आलेख : तुलनात्मक साहित्य के फ्रांसीसी सम्प्रदाय की आलोचना / डॉ. अभिषेक रौशन

वैचारिकी 

तुलनात्मक साहित्य के फ्रांसीसी सम्प्रदाय की आलोचना

- डॉ. अभिषेक रौशन

 


साहित्य मनुष्यता का विकास करता है। वह एक लोक को दूसरे लोक से जोड़ता है। इस दिशा में तुलनात्मक साहित्य महत्वपूर्ण काम करता है। तुलनात्मक साहित्य की एक अलग अनुशासन के रूप में स्थापना 1897 ई. में फ्रांस के LYON UNIVERSITY में हुई। दुर्भाग्य की बात है कि जिस धरती पर तुलनात्मक साहित्य के बीज अंकुरित हुए, वहीं इसकी जड़ काटने की कोशिश हुई। तुलनात्मक साहित्य का सम्बन्ध उन्नीसवीं सदी से है। विभिन्न समाजों के लोक साहित्य के अध्ययन के क्रम में अनेक समानताएँ मिलीं, यहीं से तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन शुरू हुआ। तुलनात्मक साहित्य के तीन सम्प्रदाय हैं :-

1)     फ्रांसीसी सम्प्रदाय

2)     जर्मन सम्प्रदाय और

3)     अमेरिकन सम्प्रदाय।

 

सबसे पहले फ्रांसीसी सम्प्रदाय द्वारा तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन शुरू हुआ। LYON UNIVERSITY के तुलनात्मक साहित्य विभाग के पहले अध्यक्ष जोसेफ़ टेक्स्ट (JOSEPH TEXTE) बने। तुलनात्मक साहित्य के दूसरे विभाग की स्थापना सरबॉन में की गई। तुलनात्मक साहित्य के फ्रांसीसी सम्प्रदाय के महत्वपूर्ण अध्येता वान तीघम (VAN TIGHEM) इसी से सम्बन्धित थे। जोसेफ़ टेक्स्ट ने लुई पॉल बेज की किताब ‘BIBLIOGRAPHIE DE LITTERATURE COMPARE’ की भूमिका लिखी। उन्होंने इस भूमिका में तुलनात्मक साहित्य के बारे में महत्वपूर्ण विचार रखे। टेक्स्ट ने तुलनात्मक साहित्य को चार भागों में बाँटा :-

1)     आधुनिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन

2)     तुलनात्मक पारंपरिक मान्यताएँ

3)     सैद्धांतिक प्रश्न एवं सामान्य समस्याएँ और

4)     विश्व साहित्य-इतिहास।

 

तीघम ने भी साहित्य को तीन श्रेणियों में बाँटा :-


1)     राष्ट्रीय साहित्य

2)     तुलनात्मक साहित्य और

3)     सामान्य साहित्य।

 

तीघम का सामान्य साहित्य टेक्स्ट के विश्व-साहित्य के नजदीक है। टेक्स्ट विश्व-साहित्य को तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत रखते हैं जबकि तीघम सामान्य साहित्य को तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत नहीं रखते हैं। उन्होंने तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य का विभाजन करके साहित्य की उन्मुक्त दुनिया को बंधनों से जकड़ दिया। तीघम के सामान्य साहित्य से एक और भ्रम पैदा होता है। सामान्य साहित्य का प्रयोग आम तौर पर साहित्य सिद्धांत, काव्यशास्त्र आदि के अर्थ में होता है। इसका किसी और अर्थ में प्रयोग भ्रम ही पैदा करेगा। तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य को अलगाना सही नहीं है। यह कहाँ तक सही है कि अज्ञेय पर इलियट का असर तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत आएगा और स्वच्छंदतावाद में नारी की स्थिति का अध्ययन सामान्य साहित्य के अन्तर्गत आएगा? तीघम ने साहित्य को खाँकों में विभक्त कर दिया। उनकी तुलनात्मक साहित्य वाली मान्यता पर विधेयवाद का असर है। विधेयवाद एक स्थूल दर्शन है, जो कार्य-कारण को ध्यान में रखता है। तीघम ने साहित्य को कारण एवं प्रभाव के फार्मूले में देखा। रेने वेलेक ने लिखा है - मुझे संदेह है कि तुलनात्मक और सामान्य को अलगाने में जो यत्न VAN TIEGHEM ने किया है, वह सफल हो सकता है। VAN TIEGHEM के अनुसार, तुलनात्मक साहित्य दो साहित्यों के आपसी सम्बन्धों तक ही सीमित है, जबकि सामान्य साहित्य का सम्बन्ध उन आंदोलनों और फैशन से है, जो अनेक साहित्यों में बहते हैं।1

