- डॉ. मीना
शोध सार : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियाँ हिन्दी कहानी परंपरा में अपनी एक अलग और नई पहचान रखती हैं।अलग इसलिए कि ये प्रेमचंद वाली कहानियों से थोड़ी भिन्न हैं,कुछ हट कर हैं और नई इसलिए कि ये समकालीन कथाकारों को चुनौती देती हैं। इनकी कहानियाँ पक्की हुई हैं। उनमें जीवन की बारीकियाँ हैं जो जीवन से सीधे साक्षात्कार करती हैं। मनुष्य जीवन के संघर्ष, सुख दुख, आशा निराशा, आपदा – विपदा, राग – विराग, प्रेम करूणा, ह्रास –उल्लास, पीड़ा सभी का निचोड़ अपनी कहानियों के माध्यम से व्यक्त किया। रसप्रिया, आत्मसाक्षी, विघटन के क्षण, उच्चाटन आदि कहानियों में बदलते ग्रामीण जीवन के यथार्थ को उद्घाटित करने के साथ साथ मनुष्य के हाहाकार को भी व्यंजित किया। उनकी कहानियों का परिवेश ग्रामीण और शहरी जीवन को बयां करता है। ये कथाएं इकहरी न होकर उपकथाओं का गुच्छा है। मुख्य पात्रों के साथ दूसरे पात्रों के जीवन को भी उजागर किया गया है। वास्तव में इनकी कहानियों में आम इंसान की जिजीविषा, विश्वास, साहस के विविध रंग देखने को मिलते हैं कि किस प्रकार वे कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने आप को खड़ा रखते हैं नई राह बनाते हैं इसे बखूबी रेणु जी ने दर्शाया है। रेणु के चरित्र जीते जागते रूप में आस-पास के ही हैं। जो जीवन उन्होंने देखा, भोगा, सहा उसी का अंकन चरित्रों के माध्यम से हुआ।
बीज शब्द : मूर्धन्य, जीवट, छवियां, परिवेश, ठोस, संपृक्ति, साहचर्य, वैविध्यमयी, संदर्भित, रागात्मकता, जिजीविषा, नकारात्मकता, प्राकृतिक आपदा, मूर्त, झकझोर, विसंगतियाँ, समसामयिक, विघटन, परिणति।
मूल आलेख : हिन्दी साहित्य के इतिहास में कथा साहित्य ने अपनी एक अलग उपलब्धि हासिल की है। कथा साहित्य द्वारा ही हिन्दी की गद्य विधा को समृद्धि मिली हैं। हिन्दी कथा साहित्य को प्रारंभिक अवस्था से लेकर आज तक विभिन्न साहित्यकारों का श्रेय मिला है भारतेन्दु और प्रेमचंद तो अपने युग का प्रतिनिधित्व करते ही थे। फणीश्वरनाथ रेणु भी उस कड़ी के मूर्धन्य साहित्यकार रहे हैं जिनके कथाकार व्यक्तित्व ने हिन्दी साहित्य में अपना अलग मुकाम हासिल किया है।
फणीश्वरनाथ रेणु उसी दौर के रचनाकार हैं जब नई कहानी आंदोलन का आरंभ हुआ। हिन्दी में नई कहानी आंदोलन 1956 के आस पास जोर पकड़ता है और उनका लेखन 1944 से ही शुरू हो जाता है। उनका प्रथम कहानी संग्रह 'ठुमरी'
(1959) है। 'ठुमरी' के प्रकाशन से पहले ही उनके दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। उपन्यासों की तरह उनकी कहानियाँ भी पाठकों में बराबर खूब लोकप्रिय रही। उनकी लिखी अनेकों कहानियों हैं जो उन्हें लोकप्रिय बनाती हैं। ''इन कहानियों में मुख्यत: ठेस, संवरिया, लाल पान की बेगम, मारे गए गुलफाम, पंचलाईट और रसप्रिया आदि बहुत अधिक प्रसिद्ध हैं। 1972 में रचित 'भित्ती चित्र की मयूरी ' उनकी अंतिम कहानी थी।''1 'मारे गए गुलफाम' पर बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में 'तीसरी कसम' नाम से फिल्म बनाई, जिसके निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे। इस फिल्म ने तो रेणु जी को अमर ही कर दिया।
