में पास हुआ था। व्यवहारिक रूप से स्त्रियों को आज भी उनका हक नही मिलता हैं अछूत स्त्रियों पर भी वही कानून लागू होता हैं। 

“भारतीय स्त्री मुक्ति आंदोलन अपने विकास के दौरान जहाँ बहुत सारे सामाजिक, धार्मिक रूढ़ियों, जड़ताओं कुप्रथाओं और पाखण्डों से मुक्त हुई है, वही उसके सामने वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नई चुनौतियां भी उत्पन्न हुई है। जो परंपरागत कुरीतियों से अधिक घातक सिद्ध हो रही हैं। भारत में भूमंडलीकरण के कारण भी बहुत सी नई समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। नए रूप में स्त्री देह व्यपार, भ्रूण - हत्या, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, घरेलू हिंसा, कुपोषण, हिंसा-अपराध, हत्या-आत्महत्या, विस्थापन, निरक्षरता, सांप्रदायिकता, महिलाओं का वस्तुकरण, परिवार का बिखरना जैसी अनेक भयावह स्थितियाँ सामने खड़ी है। साथ ही बहुत-सी पुरानी परम्पराएँ  कुप्रथाएँ भी आज तक कायम हैं जो स्त्री सशक्तीकरण में अवरोधक हैं। साथ ही गरीबी, जातिवाद, कुपोषण, स्वास्थ्य की असुविधाओं का अभाव आदि है जो जेंडर विभेद के कारण समाज में मौजूद है। यह एक चिंताजनक बात है कि जब एक ओर तमाम महिला संगठनों, महिला स्वयंसेवी संस्थानों की संख्या बढ़ रही है, तब हम देख रहें हैं उसी के साथ- साथ महिलाओं के साथ शोषण व अत्याचार भी बढ़ रहा है। चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया, रोज प्रचार माध्यमों मे स्त्रियों पर हिंसा की कोई ना कोई ताजी खबर जरूर रहती हैं। महिला आन्दोलनों से जुड़ी कार्यकर्ताओं के बीच, महिला बुद्धिजीवियों के सामने यह एक जटिल प्रश्न है कि स्त्री मुक्ति आंदोलन की दिशा कौन- सी होनी चाहिए ? क्या करने से महिलाओं की पीड़ा और समस्याएँ कम हो जायेंगी? आज स्त्री मुक्ति आंदोलन के सामने कई चुनौतियाँ है। लेकिन इस पर सोचने के पहले हमें अपना इतिहास परखकर देखना जरूरी है।”[ix] 

परिवार और समाज दोनों ही जगहों पर स्त्रियाँ पराधीन या उत्पीडित रही है वह इन समस्याओं से मुक्त होना चाहती है इसके लिए कोशिश भी कर रही है। लेकिन स्त्रियों ने जब भी अपनी बेहतरी के लिए कुछ करने का प्रयास किया तो उसे धर्म के रूढ़िवादी परंपराओं अंधविश्वासों के नुमाईंदों ने उसे फौरन वेद- पुराण, कुरान,बाईबल आदि का हवाला देकर महिलाओं को चुप कराने की कोशिश की गई हैं। ईश्वरी सत्ता का झूठा डर दिखाकर स्त्रियों का हमेशा शोषण किया गया। रेखा कस्तवार लिखती हैं कि “स्त्रियों की गुलामी इस मायने में दोहरी थी कि वे एक ओर भारतीय समाज का हिस्सा होने के नाते विदेशी गुलामी की शिकार तो थी ही। इसके साथ- साथ पुरुषों द्वारा तथा उनके द्वारा नियंत्रित गुलामी झेलने को अभिशप्त थी।”[x]लेकिन स्त्रियाँ भी कहाँ हिम्मत हारने वाली थी। गुलाम आखिर सपने देखना बंद नहीं करते स्त्रियों का हालत भी किसी गुलाम से कम नहीं थी और न है। स्त्रियों ने अपने अधिकार की लड़ाई हमेशा लड़ी। इसके लिए काफी प्रयास भी किया। यह अलग बात है कि उसके हर प्रयास को पितृसत्ता ने दबा रखा। कुछ महत्त्वपूर्ण आत्मकथाओं ने उनका मनोबल बढ़ाया वहीं कुछ बागी महिलाओं ने शोषण का पुरजोर विरोध कर यह साबित कर दिया कि बहुत दिनों तक उन्हें गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता है। भारत में प्रतिरोध के अवधारणा और स्त्री मुक्ति आन्दोलन के लिए नारीवादियों ने पितृसत्ता के खिलाफ समाज के प्रति जो विविध स्वरों का संघर्ष कर रही है  ये विचार आज भी प्रेरणास्रोत की तरह हैं।

