शोध आलेख : हिंदी की स्त्री पत्रिकाओं में विज्ञापन : अंतर एक सदी का -आकाश कुमार

शोध आलेख : हिंदी की स्त्री पत्रिकाओं में विज्ञापन : अंतर एक सदी का 

-आकाश कुमार


शोध सार  : हिंदी की जिन स्त्री पत्रिकाओं की चर्चा इस पत्र में की जा रही है वे अपने दौर में स्त्रियों की प्रमुख पत्रिकाएं रही हैं या हैं। इस पत्र में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की स्त्री पत्रिकाओं में प्रकाशित विज्ञापनों के बरक्स वर्तमान दौर की स्त्री पत्रिकाओं के विज्ञापनों को रखकर देखा गया है। करीब सौ सालों के इस दौर में विज्ञापनों में कैसे बदलाव आये और उनके पीछे क्या कारण रहे उन्हें इस पत्र में विश्लेषित किया गया है। साथ ही इन अलग अलग समयों मेंप्रकाशित विज्ञापनों का देशकाल के अनुसार विश्लेषण भी किया गया है। विज्ञापन की दुनिया हिंदीपत्र पत्रिकाओं में जिस तरह बदली उनसे ये स्त्री पत्रिकाएं भी अछूती नहीं रहीं। इस अध्ययन में बीसवीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक की मासिक पत्रिकाओं गृहलक्ष्मी और स्त्री दर्पण को तथा वर्तमान समय की मासिक पत्रिकाओं गृहलक्ष्मी, मेरी सहेली, गृहशोभा और वनिता को आधार बनाया गया है। तुलना की जा रही पत्रिकाओं में एक सदी का अंतर है। विज्ञापन का मसला बाज़ार से जुड़ा है और एक सदी में बाज़ार की दुनिया कई बदलावों से गुज़री है। एक सदी पहले भारत में बाज़ार का जो फैलाव था वह आज की तुलना में बहुत छोटा था। विज्ञापनों को लेकर प्रतिस्पर्धा नहीं थी। आज तो विज्ञापन बनाने की भी बहुतेरी कंपनियां हैं। पहले और आज की कंपनियों में विज्ञापनों का फर्क सिर्फ आकार-प्रकार का ही नहीं मूल्यगत भी है। इन मुद्दों पर इस पत्र में बात की गयी है।

बीज शब्द : स्त्री पत्रिकाएँ, विज्ञापन, जेंडर, बाज़ार, उत्पाद, सौंदर्य, पितृसत्ता, मूल्य

मूल आलेखवर्तमान समय की पत्रकारिता पिछले बीस पच्चीस सालों में जितना बदली है शायद उतना पहले कभी नहीं। इसका सबसे बड़ा कारण पिछले सालों में तकनीकी क्षेत्रों में हुआ बदलाव है। पत्रिकाओं की छपाई, वितरण से लेकर लेखन और पाठकीय अनुभवों में भी बदलाव आये हैं। इन बदलावों ने विज्ञापनों के तौर तरीकों को बदला है और परिणामस्वरूप विज्ञापन के बदले हुए चरित्र ने पत्रिकाओं के कलेवर को भी बदल दिया है। पत्रिका के ग्राहक अब सिर्फ उसके पाठक नहीं रह गए बल्कि विज्ञापनदाता भी उसके ग्राहकों में तब्दील हो गए हैं।

चूंकि विज्ञापनों का प्रसार बहुत बड़े फ़लक पर होता है इसलिए वे किसी भी विचार को स्थापित करने का बेहद सशक्त माध्यम होते हैं। ऐसे में जेंडर संबंधी विचारों को भी प्रसारित करने का काम विज्ञापन करते हैं। वर्तमान दौर में जहाँ हर तरफ विज्ञापन ही विज्ञापन हैं- सड़क किनारे की होर्डिंग्स से लेकर मोबाइल फ़ोन तक, जेंडर संबंधी समझदारी विकसित करने में सिर्फ परिवार और समाज बल्कि ये विज्ञापन भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। और यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय विज्ञापनों (प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक) में जेंडर को लेकर ज्यादातर प्रगतिशील रवैया दिखाई नहीं पड़ता, बल्कि वे अक्सर पितृसत्तात्मक मूल्यों को लेकर चलने वाले होते हैं। यूनिसेफ की एक हालिया रिपोर्ट[i] के अनुसार स्त्रियों (लड़कियों सहित) की मौजूदगी विज्ञापनों में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा है लेकिन यह अधिकतर घरेलू सामानों और सौन्दर्य प्रसाधनों की बिक्री तक ही सीमित है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि स्त्रियों को जिस तरह इन विज्ञापनों में पेश किया जाता है वह भी दिक्कत तलब है। स्त्रियों और पुरुषों को स्टीरियोटाइप का पालन करते हुए अधिकतया पारंपरिक कामों को करते हुए ही दिखाया जाता है जहाँ स्त्रियाँ घरेलू काम करती हैं और पुरुष ऑफिस का। भले ही स्त्रियों की उपस्थिति विज्ञापनों में ज्यादा है लेकिन उनमें भी गोरे रंग और छरहरी काया वाली स्त्रियों का प्रतिनिधित्व अधिक है और अक्सर ही विज्ञापनों में स्त्रियों को सेक्सुअल ऑब्जेक्ट के तौर पर पेश किया जाता है।

इसके अतिरिक्त बाज़ार स्त्रियों को सबसे बड़ा उपभोक्ता मानता है इसलिए घंटे भर के टीवी कार्यक्रम में आने वाले विज्ञापनों में स्त्रियों से जुड़े उत्पादों के विज्ञापन सबसे ज्यादा होते हैं। इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट[ii] के मुताबिक उपभोक्ता के रूप में महिलाओं का दबदबा भारत के साथ विश्व भर में बढ़ा है और यह महिलाओं की बढ़ती आर्थिक हैसियत की वजह से हुआ है। यही नहीं पुरुषों से जुड़े उत्पादों की बिक्री में भी स्त्रियों की उपस्थिति अनावश्यक और आपत्तिजनक रूप से बढ़ गयी है। इसलिए यह देखना भी जरूरी है कि स्त्रियों की पत्रिकाओं में जहाँ सिर्फ स्त्रियाँ ही ग्राहक हैं वहाँ बाज़ार विज्ञापनों को कैसे पेश करता है।

विज्ञापन  और भाषा का आपसी संबंध भी बड़ा दिलचस्प है। बाज़ार को अपने उत्पाद किसी भी कीमत पर बेचने होते हैं, इसलिए वह हमेशा ऐसी भाषा का इस्तेमाल करता है जो उसके लक्षित ग्राहक को सीधे प्रभावित करे। यह भाषा उत्पाद की श्रेणी पर भी निर्भर करती है। लगभग एक सदी पहले जिस भाषा में विज्ञापन आते थे आज उनकी भाषा ज़ाहिर है कि बदल चुकी है लेकिन उस भाषा के बदलने के पीछे क्या कारण हैं उनकी तलाश करना दिलचस्प होगा जिसकी कोशिश आगे इस पत्र में की गयी है।