उनकी सोच अन्य कहानीकारों से अलग रही। उन्होंने अपनी कहानियों की जो जमीन तैयार की वह जमीन ग्रामीण है। ''वहाँ के जीवन को उन्होंने गहराई से जिया और उसके रूप-रंग, गंध, स्पर्श, सुख दुख आदि का गहरा अनुभव प्राप्त किया।''2 उनके साहित्यिक जीवन की पहली कहानी 1944 में 'विश्व मित्र' पत्रिका में 'बट बाबा' के नाम से प्रकाशित हुई। वैसे उन्होंने साहित्य लेखन तो बहुत पहले से ही शुरू कर दिया था और उनकी कहानियाँ भी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लग गई थी। परंतु साहित्यकारों का ध्यान रेणु की तरफ तब खींचा जब उनका उपन्यास 'मैला आँचल' पाठकों में अपनी धूम मचाने लगा।
देखा जाए तो उन्होंने 60 से अधिक कहानियाँ लिखी। जो ठुमरी, आदिम रात्रि की महक, अग्निखोर संग्रहों में संकलित हैं। इन तीनों संग्रहों की कहानियाँ अपनी अलग पहचान के साथ पाठकों के समक्ष आती हैं। ''रेणु द्वारा लिखी गई समस्त उपलब्ध कहानियों को भारत यायावर जी ने रेणु रचनावली के खंड एक में संकलित कर दिया गया है। इस प्रथम खंड में रेणु जी की 63 कहानियाँ संगृहीत हैं।''3
रेणु के साहित्य को पढ़ने से पता चलता है कि सामान्य गांवों की
सामान्य समस्याओं के विधान के लिए सामान्य पात्रों की सृष्टि न करके बल्कि देखे, सुने, जिये, भोगे परिवेश से पात्रों को चुना है। इन जीते जागते पात्रों को फिर कल्पना से सृजनात्मक रूप दिया। ऐसा करने से पात्र जीवंत लगते हैं और उनकी कहानी पढ़ ही नहीं बल्कि जी रहे होते हैं। पात्रों से प्रत्यक्ष रू-ब-रू हो रहे हैं उन्हें प्रामाणिक रूप से अपने आस पास महसूस कर रहे होते हैं। ये पात्र बेशक परिवेश से उठाए गए हैं परंतु ऐसा भी नहीं है कि जो कुछ जितना कुछ देखा उठाया लिया। पात्रों के अपने अलग अलग किरदारों की कुछ विशेषताएं भी हैं जो कहानी में जान डाल देती हैं। एक कथाकार के रूप में उनका समय वही रहा है जब बड़े बड़े कहानीकार अपनी जगह पाठकों में बना चुके थे। इन्हीं कहानिकारों के बीच अपनी एक अलग पहचान बनाना आसान नहीं था। ''वे दूर – देहात के शोषण – चक्र में पिसते सामान्य जन के संघर्षों – संकल्पों -स्वप्नों को शब्द देकर उसके जीवट तथा अपराजेय आस्था की कथाएं अपनेपन के साथ प्रस्तुत कर रहे थे।''4
रेणु की कहानियाँ ग्रामीण परिवेश की ऐसी कहानियाँ हैं जो अञ्चल विशेष के जीवन यथार्थ के विविध रूपों की अभिव्यक्ति है। उन्होंने अपनी कहानियों में लोक भाषा,
लोक कथा लोक गीत, लोक परिवेश आदि के माध्यम से ग्राम जीवन की विविध छवियाँ नवीन परिस्थितियाँ और संवेदनाओं, नवीन समस्याओं और संघर्षों के चित्रों का यथार्थ जगत् प्रस्तुत किया है। कथाकार जीवन के यथार्थ को देखता है। उन यथार्थों को देखना, पहचानना, पकड़पाना फिर चित्रित करना आसान नहीं। ऐसा भी होता है कि यथार्थ की भिन्नता लेखकों के भीतर उनकी कृतियों में अलग अलग रंग पाती हैं और जब वह व्यक्त होती हैं तो उसकी अभिव्यक्ति में जो आयाम सहायक होते हैं उसमें कहानी निखर उठती है।
वैसे तो हर कहानीकार के अपने अपने परिवेश हैं उन परिवेशों के अलग अलग अनुभव हैं यही कारण है कि हर कहानीकार की जीवंत कहानी का कथ्य अलग होता है क्योंकि हर कहानी के यथार्थ जगत का स्वरूप थोड़ा भिन्न होता है। रेणु की अधिकांश कहानियाँ यद्यपि प्रेम संदर्भित हैं किन्तु उन सबका कथ्य एक नहीं है। ''लेखक भिन्न भिन्न कोणों को केंद्र में लेता है। 