शोध आलेख : स्त्री सौन्दर्य एवं आत्म छवि: वक्ष कैंसर के सन्दर्भ में ‘भया कबीर उदास’ का एक समालोचनात्मक अध्ययन / डॉ. पृथ्वीराज सिंह चौहान एवं डॉ. कप्तान सिंह

 शोध आलेख

स्त्री सौन्दर्य एवं आत्म छवि: वक्ष कैंसर के सन्दर्भ में भया कबीर उदास का एक समालोचनात्मक अध्ययन

- डॉ. पृथ्वीराज  सिंह चौहान एवं डॉ. कप्तान सिंह

 

शोध सार : वक्ष कैंसर की समस्या महिलाओं में तेजी से बढ़ रही है और इसके के उपचार के दौरान महिलाओं के शरीर में अवांक्षित बदलाव होते हैं। अनेक मामलों में उनको अपनी सुन्दरता के प्रतीक जैसे कि उरोज, बाल इत्यादि को खोना पड़ता है। शरीर में आये बदलाव उनकी आत्म छवि को नकारात्मक रुप से प्रभावित करते हैं, क्योंकि उनका शरीर सौन्दर्य के सामाजिक मापदंडों के अनुरूप नहीं रह जाता है, जो उनके अन्दर अपूर्णता का भाव पैदा करता है। वर्तमान में हो रहे शोध इस भाव की पुष्टि करते हैं, कि सौन्दर्य के प्रतीकों में शल्य चिकित्सा के दौरान हुए बदलावों से महिलाओं की आत्म छवि नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है। ‘भया कबीर उदास’ वक्ष कैंसर से पीड़ित नायिका यमन की मनः स्थिति का जीवंत दस्तावेज है, जो यह दर्शाता है कि कैसे यमन समाज के सौन्दर्य मापदंडों में फसकर अपनी बौद्धिक छवि खो बैठती है और अपने अस्तित्व को शारीरिक अपूर्णता से जोड़ कर देखने लगती है। यह शोध पत्र यमन के कैंसर के उपरांत सौन्दर्य ह्रास से स्वयं के प्रति उपजे अस्वीकारोक्ति के भाव से, उसके स्वयं को स्वीकारने तक कि प्रक्रिया की पड़ताल, सौन्दर्य के प्रचलित मानकों के सन्दर्भ में करता है।

 

बीज शब्द : वक्ष कैंसर, आत्म छवि, नारी, सौन्दर्य, अस्वीकारोक्ति, समाज|

 

प्रस्तावना : विश्व स्वास्थ्य संगठन के पिछले 5 वर्षों के आकड़ों के अनुसार वर्ष 2020 के अंत तक विश्व में 7.8 मिलियन महिलाओं में वक्ष कैंसर की पुष्टि हो चुकी है। वक्ष कैंसर विश्व में सबसे अधिक पाया जाने वाला कैंसर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अन्य रोगों  की तुलना में वक्ष कैंसर से सबसे ज्यादा डिसेबिलिटी एडजस्टेड लाइफ इयर (DALYs) का ह्रास होता है।[1]डिसेबिलिटी एडजस्टेड लाइफ इयर (DALYs) अथवा ‘विकलांगता- समायोजित जीवन वर्ष’ एक सामान्य व्यक्ति के जीवन पर बीमारी के कारण खोये गए वर्षो की संख्या का एक मापक है। उपलब्ध आँकड़ो के अनुसार, भारत में हर चार मिनट में एक औरत वक्ष कैंसर से पीड़ित पाई जाती है।[2]वक्ष कैंसर एक गम्भीर समस्या बन चुका है। इससे पीड़ित महिलाओं के जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आती है। पीड़ित महिलाओं को शारीरिक कष्ट के साथ-साथ अपने शरीर का अभिन्न अंग, वक्ष को भी खोना पड़ता है, जो उनमें अधूरेपन का भाव उत्पन्न करता है और उनकी आत्म-छवि को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। माइकल एस. बरथाकुर व अन्य ने एक शोध में पाया की वक्ष कैंसर से पीड़ित महिलाओं की आत्म-छवि तथा यौन व्यवहार में नकारात्मक बदलाव हुए।[3]वक्ष कैंसर शल्य चिकित्सा ने महिलाओं की आत्म-छवि तथा कामुकता को नकारात्मक तरीके से प्रभावित किया, क्योंकि शल्य चिकित्सा के दौरान उनके स्रीत्व के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रतीकों में यातो बदलाव हुये अथवा उन्हें निकाल दिया गया[4] इसी संदर्भ में कोहेन अपने शोध में पाते हैं कि जिन महिलाओं का वक्ष कैंसर का इलाज हुआ, वह अपने शरीर को वक्ष कैंसर पर उपलब्ध साहित्य में व्यक्त शारीरिक छवि से परे जा कर देखती हैं, क्योंकि उनके उत्तर बहुत व्यापक थे[5]उपलब्ध अध्ययन, महिलाओं के उपचार अथवा उपचारांत उपजी सामाजिक परिस्थितियों और उनके आत्म छवि पर प्रभाव पर बल देतें  हैं। मानव जीवन का अस्तित्व देह रूप में संसार में उपस्थित रहकर आत्म छवि अनुरूप, चेतना से नियंत्रित तथा संचालित होता है। आत्म छवि का निर्माण देह के इर्द-गिर्द ही होता है क्योंकि चेतना तथा शरीर दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