एक सदी पहले की पत्रिकाएं और उनके विज्ञापन

            यूँ तो हिंदी में स्त्रियों के लिए पहली पत्रिका का प्रकाशन 1874 में हीबालाबोधिनीके साथ हो चुका था लेकिन ठीक ढंग से स्त्री पत्रिकारिता की शुरुआत बीसवीं सदी के दूसरे तीसरे दशक से होती है जब  गृहलक्ष्मी, स्त्री दर्पण, कुमारी दर्पण, आर्य महिला, महिला मनोरंजन, कन्या मनोरंजन जैसी पत्रिकाएं अस्तित्व में आती हैं। इनका उत्कर्ष चाँद पत्रिका के रूप में देखा जा सकता है। इस पत्रिकाओं की खास बात ये थी कि ये पत्रिकाएं एक मिशन के तहत शुरू की गयी थीं जिनका उद्देश्य नए ज़माने के अनुरूप भारतीय महिलाओं को तैयार करना था। एक छोटे आकर के शिक्षित भारतीय मध्यवर्ग का उदय हो चुका था जहाँ सुशिक्षित साथ ही घरेलू महिलाओं की जरूरत थी। इन पत्रिकाओं में विज्ञापन की मौजूदगी मुनाफ़े से ज्यादा पत्रिका का अस्तित्व बनाये रखने के लिए थी। अक्सर तो इन पत्रिकाओं को विज्ञापन ही कम मिलते थे और कई बार प्रकाशक- संपादक अपनी पूँजी लगाकर इन पत्रिकाओं को निकाला करते थे। इनमें से कई पत्रिकाएं तो गर्व के साथ इस बात को कहती थीं कि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं। इनका उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं बल्कि स्त्रियों में चेतना का प्रसार करना था। ऐसे में इन पत्रिकाओं का खर्च पाठकों के भुगतान से ही निकलता था। फिर भी इनमें विज्ञापन छपा करते थे जिन पर हम आगे नज़र डालते हैं।

            इस दौर की पत्रिकाओं में ज्यादातर विज्ञापन आखिरी के चार पांच पन्नों पर छपे होते थे। इसके अलावा कभी कभार आगे के एक दो पन्नों पर भी विज्ञापन प्रकाशित होते थे। छपने वाले विज्ञापनों में चित्र कम ही हुआ करते थे, ज्यादातर विज्ञापनों में उत्पाद के विवरण हुआ करते थे जिनमें उत्पाद की खासियत, उसके गुणों का बखान होता था साथ ही यह भी बताया जाता था कि वे कहाँ और कैसे प्राप्त होंगे। रंगीन पत्रिकाओं का वो दौर नहीं था इसलिए ये सारे विज्ञापन श्वेत-श्याम ही होते थे।

            इन पत्रिकाओं में छपने वाले विज्ञापन महिलाओं से जुड़े हुए उत्पादों के ही होते थे। इनमें महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े उत्पाद, सौंदर्य प्रसाधन, इत्र, आयुर्वेदिक तेल, साबुन, टूथपेस्ट  के अलावा पुस्तकों के भी विज्ञापन होते थे। नए साल के अवसर पर की जाने वाली ख़रीददारियों में अतिरिक्त तोहफ़े मिलने जैसे विज्ञापन भी आज की तरह ही उस समय ग्राहकों को लुभाने के लिए प्रकाशित होते थे। कई दवा कंपनियों के भी विज्ञापन इनमें प्रकाशित होते थे जो अनीमिया, हिस्टीरिया, कमजोरी, दर्द निवारण आदि के लिए दवाएँ विज्ञापित करते थे। दवाओं के विज्ञापन ज्यादातर ब्रिटिश दवा कंपनियों के होते थे।

            सबसे पहले बातगृहलक्ष्मीपत्रिका की करते हैं जो साल 1909 में प्रकाशित होना शुरू हुई। प्रकाशन के प्रथम साल में इस पत्रिका के 4000 सदस्य थे जो सात-आठ सालों बाद 2000 तक रह गये।[iii] चार हज़ार संभावित स्त्री ग्राहकों तक किसी उत्पाद का विज्ञापन पहुँच जाना साल 1913 के लिहाज से बड़ी बात मानी जाएगी जब भारत में मध्यवर्ग का आकार काफी छोटा था। गृहलक्ष्मी पत्रिका के दिसंबर/ जनवरी 1913 के अंक में स्त्रियों के लिए सौन्दर्य प्रसाधन का एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ है जोपुष्पविलास तैलका है। इसके उत्पादक हैंजसवंत ब्रदर्स, मथुरा। विज्ञापन में यह उत्पाद यह दावा करता है कि इससे गायब हुए बाल वापस जाते हैं, यह बालों की वृद्धि करता है, बालों को काला, घुंघराला, मुलायम और चमकीला बनाता है। इसकी खुशबू हर तरह के इत्र को मात देती है। इसकी एक शीशी की कीमत है एक आना और डाक व्यय अलग से।  तीन शीशियों पर डाक व्यय से छूट और छह की खरीद पर एक वर्मा घड़ी मुफ़्त। बारह की खरीद पर एक कलाई घड़ी मुफ़्त।[iv]




ऐसा ही एक अन्य विज्ञापन जनवरी/फरवरी 1911 के गृहलक्ष्मी पत्रिका के अंक में प्रकाशित हुआ है जो चित्र सं. 1 में देखा जा सकता है।[v] यह हिमसागर तैल का विज्ञापन है जिसेस्त्रियों की प्यारी चीजशीर्षक के साथ विज्ञापित किया गया है। यहाँ जिन फायदों के नाम पर इसे विज्ञापित किया गया है, उनपर गौर करने की आवश्यकता है। सिर दर्द, दिमाग की पुष्टि, मन की प्रसन्नता, आँखों की रोशनी, बालों की वृद्धि के अलावा इसे चेहरे की सुंदरता बढ़ाने वाला बताया गया है जो साँवलापन दूर करके गोरापन लाता है, चेहरे की खुश्की और झाईं करता है। उत्तर भारतीय समाज में सुंदरता का जो पैमाना गोरापन से जुड़ा हुआ है वह यहाँ भी नज़र आता है जिसे तेल के विज्ञापन से भी किसी किसी तरह जोड़ दिया गया है। यहाँमुफ़्तमें दिए जाने वाले हिस्से पर भी गौर करने की जरूरत है जो दिखलाता है कि किसी किसी उत्पाद के साथ कोई जरूरी चीज़ मुफ़्त में दिया जाना व्यवसाय करने का कोई नया उपक्रम नहीं है। सौ वर्ष पहले भी इस तरह के लुभावने विज्ञापन खरीददारों को दिये जाते थे।

गौर करने वाली बात यह है कि सौन्दर्य प्रसाधन के नाम पर स्त्री पत्रिकाओं में जो विज्ञापन छप रहे थे वे तेल, टूथपेस्ट या साबुन आदि के ही होते थे।मेकअपके अन्य सामान मसलन स्नो - पाउडर, लिपस्टिक आदि के विज्ञापन इन पत्रिकाओं में नहीं छपा करते थे। क्योंकि ये पत्रिकाएं जिस गृहलक्ष्मी की संकल्पना करती थीं उसके नैतिक आचरण में ये उत्पाद फिट नहीं बैठते थे।

