- सविता कुमारी एवं अरमान अंसारी
शोध सार : रेणु के साहित्य का दायरा बहुत ही व्यापक है। उनके सहित्य संसार में न केवल कथा साहित्य है, बल्कि अन्य गद्य विधाएँ भी हैं। इन गद्य विधाओं का अपना रचना संसार है, उनका अपना परिवेश है, उसके प्रति रेणु की सांस्कृतिक पक्षधरता भी है। इन्हीं अन्य गद्य विधाओं में है, रेणु के द्वारा लिखा गया रिपोतार्ज है। रेणु का रिपोतार्ज सच्चे अर्थों में रिपोर्ताज विधा के महत्त्व को स्थापित करता है। उनके रिपोतार्ज को पढ़ते समय लगता है कि सही अर्थों में उस जमीन पर खड़े होकर रेणु की नजर से घटनाक्रम को घटते हुये देख रहे हैं। घटना ऐसी की पढ़ने के बाद आपको बेचैन कर दे। आपके अंदर के अपने देश समाज और अपने लोगों के प्रति एक कर्तव्य बोध जागृत कर दे। आपको लगेगा कि ये भी अपने ही लोग हैं, इन्हें तो अब तक मैं जानता ही नहीं था। ये हमारे बीच रहते हैं, बिल्कुल अनजान की तरह जीते हैं, लेकिन इनकी धड़कन को कभी मैंने महसूस ही नहीं किया। बल्कि ये लोग सही मायने में देश के धड़कन हैं। रेणु के रिपोतार्ज की सामान्य विशेषता यह है कि वे विषमतामूलक समाज में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलू को ध्यान से देखते हैं। चूँकि रेणु स्वंय एक सक्रिय सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्त्ता थे। उन्होंने अपने देश, समाज को बहुत ही ध्यान से देखा समझा था। वे समाज के परिवर्तनकारी शक्तियों को पहचानते थे। आजादी की लड़ाई में उन्होंने स्वयं हिस्सा लिया था, उसके लिए यातना सही थी। जेल से ही बीमार होकर पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में आते-जाते रहते थे। जब ठीक हो जाते थे, जनता के लिए आवाज उठाते हुए सड़कों पर संघर्ष करते थे। उनकी संवेदना गांव के लिए विशेष रूप से थी। उनके मन-मस्तिष्क में गांव रचा-बसा था, उनकी एक पैर पटना तो दूसरा पैर गांव में होता था। लोक संस्कृति तो जैसे उनके तन-मन पर राज करती थी। यही कारण है कि उनके साहित्य में लोक के प्रति विशेष लगाव दिखाई पड़ता है। यहीं कारण है लोकसंस्कृति मूलक समाज की संरचना का जो आदर्श रेणु प्रस्तुत करते हैं तथा उनका रिपोतार्ज संस्कृति के तमाम सवालों को उठाता है। हिंदी साहित्य में रिपोतार्ज की अन्य विधाओं की तुलना में उपेक्षा हुई है। इसके कारण इस विधा पर आधुनिक कलाकारों ने कम काम किया है। कई मायने में रिपोतार्ज कथा की अनोखी विधा है जिसमें जीवन के साक्षात को देखकर कलात्मक ढंग से साहित्य में बदलने की शक्ति से भरपूर है। रेणु का रिपोतार्ज इस मामले में इस विधा का निखरा हुआ रूप मालूम होता है। इसमें रेणु ने कई स्तर पर प्रयोग करने की कोशिश की है। कुछ रिपोतार्ज कहानी की शैली में है तो कुछ रोज के घटनाक्रम के रूप में लिखा गया है। शिल्प के मामले में भी रेणु का प्रयोग कई मायने में महत्त्वपूर्ण है। वे अपने रिपोतार्ज में कलात्मक प्रयोग के साथ-साथ साहित्यिक गरिमा को उत्कृष्टता प्रदान करते हैं। रेणु के रिपोतार्ज की प्रासंगिकता कई मायने में महत्त्वपूर्ण है, वे जीवन के विभिन्न रंगों को अपने रिपोतार्ज के माध्यम से सम्पूर्णता में दिखाते हैं।
बीज शब्द : लोक, लोक संस्कृति, सुराज, किसान-मजदूर, मृत्यु संगीत, रिपोतार्ज।
