शोध आलेख : मैला आँचल उपन्यास में चित्रित लोकगीत / डॉ. प्रकाश चंद

मैला आँचल  उपन्यास में चित्रित लोकगीत
- डॉ. प्रकाश चंद

शोध सार : हिंदी उपन्यासों में फणीश्वरनाथ रेणु का योगदान विशेष रूप से क्षेत्र विशेष की लोक संस्कृति को प्रस्तुत करना रहा है। इनके प्रसिद्ध मैला आंचल उपन्यास में बिहार के पूर्णिया क्षेत्र विशेष के जन जीवन को यथार्थ की भूमि पर लाया गया है। लेखक ने उपन्यास में जहाँ सम्भव हुआ, वहाँ पर लोक गीतों के सहारे जन साधारण के भावों को अभिव्यक्ति दी है। विभिन्न प्रकार के विचारों वाले लोगों में धार्मिक लोकगीत, राजनैतिक लोकगीत ऋतुओं संबंधी लोकगीत अधिक प्रचलित है। इन गीतों में यहाँ की स्थानीय बोलियों का समाहार भी दृष्टिगोचर हुआ है। आँचलिक उपन्यासों में लोक साहित्य का समाहार अनायास ही प्रयुक्त हो जाता है। आज के संदर्भ में जो ग्राम गीत है, उनका संरक्षण करना आवश्यक हो गया है, आज जो भी फिल्म जगत् में गीतों की लय है, उसमें ग्राम गीतों की भी प्रचुरता है। ये गीत उस आंचल विशेष के बहुरंगी जन जीवन को प्रस्तुत करते हैं।

बीज शब्द : आंचलिक, सोहर, (जन्मगीत) समादाउन (मरण गीत), कजरी (वर्षा ॠतु गीत), लोक धुन (स्थानीय वाद्य यंत्रों की थाप) लोरिक,नैसर्गिक,खंजड़ी,मुरली,चक्की,पुरइन (कमल)

मूल आलेख : साहित्य वही है जो सही मायने में जन विशेष से लेकर जन साधारण को भी अपने दायरे में लेकर चलेl  साहित्य जनता की आवाज़ होती है, लेकिन उत्तम साहित्य वही माना जाता है; जो यथार्थ के साथ चले।मैला आंचल उपन्यास भी इसी प्रकार का उपन्यास है, जिसमें उपन्यासकार ने ऐसे क्षेत्र विशेष को चुना, जो अपनी आंचलिक विशेषता के लिए जाना जाता है। रेणु को जितनी ख्याति हिन्दी साहित्य में अपने उपन्यास मैला आंचल से मिली, उसकी मिसाल दुर्लभ है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातों-रात हिन्दी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। कुछ आलोचकों ने इसे गोदान के बाद हिन्दी का दूसरा सर्वश्रेष्ट उपन्यास घोषित करने में देर नहीं की।

फणीश्वरनाथ रेणुने 1954 . को 'मैला आँचल', 1957 को परती परीकथा’, 1964 को दीर्घतपा’,1966 को कितने चौराहे’,1972 को कलंक मुक्तिऔर 1979 को पलटू बाबू रोडआदि उपन्यासोंका सृजन किया। इसके अतिरिक्त इन्होंने हिन्दी कहानी अग्निखोर’, अच्छे आदमी आदि कहानी संग्रह भी लिखे। रेणुने अपने उपन्यासों में आंचलिक जीवन की हर धुन, गंध, लय, ताल, सुर, सुन्दरता और कुरूपता को शब्दों में बाँधने की कोशिश की है। फणीश्वरनाथ रेणु (मैला आंचल के प्रथम संस्करण की भूमिका पटना-9 अगस्त, 1954 .) में लिखते हैं, “इसमें फूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।1फणीश्वरनाथ रेणु का कथन स्पष्ट करता है कि आंचल में जो भी उचित-अनुचित विशेषताऐं होती है, वे सामने ही जाती हैं| मेरीगंज गांव का दृश्य उपन्यासकार इस प्रकार प्रस्तुत करता है, “ऐसा ही एक गांव है मेरीगंज।  रौतहट स्टेशन से सात कोस पूरब, बूढ़ी कोशी को पार करके जाना होता है, बूढ़ी कोशी के किनारे-किनारे बहुत दूर तक ताड़ और खजूर के पेड़ों से भरा हुआ जंगल है। इस आंचल के लोग इसे नवाबी तड़बन्नाकह्ते हैं।2कोसी नदी रौतहट स्टेशन के आस-पासमेरीगंज गांव का परिचय रेणु जी पाठकों को करवाते हैं।