 

बीमारी देह में उद्भूत होती है, परन्तु यह चेतना की संरचनात्मक ढांचे को गहरे तक प्रभावित करती है। वक्ष कैंसर से चेतना के संरचनात्मक ढांचे में आये बदलाव के प्रभाव से महिलाओं के व्यवहार तथा आत्म छवि में आये बदलावों का अध्यनतो समाज विज्ञानियों द्वारा बड़े पैमाने पर किये गये हैं, लेकिन यह अध्ययन महिलाओं की मानसिक जटिलता को नहीं भेद पाए।  समाज विज्ञान में प्रचलित शोध पद्धति की प्रकृति इसका एक महत्वपूर्ण कारण है । कोटोव ए०आर० व अन्य कहते हैं कि रोगी की कहानी सिर्फ उसके रुग्ण शरीर तक सीमित नहीं होती है, जो चिकित्सक को सहज उपलब्ध होगी, यह उनके जीवन की रोगजनित अक्षादित परिस्थितियां, जो जीवन के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव चाहती हैं, की भी कहानी होती है। परिणामस्वरूप रोगी इलाज के तकनीकी पक्ष में अधिक रुचि नहीं दिखाते हैं, वह इस पर ध्यान देते हैं कि विभिन्न चिकित्सा विकल्प या उनकी अनुपस्थिति से उसके जीवन-योजना की क्षति को कैसे कम करेगी। रोगी की इन कहानियों में सम्भवतः बहुत से अर्थ निकलते हैं, परन्तु चिकित्सक रोगी के अस्तित्व से सम्बंधित व्याकुलता को देख ही नहीं पाते हैं [6]  रोगी की मानसिक जटिलता एवं अस्तित्व की व्याकुलता को समझने में साहित्य महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। कोटोव एम व कोटोव ए सुझाव देते हैं कि चिकित्सीय परिस्थितियों का साहित्यक वर्णन विभिन्न सामाजिक परिस्थितिओं में किस तरह से चिकित्सा पद्धति का प्रयोग किया जाता है और रोगी, बीमारी तथा चिकित्सीय देख-भाल को किस तरह  से अनुभव करते हैं का एक दस्तावेज साबित हो सकता है[7]साहित्य व्यक्ति की बीमारी के बाद उपजी परिस्थितियों तथा मनो-दशा एवं पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को सहज रूप से विस्तारित कर सकता है।

 

हिंदी साहित्य में रोगी एवं रोग के संदर्भ में यदा-कदा ही कुछ लिखा  गया है, जैसे की निराला ने अपने संस्मरण कुल्ली भाट में स्पेनिश फ्लू की त्रासदी को दर्शाया है और फणीश्वर नाथ ‘रेणुने मैला आँचलमें बिहार में फैली महामारी से डॉ. अलख निरंजन के संघर्ष को जगह दी है। श्रीकांत वर्मा ने बुखार में कविता में जीवन-संघर्ष तथा मृत्यु बोध को चित्रित किया है, परन्तु हिंदी साहित्य में गम्भीर रोग से पीड़ित व्यक्ति के अनुभव अनुपस्थित दिखते हैं। उषा प्रियम्बदा ने एक ऐसे कथानक को चुना है, जो सामान्यतः हिंदी साहित्य में  अनुपस्थित ही रहा है। भया कबीर उदास की नायका अमेरिका में अपने रुचि अनुरूप जीवन जी रही होती है कि उसको अचानक पता चलता है की उसको वक्ष कैंसर हो गया है और इसके इलाज के दौरान उसको अपने वक्ष खोने पड़ते हैं, जिससे उसकी आत्म-छवि बिल्कुल ही बदल जाती है और वह स्वयं से अलगाव महसूस करती है। किसी व्यक्ति की आत्म छवि उसके व्यक्तिगत विचार, मानसिक वृत्ति, शरीर के प्रति दृष्टिकोण तथा जीवन के प्रति नजरिये का संयुक्त रूप है, जो जीवन के क्रियाकलापों को प्रभावित करता है। वर्तमान शोध, स्त्री के सौदर्य के मनोभाव तथा उसके अंगों, जो कि उसके अस्तित्व और उसकी सम्पूर्णता का बोध कराते थे, के लोप से बदली मनोवृत्ति से आये आत्म छवि बदलवों को उजागर करेगा।