मूल आलेख : फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी रचनाओं की शुरुआत द्वितीय विश्व युद्ध के बीच में की। उनकी पहली कहानी 'बट बाबा' 27 अगस्त 1944 में साप्ताहिक विश्वामित्र में छपी थी। रेणु के सहित्य और उनके जीवन के बारे में उनके समकालीन रहे कवि नागार्जुन बताते है, "रेणु घनी बुनावट और विविध छवियों वाली बहुरंगी छवियां उरेहने के लिहाज से सर्वथा अपूर्व शिल्पी थे। रेणु के यहाँ न तो काव्य सामग्री का टोटा था और न शैलियों के नमूने का अकाल।"1 रेणु पहला रिपोतार्ज 'विदापद नाच' साप्ताहिक विश्वामित्र में छपा था। स्वंय रेणु मानते हैं कि द्वितीय महायुद्ध ने चिकित्सा शास्त्र को चिर-फाड़ (शाल्य चिकित्सा) चिकित्सा विभाग को पेन्सिलिन दिया और साहित्य के कथा विभाग को रिपोतार्ज।'2 इस प्रकार रेणु के अनुसार रिपोतार्ज विधा कथा साहित्य की ही एक उप विधा है, इसकी शुरुआत द्वितीय विश्वयुद्ध के दरम्यान हुई है। हालांकि इसके पहले भी इस प्रकार के साहित्य की रचना हो रही थी। ऐसा माना जाता है कि इस विधा की विधिवत शुरुआत करने वाले रेणु हैं। कहा जाता है कि मैला आँचल के पूर्व भी रेणु ने कई सारे रिपोतार्ज लिखे थे, लेकिन वे उपलब्ध नहीं है। आलोचकों के अनुसार रेणु का पहला महत्त्वपूर्ण रिपोतार्ज 'जै गंगा' माना जाता है जो सप्ताहिक जनता में 1947 में छपा था। इसी क्रम में दूसरा महत्त्वपूर्ण रिपोतार्ज 1948 में 'डायन कोशी' छपा था। हम इस बात को जानते हैं कि रेणु कथाकार के साथ-साथ एक अदद राजनीति-सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में स्वंय भाग लिया था। देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी थी, उसके लिए त्याग बलिदान किया था। आज़ाद हिन्दुतान में वे उन सपनों को साकार होते देखना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने अंग्रेजी शासन के दरम्यान लाठियां खाई थीं। आज़ाद हिन्दुतान की स्थिति उनके सपनों के अनुरूप दिशा नहीं पा रही थी जिसकी वजह से रेणु को दुःख और क्षोभ दोनों था। इन तमाम स्थितियों को रेणु एक मूकदर्शक की भांति देख नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में रेणु सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को दिशा देने के लिए कलम के साथ-साथ बंदूक को भी लेकर लड़ते थे। नेपाली क्रांति में स्वयं उन्होंने बंदूक लेकर एक सिपाही की भाति मोर्चे पर लड़ाई लड़ी थी। इस क्रांति की कथा को स्वयं उन्होंने लिखा है जिसमें रेणु की जान जाते-जाते बची थी।
रेणु द्वारा लिखा गया पहला रिपोतार्ज 'विदापद-नाच' है। इस रिपोतार्ज में रेणु इस इलाके विशेष के लोक नृत्य की चर्चा करते हैं। हम जानते हैं कि रेणु के साहित्य में लोक के प्रति विशेष अनुराग दिखाई पड़ता है। उनके द्वारा लोक को देखने का नजरिया बिल्कुल अलग है। लोक रेणु के लिये टेस्ट बदलने का विषय वस्तु मात्र नही है जैसा कि अन्य लेखकों के यहाँ देखने में आता, बल्कि रेणु लोक जीवन और उनकी संस्कृति से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। लोक का ज्ञान उन्हें एक नये संसार में ले जाता है जहाँ रेणु को एक नई आशा दिखाई पड़ती