शोध आलेख :- जीवनदृष्टि के आईने में जनजातीय समाज बनाम आधुनिक समाज / डॉ. निशीथ राय

जीवनदृष्टि के आईने में जनजातीय समाज बनाम आधुनिक समाज
- डॉ. निशीथ राय

शोध सार : आज हम यदि आर्थिक,वैज्ञानिक और तकनीकी स्तर की बात  करें , तो अधिकांशलोग इस मत का अवश्य समर्थन करेंगे कि वर्तमान आधुनिक औद्योगिक सभ्यता मानवजातिके इतिहास में वैज्ञानिक तथा तकनीकी रूप से सबसे उन्नत है।समस्या तब आती है जब यह लोग इतनी ही विश्वसनीयता से यह भी स्थापित करते हैं किआधुनिक समाज नैतिकता, मानव मूल्य, ज्ञान और पारस्परिकता (जिन्हेंजीवनदृष्टि कहा जाता है) के आयामों में भी सबसे उन्नत है। प्रस्तुत शोध आलेख  इसी द्वंद्व (समस्या) को केंद्र में रखकर लिखा गया है। शोध आलेख के प्रथम भाग में विश्व के विभिन्न जनजातीय समाजों, जैसे- अफ्रीका के  कुंग एवं  हनुनू, अमेरिका की दुवामिश, थायलैंड की अखा एवं लाहु तथा भारत की कोलाम एवंसंथाल-की  जीवनदृष्टि के उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। इन उदाहरणों केमाध्यम से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जनजातीय समाज जीवनदृष्टि केमामलों में आधुनिक समाज से कितना उन्नत है?शोध आलेख के  दूसरे  भाग में यह  चर्चा की गई है कि आधुनिक समाज के किन क्षेत्रों मेंपुनः जनजातीयकरण’ (Re-Tribalisation) की आवश्यकता है? ऐसे कौन-कौन से क्षेत्र है जिनमें जनजातियों की जीवनदृष्टि  आधुनिक समाज के ज्ञान-विज्ञान के समकक्ष, उन्नत या निम्नहै?शोध आलेख  में जनजातीय और आधुनिक समाज कीजीवनदृष्टि कीताकत और कमजोरी का विश्लेषण कर एक समेकित जीवनदृष्टि के निर्माण का प्रयास किया गया है ।

शोध आलेख का  निष्कर्ष इस तथ्य के प्रतिपादन के साथ होता है कि जनजातीय जीवनदृष्टि हमारे यह संहति है की हमारे जीवन किसका महत्व होना चाहिए । बाज़ारवाद के इस दौर में जनजातीय समाज की जीवनदृष्टि हमें परिस्थितिकी सामंजस्य स्थापित करने की बात करती है। वर्तमान समाज को और मानवीय बनाने हेतु आज यह आवश्यक है कि  वह जनजातीय चेतना की समृद्ध विरासत को आवश्यक मानते हुए इसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण अंग बनाए।

बीज  शब्द :  जीवनदृष्टि (ईथोस), उबंटू, पुनः जनजातीयकरण

मूल आलेख : उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्वानों को जब जनजाति और जनजातीय जीवनदृष्टि को समझने के लिए वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता हुई तब मानवविज्ञानियों ने इस कार्य को करने में अग्रणी भूमिका निभाई ।मानवविज्ञान के शैशव काल  में इसे आदिम और अतीत का अध्ययन करने वाले विषय के रूप में परिभाषित किया गया ।सर्वप्रथम मानवविज्ञान के अंतर्गत ही इतरसंस्कृति’ (other’s culture) के अध्ययन पर विशेष बल दिया गया। यह पहला अनुशासनबना जिसने जनजाति समाज के विश्लेषण को महत्वपूर्ण माना है।19वीं शताब्दी में दो और प्रमुख घटनाएं हुई। प्रथम, औद्योगिक क्रांति के कारण विद्वानों का सामना दूरदराज में स्थित वनस्पतियों, जीवों और जनजाति समाज से हुआ।दूसरा, उद्विकासवादि सिद्धांतों ने मानव की उत्पत्ति के बारे में प्रश्न उठाया। सरल समाज से हुए आकस्मिक सामने तथा इन समाजों की अद्भुत संस्कृतियों ने विद्वानों को आश्चर्यचकित कर दिया । इन विद्वानों ने इनकी तुलना अपनी संस्कृति के साथ करके उन्हें आदिम माना और उद्विकास की सीढ़ी के निचले पायदान पर रखा। इनलोगों ने  इन आदिम समाजों के वर्तमान को, आधुनिक समाज के अतीत के कुछ चरण के रूप में व्याख्यायित किया गया। मरडोक(1949) ने तो इन्हें हमारे आदिम समकालीन की संज्ञा दी।

