शोध आलेख : अलग-अलग वैतरणी : ग्रामात्मा की खोज / डॉ. गजाधर यादव

अलग-अलग वैतरणी : ग्रामात्मा की खोज
- डॉ. गजाधर यादव

शोध-सार : हिन्दी साहित्य और ग्रामीण जीवन के कथाकार डॉ. शिवप्रसाद सिंह की पहली औपन्यासिक कृतिअलग-अलग वैतरणीसन् 1968 में लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित हुर्इ थी। इस उपन्यास में लेखक ने उत्तरप्रदेश के करैता गाँव के माध्यम से पूरे भारत के गाँव की स्थिति का अत्यन्त यथार्थवादी एवं विचारोत्तेजक चित्रण प्रस्तुत किया है।अलग-अलग वैतरणीग्रामीण जीवन का जीवंत दस्तावेज है। चूँकि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, इसलिए इसे ग्रामात्मा की खोज कहना उचित प्रतीत होता है।अलग-अलग वैतरणीजीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति होकर जीवन के खुरदुरे यथार्थ से उत्पन्न सवालों की अभिव्यक्ति है। गाँवों के तमाम संघर्षों और जद्दोजहद के बीच भी मनुष्य है और उसकी मनुष्यता है। शिवप्रसाद सिंह ने जिस विस्तृत फलक को चित्रित किया है, वह नि:संदेह उनके सक्षम और समर्थ शिल्पी होने का प्रमाण है। लक्ष्मीकांत वर्मा के विचारानुसार- ‘‘शिवप्रसाद सिंह का उपन्यासअलग-अलग वैतरणीउसी भारतीय समाज का चित्रण करता है जो स्वतंत्रता के बाद से एक नहीं अनेक क्रांतियों की लगातार घोषणाओं के बाद भी आज वहीं ठहरा है, ठिठका है और दिन पर दिन दो समानान्तर जीवन दृष्टियों के विरोधाभास में पिस रहा है। मैं समझता हूँ भारतीय मानस की इस उथल-पुथल और संघर्ष का सफल प्रतिनिधित्व इधर प्रकाशित उपन्यासों में सबसे अधिक सजीव, सफल, समग्र वैविध्य के साथ डॉ0 शिव प्रसाद सिंह के इस लम्बे उपन्यास में ही हुआ है।’’1

 

मूल आलेख : स्वतंत्रता के उपरान्त ग्रामीण समाज में बदलाव दिखार्इ देता है। किन्तु व्यवस्था की स्थिति यथावत बनी रही। गाँव के उच्च पदासीन व्यक्तियों की स्थिति में परिवर्तन होता है। जो व्यक्ति आजादी से पूर्व गाँव में अपने मान, सम्मान और रूतबे का रौब दिखाता था, उसका गौरव नष्ट होने लगता है। जमींदारी खत्म होने के बाद, उनके नीचे रहने वाले सभापति, सरपंच और गाँव के अन्य मनोनीत सदस्यों ने कमज़ोरों और गरीबों पर अत्याचार करने की जिम्मेदारी ले ली। पंच और पंचायत की स्थिति में पहले से ज्यादा विकृति आर्इ, धर्म और समाज के ठेकेदार, व्यापारी, भ्रष्ट अधिकारी सबने संयुक्त रूप से एक नहीं अनेक नरकों का निर्माण किया जिसमें दम घुटने के कारण गाँव में रहने के इच्छुक भी रह नहीं पाते। बोझिल मन से नगरों की ओर पलायन कर जाते हैं। गाँव की इस त्रासदी को डॉ0 शिव प्रसाद सिंह ने सफलता पूर्वक व्यापक स्तर पर उजागर किया है। कुंवरपाल सिंह के शब्दों में- ‘‘अलग-अलग वैतरणीसे गुजरना उस बदलाव से गुजरना है जो स्वतन्त्रता के पश्चात् बड़ी तीव्रता के साथ घटित हो रहा था। उच्चतर और महत्तर जीवन-मूल्यों के जो मानक राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में जनता ने अपने बलिदानों और संघर्षों से स्थापित किये थे तथा साम्राज्यवाद के विरूद्ध जूझते हुए धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के भेदों से ऊपर उठकर जिस प्रकार सांस्कृतिक एकता का परिचय दिया था, वह गौरवशाली परम्परा स्वातन्त्र्योत्तर काल में छिन्न-भिन्न हो गयी। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन की विसंगतियाँ और विकृतियाँ खुलकर सामने आने लगीं। व्यक्ति के संघर्ष और उसके सोच का दायरा सिमटने लगा।अलग-अलग वैतरणीहमें परिवर्तन की इस असहज तथा दु:खद प्रक्रिया का एक प्रामाणिक तथा आत्मीय परिचय देता है तथा उसकी गहरी पहचान कराता है।’’2

 

लेखक ने आजादी के बाद के परिवर्तनों, विसंगतियों और ठोस सच्चार्इ को र्इमानदारी के साथ रखते हुए टूटते गाँव की आत्मा को देखा है जहाँ के जीवन में अनेकानेक वैतरणी बहने लगीं हैं। करैता का दु: भारत के सारे गाँवों का दु: है। उपन्यास के कुछ पात्र इस गाँव के विकास को लेकर चिंतन करते हैं किन्तु सबकी अपनी-अपनी कठिनाइयाँ हैं, सभी अपने जीवन में मुश्किलों से जूझ रहे हैं। उपन्यास की कथावस्तु का आरम्भ हीकरैतागाँव में लगे रामनवमी के मेले से होती है। जो वहाँ की सामाजिक संस्कृति का परिचायक है। यह मेला पूरे पूर्वांचल के समाज को दिखाने वाला आर्इना है। जमानियाँ के जयकिसुन के शब्दों में- ‘‘मेला भी एक ऐना ही है पण्डित। करैता का मेला पूरे नरवन का ऐना है। जैसी सभ्यता होगी आपके देस-दिहात की मेले के ऐने में वैसी ही दिखेगी।’’3 मेला देखते-देखते यहाँ लड़ार्इ भी हो जाती है। पंचायती व्यवस्था, गुंडागर्दी, राजनीति, लड़ार्इ-झगड़े अन्य गाँवों की तरह करैता में भी है।