           

तीघम के अनुसार, दो राष्ट्रों से संबंधित साहित्य का अध्ययन तुलनात्मक साहित्य के अंतर्गत आता है। सवाल यह है कि दो राष्ट्र ही क्यों? तीन या चार राष्ट्रों से संबंधित साहित्य का अध्ययन तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत क्यों नहीं हो सकता है? साहित्य सीमा नहीं बनाता, बंधन नहीं डालता। तीघम ने तुलनात्मक साहित्य को एक बाड़े में बदल दिया जो कि खतरनाक स्थिति का द्योतक है। तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन शुरू ही इस उद्देश्य से हुआ कि राष्ट्रों की सीमाओं से साहित्य को मुक्त किया जाए। तीघम तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन में प्रभाव पर जोर देते हैं। एक राष्ट्र के साहित्य ने दूसरे राष्ट्र के साहित्य पर क्या प्रभाव डाला या क्या प्रभाव ग्रहण किया, इसका अध्ययन करना तुलनात्मक का उद्देश्य है। सवाल यह है कि क्या साहित्य केवल प्रभाव का नाम है? इस प्रश्न पर मैं बाद में आऊँगा, पहले यह देखा जाए कि हम प्रभावों की जाँच कैसे करेंगे? हम इसके लिए निम्न आधारों का सहारा लेंगे :-

1)     क्या वह लेखक बहुत लोकप्रिय था?

2)     क्या उस लेखक का अनुवाद हुआ?

3)     क्या उसने उस देश की यात्रा की, जिस देश के साहित्य का उस पर प्रभाव की तलाश करेंगे?

 

यहाँ एक और सवाल उठता है कि क्या वह लेखक सचमुच में प्रभावित था? जरूरी नहीं है कि हर लोकप्रिय लेखक का बाहरी देशों के लेखक पर प्रभाव पड़ ही जाए। इस प्रभाव की तलाश में हम लेखक की चिट्ठी, उसके मित्रों की चिट्ठी, यात्रा-वृत्तांत, डायरी का सहारा लेंगे, पर अगर चिट्ठी, डायरी या यात्रा-वृत्तांत उपलब्ध न हो तो...? तीघम की दृष्टि हमें साहित्यिकता से दूर ले जाती है। साहित्य का काम साहित्यिकता को बनाए रखना है, न कि जासूसी करना। प्रभाव पर जोर देना अटकलबाजी को जन्म देता है। तीघम की मान्यता के आधार पर तुलनात्मक साहित्य प्रभाव, कारण, परिणाम के बाड़ों में बंद होकर रह जाता है। तीघम ने तुलनात्मक साहित्य को कारण एवं प्रभाव के बहीखातों में परिणत कर दिया। उन्होंने तुलनात्मक साहित्य पर यांत्रिकता को लाद दिया। साहित्य की सफलता उसकी समग्रता में है। साहित्य को एकांगी दृष्टि से देखना एक बात है और साहित्य के एक पक्ष का अध्ययन करना बिल्कुल दूसरी बात। यह अध्ययन का विषय हो सकता है कि तोल्सतोय और प्रेमचंद के यहाँ किसान-जीवन किस रूप में है, पर इस बात की खोज करना कि प्रेमचंद या तोल्सतोय किन-किन घटनाओं, अनुभवों से किसान-जीवन पर लिखने को मजबूर हुए, यह दिमागी कसरत के सिवा कुछ नहीं है। प्रेमचंद ने तोल्सतोय से क्या-क्या ग्रहण किया, इसकी खोज मात्र करना तुलनात्मक साहित्य को गणना विभाग में बदल देता है। साहित्य में प्रभावों मात्र की खोज करना साहित्य की आत्मा को मारता है। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। राजनाथ पांडेय ने एक लेख लिखा –सर्वाधिक प्रख्यात कहानी’[राजनाथ पांडेय – नया निर्माण, मानकचंद डिपो, उज्जैन, 1961]। इस लेख में उन्होंने उसने कहा था (चन्द्रधर शर्मा गुलेरी) कहानी पर विभिन्न कहानियों के प्रभाव दिखाए, ये कहानियाँ हैं :-

