शोध आलेख : लोक गाथाओं का सैद्धांतिक विवेचन : भारत गाथाओं के विशेष संदर्भ में -योगेंद्र कुमार श्रीमाली

लोक गाथाओं का सैद्धांतिक विवेचन : भारत गाथाओं के विशेष संदर्भ में

योगेंद्र कुमार श्रीमाली

 

शोध  सार :


लोक गाथाएँ जनसमुदाय, लोक संस्कृति एवं विभिन्न जातियों की अमूल्य धरोहर है। इन गाथाओं में लोक मानस के उल्लास, हर्ष, विषाद और अन्य भाव समायें होते हैं। इनके मूल में प्रेम, वीरता, नैतिकता एवं आध्यात्मिकता निहित होती है। लोक गाथाओं की वीरकथात्मक गाथा शैली मेवाड़ अंचल मेंभारत गाथा, ‘ढाक, ‘राईनाम से जानी जाती है। इन गाथाओं में महान चरित्र, आर्दश एवं सर्वगुण सम्पन्न नायक-नायिकाओं, लोक देवी-देवताओं की अलौकिक वीरता एवं युद्ध वीरता का चित्रण मिलता है। राजस्थान की भूमि वीरों की भूमि है, जहां के कण-कण में वीरकथात्मक गाथाएँ मिलती हैं। इसलिए राजस्थान लोक गाथा की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध एवं संपन्न है। राजस्थान की लोक संस्कृति लोक मानस के सहज, सरल, सुहावनी, मनमोहिनी अभिव्यंजना को प्रस्तुत करती है। इन भारत गाथाओं में राजस्थानी लोक संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों का सांगोपांग चित्रण मिलता है। प्रस्तुत शोध पत्र में राजस्थान के मेवाड़ अंचल में प्रचलित प्रमुख भारत गाथाओं का सामाजिक-सांस्कृतिक एवं सैद्धांतिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है।

 

बीज शब्द : लोक गाथा, भारत गाथा, लोक संस्कृति, लोक साहित्य, धार्मिक गाथा, लोक परंपराएँ

 

मूल - आलेखहिंदी साहित्य के क्षेत्र मेंशिष्ट साहित्यतथालोक साहित्यदो अलग-अलग विस्तृत क्षेत्र है। शिष्ट साहित्य निश्चित रूप से लिखित साहित्य होता है जबकि लोक साहित्य मौखिक और लिखित दोनों रूपों में उपलब्ध होता है। लोक साहित्य सामान्यतया मौखिक परम्परा में अधिक रहा है तथा मौखिक परंपरा द्वारा ही अनवरत पीढ़ी दर पीढ़ी, स्थान दर स्थान प्रचलित एवं परिवर्तित होता रहता है। लोक साहित्य का शाब्दिक अर्थलोक अर्थात् जनता का साहित्यहै जिसकी रचना किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा होकर जनसमूह द्वारा मानी जा सकती है। जनसमूह की भावनाएँ हर्ष, विषाद, भय, प्रेम, वीरता आदि की सामूहिक अभिव्यक्ति लोक साहित्य की इन विधाओं में होती है।

 

लोक साहित्य समाज एवं लोक की विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का भी अध्ययन प्रस्तुत करता है। यह अध्ययन केवल वर्तमान साहित्य अथवा भाषा पर ही प्रकाश नहीं डालता बल्कि समाज की गति तथा परिवर्तनशीलता को भी समाहित करता है। लोक साहित्य एक विशाल क्षेत्र है, जिसका विभिन्न दृष्टिकोण से अध्ययन किया जा सकता है। यह समाज विशेष के विभिन्न पक्षों से अवगत करवाता है। लोक साहित्य में मानव जीवन के दु:-सुख, रहन-सहन, संस्कृति, लोक व्यवहार, तीज त्योहार, खेती-किसानी आदि की मार्मिक और निश्छल अभिव्यक्ति मिलती है। लोक साहित्य मानवीय भावनाओं की अलिखित मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है।    