            इन पत्रिकाओं में स्त्रियों के लिए जरूरी सौन्दर्य प्रसाधनों के अलावा पुस्तकों, पत्रिकाओं के भी विज्ञापन प्रकाशित होते थे। कन्या मनोरंजन पत्रिका (नवम्बर 1914) ने प्रताप पत्रिका के एक विशेष अंकराष्ट्रीय अंकके लिए विज्ञापन प्रकाशित किया। इसनेविजय’ (सं. हरिश्चंद्र वेदालंकार, दिल्ली) औरराजभक्त’ (सं. बिरेंद्र बहादुर, बनारस) जैसी लघु पत्रिकाओं के लिए भी विज्ञापन प्रकाशित किये जो स्त्री पत्रिकाएं नहीं थीं। जिन पुस्तकों का विज्ञापन ये पत्रिकाएं करती थीं उन्हें दो हिस्सों में बाँटा गया था- ‘उपयोगी साहित्यऔरदिल्लगी की किताबेंयानि आवश्यक पुस्तकें और मनोरंजन के लिए पुस्तकें। इसके अलावा जीवनी, बाल साहित्य और मातृत्व से जुड़ी किताबों के विज्ञापन भी लगातार इन पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। कई स्त्री पत्रिकाएं जो नया प्रकाशित होना शुरू हुई थीं उनके विज्ञापन स्थापित पत्रिकाओं में देखे जा सकते थे। कई बार तो बिना किसी विज्ञापन के पत्रिकाओं के सम्पादकीय में स्त्रियों के लिए नई प्रकाशित पत्रिकाओं की सूचना पाठकों को दी जाती थी।स्त्री दर्पणऐसी ही एक पत्रिका थी जिसने अपनी कई समकालीन पत्रिकाओं को प्रोत्साहित किया। ऐसा वर्तमान दौर की स्त्री पत्रिकाओं के साथ संभव मालूम नहीं पड़ता कोई पत्रिका अपने जैसी अन्य पत्रिका की सूचना देना तो दूर विज्ञापन भी प्रकाशित नहीं कर सकती, क्योंकि पत्रिकाओं का प्रकाशन एक व्यवसाय का रूप ले चुका है और सभी पत्रिकाएं एक दूसरे की प्रतिस्पर्धी बन चुकी हैं।

            इन सबके अलावा इन पत्रिकाओं में नौकरियों के विज्ञापन भी प्रकाशित होते थे। पत्र पत्रिकाओं में नौकरियों के विज्ञापन प्रकाशित होना एक सामान्य बात है लेकिन, स्त्री पत्रिकाओं में जिनका वितरण अन्य पत्रों के मुकाबले कम था, में नौकरी के लिए ऐसे पद ही विज्ञापित किये जाते थे जहाँ सिर्फ स्त्रियों की ही जरूरत थी। गृहलक्ष्मी (अप्रैल/मई 1914) मेंजरूरत हैशीर्षक से ऐसा ही एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ है। यह विज्ञापन सहारनपुर के किंग एडवर्ड कन्या विद्यालय के लिए महिला अधीक्षक के पद के लिए विज्ञापित किया गया है। पद के लिए शिक्षक होने की योग्यता और हिंदी मध्य या सामान्य परीक्षा बोर्ड की परीक्षा उत्तीर्ण होने के अलावा सिलाई के काम में भी दक्षता की मांग की गयी है। इसी तरह स्त्री दर्पण (मार्च 1914) के अंक में एक विज्ञापन अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है जहाँ एक मिल में काम करने के लिए 3000 भारतीय महिलाओं की मांग की गयी है। विज्ञापन इस प्रकार है :

Lucrative Employment at Cawnpore Wollen Mills Co. Ltd

Lucrative employment for 3,000 Indians at Cawnpore Wollen Mills Co. Ltd. to produce Lalimli All Wool wear- the materials that are made in India by Indian labour under healthful, hygiene conditions, and which are a tribute to the land which produces them[vi]

एक सदी पहले का भारतीय समाज बहुत से बदलावों से गुजर रहा था। समाज सुधारों का जोर था। स्त्री जीवन में सुधार के लिए व्यापक सामाजिक कार्य हो रहे थे। ऐसे में स्त्री पत्रिकाओं में कई बार ऐसे विज्ञापन भी छपते थे जो किसी उत्पाद के होकर किसी किसी सामाजिक कार्य का हिस्सा थे। ऐसा ही एक विज्ञापन रतलाम से प्रकाशित होने वाली पत्रिकासुगृहिणीमें छपा। दो पंक्तियों का यह विज्ञापन इस प्रकार है

बम्बई के एक भले मानस ने विज्ञापन दिया है कि जो हिन्दू स्त्री एल.एम.एस. की परीक्षा पास करके उसके बाद डॉक्टरी का काम करेगी उसे वे 15 रु. मासिक वृत्ति देंगे।[vii]

धार्मिक सीमाओं में बंधा यह सामाजिक कार्य की सूचना वाला विज्ञापन बीसवीं शताब्दी के शुरूआती दौर की सामाजिक गतिविधियों का भी आईना है जहाँ लोग अपने अपने समुदायों (धर्म/जाति) में समाज सुधार को तत्पर थे।

वर्तमान दौर की स्त्री पत्रिकाओं में विज्ञापन

            ‘गृहलक्ष्मीमासिक पत्रिका जो डायमंड ग्रुप द्वारा प्रकाशित की जाती है, वर्तमान समय सर्वाधिक बिकने वाली हिंदी पत्रिकाओं में से है। इसके एक अंक का वितरण 3 लाख साठ हज़ार और पाठक संख्या 6 लाख से ज्यादा है।[viii] यह एक व्यवसायिक पत्रिका है जिसका प्रकाशन डायमंड मैगजींस प्राइवेट लिमिटेड द्वारा किया जाता है। इसका प्रधान कार्यालय दिल्ली में है। बीसवीं सदी के शुरूआती दो दशकों में निकलने वालीगृहलक्ष्मीसे इसका सम्बन्ध नहीं है, ही ये उस पुरानी पत्रिका की पुनरावृत्ति है। इसी नाम से एक पत्रिका मलयालम में भी निकलती है लेकिन ये दोनों भी आपस में संबद्ध नहीं हैं। इस पत्रिका का प्रकाशन अप्रैल 1990 से होना शुरू हुआ और आज भी ये पत्रिका लगातार निकल रही है। मोटे तौर पर इसमें खानपान, बुनाई-कढ़ाई, सौन्दर्य, हंसी मजाक के कॉलम, कहानियाँ, पाठिकाओं की समस्याओं और विशेषज्ञों कि सलाह आदि सामग्री होती है। पत्रिका में छपने वाले विज्ञापन भी सौंदर्य प्रसाधन से लेकर मसालों तक फैले हुए हैं। किसी तरह की राजनीतिक सामाजिक ख़बरें इस पत्रिका का हिस्सा नहीं बनतीं। इसकी संपादक तबस्सुम हैं जो एक टीवी अदाकारा हैं। लेकिन उनके अलावा पत्रिका की एक लम्बी-चौड़ी संपादकीय टीम है। पत्रिका का वर्तमान मूल्य 35 रुपये है लेकिन पत्रिका सवा सौ पन्नों की होती है। वह भी चिकने रंगीन कागजों पर। इस लिहाज़ से देखें तो पत्रिका के एक अंक की लागत 35 रूपये से ज्यादा मालूम होती है। इस तरह ज़ाहिर है प्रकाशक का मुनाफ़ा पत्रिका में छपने वाले ढेर सारे विज्ञापनों से होता है। इस पत्रिका का प्रकाशक डायमंड मैगजींस प्रा. लिमिटेड एक बड़ा प्रकाशक समूह है जो ज्यादातर लोकप्रिय साहित्य छापने का काम करता है। इस पत्रिका की पाठ्य सामग्री भी ज्यादा से ज्यादा पाठक वर्ग को अपील करने वाली होती है। यह पत्रिका पूर्ववर्ती बीसवीं सदी की स्त्री पत्रिकाओं की तरह किसी मिशन के तहत प्रकाशित नहीं की जाती बल्कि इसका उद्देश्य शुद्ध रूप से मुनाफा कमाना है, लेकिन यह पत्रिका महिलाओं के लिए बेहद जरूरी पाठ्य सामग्री और सूचनाएँ उपलब्ध कराती है।

