- गुरजीत कौर
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बीज शब्द : आँचलिकता, संस्कृति, परम्परा, गाँव, परिवेश, आत्मीयता, शीतलपाटी, बैलगाड़ी, नौटंकी, लोकजीवन, यथार्थ।
मूल आलेख : हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध आँचलिक साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले के बहुत पिछड़े और शोषित गाँव औराही हिंगना में हुआ। बचपन में इनका नाम फणीश्वरनाथ मंडल था। फणीश्वरनाथ रेणु नाम इनके पिता जी के मित्र श्री कृष्णप्रसाद जी कोईराला द्वारा दिया गया। साहित्यिक क्षेत्र में रेणु आँचलिक साहित्कार के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनके कथा-साहित्य की कथा आँचलिकता से ओत-प्रोत है। आँचलिक कथाकार के रूप में उन्होंने हिन्दी गद्य साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। रेणु के कथा लेखन के ती न पड़ाव हैं। इनके लेखन का आरम्भिक दौर सन 1944 से 1953 तक का था तथा सन 1953 से लेकर 1959 तक की अवधि का सुनहला काल या उत्कर्ष काल माना जाता है। 1960 के बाद की रचनाओं का अन्तिम दौर था। रेणु के उपन्यास मैला आँचल (1954),
परती परिकथा (1957),
जुलूस (1966),
दीर्घतपा (1964),
कितने चैराहे (1966) व पलटू बाबू रोड (1979) में ग्रामीण परिवेश और संस्कृति का चित्रण देखने को मिलता है। मैला आँचल इन सभी उपन्यासों में से श्रेष्ठ और देहात की आत्मा है।
रेणु और आँचलिकता- फणीश्वरनाथ रेणु का कथा-साहित्य बिहार के गाँवों के परिवेश से जुड़ा हुआ है। जब लेखक किसी प्रांत, गाँव, अँचल, कस्बे, मुहल्ले के वातावरण, वहाँ के रहन-सहन, लोक व्यवहार, लोक संस्कृति, लोकभाषा, लोक धर्म और लोक दृष्टिकोण का वर्णन करता है तो उस लेखक की रचना आँचलिकता से ओत-प्रोत होती है। फणीश्वरनाथ रेणु के कथा-साहित्य पर आँचलिकता का रंग बहुत गहरा चढ़ा हुआ है। आँचलिक कथा किसी विशेष प्रांत के लोगों अर्थात् जनपद की कथा होती है जो वहां की परम्पराओं और रुढ़ियों से हमें अवगत करवाती है।
मैला आँचल उपन्यास में अँचल विशेष ही नायक है जो अपने अस्तित्व को कायम करने के लिए संघर्षरत है। इस उपन्यास की विशेषता है कि पाठक खुद को भी इस का पात्र महसूस करने लगता है। डा. शिवकुमार मिश्र अपने निबंध ’प्रेमचन्द की परम्परा और फणीश्वरनाथ रेणु’ में लिखते हैं,
’’रेणु हिन्दी के उन कथाकारों में हैं, जिन्होंने आधुनिकतावादी फैशन की परवाह न करते हुए, कथा-साहित्य को एक लम्बे अर्से के बाद प्रेमचंद की उस परम्परा से फिर जोड़ा जो बीच में मध्यवर्गीय नागरिक जीवन की केंद्रीयता के कारण भारत की आत्मा से कट गई थी।’’ प्रेमचन्द कृत ’गोदान’ के बाद, फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास को सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है। रेणु ने इस उपन्यास की भूमिका में खुद ही इसे आँचलिक उपन्यास बताया है। रेणु ने मेरीगंज के अँचल में पलते बढ़ते लोगों के ग्रामीण परिवेश को अभिव्यक्त किया है। उन्होंने मैला आँचल की भूमिका में कहा है, ’’इसमें फूल भी हैं शूल भी, धूल भी है गुलाल भी, कीचड़ भी है चन्दन भी, सुन्दरता भी है कुरुपता भी-मैं किसी से भी दामन बचाकर निकल नहीं पाया।’’ इस उपन्यास में दो खण्ड हैं। पहले खण्ड में चवालीस अध्याय हैं, दूसरे खण्ड में बाईस अध्याय हैं और इस उपन्यास में 254 पात्रों का वर्णन किया गया है। प्रत्येक पात्र यथार्थ को ब्यान करता हुआ सामाजिक समस्याओं से अवगत करवाता है। द्वन्दात्मक-भौतिकवाद को मैला आँचल के पहले खण्ड के सोलहवें अध्याय में इस प्रकार व्यक्त किया गया है,