लोक साहित्य की विभिन्न विधाएँ लोकगीत, लोकनाट्य, लोक कथाएँ, लोक गाथाएँ, धर्म गाथाएँ, नौटंकी, रामलीला, रासलीला आदि लोक संस्कृति के मूल आधार है। लोक साहित्य के क्षेत्र में राजस्थान की लोक परम्पराओं का विशिष्ट स्थान है।राजस्थानी लोक साहित्य सनातन आस्थाजीवी, परम संस्कारी, परम सहज, स्वाभाविक, उन्मुक्त एवं शाश्वत अनुरागी भावों की अप्रतिम अभिव्यंजना, नैसर्गिक अभिव्यक्ति तथा अनुपम स्वत: स्फूर्त उद्गारों की रमणीय सृष्टि है। इसकी समस्त भाव विधाएँ अनगढ़ रत्न की तरह स्वाभाविक दीप्ति से आलौकित है। लोकगीतों की रमणीय सृष्टि लोकगाथा तथा धर्म गाथाओं की चतुर्वर्गीय भाव वृष्टि लोकमानस को अमृत स्नान करा देती है।

 

[1] लोक मानस के अनुरूप लोक गाथाएँ लोक साहित्य की प्रमुख विधा है, जिसमें वीरकथात्मक, प्रेमकथात्मक एवं भक्तिमय रचनाएँ सम्मिलित है। 

लोक गाथालोक+गाथासे बना हुआ है जिसका अंग्रेजी शब्दबैलेडरूढ एवं सर्वमान्य हो गया है।बैलेडशब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा केवेप्लेरशब्द से मानी गयी है जिसका अर्थनाचनाहोता है। वर्तमान समय में इसका प्रयोग लोक गाथा के लिये ही किया जाने लगा है।बैलेडलोक गाथाओं में कथानक दीर्घ होता है। मूलत: गीतात्मक कथाएँ लोक गाथाएँ होती है जिनमें गद्य-पद्य की मिश्रित शैली होती है। विभिन्न देशों एवं प्रदेशों में गाथा के लिए अलग-अलग नाम मिलते हैं। इंग्लैंड तथा फ्रान्स में इसेबैलेड, स्पेन मेंरोमेन केरो, जर्मनी मेंफोक स्लाइडरडेन्मार्क मेंफोक वाइजरगुजराती मेंकथागीततमिल मेंकदै पाडल, असमिया मेंमालिता, मराठी, ब्रज, भोजपुरी तथा राजस्थानी, गढ़वाली मेंपंवाडाकहते हैं।

 

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में लोकगाथा की परिभाषा देते हुए कहा गया हैलोकगाथा एक ऐसी पद्य शैली है जिसका सृजन अज्ञात होता है।”[2]

 

प्रोफेसर कीट्रीज का मत है किबैलेड वह गीत है जो कोई कथा कहता हो अथवा दूसरी दृष्टि से विचार करने परबैलेडवह कथा है जो गीतों में कही गई है।”[3]

 

न्यु इंग्लिश डिक्शनरी के सं. डॉ. मरे के अनुसारबैलेड वह स्फूर्तिदायक या उत्तेजनापूर्ण कविता है जिसमें कोई जनप्रिय आख्यान रोचक ढंग से वर्णित हो। अर्थात् लोकगाथा में स्फूर्ति, उत्तेजना होती है। लोगों में प्रिय कथा को रोचकता से कहा जाता है।”[4]

 

कृष्ण देव उपाध्याय के अनुसार, “बैलेड के लिएलोक गाथाशब्द का प्रयोग अधिक समचीन है।”[5]

 

आचार्य नगेन्द्र के अनुसार, “किसी वीर की शौर्यपूर्ण साहसिक कथाएँ वास्तविक रूप से घटित हुई हो तो लोक गाथा बन जाती है। ये लोक कथाओं के रूप में प्रचलित हो जाती है।”[6]

कृष्णदेव उपाध्याय ने लोक साहित्य की भूमिका  में लिखा है किहमारी संपत्ति में लोक गाथा शब्द अधिक भावाभिव्यंजक है।"[7]

 

"लोक गाथा वह सरल वर्णनात्मक गीत है जो लोक मात्र की संपत्ति होती है। वर्णनात्मकता, कथात्मकता, मौखिकता एवं सरलता ये लोक कथा के मुख्य तत्त्वों के रूप में माने जाते हैं। लोक गाथा साधारणजनों द्वारा रचित होती है जिसका मुख्य उद्देश्य उन्हीं की भावनाओं को अभिव्यक्त करना होता है।”[8]