शोध का उद्देश्य:

v  वक्ष कैंसर से उपजी मनःस्थिति से आये आत्म छवि में बदलावों की पड़ताल करना।

v  सौन्दर्य के प्रचलित मापदंडों से उपजी कैंसर के उपचारांत शारीरिक बदलवों की स्वीकारोक्ति में आ रही कठिनाइयों का अध्ययन करना।

v  वक्ष कैंसर से पीड़ित महिलाओं के लिए सकारात्मक माहौल का निर्माण करना, जिससे वह अपने आप को सहज रूप से स्वीकार कर सके।

परिकल्पना:

    सौन्दर्य के प्रचलित मानक एवं नारीत्व की सामाजिक और सांस्कृतिक कंडीशनिंग, वक्ष कैंसर से ग्रसित महिलाओं के उपचार के उपरांत जीवन के पुनर्निर्माण में नकरात्म रूप से बाधा उत्पन्न करते हैं।

शोध पद्धति:

      चयनित उपन्यास के विश्लेषण में गुणात्मक शोध पद्धति का प्रयोग किया गया है तथा इसकी आधारभूत रूपरेखा का निर्माण नारीवाद, शारीरिक छवि के सन्दर्भ में हुये शोध तथा कल्चरल स्टडीज के माध्यम से किया गया है।      

विश्लेषण:

भया कबीर उदास वक्ष कैंसर से पीड़ित नायिका यमन, जिसको उसके पिता लिली पाण्डेय नाम से पुकारते थे, के वक्ष कैंसर की शल्य चिकित्सा के उपरांत उपजी निराशा, अधूरेपन तथा स्वयं से अलगाव कि कहानी है। यमन अमेरिका से एक दिन गोवा के पैरेगौन रिसार्ट में पहुँच जाती है। गोवा प्रवास के दौरान उसकी कैंसर के इलाज के समय भोगी पीड़ा की परतें धीरे-धीरे कैंसर डायरी के माध्यम से खुलने  लगती है। उपन्यास के कथानक का निर्माण स्मृतियों तथा वर्तमान में घट रही घटनाओं के इर्द-गिर्द होता है, जो यमन की कैंसर के उपचार के उपरांत की मनःस्थिति का जीवंत दस्तावेज है।

 

यमन विश्वविद्यालय की शिक्षा पूरी कर पी०एच०डी० करने अमेरिका चली जाती है और वहीं कॉलेज के प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति विभाग में अध्यापन करने लगती है। सब कुछ भली-भांति चल रहा था कि एक दिन उसको पता लगता है कि उसको वक्ष कैंसर है। यमन एका-एक अपना आत्म विश्वास खो बैठती है और बार-बार अपनी कैंसर पूर्व छवि के बारे में सोचती है। यमन से जब साइकोलोजिस्ट अन्ना टॉमस उससे कैंसर पूर्व इमेज के बारे में पूछती है तो वह कहती है कि सच कहूँ? एक मेधावी और एकदम स्वतंत्र स्त्री की।” (40) [8] यमन अपने बौद्धिक जीवन से संतुष्ट थी और वह सामन्य स्त्रिओं की तरह नारी सौन्दर्य तथा मूल्यों से प्रभावित नहीं थी। वह इस स्थिति से पूर्व  कभी भी अपनी शारीरिक सौन्दर्य को अपनी पहचान का आधार नहीं मानती थी।

 