है। विदापद नाच रेणु के अंचल में कथित रूप से निम्न जाति वर्णीय समाज के लोगों द्वारा मनोरंजन के लिए खेला जाने वाला नाटक है। स्वंय रेणु इसके विवरण में लिखते हैं, "आइए, आप मेरे साथ थोड़ी देर के लिए भद्रता का चोला उतार फेंकिए। वहाँ, मुसहर टोली में जो भीड़ जमा है, वहीं आज विदापद नाच होने जा रहा है। कोल मुसहर और धांगड़ की सारी बस्ती उमड़ आई है। युवक-युवतियां, बड़े-बूढ़े, बच्चे सभी नाच की प्रतीक्षा कर रहें हैं।"3 इसमें रेणु स्पष्टता के साथ कहते हैं कि ये लोग इसी समाज के दर्शक हैं और इसी समाज के मनोरंजन के लिए यह नाटक खेला जाता है। तथाकथित भद्र समाज के लोग इसे देखने में अपनी हेठी समझते हैं। स्वंय रेणु अपनी भद्रता के बारे में कहते हैं, "जब से मैं अपने को भद्र और शिक्षित समझने लगा था, तब से इस नाच से दूर रहने की चेष्टा करने लगा, किंतु थोड़े दिनों के बाद ही मुझे अपनी गलती मालूम हुई और मैं इसके पीछे फिदा रहने लगा।"4 दरअसल भद्रता वाला बयान रेणु का व्यंग्य भी है जो कथित रूप से उन समूहों के लिए है जो भद्रता की खोली में इस कदर मदमस्त हो जाते हैं कि उन्हें क्या देखना और क्या नहीं देखना है, इसका अहसास नहीं रहता। उनकी इसी विशेषता के कारण वरिष्ठ सहित्यकार अज्ञेय ने रेणु को मिट्टी से जुड़ा कलाकर बताया था, वे कहते हैं, "रेणु सचमुच धरती के धनी थे, वे हाथ बढ़ाते और वसुंधरा की सम्पदा आप से आप उनके साथ आ जाती, मिट्टी की ताजा महक लिए हुए आतुर रस-शिराओं से स्पंदनमान, एक साथ निरी माटी और एक जीवन संरचना…यही तो होती है कारयित्री,भावयित्री, रूपयित्री प्रतिभा जो पहचान को नया और अजनबी को पहचान कराती हुई सामने ला खड़ा करती है।"5
लोक कलाएँ दरअसल हमारे समाज की जीवंतता की प्रतीक मानी जाती हैं। जब अभिजात्य संस्कृति के आड़ में समाज भद्रता का चोला ओढ़ लेता है तो बहुत ही खराब स्थिति बनती है। समाज का रागात्मक संबंध व्यापक समाज से खत्म हो जाता है। मुठ्ठी भर लोग जो कथित रूप से जिस विशिष्ट संस्कृति पर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं, वे भूल जाते हैं कि शास्त्र और लोक कलाओं में गहरा संबंध होता है। यदि लोक कलाएँ और लोक संस्कृति की टूटन होगी तो शास्त्र बहुत दिन तक जीवित नहीं रह सकते हैं। 'विदापद नाच' में निम्नवर्णीय समाज का दुःख दर्द भी नाच के बीच-बीच में देखने को मिलता है। जब बिकटा जो इसके केन्द्रीय पात्र के रूप में मौजूद है, कहता है, "मुझे पीटकर बेकार समय बर्बाद किया जा रहा है। जमींदार का जूता खाते-खाते मेरी पीठ की चमड़ी मोटी हो गई।"6 बिकटा का यह ब्यान सामन्ती समाज के द्वारा मेहनतकश समाज के लोगों पर ढाए गए जुल्म की सारी दासता को एक साथ स्पष्ट कर देता है। इस रिपोतार्ज में बिकटा गीत के माध्यम से कहता है,
"बाप रे! बाप, कोन दुर्गति नहीं भेल।
सात साल हम सूद चुकाओल, तबहूँ उरिन नहीं भेलौ।
कोल्हुक बरद सन खतलव रात-दिन करज बढ़त
ही गेल।
थारी बेच पटवारी के देलियेन्ह, लोटा बेच चौकीदारी।
बकरी बेच सिपाही के देलियेन्ह, फटक नाथ गिरधारी।"7