 

बेलैड वह कथात्मक  काव्य है जो या तो लोक कंठ में ही उत्पन्न और विकसित होता है या लोक गाथा के सामान्य रूप विधान को लेकर किसी विशेष कवि द्वारा रचा जाता है जिसमें गीतात्मकता तथा कथात्मकता दोनों होती है और जिसका प्रचार जनसाधारण में मौलिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होता रहता है।”[9]

 

राजस्थानी लोक गाथाएँ विषय की दृष्टि से चार प्रकार की है- वीरकथात्मक, प्रेमकथात्मक, रोमांच कथात्मक एवं नियति कथात्मक। इन चारों प्रकार की लोक गाथाओं में अलग-अलग विषयों का प्रतिपादन किया गया है। अतः इनमें भिन्नता होना स्वाभाविक है परंतु इस भिन्नता के बाद भी संदिग्ध ऐतिहासिकता, अलौकिक घटनाओं की प्रधानता, वचन निर्वाह, युद्ध की अधिकता, विभिन्न लौकिक एवं अलौकिक पात्र आदि इनकी सामान्य विशेषता है।”[10]

 

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि लोक गाथाएँ जनमानस के सरल हृदय के वर्णनात्मक गीत है जो लोक के सामूहिक प्रयासों की अमूल्य धरोहर है। कृष्ण देव उपाध्याय के अनुसार, “परंपरागत रूप से चला रहा यह साहित्य जब तक मौखिक रहता है तभी तक इसमें ताजगी तथा जीवन पाया जाता है। लिपि की कारा में व्यक्त करते है तो उसकी संजीवनी शक्ति नष्ट हो जाती है।लोकवार्ता की भांति जनसमूह के मुख पर विराजित हो ये गाथाएँ निरंतर प्रवाहमान होती है।

 

लोक गाथा में किसी महान चरित्र, आदर्श व्यक्तित्व, सर्वगुण संपन्न नायक या देवी-देवताओं के संपूर्ण जीवनवृत्त के धार्मिक एवं ऐतिहासिक इतिवृत्त से संबंधित कथानक को लोक गीत, लोक भाषा, लोक नृत्य और लोक वाद्य द्वारा गद्य और पद्य शैली में बड़ी ही रोचकता, सरलता एवं सहजता के साथ प्रस्तुत किया जाता है। लोक गाथाओं का उद्देश्य इन महानायकों, देवी-देवताओं के आदर्शों, कर्तव्यनिष्ठा, सद्गुणों, वचनबद्धता को लोक मानस के सम्मुख उजागर करना है। इन लोक गाथाओं के पीछे विभिन्न जातियों की आस्था, लोक मान्यता, लोक विश्वास आधारशिला होते हैं। लोक गाथाओं में लोक संस्कृति के तत्त्वों का समावेश मिलता है।

 

समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था, रीति-रिवाज, परंपराएँ, प्रथाएँ, कुप्रथाएँ, तंत्र-मंत्र, शगुन-अपशगुन, नियम-कानून, टोने-टोटके आदि से भी इन गाथाओं में अवगत कराया जाता है। लोक संस्कृति लोक गाथा के कथानकों एवं गायन शैली में ही सुरक्षित है। लोक गाथा में लोक जीवन के साथ लोक व्यवहार, परंपराएँ, रीति-रिवाज और जीवन के विभिन्न रंगों की झांकी देखने को मिलती है। लोक गाथाएँ लोक संस्कृति और समाज का जीता-जागता खजाना है, जिनमें अतीत, वर्तमान और भविष्य से संबंधित लोक मान्यताएँ, लोक विश्वास, लोक परंपराएँ आदि संचित और सुरक्षित रहते हैं।

 