 

करैताग्रामीण समाज की निहंगी तस्वीर है। जिस पर चढ़ी खोल परत-दर-परत उतरती जाती है। उपन्यास के पात्र जमींदार जैपाल सिंह अपने गाँव की बुरी स्थिति को देखकर मीरपुर चले जाते हैं, क्योंकि आज के समय में उनकी जमींदारी को लोग स्वीकार नहीं करते। गाँव की राजनीति के कारण वे एक बार फिर गाँव में लौट आते हैं और अपने शत्रु को ग्राम-प्रधान की कुर्सी पर बैठे नहीं देख पाते। वह अपनी कुशाग्र बुद्धि और चालबाजी से सुखदेव राम को प्रधान बना देते हैं, और गाँव की पूरी बागडोर फिर से अपने हाथ में ले लेते हैं। इस बारे में हरिया और सुरजू सिंह की आपसी बातचीत से स्पष्ट होता है। ‘‘मुझे एक और भी ख़तरा दिखार्इ पड़ रहा है। सुरजू भर्इया।’’ क्या? ये एक सौ बीस वोट सुखदेव राम को कैसे मिले? मुफुत में तो मिले नहीं। कुछ--कुछ इसके बदले में देने का वादा उन्होंने किया होगा जैपाल सिंह से।’’ ‘‘यानी.....’’ ‘‘यानी यह कि सुखदेव राम बिना जैपाल सिंह से पूछे कोर्इ काम नहीं करेगा।’’ ‘‘इसका मतलब यह हुआ कि हारकर भी असली सभापति जैपाल ही रहेंगे।’’4

 

इसका आशय यह है कि जैपाल सिंह सुखदेव राम को वोटो के बोझ तले दबाकर अपनी स्वार्थपूर्ति करेंगे। क्योंकि सुखदेव राम जैपाल सिंह के वोट दिलाने के एहसान करने के कारण उन्‍हीं के कहे अनुसार कार्य करेंगे।

 

यह हमारे सवर्ण समाज की विडम्बना है कि वह पिछड़े वर्ग को सदैव दबाकर रखना चाहता है। पिछड़े वर्ग के लोग उनसे आगे जा सके इसके लिए वे तमाम तरह की चालें चलता है। जैपाल सिंह भी सुखदेव राम(यादव) को अपनी ही मुट्ठी में रखना चाहता है। धीरे-धीरे जैपाल सिंह की धूर्तबाजी और चालाकी से लोग वाकिफ होते हैं। जमाना बदलता है। अब करैता गाँव में एक नहीं दो सरपंचों का राज चलता था। मुखिया के आसन पर सुखदेव राम बैठते थे। किन्तु जैपाल सिंह की राय लिए बिना वह कोर्इ भी निर्णय नहीं देते थे। चंद्रकांत बांदिवडेकर के अनुसार- ‘‘जमींदारी टूट गर्इ है। सब कुछ ताश के पत्ते की तरह हल्के-से-धक्के से बिखर गया है। जमींदार इसके फलस्वरूप अवश्य टूट गए हैं, परंतु श्रमजीवी जनता को विशेष लाभ हुआ हो, ऐसा भी नहीं दिखता। जहाँ एक जमींदार राज करता था और शोषण के साथ एक किस्म कान्यायभी अपनी प्रजा के साथ करता था, वहाँ अब कतिपय छुटभइये जमींदार एक-दूसरे की टांग खींचते ही हैं, गरीबों पर सब प्रकार से अन्याय भी कर रहे हैं।’’5

 

देवपाल और राजमती के माध्यम से लेखक समाज का एक घिनौना रूप सामने लाता है। दो परिवारों के बीच की दुश्मनी भयंकर रूप में हमारे सामने आती है। देवपाल करैता गाँव का हट्टा-कट्टा, चौड़े सीने वाला नौजवान है। जिसका आकर्षक व्यक्तित्व सबका मन मोह लेता है। हेमंत ऋतु में गाँव में कुश्ती का आयोजन होता था। कुश्ती और पहलवानी में रूचि रखने वाले नौजवान युवक खेल देखने के लिए पूरे जोर से अखाड़े में भर जाते थे। कुश्ती में मास्टर सुब्बा नट देवपाल से लोहा लेता है किन्तु देवपाल के साहस और हिम्मत के आगे सुब्बा नट हार जाता है। पूरे गाँव में देवपाल की ही चर्चा होती है। कुश्ती के इस खेल में आदर्श रूप के साथ अनैतिकता भी देखने को मिलती है। देवपाल के शौर्य बल और आकर्षक व्यक्तित्व पर देवपाल के दुश्मन की बेटी राजमति मोहित हो जाती है, और उससे प्रेम करने लगती है। जैपाल सिंह देवपाल के सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं- ‘‘जवानी सबको आती है। पर ऐसा कभी-कभी ही होता है जब वह किसी एक के शरीर में अपने होने का प्रमाण देने आती है। देवपाल की उम्र उन दिनों अट्ठारह से अधिक थी। करैता के ज़मींदार का छोटा लड़का होने के कारण वह राजा-परजा सबका प्यारा था। उसका गोरा-चिट्टा छरहरा बदन पूरे कसाव पर होने पर भी दूध-घी से उफने खून की लाली छिपा पाता था।’’6

 

देवपाल जैसा नवयुवक उज्ज्वल भविष्य का प्रतीक है किन्तु गाँव और समाज उसके उज्ज्वल भविष्य को सहन नहीं कर पाता। देवपाल के दुश्मन उसके जीवन को ही समाप्त करने की योजना बना लेते हैं। मेघन सिंह के पुत्र पियाऊ सिंह ने छल-छद्म से शरबत में जहर मिला देता है और उसे नादान राजमति के हाथों भिजवाता है। देवपाल राजमति पर विश्वास करके वह शरबत पी लेता है, जिसके बाद उसकी मृत्यु हो जाती है। निर्दोष राजमति की र्इमानदारी पर सवाल उठाए जाते हैं। राजमति अपने प्रेमी देवपाल की मृत्यु से बहुत दु:खी होती है, और ऊपर से उसकी मृत्यु का कारण भी बन जाती है। ये सब उसके लिए असहनीय हो जाता है। वह स्वयं पर लगे इस आरोप के कारण फांसी लगाकर अपनी भी जान दे देती है। यह हमारे समाज का घृणित रूप है, जिसमें किसी की र्इमानदारी पर भी ऊँगली उठार्इ जाती है। लेखक इन प्रसंगों के माध्यम से उन समस्याओं को भी हमारे समक्ष रखता है जिसमें अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए मासूम और निर्दोष लोगों को फंसाया जाता है।