रेणु कलात्मक तरीके से समाज के लोगों के गरीबी के दास्तान को सामने लेकर आते हैं। समाज ने व्यवस्था का ताना-बाना ऐसा बनाया है कि मेहनकश तमाम कोशिशों के बावजूद गरीबी के दलदल में धसता चला जा रहा है। लाख मेहनत-मजदूरी करे, लेकिन उसके नसीब में घोर-गरीबी लिखी हुई है। वह अपना सब कुछ स्वाहा करके कर्ज भी अदा नहीं कर पाता है। अंत में वह खाली हाथ ही नजर आता है। रेणु की सौंदर्य दृष्टि को भी देखने की जरूरत है, वे कहते हैं, "काली-काली गठीली-तगड़ी युवतियां मुस्कुरा-मुस्कुराकर हसीं को जब्त करना चाहती हैं। एक-दूसरे को केहुनी से खोच-खोचकर जाने क्या कानाफूसी करती हैं!------किंतु दबी हुई हँसी और गुदगुदाया हुआ दिल कब मानता है?"8 ये है रेणु की सौंदर्य दृष्टि। दरअसल सुंदरता सहजता में होती है, बनावटीपन से सौंदर्य खत्म हो जाता है, यहीं कलात्मकता का उत्कर्ष भी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने एक लेख में भद्रता और विद्वता के बारे टिप्पणी की है।
दूसरे रिपोतार्ज 'सरहद के उस पार' का प्रकाशन 'जनता' 2 मार्च, 1947 के अंक में हुआ था। इस रिपोतार्ज का थीम नेपाल की धरती है। रेणु के अंचल से सटा हुआ विराट नगर जहां रेणु का बचपन कोइराला परिवार के साथ बीता था। कहा जाता है कि रेणु को साहित्यिक दीक्षा इसी जगह मिली थी। नेपाल के राजनीतिक आंदोलनों में रेणु ने हिस्सा लिया था। 'सरहद के उस पार' विराट नगर में मिल-मजदूरों के बद से बदतर जीवन को आधार बनाकर रेणु ने लिखा था। इस रिपोतार्ज में मजदूरों के शोषण का एक चित्रण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं, "इन मीलों में पंद्रह-बीस हजार मजदूरों की पिसाई होती है, मगर कभी आह भी नहीं करने दिया जाता। मांगों और हड़तालों की चर्चा तो स्वप्न में भी नहीं कि जाती ----दाहिनी ओर यह मजदूर कॉलोनी है या सुअर के खुहारों का समूह? उनके बच्चे और औरतों की दशा देखिए, कितनी दर्दनाक सूरत है।"9 इस रिपोतार्ज में मजदूरों की अमानवीय दशा का विवरण मिलता है। मजदूरों के शोषण में निरंकुश नेपाली सरकार की भी भूमिका दिखाई पड़ती है। रेणु को आशा है कि एक दिन नेपाल में क्रांति हो जाएगी और उससे नेपाल की सूरत बदल जाएगी, मजदूरों का शोषण नहीं होगा। जनता का राज होगा, जनता खुले रूप से आजाद हवा में सास ले पाएगी। दरअसल रेणु के यहाँ मजदूरों के प्रति विशेष सहानुभूति दिखाई पड़ती है। यहीं कारण है कि वे अपनी सहानभूति के रूप में मजदूरों के साथ खड़े होते हैं।
'नए सवेरे की आशा' रिपोतार्ज का प्रकाशन मासिक 'जनवाणी' के जनवरी, 1950 के अंक में छपा था। इस रिपोतार्ज में रेणु दिल की गहराइयों में जाकर महसूस करते हुए लिखते हुए दिखाई पड़ते हैं। स्वयं रेणु किसान थे। खेती-किसानी की समस्या और उसके दुःख-दर्द को अच्छी तरह जानते समझते थे। आजाद हिन्दुस्तान में जिस प्रकार खेती-किसानी और उसकी समस्या को नजरअंदाज किया गया था, इससे परिचित थे। उन्हें आशा थी कि आजादी के बाद देश में किसान-मजदूरों का राज कायम होगा,उनको केंद्र में रखकर नीतियां बनेंगी। इससे किसानों, मजदूरों के जीवन में सकारात्मक बदलाव आयेगा। लेकिन इसके विपरीत परिस्थियां बिगड़ती गईं। जमीदारों के हाथ में किसान पिसता चला गया। आजाद हिन्दुस्तान की नवगठित तत्कालीन सरकार की प्रथमिकता में खेती-किसानी नहीं रही। तब भी कृषि की समस्याएँ अपने