लोक गाथाओं में मुख्यतः वीर रस प्रधान कथानक की प्रधानता होती है, साथ ही ये कथानक पौराणिक धर्मग्रंथों एवं ऐतिहासिक पात्रों से संबंधित होते हैं। लोक गाथाओं की वीरकथात्मक शैली मेवाड़ अंचल मेंभारत गाथा, ‘ढाक, ‘राईआदि नामों से जानी जाती है। भारत गाथाएँ धार्मिक पौराणिक कथानक आधारित वीरकथात्मक गाथाएँ होती हैं।हमारे यहाँ लोक देवी-देवता शक्ति के अवतार माने गये हैं। इनके उद्भव, विकास और यशनामचों के सन्दर्भ में कई सारे गीत, लम्बी-लम्बी गाथाएँ तथा कथा-किंवदंतियाँ लोक जीवन की आस्था-सम्पदा बनी हुई हैं। इन देवी-देवताओं का अध्ययन, ज्ञान-विज्ञान के कई पक्षों को पुष्ट-समृद्ध करता है। नवरात्र के दिनों में इनके मंदिर, गृहों, देवरों में रात-रात भर जागरण चलता है और श्रद्धालु भक्त इनकी यशपरक गाथाएँ गाता है। ये यशगाथाएँभारतनामक विशेष विधा की द्योतक हैं।”[11]

 

महेंद्र भाणावत के अनुसार, “देव-देवियों तथा विशिष्ट व्यक्तियों के यशगान से संबंधी जो गायकी (गाथा) इधर मेवाड़ में प्रचलित है वहभारतनाम से प्रसिद्ध है।”[12]

 

लोकगाथानाम का जो प्रयोग हमारे प्रचलन में हैं, वह हमारा अपना है लोक जीवन का नहीं। लोक जीवन में इसकाभारतनाम मिलता है जो बहुत ही सुंदर और उपयुक्त है।”[13]

 

राजस्थान के मेवाड़ भारत गाथाओं के समृद्ध भंडार हैं। जिनका गायन यहां की विभिन्न जातियों के भक्तों एवं श्रद्धालुओं द्वारा विशेष अवसरों पर किया जाता है। भारत गाथाओं का गायन मेवाड़ से लेकर गुजरात राज्य में भी किया जाता है। गुजरात के डूंगरी क्षेत्र के भीलों में भारत गायन की परंपरा मिलती है लेकिन ये मेवाड़ में गाए जाने वाले भारत से भिन्नता रखते हैं।

 

ये गाथाएँ देवी-देवताओं की स्तुति, यशगाथा एवं मनौती आदि की प्रतिष्ठापक हैं। भारत गाथाओं का मूल पाठ स्थानीय भाषा में विशिष्ट गायकी के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। भारत गाथा गायक कलाकार भोपे कहलाते हैं। नवरात्र एवं रात्रि जागरण के समय बोलमा करवाने वाले भक्तगणों द्वारा भारत गाथा का वाचन करवाया जाता है। नवरात्र के दिनों में देवी-देवताओं के देवरों, मंदिरों में संबंधित लोक देवी-देवताओं के भारत गाये जाते हैं। भारत गायन के समयढाकनामक वाद्य का प्रयोग किये जाने के कारण इन्हें ढाक भी कहा जाता है। श्रद्धालुगण भक्ति रस का आस्वादन कर इन भारतों का श्रवण करते हैं। भारत गाथाओं का श्रवण करना मेवाड़ अंचल में धार्मिक कर्तव्य माना जाता है।

 

भारत गाथा गायन के समय भोपों में देवी-देवताओं के भाव एवं छाया आना या भोपे द्वारा शक्ति धारण करना माना जाता है। वे देवरों पर आए जातरियों से सवाल-जवाब कर उनके कष्टों का निवारण करते हैं। नवरात्र के दिनों में भारत गाने का क्रम निरंतर चलता रहता है। मेवाड़ अंचल में अन्य अनुष्ठानों की भांति ही नवरात्र के इस अनुष्ठान को भी अत्यंत धर्म भाव के साथ मंदिर एवं देवरे के चबूतरों पर ही संपन्न किया जाता है। मेवाड़ अंचल में विभिन्न देवी-देवताओं के अनेक भारत जैसे- जोगमाया रो भारत, रूपण माता रो भारत, हटिया दाणी रो भारत, कालका माता रो भारत, मामा देव रो भारत, बड़ल्या रो भारत, मीणा रो भारत, ताखा अंबाव रो भारत, देवनारायण रो भारत, कालका माता रो भारत, काला गोरा रो भारत, पांडवा रो भारत, नौरता रो भारत, तेजाजी रो भारत आदि प्रचलित है।  जिनमें देवनारायण रो भारत, काला गोरा रो भारत, तेजाजी रो भारत, ताखा अंबाव रो भारत प्रमुख है।

