डॉ. आशुतोष मिश्रा
शोध सारांश
केरल, अपनी प्राकृतिक सुंदरता, समृद्ध जैव विविधता
और विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है। इस दक्षिणी राज्य की जीवंत टेपेस्ट्री
का एक अभिन्न अंग इसके विविध आदिवासी समुदाय हैं, जो सदियों से पश्चिमी घाटों के घने
जंगलों और पहाड़ी इलाकों में निवास करते आए हैं। ये समुदाय न केवल इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी
तंत्र के संरक्षक रहे हैं, बल्कि उन्होंने पारंपरिक ज्ञान का एक विशाल भंडार भी विकसित
किया है, जो पीढ़ियों से मौखिक रूप से हस्तांतरित होता रहा है। यह ज्ञान उनके जीवन,
संस्कृति, आजीविका और
पर्यावरण के साथ उनके गहरे संबंधों का आधार है।हालांकि,
स्वतंत्रता के बाद से, विशेष रूप से विकास परियोजनाओं, बढ़ती जनसंख्या के दबाव और बाहरी
दुनिया के संपर्क के कारण, केरल के आदिवासी समुदायों को उनके पारंपरिक अधिकारों, विशेष
रूप से भूमि और वन संसाधनों पर उनके अधिकारों के क्षरण का सामना करना पड़ा है। इसके
परिणामस्वरूप न केवल उनकी आजीविका और जीवन शैली प्रभावित हुई है, बल्कि उनके अनमोल
पारंपरिक ज्ञान के लुप्त होने का खतरा भी पैदा हो गया है।
यह लेख केरल में आदिवासी अधिकारों की स्थिति का
विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसमें भूमि अधिकार, वन अधिकार और स्वशासन के अधिकार
शामिल हैं। यह विशेष रूप से इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे इन अधिकारों का हनन
आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण और हस्तांतरण को सीधे तौर पर प्रभावित
करता है। हम पारंपरिक ज्ञान के महत्व, इसके विभिन्न रूपों, इसेLने वाली चुनौतियों और
इसके संरक्षण और सुरक्षा के लिए किए जा रहे प्रयासों की पड़ताल करेंगे, साथ ही आदिवासी
अधिकारों को मजबूत करने और उनके पारंपरिक ज्ञान की रक्षा के लिए आगे की राह सुझाएंगे।
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केरल
में आदिवासी: एक संक्षिप्त परिचय
केरल में 35 से अधिक अधिसूचित अनुसूचित जनजातियाँ
हैं, जिनकी आबादी राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 1.5% है। ये समुदाय भौगोलिक रूप से
विभिन्न जिलों में फैले हुए हैं, जिनमें वायनाड, पलक्कड़ (विशेषकर अट्टापडी क्षेत्र),
इडुक्की, त्रिशूर, मलप्पुरम और कासरगोड प्रमुख हैं। प्रत्येक समुदाय की अपनी अनूठी
भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज और पारंपरिक ज्ञान प्रणाली है।
प्रमुख आदिवासी समुदायों में शामिल हैं:
●
पनियास: मुख्य रूप से वायनाड, मलप्पुरम और कन्नूर जिलों में पाए
जाने वाले पनियास ऐतिहासिक रूप से भूमिहीन खेतिहर मजदूर रहे हैं।
●
कुरुचियास: वायनाड के कुरुचियास अपनी मार्शल परंपराओं और तीरंदाजी
कौशल के लिए जाने जाते हैं। वे कृषि पर भी निर्भर करते हैं।
●
मुथुवन: इडुक्की जिले के मुथुवन समुदाय अपनी विशिष्ट सामाजिक
संरचना और पहाड़ियों के साथ गहरे संबंध के लिए जाने जाते हैं।
●
इरुला, मुदुगा, कुरुम्बा: पलक्कड़ जिले के अट्टापडी क्षेत्र में रहने वाले
ये समुदाय अपनी कृषि पद्धतियों और पारंपरिक चिकित्सा ज्ञान के लिए जाने जाते हैं। कुरुम्बा
विशेष रूप से अपनी विस्तृत पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली के लिए विख्यात हैं।
●
काडर: त्रिशूर और पलक्कड़ के काडर अपनी वन-आधारित जीवन शैली और पारंपरिक वनोपज संग्रह