'रसप्रिया' और 'तीसरी कसम' का कथ्य अलग अलग है जबकि मूल संवेदना प्रेम ही है। ''5 गाँवों के पारस्परिक सम्बंधों, उनके मूल्यों, नयी संवेदनाओं, प्रकृति, पर्वों के प्रति लगाव, गाँव और शहर के जीवन की भिन्नता, रूढ़ियाँ, नई सोच आदि इन सबका मिला जुला चित्रण ग्राम – धर्मी कहानियों में मिलता है। यही कहानियाँ हमें यथार्थ जगत की पहचान करवाती हैं। ये कहानियाँ आधुनिक मनुष्य की ठोस परिस्थिति उसकी नियति, चित्रण, संघर्ष को बयां करती हुई कहानी को गहराई से जमीन से जोड़ती है। इन ग्राम कथाकारों में रेणु की दृष्टि और अनुभव विशिष्ट तो हैं ही उनका एक अलग अंदाज भी है। अपनी धरती के साथ जितनी गहरी संपृक्ति रेणु में है उतनी किसी में नहीं। ''रेणु जी की सामर्थ्य तो एक सामान्य ग्रामीणजन को नई दृष्टि से यथार्थ जगत पर उतारना है। सुने सुनाए यथार्थ के बर -अक्स स्वत: देखे भाले अनुभवजन्य यथार्थ को सामने रख, उसके प्रति दृष्टि बदलने में हैं। ''6
''वे अपनी धरती के मानवीय समाज को पहचानते हैं उसके रूप -रंग, गंध – स्पर्श के हर छोटे से छोटे कण का अनुभव करते हैं और वे मनुष्य और सृष्टि के साहचर्य से उत्पन्न होने वाले यथार्थ का एक अनोखा स्वाद अपनी कहानियों में उभारते हैं।'' 7 इस प्रकार रेणु की कहानियाँ वैशिष्ट्य और उपलब्धि दोनों ही दृष्टियों से ग्राम कथा के यथार्थ जगत् को प्रकट करने में सफल रही हैं। वैसे तो रेणु की कहानियों का विभाजन नहीं किया जा सकता लेकिन उनकी कहानियों को पढ़कर कहा जा सकता है कि उनकी कुछ कहानियाँ प्रेम की है तो कुछ में प्रेम के साथ सामाजिक यथार्थ भी है और कुछ कहानियों का केंद्र बिन्दु प्रेम और सेक्स भी है। वास्तविकता तो यह है कि रेणु के कथा साहित्य में लोक जीवन की वैविध्यमयी छवियाँ अंकित हैं और उनका यह लोक गाँव से लेकर शहर तक फैला हुआ है और कहीं भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं होता।
उनका गाँव के साथ जो लगाव है वो अंतर्मन को झकझोर देने वाला है। कुछ ऐसा भी है जो हृदय में बैठ गया है। “एक कटु सत्य जिसे वे बार बार दिखाना चाहते हैं। जो छुपा हुआ उसे उजागर करना चाहते हैं। वे एक बेहतर समाज की कल्पना को मूर्त रूप देना चाहते हैं। लोग हैं या होंगें उनके बीच की ईर्ष्या, द्वेष, लालच, प्रतिस्पर्धा, कहा सुनी सब कुछ होगा ही, पर वह किस स्तर तक का होगा। 'लाल पान की बेगम' जैसी कहानियाँ राह दिखाती हैं।'' 8 उनकी कहानियों की खास बात यही है कि उनमें जाति, धर्म गाँव, टोला, मोहल्ला, स्त्री पुरुष, अमीर -गरीब तमाम तरह के भेदों के बावजूद समाज में एक रागात्मकता देखने को मिलती है।
उनकी आरंभिक कहानियों के नायक बिल्कुल साधारण है,
आमजन है, कोई लाग लपेट नहीं। ''उनका साधारण मनुष्य 'सांस्कृतिक चेतना' से लैस है। उसमें साधारण मनुष्य वाली अच्छाइयां, बुराइयां, गुण और अवगुण है। वे गरीबी, अकाल, बीमारी, प्राकृतिक आपदाओं से लड़ते, संघर्ष करते हैं। वे मर भी जाते हैं लेकिन हार नहीं मानते।'' 9 समाज में इनकी कोई बड़ी हैसियत नहीं। हां, उनकी कुछ दुर्बलताएं जरूर हैं या यूँ कह लीजिए कि उनके अंदर कुछ ऐसा है जो उनके किरदार को महान बना देता है और तमाम किस्म की नकारात्मक चीजों के होते हुए भी वे अपनी संपूर्णता में महान से नजर आते हैं।
रेणु जी की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि वो नकारात्मकता में से सकारात्मकता को खोज लेते हैं। उनके नायकों का कोई अस्तित्व भी नहीं है पर उनकी छोटी से छोटी बात को पकड़ लेते हैं नजरंदाज नहीं करते। बस इन्हीं बातों का ध्यान रखते थे रेणु और पात्रों का कद ऊँचा हो जाता था। यही तीखी नजर थी उनकी जो उस ऊंचाई को खींच कर हमारी नज़रों में चढ़ा देती है। वास्तव में इनकी कहानियों में आम इंसान की जिजीविषा, विश्वास, साहस के विविध रंग देखने को मिलते हैं कि किस प्रकार वे कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने आप को खड़ा रखते हैं नई राह बना लेते हैंइसे बखूबी रेणु जी ने दर्शाया है। स्त्री शक्ति की महिमा का आँकलन करते भी नजर आते हैं कि जहाँ पुरुष का सामर्थ्य नहीं रहता वहाँ वह कोई न कोई जुगाड़ कर ही लेती है। पुरुष का साथ न होने पर भी वह अपनी तर्क युक्त बुद्धि और साहस से उसमें नवीन विचारों को उत्साह के साथ भर देती है। 