इस पत्रिका का प्रकाशन 1990 में शुरू हुआ और इसके एक साल बाद ही भारत ने आर्थिक उदारीकरण के साथ अपने बाज़ार दुनियाभर के लिए खोल दिए। परिणामतः भारतीय बाज़ार अमेरिकी और यूरोपीय उत्पादों से भर गये। उत्पादों की मात्रा बढ़ने का असर विज्ञापनों पर भी पड़ा। भारत में अब तक विज्ञापनों का बाज़ार छोटा था लेकिन उदारीकरण के कुछ सालों के बाद इसमें बेतहाशा वृद्धि हुई। विज्ञापन के बाज़ार में धड़ल्ले से और सबसे पहले अमेरिकी कम्पनियाँ उतरीं जिन्होंने भारतीय प्रिंट मीडिया से लेकर टेलीविजन को विज्ञापनों से पाट दिया। इस पत्रिका पर आरंभ से ही उदारीकरण के बाज़ार और विज्ञापनों की छाया पड़ती रही। इस बढ़े हुए विज्ञापन के बाज़ार में भी विदेशी खासकर अमेरिकी विज्ञापन एजेंसियों का बोलबाला रहा। वर्ष 1993 तक शीर्ष की 20 विज्ञापन एजेंसियों में से 11 और वर्ष 1999 तक शीर्ष की 20 में से 15 एजेंसियां विदेशी थीं जिनका मार्केट शेयर 75 प्रतिशत से ज्यादा था।[ix] इन विदेशी कंपनियों ने भारतीय बाज़ार को समझते हुए अपने उत्पाद बनाये और विज्ञापित करने के तरीके अपनाये लेकिन साथ ही उन्होंने विज्ञापन के मंचोंटेलीविजन और पत्र-पत्रिकाएं इत्यादि को भी अपने कलेवर से प्रभावित किया. यह प्रभाव भाषा से लेकर मूल्यों के प्रसार  तक का  था

बीसवीं सदी के मुकाबले आज मध्यवर्ग का अपार विस्तार हो चुका है और वही मध्यवर्ग बाज़ार की तरह इस पत्रिका का भी लक्ष्य है। तुलना करें एक सदी पहले 1909 में प्रकाशित होने वाली पत्रिकागृहलक्ष्मीकी जिसके 4 हज़ार सदस्य थे और आज की इस पत्रिकागृहलक्ष्मीकी जिसकी पाठक संख्या 6 लाख से अधिक है। एक तरह से यह पत्रिका बाज़ार की ही देन है और बाज़ार को उसके ग्राहक भी मुहैया कराती है। इस तरह बाज़ार और यह पत्रिका दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। बाज़ार को अपने उत्पाद बेचने के लिए जो मंच चाहिए वो यह पत्रिका उसे मुहैया कराती है और इस पत्रिका को मुनाफ़े के लिए जो रकम चाहिए वह बाज़ार उसे विज्ञापनों के मार्फ़त देता है। जैसा कि मैंने पहले कहा कि इस पत्रिका के एक अंक के छपने की लागत मूल्य 35 रुपये से ज्यादा मालूम होती है लेकिन प्रकाशक इसे पाठकों को लागत मूल्य से कम में उपलब्ध कराता है, क्योंकि इसकी छपाई की कीमत बाज़ार चुकाता है। आइये इसके विज्ञापनों और उसकी नीतियों पर एक नज़र डालते हैं।

अप्रैल 2019 के गृहलक्ष्मी के अंक में कुल 136 पन्ने हैं जिनमें से 36 पन्नों पर पूरे पन्नों के विज्ञापन हैं। इसके अलावा आधे और एक चौथाई पन्नों पर छपने वाले विज्ञापनों की संख्या 10 है। यानि कि पत्रिका के करीब 30 प्रतिशत हिस्से में सिर्फ विज्ञापन हैं। इसी से पत्रिका की विज्ञापनों पर निर्भरता को समझा जा सकता है। पत्रिका का मुखपृष्ठ ही एक विज्ञापन है जिसपर एक महिला फैशनेबल कपड़े पहने खड़ी है। यहविशाल मेगा मार्टनामक एक सुपर मार्केट का विज्ञापन है जो घरेलू जरूरत की चीजों के साथ साथ कपड़े भी बेचता है। महिला की इस तस्वीर के नीचे विशाल मेगा मार्ट के लोगो और नाम के साथ लिखा है- ‘अब खुशियाँ सबकी पहुँच में[x] यह मार्ट बाकी जगहों से सस्ते कपड़े बेचने का दावा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से  जीवनमूल्य भी पेश कर रहा है कि मनपसंद कपड़े ही खुशियाँ हैं। यह मुखपृष्ठ फ्लैप की शक्ल में है जिसके अगले पन्ने पर भी यही विज्ञापन दूसरी तस्वीर के साथ है। इसके बाद पत्रिका का असली मुखपृष्ठ सामने आता है जिस पर इस अंक का नाम, मूल्य और अंक की महत्वपूर्ण पाठ्य सामग्री के शीर्षक दर्ज हैं। इसी के दाहिनी और कोने मेंरूप मंत्रानामक एक सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली कंपनी का लोगो और नाम छपा है और इसी के साथ यह सूचना है कि इस अंक के साथ रूप मंत्रा का 20 मि.ली. का फेशवाश मुफ़्त दिया जा रहा है। ज़रा ठहरकर सोचने की बात है. पत्रिका के साथ फेशवाश का मुफ़्त में मिलना क्यों ? विज्ञापनों और बाज़ार के साथ पत्रिका का गठजोड़ इससे समझें कि पत्रिका के साथ फेशवाश मुफ़्त दिया जा रहा है। यह मुफ़्त की वस्तु भी एक तरह का विज्ञापन ही है जो एक ट्रायल के रूप ग्राहकों को दी जा रही है। मुख पृष्ठ के बाद अगले चार पन्नों पर विज्ञापन ही हैं और पांचवे पन्ने पर संपादकीय मौजूद है।