 

जैपाल सिंह का पुत्र बुझारत सिंह जो अपने पिता द्वारा लगाये वृक्ष को घून की तरह खा रहा था। बुझारत सिंह अपने पिता द्वारा अर्जित संपत्ति, धन, वैभव और सम्मान को संजोकर नहीं रख पाता। वह केवल बाहरी रूप से सुंदर हैं। अंदर से वह उतना ही विषैला रहता है। बुझारत सिंह का व्यक्तित्व अपने पुरखों के लिए अभिशाप बन गया था। वह अपने पिता की संपत्ति पर केवल मौज करता है। गाँव की ही सुगनी के साथ इसके चर्चे होते हैं कि उसके लिए कर्इ तरह के सामान मंगवाता है। हरिया और सीरिया आपस में बात करते हुए कहते हैं- ‘‘बुझारत को गाँव जानता नहीं क्या? एक लुच्चा और बदमाश है र्इ आदमी। अब हमसे क्या छिपा है। र्इ साला भी सुगनी के लिए क़स्बे से सामान मँगवाता है। खाली सुगनी ही क्यों? जब से मियवा का साथ हुआ है, तब से तो और भी बह गया। एक तो तितलौकी फिर नीम चढ़ी। वैसी सीता-सतवन्ती औरत है घर में। बाकी साला साथ नहीं रखता। रखेगा क्या, खुद इसके साथ रहने को तैयार नहीं। ऐसे मलेच्छ के साथ कौन रहेगा?’’7 गाँव के लोग बुझारत सिंह के बारे में अच्छी राय नहीं रखते थे। उसकी पत्नी कनिया है। जिसे लेखक ने एक आदर्श नारी के रूप में चित्रित किया है। वह अपने पति के कार्यों को जानकर भी सब सहन कर जाती है। वह एक शान्त गंभीर, साहसी और सहनशील स्‍त्री थी जो अपने पति की गलत आदतों से समझौता नहीं करती है। वह भले ही अंदर-अंदर टूटती रहती है। लेकिन अपने परिवार पर कोर्इ आँच नहीं आने देती।

 

‘‘कनिया और बुझारत में प्रवृत्तिगत भेद था, जिसके कारण दोनों में मन-मुटाव बना रहा। उसने बुझारत के गलत आचरण के साथ कभी समझौता नहीं किया। उसके व्यक्तित्व में एक पारदर्शकता थी। उसके भीतर तप और त्याग का एक ऐसा तेज था, जिसके कारण बुझारत का अपराधी मन हमेशा बुझा रहता है। बुझारत की आँखों में इतना ताव नहीं कि वह उसकी ओर देख सके। कनिया जलती दीपशिखा की तरह थी, जिसकी ज्योति के आगे वह घुग्घु की तरह आँखें मुलमुला लेता। सारी दुनिया में वह कितना ही निर्लज्ज और बेहया बनकर घूमे, आँखों की लाज-शरम को भले ही पानी की तरह बहाये, कनिया के सामने आते ही उसके भीतर का कालुष्य उसे पूरी तरह जकड़ लेता। मुंह पर एक स्याह पर्दा आपोआप चढ़ जाता और वह आँख बचाकर निकल जाता।’’8

 

प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कनिया अपना हौसला नहीं छोड़ती है। चाहे मामला पुष्पी-बुझारत का हो, सुगनी-बुझारत का हो, चाहे रेलवे की डकैती वाला काण्ड हो, वह इन बातों से घुटती रही, टूटती रही किन्तु उसने अपने परिवार को संभालकर रखा। वह अपने सभी गहने और आभूषण देकर बुझारत को जेल से मुक्त करवाती है। विपिन के लिए वह एक माँ की तरह अपना कर्तव्य निभाती है। इस उपन्यास में कनिया का चरित्र हमें बहुत प्रभावित करता है। उसके लिए मन में करूणा और दया की भावना भर जाती है।

 

जग्गन मिसिर इस उपन्यास के एक आदर्श, न्यायप्रिय और सत्यवादी पात्र हैं। वे सदैव न्याय के पक्षधर रहे और अपने गाँव-समाज के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहे हैं। वे अपने फैसले पर अडिग रहते हैं। उन्हें पुलिस, जमींदार और थानेदार किसी का भय नहीं रहता। इस पूरे उपन्यास में जग्गन मिसिर ही ऐसा पात्र है जो अपने गाँव की मिट्टी से पूरी तरह जुड़ा है। ‘‘यह पात्र कथाकार की अद्भुत सृष्टि है। सारे चेहरे वाले जहाँ करैता को छोड़कर बाहर जा रहे हैं, वहाँ जग्गन मिसिर करैता में डटकर खड़े रहते हैं। उन्हें गाँवो में आस्था है। वे लेखक की आस्था के प्रतीक हैं। जग्गन मिसिर बहुत ही जुझारू हैं। स्वभाव से जितने अक्खड़ हैं उतने ही नम्र भी। अच्छे के लिए अच्छा, बुरे के लिए बुरा। झूठ बोलना उन्हें आता नही। अन्याय के सामने झुकना उनका स्वभाव नहीं। न्याय के लिए वे हमेशामहाभारतके लिए तैयार रहते है।’’9 र्इश्वर में गहरी उनकी आस्था है। वे किसी के दबाव में आकर गलत बात को स्वीकार करते हैं ना मानते हैं और गाँव की बहू-बेटियों की बहुत इज्जत करते हैं। हरिया जब पुष्पी के बारे में बोलता है कि अगर उसके पास चार सौ रुपये होते तो वह पुष्पी को जरूर दे देता। इस बात को सुनकर ही जग्गन मिसिर आग बबूला हो जाते हैं, और अखाड़े की खुरपी से हरिया को खींचकर मार देते हैं। कहते हैं- “फिर कहो कोर्इ गन्दी बात, गाँव की किसी बहू-बेटी की ओर देखो? मिसिर चबूतरे पर चौचक खड़े हो गये थे। ‘‘इस बार फावड़े से मारकर टाँग तोड़ दूँगा साले लुच्चा! उस दिन मेले में छोड़ दिया तो जानते हो तुम से डर गये?’’10 जग्गन मिसिर गाँव को बुरार्इ से बचाने में अत्यधिक सुख का अनुभव करते हैं। उनके भीतर पूरे गाँव के प्रति ममत्व भरा है। अपनी भाभी के साथ अनैतिक संबंध को वे समाज के सामने स्वीकार करना चाहते हैं किन्तु उनकी भाभी नहीं चाहती कि उनका रिश्ता समाज में उजागर हो। जग्गन मिसिर की इच्छा रहती है कि उनकी कोर्इ संतान हो जो बुढ़ापे में उनका सहारा बने। निराश होकर वे मिसराइन के भतीजे को गोद लेते हैं। अपनी इन्‍हीं परिस्थितियों के कारण  वे अवसादग्रस्त हो जाते हैं।