चरम पर थीं और आज भी हैं। तब का किसान खेती की सामंती संरचना की वजह से मारा जाता था। आजाद हिन्दुस्तान ने ऐसी व्यवस्था बनाई है कि अब किसान के पास आत्महत्या ही एक मात्र विकल्प बचा है। रेणु, 50 के दशक में जब रिपोतार्ज लिख रहे थे तो उनका एक पात्र किरण दा कहते हैं, ''जरूरत है करोड़ों शोषितों, पीडितों की भूखी अंतड़ियों, सुखी हड्डियों, खाली दिमाग और निराश दिल में हरकत पैदा करने की, गति लाने की। नई उम्मीदों की रोशनी जलाने वाला प्रोग्राम!''10 अपने इसी रिपोतार्ज में रेणु बताते हैं कि किस प्रकार उनके रिपोतार्ज का एक पात्र चुन्नीदास सामंती जमींदारी व्यवस्था की वजह से अपना सब कुछ गवां चुका है, उसका घर-परिवार बर्बाद हो गया है। वह उस व्यवस्था को चुनौती देता है, "परमानपुर में किसानों की सभा हो रही है। दाढ़ी वाले बाबा जी चुन्नीदास लोगों को शांत कर रहे हैं। चुन्नीदास जी 1930 से 42 तक चौदह बार जेल की सजा भुगत आये हैं। कबीरदास के गाँधीदास बननेवाले इस भोले किसान की सारी जमीन नीलाम हो गई, जमींदार न तो पानी बरसाता है, न खेत की पैदावार को बढ़ाता है। फिर कैसी मालगुजारी, कैसा खजाना? 1934 में ही यह नारा था। जमीन नीलाम हो गई ,बीबी मर गई, बच्चों को कांग्रेस की सेवा में गांधी बाबा को सुपुर्द किया। एक आज तक कांग्रेस आश्रम का बर्तन माजता है, दूसरा पूरब कमाने भाग गया। जब तक सुराज नहीं होगा, 'जटा और दाढ़ी' नहीं कटवाएँगे। सो 15 अगस्त को साधु का धर्म भ्रष्ट होते-होते बच गया, प्रतिज्ञा टूटते रह गई, दुहाई गांधी बाबा, जमीन पर जोतने वालों का हक नहीं, गरीबों के पेट में अन्न नहीं, देह पर बस्तर नहीं, लोगों ने झूठ-मुठ हल्ला मचाया कि सुराज हो गया "11 इस प्रकार रेणु का रिपोतार्ज 'नया सवेरा की आशा' में किसान-मजदूर राज्य कायम हो इसके स्वप्न्न द्रष्टा भी हैं।
'हड्डियों का पुल' रिपोतार्ज का प्रकाशन 1950 में जनता में हुआ था। सन 1950 में ही पूर्णिया अंचल में पड़े अकाल का त्रासद दृश्य का चित्रण इसमें दिखाई पड़ता है। रिपोतार्ज में कहानी के तत्त्व को आधार बनाकर रेणु ने लिखा है। दक्षिण बिहार में अकाल जैसी त्रासदी को ही आधार बनाकर एक और 'ऋण जल' रिपोतार्ज का लेखन रेणु ने किया है। इसमें अनावृष्टि के कारण आई अकाल का दृश्य दिखाई पड़ता है। पहले में रेणु ने सायास कोशिश करके अकाल के चित्रण के दरम्यान इस बात को दिखाने की कोशिश की है कि किस प्रकार राजनेताओं, नौकरशाहों द्वारा अकाल जैसी भीषण मानवीय त्रासदी को भी लूट-खसोट का जरिया बना लिया जाता है। वह तब होता है जब लोगों की अतड़ियां भूख से ऐंठ गईं हैं। भूख से लोग नरकंकाल बन चुके हैं। एक-एक कर अपनी इज्ज़त आबरू से लेकर अपनी जमीन जायदाद सब बेच रहें हैं, नीलम कर रहे हैं। इस सब के बावजूद किसी तरह की संवेदना व्यवस्था में दिखाई नहीं पड़ती है। एक दृश्य की तस्वीर पेश करते हुए रेणु बताते हैं, "मैं कहता हूँ कलाकारों को यहाँ भेजो। तुम्हारे नृत्य के विशेषज्ञों ने मृत्यु का नंगा नाच नहीं देखा है। तुम्हारे कवि ने भूख से दम तोड़ते हुए इंसान के बेजान और पुरदर्द नग्में को नहीं सुना। तुम्हारे चित्रकार, मुरझाए हुए चेहरे पर बुझती हुई आखों को नहीं आक सकते? 