इस अंक में जिन चीजों के विज्ञापन हैं वे हैं- रसोई से जुड़ी चीजें मुख्यतः मसाले और तेल, महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ा आयुर्वेदिक टॉनिक, अन्तःवस्त्र, शिशु के देखभाल की चीजें- डायपर, जीवन बीमा, गृह - साज सज्जा और घरेलू जरूरत की मशीनें, पुस्तकें, लेकिन सबसे ज्यादा जिस चीज के विज्ञापन हैं वे हैं- सौंदर्य प्रसाधन की चीजें मसलन- शैम्पू, कई तरह के स्किन क्रीम, हेयर रिमूवल क्रीम, बालों के तेल आदि। इनमें एक भी विज्ञापन ऐसा नहीं है जिसका स्त्रियों के अलावा किसी और से वास्ता हो। इस तरह स्त्री संबंधी उत्पादों को बेचने के लिहाज से ये पत्रिकाएं एक महत्वपूर्ण जरिया हैं। इस पत्रिका के विज्ञापनों की खास बात उन्हें प्रस्तुत करने की योजना है। जिसे देखकर लगता है मानो ये पत्रिका और उसके आलेख द्वितीयक (सेकंडरी) हैं, प्राथमिक है उसके विज्ञापन। इस पर हम आगे बात करते हैं।

अप्रैल से गर्मी के महीने की शुरुआत हो जाती है इसलिए यह अंकसमर ब्यूटी स्पेशलहै। हिंदी पत्रिका के इस विशेषांक का नाम भी बाज़ार के दबाव को लक्षित कर रहा है। इस अंक में गर्मी के दिनों में सौन्दर्य का ध्यान रखने संबंधी सात लेख हैं। ध्यान देने की बात ये है कि जहाँ जहाँ ये लेख प्रकाशित हुए हैं वहाँ-वहाँ किसी किसी सौन्दर्य उत्पाद (फेस क्रीम, फेशवाश आदि) का विज्ञापन है। कई बार ये विज्ञापन एक तिहाई हिस्से में प्रकाशित हुए हैं शेष दो चौथाई हिस्से में त्वचा की देखभाल से जुड़ा हुआ वह लेख है। कई बार भ्रम होता है कि यह लेख इस विज्ञापन का ही हिस्सा है या फिर वह विज्ञापन उस लेख का ही हिस्सा है। देखें  (चित्र सं. 2) :


ऐसा सिर्फ सौन्दर्य उत्पादों के साथ नहीं है बल्कि अन्य उत्पादों के साथ भी है। मसलन जहाँ किसी तरह के व्यंजन बनाने की विधि बताई गयी है वहाँ पर रसोई से जुड़े उत्पाद जैसे मसाले, तेल आदि का विज्ञापन है। जिन किताबों का विज्ञापन इसमें प्रकाशित है वे किताबें किसी और प्रकाशक की नहीं बल्कि इसी पत्रिका के प्रकाशक डायमंड मैगजीन प्राइवेट लि. की ही हैं। ये किताबें ज्यादातर प्रेरणादायक किस्म की हैं या फिर लोकप्रिय कविताओं- कहानियों की।

पत्रिका का सबसे ज्यादा ध्यान महिलाओं में अपने सौंदर्य का ध्यान रखने की चेतना विकसित करने को लेकर है। इसके बाद नंबर आता है रसोई का। फिर घर के साज संवार और स्वास्थ्य तथा अन्य चीजों का। गृहलक्ष्मी जैसी लाखों पाठकों तक पहुँचने वाली पत्रिकाओं और विज्ञापनों का क्या रिश्ता है यह उनकी विज्ञापन दरों से भी पता चलता है। मीडिया एंटएक वेबसाइट है जो अलग अलग पत्रिकाओं के सर्कुलेशन के मुताबिक उनमें विज्ञापन देने का काम करती है। इस वेबसाइट के अनुसार, गृहलक्ष्मी पत्रिका की विज्ञापन दरें इस प्रकार हैंकवर पेज – 3.67 लाख, डबल स्प्रेड पेज – 4.71 लाख, एक पूरा पृष्ठ- 2.35 लाख, आधा पृष्ठ- 1.9 लाख, एक चौथाई पृष्ठ- 1.2 लाख, कवर पृष्ठ- 3.67 लाख, डबल स्प्रेड -4.71 लाख।[xi] यह दरें भी वेबसाइट की छूट के मुताबिक हैं और करों के अतिरिक्त हैं। इन दरों के हिसाब से देखें तो पत्रिका के केवल इस अंक में 1 करोड़ रूपये से ज्यादा मूल्य के विज्ञापन प्रकाशित हुए हैं।

विज्ञापनों के साथ समझौता करने की वजह से पत्रिकाओं की भाषा पर भी असर पड़ा है। हिंदी की पत्रिकाओं में अंग्रेजी के शब्द धड़ल्ले से प्रयोग में रहे हैं, वैसे शब्द भी जिनके लिए हिंदी में पहले से शब्द मौजूद हैं। पर चूंकि वे शब्द विज्ञापित उत्पाद के साथ मेल नहीं खाते इसलिए उनके लिए अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करना पत्रिकाओं की मजबूरी बन गया है। यह मजबूरी बाज़ार के सामने घुटने टेक देने की वजह से ही आई है। 1990 में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण ने जिस तरह अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोले उसने विज्ञापनों को खासा प्रभावित किया। भारतीय बाज़ार में दुनियाभर खासकर अमेरिकी कंपनियों की आमद हुई, अमेरिकी उत्पादों का प्रयोग करना या अंग्रेजी बोलना स्टेटस सिम्बल के रूप में कस्बों तक फैलता गया। शोध बताते हैं कि इस उदारीकरण के बाद से ही भारतीय विज्ञापनों की भाषाहिंगलिशहोती चली गयी।[xii] गृहलक्ष्मी पत्रिका के एक अंक में घर की आंतरिक सज्जा को लेकर एक आलेख छपा है जिसका शीर्षक है – ‘परदों से घर का रूप बदलने के 9 टिप्स इसके अंतर्गत जो पहली सलाह है वह यूँ है – “ रंगों का फैसला करते समय सॉलिड या पैटर्न्ड विंडो ट्रीटमेंट के साथ अपना एक अलग कलर पैलेट बनाएं[xiii] यह हिंदी की इस पत्रिका के भाषाई प्रयोग का एक नमूना मात्र है।

