शोध आलेख : ‘कब तक पुकारूं’ उपन्यास : लोक संघर्ष का सजीव दस्तावेज -डॉ. राजेन्द्र प्रसाद खीचड़

‘कब तक पुकारूं’ उपन्यास : लोक संघर्ष का सजीव दस्तावेज

  डॉ. राजेन्द्र प्रसाद खीचड़

 

शोध सार :


     शोध आलेख में रांगेय राघव के आंचलिक उपन्यास कब तक पुकारूँके माध्यम से पूर्वी राजस्थान के विशेष आदिवासी वर्ग करनटों के जीवन और जीवन के अभिन्न अंग आजीवन संघर्ष को देखने, समझने का प्रयास किया गया है। करनट जरायम पेशा जीवन व्यतीत करते हैं और अपने शरीर, मान-सम्मान, मर्यादा, अस्तित्त्व को बचाने के लिए निरंतर संघर्ष करते हैं। करनट सुखराम की इसी जद्दोजहद ने उपन्यास का ताना-बाना बुन दिया है। रांगेय राघव की इस औपन्यासिक कृति में उत्पीडन का केंद्र कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि समुदाय है और इस उत्पीडन से उबरने के लिए कोई सांगठनिक प्रयत्न होते नहीं दीख पड़ते, इस अमानवीयता को भस्म करने के लिए कोई चिंगारी उठती नजर नहीं आती।


 बीज शब्द : आंचलिक, करनट, आदिवासी, दलित, लोकसंघर्ष, सामन्तवादी मानसिकता, अन्धविश्वास, शोषण, नैतिकता आदि


 मूल आलेख :


     राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश की सीमा में ब्रज क्षेत्र में बसे वैर गांव के आस-पास के बाशिंदे करनटों के जीवन का यथार्थ दस्तावेज, यह उपन्यास अपने संपूर्ण परिवेश के लोक तत्वों को अपने में समेटे हुए हैं। रांगेय राघव ने प्रारंभ में इस उपन्यास को 'अधूरा किला' नाम से लिखा था लेकिन बाद में इसका शीर्षक परिवर्तित कर दिया गया। यह उपन्यास आंचलिकता के शास्त्रीय मानदंडों पर उस तरह से खरा नहीं उतरता जिस तरह 'मैला आंचल' या 'परती परिकथा' आंचलिकता के प्रतिमान हैं। डॉ मधुरेश कहते हैं "कब तक पुकारूं की तथाकथित आंचलिकता रेणु की आंचलिकता से भिन्न है। इसमें किसी अंचल विशेष के व्यापक और बहुविध जीवन को अंशत: ग्रहण करके संपूर्ण देश के प्रतिनिधित्व का आग्रह एकदम नहीं है।"[1] इस संक्षिप्त कथानक का नायक कोई अंचल विशेष ना होकर जनजाति विशेष है। यही कारण है कि पूरा उपन्यास पढ़ते-पढ़ते पाठक की विश्लेषणात्मक प्रतिभा आदिवासी विमर्श की ओर मुड़ जाती है। परंतु यह भी है कि करनटों के जीवन के यथार्थ एवं संघर्ष को बयान करते-करते उनके आसपास का संपूर्ण लोक जीवन एवं संघर्ष अपने समस्त सांस्कृतिक एवं सामाजिक उपादानों के साथ उद्घाटित हो गया है। 