ज्ञान के लिए जाने जाते हैं।
●
कट्टुनायकन: वायनाड और मलप्पुरम के कट्टुनायकन (जिनका नाम 'जंगल के
राजा' से आया है) अपनी आखेट और संग्रहण परंपराओं और वनोपज ज्ञान के लिए जाने जाते हैं।
ये समुदाय अपनी आजीविका के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रूप से जंगलों पर निर्भर रहे हैं। उनके जीवन का ताना-बाना प्रकृति, भूमि और उनके पारंपरिक
ज्ञान से गहराई से जुड़ा हुआ है।
केरल
में आदिवासी अधिकारों का ऐतिहासिक संदर्भ
औपनिवेशिक काल से पहले, केरल के अधिकांश आदिवासी
समुदाय जंगलों में स्वतंत्र रूप से रहते थे और उन पर तथा आसपास की भूमि पर उनके पारंपरिक
सामुदायिक अधिकार थे। औपनिवेशिक शासन ने इस व्यवस्था को बाधित किया। ब्रिटिश प्रशासन
ने वनों को अपने नियंत्रण में ले लिया और उन्हें राजस्व उत्पन्न करने वाले संसाधन के
रूप में देखा। इसने आदिवासी समुदायों को उनकी पारंपरिक भूमि और संसाधनों से धीरे-धीरे
बेदखल करना शुरू कर दिया।
स्वतंत्रता के बाद भी, स्थिति में पूरी तरह सुधार
नहीं हुआ। राज्य सरकारों ने वन क्षेत्रों को 'आरक्षित वन' या 'संरक्षित वन' घोषित करना
जारी रखा, जिससे आदिवासियों के जंगल में प्रवेश और वनोपज संग्रह पर प्रतिबंध लग गए।
विकास परियोजनाओं जैसे बांधों, सड़कों और बागानों के निर्माण के कारण भी बड़े पैमाने
पर विस्थापन हुआ, जिससे आदिवासी समुदाय अपनी जड़ों से उखड़ गए और गरीबी और हाशिए पर
चले गए। गैर-आदिवासियों द्वारा आदिवासी भूमि का अलगाव एक और गंभीर समस्या रही है, जिसने
उनके भूमि अधिकारों को और कमजोर किया।
इन ऐतिहासिक और निरंतर चुनौतियों ने केरल में आदिवासी
समुदायों के अधिकारों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है और उनके पारंपरिक जीवन शैली,
संस्कृति और ज्ञान के हस्तांतरण को खतरे में डाल दिया है।
संवैधानिक
और कानूनी ढाँचा
भारतीय संविधान ने आदिवासी समुदायों (अनुसूचित जनजातियों)
के संरक्षण और कल्याण के लिए कई प्रावधान किए हैं। केरल के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण
प्रावधानों में शामिल हैं:
●
अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4): राज्य को अनुसूचित जनजातियों सहित किसी भी सामाजिक
और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देते
हैं।
●
अनुच्छेद 19 (5): अनुसूचित जनजातियों के हितों की रक्षा के लिए सामान्य
नागरिकों के संपत्ति के अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है।
●
अनुच्छेद 46: राज्य को अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक और आर्थिक
हितों को विशेष देखभाल के साथ बढ़ावा देने और उन्हें सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार
के शोषण से बचाने का निर्देश देता है।
●
पांचवीं अनुसूची: हालांकि केरल पांचवीं अनुसूची के तहत शामिल नहीं
है, यह अनुसूची आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित है और इसके सिद्धांत
अक्सर आदिवासी अधिकारों की चर्चा में प्रासंगिक होते हैं, खासकर स्वशासन के संदर्भ
में।
इन संवैधानिक प्रावधानों के अलावा, भारत सरकार और
केरल सरकार ने आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए कई कानून और नीतियां बनाई हैं। इनमें
सबसे महत्वपूर्ण है अनुसूचित जनजाति और अन्य
पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (FRA)।
वन
अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA)
FRA एक ऐतिहासिक कानून है जो वन dwellers के अधिकारों,
विशेष रूप से अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों को मान्यता देता है जो पीढ़ियों से जंगलों
में निवास कर रहे हैं। अधिनियम का उद्देश्य वन भूमि पर उनके पारंपरिक अधिकारों को कानूनी
मान्यता देना और वन संसाधनों के प्रबंधन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना है। FRA
के तहत मान्यता प्राप्त प्रमुख अधिकारों में शामिल हैं:
●
व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR): वन भूमि के उस हिस्से पर व्यक्तिगत अधिकार जिस
पर व्यक्ति या परिवार 13 दिसंबर 2005 से पहले से काबिज है और खेती कर रहा है।
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सामुदायिक वन अधिकार (CFR): समुदायों को लघु वनोपज (Minor Forest Produce
- MFP) इकट्ठा करने, उपयोग करने और निपटाने का अधिकार; मछली पकड़ने और पानी के निकायों
तक पहुँच का अधिकार; चराई के मैदानों तक पहुँच का अधिकार; पारंपरिक रूप से संरक्षित
या संरक्षित क्षेत्रों तक पहुँच का अधिकार; और सामुदायिक वन संसाधनों की रक्षा, पुनर्जनन
या संरक्षण या प्रबंधन का अधिकार।
●
निवास स्थान का अधिकार (Habitat Rights): आदिम जनजाति समूहों (PTGs) और कृषि-पूर्व समुदायों
को उनके निवास स्थान पर अधिकार की मान्यता।
●
पुनर्वास और विकास संबंधी अधिकार: अवैध रूप से बेदखल या विस्थापित होने पर पुनर्वास
का अधिकार।
FRA का कार्यान्वयन ग्राम सभा के माध्यम से किया
जाता है, जो व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों के दावों को सत्यापित करने और क्षेत्र
के वन संसाधनों के प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण इकाई है।
केरल में, FRA के कार्यान्वयन की मिश्रित सफलता
मिली है। कुछ हद तक व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकार शीर्षक वितरित किए गए हैं, लेकिन
अभी भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। भूमि सर्वेक्षण में देरी, साक्ष्य जुटाने
में कठिनाई, वन विभाग के साथ समन्वय की कमी, और ग्राम सभाओं को पूरी तरह से सशक्त न
करना कुछ प्रमुख बाधाएं हैं। सामुदायिक वन अधिकारों की मान्यता विशेष रूप से धीमी रही
है, जबकि ये अधिकार आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान और संसाधन प्रबंधन प्रथाओं
के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण हैं।
केरल
में भूमि अधिकार और चुनौतियाँ
भूमि आदिवासी समुदायों की पहचान, संस्कृति और आजीविका
का मूल है। केरल में, ऐतिहासिक रूप से भूमि अलगाव एक बड़ी समस्या रही है, जहां गैर-आदिवासियों
ने विभिन्न तरीकों से आदिवासियों की भूमि हड़प ली है। इस समस्या को दूर करने के लिए,
केरल सरकार ने केरल अनुसूचित जनजाति (भूमि
के हस्तांतरण पर प्रतिबंध और भूमि की बहाली) अधिनियम, 1975 अधिनियमित किया। इस
अधिनियम का उद्देश्य गैर-आदिवासियों द्वारा आदिवासियों से भूमि के हस्तांतरण पर प्रतिबंध
लगाना और पहले से बेची गई या हस्तांतरित की गई भूमि को आदिवासियों को वापस दिलाना था।
हालांकि, इस अधिनियम के कार्यान्वयन में भी कई बाधाएं
आई हैं, जिसमें कानूनी चुनौतियाँ, नौकरशाही की देरी और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी
शामिल है। भूमि बहाली की प्रक्रिया बेहद धीमी और जटिल रही है, और कई आदिवासी परिवार