 

भारत गाथाएँ मेवाड़ क्षेत्र के सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की सच्ची रक्षक है। सामाजिक आधार पर उत्सव, परंपराओं, पारस्परिक संबंधों, लोक-विश्वासों, रीति-रिवाजों, अंधविश्वासों के जीते-जागते उदाहरण भारत गाथाओं में देखे जा सकते हैं। भारत गाथा तत्कालीन समाज और संस्कृति के यथार्थ स्वरूप को प्रस्तुत करती है जिसमें इनके कथानक में विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं एवं रूढ़ियों का स्पष्ट समावेश मिलता है। सामाजिक रूप से विभिन्न संस्कार, व्रत-त्योहार, अनुष्ठान आदि प्रथाओं से संबंधित भंडार भी भारत गाथाओं में मौजूद है। भारत गाथाएँ समाज की सांस्कृतिक विशेषताओं को उद्घाटित करती है जिससे उनका सामाजिक योगदान और भी अधिक बढ़ जाता है।

 

भारत गाथाओं में पूजा-पाठ सम्बंधी रीति-रिवाज परम्पराओं को निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है  यथा- “देखो राजा म्हूं कुवारी व्हेती पीपल पूजती ओ। राजा म्हूं कुवारी व्हेती पीपल पूजती जी।”[14]

 

यो भायां रे म्हारा गणपत जोधा रा लीजे नाम। यो भायां रे म्हारा गणपत जोधा रा लीजे नाम। मंडल्यां में वेगो प्राव नो वारी ए। यो भायां रे म्हारा माता सारद रो लीजे नाम।”[15]

 

गजानंद के तेल सिंदूरां देवी के दाड़ी बोकड़ा जी। गजानंद पुसपां की मालां देवी के सुगनी केवड़ा जी। गजानंद के बागो चड़ावो देवी के चंदवा चांदणि जी। गजानंद के लाडूड़ा चड़ावो देवी के चकल्या चूरमा जी। गजानंद के गूगल गालो देवी के दूध्या खोपरा जी। भाग फाटी ने दनड़ो ऊगो बोल्या केसर कूकड़ा जी।”[16]

 

आलोच्य भारत गाथाओं के चामत्कारिक नायक-नायिकाएँ लोकमानस में देवी-देवताओं के रूप में प्रतिष्ठापित है। इन नायक-नायिकाओं का शौर्य और पराक्रम ही नहीं बल्कि गुण और सदाशयता भी किसी शास्त्रीय और उच्च कुल गोत्र मूल के नायकों से कमतर नहीं है। दरअसल समाज में जनजातियों की हीन और दयनीय स्थिति के प्रतिक्रिया स्वरूप ही इन नायकों का सृजन हुआ था जिससे ये लोग अपने जीवन की समस्याओं के प्रति इन नायकों के जीवन से प्रेरणा ग्रहण कर सके। यथा- “माता साढू हाथी, घोड़ा बगड़ावतों के भाट छोछू को लेकर हीरां के साथ मालासेरी की पहाड़ी पर पहुंची। वहाँ जाकर उसने बालक के रूप में साक्षात भगवान के दर्शन किये। यही बालक देवनारायण था।”[17]

 

इन गाथाओं में लोक देवी-देवताओं, साधरण जन के वेशभूषा, आभूषण एवं खान-पान को निम्न व्यक्त उदाहरणों से समझा जा सकता है यथा-

 

बाल-बाल में मोती पेरै ये पगल्यां झांझर बांधे

पगल्यां झांझर बांधे जी जवालाजी...”[18]

कमर चौरसियां बंधी पगल्या रा घुंघरु बाजे

भेरू घुघरा घमकावै जी जवालाजी.... ”[19]

उठौ लाडा कांसै वराजौ वोपारी म्हारा भावतड़ा अरोगौ लाडू मिसरी खांड का।”[20]