    उपन्यास का कथानक मुख्य रूप से करनट सुखराम तथा उसके आस-पास के लोगों के जीवन के ताने-बाने में बुना गया है तथा एक आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े समाज का मार्मिक दस्तावेज प्रस्तुत करता है। करनट एक ऐसी जाति है जो मुख्य धारा से बिल्कुल अलग-थलग जलालत भरी जिंदगी जीने को मजबूर है। समाज में उन्हें सबसे हीनतम स्थिति में देखा जा सकता है। जिनका कोई भी विश्वास नहीं करता और जिनकी स्त्रियों की देह केवल पर-पुरुष द्वारा लूटे जाने के लिए है। इक्कीसवीं सदी के दो दशक बीत जाने के बाद भी इनकी दशा में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है, ये आज भी बदतर हालत में हैं। नटों को कब तक पुकारूँ उपन्यास के बारे में भी जानकारी नही है जबकि सुखराम और कजरी वास्तविक पात्र थे। नट एक खानाबदोश कौम है, जिनके यहां लिखने-पढ़ने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। इसलिए इन लोगों को रांगेय राघव के उपन्यास के बारे में तो कुछ पता ही नहीं था। वह तो जब वैर में कब तक पुकारूंटीवी सीरियल की शूटिंग हुई, तब जाकर सुखराम नट उपन्यास से निकल कर बाहर आए।“[2] इनकी समाज में स्थिति किसी भी वर्गीकरण में सबसे नीचे है और शायद कहीं ना कहीं सुखराम का अपने आप को ठाकुर समझना इस बात का संकेत है कि उसे अपने बिरादरी में हीनता का तीव्र बोध होता है। इन लोगों में शादी-विवाह बहुत अधिक अस्थाई है और स्त्रियां विधवा नहीं रहती हैं। लेकिन एक से अधिक औरतें रखना, पुरुषों एवं स्त्रियों का शराब पीना, शराब बेचकर धनोपार्जन करना, करनटों की पतनशील सामाजिक विद्रूपताएं हैं। प्यारी कहती है, “मैं कमीन, अनपढ़, नीचों में नीच, जाति की नीच, बिरादरी के मेरे लोग नीच, पेट की भूखी और नंगी हूँ।“[3] उपन्यास में करनटों के साथ-साथ चमारों एवं ब्राह्मण-ठाकुरों के प्रसंग भी घटना क्रम में यत्र-तत्र आए हैं। जिसमें सामंती शोषण एवं करनटों की घोर गरीबी का मार्मिक चित्रण रांगेय राघव ने किया है। करनटों के पास कोई स्थाई घर-जमीन आदि नहीं है जिससे वो खेती-किसानी कर सके और मजदूरी का कार्य इनसे कोई करवाता नहीं है क्योंकि करनटों तथा कंजर जैसी जातियों को जन्मना चोर समझा जाता है। 


    इनकी आजीविका का साधन जड़ी-बूटी बेचना, शिकार करना, चोरी करना, रस्सियों पर खेल दिखाना और सामान्य बीमारियों की दवा-दारू करना है। करनटों की अपनी कोई संपत्ति नहीं होने के कारण इनकी आर्थिक स्थिति बद से बदतर वर्णित की गई है। डॉ. ज्ञानचंद गुप्त लिखते हैं कि "खुले आसमान के नीचे धरती माता की गोद में सोने वाले ये नट घास की तरह पैदा होते हैं और रौंदे जाते हैं। खेत खलिहानो में मजदूरी करके पेट पालने से भी ये वंचित हैं क्योंकि कोई इनका भरोसा नहीं करता। इनकी स्त्रियां ब्राह्मणों, ठाकुरों एवं पुलिस वालों से यौन संबंध निर्वाह कर रोजी रोटी चलाती हैं।"[4] 