इन  आदिवासियों के अध्ययन की आवश्यकता का एक और कारण यह समझना था किमानवजाति की वर्तमान  तक की प्रगति यात्रा कैसी रही है । विकास के  विभिन्नचरणों के प्रतिनिधित्व के रूप में जनजाति समाज को देखा गया।  मानवविज्ञान अनुशासनके प्रमुख विद्वानों-फ्रेज़र,टाइलर, मॉर्गन और स्पेन्सर ने अध्ययन को एक नई दिशा देते हुए उद्विकासीय सिद्धांत की अवधारणा को  प्रतिपादित किया।इस सिद्धांत के अनुसार उद्विकास का प्रगतिशील होना आवश्यकहै। इस विकास क्रम में उद्विकास  सरल से जटिल तथा समरूपी  से विषमरूपी  की ओर होताहै। समाज भी इसी नियम का पालन कर विकासयात्रा में निम्नसेउच्चसामाजिक जटिलता  की ओर आगे बढ़ा है ।

इस प्रकार के सिद्धांतों और अवधारणाओं से औपनिवेशिक शासकों को अपने शासन को न्यायसंगत सिद्ध करने में सहायता मिली। इन शासकों ने डार्विन (1859) द्वारा अपनी पुस्तक ओरिजिन ऑफ स्पीशीज में प्रतिपादित जुड़वा मानदंड योग्यतम की उत्तरजीविता तथा अस्तित्व हेतु संघर्ष का भी उपयोग उपरोक्त आशय के लिए ही किया ।इस तरह के तर्क के अलावा वे लोग जनजाति समाज कि जीवनशैली या मानववैज्ञानिक भाषा में संस्कृति को समझना चाहते थे ताकि वह उन्हें बेहतर ढंग से प्रशासित कर सके। मानवविज्ञान के  संस्थापकों में से एक टाइलर(1922) ने अपनी किताब प्रिमिटिव कल्चर में इस विषय में  स्पष्ट शब्दों में कहा कि  थे  आरण्य समाज (savagery) एक सांस्कृतिक उत्तरजीविता के समान है।मानवविज्ञानियों का उद्देश्य ऐसे तत्वों को पहचान कर उन का उन्मूलन करना होना चाहिए। इस किताब के आखिरी अंक के आखिरी शब्द है इस प्रकार का संस्कृति का विज्ञान अनिवार्य रूप से एक सुधारक, संशोधक विज्ञान कहलाएगा’।दूसरी तरफ रूसो की परंपरा थी जिनकी सोच उपरोक्त के बिल्कुल विपरीत थी । इनके अनुसार आरण्य समाज (savagery) अभी भी स्वर्ग में है जिससे हम लोगों को बहिष्कृत किया गया है। हमारे समाज में मौजूद क्रूरता, अमानवीयता हमारी सभ्यता की देन है ना कि आरण्य समाज (savagery) का शेष अंश। हम इसआरण्य समाज (savagery) से सीख कर ही अपने पुराने जीवन शैली में वापस आ सकते हैं, जिसमें हम सब स्वतंत्र थे ।वास्तव में मार्क्स भी जब पूर्व -आदिम साम्यवाद की ओर वापस जाने की बात कहते हैं तब वह इसी ओर इशारा करते हैं । मार्क्स और एंजिल्स भी मॉर्गन के विचार कि भविष्य का समाज ‘प्राचीन सज्जनों की स्वतंत्रता, समानता ,बंधुत्व के उच्च रूप का पुनरुत्थान होगा’ से काफी प्रभावित थे।

दोनों ही विचारों में आरण्य समाज (savagery) के तत्वों को अलग करने या अपनाने की बात स्वीकारी है । कोई भी इनके प्रति तटस्थ नहीं था। या तो हम इनके साथ थे या खिलाफ। आज किसी भी बौद्धिक विमर्श में इस बात पर चर्चा नहीं होती है कि हमारे आधुनिक समाज की परेशानियां इन आरण्य समाज (savagery) मानसिकता और प्रवृत्तियों से अलग होने की असमर्थता के परिणाम स्वरूप आई है । हालांकि आधुनिक समाज के आलोचक यह मानते हैं कि जनजाति  नैतिकताके ऐसे उदाहरण हैं  जिन्हें अपना कर भविष्य में एक ऐसी सभ्यता की कामना कि जा सकती है  जिनमें यह मूल्य सर्वोच्च होंगे । वह एक पल के लिए भी ये  नहीं कहते हैं कि हम उस समय में वापस लौटें। वह तो चाहते हैं आधुनिक समाज की तकनीकों के साथ जनजाति नैतिक मूल्य भी वर्तमान समाज का हिस्सा बने।