 

आए भाभ्यां मन्त्रै पायौ खाटी राबड़ी।

थां तौ म्हानै जी पाया या खाटी राबड़ी

म्हारा ऊदल सारू जी सूखा टुकड़ा ओ।”[21]

           

भारत गाथाओं का मूल लोक परंपरा एवं लोक विश्वासों पर टिका हुआ होता है। इन भारत गाथाओं में उस समय के सामाजिक अंतर्द्वंद्व, उससे उत्पन्न समस्याओं तथा संघर्ष का अत्यंत रोमांचक, भावपूर्ण और हृदयस्पर्शी दृश्य प्रस्तुत किया गया है। इन गाथाओं में लोक देवी-देवताओं के प्रति अटूट विश्वास को प्रस्तुत किया गया है, ‘भेरूकी मेवाड़ अंचल में विशेष मान्यता है यथा- “मरतलोक में जगां जगां भेरू रा देवरा वणिगिया। भेरू देव में पुजाया। भेरू मंदर में पुजाया। भेरू कासो में पुजाया। अठलेजी भेरू पुजाया। घट-घट में भेरू पुजाया। धरा अमर वचे भेरू रा नामोन वेईरिया।”[22]

 

देवनारायण रो भारत  सांस्कृतिक महत्त्व की इस पृष्ठभूमि पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।  इस लोक गाथा में देवनारायण के आदर्श, उच्च कोटि के चरित्र को उभारा गया है। बगड़ावत गाथा वीर संस्कृति के मूल्यों का कोश है। इस लोक गाथा के अध्ययन से पता चलता है कि सामूहिक आक्रमण के दौरान वीरोचित कार्य कर गुजरने वाले पुरुष लोकमानस को आंदोलित करने में समर्थ होते हैं। ऐसे समर्थ व्यक्तियों के संबंध में लोक गाथाओं के रूप में मानव इतिहास में नया अध्याय जुड़ने की संभावना बनी रहती है। इस लोक गाथा के केंद्र में देवनारायण है जिनकी रक्षार्थ माता साडू एवं दासी हीरा अपना संपूर्ण जीवन न्योछावर कर देती है। इसमें स्वयं देवनारायण की जन्म एवं उनसे संबंधित कार्य तथा उदारवृत्ति को प्रस्तुत किया गया है। उनके जीवन का संघर्ष एवं परिवेश आज भी जनमानस को प्रेरित करता है।

 

इस गाथा के माध्यम से समाज में प्रचलित विभिन्न रीति-रिवाजों और परंपराओं को समझा जा सकता है जो कि यहाँ  की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को प्रस्तुत करती है। इस क्षेत्र में प्रचलित विवाह संबंधी रीति-रिवाज और परंपराएँ विशेष हैं। यथा-

           

आऔ म्हारा चांद सूरज थांरी आई वेळ्यां जी

खोलौ थांणां लाल दुपट्टा रीप्या रळकाऔ जी

आऔ म्हारा गणपत देव थांरी आई वेळ्यां जी।”[23]

 

इस प्रकार उपर्युक्त भारत गाथाओं के विवेचन से स्पष्ट है कि ये गाथाएँ लोक की संस्कृति का प्रदर्शक रूप होती है अत: उनमें लोक विश्वास, धर्म, समाज से जुड़ी हुई अनेक बातों का वर्णन मिलता है। जिससे इन भारत गाथाओं में सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व के उद्देश्यों की पूर्ति देखी जा सकती है।

 

निष्कर्ष :

 