'कोरस'---हाँ, मिरत्यु संगीत का 'कोरस' को तुमने नहीं सुना है।"12 इस प्रकार रेणु ने साहित्यिक सम्वेदना की परंपरागत मानदण्डों को भी चुनौती पेश कर देते हैं। वे स्पष्ट करना चाहते हैं कि यदि साहित्य को इन मानवीय त्रासदी का चित्रण करना है तो अपने मानदंड बदलने होंगे। प्रचलित पुरानी मानदण्डों से इस भीषण मानवीय त्रासदी को नहीं दर्शाया जा सकता है। इस रिपोतार्ज में एक दृश्य यह भी दिखाई पड़ता है कि किस प्रकार वर्तमान प्रशासनिक तंत्र का भय लोगों में ब्याप्त है। जब मंत्री अपने लश्कर के साथ गांव में पहुचता है और लोगों से पूछता है “अगहनु महतो कैसे मरा? बुढ़िया कांपने लगती है, हुजूर बेमार रहे। बीमार था सुना न आप लोगों ने? भूख से बेहाल गांव में भगदड़ मच जाती है। कोई पाट के खेत में छिप जाता है। उठने में असमर्थ औरते घुटने के बल रेंग-रेंग कर पाट के खेत में जा छिपतीं हैं।---मलेटरी---पुलिस---गोरा--बंदूक! --बाप रे!"13 इसे आप क्या कहेंगे? आजादी के बाद तो स्वतंत्र भारत की प्रशासनिक व्यवस्था है और यह व्यवस्था लोगों के साथ कैसा व्यवहार करती है? इसका डर-भय लोगो में इस कदर ब्याप्त है कि लोग सच कहने के बजाय झूठ बोलते हैं, अपने घर से खेत में जाकर छिप जाते हैं, ताकि प्रशासन का सामना न हो सके। भारत यायावर लिखते हैं ये 'हड्डियों का पुल' के लेखक जन-संघर्षों में भाग लेने वाले, जनता की क्रांतिकारी चेतना पर विश्वास करने वाले 30 वर्षीय रेणु हैं। उन्हें विश्वास है कि एक दिन स्थितियां बदल जायेंगी।
सन 1955 में 'एकलव्य के नोट्स' का प्रकाशन उपेन्द्र नाथ अश्क द्वारा संपादित 'संकेत' शीर्षक से छपा था। इस रिपोतार्ज में रेणु एक गांव के विकास की कहानी को सूक्ष्म दृष्टि से दिखाने की कोशिश करते हैं। इसी रिपोतार्ज के कुछ अंशों को अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'परती परिकथा' में संयोजित किया है। ऐसा कहा जाता है कि इसके प्रकाशन के बाद उस अंचल विशेष के कुछ लोगों ने रेणु पर मुकदमा कर दिया था। मुकद्दमें की वजह से रेणु को काफी परेशानी होती थी। उन्हें कचहरी के चक्कर काटने पड़ते थे। इस वर्णन रेणु ने वाचस्पति पाठक के नाम लिखे एक पत्र में किया है, रेणु पत्र में लिखतें हैं, "कानून कचहरी के पैंतरे! भगवान बचाये। मुकद्दमा दिलचस्प है, इसलिए मेरी तारीख के दिन कचहरी में भीड़ लग जाती है।..…मेरे गाँव के एक सज्जन हैं, उन्होंने ने 'मैला आँचल' के तहसीलदार को अपनी तस्वीरे समझ रखा है, मूरख आदमी हैं। पुराने मुक़द्दमेबाज हैं। सम्भवतः उसने अपने वकील से पहले भी सलाह ली होगी। अब वे चुप रहे। संकेत में प्रकाशित रिपोतार्ज (एक्लव्य का नोट्स) का नाटक वाला अंश-एक गांव की सच्ची घटना। दलित वर्ग के लोगों ने समझ लिया, उनकी खिल्ली उड़ाई गई है। क्योंकि इनकी किताब पर 'भारत सरकार' ने पुरस्कार दिया है, इसलिए ये 'यह बात' दिल्ली तक पहुँच गई होगी। फिर 'पंडित जमाहिर लाल' को भी मालूम होने में कितनी देर, छीः छीःक्या समझते होंगे जमाहिर लाल भी? दलित वर्ग के बारे में क्या समझते होंगे भला...। दलित वर्ग से लेकर सवर्ण की नकेल जिस पार्टी के हाथ में है, उसके स्थानीय नेता के बड़े नेता भी जो थाना के नेता हैं- शायद अपनी सिलहुत छवि देखी कहीं मेरी रचना में। उन्होंने जो सुना तो चियर अप' कर दिया ठीक है, दलित वर्ग के नौजवानों, बढ़ जाओ।...तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद का भूत! ऐसे मौके पर चुप चाप बैठे रहे?.."14 इस प्रकार रेणु गांवों के समाजशास्त्रीय अध्ययन के माध्यम से गांव और उसके समाज को एक नए नजरिये से देखने की कोशिश करते हैं। यहाँ रेणु के पास एक वैकल्पिक नजरिया दिखाई पड़ता है।