1)     एलेक वाह – द सैल्यूथ हाउंट

2)     एडगर वैलेस – द ग्रेटर बेट्टल

3)     एच.पी. प्रोथेस्ट – ए नाइट अफेयर

4)     हेनरी वार्पस – बूतोर

5)     ए.एस.सी. सार्जन्ट – ए बेट्टल फील्ड।

 

            राजनाथ पांडेय ने उसने कहा था के अलग-अलग खंडों पर उक्त कहानियों के प्रभाव दिखाए। इस कहानी में लड़ाई वाले वातावरण के चित्रण पर ए बेट्टल फील्ड का प्रभाव है, सैनिक जिन्दगी के चित्रण पर बूतोर का प्रभाव है आदि। इस तरह खंड-खंड में प्रभावों के अध्ययन से उसने कहा था की आत्मा ही मर जाती है। एक सामान्य आदमी भी विषम परिस्थितियों में भी अपने प्रेम को किस तरह जीवित रखता है, यह बात कहीं से भी निकलकर सामने नहीं आई। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि गुलेरी जी ने कहाँ से प्रभाव ग्रहण किया, महत्वपूर्ण यह है कि वे कहानी को कहने में सफल रहे हैं या नहीं। उसे उन्होंने भारतीय परिवेश के अनुरूप ढाला है या नहीं। तुलनात्मक साहित्य अंततः साहित्यिक आलोचना है, इसे साहित्यिकता से अलग करके नहीं देखा जा सकता। इसका काम दो या दो से अधिक राष्ट्रों के साहित्यों का मूल्यांकन करना, तुलना करना, विश्लेषण करना है, न कि प्रभाव को खोजना है। आलोचना के बिना प्रभाव का अध्ययन भी ठीक से नहीं किया जा सकता, वह यांत्रिकता, जासूसी, अटकलबाजी के नजदीक होगा। तुलनात्मक साहित्य द्वारा सिर्फ़ तुलना ही नहीं होती, और भी बहुत कुछ होता है। वह व्याख्या-विवेचन करता है। रेने वेलेक तुलनात्मक साहित्य में साहित्यिकता के पक्ष पर जोर देते हैं। साहित्य में मौलिक कुछ भी नहीं होता, लेखक अपने परिवेश, अपनी जिन्दगी, अपने अनुभवों से बहुत कुछ लेता है, उसने इनका उपयोग किस रूप में किया है, यह जाँच का विषय होना चाहिए। एक ही राम-कथा के आधार पर तुलसी लोकमंगल के कवि और केशव चमत्कारी कवि हो जाते हैं। निराला राम की जिन्दगी को आधुनिक संदर्भ में देखते हैं। भारतभूषण अग्रवाल ने महाभारत की एक सांझ एकांकी महाभारत की कथा पर लिखी। उन्होंने बड़े तार्किक और साहित्यिक ढंग से पांडवों को अत्याचारी, सत्ता-लोलुप सिद्ध किया है। इसलिए तथ्य का अलग से अपना कोई महत्व नहीं होता। लेखक ने उस तथ्य को किस रूप में रखा है, यह महत्वपूर्ण है। तीघम की मान्यता में सूचनाओं के लिए तो जगह है, पर यह नहीं है कि उन सूचनाओं का प्रयोग लेखक ने किस रूप में किया है। उन्होंने तुलनात्मक साहित्य को ऐसा अनुशासन बना दिया जो विदेशी स्रोतों और लेखक की प्रसिद्धि की जाँच करेगा। रेने वेलेक ने तीघम की आलोचना करते हुए लिखा है –तुलनात्मक साहित्य को साहित्यों के विदेशी व्यवसाय के अध्ययन तक सीमित करने का यत्न निश्चित रूप में एक दुर्भाग्य है। विषय-वस्तु में तुलनात्मक साहित्य असम्बद्ध टुकड़ों का अव्यवस्थित समूह बन जाएगा।2  तुलनात्मक साहित्य के फ्रांसीसी सम्प्रदाय द्वारा साहित्य को ब्यौरे के रूप में देखा गया, प्रभाव की कसौटी पर साहित्य को परखने की बात की गई। प्रभाव पड़ता ही नहीं, प्रभाव ग्रहण भी किया जाता है। दुनिया भर के साहित्य पर फ्राइडवाद/मार्क्सवाद/अस्तित्ववाद का प्रभाव पड़ा। किस लेखक ने इसे किस रूप में ग्रहण किया और इसे किस युगीन आवश्यकता के तहत ग्रहण किया, इसका विश्लेषण होना चाहिए। प्रभाव का पता लगा लेने मात्र से तुलनात्मक साहित्य का काम खत्म नहीं हो जाता। रेने वेलेक तुलनात्मक साहित्य में साहित्यिकता के पक्ष पर जोर देते हैं। वे साहित्य की स्वायत्तता की बात करते हैं। वे कलावादी नहीं हैं, पर उनका दृष्टिकोण कलावाद के नजदीक की बात तक जाता है, लेकिन वे साहित्य को कलावाद में बदलने वाले आलोचक नहीं हैं।