    उपन्यास के केंद्र में करनटों का जीवन और उनके संघर्ष को रखा गया है। जिसमें सामंतवादी शोषण की आजीवन चलने वाले दास्तान दिखाई देती है। करनट सुखराम अपने को व अपनी पत्नी को पुलिस और जमादार से बचाने का प्रयास करता है। लेकिन नहीं बचा पाता। कानून व्यवस्था भी अगड़ों का साथ देती है और कोई भूल से अपनी व्यथा की फरियाद लेकर पुलिस के पास चला भी जाए तो उसी पर चोरी का आरोप लगाकर जेल में बंद कर दिया जाता है तथा शारीरिक एवं मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। उपन्यास में इस शोषण की एक ह्रदय विदारक घटना है- धूपो से बलात्कार। यह पूरी घटना पाठक के अंतर्मन को गहराई तक झकझोर देती है। धूपो अपना जीवन मजदूरी करते हुए स्वाभिमान की पूंजी के साथ गुजार रही है मगर बांके ठाकुरों के साथ मिलकर उसके सरल एवं शांत जीवन में विष घोल देता है और धूपो जिस तरह पूरे गांव के सामने पत्थर पर सर मार कर अपनी जान दे देती है, वह भी भयावह है। शोषण का यह चक्र अपनी पराकाष्ठा पर तब पहुंचता है, जब इस घटना का विरोध जताने के लिए खचेरा और सुखराम मिलकर रुस्तम खौं के घर पहुंचते हैं। मगर वहां भी उन्हें पुलिस की लाठियां और गोलियां खानी पड़ती है। कथा नायक सुखराम इस शोषण चक्र को तोड़ने के लिए बार-बार उठ खड़ा होता है और अपने आसपास के दलित, पीड़ितों लोगों को संघर्ष के लिए प्रेरित करता है लेकिन अंत में इसी सामंतवादी दुष्चक्र में फंस कर अपनी पुत्री चंदा का गला घोट कर उसकी हत्या कर देता है और खुद जेल चला जाता है मगर इस चक्रव्यू को भेद नहीं पाता । हालांकि रांगेय राघव जो कहीं-कहीं उपन्यास में स्वयं उपस्थित होते हैं, आजादी की पहली सुबह में रियासतों के वर्चस्व के समाप्ति में सामंतवादिता को खात्मे की ओर बढ़ता हुआ पाते हैं और आशावान होते हुए कहते हैं कि शोषण की घुटन सदा के लिए मिट जाएगी। सत्य सूर्य है। वह मेघों से सदैव के लिए घिरा नहीं रहेगा। मानवता पर से यह बरसात एक दिन अवश्य दूर होगी और तब नई शरद में नए फूल खिलेंगे, नया आनंद व्याप्त हो जाएगा।”[5] मगर अफसोस! कि सुखराम अपने जीवन काल में शरद के नए फूलों का केवल ख्वाब देखता ही इस दुनिया से चला जाता है। 


    इस आदिवासी प्रजाति में सामाजिक अथवा नैतिक प्रतिष्ठा मानदंड लागू नहीं होते और स्त्री-पुरुषों के संबंध अस्थाई और असामाजिक से नजर आते हैं। उपन्यास में जिस करनट समाज का चित्रण है, उनके यहां नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं है। करनटों में मर्द औरत को वेश्या बनाकर धन कमाते हैं और किसी भी प्रकार की लोक-लाज से दूर, अनैतिक बोध से दूर, ये स्त्रियां भी इस कार्य में कोई बुराई नहीं समझती हैं। डॉ. ज्ञानचंद गुप्त कहते हैं, "नैतिकता से हीन इन स्त्रियों का हाल भूखी गाय भैंसों जैसा है। मानवीय और सामाजिक दृष्टि से कितने शोषित हैं यह लोग, जिन्हें अपनी स्त्रियों को भी दूसरों को देना पड़ता है, यह किसी भी नांद और खेत में मुंह मार लेती हैं; वस्तुतः पेट की आग और समृद्ध वर्ग का उत्पीड़न ही इनकी अनैतिकता का कारण है। सोनू का कथन भी इस इन स्त्रियों की दुरवस्था का कितना सटीक परिचय देता है, वह कहती है कि औरत का काम काम है, उसमें बुरा भला क्या? काम नहीं करती नहीं तो मार-मार कर खाल उधेड़ देगा दरोगा और तेरे बाप और खसम दोनों को जेल भेज देगा। फिर कमेरा ना रहेगा तो क्या करेगी। फिर भी तो पेट भरने को यही करना पड़ेगा।"[6] 


    क्या विडंबना है कि- 'औरत का काम' क्या यही है? असल में करनट समाज खानाबदोश, शोषित, दलित एवं घोर उत्पीड़न को झेलने वाला समाज है जिसमें आजीविका या रोटी, नैतिकता के सब मानदंडों पर भारी है। इन कबिलों की कोई नैतिकता नहीं होती। इनमें मर्द औरत को वैश्या बनाकर उसके द्वारा धन कमाते हैं। करनटों में यह छूट है। वहाँ कोई बुराई सेक्सके आधार पर नहीं मानी जाती।“[7] उनके जीवन में चहुंओर व्याप्त अस्थिरता एवं वासना के भूखे भेड़ियों की भूखी प्यासी नजरों ने उन्हें किसी भी प्रकार के नैतिक बंधनों से परे कर दिया है। हालांकि सुखराम की पत्नी प्यारी कई पुरुषों से संबंध रखते हुए भी मन से अपने पति के प्रति समर्पित है और रुस्तम के पास रहते हुए भी उसे हमेशा सुखराम की फिक्र रहती है और वह चाहती है कि सुखराम हमेशा उसके पास रहे। 