लोकगीतों के विषय में लोक साहित्यकार विद्या चौहन कहती है, “लोकगीत मानव हृदय की नैसर्गिक अभिव्यक्ति है, जिसमें भाव, भाषा और छन्द की नियमता से मुक्त रह कर स्वछन्द रूप से नि:सृत होने लगते है।3 कह सकते है कि स्वछंद रूप से हर्ष और शोक में मन के जो उद्गार गेयात्मक रूप से अभिव्यक्ति पाते हैं, उन्हें लोकगीत कह्ते हैं।

लोकगीत रेणु की आँचलिकता के असाधारण आयम है। ये कथा और चरित्र में स्थानीय रंगत भरते हैं। उनके श्रोत और उद्देश्य को लेकर कुछ दिलचस्प सवाल खड़े होते हैं। रेणु के द्वारा प्रयुक्तलोकगीत प्राय: मिथिला के लोगों की मौखिक-वाचिक परम्परा के अंग है। वे एक मुँह से दूसरे मुँह तक जमाने से चले रहे हैं। रेणु ने मैला आंचल में राजनैतिक, सामाजिक संदर्भ में विद्यापति और कबीर के लोक प्रचलित गीतोंऔर फिल्मी गीतों का उपयोग किया है। मैला आंचल में ही बीस मैथिली गीत रखे गए हैं। जैसे सोहर जन्म गीत, समदाउन गीत, कजरी गीत तथा बरगमनी आदि। उन्होंने होली गीत और जोगीरा का प्रयोग विशेष प्रयोजन से किया है। होली सामाजिक भेद मिटाने वाला पर्व है। उसमें बड़े-छोटे का भेद कुछ दिनों के लिए मिट जाता है। लोग निर्भय होकर एक-दूसरे से हास्य-विनोद का मजा लेते हैं। होली में रंग, अबीर कीचड़, गोबर, पानी सबका प्रयोग करते हैं। होली के गीतों का क्रम देखते हुए यह लगता है कि रेणु ने वियोग से संयोग की दिशा चुनी है।

जीवन में संस्कृति के महत्व के विषय में वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते है, “साहित्य, कला, दर्शन और धर्म से जो मूल्यवान सामग्री हमें मिल जाती है उसे नये जीवन के लिए ग्रहण करना, यही सांस्कृतिक कार्य की उचित दिशा और सच्ची उपयोगिता है।4मनोरंजन पूर्ण उल्लेख मेरीगंज में यादव टोली द्वारा प्रदर्शित किया गया है, “यादव टोली में बारहों मास शाम को आखाड़ा जमता है। चार बजे दिन से ही शोभन मोची ढोल पीटता रहता है- ढाक ढिन्ना,ढाक ढिन्ना! ढोल के हर ताल पर यादव टोली के सभी बुजुर्ग, बच्चेऔर जवान डन्ड बैठक और पहलवानी के पैंतरे सीखते हैं।5 कहा जा सकता है कि मेरीगंज के लोग,लोक धुनों में मस्त रहने वाले हैं तथा विभिन्न अवसरों पर जमकर खुशियाँ लूटाते है। रामदास जब खंजड़ी बजाता है तो सभी देखने वाले उसके इस कर्तव के दिवाने हो जाते हैं-

जागहु सतगुरु साहेब, सेवक तुम्हारे दरस को आया जी
जगहु सतगुरु साहेब...
...डिम डिमिक-डिमिक-डिमडिमिक-डिमिक!
भोर भयो भव भयानक भानु देखकर भागा जी,
ज्ञान नैन साहब के खुलि गयो. थर थर कांपत जी।
जगहु सतगुरु साहेब...6

रामदास खंजड़ी बजाते हुए अपने सतगुरु महाराज की भक्ति में कह्ते हैं- जागो सतगुरु आपके सेवक आप के दर्शन के लिए आए है। सुबह हो गई है, सूर्य ने भयानक अंधेरे रुपी अज्ञान को दूर कर लिया है। रामदास गाता है कि जब ज्ञान के चक्षु खुलते है, तो माया भी थर-थर कांपने लग जाती है। इस प्रकार मेरीगंज गांव भक्तिमय हो जाता है। गांव के परंपरागत व्यवसाय करते हुए वहाँ के लोग मनोरंजन पूर्ण ढंग से गीत गाते हैं। गाड़ीवानों के गीत इस प्रकार से हैं-