यमन की शिक्षा-दीक्षा भारत में हुयी है और उसके मूल तथा आदर्श भारतीय संस्कृति के अनूरूप विकसित हुये हैं इसलिए अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था के अलावा उसको किसी अन्य चीज में रुचि नहीं है। उसका जीवन घर, कॉलेज तथा कॉलेज के विद्यार्थीयों तक सीमित है। वह वहां अकेली ही अपने जीवन में खुश है, परन्तु कैंसर की उस्थिति ने उसका सारा आत्म विश्वास खंडित कर दिया और एक समय में अपनी बौद्धिक छवि को भूल कर उसका सारा ध्यान शरीर पर केन्द्रित हो जाता है। यमन, घनघोर बारिश में समुद्र तट पर मड़इया में बैठी हुयी अपने अंदर के दाह को महसूस करती है।  वह याद करती है कि कैसे कैंसर उपरांत उसका शरीर अपना न होकर एक युद्ध का मैदान बन गया है। जीवन के हर उतार-चढ़ाव में खुद को हमेशा एक योद्धा की तरह प्रस्तुत करने वाली यमन अब बहुत कमजोर महसूस करती हैI वह आत्मावलोकन करती है,“इस महायुद्ध की प्रक्रिया में तुम कैसे टूट जाती हो, बिखर जाती हो, आहत और क्षत-विक्षत! कभी तो समझ में नहीं आता है कि रोग अधिक दारुण है या उसका उपचार।(14) शल्य चिकित्सा के पश्चात यमन अपने अस्तित्व को तलाशती रहती है और वह अपने अधूरेपन को छुपाने के लिए लोगों से मिलना-जुलना बंद कर देती है। उसका आत्म विश्वास एकदम टूट चुका है और वह लोगों से सम्पर्क से दूर भागती रहती है। वेन्तिंग मू व अन्य के द्वारा विकृत शारीरिक छवि और समाज की स्वीकृति पर किये गए शोध में पाया, कि पारस्परिक अस्वीकरण का डर औरतों को अधिक तनाव देता है।[9]अतःयह शोध यमन के सन्दर्भ में सही प्रतीत होता है। जब डॉ जैकरी उसको दोनों स्तन निकलवाने की सलाह देते हैं तो वह आतंकित हो जाती है और सोचती है कि इस शरीर को, कितने यत्न से सजाया, संवारा-उबटन साबुन, क्रीमें, व्यायाम; शुद्ध भोजन: फिर भी शरीर  धोखा दे दिया।” (30) यमन अपनी  पीड़ा जाहिर करते हुये कहती है की मेरे लिए मेरे बाल और मेरी ब्रेस्ट मेरी सम्पूर्णता के लिए बहुत आवश्यक हैं-उनके बिना मैं बदसूरत और अधूरी हो जाऊँगी।”(40) यमन ने हमेशा ही अपनी बौद्धिक छवि को सराहा है, परन्तु कैंसर के इस अभिसंताप ने उसकी आत्म-छवि को गहरी क्षति पहुंचाई है। वह अपनी शारीरिक सुन्दरता को ही अपनी पूर्णता का पर्याय मानने लगती है, जो उसके कठिनाइयों को और बढ़ा देती है। यह अपूर्णता का भाव, एक मेधावी, स्वतंत्र स्त्री के लिए अस्तित्व का संकट उत्पन्नकर देता है। मेदेह रेज़ेई व अन्य ने वक्ष कैंसर से पीड़ित महिलाओं के शारीरिक छवि को प्रभावित करने वाले कारकों के अध्यन में पाया कि औरतों के शारीरिक छवि और सौन्दर्य में बदलाव की वजह से उनमें मानसिक समस्याएं, जैसे कि तनाव, अवसाद, अलगाव, अस्वीकारोक्ति, ग्लानी, निराशा, डर, शर्मिन्दगी और असुन्दरता बढ़ी है।[10] कमोबेश यह कारक यमन में उपस्थित दिखते है।  डॉ. जैकरी द्वारा शल्य चिकित्सा से पूर्व उससे ब्रेस्ट रिकंस्ट्रक्शन के लिए पूछना और फिर पाउच वाली ब्रा इस्तेमाल करने की सलाह देना दर्शाता है कि सौन्दर्य की अवधारणा की जड़े समाज में बहुत गहरे तक समायी हुआ है जो कभी डॉ. जैकरी के व्यवहार से, तो कभी सौन्दर्य शास्त्रों के माध्यम से प्रकट होती है। बाजारवादी अर्थव्यवस्था ने इस अवधारणा को और पुष्ट किया है।

 

सच तो यह है कि नारी खुद को सदियों से चले आ रहे पुरुष संस्कार से बहार होकर नहीं देख पाती हैंI यमन का स्वयं के प्रति दृष्टिकोण पुरुषवादी परम्परागत सोच से प्रभावित दीख पड़ता है। वह बुद्धिजीवी होते हुए भी अपना अस्तित्व शारीरिक संपूर्णता में ही देखती है। इस पुरुष संस्कार का नारी जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के संदर्भ में डॉ. राजेंद्र यादव यथोचित लिखते हैं कि:


हमारे सभी परम्परागत सोच में नारी को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है। कमर के ऊपर की नारी और कमर के नीचे की औरत। हम पुरुष को उसकी संपूर्णता में देखते हैं, उसकी कमियों और कमजोरियों के साथ उसका मूल्यांकन करते हैं। नारी को हम सम्पूर्णता में नहीं देख पाते। कमर से ऊपर की नारी महिमामयी है, करुणा भरी है, सुन्दरता और शील की देवी है, वह कविता है, संगीत है, अध्यात्म है और अमूर्त है। कमर से नीचे वह काम-कन्दरा है, कुत्सित और अश्लील है...हमने इस आईडिया या मिथ को ही उसका संस्कार और संसार बना दिया है. [11]

कमोबेश, यमन इसी आइडिया या मिथ का शिकार है। वह कमर के ऊपर के नारीत्व की कमी के कारण स्वयं को हमेशा अपूर्ण समझने लगती है। स्वाभाविक है कि उसे कमर के नीचे की औरत बनना स्वीकार नहीं।

 

कॉलेज के सत्रांत के दिन उसकी मुलाकात अपने विद्यार्थी राघवेन्द्र के पिता शेषेन्द्र राय से होती है, जो उसको संगीत-संध्या के लिए आमंत्रित करते हैं। यमन शेषेन्द्र के प्रति सम्मोहन महसूस करती है और इस सम्बंध को हल्के-फुल्के रोमांस की संज्ञा देती है। यमन शेषेन्द्र से अपने कैंसर की बात छुपाये रखती है। उसका मानना है कि वह उनकी दृष्टि में ऐसी ही कसी-कसी देह लिये सम्पूर्ण बनी रहेगी; पूर्ण युवती।(55) बिस्तर पर शेषेन्द्र जब भी अपना हाथ उसके वक्ष की तरफ बढ़ाता है, वह बड़ी चतुरायी से उसका हाथ थाम लेती है। यमन के मन में यह भाव प्रबल हो चुका है कि स्त्री की सम्पूर्णता ही संबंधो को जीवंत रखने का एक मात्र साधन होती है और अपूर्ण स्त्री किसी रिश्ते को अधिक दिनों तक सींच नहीं सकती। वह  सोचती है की शेषेन्द्र अगर उसकी सच्चाई जानेगा तो विलग हो जायेगा। यमन का डर तब और बढ़ जाता है जब शेषेन्द्र उसको कहता है कि पांच साल पहले उसकी पत्नी को वक्ष कैंसर हुआ था और वह उसके साथ अपने सम्बंध पूर्व की भाँति नहीं रख सका और उससे दूर भागता रहा और न ही कभी अपनी पत्नी ज्योति को कभी निरावरण देखने कि हिम्मत जुटा पाया। वह शेषेन्द्र से सब छुपाते हुये पहली बार सय्या सुख भोगती है और शेषेन्द्र से नया नाम यमन पाती है। यह सम्बंध कुछ समय का ही रहा, परन्तु जो भी समय शेषेन्द्र के साथ उसने गुजारा, उसने उसको अंदर तक छुआ।

 

उसकी सर्जरी सफलता पूर्वक हो जाती है और इस दौरान बहुत से अजनबी लोग उसकी सहायता करते हैं। उसकी विद्यार्थी संगीता शास्त्री तथा निकोला उसके साथ रहती है और उसकी सेवा करती है, परन्तु सहायता और सहयोग उसकी स्वयं के स्वीकार्य का साहस नहीं दे पाती है। जब वह अपनी सपाट छाती को देखती है तो वृक्ष की तरह हरहराकर वहीं गुसलखाने की ठंडी भूमि पर बैठ गई।”(66) यमन सोचती है किस्वर्ण-कटोरों की तरह मेरे उरोज, नागिन की तरह काले, लम्बे बाल-सब अब कैंसर की आहुति। (67) उसका सौन्दर्य तथा जीवन का अर्थ सब स्वाहा हो चुका है, अब कुछ बचा है तो अधूरा शरीर।

 