 

स्वतंत्रता के बाद जो एक मुख्य समस्या थी वह साम्प्रदायिकता की थी, जिसे लेखक ने उपन्यास में खलील मियां के माध्यम से व्यक्त किया है धर्म की आड़ में भ्रष्टाचार, क्रूरता और अमानवीयता जैसी विसंगतियाँ फलती-फूलती रहती हैं। परन्तु जो अपनी मिट्टी के प्रति र्इमानदार होते हैं, वे धर्म निरपेक्ष होते हैं। वे केवल अपनी जन्मभूमि से प्रेम करते हैं। खलील मियां इस उपन्यास के ऐसे ही पात्र हैं जो मुसलमान होते हुए भी हिन्दुओं से विशेष लगाव रखते हैं। वे अपनी बेटी की शादी करने के लिए देवी चौधरी के यहाँ खेत रेहन पर दे देते हैं। बाद में देवी चौधरी धोखाधड़ी करके खेत पर अपना अधिकार कर लेता है। इस बात से वे बहुत दु:खी और निराश होते हैं। चन्द्रकांत बांदिवडेकर खलील मियां के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हुए लिखते हैं- “खलील मियां भारत की मिट्टी के प्रति वफादार, नेक और विचारवान मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी व्यथा को व्यापक और गहरे स्तर पर चित्रित किया है शिवप्रसाद सिंह ने। व्यापक इसलिए भी कि समस्त राष्ट्रीय मुसलमानों की व्याकुलता इसमें व्यक्त हुर्इ है और व्यापकता इसलिए भी कि किसी समय के ठाठ-शान और रूतबे से रहने वाले खलील मियाँ को तंगहाली में दिन काटने की स्थिति तक किस प्रकार फिसलना पड़ा इसका चित्रण किया गया है। हिंदुओं के होली- जैसे त्यौहारों के अवसर पर प्रकट होने वाली उनकी उदारता, दरियादिली और ऊँची तहजीब का चित्रण है और उनके बेवफा बच्चों के पाकिस्तान भाग जाने के कारण उत्पन्न गहन व्यथा का भी चित्र खींचा हैं। अपनी मिट्टी को गाँव की धरती और लोगों को प्यार करने वाला और अन्य धर्म के रीति-रिवाजों का सम्मान करने वाला यह व्यक्ति गाँव से उखाड़ दिया जाता है।”11 अपने साथ हुए अन्याय और उपेक्षा से निराश होकर वह करैता छोड़ने को विवश हो जाते है। खलील मियाँ के माध्यम से लेखक ने हिन्दू-मुसलमानों के आपसी संबंधों को बड़ी ही मार्मिकता से चित्रित किया है। गाँव के सभी लोग अपनी समस्याओं, कुण्ठा संत्रास और अकेलेपन से धीरे-धीरे गाँव छोड़कर चले जाते हैं। लेखक ने विविध स्तरों पर घटित होने वाले इस निर्वासन को बड़ी ही सशक्तता के साथ उभारा है।

 

उपन्यास में जिन स्‍त्री पात्रों ने प्रभावित किया उसमें पटनहिया भाभी उर्फ दीपा का चरित्र पर्याप्त सहजता लिए हुए है। वह एक पढ़ी-लिखी और संस्कार संपन्न परिवार की लड़की थी। वह पटना में अपने दो भाइयों के साथ रहती है। उसके भाइयों ने अपने बच्चे की तरह उसका पालन-पोषण किया था। दु: से वो अनजान रहती है। वह व्यवहार कुशल और वाक्पटु है। उसका विवाह कल्पनाथ के साथ हो जाता है, जो धन-वैभव से संपन्न है, किन्तु विवाहोपरान्त उसे पता चलता है, कि उसका पति नपुंसक है। इस कारण दीपा बहुत दु:खी रहती है। उसमें यौन सम्बन्धों के प्रति एक ललक है, उसके अन्दर अतृप्ति है। वह इतनी सुन्दर रहती है कि उसके प्रति शशिकान्त, देवनाथ और विपिन तीनों आसक्त हो जाते हैं, किन्तु वह अपने संस्कारों को खोने नहीं देती।

 