अभी भी अपनी छीनी हुई भूमि वापस पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। भूमिहीनता आदिवासी
समुदायों में गरीबी और असुरक्षा का एक प्रमुख कारण बनी हुई है।
हाल के वर्षों में, भूमि अधिकारों की मांग को लेकर
केरल में कई आदिवासी आंदोलन और विरोध प्रदर्शन हुए हैं, जो इस मुद्दे की गंभीरता को
रेखांकित करते हैं।
पारंपरिक
ज्ञान: महत्व और विविधता
पारंपरिक ज्ञान (Traditional Knowledge - TK) से
तात्पर्य किसी समुदाय द्वारा पीढ़ियों से विकसित ज्ञान, कौशल और प्रथाओं के संचयी भंडार
से है जो उनके पर्यावरण के साथ उनके संबंधों से उत्पन्न होता है। यह ज्ञान मौखिक परंपराओं,
कहानियों, अनुष्ठानों, कला रूपों और दैनिक प्रथाओं के माध्यम से हस्तांतरित होता है।
केरल के आदिवासी समुदायों के पास पारंपरिक ज्ञान
का एक अविश्वसनीय रूप से समृद्ध और विविध भंडार है, जिसमें शामिल हैं:
●
पारंपरिक चिकित्सा ज्ञान: यह शायद पारंपरिक ज्ञान का सबसे प्रसिद्ध रूप है।
केरल के आदिवासी समुदायों को औषधीय पौधों के गुणों, उनके उपयोग की विधि और विभिन्न
बीमारियों के इलाज के बारे में गहरा ज्ञान है। उदाहरण के लिए, कानी जनजाति का आरोग्य पच नामक पौधे के औषधीय गुणों का ज्ञान
एक प्रसिद्ध उदाहरण है, जिसने एक दवा के विकास में मदद की। हालांकि, इस ज्ञान के व्यावसायिक
उपयोग से आदिवासियों को उचित लाभ साझा करने का मुद्दा एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय
रहा है।
●
कृषि पद्धतियाँ: आदिवासियों ने स्थानीय जलवायु, मिट्टी और पारिस्थितिकी
तंत्र के अनुकूल टिकाऊ कृषि पद्धतियाँ विकसित की हैं। इसमें फसल चक्र, बीज संरक्षण
तकनीक और प्राकृतिक कीट नियंत्रण के तरीके शामिल हैं। उनका ज्ञान अक्सर अत्यधिक उत्पादकता
के बजाय पारिस्थितिक संतुलन और लचीलेपन पर केंद्रित होता है।
●
वनस्पति और जीव विज्ञान ज्ञान: आदिवासियों को वनस्पति और जीवों की प्रजातियों,
उनके व्यवहार, उपयोग और पारिस्थितिक महत्व के बारे में विस्तृत ज्ञान होता है। वे जानते
हैं कि कौन से पौधे खाद्य हैं, कौन से औषधीय हैं, और कौन से विभिन्न उद्देश्यों के
लिए उपयोग किए जा सकते हैं (जैसे निर्माण सामग्री)।
●
संसाधन प्रबंधन: आदिवासियों ने सामुदायिक संसाधन प्रबंधन के टिकाऊ
तरीके विकसित किए हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि संसाधनों का अत्यधिक दोहन न हो और
वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए उपलब्ध रहें। इसमें शिकार और संग्रहण के लिए पारंपरिक
नियम और सीमाएं शामिल हैं।
●
सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्ञान: पारंपरिक ज्ञान में गीत, नृत्य, कहानियाँ, पौराणिक
कथाएँ और अनुष्ठान भी शामिल हैं जो समुदाय के इतिहास, मूल्यों और प्रकृति के साथ उनके
संबंधों को दर्शाते हैं। यह ज्ञान समुदाय की पहचान और सामाजिक एकता के लिए महत्वपूर्ण
है।
यह पारंपरिक ज्ञान न केवल आदिवासी समुदायों की आजीविका
और कल्याण के लिए आवश्यक है, बल्कि यह व्यापक समाज और पर्यावरण के लिए भी महत्वपूर्ण
है। यह जैव विविधता संरक्षण, सतत विकास और नई वैज्ञानिक खोजों के लिए मूल्यवान अंतर्दृष्टि
प्रदान करता है।
पारंपरिक
ज्ञान और आदिवासी अधिकार: अंतर्संबंध
केरल में आदिवासी अधिकार और पारंपरिक ज्ञान गहराई
से जुड़े हुए हैं। एक को कमजोर करने से दूसरे पर सीधा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
