शिक्षा एवं बाल-मन की व्यथा के साहित्यिक संस्मरण : टैगोर से वर्तमान तक
- मुहम्मद शहीर सिद्दीक़ी
शोध सार : आधुनिक मनोविज्ञान में पियाजे और वायगॉट्स्की के सिद्धांतों में बाल मन की अवधारणा को तकनीकी दृष्टि से समझने का जो प्रयास किया गया है उसके विपरीत शिक्षा का साहित्य उस अवधारणा के मार्मिक पक्ष को परिलक्षित करता है , वर्तमान समय में शिक्षा के दर्शन और शिक्षा के समाजशास्त्र के सामान शिक्षा के साहित्य का महत्व बढ़ता जा रहा है , ये कोई ऐसा साहित्य नहीं जिसे शिक्षा के सिध्दांतों या उसके व्यावहारिक स्वरुप को उजागर करने के लिए रचा गया हो बल्कि हर वो कथा, कहानी या कविता शिक्षा के साहित्यके अंतर्गत आएगी जिसका सृजन शिक्षा को केंद्र में रखकर किया गया हो और जिस तरह कहानी या कविता में कोई नायक अथवा मनोभावों का केंद्र बिंदु होता है उसी तरह, रचना का केंद्र बिंदु या नायक शिक्षा होती है , प्रस्तुत लेख शिक्षा के साहित्य में बाल मन की अभिव्यक्ति के कुछ सन्दर्भों का लेखा जोहा प्रस्तुत करने का एक प्रयास है।मूल आलेख : परिचय- बच्चे जब छोटे होते हैं तो उन्हें घर पर माँ सिखाती है की कैसे बोलना है और कैसे खाना है परन्तु इस प्रक्रिया में कहीं मानसिक दबाव या तकनीकी दक्षता की ज़रूरत नहीं पड़ती है, संयुक्त परिवार में रहते हुए दूसरे बच्चों और बड़ों के सानिध्य में बच्चे जीवन के बहुमूल्य विषयों को आत्मसात कर लेते हैं परन्तु आधुनिक समय में जब आर्थिक और सामाजिक कारणों से परिवार एकल हो रहे हैं तो परिवार में बुज़ुर्गों की अनुपस्थिति उन सामाजिक मूल्यों और मानव संवेदना के संस्कारों से बच्चों के अनभिज्ञ बने रहने का प्रमुख कारण बनती जा रही है। पहले बच्चों को मूल्यों की शिक्षा परिवार से ही मिल जाती थी और वे दादा-दादी या नाना-नानी से कहानियों के माध्यम से उन जीवन मूल्यों को सीख कर जीवन में उतार भी लेते थे जिसे आधुनिक स्कूलों में क्रिया कलापों और प्रोजेक्ट आदि बनवा कर रटाया जाता है। बाल मन बड़ा ही कोमल होता है 'बाल मन के ख़ाली स्लेट होने वाली पुरानी अवधारणा' अब मान्य नहीं 'जिस पर कुछ भी लिखा जा सकता है, हालांकि इसका इंकार टैगोर ने बहुत पहले ही अपने काव्य के माध्यम से कर दिया था परन्तु उसे समझने में बहुत समय लग गया। बच्चे का मन अनेक उलझनों में हर वक़्त घिरा होता है क्योंकि बाहरी दुनिया में नित्य होने वाले परिवर्तन उसको बहुत प्रभावित करते हैं और उन्हें वो अपनी आतंरिक दुनिया में नित्य नयी उलझनों के रूप में देखता है, वो रोज़ प्रातः अनेक प्रश्नों के साथ उठता है और रात को अनुत्तरित प्रश्नों के साथ सो जाता है। पुरानी जिज्ञासा शांत नहीं हो पाती की नए प्रश्न जन्म लेने लगते हैं साथ ही साथ स्कूल की पढ़ाई से उत्पन्न ज्ञान, जिसे बाहर से उसके अंदर उड़ेला जाता है, उसे और व्यथित कर देता है और वो ये व्यथा न तो किसी को बता सकता है और न ही इसका हल उसके पास है।