'नए हौसले' कहानी को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है।
'लफड़ा' कहानी के केंद्र में बंबईया होटल है और उसके मध्यवर्गीय समाज का यथार्थ चित्रण, यौन संबंधों की विसंगतियों को भी उद्घाटित किया गया है। 'संवरिया' कहानी पारिवारिक है। टूटे सपने, खानदानी व्यक्ति का आत्मगौरव और बेबसी की कहानी है। 'ठेस' कहानी की समस्यामूलत: मनोवैज्ञानिक है जिसे सामाजिक संदर्भों में चरितार्थ किया गया है। इसमें व्यक्ति के स्वाभिमान की उग्रता और तरलता का अद्भुत सामंजस्य लक्षित होता है। उसके स्वाभिमान की निर्मिति में उसका अपना स्वभाव तो है ही, साथ -ही -साथ उसकी पारिवारिक स्थितियाँ भी है। 'नित्य लीला' अलग ढंग की कहानी है। इसमें समाज की समसामयिक समस्याएं नहीं है पौराणिक संदर्भ को लिया गया है। 'अकल और भैंस' कहानी में कृषि क्रांति की किताबी रूप की विसंगति का उद्घाटन किया गया है। रेणु की कहानियों के अपने निजी अनुभव हैं। रेणु ग्राम जीवन के विविध अनुभवों के धनी हैं। उन्होंने कहानियों के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं के विविध रूपों को और प्राकृतिक सौन्दर्य को उभारा है। ''इस प्रकार रेणु ने मानवीय और प्राकृतिक दोनों ही आयामों के साहचर्य और तनाव से निर्मित ग्राम – जीवन-यथार्थ की गहरी पहचान की है।'' 10
'रसप्रिया' बेहतरीन कहानियों में से एक है उनकी कहानियों को पढ़कर ऐसा लगता है कि वे रसप्रिय लेखक ही हैं। उनकी कथाओं में रसों की विभिन्नता है जो वो पाठकों को देते हैं। ''रेणु विखंडन के नहीं, मंडन के कथाकार हैं। विघटन के नहीं संघटन के रचनाकार हैं। ''11 उनकी कहानियों में दिखावा नहीं। पारिवारिक कहानियाँ हैं जहां सामाजिक संबंधों के महत्व को उजागर किया गया है। मानवीय संबंधों के बिखरने बनने और फिर निखरने का यथार्थ रूप उनके यहाँ दिखाई देता है।
रेणु के चरित्र जीते जागते रूप में आस-पास के ही हैं। जो जीवन उन्होंने देखा,
भोगा, सहा उसी का अंकन चरित्रों के माध्यम से हुआ। ये चरित्र न तो काल्पनिक हैं और न ही सामाजिक अनुभवों से सींचे गए हैं। बल्कि अनुभवों तक भी सीमित नहीं रहते, एक वैचारिक परिणति भी प्राप्त कर लेते हैं। रेणु एक सच्चे कलाकार भी हैं क्योंकि वो एक कलाकार की तरह भी सोचते है और जानते है कि चरित्र न तो एकदम निजी होते हैं, न एकदम सामाजिक। वे दोनों के संघर्षों का परिणाम है। ''प्रसिद्ध साहित्यकार नामवर सिंह कहते थे कि रेणु की कलम साधारण कलम नहीं है। जब वे लिखते हैं तो उनकी कलम कैमरा बन जाती है और तब वे एक एक भाव को कागज पर चित्र की भांति उकेर देते हैं। ''12
1 गोविंद प्रसाद शर्मा : पुस्तक संस्कृति (साहित्य और संस्कृति की द्विमासिकी- ई पत्रिका),– नवंबर -दिसम्बर 2020, पृ 41
5 अंजली तिवारी : फणीश्वर नाथ रेणु का साहित्य, विमला बुक्स, 2010, पृ -105
गार्गी कॉलेज, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
meenahindi101@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)