कल्पनाथ बुरी संगति के कारण नपुंसकता का शिकार हो जाता है। वह अपनी नयी दुल्हन दीपा को सुहागरात के दिन अकेला छोड़कर बाहर सोने चल देता है। इससे दीपा बहुत दु:खी होती है। कल्पू के इस व्यवहार से गाँव में तरह-तरह की बातें होने लगती हैं। कल्पनाथ के पूरे परिवार का मजाक बनाया जाता है। हमारे समाज की ऐसी संरचना है, जिसमें पुरूष औरतों पर मर्दानगी दिखाकर ही अपनी शक्ति का परिचय देता है। करैता गाँव में भी नीचों की कमी नहीं है। वह दूसरों के घर में ताक-झांक करना अपनी बहादुरी मानते हैं। कल्पनाथ की नपुंसकता की खबर गाँव में फैल गर्इ। सभी उसका मजाक बनाने लगे। दीपा दु:खी रहने के बाद भी हमेशा सज-संवकर तैयार रहती है। किन्तु उसकी साज-सज्जा सिरिया और छबिलवा जैसे लोगों की आँख की किरकिरी बनी हुर्इ थी। वे दीपा के चरित्र पर हमेशा दाग लगाने का ही प्रयास करते हैं और कल्पनाथ को हँसी का पात्र समझते हैं। स्‍त्री को अबला बनाकर प्रताड़ित किया जाता है। दीपा को गाँव के हर व्यक्ति की कुदृष्टि सहन करनी पड़ती है। लेकिन जब वह सबकी बातें सुनते-सुनते हार जाती है, तब वह अपने भार्इ-भाभी के पास पटना चली जाती है। चंद्रकांत बांदिवडेकर ने पटनहिया भाभी के सम्पूर्ण चरित्र को इस प्रकार व्यक्त किया है-

 

‘‘पटनहिया भाभी के चरित्र को विशेष नया रूप दिया है, और संभवत: हिन्दी साहित्य में यह नया रूप है। अच्छे परिवार में लाड़ प्यार में पली यह लड़की कल्पनाथ जैसे नामर्द के पल्ले बांध दी जाती है। मर्यादाओं को वहन करने वाले परिवार में यह पली है। कुछ पढ़ी-लिखी भी है। अत: उसके भारतीय संस्कारों के अनुरूप ही उसकी मानसिकता भी है। यही कारण है कि देवनाथ, विपिन, मास्टर साहब जैसे युवकों के संपर्क में एक सीमा तक खुलेपन का, उन्मुक्तता का व्यवहार अवश्य करती है। पंरतु अपनी नारी-सुलभ निष्ठा को (नपुंसक पति के प्रति भी) त्याग नहीं सकती। बच्चों को नंगा कर देखने की उसकी आदत भूखी वासना का एक सीमित रूप है परंतु इसके आगे वह जा नहीं सकती। यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि वह इस स्थिति को एक सीमा तक झेल सकती है, क्योंकि उसने वासना के ज्ञान का फल अभी चखा ही नहीं है। पटनहिया भाभी के उत्तेजक शारीरिक गठन के परिणामस्वरूप विपिन, शशिकांत, देवनाथ उत्तेजित होते हैं परन्तु पटनहिया भाभी के अवचेतन में मर्यादा का जो प्रच्छन्न शोध है, वह उसकी रक्षा करता है। पटनहिया भाभी पर विपिन आघात करता है: अभी आपका भी किसी मर्द से पाला नहीं पड़ा।’’ इस आघात को झेलती हुर्इ भी पटनहिया भाभी भूलती नहीं हैं, और विपिन बाबू के द्वारा एक बार एकांत में हाथ पकड़ लिए जाने पर करारा व्यंग्य करती है, ‘‘ऐसे भी कोर्इ किसी का हाथ पकड़ कर छोड़ता है? ऐसे ही मर्द हैं, आप? अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी भाभी, परंतु लोग उस परकिरपाही करना चाहते थे। कोर्इ कारण नहीं है, कि उसके अंतिम पत्र पर अविश्वास किया जाए’’12 करैता गाँव के लोगों ने भले ही पटनहिया भाभी के दु: और पीड़ा को नहीं देखा किन्तु लेखक और पाठक उसके मन के पीछे छिपे दर्द को समझ जाते हैं। ‘‘पटनहिया भाभी के रूप में शिवप्रसाद सिंह ने एक ऐसे पात्र को हमारे सामने रखा है, जिसे हमारे समाज की अंधी खाइयों में ढकेल दिया जाता है, और अपनी सारी आशाओं, उमंगों तथा अभिलाषाओं की बलि चढ़ानी पड़ती है।’’13

 

देवनाथ इस उपन्यास में एक प्रमुख भूमिका निभाता है वह डॉक्टरी की पढ़ार्इ करके गाँव की चिकित्सा व्यवस्था में सुधार करने के विचार से आता है। वह गाँव में ही अपनी प्रैक्टिस शुरू कर देता है। वह लोगों का इलाज करता है। और बदले में उसे दूध, दही और कर्इ चीजें मिल जाती हैं। वह गाँव वालों की स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ है, इसलिए वह इलाज के बदले पैसे की मांग नहीं करता। गाँव वाले अपनी खुशी से जो भी देवनाथ को दे देते वो ले लेता। किन्तु उसके पिता झब्बूलाल उपाधिया ये नहीं चाहते थे, कि उनका लड़का मुफ्त में इलाज करे जब देवनाथ और विपिन डिस्पेन्सरी खोलने की बात करते हैं तभी उपाधिया जी कहते हैं- ‘‘बाबू गाँव घर की डागदरी को लोग गाजर-मूली समझ लेते हैं। यह सोच लीजिए। बारे सेवा की बात जो है सो है। परन्तु सेवा ही से तो पेट नहीं चलेगा। इसके पश्चात् लोग निन्दा भी करेंगें फीस भी देंगे। सब काम मुफ़्त में चाहेंगे।’’14

 

उपाधिया जी की इस बात का तार्किक उत्तर देते हुए विपिन कहता है- ‘‘सब मुफ्त में कैसे होगा महाराज जी। दवा तो मुफ़्त में मिलेगी नहीं। रही फ़ीस की बात तो उसमें थोड़ा गाँव घर का लिहाज़ तो करना ही पड़ता है। आस-पास के गाँवों में भी कहीं कोर्इ डॉक्‍टर नही है। सब जगह ज़रूरत रहेगी। मजे़ से चल जायेगा।’’15

 