जनजातियों की मूल जीवनदृष्टि- समुदायिकता आदिवासियों के लिए प्राकृतिक है। बुजुर्गों की  देखभाल, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों से दैनिक दिनचर्या में संबंध सामान्य है।संक्षेप में आधुनिक समाज जिस जीवन की कल्पना करता है, वह मूल्य और नैतिकता भरा जीवन आदिवासियों के लिए आम जीवन है।आदिवासियों की मूल जीवनदृष्टिको नीचेदिये गए चित्र के माध्यम से समझा जा सकता है ।

चित्र 1:जनजातियों की मूल जीवनदृष्टि

आज हम यदि आर्थिक,वैज्ञानिक और तकनीकी स्तर की बात  करें , तो अधिकांशलोग इस मत का अवश्य समर्थन करेंगे कि वर्तमान आधुनिक औद्योगिक सभ्यता मानवजातिके इतिहास में वैज्ञानिक तथा तकनीकी रूप से सबसे उन्नत है।समस्या तब आती है जब यह लोग इतनी ही विश्वसनीयता से यह भी स्थापित करते हैं किआधुनिक समाज नैतिकता, मानव मूल्यऔर पारस्परिकता (जिन्हेंजीवनदृष्टिकहा जाता है)  के आयामों में भी सबसे उन्नत है।

ऐसे समय में जब कई जनजाति अपने दैनिक जीवन के परंपरागत मूल्यों को संरक्षित और पुनरगठित कर रहे है, तब ऐसी समकालीन स्थिति एक अद्वितीय अवसर प्रदान करती है जिसमें हम इन मूल्यों को अपने सामुदायिक जीवन में एकीकृत करें ।इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर इस शोधआलेख में विश्व के विभिन्न जनजाति समाजों, जैसे- अफ्रीका के  कुंग,अमेरिका की दुवामिश, थायलैंड की अखा एवं लाहु की  जीवनदृष्टिके उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। इन उदाहरणों केमाध्यम से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जनजाति समाज जीवनदृष्टिकेमामलों में आधुनिक समाज से कितना उन्नत है?

 

जनजाति समाज में समुदायिकता और साझाकरण  संबंधित जीवनदृष्टि

जनजाति समाज में समुदायिकता और साझाकरण  संबंधित जीवनदृष्टि को  निम्नलिखित दृष्टांत द्वारा समझा जा सकता है । यह दृष्टांत गोल्ड और काममैन (2011) द्वारा थाईलैंड की जनजाति अखा एवं लाहुके अध्ययन से संबंधित है ।

दिन की शुरुआत में सारी महिलाएं उठती हैं , वो आग सुलगाते हुए भोजन की तैयारियां शुरु करती हैं ।उसी समय एक बच्चा रोता है तो एक महिला उसे अपने पीठ पर बांध लेती है तथा दूसरी महिला इस बच्चे को स्तनपान हेतु उसकी मां को दे देती है । इसी बीच नहाने-धोने का कार्यक्रम शुरू होता है ।सर्वप्रथम महिलाएं छोटे बच्चों को नहलाती हैं। इस कार्य में बड़े बच्चे मदद करते हैं। पुरुष अपने उपकरण इकट्ठे कर खेतों में काम के लिए जाते हैं , युवा किशोर उपकरण इकट्ठा करने में मदद करते हैं और फिर उनके साथ खेत में जाते हैं  । युवा बच्चे गांव के द्वार पर खड़े होकर उन्हें जाते हुए देखते हैं । दोपहर के समय सभी छोटे बच्चे एक साथ बैठ गए, इसी समय एक 14 साल की लड़की अपने विवाह हेतु पीले ,नीले और लाल रंग के धागों से सुंदर वस्त्र बना रही है । शाम के समय जब लोग खेतों से आते तब बच्चे उनके उपकरण रखने में मदद करते ।रात्रि के समय बच्चों को कहानियां सुनाई जाती तथा विभिन्न अनुष्ठान किए जाते । सब साथ में बैठकर रात्रि भोजन करते, हंसी मजाक होता , महिलाएं पारंपरिक नृत्य करती और बुजुर्गों का आदर देने के साथ रात्रि के समय सब सो जाते’।