●
भूमि और वन अधिकारों का हनन: जब आदिवासियों को उनकी पारंपरिक भूमि और जंगलों
से बेदखल किया जाता है या उन तक उनकी पहुंच प्रतिबंधित कर दी जाती है, तो वे अपने पारंपरिक
ज्ञान का अभ्यास करने और उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की क्षमता खो देते हैं। औषधीय
पौधों का ज्ञान तब तक उपयोगी नहीं रहता जब तक उन पौधों तक पहुंच न हो। कृषि पद्धतियां
तब तक बेकार हो जाती हैं जब तक खेती के लिए भूमि न हो। संसाधन प्रबंधन कौशल तब तक अप्रासंगिक
हो जाते हैं जब तक प्रबंधित करने के लिए संसाधन न हों।
●
वन अधिकार अधिनियम (FRA) और पारंपरिक ज्ञान: FRA, विशेष रूप से सामुदायिक वन अधिकारों की मान्यता,
पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण हो सकता है। सामुदायिक वन अधिकारों
के तहत, ग्राम सभाओं को अपने पारंपरिक वन क्षेत्रों का प्रबंधन करने का अधिकार मिलता
है। यह उन्हें अपनी पारंपरिक संसाधन प्रबंधन प्रथाओं को लागू करने, जैव विविधता की
रक्षा करने और अपने पारंपरिक ज्ञान को बनाए रखने और मजबूत करने का अवसर प्रदान करता
है। पारंपरिक ज्ञान, बदले में, FRA के तहत भूमि और वन अधिकारों के दावों का समर्थन
करने के लिए महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रदान कर सकता है, यह प्रदर्शित करके कि समुदाय ऐतिहासिक
रूप से इन क्षेत्रों पर निर्भर रहा है और उनका स्थायी रूप से उपयोग कर रहा है।
●
पारंपरिक ज्ञान का व्यावसायिक उपयोग और लाभ साझाकरण: आदिवासी पारंपरिक ज्ञान, विशेष रूप से औषधीय पौधों
से संबंधित, में महत्वपूर्ण व्यावसायिक क्षमता है। हालांकि, अक्सर इस ज्ञान का उपयोग
बिना आदिवासी समुदायों की सहमति या उचित लाभ साझाकरण के किया जाता है। यह एक प्रकार
का "बायो-पायरेसी" (Bio-piracy) है जो आदिवासियों के अधिकारों का उल्लंघन
करता है और उनके पारंपरिक ज्ञान को कमजोर करता है। पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा और उचित
लाभ साझाकरण तंत्र स्थापित करना एक महत्वपूर्ण अधिकार का मुद्दा है। भारत का जैविक
विविधता अधिनियम, 2002 (Biodiversity Act, 2002) कुछ हद तक इस मुद्दे को संबोधित करने
का प्रयास करता है, जिसमें जैविक संसाधनों और संबंधित पारंपरिक ज्ञान तक पहुंच और लाभ
साझाकरण को विनियमित करने के प्रावधान हैं। राज्य जैव विविधता बोर्ड (State
Biodiversity Boards) और स्थानीय जैव विविधता प्रबंधन समितियों (Biodiversity
Management Committees - BMCs) को इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है, लेकिन केरल में
इनकी प्रभावशीलता और आदिवासी समुदायों की भागीदारी को मजबूत करने की आवश्यकता है।
●
सांस्कृतिक अधिकारों का क्षरण: पारंपरिक ज्ञान आदिवासी संस्कृति का एक अभिन्न
अंग है। जब पारंपरिक ज्ञान लुप्त होता है, तो यह आदिवासी पहचान, भाषा और सांस्कृतिक
प्रथाओं को भी कमजोर करता है। स्वशासन और सांस्कृतिक संरक्षण के अधिकार पारंपरिक ज्ञान
की सुरक्षा से अविभाज्य हैं।
पारंपरिक
ज्ञान के संरक्षण और सुरक्षा की चुनौतियाँ
केरल में आदिवासी पारंपरिक ज्ञान कई चुनौतियों का
सामना कर रहा है, जिससे इसके लुप्त होने का खतरा है:
●
आधुनिकीकरण और बदलती जीवन शैली: शहरीकरण, शिक्षा प्रणाली जो अक्सर पारंपरिक ज्ञान
को महत्व नहीं देती, और बाहरी सांस्कृतिक प्रभावों के कारण युवा पीढ़ी अक्सर अपने पारंपरिक