धीरे-धीरे देवनाथ की डिस्पेंसरी चलने लगती है। लेकिन गाँव की दयनीय स्थिति देखकर वह सेवा में अपना भी पैसा लगा देता है। इसे जानकर उसके पिता टिकट लगा देते हैं। पैसे देने पड़ें इस कारण लोग डिस्पेंसरी आना बंद कर देते हैं। उपाधिया जी को अच्छा बहाना मिल जाता है कि देवनाथ शहर जाकर एक नामी डॉक्‍टर बन जाये। यहाँ उसकी मेहनत का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। यहाँ देवनाथ ही कल्पनाथ की नपुंसकता का इलाज करता है। कल्पनाथ के शरीर में कर्इ तरह की बीमारियाँ फैल चुकी थी। इसी बारे में देवनाथ रिसर्च करता है। लेकिन करैता गाँव के लोग देवनाथ और कल्पनाथ की पत्नी दीपा के बीच यौन संबंधों की अफवाहें फैला देते हैं। लोग कहते हैं कि दीपा ने देवनाथ को अपने जाल मे फँसा लिया है, लेकिन ऐसा नहीं है, देवनाथ खुद दीपा के सौन्दर्य पर मुग्ध हो चुका था। उपाधिया जी अब अपने कुल-मर्यादा की रक्षा का वादा लेकर देवनाथ को शहर में डिस्पेंसरी खोलने के लिए मजबूर करते हैं। इन सभी रोज की उलाहनों से तंग आकर देवनाथ शहर चला जाता है और दोबारा करैता नहीं आने की कसम खा लेता है। लेखक ने गाँव की रूढ़िवादी और दकियानुसी सोच को इस कथा के माध्यम से व्यक्त किया है। कैसे एक पढ़ा-लिखा समझदार व्यक्ति भी गाँव के लोगों की सोच से विवश होकर शहर की ओर पलायन कर जाता है।

 

‘‘हर आदर्शवादी की स्थिति देवनाथ जैसी ही होती है, जिसे बाद में समझौता करना पड़ता है। समझौता कर लेने के बावजूद गाँव में उसकी आस्था है, यही इस चरित्र की विशेषता है।’’16 इन्‍हीं सब कारणों से आज का युवा वर्ग शहर की ओर ही जा रहा है गाँव में विकास का कोर्इ कारण नहीं दिखता। अगर कोर्इ गाँव की स्थिति में सुधार की जिम्मेदारी लेता भी है, तो उसे भी कर्इ तरह की अफवाहों के जाल में फंसाकर भागने को विवश कर दिया जाता है। डॉ. वंसीधर के शब्दों में- ‘‘देवनाथ का पात्र भी सर्वत्र अपनी मध्यमवर्ग की मानसिकता में जीता होता है। गाँव का होकर भी गाँव के रंग में रच-पच नहीं पाता है। व्यवसाय संबंधी कतिपय, प्रतिकूलताओं के कारण वह यहाँ रह नहीं पा रहा है।’’17

 

मास्टर शशिकान्त भी करैता गाँव में सुधार के उद्देश्य से आता है। किन्तु वह भी अपने उद्देश्य में निष्फल हो जाता है। वह स्कूल के हेडमास्टर जवाहिर लाल के अनैतिक व्यवहार से बहुत दु:खी होता है। जवाहिर लाल बच्चों से काम लेता है, उनसे असभ्य भाषा में बात करता है, और बच्चों को अनुचित कार्य करने के लिए भी विवश करता है। इन सभी घटनाओं से शशिकांत बहुत निराश होता है। करैता गाँव की राजनीति और भ्रष्ट शिक्षकों के दाव पेंच से तंग आकर रात के अंधेरे में ही उसे गाँव छोड़ने को विवश होना पड़ता है।

 

छबिलवा, हरिया, सिरिया, आदि ऐसे कर्इ पात्र हैं,जो ग्रामीण युवक हैं। ये अपने मार्ग से भटकी हुर्इ युवा पीढ़ी का प्रतिनिधत्व करते हैं। ग्रामीण जीवन की स्थिति को त्रासदायी बनाने में इनका योगदान कम नहीं हैं। विपिन उपन्यास का प्रमुख पात्र है, जो उपन्यास में देर से आता है, और अन्त तक बना रहता है। वह जमींदार जैपाल सिंह का छोटा बेटा है। उसने अपनी मिडिल तक की पढ़ार्इ गाँव से ही की थी, उसके बाद वह शहर चला गया वहाँ से उसने एम.. इतिहास तक की पढ़ार्इ की। पढ़ार्इ समाप्त होने के बाद बिपिन गाँव में सुधार का सपना लेकर आता है। गाँव में आने के बाद ही उसे वहाँ की परिस्थितियों से जूझना पड़ता है। उसके बड़े भार्इ बुझारत सिंह ने 400 रुपये का इल्जाम लगाकर धरमू सिंह के घर कुर्की करा दी। धरमू सिंह अपनी गरीबी के कारण 400 रूपया सूद देने में असमर्थ हो जाते हैं। धरमू सिंह की इकलौती बेटी पुष्पा रहती है, जो यह कुर्की रूकवाने के लिए बिपिन से मदद मांगती है। बिपिन उसकी मदद को तैयार हो जाता है, और सुबह ही 400 रुपये उसके घर भिजवा देता है। बिपिन और पुष्पा एक दूसरे के प्रति अपने प्रेम को छिपाने का प्रयास करते हैं। किन्तु छिपा नहीं पाते। गाँवों में प्रेम लुक-छिप कर ही होता है, वरन् उस प्रेम को गाँव वाले बदनाम कर देते हैं। बुझारत सिंह की एक गलती ने उन दोनों के प्रेम को डर का रूप दे दिया। बुझारत सिंह के बुरे कर्मों की सजा निर्दोष पुष्पा को मिली। गाँव भर में पुष्पा की बदनामी होने लगी बिपिन सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं कर सका। बदनामी के डर से बचने के लिए उसका विवाह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से तय कर दी जाती है। किन्तु बिपिन एकदम चुप रहता है। उसे अपने खानदान, इज्जत और झूठी प्रतिष्ठा की चिन्ता थी। वह स्वयं से कहता है- ‘‘क्या कहेंगे लोग बाग? पिछली सारी घटनाएँ अब तक ढंकी तोपी हैं। क्या पुष्पी के बारे में कहने से वे फिर खुलकर नये-नये अर्थों के सामने नहीं जायेंगी? वह फिर हिम्मत करके अपने को समझाता ‘‘चुप रहने में भलार्इ है। जो हो रहा है, वही ठीक है। गलत को भीतर-भीतर बिना प्रकट किये ही भोग लेने में राहत है। मैं क्या कर सकता हूँ।’’18 विपिन को पुष्पा की पवित्रता पर पूरा विश्वास है किन्तु उसे अपना नहीं पाता। अपनी झूठी मान-मर्यादा, शान-शौकत को बचाने के लिए उसने पुष्पा के प्रेम की बलि दे दी। उसने भी अन्य लोगों की तरह पुष्पा द्वारा नहीं किये गये कर्मों की सजा उसे दे देता है। अन्य लोगों की तरह विपिन के अन्दर भी दो मन है। एक पूरी तरह सामाजिक होकर सोचता है, और एक निजी मन के रूप सोचता है। उसका सामाजिक मन पुष्पा को तिरस्कृत और पतित घोषित कर देता है। उसका दूसरा मन उसे साफ-पाक मान रहा था, किन्तु सामाजिक मन के आगे वह विवश होकर पुष्पा को किसी और पुरूष के साथ जाता देखकर भी चुप रहा। इसी के परिणामस्वरूप वह अपने गाँव, घर, परिवार और स्वयं से भी दूर होने लगा। वह माँ समान कनिया भाभी से भी दु:खी रहता है, क्योंकि वह सब कुछ जानते हुए भी चुप रह जाती है। विपिन गाजीपुर के डिग्री कॉलेज का प्रवक्ता बनते ही अपना घर छोड़ कर चला जाता है।