    यह दृष्टांत व्यक्तिगत जुड़ाव तथा सामुदायिक जीवन की भावना दर्शाता है। यह वही तत्व और भावनाएं है जो हम आधुनिक समाज के लोग अपने जीवन, परिवार और समाज में खोज रहे हैं । इन जनजाति मूल्यों को आधुनिक समाज के औपचारिक व्यवहार में शामिल करने की अनिच्छा है परंतु अनौपचारिक व्यवहार में इस दृष्टांत में परिलक्षित मूल्य जैसे सम्मान,बलिदान, साझाकरण,विनम्रता सामुदायिक संबंध का उपयोग किया जा सकता है।हालांकि अगर सोचा जाए तो हमारे संस्थानों ,व्यवसाओं, कार्यालयों में मौलिक स्तर पर इन मूल्यों का प्रतिबिंब हो तो इसमें बुराई भी नहीं है।

जैसा कि उपरोक्त दृष्टांत से स्पष्ट होता है कि सहयोग ,देखभाल और साझा करने वाला जीवन भी सहजता से जिया जा सकता है । एक समुदाय के रूप में ये लोग  एक दूसरे पर निर्भर है । जनजाति समाज में सामूहिक उत्तरदायित्व के लिए व्यक्तिगत जीवन का त्याग  स्वाभाविक है ।वास्तव में उनका अस्तित्व जनजाति एकजुटता पर निर्भर है ।आधुनिक जीवन में इन मूल्यों की अनुपस्थिति  हम सभी को महसूस होती है ।जो आधुनिक जीवनशैली व्यक्तिवादी सोच ,बाजार आधारितमानसिकता,मनोरंजन के लिए अधिक  गैजेट और कभी ना खत्म होने वाली महत्वकाक्षाओं में निहित है। हम धीरे-धीरे एक दूसरे से, मानवता से, और प्रकृति  से जुड़ाव/ लगाव खो रहे हैं। हम इस धारणा से बंध गए हैं कि यह जीवन में जो है वो मेरा है,मेरे बारे में है और  वर्तमान में ही है। इस सोच ने हमें जीवन के शाश्वत प्रवाह से विलग कर दिया। जनजाति हमें जीवन का वर्तमान, भूत और भविष्य के साथ हमारे संबंध का एक अलग परिपेक्ष्यप्रदान करते हैं। इस परिपेक्ष्य से हम अपने आप को बड़े समग्र का भाग के रूप में देखते हैं। ऐसी सोच जो जीवन काल से परे असीमित ब्रह्मांड की निरंतरता से जुड़ती है और मनुष्य जीवन के ऊर्जा स्रोत से संबंध स्थापना की मांग करती है।

जनजाति समाज में पड़ोसी और भोजन संबंधित जीवनदृष्टि

आधुनिक समाज में पड़ोसी को जानने का क्या अर्थ होता है, इसकी मान्यताएं अलग-अलग हैं। इस मान्यता के अनुसार पड़ोसी को जानने का अर्थ है, उसका नाम जानना, कहीं मिल जाए तो उनको पहचान सके इसलिए उनका चेहरा याद रखना, और शायद उनके काम या व्यवसाय, पेशे को जानना । लेकिन अग्र लिखित उदाहरण से यह समझ में आएगा पड़ोसी को जानना इन सभी से कहीं ज्यादा होता है।

कालाहारी रेगिस्तान (दक्षिण अफ्रीका) में रहने वाली कुंग जनजाति से जब मानवविज्ञानी रिचर्ड ली (1976) ने पूछा कि

‘क्या तुम अपने पड़ोसी को जानते हो, पसंद करते हो?

इस सवाल से वह बहुत अचंभित हुआ परंतु कुछ कहा नहीं। कई दिन बीत जाने के पश्चात एक दिन उसने ली से कहा मेरे साथ आओ। वह अपने साथ उसे गंदे रास्तों के बीच से होता हुआ पड़ोसी के घर ले गया वहां बहुत देर तक बैठा अपने उपकरण को धार लगाई उसके साथ हंसी मजाक किया। दिन प्रतिदिन वह उसी प्रकार ली को अपने साथ अपने पड़ोसियों को घर ले जाता , कभी वह शिकार पर जाते कभी गांव में घूमते, यह क्रियाकलाप कई महीनों तक चला।

अंततः वह ली के पास बैठा और कहा कि तुमने मुझसे पूछा था कि क्या तुम अपने पड़ोसी को जानते हो पसंद करते हो? उम्मीद है तुमको इसका जवाब मिल गया होगा कि मैं अपने पड़ोसी के बारे में क्या महसूस करता हूं’।