 

            तुलनात्मक साहित्य को साहित्यिक अनुशीलन के रूप में लेना चाहिए। फ्रांसीसी सम्प्रदाय वालों ने तुलनात्मक साहित्य को साहित्य से अलग स्थापित करने की कोशिश की। उनकी पद्धति गलत थी। प्रभाव को खोजना, डायरी खोजना आदि काम यांत्रिकता को बढ़ावा देता है। फ्रांसीसी सम्प्रदाय वालों का विचार गणना अधिकारी की तरह है। तीघम राष्ट्रीय साहित्य और तुलनात्मक साहित्य को अपने सम्बन्ध उन मिथकों और किंवदंतियों से है जो लेखक के सामने व्याप्त रहता है। सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीय साहित्य में किंवदंती और मिथक नहीं होते? क्या यह विभाजन सही है? क्या गोदान (प्रेमचंद) राष्ट्रीय साहित्य नहीं है? उसकी कथा इस धारणा पर टिकी है कि मरते वक्त गाय का दान करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। यह सवाल भी है कि हम राष्ट्रीय साहित्य किसे मानेंगे? उसका आधार क्या होगा? यह तय हम राष्ट्र की राजनीतिक सीमाओं के आधार पर करेंगे या भाषा के आधार पर? कई देशों में अनेक भाषाओं में साहित्य लिखा जाता है, ऐसी स्थिति में किस भाषा के साहित्य को राष्ट्रीय साहित्य माना जाएगा? तीघम ने कहा कि एक ही भाषा कई देश में है तो वहाँ के साहित्य में स्थानीय रंगत ज्यादा है या विश्वव्यापी दृष्टिकोण है, इस आधार को स्वीकार नहीं किया गया।

 

            फ्रांसीसी सम्प्रदाय के दूसरे महत्वपूर्ण अध्येता कैरे हैं। इन्होंने तीघम की आलोचना की – “तीघम के अनुसार, सारा तुलनात्मक अध्ययन सिर्फ़ प्रभाव का अध्ययन है। प्रभाव पड़ने, न पड़ने का अध्ययन अटकलबाजी की संभावना को जन्म देता है।3  कैरे की बात बिल्कुल सही है। वे तीघम की मान्यता से उत्पन्न पेचीदगी और परेशानी को समझने में सफल रहे, पर वे जब तुलनात्मक साहित्य के बारे में अपना विचार रखते हैं तो उससे दूसरी समस्या खड़ी हो जाती है। केरे ने लिखा है –“Comparative literature is a branch of literary history, it is the study of spiritual international relation.”4  कैरे की इस स्थापना से दो बातें निकलती हैं :-

1)     तुलनात्मक साहित्य साहित्येतिहास का भाग है,

2)     यह आध्यात्मिक अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन है।

 

तुलनात्मक साहित्य साहित्येतिहास का अंग है या नहीं, यह विचारणीय हो सकता है, पर यह आध्यात्मिक अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन है, यह कहना मामले को उलझाना है। कैरे क्या कहना चाहते हैं, यह स्पष्ट नहीं हो पाता। वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि तुलनात्मक साहित्य दो राष्ट्रों के साहित्य का ऐसा तुलनात्मक अध्ययन है जिसमें दो राष्ट्रों की मनोवृत्ति, मनोविज्ञान का अध्ययन किया जाता है। कैरे साहित्य को मनोविज्ञान तक खींचकर ले जाते हैं। यह अनावश्यक विस्तार है। केरे के बारे में रेने वेलेक ने सही लिखा है कि तुलनात्मक साहित्य के विस्तार के मायने आम विषय-वस्तु के बाँझपन को मान्यता देनी है। इसकी कीमत साहित्यिक पांडित्य को सामाजिक मनोविज्ञान और साहित्यिक इतिहास में विलीन करके अदा करनी है।5 कैरे ने तुलनात्मक साहित्य द्वारा राष्ट्रीय मनोविज्ञान को परखने की कोशिश की। गोयडे भी तुलनात्मक साहित्य में राष्ट्रीय वहमों के अध्ययन की बात करते हैं। साहित्य अंततः साहित्य होता है, इसका इस तरह विस्तार साहित्य की दुनिया में पेचीदगी लाना है।