'जीत का स्वाद' रिपोतार्ज का लेखन 24 जून, 1960 को रेणु ने किया था। इसका प्रकाशन 'योगी' के 25 जून,1960 के अंक में हुआ। इस रिपोतार्ज में रेणु का किक्रेट प्रेम दिखाई पड़ता है। उन्होंने रनिंग कमेंट्री के अंदाज में एक परिवार के बीच क्रिकेट मैच की दीवानगी को एक खास अंदाज में रखने की कोशिश की है। 'समय की शिला पर : सिलाव का खाजा' रिपोतार्ज का प्रकाशन 15,22,29 जुलाई, 1962 धर्मयुग के अंक में हुआ था। इस रिपोतार्ज में रेणु की राजगीर, नालंदा की यात्रा जीवंत आँखों देखा हाल जैसा लगता है। रिपोतार्ज में रेणु राजगीर यात्रा के बहाने भारत के प्राचीन इतिहास की यात्रा भी करा देते हैं। वे बताते हैं, "इतिहासकारों का कथन है, इस महाविहार में कम से कम एक बार तो जरुर आग लगी थी।..बख्तियार खिलजी की लूटने-जलाने की कहानी, मुस्लिम इतिहासकार मिनहास ने विस्तारपूर्वक कही है। पर एक बार हिन्दुओं के द्वारा भी 'अग्नि संयोग' की सूचना मिलती है-विद्याभूषण के 'हिस्ट्री ऑफ इंडियन लॉजिक' में।"15 भारतीय इतिहास की इस सूंदर अध्याय के विनष्ट में केवल बाहरी आक्रांताओं की भूमिका नहीं है, बल्कि हमारे आंतरिक आक्रान्ताओं की भी उतना ही भूमिका रहीं है। हिन्दू समाज में अपनी सामाजिक वर्चस्ववाद को स्थापित करने वाले तबके इसके बाहर अपने को रखकर नहीं देख सकते हैं। समय की शिला पर लिखा गया रिपोतार्ज पढ़ते हुए सिलाव की खाजा की तरह इतिहास की परतें खुलती चली जाती हैं, ऐसा लगता है कि हम बुद्ध के युग में पहुँच गए हैं। इस प्रकार भारत की सांस्कृतिक इतिहास को रेणु शानदार तरीके से पेश करते हैं। भारत के इतिहास में रेणु की खासा दिलचस्पी दिखाई पड़ती है। रेणु ने कई और दिलचस्प घटनाक्रम का ज़िक्र अपने रिपोतार्ज में करते हैं। इसी संदर्भ में उनके द्वारा देखे गए सपने भी अद्भुत हैं। रेणु दो सपने देखते हैं। पहले में नालंदा और उसकी बौद्ध परंपरा को हिन्दू धर्म दर्शन द्वारा विनष्ट किये जाने की कहानी है और दूसरे में मूर्तियों की चोरी चले जाने की दिलचस्प घटनाक्रम दिखाई पड़ता है। 6 दिसम्बर, 1963 को 'उर्वशी' बम्बई में 'एक फिल्मी यात्रा शीर्षक से रिपोतार्ज प्रकाशित हुआ था, यही से रेणु की फ़िल्मी यात्रा प्रारंभ हो जाती है। बाद में 'तीसरी कसम के सेट पर तीन दिन', 'स्मृति की एक रील' शीर्षक से 1964 में ही दो और रिपोतार्ज छपें। इनमें फिल्मी दुनिया की बारीकियों, उनकी भाषा-शब्दावली और आंतरिक राजनीति का पता चलता है। 'तीसरी कसम' का कुछ सीन रेणु के गांव में फिल्माया गया था जिसकी वजह से उनके इलाके के लोग फ़िल्म के साथ रेणु के सम्बंध को जानते थे। तीसरी कसम के रिलीज में हो रही देरी की वजह से रेणु के गांव और इलाके के लोग कई तरह के गप्प हाँकते हैं। इस फ़िल्म के संबंध में विभिन्न प्रसंगों को लेकर इतने तरह के प्रश्न रेणु से पूछे जाते थे कि रेणु को ऊब होने लगती थी। रेणु सवालों से बचने के लिए छुपकर पटना से गांव चले जातें हैं, लेकिन वहाँ के लोक में जितनी मुँह उतनी बातें। यह पूरा प्रसंग बहुत ही दिलचस्प है।