    यह कितनी अदभुत कहानी है। जहां हम आधुनिक समाज में इस प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर की उम्मीद करते हैं हां मैं जानता हूं  या नहीं जानता हूं । वहां कुंग जनजाति  ने  इस अद्भुत रिश्ते के वास्तविक सौंदर्य को साथ में अनुभव करने के लिए ली को आमंत्रित किया।ली उनसे मिले, दोस्ती की, उन्हें पसंद करने लगे लेकिन वे उन्हें जानते नहीं थे। आधुनिक समाज में तो हमारे घरों की दीवारें जितनी ऊंची हों उतना अच्छा पड़ोसी से संबंध माना जाता है (Good fences makes Good Neighbor)। हम कभी उनके घर में अपने काम नहीं करते, वह अपने बच्चों को कैसे अनुशासित या प्यार करते हैं हम नहीं जानते। और क्योंकि हम अपने पड़ोसी को नहीं जानते (कुंग कि तरह ) इसलिए हम एक दूसरे के अनुभव और ज्ञान से सीख नहीं सकते। ऐसे में कुंग  द्वारा सिखाया हुआ सबक न सिर्फ घरों की सीमाओं और दीवारों को तोड़ता है अपितु एक दूसरे के साथ परस्पर जीवन जीने की कला सिखाता है ।

भोजन संबंधी जीवनदृष्टि-नगरों में रहने वाले बच्चों को यह नहीं मालूम होगा कि वह जो भोजन करते हैं उसे किस प्रकार उगाते हैं या बाजार में कैसे बिकता है? आज के इस फास्ट फूड संस्कृति में हम यह भी नहीं जानते कि  खाना कैसे पकाया जाता है? यही सवाल अगर किसी कुंग जनजाति समाज के लोग से पूछे तो वह आपको अपने साथ शिकार पर ले जाएगा या फिर फल-सब्जी के संकलन से संबंधित क्रियाओं में आपको शामिल करेगा। इस प्रक्रिया के दौरान वह अपने क्षेत्र के बारे में जानता है। कब फल/ सब्जी तोड़ने लायक होगी वह जानता है। किस पशु का शिकार कब और कैसे करना है,यह सीखता है। मुख्य रूप से वे अपने जीवनयापन और पारिस्थितिकी के अंतर्संबंध को इन क्रियाओं से समझते हैं ।

जनजाति समाज में प्रकृति से पारस्परिकता संबंधित जीवनदृष्टि

इस तत्व दृष्टि को समझने के लिए अमेरिका कि दुवामिश जनजाति के चीफ सिएटल (ज्ञात हो वॉशिंगटन स्टेट के सिएटल शहर का नाम इन्हीं के नाम पर रखा गाय है ) द्वारा 11 मार्च 1854 में दिया गया भाषण आज भी प्रासंगिक है।ये जनजाति जीवनदृष्टि  का सटीक उदाहरण है। इससे हमें आदिवासियों कि प्रकृति से पारस्परिक जुड़ाव संबंधित जीवनदृष्टि समझ में आती है। प्रकृति से पारस्परिकता पर सिएटल कहते हैं कि

‘जब हमारे पास हवा की शुद्धता और जल की स्वच्छता का स्वामित्व नहीं है तो हम उन्हें बेच या  खरीद कैसे सकते हैं? इस भूमिका हर एक हिस्सा हमारे लिए पवित्र है।ये चमकीले पत्ते रेतीले तट, जंगलों की धुंध, मैदान की घास, कीट की आवाज। सब हमारे लोगों की पवित्र यादें हैं।  हम जानते हैं जो द्रव्य पेड़ों के अंदर प्रवाहित होता है वो वैसा ही है जैसा कि हमारे धमनियों में रक्त प्रभावित होता है।ये सुगंधित पुष्प हमारी बहनें हैं। यह भालू, हिरण,बाज़ हमारे भाई हैं।ये रॉकी पहाड़, घास के मैदान, हमारे घोड़े हम सब एक ही परिवार हैं। नदियों में बहता पानी ना सिर्फ पानी है बल्कि यह हमारे पूर्वजों का रक्त है। अगर हम तुम्हें अपनी भूमि बेचते  हैं तो यह याद रखना कि यह हमारे लिए पवित्र है।ये  नदियों कि कल-कल आवाजें हमारे पूर्वजों की आवाज है। नदियां हमारी बंधु हैं, वह हमारी प्यास बुझाती हैं, हमारे बच्चों को भोजन देती है, हमारी नावों को संभालती है। इसलिए हमें इन नदियों को वही आदर देना चाहिए जो हम अपने भाई को देते हैं’।