सैद्धांतिक रूप से भारत गाथाओं में सामाजिक-सांस्कृतिक प्रथाओं एवं परंपराओं का विशेष उल्लेख मिलता है। सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं लोक साहित्यिक दृष्टि से इन भारत गाथाओं का विशिष्ट महत्त्व है। जनमानस इन गाथाओं के कथानायकों, देवी-देवताओं से कर्मवीरता, धर्मवीरता, दानवीरता, युद्ध वीरता आदि की प्रेरणा ग्रहण करता है। इन भारत गाथाओं में स्थानीयता अर्थात् आंचलिकता, आस-पास के परिवेश का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। कथानक में महापुरुष, देवी-देवता के चरित्र के साथ ही स्थानीय रंगत की झलक उस क्षेत्र विशेष के रहन-सहन, भाषा-बोली, रीति-रिवाज, प्रथा, परंपरा, खान-पान, आचार-व्यवहार आदि के सजीव चित्रण से मिलती है। इन भारत गाथाओं को सुनकर सामाजिक जुड़ाव, आत्मीयता की भावना, सामूहिकता, निस्स्वार्थ सेवा भाव, पारस्परिक प्रेम की भावना, मानवीय संवेदनशीलता, लोकमांगल्य भाव का ज्ञान होता है। इस प्रकार जनता के सामाजिक जीवन का प्रतिबिंब प्रस्तुत करना भारत गाथाओं का महत्त्वपूर्ण अंग रहा है। ये गाथाएँ आज भी हमारे समाज के लिए प्रेरणास्रोत, पथप्रदर्शक एवं प्रासंगिक हैं।

 

संदर्भ :

 

1. सद्दीक मोहम्मद : राजस्थानी लोक साहित्य एवं भारत गाथाएँ : एक अध्ययन, प्रथम संस्करण, मूमल प्रकाशन, जोधपुर, 2007, पृ. 188

2. भरत ओला : गोगा गाथा, प्रथम संस्करण, एकता प्रकाशन, चूरु राजस्थान,  2015, पृ. 15

3. नंदलाल कल्ला : राजस्थानी लोक साहित्य, प्रथम संस्करण, राजस्थानी ग्रंथाकार, जोधपुर, 2016, पृ. 13

4. डॉ. मरे : सिपुल स्पिरिटेड पोएम इन शार्ट स्टैजाज इन हिच सम पॉपूलर स्टॉरी इज ग्रैफिकली टोल्ड (बैलेड शब्द का अर्थ)

5. कृष्णदेव उपाध्याय : हिंदी साहित्य का वृहद इतिहास, षोडश भाग, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी,  पृ. 1-2

6. नगेंद्र : हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी , पृ. 83

7. कृष्ण देव उपाध्याय :  लोक साहित्य की भूमिका,  राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृ. 60

8. फ्रेंक सिजविक : ओल्ड बैलेड्स,  पृ. 3

9. धीरेंद्र वर्मा : हिंदी साहित्य कोश,  ज्ञानमण्डल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 748

10. कृष्ण बिहारी सहल : राजस्थानी लोक गाथा कोश, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 1995, पृ. 10

11. महेन्द्र भानावत : ‘शक्ति गाथाभारत की लोक सांस्कृतिक पीठिका, रंगायन, भारतीय लोक कला मंडल, उदयपुर, 1978, पृ. शीर्षक से

12. महेंद्र भाणावत : ताखा अंबाव रो भारत, भारतीय लोककला मंडल, उदयपुर, 1971, पृ. शीर्षक से

13. वही, पृ. शीर्षक से

14. वही, पृ. 7

15. वही, पृ. 25

16. महेंद्र भाणावत : लोक देवता तेजाजी रो भारत, भारतीय लोककला मंडल उदयपुर, 1970, पृ. 1

17. महेंद्र भाणावत : देवनारायण रो भारत, भारतीय लोककला मंडल उदयपुर, 1972, पृ. 14

18. महेंद्र भाणावत : काला गोरा रो भारत, भारतीय लोक कला मंडल उदयपुर, 1968, पृ. 6

19. वही, पृ. 8

20. महेंद्र भाणावत : लोक देवता तेजाजी रो भारत, भारतीय लोक कला मंडल, उदयपुर, 1970, पृ. 13

21. वही, पृ. 18

22. महेंद्र भाणावत : काला गोरा रो भारत, भारतीय लोक कला मंडल उदयपुर, 1968, पृ. 13

23. महेंद्र भाणावत : देवनारायण रो भारत, भारतीय लोक कला मंडल उदयपुर, 1972, पृ. 49-50

 

योगेंद्र कुमार श्रीमाली

शोधार्थी, हिंदी विभागमोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर

9413831335, yogendrakshrimali@gmail.com

 

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : दीपशिखा चौधरी, Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR

UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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