बाल मन की व्यथा एवं शिक्षा के कुचक्र- शिक्षण की अमनोवैज्ञानिक और कृत्रिम विधियों तथा बाल मन की उपेक्षा से उत्पन्न खिन्नता बालक के व्यवहार पर असर डालती हैं और वो एक पुरानी मशीन की तरह चलता रहता है जिसका कोई भी पुर्ज़ा कभी भी टूट सकता है। बालक दिव्य ऊर्जा का स्रोत होता है उसे एक 'पुरानी मशीन' बनाने वाली शिक्षा केवल कागज़ों पर अवतरित अनुशासनात्मक नियमों और शिक्षण विधियों का संग्रह मात्र है। बालक अभूतपूर्व कल्पनाओं तथा क्षमताओं का मालिक होता है शिक्षा उसे उसी में से खोज कर बाहर निकालने का उद्योग होती है न की उसे पाठ्य पुस्तकों और नियमित कागज़ी परीक्षाओं की बाहरी चहारदीवारी मैं क़ैद कर देने का आंदोलन।
शिक्षक उसके मस्तिष्क को ज्ञान के नाम पर कम्प्यूटर की हार्ड डिस्क की तरह सूचनाओं से भरता रहता है परन्तु जब असल ज़िन्दगी के मैदान-ए-जंग में उसे मानवीय संवेदनाओं, सृजनात्मक कल्पनाओं, निर्णय लेने की इच्छा शक्ति और सामाजिक रिश्तों को निभाने की क्षमताओं की ज़रुरत पड़ती है तब सूचनाओं से भरपूर मस्तिष्क हारने लगता है ह्रदय भावनाओं की शिक्षा से खाली होता है। एन0 सी0 ई0 आर0 टी0, ‘शांति के लिए शिक्षा आधार पत्र’ के एक उद्धरण से ये बात समझी जा सकती है जहाँ एक बालक अब से पचास वर्ष बाद अपने शिक्षक के सपने में आकर बड़े क्रोध में उससे अपनी अपरिपक्व और अधूरी शिक्षा की शिकायत करता है –
विद्यार्थी अत्यधिक ग़ुस्से के साथ चिल्लाया,
"आपने इन विशाल मशीनों तक मेरे हाथों को पहुँचाने में मेरी सहायता की, आपने मेरी आँखों को दूरबीन एवं सूक्ष्मदर्शी दिया, मेरे कानों को टेलीफोन-रेडियो के साथ और मेरे दिमाग़ को कम्प्यूटर के साथ जोड़ा लेकिन आपने मेरे दिल को प्यार और मानवजाति के लिए चिंता से जोड़ने में मदद नहीं की, शिक्षक आपने मुझे अधकचरा ज्ञान दिया। "
फिलहाल तकनीकी के अत्यधिक प्रचलन और इसकी ग़ुलाम होती भविष्य की शिक्षा तथा उसमें बालक की दिशा और दशा को इंगित करती एक कहानी 'द फन दे हैड' एन०सी ई०आर०टी० की कक्षा नौ की अंग्रेजी पाठ्य पुस्तक में शामिल है जिसमें सं २१५७ में एक ऐसी कक्षा की कल्पना की गयी है जहां ना पुस्तकें, क़लम और आज की तरह के स्कूल होंगे और ना ही कोई शिक्षक, बल्कि शिक्षा का संपूर्ण कार्य सिर्फ कम्प्यूटर और मशीन से ही हो रहा होगा, पुस्तकों की जगह इ-टेक्स्ट और शिक्षक की जगह रोबोट ने ले ली होगी। पुस्तक में दिए दो चित्रों से संकेत मिलता है की भविष्य की कक्षा कैसी होगी। चित्र में एक छोटी बालिका तैयार हो कर एक ऐसे कक्ष में बैठ जाती है जहाँ चारों तरफ सिर्फ मशीने हैं। कानों पर हैडफ़ोन लगा है, हाथ की-बोर्ड पर हैं और आँखों के सामने कंप्यूटर का मॉनिटर है। सारे निर्देश कंप्यूटर से मिलते हैं और ‘प्रोग्राम लर्निंग’ का नाम ही शिक्षा हो जाता है। NCERT ने भी न सोचा होगा की ये कल्पना सन २०५७ से बहुत पहले २०२० में ही चरितार्थ हो जाएगी।