 

निष्कर्ष : नारीवादी आंदोलन की सबसे बड़ी जीत थी स्त्री देह से आगे जाकर देखना। सेक्स और लिंग दो अलग-अलग चीजें है,यह समझाने में लंबा समय लगा। लिंग के आधार पर स्त्री एक विशिष्ट प्रकार की हिंसा झेलती है। नारीवाद इसी दमन के विरुद्ध स्त्री-मुक्ति और उसकी सामूहिक चेतना के विकास के लिए संघर्ष कर रहा है। पर बात यही खत्म नहीं होती। उसकी लड़ाई दुनिया में स्त्री को मनुष्य का दर्जा दिये जाने के लिए हैं। स्त्री आंदोलन का पहला पक्ष है वर्चस्व विहीन समाज की स्थापना।   ब्राहमणवादी व्यवस्था के चंगुल से स्त्री को मुक्त करना भारत के नारी आन्दोलन का प्रमुख कार्यभार है। पितृसत्ता से मुकम्मल मुक्ति के लिए जरूरी है मनुवादी व्यवस्था का उन्मूलन। इस तरह भारत में जाति उन्मूलन और नारी मुक्ति की लड़ाई एक सहधर्मी लड़ाई बनकर उभरती जा रही है। स्त्री संघर्ष की गाथा जब-जब भी लिखी जाएगी। तब-तब स्त्री-मुक्ति की सामाजिक परंपरा में एक नया अध्याय जोड़ा जाएगा।

 

संदर्भ : 



[i] दीपक कुमार कमाने भावना सुश्री डॉ., (श्रीमती) डॉ. (सं.). सिन्हा शशिकला 2016 ). महिला सशक्तिकरण का वर्तमान परिदृश्य, समता प्रकाशन बजरंग नगर, रूरा कानपूर देहात 209303: पृ. सं. 52 

[ii] सागर राजमोहिनी डॉ., (सं.) (2021). समकालीन साहित्य स्त्री विमर्श. सोनिया बिहार दिल्ली: साहित्य संचय प्रकाशकपृ. सं. 133   

[iii]कस्तवार,रेखा. 2016).स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. पृ. सं.18,19 

[iv] हिलसायन, सुधीर अप्रैल  (सं.).  (2014). सामाजिक परिवर्तन के महानायक डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर. नई दिल्ली: न्याय सन्देश पृ. सं.59   

[v]हिलसायन, सुधीर अप्रैल  (सं.).  (2014). सामाजिक परिवर्तन के महानायक डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर. नई दिल्ली: न्याय सन्देश पृ. सं.59   

[vi]हिलसायन, सुधीर अप्रैल  (सं.).  (2014). सामाजिक परिवर्तन के महानायक डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर. नई दिल्ली: न्याय सन्देश पृ. सं.60 

[vii] रावत, ज्ञानेद्र  (2006). औरत अस्मिता और यथार्थ नई दिल्ली: क्रांति बुक सेंटर पृ. सं.287 

[viii]हिलसायन, सुधीर अप्रैल  (सं.).  (2014). सामाजिक परिवर्तन के महानायक डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर. नई दिल्ली: न्याय सन्देश पृ. सं.

[ix]http://streekaal.com/2016/07/womenliberationmovemen 

[x]कस्तवार,रेखा. (2016).स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. पृ. सं. 72

 

कुमारी मंजू आर्य

शोधार्थी, स्त्री अध्ययन विभाग, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय

मैदान गढ़ी, नई दिल्ली, भारत 110068

7218245802,8669090630, aryamanju35@gmail.com


                        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

चित्रांकन : प्रकाश सालवी, Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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