ज्ञान और प्रथाओं से दूर हो जाती है।
●
विस्थापन और पर्यावास का नुकसान: विकास परियोजनाओं या वन संरक्षण उपायों के कारण
विस्थापन आदिवासियों को उनके पारंपरिक वातावरण से अलग कर देता है, जो उनके ज्ञान का
स्रोत है। पर्यावास का नुकसान औषधीय पौधों और अन्य महत्वपूर्ण संसाधनों की उपलब्धता
को कम करता है, जिससे पारंपरिक प्रथाओं को बनाए रखना मुश्किल हो जाता है।
●
ज्ञान का दस्तावेज़ीकरण और सत्यापन: पारंपरिक ज्ञान अक्सर मौखिक होता है। इसके दस्तावेज़ीकरण
की कमी इसे लुप्त होने के प्रति संवेदनशील बनाती है। हालांकि, दस्तावेज़ीकरण सावधानीपूर्वक
और समुदाय की सहमति से किया जाना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि ज्ञान पर समुदाय
का नियंत्रण बना रहे।
●
बायो-पायरेसी और अनुचित उपयोग: पारंपरिक ज्ञान का अनधिकृत उपयोग और व्यावसायिक
लाभ साझाकरण की कमी समुदायों को ज्ञान साझा करने से हतोत्साहित करती है और उनके अधिकारों
का उल्लंघन करती है।
●
अंतर-पीढ़ीगत हस्तांतरण की कमजोर पड़ना: पारंपरिक शिक्षा प्रणालियों का कमजोर पड़ना या
टूटना युवा पीढ़ी तक पारंपरिक ज्ञान के हस्तांतरण को बाधित करता है।
●
सरकारी नीतियों में पारंपरिक ज्ञान को मान्यता की
कमी: कई सरकारी विकास योजनाएं
और नीतियां आदिवासी पारंपरिक ज्ञान और प्रथाओं को पूरी तरह से पहचानती या एकीकृत नहीं
करती हैं, जिससे उनकी प्रभावशीलता कम हो जाती है।
सरकारी
पहल और गैर सरकारी संगठनों की भूमिका
केरल सरकार ने आदिवासी कल्याण के लिए कई योजनाएं
लागू की हैं, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और आजीविका से संबंधित कार्यक्रम शामिल
हैं। हालांकि, इन योजनाओं की प्रभावशीलता अक्सर कार्यान्वयन अंतराल, भ्रष्टाचार और
लक्षित लाभार्थियों तक पहुंचने में चुनौतियों से बाधित होती है। हाल ही में कुछ कल्याणकारी
योजनाओं के लिए फंड में कटौती की खबरें भी चिंताजनक हैं।
पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण के लिए, कुछ पहलें हुई
हैं, जैसे कि केरल राज्य जैव विविधता बोर्ड द्वारा जैव विविधता प्रबंधन समितियों
(BMCs) का गठन और कुछ समुदायों द्वारा पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टरों (PBRs) का
दस्तावेज़ीकरण। हालांकि, इन प्रयासों को मजबूत करने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता
है कि आदिवासी समुदाय इन प्रक्रियाओं के केंद्र में हों और उनका ज्ञान सुरक्षित रहे।
केरल में कई गैर सरकारी संगठन (NGOs) और नागरिक
समाज संगठन आदिवासी अधिकारों के लिए advocacy कर रहे हैं, FRA के कार्यान्वयन में सहायता
कर रहे हैं, भूमि बहाली के मुद्दों पर काम कर रहे हैं और पारंपरिक ज्ञान के दस्तावेज़ीकरण
और संरक्षण में समुदायों का समर्थन कर रहे हैं। ये संगठन अक्सर सरकार और आदिवासी समुदायों
के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करते हैं।
न्यायिक
निर्णय और आदिवासी अधिकार
भारतीय न्यायपालिका ने भी आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने विभिन्न
मामलों में आदिवासियों के भूमि अधिकारों, वन अधिकारों और पारंपरिक जीवन शैली के महत्व
को बरकरार रखा है। केरल उच्च न्यायालय ने भी राज्य में आदिवासी भूमि अलगाव और FRA के
कार्यान्वयन से संबंधित मामलों में कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए होंगे, हालांकि विशिष्ट