कहानी का रोचक तथ्य ये है कि बच्चों को एक पुरानी डायरी मिलती है जो उनके दादा जी की थी और बच्चे उसमें पढ़ कर इस बात पर बड़ा आश्चर्य करते कि उनके दादा के बचपन में कागज़ से बनी पुस्तकें हुआ करती थी जहाँ कहानियां छपी होती थीं। इसका सबसे मार्मिक पहलू ये है की बच्चे ये पढ़ कर चौंक जाते हैं कि ‘उनके दादा के समय टीचर होता था और वो एक इंसान होता था'। तकनीकी का शिक्षा में अनियंत्रित प्रयोग और उसकी मार्मिक परिणति को दर्शाता ये लेख सभी के लिए पढ़ना बेहद ज़रूरी है।
भविष्य के इस तांडवमयी तकनीकी साम्राज्यवाद की एक झलक हम सब वर्ष २०२० से देख रहे है जब विश्वव्यापी महामारी ‘कोविड-१९’ के कारण सब कुछ सिमट कर ऑनलाइन हो गया है और कक्षा एक से लेकर उच्च शिक्षा तक के छात्र दिन रात कम्प्यूटर पर अपनी शिक्षा को तलाश कर रहे हैं। मानसिक तनाव और दृष्टिविकारों से सबसे ज़्यादा वही कोमल मन प्रभावित हो रहा है जो कुछ कह भी नहीं सकता और क्या हो रहा है ये समझ भी नहीं सकता। माता पिता ने स्कूलों तक से शिकायत की है की उनके बच्चे मानसिक तनाव के कारण अस्पतालों तक पहुँच गए हैं।
कुछ अंग्रेजी माध्यम के आधुनिक स्कूलों के अनुशासन की पराकाष्ठा ये है की नर्सरी-केजी कक्षा के बच्चे घर पर ही स्कूल यूनिफार्म पहन कर कंप्यूटर स्क्रीन के सामने यथा समय बैठ जाते हैं। प्रतिदिन कंप्यूटर या स्मार्टफोन की तेज़ विकिरण वाली स्क्रीन के सामने बैठे रहने के बाद अनमोल आँखों, कोमल हाथों और मासूम ह्रदय पर क्या असर होगा ये सोचने और चिंता करने का समय ही कहाँ है। शिक्षाविदों का तो काम ही है ऐसे विषयों को अनुसंधान के लिए चुन लेना और ऐसी मासूम व्यथाओं को केवल 'डाटा' मात्र तक सीमित कर देना, संस्थाएं उन पर करोड़ों रूपये के प्रोजेक्ट बांटती हैं मगर तब तक मासूम बचपन मर चुका होता है। आज़ादी के बाद छह दशक लग गए बच्चों को शिक्षा का अधिकार पाने में, उनके मन की व्यथा को समझने में अधिक समय न लगे इसीलिए समय-समय पर साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के द्वारा बाल मन की उलझनों और मासूमियत को शिक्षाविदों और नीति निर्माताओं तक पहुँचाने का प्रयास किया है। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के निबंध ‘“सभ्यता और प्रगति” के एक उद्धरण से एन0 सी0 ऍफ़0-२००५ का शुरू होना आशा की एक किरण है।
रबीन्द्रनाथ टैगोर ऐसे पहले मानवतावादी विचारक एवं शिक्षा दार्शनिक थे जिन्होंने शिक्षा को बालक के अनुसार बदलने को न सिर्फ बाध्य किया अपितु इस वैचारिक परिकल्पना को चरितार्थ भी किया जब उन्होंने शांतिनिकेतन में स्थापित पाठ-भवन में बाल शिक्षा के मार्ग की सारी बाधाओं को आनंद और अनुभूति में बदल दिया। यहाँ तक की शिशु शिक्षा के आरम्भिक सोपानों को 'आनंद पाठशाला' ही के रूप में परिलक्षित किया। टैगोर ने बाल मन की सभी व्यथाओं और मनोभावों को सर्वप्रथम 'शिशु' के नाम से अपने काव्य संकलन में व्यक्त किया जो बांग्ला में लिखा गया था, परन्तु बाद में खुद ही गुरुदेव ने इसकी अंग्रेजी में