    करनटों की स्त्रियां अपने परिवार को आर्थिक तथा सामाजिक रूप से सुरक्षित रखने की विवशता के कारण अपना शरीर बेचती हैं। प्यारी का रुस्तम खां के पास जाने का कारण वह बार-बार एक ही बताती है कि यह सब मैंने तुम्हारे लिए ही किया है। क्योंकि यह जानती है कि नटों को सबसे बड़ा खतरा हमेशा पुलिस से ही रहता है और वह अगर किसी पुलिस वाले को अपने वश में कर ले तो उसका जीवन काफी आसान हो जाएगा। 


    उपन्यास का नायक सुखराम करनटों में रहते हुए भी अपने आप को ठाकुर समझता है और अधूरे किले पर अपने अधिकार पाने की लालसा लिए मन ही मन उद्वेलित होता रहता है। ठकुरानी की कहानी पूरे उपन्यास को एक रहस्य से सराबोर रखती है लेकिन इसके मायने कुछ अलग भी हो सकते हैं। सुखराम अन्य करनटों की भांति नहीं है जो अपनी औरतों को पराए मर्दों के साथ भेज कर उनकी कमाई गई रोटी से अपने पेट की आग बुझाए। बल्कि वह प्यारी को थानेदार के द्वारा बुलाए जाने पर तथा बाद में रुस्तम खां के पास जाने पर खुश नहीं है। हालांकि वह इन सब चीजों को रोक नहीं पता है मगर उसके भीतर एक छटपटाहट है इस गलीज जिंदगी से छुटकारा पाने की। जिसे वह बराबर अपने भीतर जिंदा रखता है और अपने आप को करनटों से अलग समझता है। उसके मन में अधूरे किले का मालिक बनने की आकांक्षा इसी बात का सूचक है कि वह कहीं ना कहीं इस नारकीय व्यवस्था से छूटना चाहता है और उसका पूरा चिंतन इस कशमकश में घूमता रहता है। वह कई बार ऐसा भी सोचता है कि किले का मालिक बने बिना बड़ा आदमी बना जा सकता है। सुखराम के मन में जैसी चाह है उसका हल्का सा आभास एक अन्य पात्र प्यारी की मां सोनो में भी मिलता है। वह अपने पति से कहती है यदि सुखराम ठाकुर है तो यह अच्छा ही है, वह जालिमों से प्यारी की रक्षा करेगा। सोनो यह भी कहती है कि जैसे ऊंची जाति की स्त्रियों की इज्जत होती है वैसे ही मेरी प्यारी की भी इज्जत है। उपन्यासकार ने इस भाव का चित्रण बड़ी सफलता से किया है कि नारकीय जीवन जीते-जीते इनकी भावनाएं मर नहीं गई हैं। इन्होंने अपने स्वाभिमान की मृत्यु की घोषणा नहीं की है अपितु किसी भी प्रकार के प्रयत्न से, जैसा अवसर मिले उसी भांति से अपने सम्मान व प्रतिष्ठा को पाने की उत्कट लालसा इनमें है। जिसकी झलक सुखराम में आदि से अंत तक दिखाई देती है। 