सिएटल आगे  कहते हैं कि

‘हमारी जीवनशैली तुम्हारी जीवनशैली से अलग है। आपके शहर आंखों को कष्ट देते हैं। वहां कोई शांत जगह नहीं है। कोई स्थान नहीं जहां वसंत में पत्तियों के खुलने की आवाज, कीटों की सरसराहट सुनाई दे। तुम्हारे शहरों की आवाज केवल कानों को पीड़ा देती है। वह जीवन ही क्या जहां झींगुर की लड़ाई या मेढकी का प्रेमआलापना सुनाई दे।  हमारे लिए मंद-मंद चलने वाली हवाएं और  बारिश के बाद की सौंधी महक महत्वपूर्ण है। हमारे लिए हवा बहुमूल्य है क्योंकि हर एक आदमी, पेड़, जानवर सब उसे साझा करते हैं । शहर के लोग जिस हवा में सांस लेते हैं उसको महसूस नहीं करते।जैसे मरा हुआ आदमी दुर्गंध के प्रति सुन्न  रहता है।  यदि हम तुम्हें अपनी भूमि बेचते  हैं तो याद रखना यह हवा हमारे लिए बहुमूल्य है क्यों की हवा अपनी आत्मा को हमारे साथ साझा करती है। वह हवा जिसने हमारे पूर्वजों को पहली सांसे दी  उसी ने उन्हें आखरी श्वास  भी दी

‘ जानवरों के बिना आदमी क्या है? अगर सारे जानवर चले गए तो मानव अपने अकेलेपन से जीवित नहीं रह पाएगा।  यह याद रखना कि जानवरों के साथ जो कुछ भी होता है जल्द ही हमारे साथ भी होता है। सभी चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। आपको अपने बच्चों का सिखाना होगा कि उनके पैरों के नीचे की जमीन में उनके पूर्वजों की राख है ताकि वह भूमि का सम्मान कर सके। अपने बच्चों को सिखाएं कि पृथ्वी हमारी मां है।यह हम सब जानते हैं कि पृथ्वी मनुष्य के कारण नहीं है, बल्कि मनुष्य पृथ्वी के कारण है’।

 

आधुनिक समाज में प्रकृति के प्रति पारस्परिकता देखी जाए तो उसने प्रकृति को सिर्फ संसाधन के रूप में ही देखा है। जिस माता रूपी नदी के किनारे सभ्यताएं पली और विकसित हुई उसी नदी या यूं कहें कि ‘मुख्यधारा जैसे गंगा, यमुना, गोमती, को उसने गंदे नाले में परिवर्तित कर उसकी हत्या कर दी। अगर ऐसे समाज को मातृहंता (नदी रूपी माता का हत्यारा) कहे तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। आधुनिक समाज ने तो प्रकृति तो प्रकृति मानव को भी संसाधन के रूप में देखा है ।इस आधुनिक समाज में शिक्षा ही मानव को संसाधन के रूप में विकसित करने के लिए दी जा रही है। ऐसे समय में उपरोक्त भाषण हमें  यह आत्मबोध कराता है कि इस जीवनदृष्टि के आयाम से कौन ज्यादा उन्नत  और विकसित है?

जनजाति समाज में नैतिकता संबंधित जीवनदृष्टि

जनजाति समाज में नैतिकता संबंधित जीवनदृष्टि ओहनवेंटस्या(Ohnwentsya)(2013) द्वारा लिखित ब्लॉग लेख ‘UBUNTU’ in the Xhosa culture means: ‘I am because we are’ में स्पष्ट होती है । इस लेख में उन्होने बताया है कि

एक मानववैज्ञानिक जो की जनजातिकी आदतों और रीति-रिवाजों का अध्ययन कर रहे थे ,उसने बच्चों के खेलने के लिए एक खेल का प्रस्ताव दिया। उसने शहर में बहुत सारी कैंडी और मिठाई खरीदी थी, उसने सबकुछ एक टोकरी में एक  पेड़ के नीचे रखा, और फिर उसने बच्चों को एक साथ बुलाया। उन्होंने जमीन पर एक रेखा खींची और समझाया कि सारे बचे इस रेखा के पीछे रहेंगे , उनके इशारा करते ही वे सब उस टोकरी की तरफ दौड़ेंगे । जो प्रथम आयेगा उसे वह सारी कैंडी इनाम में मिलेगी।  जब उसने कहा ‘जाओ!’ वे सभी बच्चे  अप्रत्याशित रूप से एक-दूसरे के हाथ पकड़ कर एक समूह के रूप में पेड़ की ओर भागे। एक बार वहां, पहुँच कर उन्होंने बड़ी सरलता से एक दूसरे के साथ कैंडी साझा की और खुशी से खा लिया। वोबहुत हैरान थे। उन्होंने उनसे पूछा कि वे सभी एक साथ क्यों गए थे, खासकर अगर पेड़ पर पहुंचने वाला पहला व्यक्ति टोकरी में सबकुछ जीत सकता था? एक लड़की ने बस इतना जवाब दिया: ‘अगर हम सभी दुखी हैं तो हम में से एक कैसे खुश रह सकता है?’। वे  आचंभित रह गये ! महीनों से  वह जनजाति का अध्ययन कर रहेथे , फिर भी वे इस दृष्टिकोण को नहीं समझ पाये। इस दृष्टिकोण को बंटू भाषा में उबंटू कहतें हैं। जिसका अर्थ है ‘मानवता’। इसे अक्सर ‘मैं इसलिए हूं क्योंकि हम हैं,’ (I am because we are) और ‘दूसरों के प्रति मानवता’ के रूप में भी अनुवाद किया जाता है