 

विपिन करैता गाँव में एक सम्माननीय व्यक्ति है। उसे गाँव में सभी लोग आदर की दृष्टि से देखते हैं। वह सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी उपन्यास का एक कमजोर पात्र है। जिसने अपनी झूठी प्रतिष्ठा बचाने के लिए एक निर्दोष को सजा दे दी। ऐसा इंसान कभी बड़ा नही बन पाता। करैता में उसने कुछ ही भलार्इ का काम किया। गाँव में वह एक साल रहा किन्तु कुछ नहीं कर सका। उसने कुर्की के समय पुष्पी को 400 रुपये दिये, बुझारथ सिंह के शोषण का शिकार होने से बचाया, थानेदार को फटकार लगाया किन्तु इन कामों के अतिरिक्त उसे गाँव की भलार्इ के लिए कर्इ काम करने चाहिए थे।

 

निष्कर्ष: यह कहा जा सकता है, कि इस उपन्यास के सभी पात्र अपनी अलग-अलग वैतरणी में हिलोरे ले रहे हैं। किन्तु उस वैतरणी को कोर्इ पार नहीं कर पाता। सभी असफल हैं। इसी असफलता में करैतावासियों के टूटने के स्वर सम्पूर्ण उपन्यास में सुनायी देते हैं। करैता गाँव में निर्वासन भी एक प्रमुख समस्या रही है। औद्योगिक क्रान्ति के कारण यहाँ शहरों में बड़ें-बड़े उद्योग केन्द्र बनने लगे थे। इसी कारण गाँव का प्रत्येक व्यक्ति शहर जाकर ही अपना और अपने परिवार की आर्थिक स्थिति के सुधार के बारे में सोचने लगा। हर विकासमान समाज को इससे गुजरना पड़ता है।

 

डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी अपना विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं- ‘‘आजादी के बाद गाँवों-ग्रामीणों के लिए योजनाएँ बनीं, भाषणबाजियाँ हुईं, अब भी होती हैं, पर कोर्इ व्यावहारिक परिवर्तन नहीं हो पाया। फलत: गाँव दिन--दिन टूटते-बिगड़ते-उजड़ते चले गये। औद्योगिक क्रान्ति के हाथों हरित क्रान्ति की भ्रूण हत्या हो गर्इ।’’19 इसके परिणामस्वरूप ग्रामीण समाज से लोग दूर होने लगे। इस उपन्यास में मुख्यत: तीन बुद्धिजीवी पात्र रहते हैं- देवनाथ, विपिन और शशिकांत। तीनों गाँव में सुधार का सपना लेकर आते हैं। किन्तु तीनों ही अलग-अलग कारणों से गाँव छोड़ने को विवश हो जाते हैं। देवनाथ अपने पारिवारिक कारणों से तो शशिकांत स्कूल के भ्रष्ट प्रधानाचार्य से और विपिन करैता गाँव के नरक समान जीवन से व्यथित होकर गाँव छोड़ देता है। जिन युवाओं की गाँव को जरूरत थी वे सभी आजीविका की तलाश में शहर चले जाते हैं। इसके अतिरिक्त खलील मियां, पटनहिया भाभी और जगेसर इन सभी पात्रों का भी गाँव से निर्वासन होता है। इस उपन्यास में घटित होने वाली निर्वासन की घटना को लेखक ने बड़े ही सशक्तता के साथ उभारा है और इसके दूरगामी परिणाम की ओर संकेत भी किया है। इस संबंध में जग्गन मिसिर का कथन इस प्रकार है-

‘‘हमारे गाँवों में आजकल इकतरफ़ा रास्ता खुला है।  निर्यात! सिर्फ़ निर्यात। जो भी अच्छा है, काम का है, वह वहाँ से चला जाता है। अच्छा अनाज, दूध, घी, सब्जी जाती है। अच्छे मोटे-ताजे़ जानवर, गाय, बैल भेड़े-बकरे जाते हैं। हट्टे-कट्टे मज़बूत आदमी जिनके बदन में ताक़त है, देह में बल है, खींच लिये जाते हैं, पल्टन में, पुलिस में। मलेटरी में। मिल में। फिर वैसे लोग जिनके पास अक़ल है, पढ़े-लिखे हैं, यहाँ कैसे रह जायेंगे?’’20 इस कथन के माध्यम से लेखक की गाँव के संदर्भ में विशेष चिंतन देखने को मिलता है।

 