’’लाल झण्डा! उठ मेहनतकश
अब होश में आ हाथ में झण्डा लाल उठा,
जुल्म का नामोनिशान मिटा
उठ होश में आ बेदार हो जा।’’
सामाजिक अस्मिता की कथा ब्यान करते हुए इस उपन्यास में लोगों को प्रेरित करने वाले तथ्य और गुलामी के चिह्नों को ही मिटाने की कोशिश की है। इसमें जागृति का संदेश दिया गया है। निःसंदेह फणीश्वरनाथ रेणु के ’मैला आँचल’ को उत्कृष्ट रचना कह सकते हैं। गाँवों की संस्कृति का चित्रण डॉ. प्रशान्त ने किया है। उस पर मेरीगंज की मिट्टी ने जादू कर दिया है। उसे लगने लगता है कि वह युगों से इस धरती को जानता है,
वह मिट्टी उसकी अपनी है। नदी-तालाब, पेड़-पौधे, जंगल-बेले, जीव-जन्तु, कीड़े-मकोड़े आदि सभी में वह गुण देखता है। जहाँ तक कि वहाँ के फूलों के रंगों ने भी उस पर जादू कर दिया है। लेकिन आश्चर्यचकित वह तब होता है, जब वह वहाँ की गरीबी और बेबसी को देखता है। क्षुधितों के सन्तोष और अनुशासन को देखता है। लेखक ने गाँवों की भूखमरी बेबसी की ओर संकेत किया है। गरीबी और जहालत को मलेरिया जैसी भयानक बीमारी के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। डॉ. नामवर सिंह ने अपने लेख में ग्रामीण अँचलों की कहानी के संबंध में लिखा है, ``निःसंदेह इन (विभिन्न अंचलों या जन-पदों के लोक-जीवन को लेकर लिखी गई) कहानियों में ताजगी है और प्रेमचन्द की गाँव पर लिखी कहानियों से एक हद तक नवीनता भी। लेकिन युवक कहाकारों के हाथ पड़कर ये जनपदीय कहानियां कभी-कभी गहरा रूमानी रंग ले लेती हैं और देखा-देखी लिखने वालों के अनसधे हाथों में फैशन का रूप धारण कर रही है। इन किशोर कहानीकारों के पास एक ही चीज की कमी है और वह है, पैनी सामाजिक दृष्टि। लोक जीवन का मुग्ध चित्रण अपने आप में कोई बहुत ऊँची चीज नहीं है और न साध्य ही। इस सामग्री के आधार पर जागरूक पाठकों का मन ज्य़ादा देर तक बहलाया नहीं जा सकता। लोक जीवन के अन्तर्वैयक्तिक सामाजिक सम्बन्धों की समझ जैसे-तैसे बढ़ती जाएगी, ये कहानीकार भी प्रौढ़ आंचलिक कहानियां दे सकेंगे। फणीश्वरनाथ रेणु, मार्कण्डेय, केशव मिश्र, शिवप्रसाद सिंह की कहानियों से इस दिशा में आशा बंधती दिखाई दे रही है।’’ रेणु ने अपने कथा-साहित्य में परंपराओं के साथ-साथ आधुनिकता को भी अभिव्यक्त किया है।
रेणु की पहली कहानी बट बाबा साप्ताहिक पत्रिका विश्वामित्र में 1944 ई. में प्रकाशित हुई। आँचलिकता को समेटे हुए यह कहानी गाँवों में बसे भारत के दर्शन करवाती है। यहीं से आरम्भ होता है फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य की आँचलिकता का सफर। ’बट बाबा’ कहानी बरगद के पेड़ और गाँव के इर्द-गिर्द घूमती है। इस कहानी में पेड़ ही नायक है। रेणु ने खुद बताया है कि हिमालय और भारतवर्ष के संबंध के समान बरगद के पेड़ और गाँव का संबंध है। लेखक की दादी कहती है, ’’बटबाबा की महिमा लिखकर तुमने समझो कि अपने ’पुरखों’ को पानी दिया है। तुमने सारे गाँव के लोगों की ओर से बट बाबा की समाधि पर पहला फूल चढ़ाया है। बाबा की कृपा बरसती रहे सदा.............।’’ इस कहानी में निरधन साहू एक लम्बी बीमारी का शिकार है, उसको जानलेवा खाँसी होती है, शरीर उसका कंकाल हो जाता है। जब उसको पता चलता है कि बड़का बाबा सूख गया है तो वह कहता है कि अब वह नहीं बचेगा। रेणु ने इस कहानी में ग्रामीण परिवेश को चित्रित करते हुए बताया है कि कितनी आत्मीयता से रहते हैं गाँवों के लोग। अपने गाँव के गली, मुहल्ले, पेड़, लोग सब उनके अपने होते हैं।