    जैसा कि हम पहले कह आए हैं कि यह उपन्यास आंचलिकता की शास्त्रीय परिभाषा पर खरा नहीं उतरता है। यही कारण है कि इसमें किसी अंचल विशेष की भाषा, संस्कृति, खान-पान एवं वेश -भूषा आदि का वैसा चित्रण नहीं मिलता जैसा रेणु व नागार्जुन के उपन्यासों में है। किंतु फिर भी करनटों के जीवन संघर्ष के बीच ऐसे अनेक प्रसंग बिखरे पड़े हैं जिनसे इस जनजातीय समाज की संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है। करनट एक घुमंतू जाति है जिसकी वजह से इनके कोई स्थाई निवास नहीं होते हैं। यह एक अंधविश्वासी कौम है, जो झाड़-फूंक, टोने-टोटके में विश्वास करती है। सुखराम खुद दरोगा को वश में करने के लिए हांडी चलवाने जाता है और यहां तक कि इस काम के लिए वह सेंध भी लगाता है। जबकि उसे चोरी करना नापसंद है। डॉ. ज्ञानचंद गुप्त लिखते हैं कि उपन्यास में चित्रित नट समाज की सांस्कृतिक छवियों, रूढ़ियों, अंधविश्वास, टोने-टोटके एवं विविध रीति-रिवाजों ने नव्यता के कोई नए आयाम नहीं खोजे हैं बल्कि वे लगभग सभी वही है जो हमारे गांव में दिखलाई पड़ते हैं। भूत-प्रेत की परिकल्पना, देवी-देवताओं की मूर्तियां एवं जड़ अंधविश्वासों की दुनिया वहां अभी भी अंधकारमयी है।”[8] 


    भाषा के स्तर पर इस उपन्यास में सर्वाधिक आंचलिकता दिखाई देती है। कमेरा, कढ़ीखाए, दईमारी, नासपीटे आदि ठेठ आंचलिक शब्दों के प्रयोग से उपन्यास का ग्रामीण परिवेश जीवंत हो उठा है। करनटों का जैसा अस्थिर, अनैतिक जीवन है ठीक उसी प्रकार के संवादों से उपन्यास अटा पड़ा है। मढ़ी पर मत चढ़ जाइयो', 'गाड़ी देखकर लाडी के पांव फूलने लगते हैं', 'मेरी गैया मुझे ही सींग दिखाएं' जैसे लोकोक्ति एवं मुहावरों से उपन्यास की भाषा में माटी की सुगंध व्याप्त हो उठी है और पाठक को किसी गंवई वातावरण में विहार करवाती मालूम होती है। 


    रांगेय राघव विचारधारा के स्तर पर प्रगतिशील रचनाकार थे। अतः इनके उपन्यास 'कब तक पुकारूं' में वर्ग-चेतना व वर्ग-संघर्ष जगह-जगह दिखाई देता है। कथानायक सुखराम धूपो के साथ हुए बलात्कार को लेकर दलित समाज को एक नई चेतना प्रदान कर संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। लेकिन उच्च वर्ग अपने ऊपर आए संकट को देखकर प्रशासन के सहयोग से निर्दोष लोगों की हत्या करवाने से भी नहीं चूकता है। उपन्यास के आखिरी हिस्से में नरेश व चंदा का प्रेम और उसकी असफल त्रासद परिणति वर्ग संघर्ष का ही उदाहरण है। डॉ. किशोरी लाल कहते हैं कि "चाहे नरेश हो या ठकुरानी सब में कहीं न कहीं जातीय अहंकार कुंडली मारे बैठा है। नीलू जब अपनी विवाहिता चंदा को उसके प्रेमी के साथ देखता है तो उसका खून खौल उठता है और इज्जत की रक्षार्थ नीलू करनट का हाथ नरेश पर उठ जाता है तब आदर्श का ढोंग रचने वाला नरेश भी जातीय अहंकार से ग्रसित होकर कह उठता है कि- "करनट तेरी यह हिम्मत।"[9] 


    इस वर्ग संघर्ष में दलितों का प्रतिनिधि सुखराम है, जो कभी कमजोर पड़ता है तो कभी चोट पहुंचाता है फिर भी सुखराम के मन में अन्याय व अत्याचार के प्रति भारी आक्रोश है और जब वह गांव की खबर लेने के लिए डांग से लौट कर वापस आता है तो पुलिस के द्वारा समारोह पर चलाए गए दमन चक्र को सुनकर उसका खून खौल उठता है और परिणाम की परवाह किए बगैर पुलिस थाने में अत्याचारियों से अकेला ही भिड़ जाता है। लेकिन इस प्रकार का संघर्ष कोई बड़ा परिणाम ला पाने में सक्षम नहीं हो पाता है। हम देखते हैं कि नि:सहाय नट समाज सामन्ती वर्ग के अत्याचारों से बार-बार कुचला जाता है और कुछ नहीं कर पाता। हालांकि पुलिस तथा सामंत वर्ग के शोषण के खिलाफ एक टीस दलितों के मन में हमेशा रहती है और उस शोषण से उबरने के प्रयास उपन्यास में यत्र-तत्र दिखाई देते हैं। 