उपन्यास के सभी पात्र अन्दर से टूटे हुए हैं। किन्तु फिर भी वे अपने जीवन में संघर्ष करते रहते हैं। वे सभी गाँव से पलायन करते हैं, लेकिन यह पलायन केवल परिस्थितियों से है, जीवन से नहीं। इन पात्रों का अंदर से टूटना आधुनिकता की विशेषता है। इस सम्बन्ध में सत्यदेव त्रिपाठी कहते हैं- ‘‘टूटन आधुनिकता का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, और इसके विविधस्तरीय स्वरों की अनुगूँजवैतरणीके यथार्थ का एक सशक्त पहलू है। इस टूटन को मुख्यत: पात्रों की टूटन के रूप में देखा जा सकता है।  इसके सभी पात्र चाहे वे सफल हो या असफल अंदर से टूटे हुए हैं।’’21

 

शिवप्रसाद सिंह को ग्रामीण कथाकार के रूप में जाना जाता है। किन्तु कुछ आलोचक उन्हें आंचलिक उपन्यासकार कहते हैं। जबकि वे स्वयं कहते हैं। ‘‘भाइयों मैं आंचलिक नहीं हूँ। मुझे इस पंगत में मत बिठाओ’’22 शिवप्रसाद सिंह के कहने के बाद भी कुछ आलोचकों ने उन्हें आंचलिक उपन्यासकार मान ही लिया। अलग-अलग वैतरणी में लेखक ने करैता गाँव का चित्रण किया है, किन्तु वह केवल एक उद्देश्य तक सीमित नही है। उसमें पूरे ग्रामीण समाज के परिवेश और परिस्थितियों की झलक मिलती है। डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी, डॉ. विवेकी राय, डॉ. आदित्य प्रसाद त्रिपाठी आदि अनेक आलोचक इसे ग्रामीण उपन्यास ही कहते हैं। इसे आंचलिक बोलकर इसके उद्देश्य को सीमित नहीं किया जा सकता।

 

अत: लेखक ने जो स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक हृास हुआ उससे उपजे लोगों के भीतर की कड़वाहट को बड़े ही सशक्त रूप में चित्रित किया है। करैता गाँव के माध्यम से लेखक ने ग्रामीण प्रेम, कुण्ठा, नैतिकता का हृास, संघर्ष, बिखराव, पुराने मूल्यों का टूटना, नपुंसकता, पारिवारिक विघटन, स्वार्थ का अन्धापन, युवा पीढ़ी का ग्रामीण समाज से ऊबन आदि इन सभी विसंगतियों की अभिव्यक्ति की है। नये और पुराने मूल्यों के टकराव के कारण स्वाधीनता और पराधीनता में कुछ ज्यादा अन्तर स्पष्ट नहीं हो पाता। गाँव में अब विषाक्त स्वार्थपरता तथा सड़ी-गली नैतिकता ही बची है। ऐसे में सभी कर्मठ और र्इमानदार व्यक्तियों का शहर की तरफ जाना आवश्यक हो जाता है किन्तु गाँव में अभी भी जग्गन मिसिर जैसे लोग हैं, जो गाँव के इन पुराने मूल्यों को पूरी तरह से खत्म नहीं होने देते।

 

संदर्भ:

1.          हिन्दुस्तानी त्रैमासिक (शताब्दी की ओर) डॉ0 शिवप्रसाद सिंह पर केन्द्रित विशेषांक जुलार्इ-सितम्बर 2019, पृ0सं0 62

2.          बीहड़ पथ के यात्री, (सम्पा0) डॉ0 प्रेमचन्द जैन, नेशनल पब्लिकेशन हाउस, दरियागंज, नर्इ दिल्ली, प्रथम संस्करण : 1996, पृ0सं0 111

3.          अलग-अलग वैतरणी, शिवप्रसाद सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, दूसरा पेपर बैक्स, संस्करण : 2016, पृ0सं0 16

4.          वहीं, पृ0सं0 55

5.          उपन्यास : स्थिति और गति, चंद्रकांत बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, नर्इ दिल्ली, प्रथम संस्करण : 1993, पृ0सं0 177

6.          अलग-अलग वैतरणी, शिवप्रसाद सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद दूसरा पेपर बैक्स, संस्करण : 2016, पृ0सं0 29

7.          वहीं, पृ0सं0 39

8.          शिवप्रसाद सिंह, अरूणेश नीरन, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नर्इ दिल्ली, संस्करण : 1994, पृ0सं0 73

9.          शिवप्रसाद सिंह का उपन्यास साहित्य, डॉ0 राजेन्द्र खैरनार, जय भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण : 2007, पृ0सं0 227

10.       अलग-अलग वैतरणी, शिवप्रसाद सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद दूसरा पेपर बैक्स, संस्करण : 2016, पृ0सं0 81

11.       उपन्यास : स्थिति और गति, चंद्रकांत बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, नर्इ दिल्ली, प्रथम संस्करण : 1993, पृ0सं0 184

12.       वहीं, पृ0सं0 187-188

13.       शिवप्रसाद सिंह का उपन्यास साहित्य, डॉ0 राजेन्द्र खैरनार, जय भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण : 2007, पृ0सं0 233

14.       अलग-अलग वैतरणी, शिवप्रसाद सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, दूसरा पेपर बैक्स, संस्करण : 2016, पृ0सं0 107

15.       वहीं, पृ0सं0 107

16.       शिवप्रसाद सिंह का उपन्यास साहित्य, डॉ0 राजेन्द्र खैरनार, जय भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण : 2007, पृ0सं0 227

17.       शिवप्रसाद सिंह, अरूणेश नीरन, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नर्इ दिल्ली, संस्करण : 1994, पृ0सं0 75

18.       अलग-अलग वैतरणी, शिवप्रसाद सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, दूसरा पेपर बैक्स, संस्करण : 2016, पृ0सं0 342-343

19.       शिवप्रसाद सिंह का कथा साहित्य,सत्यदेव त्रिपाठी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण : 1988, पृ0सं0 233

20.       अलग-अलग वैतरणी, शिवप्रसाद सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, दूसरा पेपर बैक्स, संस्करण : 2016, पृ0सं0 422

21.       शिवप्रसाद सिंह का कथा-साहित्य, डॉ0 सत्यदेव त्रिपाठी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण : 1988, पृ0सं0 225

डॉ. गजाधर यादव

प्रवक्ता, राजकीय इण्‍टर कॉलेज, झारखण्‍ड

gajadharyadav.2012@gmail.com, 9198216555


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue

सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)

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