हिंदी की अन्य स्त्री पत्रिकाओं की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। कुछ अन्य स्त्री पत्रिकाओं में विज्ञापनों का विश्लेषण भी हम आगे करेंगे। हिंदी में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली अन्य पत्रिकाएँ हैंमेरी सहेली, वनिता, गृहशोभा आदि। देखते हैं इनमें विज्ञापनों का क्या स्वरूप है। हिंदी की इन व्यावसायिक स्त्री पत्रिकाओं में विज्ञापनों का एक खास पैटर्न है। इनमें अधिकतर स्वास्थ्य/सौंदर्य, घरेलू जरूरत के सामन, स्त्रियों की दवाएँ, खाद्य पदार्थ, बच्चों की जरूरत का सामान, आभूषण आदि के विज्ञापन ही जगह पाते हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों में भी सबसे ज्यादा बालों की देखभाल और त्वचा के गोरेपन के लिए बनाये गये उत्पादों की जगह है। इन सौन्दर्य उत्पादों के विज्ञापन में इस सवाल पर गौर करने की जरूरत है कि ये सौन्दर्य की अवधारणा को किस तरह देखते हैं। ध्यान से देखने पर यह समझ आता है कि ये विज्ञापन स्त्री-विरोधी विचार पर आधारित हैं। इन पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठ पर हमेशा एक गोरे रंग की, लम्बी, छरहरी काया लिए, बढ़िया मेकअप किये और आकर्षक वस्त्र पहने किसी किसी युवती की तस्वीर होती है। यह सवाल हो सकता है कि सुन्दर और आकर्षक दिखना या ऐसा चाह रखने में गलत क्या है? लेकिन सौन्दर्य की यह पूरी अवधारणा यहाँ पितृसत्ता पर आधारित और बाज़ार से प्रेरित है। इस अवधारणा में आकर्षक दिखने का जो दृष्टिकोण है वह एक पुरुषवादी दृष्टिकोण है। इसमें सांवली, काली स्त्री या बिना सजी-धजी स्त्री की जगह नहीं है। इसमें ऐसी स्त्री मौजूद ही नहीं है जिसके चेहरे पर थोड़े दाग भी हों, जिसके बाल रूखे हों, या नाखून रंगे हों। जिस पाठक वर्ग के लिए यह पत्रिका प्रकाशित होती है उसकी इनमें मौजूदगी ही नहीं है। मौजूद है एक ऐसी स्त्री जिसके जैसा बनने के लिए इन पत्रिकाओं की पाठक महिलाओं को प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से  प्रेरित किया जा रहा है। पत्रिकाएँ पहले मुख्यपृष्ठ पर स्त्री की ऐसी ही एक छवि प्रस्तुत करती हैं और फिर ऐसी छवि पाने के लिए पत्रिका के अन्दर विभिन्न उत्पादों को बेचा जाता है। इसीलिए इन पत्रिकाओं के उत्पादों में सबसे ज्यादा संख्या सौन्दर्य से जुड़े उत्पादों की है। प्रभा खेतान अपनी पुस्तकउपनिवेश में स्त्रीमें लिखती हैं, “व्यापक स्तर पर स्त्री-देह का, उसके कपडों एवं सौंदर्य प्रसाधन का विज्ञापन इस पूर्वानुमति तथ्य पर आधारित है कि वास्तव जगत् की स्त्री देह में ही कोई कमी है, इसलिए इन प्रसाधनों, कपडों एवं डाइटिंग से इसे भोग के अनुकूल बनाया जाना चाहिए। चूंकि दुनिया और समाज में , पुरुष की नजरों में वह सुन्दर लगे, यह जरूरी माना जाता है। यहां स्त्री व्यक्ति के रूप में भी बार-बार अदृश्य पितृ-सत्तात्मकता के प्रभाव में दूसरे व्यक्ति के संदर्भ में स्वयं को प्रस्तुत करती है।[xiv]

अन्य उत्पादों को लेकर इन पत्रिकाओं की विज्ञापन प्रस्तुति में भी उत्तर भारतीय मध्यवर्गीय स्त्री का चेहरा दिखाई नहीं देता। हर विज्ञापन में एकअन्यस्त्री की छवि मौजूद है। यहअन्यस्त्री वो है जिसकी चाह समाज में मर्दों को है और वैसा बनने के लिए बाज़ार हर स्त्री पर दबाव डाल रहा है। इन पत्रिकाओं पर बारी- बारी से नज़र डालते हैं।

 

मेरी सहेली : मेरी सहेली पायोनियर बुक कंपनी प्राइवेट लिमिटेड द्वारा प्रकाशित की जाने वाली एक मासिक पत्रिका है। इसका प्रकाशन मार्च 1988 से लगातार हो रहा है। इंडियन रीडरशिप सर्वे 20190 के अनुसार यह हिंदी की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं में से है और अग्रणी 10 में अपनी जगह बनाती है। इसकी पाठक संख्या 38 लाख प्रति वर्ष है।[xv]

इस पत्रिका के सितंबर 2019 के अंक को देखें तो इसमें प्रकाशित हुए अलग- अलग क्षेत्र के विज्ञापनों का स्वरूप  इस तरह दिखाई देता है : (देखें चार्ट – 1)





इस चार्ट में हम देख पा रहे हैं कि पत्रिका में विज्ञापनों का जोर सबसे ज्यादा सौन्दर्य प्रसाधनों और वस्त्र-आभूषणों पर है, उसके बाद घरेलू जरूरत और खाद्य सामग्री का स्थान आता है और फिर आता है स्वास्थ्य संबंधी विज्ञापनों का स्थान। यह एक अंक की बानगी है, औसतन सभी अंकों में विज्ञापनों का यही स्वरूप होता है।

            मेरी सहेली के इस अंक में कुल पृष्ठों की संख्या है 135 जिसमें से पूरे 48 पृष्ठों पर विज्ञापन प्रकाशित हुए हैं। यानि कि पत्रिका के 35% हिस्से में सिर्फ विज्ञापन ही हैं। यह अंक एक विशेषांक है जिसकी सूचना मुख्य पृष्ठ पररेसिपी स्पेशललिखकर दी गयी है। इसे व्यंजन विशेषांक भी लिखा जा सकता था लेकिन भाषा को लेकर पत्रिका का रवैया किस तरह बाज़ार आधारित हो चला है इसकी चर्चा पहले भी की गयी है। मुख्य पृष्ठ पर भाषा प्रयोग के कुछ अन्य उदाहरण देखे जा सकते हैं जिनमें पत्रिका की कुछ प्रमुख पाठ्य सामग्रियों की सूचना दी गयी है – ‘कॉमन कुकिंग मिस्टेक्स’, फेस करेक्शन मेकअप टिप्स, कितना हेल्दी है आपका हार्ट आदि। पत्रिका के इस अंक के साथ दो उत्पाद मुफ़्त दिए जा रहे हैंबर्तन धोने वाले साबुनहेंकोका एक सैशे और बालों में लगाये जाने वालेवाटिकातेल के दो सैशे। मुफ़्त में दिए जा रहे इन दोनों उत्पादों की सूचना मुख्य पृष्ठ पर ही चित्र के साथ दी गयी है ताकि कई पत्रिका खरीदने के लिए भी ग्राहकों को लुभाये। इस तरह उत्पाद और पत्रिका दोनों ही एक दूसरे को बिकने में मदद कर रहे हैं।

पत्रिका के इसी अंक में Chicco नामक कंपनी के कुछ उत्पादों का विज्ञापन है जो शिशुओं के स्वास्थ्य/सौंदर्य से जुड़ी चीजें बनाती है। इसमें शिशुओं के लिए बॉडी लोशन, शैम्पू, साबुन और टेलकम पाउडर के विज्ञापन हैं। कंपनी शिशुओं की नाजुक त्वचा के लिए गैर हानिकारक उत्पाद बनाने का दावा करती है। इस विज्ञापन में एक माँ अपने शिशु को नहलाती हुई उसके साथ खेल रही है।[xvi] उत्तर भारत में पढ़ी जाने वाली इस पत्रिका के इस विज्ञापन में माँ और शिशु दोनों ही श्वेत हैं और यूरोपियन मालूम पड़ते हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा कि सौन्दर्य की जो अवधारणा इन पत्रिकाओं में विज्ञापनों के माध्यम से प्रस्तुत की जा रही है वह दिक्कततलब है। इस विज्ञापन में सांवले रंग के उत्तर भारतीय माँशिशु भी हो सकते थे लेकिन संभवतः वह पाठकों कोअपीलनहीं करता! इस तरह से ये पत्रिकाएँ पाठक वर्ग के अंदर कुंठाजनित सौन्दर्य बोध का भी निर्माण कर रही हैं जहाँ गोरा होना बदसूरत होने की निशानी है। इसीलिए यह भी गौरतलब है कि सौन्दर्य के सभी विज्ञापनों में आधे से अधिक त्वचा की देखभाल और उसे गोरा बनाने वाले उत्पादों से जुड़े हैं।