’ठेस’ कहानी में आँचलिकता का पुट बड़ा गहरा नज़र आता है। रेणु की ’ठेस’ कहानी में मुख्य पात्र सिरचन चाहे सारे गाँव के द्वारा बेगार समझा जाता है, बल्कि वह सारे गाँव की संस्कृति को हमारे सामने लाकर रख देता है। सिरचन एक कारीगर तो है ही, इसके साथ ही मोथी घास और पटेर की रंगीन शीतलपाटी, बांस की तीखियों की झिलमिलाती चिक, सतरंगे डोर के मोढ़े, हलवाहों के लिए ताल के सूखे पत्तों की छतरी-टोपी आदि के काम सिरचन के सिवा गाँव में कोई नहीं करता। वह इतना भला आदमी है कि अगर कोई उसे भरपेट खिला दे, काम खत्म होने पर एकाध पुराने वस्त्र दे दे और पैसे नहीं भी दे तो वह कुछ नहीं बोलता। मानू की शादी में तीन जोड़ी फैशनेबल चिक और पटेर की दो शीतलपाटियाँ देनी होती हैं तो सिरचन को मोटर छाप वाली धोती का झाँसा देकर काम पर तैनात कर दिया जाता है। लेकिन सिरचन मँझली भाभी को कलेवा में मिठाई न देने के कारण हँसी-मजाक में बातें कर देता है जिससे मँझली भाभी बुरा मान जाती है। माँ के कहने पर मंझली भाभी मुट्ठी-भर बुंदिया सूप में फेंककर चली जाती है जिससे सिरचन से रहा नहीं जाता वह कह उठता है, ’’मंझली बहुरानी अपने मैके से आई हुई मिठाई भी इसी तरह हाथ खोलकर बाँटती है क्या?’’ इस बात से मां तमककर सिरचन से कहती है कि तुम काम करने आए हो तो काम करो। बहुओं से बतकुट्टी करने की तुम्हें जरूरत नहीं है। इन सब बातों से वह अपनी छुरी, हंसिया आदि समेटकर, झोले में रखकर, टंगी हुई अधूरी चिक छोड़कर चला जाता है। लेखक के लाख मनाने पर भी वह नहीं आता। वह लेखक को देखते ही कहता है, ’’बबुआ जी! अब नहीं। कान पकड़ता हूँ, अब नहीं। ......मोहर छाप वाली धोती लेकर क्या करूँगा? कौन पहनेगा?.........ससुरी खुद मरी बेटे-बेटियों को ले गई अपने साथ। बबुआ जी, मेरी घरवाली जिन्दा रहती तो मैं ऐसी दुर्दशा भोगता, यह शीतलपाटी छूकर कहता हूँ, अब यह काम नहीं करूँगा। गाँव भर में तुम्हारी हवेली में मेरी कदर होती थी................अब क्या?’’ सिरचन की इन सब बातो से लेखक समझ जाता है कि एक कलाकार के मन में ठेस लगी है। ऐसा खुशमिजाज कलाकार क्या चाहता है? अच्छा व्यवहार ही तो चाहता है वह। हमें कलाकार को उचित मान-सम्मान देकर उसकी कदर बढ़ानी चाहिए।
लेखक के सारे परिवार को चिन्ता होने लगती है कि अब मानू अपने ससुराल शीतलपाटी नहीं ले जा सकती। बड़ी भाभी अधूरी चिक में रंगीन छींट की झालर लगाने लगती है। मन ही मन सारा परिवार सिरचन को कामचोर, चटोर कहता है। लेखक ने मानू का सामान स्टेशन पर मिलाते हुए अचानक देखा तो सिरचन पीठ पर लदे बोझ से मानू दीदी को बुला रहा होता है। खिड़की के पास खड़े होकर सिरचन हकलाते हुए कहता है, ’’यह मेरी ओर से है। सब चीज है दीदी। शीतलपाटी, चिक और एक जोड़ी आसनी कुश की।’’ यह सब देखकर मानू के आँसू नहीं रुकते। वह फूट-फूटकर रोने लगती है। लेखक सिरचन के दिए बण्डल को खोलकर देखता है कि इतनी अच्छी कारीगरी, लाज़वाब बारीकी, रंगीन सुतलियों के फन्दों का इतना सुन्दर काम! लेखक ने इतनी अच्छी कारीगरी पहले कभी नहीं देखी होती। लेखक फिर सोचता है कि कलाकार के दिल में लगी ठेस के बाद भी, क्या इतनी लाजवाब कारीगरी सामने आ सकती है? रेणु की प्रत्येक कहानी में हमें नया शिल्प नज़र आता है। डॉ. नामवर सिंह ने रेणु की कहानियों को ’मित्रित शिल्प की कहानियां’ कहा है। सामाजिक समस्याओं को इनकी कहानियाँ हमारे सामने लाकर खड़ी कर देती हैं। ज्योत्स्ना में 1965 में ’आजाद परिंदे’ कहानी छपी। इन समस्याओं से अनभिज्ञ जनता को जागरूक करने के लिए इस कहानी में गरीबी के कारण आवारा घूमते गरीब परिवारों के बच्चों की कथा कही गई है जिनके लिए गरीबी अभिशाप बन चुकी है। इसी गरीबी की समस्या के कारण ही वे पढ़ने से वंचित रह जाते हैं। रेणु ने गाँवों में बसी भारत की आत्मा के दर्शन तो करवाए ही हैं, इसके साथ ही सामाजिक समस्याओं का भी चित्रण किया है।
रेणु की ’तीसरी कसम’ कहानी नर्मदेश्वर प्रसाद के संपादन में ’अपरम्परा’ में प्रकाशित हुई। 1959 ई. में प्रकाशित ’ठुमरी’ नामक काव्य-संकलन में यह कहानी संग्रहित है। यह प्रसिद्ध कहानी प्रेम की पीड़ा की गहनता को व्यक्त करती है। हीरामन इस कहानी का प्रमुख पात्र है जो बैलगाड़ी वाला भोला-भाला युवक होता है। इस कहानी में वह तीन कसमें खाता है। पहले वह नेपाल से तस्करी का सामान ढोकर भारत में लाता है। एक बार किसी सेठ की कपड़े की गांठें पकड़ी जाती हैं तो वह रात को ही अपने बैलों को लेकर वहाँ से जान बचाकर भाग निकलता है। उस समय वह पहली कसम खाता है कि वह कभी तस्करी का सामान नहीं ढोयेगा। इसके बाद वह अपनी गाड़ी से बाँस ढोने का काम करने लगता है, तब एक दिन गाड़ी से बाँसों का एक हिस्सा आगे की तरफ और एक पीछे की तरफ निकला होता है, जिससे बैलगाड़ी एक बग्घी से टकरा जाती है। इस पर हीरामन को बग्घी वाले से बहुत कोड़े खाने पड़ते हैं। तब हीरामन दूसरी कसम खाता है कि वह कभी बाँस नहीं ढोयेगा। इसके बाद एक फारबिसगंज की नौटंकी में नाचने वाली हीराबाई हीरामन की गाड़ी में सवार हो जाती है और हीरामन का अपरिचित-सा संबंध उससे जुड़ जाता है। हीरामन आत्मकथात्मक शैली में अपने आप से बात करता है, ’’और इस बार यह जनानी सवारी औरत है या चम्पा का फूल, जब से गाड़ी में बैठी है, गाड़ी महमह महक रही है।’’ हीरामन मन ही मन हीराबाई को प्रेम करने लगता है, लेकिन उससे कुछ नहीं कहता।
कहानी के अन्त में हीराबाई जब हीरामन को छोड़कर जाती है तो हीरामन बहुत दुःखी होता है। वह आगे से तीसरी कसम खाता है कि कम्पनी की औरत को वह कभी अपनी गाड़ी में नहीं लादेगा। इस कहानी में पूर्णिया जिले के अंचल विशेष की भाषा का प्रयोग किया गया है। एक उदाहरण देखिए, ’’इस्स! मर्द और औरत के नाम में फर्क होता है।’’ फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी इस आँचलिक कहानी ’तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम’ में भावुक और संवेदनशील व्यक्ति के सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त किया है। रेणु की धर्मपत्नी लतिका ने अपने संस्मरण में उनके संबंध में लिखा है, ’’वे कहानी उपन्यास में वास्तविक व्यक्तियों को ही कहीं नाम बदलकर और कहीं बिना नाम बदले कथाबद्ध करते थे।’’ रेणु के कथा साहित्य में से उनका व्यक्तित्व झलकता है। उन्होंने अपने इर्द-गिर्द के लोंगो की वास्तविक घटनाओं का चित्रण किया है।