आधुनिक समाज में में जहां बच्चों को स्कूलों में ही प्रतिस्पर्धा सिखायी जाती है । जहां गलाकाट उपभोगतावाद को कामयाबी के  लिए आदर्श माना जाता है वहीं उबंटू हमें एक नई सोच प्रदान करता है ।

पुनःजनजातीयकरण की आवश्यकता

यह बात तो स्पष्ट हो रही है कि आधुनिक समाज के  लोग, जनजाति समाज की जीवनदृष्टि के प्रति सहज आकर्षण रखते हैं। हमारे समाज में जनजाति समाज की तरह आतिथ्य, प्यार, बंधुता सहजता से नहीं दिखती है। हमें पूछने की जरूरत है कि हमें कैसी जीवनदृष्टिकी आवश्यकता है। एक समाज के रूप में हमें जिन मूल्यों की आवश्यकता है हम उनके नाम तक भूल गए हैं। आधुनिक समाज एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा है जहां हमारे मूल नैतिकता बदल रही है। इस बदलाव की जड़ें इतनी गहरी हो गई हैं कि यह हमारी सामूहिक चेतना को बदल रही है। यह अभी नहीं तो कभी नहीं का समय है।वसुधैव कुटुंबकम का विचार  अब वसुधैव हाटकम बन गया है। इस समय यह जरूरी है कि हम जनजाति जीवनदृष्टि को समझें और उन्हें अपने जीवन शैली का हिस्सा बनाएं।

    इस तरह के पुनः जनजातीयकरण के लिए हमें पुनः बीते समय में जाने की आवश्यकता नहीं है । नाही हमें  साधारण सरल जीवन जीने की जरूरत है। बस यह इतनी इच्छाशक्ति की मांग करता है जिसमें हम समाज में एक योगदान देने वाले सदस्य के रूप में कार्य करें और अपने विकल्पों के प्रभाव के प्रति जिम्मेदारी लें ।पुनः जनजातीयकरण का अर्थ है उन मूल्यों को जानना जो हमारे अस्तित्व का आधार है । इसका अर्थ है स्वीकार्यता’,‘बंधुता तथा प्रगति की नई परिभाषा की ओर बढ़ना । इन सबसे ऊपर यह हमें आधुनिक समाज के धुंध से ऊपर उठकर मानव जीवन के गहरे अर्थ से जोड़ता है। यह नए प्रकार के निर्णय लेने के लिए प्रेरित करता है । वह निर्णय जो केवल समय के लिए सुविधाजनक, लाभदायक साबित नहीं होंगे अपितु  जीवन के प्रवाह में लंबे समय तक निरंतरता बनाए रखेंगे। हम जानते हैं कि ऐसी जनजाति चेतना हमारे जीवन के हर पहलू जैसे  हमारे परिवार, कार्यक्षेत्र और इन सबसे बढ़कर हमारे समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है। हम अपने व्यक्तिगत जीवन को भी इस चेतना से बदल सकते हैं। यहां पर केवल दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है ऐसा दृष्टिकोण जिसका केंद्र उबंटू जैसी धारणा होगी।

    यह जीवनदृष्टि हमें अपने जीवन से गहरे अर्थों में जोड़ती भी है। वह हमें जीवन कि शक्ति के रहस्य से जोड़ेगी। वह हमें ऐसी दृष्टि प्रदान करेगी जिसमें सामुदायिक भावना, प्रकृति और बंधुत्व की अपार शक्ति होगी।

हम इस भावना को नवीनीकृत करने के तरीकों का पता लगा सकते हैं। इस  जीवनदृष्टिके प्रति सम्मान देते हुए हमें आदिम  जीवन शैली या सामुदायिक जीवन की तरफ लौटने की आवश्यकता नहीं है।अपितु केवल इतना स्मरण रखना है जीवन जीना समस्या नहीं है बल्कि जीवन में किस तत्व का महत्व है यह समझना और अनुभव करना समस्या है।