गृहशोभा : यह पत्रिका हिंदी के एक बड़े प्रकाशक समूह दिल्ली प्रेस से 1988 से लगातार प्रकाशित हो रही है। दिल्ली प्रेस पत्रिकाओं के प्रकाशन के मामले में देश का सबसे बड़ा प्रकाशक है जो 9 भाषाओं में 30 पत्रिकाएँ प्रकाशित करता है। इसके द्वारा गृहशोभा पत्रिका हिंदी के अलावा गुजराती, कन्नड़ और मराठी में भी निकाली जाती हैं। दिल्ली प्रेस की वेबसाइट के अनुसार इन चारों भाषाओं में ये पत्रिका अग्रणी (प्रकाशक के अनुसार- ‘नंबर 1’) है[xvii] इंडियन रीडरशिप सर्वे 2014 तक यह स्त्रियों द्वारा पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं में शीर्ष पर थी लेकिन इंडियन रीडरशिप सर्वे 2019 में यह पाठक संख्या में नीचे खिसक आई है, बावजूद इसके इसकी वार्षिक पाठक संख्या 30 लाख से ज्यादा है।[xviii]

दिल्ली प्रेस की वेबसाइट पर विज्ञापनों के लिए अलग से एक हिस्सा है जहाँ इस बात को रेखांकित किया गया है कि सबसे ज्यादा स्त्रियों तक दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं की पहुँच है। यह संख्या 85 लाख बताई गयी है।[xix] आगे वेबसाइट विज्ञापनदाताओं को इस बात की जानकारी देती है कि उसकी पत्रिकाएँ भिन्न- भिन्न क्षेत्रों में पाठ्य सामग्री उत्पादित करती हैं (We produce content in various sub-domains)[xx] यहाँ प्रकाशक के उस दृष्टिकोण का भी पता चलता है जो विज्ञापन केन्द्रित है। यानि कि प्रकाशक विज्ञापनों को ध्यान में रखकर पत्रिकाओं का कंटेंट तय कर रहा है। इन क्षेत्रों की सूची में हैंसौन्दर्य, स्वास्थ्य, फैशन, निजी देखभाल, रिश्ते-नाते, वित्त, गृह सज्जा, बच्चों का पालन पोषण, यौन स्वास्थ्य और पर्यटन। गौरतलब यह है कि ये सारे वेकंटेंटहैं जो गृहशोभा में नियमित रूप से प्रकाशित होते हैं।

गृहशोभा (प्रथम) 2006 के अंक प्रकाशित होने वाले विभिन्न विज्ञापनों को निम्न चार्ट द्वारा प्रदर्शित किया गया है : (देखें चार्ट -2) इसमें भी व्यावसायिक पत्रिकाओं का वही पैटर्न नज़र रहा है जहाँ सौन्दर्य, वस्त्र आभूषण, स्वास्थ्य, घरेलू रोजमर्रा की वस्तुओं के विज्ञापन ज्यादा हैं। यह पत्रिका की विज्ञापन रणनीति पर भी भली भाँति आधारित है।


गृहशोभा का यह अंक बुनाई विशेषांक है जिसेनिटिंग स्पेशलनाम दिया गया है। 130 पन्नों की इस पत्रिका में 45 पृष्ठों (34% से अधिक हिस्से) पर विज्ञापन हैं। इसमें कुल 43 विज्ञापनों में आधे विज्ञापन शुरूआती 40 पृष्ठों में ही दे दिए गये हैं। विज्ञापनों के प्रकाशन का तरीका भी ऐसा है कि शुरूआती 38 पृष्ठों तक हर बाएं पृष्ठ पर कोई कोई स्थायी स्तंभ है और उसके ठीक दायें पृष्ठ पर कोई विज्ञापन। विज्ञापनों का यह प्रबंधन इस तरह है कि इनपर पाठक की ज्यादा से ज्यादा नज़र रहे।

कई विज्ञापन तो पत्रिका की पाठ्य सामग्री की शक्ल में छापे गये हैं। ऐसा ही एक विज्ञापन है त्वचा पर लगाये जाने वाली इरेज़र स्लिम शेप्स नामक क्रीम का जो यह दावा करती है कि इसके लगाये जाने से शरीर से अनचाही चर्बी को हटाया जा सकता है। इस विज्ञापन को डॉक्टरी समस्या-समाधान वाले एक कॉलम के साथ प्रकाशित किया गया है। पूछे जाने वाली ज्यादातर समस्याओं के समाधान इस क्रीम या इस कंपनी के किसी अन्य उत्पाद में है और इस स्तंभ की चिकित्सक हर किसी को उपचार में इन उत्पादों का प्रयोग करने की सलाह दे रही है। ज़ाहिर है कि इस विज्ञापन में पूछे जाने वाले सवाल भी मनगढ़ंत हैं और पूछने वालों के नाम भी। बहुत संभव है कि कई पाठक अपनी मिलती जुलती समस्याओं के लिए इन दवाइयों का प्रयोग भी करें। बीसवीं सदी की स्त्री पत्रकारिता के बरक्स विज्ञापनों के लिए इस स्तर पर उतर आयी पत्रकारिता को रखकर देखें तो फर्क साफ़ समझ आता है। इस उत्पाद की कि टैगलाइन है – ‘Enhances Feminine Pride’[xxi] स्त्रियों के गर्व को सिर्फ उनके शारीरिक सौन्दर्य तक सीमित कर देने के पीछे सिर्फ बाज़ार नहीं पितृसत्ता भी काम कर रही है।

वनिता :  यह पत्रिका केरल स्थित प्रकाशक समूह मलयाला मनोरमा द्वारा प्रकाशित की जाती है जो मलयालम भाषा का एक बड़ा प्रकाशक समूह है। इसी नाम की एक स्त्री पत्रिका मलयालम में भी पहले से प्रकाशित की जाती रही है जो मलयालम की सबसे लोकप्रिय पत्रिका है। उसी की तर्ज पर हिंदी में भी वनिता का प्रकाशन जनवरी 1998 से शुरू हुआ और देखते ही देखते इसने पाठक वर्ग में अपनी जगह बना ली।

            वनिता का जून 2015 130 पन्नों का है जिसमें 26 पृष्ठों पर यानि 22 % हिस्से पर विज्ञापन हैं। यह उपरोक्त अन्य पत्रिकाओं के मुकाबले कम है। यह भी एक विज्ञापन आधारित व्यावसायिक पत्रिका ही है पर इसमें थोड़े संतुलन के साथ लगभग उपरोक्त पत्रिकाओं जैसे विज्ञापन ही प्रकाशित होते हैं। इस अंक में प्रकाशित विज्ञापनों को इस चार्ट में देखा जा सकता है : (देखें चार्ट 3)