निष्कर्ष :


     कहा जा सकता है कि यह संक्षिप्त कथानक एवं आकार में विशाल उपन्यास अपने ताने-बाने में अपने आस-पास के लोक-संघर्ष को वाणी देता हुआ एक जरायमपेशा जनजाति की मार्मिक व्यथा-कथा को परत-दर-परत उघाड़ता है। सामान्यत: एक जनजाति विशेष पर केंद्रित होने के कारण यह उपन्यास सामाजिक संरचना का एक कोणीय आयाम प्रस्तुत करता दिखाई देता है, लेकिन इस जनजाति की मूल कथा के साथ-साथ अन्य जातियों के प्रकरण भी सामने आते हैं जिनमें उनका सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन गहराई से व्याप्त है।


    डॉ. शुभा मटियानी के शब्दों में, “इस उपन्यास में करनटों के पेशे, रहन-सहन, आचार-विचार, आजीविका के अनोखे ढंग, उनकी नैतिक मान्यताएं, समाज में उनकी स्थिति, उनके उत्सव पर्व का लेखक ने सजीव चित्रण खींचा है और यह भी दिखाया है कि किस प्रकार समाज का उच्च वर्ग, चाहे जाति की दृष्टि से या पद-पैसे की दृष्टि से, करनटों को मूर्ख मानकर, उनकी अशिक्षा, अज्ञानता और निर्धनता का लाभ उठाकर उनका शोषण करता है।”[10] इस प्रकार हम देखते हैं कि करनट एक जरायमपेशा जनजाति है जिसका मात्र आजीविका हेतु किया जाने वाला वाला संघर्ष इस उपन्यास में व्यापक फलक पर दिखाई पड़ता है।

 

संदर्भ :



[1] मधुरेश : राघव रांगेय: भारतीय साहित्य के निर्माता, साहित्य अकादमी, 1987, पृष्ठ सं. 54. 

[2] https://neerakikalamse.com/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE-%E0%A4%A8%E0%A4%9F-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B5-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B0-%E0%A4%B8/ 

[3] रांगेय राघव : कब तक पुकारूं, राजकमल प्रकाशन, 1957, पृष्ठ सं.242. 

[4] ज्ञान चंद्रगुप्त : आंचलिक उपन्यास अनुभव और दृष्टि, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ सं. 113. 

[5] रांगेय राघव, कब तक पुकारूं, राजकमल प्रकाशन, 1957, पृष्ठ सं. 444. 

[6] ज्ञान चंद्रगुप्त : आंचलिक उपन्यास अनुभव और दृष्टि, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ सं. 117. 

[7] http://kosh.khsindia.org/hindi/%E0%A4%B8.%E0%A4%AA%E0%A5%82.%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%95-13,%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%82-%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B8-2011,%E0%A4%AA%E0%A5%83-182 

[8] ज्ञान चंद्रगुप्त : आंचलिक उपन्यास अनुभव और दृष्टि, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ सं. 117. 

[9]किशोरी लाल : रांगेय राघव के कथा साहित्य में ग्राम्य जीवन, रचना प्रकाशन, जयपुर, 1997, पृष्ठ सं. 26. 

[10]शोभा मटियानी : हिंदी के आंचलिक उपन्यासों का रचना विधान, हिमाचल प्रकाशन, 1994, पृष्ठ सं. 118.

 

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद खीचड़

सहायक आचार्य (हिंदी), राजकीय डूंगर महाविद्यालय, बीकानेर (राज)

98285 03984, rajendralecturer@gmail.com


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : दीपशिखा चौधरी, Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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