निर्णयों का विस्तृत विश्लेषण इस लेख के दायरे से बाहर है, उनका अस्तित्व इस बात का
संकेत है कि कानूनी रास्ते आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए उपलब्ध हैं। हाल ही में,
संपत्ति के अधिकारों में आदिवासी महिलाओं के लिए समानता की सिफारिश करने वाले सर्वोच्च
न्यायालय के विचार भी आदिवासी अधिकारों के विकास में एक महत्वपूर्ण पहलू हैं।
आगे
की राह और सुझाव
केरल में आदिवासी अधिकारों को मजबूत करने और उनके
पारंपरिक ज्ञान की रक्षा के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। कुछ महत्वपूर्ण
सुझाव इस प्रकार हैं:
●
वन अधिकार अधिनियम का प्रभावी कार्यान्वयन: FRA का समयबद्ध और पारदर्शी तरीके से कार्यान्वयन
सुनिश्चित किया जाना चाहिए। व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों के दावों का सत्यापन
और वितरण तेजी से किया जाना चाहिए। ग्राम सभाओं को सशक्त बनाया जाना चाहिए और उन्हें
वन संसाधनों के प्रबंधन और FRA के तहत उनके अधिकारों का प्रयोग करने के लिए आवश्यक
संसाधन और प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। वन विभाग और आदिवासी कल्याण विभाग के
बीच बेहतर समन्वय महत्वपूर्ण है।
●
भूमि अलगाव की समस्या का समाधान: 1975 के अधिनियम का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित
किया जाए और आदिवासी भूमि की बहाली में तेजी लाई जाए। भूमि रिकॉर्ड को अद्यतन किया
जाए और भूमिहीन आदिवासी परिवारों को पर्याप्त भूमि उपलब्ध कराने के लिए विशेष कार्यक्रम
शुरू किए जाएं।
●
पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण और संवर्धन:
○
आदिवासी
समुदायों की सक्रिय भागीदारी और सहमति से उनके पारंपरिक ज्ञान का दस्तावेज़ीकरण किया
जाए। यह प्रक्रिया समुदाय के नियंत्रण में होनी चाहिए।
○
एक
'सui generis' प्रणाली या विशेष कानूनी ढाँचा विकसित किया जाए जो पारंपरिक ज्ञान की
सुरक्षा, स्वामित्व और उपयोग को संबोधित करे, जिसमें अनुचित विनियोजन और बायो-पायरेसी
को रोकना शामिल हो।
○
पारंपरिक
ज्ञान के वाणिज्यिक या वैज्ञानिक उपयोग से होने वाले लाभों के उचित और न्यायसंगत साझाकरण
के लिए प्रभावी तंत्र स्थापित किए जाएं। जैविक विविधता अधिनियम के तहत गठित BMCs को
मजबूत किया जाए और उन्हें पारंपरिक ज्ञान से संबंधित मामलों में निर्णय लेने का अधिकार
दिया जाए।
○
शिक्षा
प्रणाली में आदिवासी पारंपरिक ज्ञान को एकीकृत करने के तरीके खोजे जाएं, ताकि युवा
पीढ़ी को अपने विरासत से जोड़ा जा सके।
○
पारंपरिक
ज्ञान के अंतर-पीढ़ीगत हस्तांतरण को बढ़ावा देने के लिए सामुदायिक-आधारित पहल और पारंपरिक
शिक्षा केंद्रों का समर्थन किया जाए।
●
ग्राम सभाओं का सशक्तिकरण: ग्राम सभाओं को न केवल FRA के कार्यान्वयन में,
बल्कि स्थानीय शासन, संसाधन प्रबंधन और विकास योजनाओं की योजना और कार्यान्वयन में
भी वास्तविक निर्णय लेने का अधिकार दिया जाए। उन्हें पर्याप्त वित्तीय और मानव संसाधन
प्रदान किए जाएं।
●
विकास योजनाओं में संवेदनशीलता: विकास परियोजनाओं की योजना और कार्यान्वयन करते
समय आदिवासी समुदायों पर उनके संभावित प्रभाव का गहन मूल्यांकन किया जाए। विस्थापन
से बचा जाए, और यदि अपरिहार्य हो, तो उचित परामर्श, सहमति और सम्मानजनक पुनर्वास सुनिश्चित
किया जाए। विकास मॉडल आदिवासी जीवन शैली और पारंपरिक ज्ञान के अनुकूल होने चाहिए।
●
कानूनी जागरूकता और सहायता: आदिवासी समुदायों को उनके संवैधानिक और कानूनी