वनिता में विज्ञापनों का प्रसार अन्य पत्रिकाओं के मुकाबले कम है और इसमें स्वास्थ्य संबंधी विज्ञापनों को सौन्दर्य से ज्यादा जगह मिली है। इस पत्रिका का वितरण अन्य के मुकाबले कम है इस कारण संभवतः इसे विज्ञापन कम मिलते हों। शायद यही वजह है कि इसमें अंधविश्वास से जुड़े ज्योतिषी- तांत्रिकों और नीम हकीमों के छोटे-छोटे विज्ञापन भी जगह पाते हैं।

स्त्रियों के स्वास्थ्य से जुड़े विज्ञापन इसमें ज्यादा हैं। ऐसा ही एक विज्ञापन है आयुर्वेदिक औषधि हेमपुष्पा का। यह औषधि कई विकारों को दूर करने का दावा करती है। स्त्रियों के पीरियड्स से जुड़ी तकलीफों को दूर करने की इस दवा की विशेषता को विज्ञापन में यूँ लिखा गया है – “स्त्रियों के उन दिनों को बनाए आसान और स्त्रियाँ तन-मन से रहें खिली-खिली व् स्वस्थ[xxii] स्त्रियों की पत्रिका में ही स्त्रियों की समस्याओं को ढंककर-छिपाकर पेश करना किसी 21 वीं सदी की पत्रिका की निशानी नहीं हो सकती। यह स्त्रियों की स्वास्थ्य खासकर यौनिकता से जुड़ी परेशानियों पर बात करने की हमारी सामाजिक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने जैसा ही है।

निष्कर्ष:

इस तरह बीसवीं सदी की पत्रिकाओं के बरक्स आज के दौर की स्त्री पत्रिकाओं को देखकर पता चलता है कि स्त्री पत्रकारिता एक बिलकुल ही नए युग में प्रवेश कर चुकी है। वर्तमान पॉपुलर स्त्री पत्रिकाओं पर विज्ञापनों का भारी दबाव है और वे उनपर आश्रित हैं। वे किसी मिशनरी भावना के साथ नहीं बल्कि व्यवसाय के लिए प्रकाशित की जा रही हैं। यह परिवर्तन समय के साथ बदली मूल्यगत चेतना की वजह से भी है। उपभोक्तावादी समाज ने हर जरूरत को व्यापार में बदल दिया है। अर्थव्यवस्था का जो स्वरूप है उस लिहाज से दौड़ में बने रहने के लिए पत्रिकाओं को बाज़ार में उतरना ही पड़ेगा और विज्ञापनों का सहारा भी लेना ही पड़ेगा। लेकिन पत्रिकाएं विज्ञापनों पर इस कदर आश्रित हो जाएँ कि उनके अनुसार अपनी पाठ्य सामग्री तय करने लगें, यह चिंता का विषय है। एक बार को लग सकता है कि स्त्रियों की दुनिया में बाज़ार के दखल ने उन्हें स्वतंत्र किया है। हांलाकि यह बात पूरी तरह से गलत नहीं है, लेकिन यह भी सत्य है कि इस बाज़ार ने पितृसत्ता के मूल्यों को मजबूत करने का भी काम किया है और ये पत्रिकाएँ इसमें सहभागी साबित हुई हैं। एक सदी पहले और आज की स्त्री पत्रिकाओं में विज्ञापन की तुलना इस तरह उन मूल्यों की भी तुलना है जिन्हें वे पत्रिकाएँ अपने पाठकों में प्रसारित कर रही हैं।



[i]संदर्भ सूची :

 

 जेंडर बायस एंड इनक्लूजन इन एडवरटाइजिंग इन इंडिया, यूनिसेफ की रिपोर्ट, अप्रैल 2021

[ii] राहुल सचितानंद, व्हाय वीमेन कंज्यूमर्स मैटर एंड व्हाट कंपनीज आर डूइंग अबाउट इट , इकोनोमिक टाइम्स, मार्च 27, 2012

[iii] शोभना निझावन, वीमेन एंड गर्ल्स इन हिंदी पब्लिक स्फीयर : पीरियोडिकल लिटरेचर इन कलोनियल नार्थ इंडिया, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नयी दिल्ली, 2012, पृष्ठ - 49

[iv] गृहलक्ष्मी, (सं. श्रीमति गोपाल देवी और सुदर्शनाचार्य), दिसंबर/जनवरी 1913, अंतिम पृष्ठ

[v] गृहलक्ष्मी, (सं. श्रीमति गोपाल देवी और सुदर्शनाचार्य), जनवरी/फरवरी 1911, अंतिम पृष्ठ

[vi] स्त्री-दर्पण, (सं. रामेश्वरी नेहरु), मार्च 1914, पृष्ठ – 34

[vii] विजयदत्त श्रीधर, (सं.) समग्र भारतीय पत्रकारिता, प्रथम खंड, लाभचंद प्रकाशन इंदौर, 2001, पृष्ठ 505

[viii] देखें पत्रिकाओं के लिए विज्ञापन लेने वाली वेबसाइटबुक ऑल एड्स  : https://bookallads.com/magazine/n109/grehlakshmi.html

[ix] देखें, लाएन शोशेत : ‘एडवरटाइजिंग इन ग्लोबलाइज्ड इंडिया’, पॉपुलर कल्चर इन ग्लोबलाइज्ड इंडिया’ (सं. के.एम गोकुलसिंह और डब्ल्यू. दिशानायके), रूटलेज, लन्दन, 2010, पृष्ठ 192- 104

[x] मुखपृष्ठ, गृहलक्ष्मी (सं. तबस्सुम), अप्रैल 2019

[xi] मीडिया एंट वेबसाइट - https://www.themediaant.com/magazine/grehlakshmi-magazine-advertising

[xii] अमित बनर्जी, मो. इकबाल खान आदि, इंडियाज़ न्यू लैंग्वेज ऑफ़ एडवरटाइजिंग : स्टडी ऑफ़ चेंज इन पोस्ट-लिबरलाइजेशन इन इंडिया, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ इंटिग्रेटेड मार्केटिंग कम्युनिकेशंस, स्प्रिंग 2013, वॉल्यूम 5 इशू 1, पृष्ठ 77-95

[xiii] परदों से घर का रूप बदलने के 9 टिप्स, गृहलक्ष्मी, अप्रैल, 2019, पृष्ठ 20

[xiv] प्रभा खेतान, उपनिवेश में स्त्री, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003, पृष्ठ-143

[xv] इंडियन रीडरशिप सर्वे 2019

[xvi] Chicco का विज्ञापन, मेरी सहेली (सं. हेमामालिनी), सितंबर, 2014 पृष्ठ 12-13

[xvii] दिल्ली प्रेस की वेबसाइट, https://www.delhipress.in/advertisers

[xviii] देखें इंडियन रीडरशिप सर्वे 2014 और 2019

[xix] दिल्ली प्रेस की वेबसाइट, वही

[xx] वही

[xxi] गृहशोभा (सं. परेश नाथ), दिसंबर (प्रथम), 2006, पृष्ठ – 41

[xxii] वनिता (सं. मरियम माम्मन मैथ्यु), जून 2015, पृष्ठ, 15

 

आकाश कुमार

शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

एवं सहायक प्राचार्य (हिंदी)

दाउदनगर महाविद्यालय, औरंगाबाद, बिहार (मगध विश्वविद्यालय, बोधगया)

संपर्क : 8130479439, kumar.aakash91@gmail.com




 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-39, जनवरी-मार्च  2022

UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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