निष्कर्ष: आधुनिक समाज कभी ना खत्म होने वाली इच्छाओं की सतत श्रृंखला प्रदान करता है। जैसे- अच्छा घर, खुशहाल वैवाहिक जीवन, एक उपयुक्त नौकरी,  ऐसा स्वप्निल जीवन जिसमें चिंता ना हो। हम सब अपने आप से एक सवाल पूछ सकते हैं कि  ‘जीवन के अंत में जितना भी आपने अनुभव किया है उसके आधार पर वह क्या है जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था जिसको आप सबसे ज्यादा महत्व देते हैं’ इस सवाल का जवाब ही हमें जनजाति नैतिकता की तरफ़ खींचता है । 

    जनजाति जीवन दृष्टि हमें यह अहसास दिलाती है कि मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? हम किस प्रकार प्रकृति के साथ समरसता बनाकर भी जी सकते हैं? इसलिए आधुनिक समाज को जीवनदृष्टिके कुछ आयामों में पुनः जनजातीयकरण की आवश्यकता महसूस होती है। हम इन जनजाति चेतना को अपने जीवन का साध्य बनाकर इस समृद्ध विरासत को और आगे बढ़ा सकते हैं।

    आमतौर पर जनजाति जीवन के दृष्टिकोण और जीवन शैली को सरलता, ईमानदारी और सहजता जैसे गुणों के रूप में परिभाषित किया जाता है। इन्हीं गुणों की वजह से ही इनका भावनात्मक और शारीरिक रूप से शोषण किया गया। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय(2011) ने अपने फैसले में माना की ‘भयानक दमन के बावजूद भी भारत के आदिवासियों ने सामान्य तौर पर (अनिवार्य रूप से नहीं) गैर जनजाति लोगों से अधिक उच्च नैतिक स्तर बनाए रखा है।वे आमतौर पर धोखा नहीं देते, झूठ नहीं बोलते और अन्य गलत काम जो गैर जनजाति लोग करते हैं। आमतौर पर वह चारित्रिक रूप से गैर आदिवासियों से श्रेष्ठ हैं’। अगर आधुनिक समाज को अपने चारित्रिक जीवन का स्तर ऊपर उठाना है तो इस जीवनदृष्टिको अपनी आधुनिक जीवन शैली का हिस्सा बनाना पड़ेगा।

    मानववैज्ञानिक शोध ने यह  तो स्थापित कर दिया है कि आधुनिकता और परंपरा एक दूसरे के विलोम नहीं। परंपरा में आधुनिकता और आधुनिकता में परंपरा के तत्व होते हैं।नृजातीय रेस्तरां का बढ़ना ,मंदिर और मस्जिदों के निर्माण के वास्तुकला में आधुनिकीकरण और पौराणिक महाकाव्य का टेलीविजन के माध्यम से लोकप्रियकरण इसके जीवंत उदाहरण है।जम्बोजेट  के साथ-साथ बैलगाड़ी भी परिवहन के लिए आवश्यक है ,एलोपैथी के साथ नृजातीयऔषधि भी आवश्यक है। कहा जा सकता है कि जनजातियों के  सहअस्तित्व के सिद्धांत कि आवश्यकता, आधुनिक समाज के विकास हेतु प्रतिपादन और प्रत्यारोपण सिद्धांत से  ज्यादा है।  परंपरा और आधुनिकता के तत्वों के बीच एक सहजीविता है । वर्तमान समय की मांग है यह सहजीविता आधुनिक और जनजाति समाज के मध्य भी लायी जाए।

    जनजातिय जीवनदृष्टि हमें यह एहसास दिलाती है कि हमारे जीवन में क्या महत्वपूर्ण है । उपभोक्तावाद के इस गलाकाट दौर में जनजाति समाज की जीवनदृष्टि हमें अपने समाज और परिस्थितिकी के सह-अस्तित्व की ओर इशारा करती है। वर्तमान समाज को और मानवीय बनाने हेतु आज यह आवश्यक है कि  वह जनजाति चेतना को अपनी समृद्ध विरासत मानते हुए इसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण अंग बनाए।

संदर्भ:

  • Fox, Robin, (1934).The tribal imagination : civilization and the savage mind. England: Harvard University Press.
  • Ibid. page 29
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डॉ. निशीथ राय

सहायक प्रोफेसर

मानवविज्ञान विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा

nisheeth.rai1@gmail.com, 8208596465

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue

सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन सत्या सार्थ (पटना)

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