यमन रिसोर्ट के अँधेरे कमरे में कैंसर डायरी के माध्यम से अपने इलाज के दिनों को पुनः जी रही है। जव कैंसर हॉस्पिटल में श्रीमती फिलीस, जो खुद वक्ष कैंसर रोगी थी, उसे बताती हैं कि कैंसर की यात्रा में सब उसके साथ रहे पर उसके पति ने उसको अकेला छोड़ दिया, क्योंकि वह अब उसको यौन सुख नहीं दे सकती थी। यह सुन यमन का दृष्टिकोण स्त्री के शारीरिक बदलाव के कारण मूल्यहीनता के प्रति और दृढ़ हो जाता है और वह स्वयं से सवाल करती है कि क्या वक्षहीन स्त्री इतनी अग्राह्य, इतनी मूल्यहीन हो जाती है ?” (87) यह प्रश्न दर्शाता है कि यमन के मन के किसी कोने में प्रचलित सौन्दर्य मानको के विरोध के भाव उपस्थित हैं, परन्तु बीमारी की मनो-दशा पर प्रचलित सौन्दर्य मानक भारी पड़ते हैं। यमन बिना किसी संघर्ष के अपनी अपूर्णता को स्वीकार कर लेती है। यमन हिम्मत हार चुकी है, वह अपने घाव किसी के सामने प्रदर्शित करना नहीं चाहती, वह कहती है “अच्छा ही है कोई पति या बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड जिन्दगी में शामिल नहीं है, किसी को घाव दिखाने की जरूरत नहीं है। यह घाव, यह निशान केवल अपने हैं, जो केवल त्वचा तक ही नहीं है, बल्कि अंदर तक, गहरे और गहरे उतर गये हैं। (87) यमन के मन घाव अधिक गम्भीर दिखते हैं, जो उसके स्वयं की अस्वीकारोक्ति का बीज पोषित करते जान पड़ते हैं।

 

वह रिसॉर्ट के मालिक वनमाली के प्रति लगाव महसूस करती है, परन्तु मन ही मन वह मान चुकी है कि एक अपूर्ण स्त्री को यह ख्वाब देखने का अधिकार नहीं है। यमन के मन में एक अंतर्द्वंद है वह स्वयं ही प्रश्न करती है कि सुन्दरता या स्त्रीत्व का सन्दर्भ क्या है?” (92) और फिर सोचती है कि जो अपनी संस्कृति ने मानदंड स्थापित कर दिए हैं, वही न।” (92) सांस्कृतिक रूप से तो स्त्री को तो केवल प्रेमिका और मातृत्व के संदर्भ में देखा गया है। (92) यमन के प्रश्न, उसकी, समाज द्वारा निर्मित  सौन्दर्य मापदंडों के प्रति बौद्धिक सजगता की उपज है। वह अच्छे से जानती है कि स्त्रीत्व के संदर्भ के केंद्र में सांस्कृतिक तथा सामाजिक मान्यताएं ही हैं, जो स्त्रियों को सौन्दर्य के विचार के अधीन करती हैं। कालांतर में स्त्रियाँ इसी विचार के इर्द-गिर्द अपनी छवि का निर्माण करती हैं। वनेसा एम व अन्य ने महिलाओं तथा पुरुषों के लिए संसार में स्थापित विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक आदर्श रूप के मापदंडों के अध्ययन में पाया कि शारीरिक सुन्दरता (खासकर सुडौलपन) की जरूरत के सम्बंध में व्यापक रूप से प्रवृत्त सांस्कृतिक सन्देश को काफी महिलाओं ने आश्चर्यजनक रूप से आत्मसात किया और यह माना कि उनकी व्यक्ति के रूप में पहचान कुछ हद तक उनकी सुन्दरता में निहित है।[12] यमन इस विचार को पोषित करते  हुये कहती है बाल, स्तन यह सब उसकी अपनी समष्टि छवि के अभिन्न अंग हैं।” (92) पर इनके न होने के  दुख  में यमन भी इस वर्जना में अपने अस्तित्व को नकारने लगती है । यही कारण है कि वनमाली की मित्रता का प्रस्ताव सुनकर वह असहज हो जाती है और कहना चाहती है कि मैं एक क्षत-विक्षत स्त्री हूँ, वनमाली...” (106) वह सोचती है कभी न कभी वनमाली इस सम्बंध को आगे बढ़ायेगा तो वह “..बड़े-बड़े दाग-भरी छाती लेकर [उसके ]..सामने खड़ी नहीं हो..” (106) पायेगी। डर और अस्वीकारोक्ति के बीच भी वनमाली ने उसके मन में जगह बना ली, परन्तु वह इस सम्बंध को स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा पायी। वनमाली उसको बचपन में हुयी घटनाओं की याद दिलाते हुये कहता है कि वह उसके पिता के यहाँ काम करने वाले माली का बेटा बन्नू है, यह सुनकर वह आश्चर्यचकित रह जाती है। वनमाली स्वीकारता है कि वह उसको बचपन से ही पसंद करता है । यही कारण है जब वह रिसार्ट  पहुँची तो वह अपनी सच्चाई उसको नहीं बता पाया। यमन वनमाली के साथ सहज महसूस करती है, परन्तु आशंकित है कि जब वनमाली को उसकी सच्चाई पता चलेगी तो उसका व्यवहार भी शेषेन्द्र की तरह बदल जायेगा। इसलिए वह इस सम्बंध को यहीं तक सीमित रखना चाहती है। गोवा में उसके दिन अच्छे से बीत ही रहे थे कि वनमाली की पूर्व पत्नी रेनी रिसार्ट की सफाई शुरू करवा देती है। यमन वनमाली से बिना मिले ही दिल्ली निकल जाती है।