लाल पान की बेगमकहानी श्रीपतराय के संपादन में इलाहाबाद से प्रकाशित पत्रिका ष्कहानीष् के जनवरी अंक में सन 1957 में प्रकाशित हुई। इस कहानी में बिरजू की माँ एक स्वाभिमानी ग्रामीण नारी है जो नारी सशक्तिकरण का जीवन्त उदाहरण है। उसकी इच्छा होती है कि वो अपनी बैलगाड़ी पर बैठकर नाच देखने जाएगी। बिरजू का पिता गाड़ी लाने में बहुत देर लगा देता है जिससे लाल पान की बेगम का चाव ठंडा पड़ जाता है। लेकिन जैसे ही बिरजू का बाप बैलगाड़ी लेकर आ जाता है, वह जल्दी से सभी को अपने साथ चलने के लिए बुलावा भेजती है। वह आत्मसम्मानी नारी सभी को साथ लेकर चलने वाली है। लाल पान की बेगम के मन में भावनाए प्यारए विनम्रता और आशा है। गाँव की औरतों से मनमुटाव होने के बाद भी वह उनसे बड़ी विनम्रता से पेश आती है। उनको अपनी बैलगाड़ी पर बैठाकर मेला दिखाने के लिए ले जाती है। बिरजू का माँ-बाप आशावादी और सुधारवादी है। बिरजू की माँ हार न मानने वालों में से एक है। यह कहानी दलित वर्ग के संघर्ष की कथा व्यक्त करती है। मानवीय संवेगों को व्यक्त करती इस कहानी का एक उदाहरण देखिए, ``बिरजू को गोद में लेकर बैठी उसकी माँ की इच्छा हुई कि वह भी साथ.साथ गीत गायेए बिरजू की माँ ने जंगी की पतोहु की ओर देखाए धीरे.धीरे गुनगुना रही है वह भी। कितनी प्यारी पतोहु है।………..ण्ण्ठीक ही तो कहा है उसने।`` बिरजू की माँ बेगम है लाल पान की बेगम। यह तो कोई बुरी बात नहीं है। हाँए वह सचमुच लाल पान की बेगम है। इस कहानी में ग्रामीण संस्कृति का जीवन्त चित्र पाठक के सामने आ जाता है। मानवीय संवेदनाओं से भरी कहानी आत्मीयता के भाव को भी परिलक्षित करती है।
निष्कर्ष : फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य के गाँवों की अन्तरात्मा पूरे भारत की है। इनके साहित्य में प्रयुक्त मानवीयताए सहृदयता और काव्यात्मकता में परम्परा के साथ-साथ आधुनिकता भी समाहित है। इनके साहित्य में पुरानी और नई संस्कृति की परम्पराओं की टकराहट को दिखाया गया है। फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य में वर्णित मैला आँचल का मेरीगंज गाँव पूरे भारत के गाँवों का प्रतीक है। लेखक ने अपने साहित्य में आशावादी दृष्टिकोण अपनाया है। मैला आँचल उपन्यास में प्रशान्त बहुत आशावादी पात्र है। वह ग्रामवासिनी भारतमाता के आँचल तले प्रेम की खेती करना चाहता है। गाँव के लोगों के मुरझाये होठों पर मुस्कुराहट लाना चाहता है। वह उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित करना चाहता है। डॉ. रामदरश मिश्र ने रेणु की कहानियों के संबंध में कहा है, ``ग्राम परिवेश और अनुभव की प्रामाणिकता आपस में जुड़े हुए पहलू हैं।`` इस प्रकार कहा जा सकता है कि फणीश्वरनाथ रेणु का कथा.साहित्य भारत की सांस्कृतिक चेतना का प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब है।
1. शिवकुमार मिश्र : फणीश्वरनाथ रेणु की श्रेष्ठ कहानियाँ, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, पाँचवा संस्करण, 2005, भूमिका से
2. फणीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, छठा संस्करण, 1969, भूमिका से
3. फणीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, छठा प्रकाशन, 1969, पृ. 95
5. फणीश्वरनाथ रेणु : बट बाबा, विश्वमित्र पत्रिका ( साप्ताहिक ), कोलकाता, 1944
6. फणीश्वरनाथ रेणु : ठुमरी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2011, पृ. 67
13. फणीश्वरनाथ रेणु : मेरी प्रिय कहानियाँ, राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली, संस्करण 2015, पृ. 56
सहायक आचार्य, हिंदी, गुरुनानक कॉलेज, Jahkhal-Bareta Road, Budhlada
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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