पुनर्रचना कर चालीस कविताओं के संकलन को 'क्रिसेंट मून' नाम दिया। दरअसल 'क्रिसेंट मून' उस अधूरे चाँद को कहा जाता है जो अमावस्या के बाद उदित होता है और धीरे धीरे अपनी चमक को हासिल करता हुआ आगे बढ़ कर पूरे आकाश को अपनी शीतलचाँदनी के आगोश में ले लेता है। अपनी माँ के आँचल से निकल कर एक छोटा बालक भी इसी तरह से उस अधूरे चाँद की तरह अपने सामने खुले आकाश में बढ़ना चाहता है। वो नन्हा बालक अपनी माँ से जितना प्रेम करता है उतना ही प्रेम वो प्रकृति की हर चीज़ से करना चाहता है। उसे इश्क़ हो जाता है हर नन्हे परिंदे, नन्हे फूल और पत्तियों से, वो फूलों से बातें करता है, चाँद में अपनी माँ का चेहरा देखता है, नदी की लहरों और हवा के झोंकों में संगीत सुनता है। वो एक ऐसी रूमानी दुनिया में रहता है जहाँ सिर्फ प्यार है, आनंद है, अपनापन है, मासूमियत है, संवेदना है, दूसरों के लिए दर्द है, वहां न तो जाति, धर्म और अमीरी की ऊँची-ऊँची दीवारें हैं और ना ही भाषा, व्याकरण और ज्ञान की गहन कन्दराये। उसका बचपन निस्वार्थ है जो एक निर्मल और पावन मन को लेकर इस संसार में आया है। एक अधूरा चाँद जिसे पूर्णिमा के प्रकाश से प्रज्ज्वलित करने का कर्त्तव्य उस संपूर्ण मानव जाति पर है जो उससे पहले इस धरती पर अवतरित हुई। टैगोर ने इस बालक की कोई काव्यात्मक कल्पना नहीं की थी बल्कि बालमन को ही कागज़ पर रेखांकित कर दिया और उस तोतले बालक की मार्मिक फ़रियाद बनकर महान अध्यापकों, शिक्षाविदों, माताओं तथा पिताओं तक उसकी पीड़ा को पहुंचाया। ये पीड़ा खुद टैगोर ने अपने बचपन में सही थी, अनुभव की थी। टैगोर के क्रिसेंट मून में बालमन की अभिव्यक्ति बड़े सशक्त रूप में की गयी है। छुट्टी वाले दिन भी पढ़ाई से परेशान मासूम बालक अपनी माँ से शिकायत करता है-
माँ! मैं भी अब अपना पाठ बंद करना चाहता हूँ
सारा सवेरा तो पुस्तक पढ़ते-पढ़ते ही बीत गया,
और तुम कहती हो अभी तो बारह ही बजे हैं!
मान भी लो अभी अधिक देर नहीं हुई,
तो तुम ये क्यों नहीं सोचतीं कि दोपहर हो गयी है,
जब तुम कहती हो अभी केवल बारह ही बजे है?
जब बारह बजे का समय रात्रि को भी आ सकता है,
तो जब बारह बजते हैं दिन में,
तो रात्रि क्यों नहीं आ जाती?
- (क्रिसेंट मून: हिंदी अनुवाद स्वयं लेखक द्वारा)
स्कूल में शिक्षक और घर में सब लोग जब बालक की मुश्किलों और भावनाओं को न समझ कर उसे ही हर असफलता के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं तब टैगोर का ह्रदय जैसे रो उठता है –
मेरे बालक!
तुम्हारी आँखों में आंसू हैं!
और चेहरे पर उदासी है!
कितना भयावह है, ये सोचना भी,
कि वे बिना कारण ही, तुम्हे डांटते रहते हैं।
तुमने अपनी नन्हीं उंगलियां
स्याही में डुबो ली हैं,
और लिखते लिखते ही स्याही,
मुख पर भी लगा डाली है।
क्या इसीलिए वे तुम्हे गन्दा कहते हैं?
धिक्कार है!
क्या उन्हें साहस है उस चाँद को कुछ कहने का,
जिसने अपना पूरा मुख, रात की कालिमा से रंग डाला है?