 

यमन  डिफेन्स कॉलोनी में बंद पड़े अपने घर पहुँचती है। उसके अमेरिका प्रवास के दौरान ही उसके पिता का स्वर्गवास हो चुका है और मम्मी अब ऋषिकेश के आश्रम में रहती है। दिल्ली में वह कुछ समय के लिए अपनेपन के  भाव को महसूस करती  है, परन्तु उसके मन में व्याप्त अपूर्णता का भाव उसे  हर क्षण “..अपने अलगाव, अपनी पृथकता का बोध होता है,इसलिए नहीं कि वह उत्तर भारत में है; और उसका चेहरा बंगाल से लेकर तमिलनाडु तक में खप जाता था, बल्कि अपने शरीर पर रेखांकित घावों के कारण, चाहे गोवा हो या दिल्ली; उसकी उरोजविहीन सपाट छाती उसे हर समय अपने पंक्ति में से अलग होने के एहसास को चुभोती रहती है।” (143-44) वनमाली से मिलने के बाद यह भावना और बलवती हो जाती है और उसको  ब्रेस्ट रिकंस्ट्रक्शन न करने के निर्णय पर पछतावा होता है और वह सोचती है कि ब्रेस्ट रिकंस्ट्रक्शन न सही तो कम से कम टिश्यू एक्स्पेंडर ही लगवा लेती तो कम से कम ये अधूरापन तो ढक जाता। अपनी माँ  को दिल्ली में देखकर यमन बहुत खुश हो जाती  है, परन्तु वह इतना साहस नहीं जुटा पाती है कि माँ  को सच्चाई बता सके । अतः वह कृत्रिम संसाधनों के सहारे सामान्य बनी रहने का अभिनय करती रहती है।

 

एक दिन  उसकी मुलाकात दिल्ली की एक लाइब्रेरी में वनमाली से हो जाती है और वह जब उसके साथ घर पहुँचती है तो पाती है उसकी माँ  वनमाली को पहले से जानती हैं। यह सब देख वह अवाक् रह जाती है कि वह कैसे इस सब से अनभिज्ञ रही। यमन वनमाली की यात्राओं  में उसके साथ हो लेती है। बनारस प्रवास के दौरान वह हिम्मत कर वनमाली से कहती है कि मुझे ..कैंसर है (172) और वक्ष से कपड़ा हटा कर वनमाली से पूछती है कि कहोगे कि मैं सम्पूर्ण हूँ।”(172) वनमाली कोई विस्मय बोधक प्रतिक्रिया नहीं देता है, वह उसके होठ, गर्दन और वक्ष विहीन छाती को चूमता हुआ कहता है कि  वह उससे बचपन से प्यार करता है। यमन  सच्चाई उजागर कर हल्का महसूस करती है, परन्तु अपूर्णता का भाव उसको वनमाली के साथ आत्मीय होने से रोकता है। वह कहती है मैं नार्मल नहीं हूँ- यह तुम जान गए हो, मैं आक्रान्त हूँ, रोग के विचार से दारुण रूप से ग्रस्त हूँ।” (175) वनमाली बिना विचलित हुये उसे विवाह का प्रस्ताव देते हुआ कहता है कि इस कैंसर यात्रा में तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ ।उसी दिन शाम को ही विवाह होना निश्चित होता है, परन्तु यमन अभी भी अपनी अपूर्णता के भाव से उभर नहीं पाई है। वह विवाह से घबरा जाती है और एक सन्देश देकर कि मुझे माफ़ करना होटल से निकल जाती है। वह सारा दिन बनारस की गलियों में भटकती रही और देखती है कि मृतकों का ताता लगा हुआ है । एक अकेला आदमी अपनी साइकिल पर स्त्री की लाश को लादे शमशान को जा रहा है। यमन यह सब देख कर उदास हो जाती है और नाव से हरिश्चंद्र घाट की तरफ जाती है। घाट पर चिताओं को जलते देखती है कि हाड़ जले ज्यों लाकड़ी, केस जले ज्यों घास’ और मन ही मन हिंदी के क्लास में पढ़ी लाइन याद करती है सब तन जलता देखकर, भया कबीर उदास। (181) यह सब देख कर यमन को आत्मबोध होता है कि जिस शरीर की वह इतनी परवाह कर रही है, वह नश्वर शरीर आग के ही परवान चढ़ना है, अंततः जल कर ख़ाक होना उसकी नियति हैI अस्तित्ववाद और आध्यात्म के इस तत्व मीमांसा ने यमन को खुद को स्वीकार करने कि हिम्मत दीI अब वह आत्मविश्वास से भरी दीख पड़ती हैI वह एक पत्थर उठा कर गंगा में डालते हुये कहती है कि इसके साथ बिसारती हूँ, रोग, क्षोभ और पराजय-” (180) होटल पहुँचकर वह वनमाली से क्षमा मांगते हुये कहती है की वह डर गयी थी अपने अंदर के दैत्य-दानवों से, जो हर खुशी की दहलीज़ पर पहुँचते ही मुझे रोक देता है।” (181) यमन सिसकी लेते हुये कहती है जैसी भी हूँ अब, अपूर्ण, विक्षत, जितने दिन के लिए भी हूँ।”(181) अब वनमाली तुम्हारी हूँ और तुम्हारे साथ जीना चाहती हूँ। अंततः यमन अपनी अपूर्णता को स्वीकार कर वनमाली से विवाह कर लेती है।