अधिकारों, विशेष रूप से FRA और भूमि कानूनों के बारे में जागरूक करने के लिए विशेष
अभियान चलाए जाएं। उन्हें मुफ्त कानूनी सहायता और सलाह तक आसान पहुँच प्रदान की जाए।
●
संस्थागत समन्वय: आदिवासी कल्याण विभाग, वन विभाग, राजस्व विभाग,
स्वास्थ्य विभाग और शिक्षा विभाग जैसे विभिन्न सरकारी विभागों के बीच बेहतर समन्वय
स्थापित किया जाए ताकि आदिवासी मुद्दों पर एकीकृत दृष्टिकोण अपनाया जा सके।
●
अनुसंधान और प्रलेखन को बढ़ावा: आदिवासी पारंपरिक ज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर और
अधिक शोध और प्रलेखन को प्रोत्साहित किया जाए, यह सुनिश्चित करते हुए कि शोध समुदाय
के लाभ के लिए हो और उनके अधिकारों का सम्मान करे।
निष्कर्ष
केरल में आदिवासी अधिकार और उनके पारंपरिक ज्ञान
का संरक्षण राज्य के सतत विकास और सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक है। आदिवासी समुदाय
न केवल अपनी सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, बल्कि उनके पास प्रकृति
और संसाधनों के बारे में भी बहुमूल्य ज्ञान है जो पूरे समाज के लिए प्रासंगिक है।
ऐतिहासिक रूप से, इन समुदायों को उनके अधिकारों,
विशेष रूप से भूमि और वन संसाधनों पर उनके अधिकारों से वंचित किया गया है, जिससे उनकी
आजीविका, संस्कृति और पारंपरिक ज्ञान का क्षरण हुआ है। वन अधिकार अधिनियम जैसे कानून
इन ऐतिहासिक अन्यायों को दूर करने का अवसर प्रदान करते हैं, लेकिन उनके प्रभावी कार्यान्वयन
में अभी भी गंभीर चुनौतियाँ हैं।
पारंपरिक ज्ञान केवल सांस्कृतिक अवशेष नहीं है;
यह जीवित, गतिशील ज्ञान है जो आदिवासी समुदायों के लचीलेपन और कल्याण के लिए महत्वपूर्ण
है। इसके संरक्षण और सुरक्षा के लिए इसे बायो-पायरेसी और अनुचित उपयोग से बचाना, दस्तावेज़ीकरण
को बढ़ावा देना (समुदाय के नियंत्रण में), और इसे शिक्षा और विकास प्रक्रियाओं में
एकीकृत करना आवश्यक है।
केरल सरकार, विभिन्न सरकारी एजेंसियों, गैर सरकारी
संगठनों और व्यापक समाज को आदिवासी अधिकारों को मजबूत करने और उनके पारंपरिक ज्ञान
को महत्व देने और उसकी रक्षा करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए। यह न केवल आदिवासी
समुदायों के अधिकारों और गरिमा को सुनिश्चित करेगा, बल्कि केरल की समृद्ध जैव विविधता
और सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण में भी योगदान देगा। केवल तभी जब आदिवासी समुदायों
को उनके अधिकार और उनके पारंपरिक ज्ञान के लिए सम्मान और सुरक्षा मिले, वे वास्तव में
'ईश्वर के अपने देश' के अभिन्न अंग के रूप में फल-फूल सकते हैं। इस दिशा में ठोस प्रयास
केरल को एक अधिक न्यायसंगत और समावेशी समाज बनने की राह पर ले जाएंगे।
संदर्भ
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त्रिशूर: लोककथा अध्ययन केंद्र। *[यह पुस्तक केरल में स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों की
पड़ताल करने वाले लेखों का संकलन है, जिसमें संभवतः आदिवासी समुदायों और उनकी परंपराओं
से संबंधित योगदान शामिल हैं।]
डॉ. आशुतोष मिश्रा, सहायक प्रोफ़ेसर, विधि संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय
ईमेल: ashu.du@gmail.com,
मोबाइल: +91-9873558866
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)
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