हर छोटे-छोटे झगड़े का दोष वे तुम्हे देते हैं,
जैसे वे तैयार बैठे हैं तुम्हारे दोषों को गिनने के लिए,
मेरे बालक!
तुमने अपने वस्त्रों को फाड़ लिया है,
और मित्रों संग खेलते खेलते ही,
वस्त्रों को भी मिटटी संग मिला दिया है।
क्या इसीलिए वे तुम्हे मैला-मलीन कहते हैं?
धिक्कार है!
वे शरद ऋतु कि उस सुबह को क्या कहेंगे,
जो मुस्कुराती हुई झांकती है, फटे चीथड़े बादलों से?
- (क्रिसेंट मून: हिंदी अनुवाद स्वयं लेखक द्वारा)
शिक्षक का कार्य सिर्फ पाठ रटाना, धमकाना और दंड का भय दिखाना नहीं होता वरन शिक्षक और बच्चे के बीच प्रेम और स्नेह का सम्बन्ध होना चाहिए। टैगोर इसे कितनी कोमलता से महसूस करते हैं-
जो जी चाहे कहो तुम उसको,
परन्तु केवल मैं जानता हूँ,
मेरे बालक की असफलताएं।
मैं उसे प्रेम करता हूँ,
इस हेतु नहीं की वो अच्छा है,
इसलिए की वो मेरा नन्हा बालक है
तुम भला कैसे जान पाओगे कि,
वो तुम्हारा कितना प्रिय हो सकता है
जब तक तुम उसकी प्रतिभाएं,
उसकी कमियों से तौलते रहोगे।
जब उसे सजा देना हो तो सोचो,
वो मेरा ही तो हिस्सा है।
जब मेरे ही कारण आते हैं,
उसकी मासूम आँखों में आंसू,
तब क्यों नहीं मेरा ह्रदय भी,
उसी के साथ रोता है।
सिर्फ मेरा ही अधिकार है,
उसे दोष देना या दंड।
क्योंकि निर्माण तो वही करता है
जो उसे प्रेम करता है।
-(क्रिसेंट मून: हिंदी अनुवाद स्वयं लेखक द्वारा)
स्कूल की पुस्तकों के अम्बार और शिक्षकों के दिए गृहकार्य की लम्बी कतार से भागकर कोमल मन अपनी स्वतंत्रता को स्कूल से बाहर की दुनिया में बड़ी व्याकुलता से तलाश कर रहा है-
मैं अपनी गली से निकल कर स्कूल जाता हूँ
जब घड़ियाल सुबह दस बजे का घंटा बजाता है,
हर दिन ही देखता हूँ मैं एक फेरीवाले को
जो आवाज़ लगाता दूर चला जाता है
"चूड़ियां ले लो, चूड़ियां"
ना तो उसे किसी बात की ही जल्दी है
ना घर वापसी में समय की पाबन्दी है
ना किसी ख़ास रस्ते से उसे रोज़ गुज़रना है,
ना एक ही स्थान पर रोज़-रोज़ पहुंचना है
काश, मैं भी एक फेरीवाला बन जाता
पूरे दिन सड़क पर घूमता, चिल्लाता
"चूड़ियां ले लो, कांच की चूड़ियां"
जब दोपहर बाद चार बजे
मैं विद्यालय से वापस आता हूँ
और झाँक कर देखता हूँ
उस बाड़ी के गेट से भीतर
तो माली को मिट्टी खोदते हुए पाता हूँ
अपनी कुदाल और मिट्टी के संग-संग
चाहे तपती दोपहरी हो या शीतल जल-तरंग
करता है वो जो मन चाहे, कोई रोकता नहीं
वस्त्र धूल-माटी में सन जाएँ, कोई टोकता नहीं
काश, मैं भी बगीचे में माली बन जाता
तब मिट्टी खोदने से मुझे कौन रोक पाता?
जैसे ही ढलती सांझ अँधेरा लिए आती है
माँ मुझे बिस्तर पर सुलाने को बुलाती है
मैं कमरे की खुली खिड़की से बाहर देख सकता हूँ,
जहाँ चौकीदार गली में चक्कर लगा रहा है
अँधेरी