 

उपलब्ध तथ्यों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि सौन्दर्य के प्रचलित सामाजिक और सांस्कृतिक मानक हर किसी को प्रभावित करते हैं और सामान्य परिस्थितियों में व्यक्ति अपनी बौद्धिकता से आत्म छवि को सींचता रहता है, परन्तु विपरीत परिस्थितियों में यह मानक जीवन को जटिल बना सकते हैं। स्त्री शरीर के सौन्दर्य के प्रतिमान हमेशा उसके तीखे नयन-नक्श और पतली कमर, हिरनी जैसी चाल आदि के इर्द-गिर्द गढ़े गए हैं। बाजारवाद ने इस सौन्दर्य की विचारधारा को और अधिक गहरा कर दिया है और अब सौन्दर्य अपना मूल अर्थ खोकर बाजारवाद से परिभाषित हो रहा है। सांस्कृतिक तथा बाजारवाद के सिद्धांतों से हम सभी के लिए सहज जीवन का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकते। यमन की समस्या वास्तविक है और किसी भी संदर्भ में यह नहीं कहा जा सकता है कि उसका अपने शारीर के किसी अंग का निकाला जाना एक सहज घटना थी। शारीरिक कष्ट सभी को पीड़ा देता है, लेकिन सौन्दर्य मानक, बदले हुये शरीर की स्वीकारोक्ति को कठिन बना देते हैं। यमन अपने अधूरेपन को जीती रहती है, क्योंकि वह अपने प्रचलित मापदंडों के अनुसार अपने आप को अधूरा मानती है, जबकि अंत में वह सच्चाई स्वीकार कर लेती है कि शरीर का अंत होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और इसको स्वीकार कर, जैसा भी शरीर है, उसके साथ जीना ही जीवन की सुन्दरता है।

 

निष्कर्ष : ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में हुये शोध से प्रमाणित हो चुका है कि महिलाओं की आत्म छवि प्रचलित मापदंडों से नकारात्म रूप से प्रभावित होती है, परन्तु ये शाखाएँ एक ढांचे में बंध कर भावनाओं को आकड़ों के माध्यम से समझाती है। ऐसे में साहित्य में बीमारी से उपजी मनःस्थिति का वर्णन समाज को जागरूक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और जिस तरह से वनमाली का सकारात्मक व्यवहार यमन को अपने वर्तमान को स्वीकार करने का सामर्थ्य देता है, ठीक उसी प्रकार एक जागरूक समाज हजारों महिलाओं को गम्भीर बीमारी की मनोदशा से उभारने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इस विषय पर हिंदी साहित्य में अभी और शोध की आवश्यकता है तथा लेखकों और आलोचकों को भी कैंसर तथा अन्य बीमारियों एवं चिकित्सा मानविकी में लेखन को शोध एवं साहित्यिक लेखन का विषय बनाना चाहिए।


 

संदर्भ :
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डॉ. पृथ्वीराज  सिंह चौहान

असिस्टेंट प्रोफेसर , अंग्रेजी विभाग, देव नागरी महाविद्यालय, मेरठ उ.प्र.

drprithiviraj27@gmail.com, 8791281461


डॉ. कप्तान सिंह

असिस्टेंट प्रोफेसर, अंग्रेजी विभागए सी सी विंग इंडियन मिलिट्री अकादमी देहरादून, उत्तराखंड


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )


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