निष्कर्ष : रेणु के द्वारा लिखें गए रिपोतार्जों पर मो. दानिश का आंकलन बहुत सटीक है, वे कहते हैं "इन रिपोतार्ज़ों में आजादी में के बाद बिखर गए उस लोककल्याणकारी राज्य का ध्वंशावशेष भी दिखाई पड़ता है जिसका मूल उद्देश्य अंतिम आदमी अर्थात हाशिये के समाज का विकास करना था। दरअसल इन रिपोतार्ज को पढ़ते हुए भारतीय लोकतंत्र को धन तंत्र में और शोषणतंत्र में बदले जाने की प्रक्रिया समझ में आने लगती है।"16 रेणु और उनके सहित्य के बारे में शोध करने वाले शोधार्थी बताते हैं, रेणु मृत्यु के पहले रिपोतार्ज की दो पुस्तकें तैयार की थीं। उनकी भूमिका को लिखकर वे प्रकाशक भेजी थी जो डाक घर में कही खो गई। उनके देहावसान के बाद राजकमल प्रकाशन से 'नेपाली क्रांति कथा तथा ऋणजल-धनजल नामक दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं। ऐसा कहा जाता है कि रेणु ने कथा के अलावा भी कथाविहीन रिपोर्ताज बहुत सारे लिखे थे। लगभग सभी रेणु रचनावली के चौथे भाग में प्रकाशित हुए। हम सब जानते हैं कि रेणु के साहित्यिक प्रसिद्वि का आधार 'मैला आँचल' और 'परती परिककथा' है। ये दोनों ही कालजयी रचनायें हैं। तीसरी कसम, रसप्रिया, लाल पान के बेगम, सिरपंचमी का सगुन, तबे एकला चलो रे जैसी कहानियां एक खास तरह की शैली में लिखी गईं हैं। इन रचनाओं में रिपोतार्ज की बड़ी भूमिका बताई जाती है जो उस समय के अखबारों में छपते थे। आज वे उपलब्ध नहीं हैं। यदि वे सारे रिपोतार्ज उपलब्ध होते तो रेणु के साहित्यिक व्यक्तित्व की एक नई दुनिया बनती। आज जितने भी रिपोतार्ज उपलब्ध हैं, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि रेणु हिंदी के श्रेष्ठ रिपोतार्ज लेखकों में से एक हैं।
1. भारत यायावर : रेणु के जीवन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 2010, पृ. 34
2. रेणु रचनावली भाग 4, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, चौथा संस्करण, 2012
3. वहीं, पृ. 22
4. वहीं, पृ. 21
5. भारत यायावर : फणीश्वरनाथ रेणु अर्थात मृदंगिये का मर्म, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1991, पृ.119
6. वहीं, पृ. 24
7. वहीं, पृ. 24, 25
8. वहीं, पृ. 26
9. वहीं, पृ. 29
11. वहीं, पृ. 39
12. वहीं, पृ. 66
13. वहीं, पृ. 63
14. रेणु रचनावली भाग संख्या 5, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, चौथा संस्करण, 2012, पृ. 494, 495
15. रेणु रचनावली भाग संख्या-4, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, चौथा संस्करण, 2012, पृ.102
16. प्रज्ञा तिवारी : ‘ रेणु प्रसंग', पुस्तकनामा, गाजियाबाद, पृ. 22
शोधार्थी, हिन्दी
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अरमान अंसारी
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,
sjparman@gmail.com
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)