 

            जिस तुलनात्मक साहित्य का उदय राष्ट्र की सीमाओं को तोड़कर उसमें समानता का अध्ययन करने के लिए हुआ, वह अपने को श्रेष्ठ और दूसरों को को हीन समझने या सिद्ध करने का हथियार बन गया। तुलनात्मक साहित्य अंध-राष्ट्रवाद का पर्याय बन गया। देशभक्ति की भावना तुलनात्मक साहित्य की कमजोरी का हिस्सा बन जाता है। रेने वेलेक ने तुलनात्मक साहित्य के बारे में लिखा है –यह सांस्कृतिक बही-खाते की विचित्र व्यवस्था की ओर ले जाता है, अपने देश के जमा खाते को बढ़ाने की कामना, जिसे यह सिद्ध करके पूरा किया जाता है कि इसके देश ने दूसरे देशों पर प्रभाव डाले हैं या अधिक सूक्ष्म रूप से यह साबित करना चाहता है कि इसके देश ने विदेशी साहित्यकार को किसी अन्य देश से अधिक आत्मसात किया है और समझता है।6

 

            तुलनात्मक साहित्य के फ्रांसीसी सम्प्रदाय वालों ने तुलनात्मक साहित्य की ऐसी समझ बनाई जो तथ्यवादी थी। साहित्य को प्रभाव तक सीमित करना साहित्य की साहित्यिकता को कम करना है। प्रभाव के बिना भी तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन हो सकता है। डिकेन्स – बातज़क ने एक-दूसरे को प्रभावित नहीं किया, फिर भी दोनों का तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत अध्ययन हो सकता है। तुलनात्मक साहित्य के फ्रांसीसी सम्प्रदाय वालों ने तुलनात्मक साहित्य की आत्मा को नहीं पहचाना। उन्होंने बनावटी ढंग से साहित्य के अध्ययन की पद्धति विकसित की।

 

            तुलनात्मक साहित्य में तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य का विभाजन छोड़ देना चाहिए। राष्ट्रीय सीमाओं से परे होकर साहित्य का अध्ययन करना इसका उद्देश्य होना चाहिए। तुलनात्मक साहित्य यांत्रिक ढंग से साहित्यिक अनुशीलन करने का अनुशासन नहीं है, जैसा कि फ्रांसीसी सम्प्रदाय वालों ने किया।

 

संदर्भ :

  1. रेने वेलेक – आलोचना की धारणाएँ (तुलनात्मक साहित्य का संकट लेख), हरियाणा साहित्य अकादमी, चंडीगढ़, 1990, पृ.- 156-157
  2. वही, पृ.- 157
  3. कक्षा व्याख्यान, डॉ. वीर भारत तलवार
  4. Rene Wellek – Discriminations : Further Concepts of Criticism, VikasPublications, Delhi, 1970, Page – 16
  5. रेने वेलेक – आलोचना की धारणाएँ (तुलनात्मक साहित्य का संकट लेख), हरियाणा साहित्य अकादमी, चंडीगढ़, 1990, पृ.- 156-157
  6. वही, पृ.- 161 

सहायक पुस्तकें :-

  1. रेने वेलेक – आलोचना की धारणाएँ, हरियाणा साहित्य अकादमी, चंडीगढ़, 1990 [हिन्दी में अनुवाद – इन्द्रनाथ मदान]

 अंग्रेजी पुस्तकें :-

  1. Dhawan, R.K. – Comparative Literature, Bahri Publications, New Delhi, 1987
  2. Nagendra (Ed.) – Comparative Literature, Delhi University Press, Delhi, 1977
  3. Wellek, Rene – Concepts of Criticism, Yale University Press, London, 1963
  4. Wellek, Rene – Discriminations : Further Concept of Criticism, Vikas Publications, Delhi, 1970

 

डॉ. अभिषेक रौशन

सहायक प्राध्यापक (हिंदी विभाग), अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद

araushan.jnu@gmail.com, 9676584598


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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