चढली जवानी मोरा अंग अंग फड़के से,
कब होइये गवना रै भउजिया...
पक्की सड़क पर गाड़ीवानों का दल भउजिया का गीत गाते हुए गाड़ी हाँक रहा है।
चल बढ़के। दाहिने....हाँ, हाँ,
घोड़ा देखकर भड़कता है, साला...
हथवा रंगाये सैया दैहरी बैठाईं गइले
फिररहु लिहले उपदेश भउजिया...”7

दिनभर अनाज की मढ़ाई के पश्चात इस गांव में शाम को लोरिकया कुमार बिज्जेभान की गीत कथा होती है-

अरे राम राम रे देबा रे इसर रे महादेव
बामे ठाडी देवी दुरगा दाहिने बोले काग्।
अपन मन में सोच करैया मानिक सरकार,
बात से नाहिं माने वीर कनोजिया गुआर...8

खम्हार में नाच गान का जो समारोह हो रहा है, उसके विषय में जोतखी जी के आने पर सिंघ जी ने कहा,“आज भी उनके दाँत में दरदहै भाई। सभी ठठाकर हंस पड़ते हैं। तभी जोतखीजी के नहीं आने का कारण जानते है- बाथन नाचे तेल तमाशा देखें! कुपुत्र निकला रामनारायण! शिव हो...! बालदेव जी नहीं आए हैं। कोई भला आदमी नहीं देखता विदायत नाच! अब मृदंग पर चलंतबज रहा है-

तिरकिट, धिन्ना, तिरकिट, धिन्ना!
धिन तक धिन्ना, धिन तक धिन्ना!
धिनक धिनक धा
ध्रिक ध्रिक तिन्ना।9

इस प्रकार लोक वाद्ययंत्रों के द्वारा लोकजनों का मनोरंजन होता रहता है, इस प्रकार कहा जा सकता है कि ये लोक किसी भी समारोह में अपनी खु़शी जाहिर करने के लिए लोकगीतों और लोक वाद्ययंत्रों से खु़शी-खु़शी मनाते है। मैला आंचल की समी़क्षा करते हुए सुरेश सिन्हा ने लिखा है, “इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रेमचन्द के बाद पहली बार भारतीय गाँवों की आत्मा अपनी पूरी सच्चाई के साथ इस उपन्यास में स्पष्ट हुई है और लेखक वहाँ के लोक जीवन से पूर्ण साक्षात्कार कर सका है।10कालीचरण की सभा के लिए उत्साह में लोग गा रहे है अथवा माहौल इस प्रकार से है-

मनर की मद आवाज रिंग रिंग ता धिन ता।
डिग्गा की अटूट ताल ढा डिग्गा ढा डिग्गा!
उन्मुक्त स्वर लहरी जोहिरे जोतबो सोहिरो बोयबे
मुरली की लय  पर पायलों का छुम छुम, छन्न छन्न!
ढा डिग्गा ढा डिग्गा!
रिंग रिंग ता धिन ता!
चल चल रे, सभा देखेला!”11

कालीचरण कामरेड है, क्रांतिकारी गीत में लोक वाद्ययंत्रों को बजाया जाता है। मुरली और पायलों के साथ नाच गाना हो रहा है। गीत का अभिप्राय है कि जो खेतों को जोतेगा, जमीन उसकी ही होगी। कमली के रूप यौवन पर मुग्ध होकर डॉ प्रशांत कमला के निमंत्रण को अस्वीकार नहीं करते। लेखक लिखता है, “चांद बयरि भेल बादल, मछली बयरि महाजाल तिरिया बयरि दुहु लोचन...”12 मेरीगंज में होली को बड़ी उमँग के साथ मनाया और खेला जाता है। होली का त्योहार एक प्रकार से धार्मिक भी है। धर्म के विषय में श्यामाचरणदूबे कहते हैं, “धार्मिक विश्वास ही समूह में सुरक्षा और सहयोग की भावना को जन्म देते हैं। समाज की रचनात्मक अभिव्यक्तियाँविशेषकर उसके साहित्य और कला, सामाजिक गतिविधि और क्रियाकलाप आदि पर धार्मिक विश्वासों की प्रत्यक्ष या परोक्ष छाप अवश्य रहती है।13फागुन की होली के विषय में यहां कई गीत प्रस्तुत है-

अरे बहिया पकड़ी झकझोर श्याम रे
फूटत रेसम जोड़ी चूड़ी
मसकि गई चोली, भीगावल साड़ी
आंचल उडि जाए हो
ऐसो होरी मचायो श्याम रे!...14

अरे श्याम ! मेरी बहिया को मत झकझोरो, मेरी रेशम की चोली और चूडिया फट और टूट जायगी। आप ने रंग में मेरी साड़ी को भिगो दिया है। इस प्रकार की होली श्याम खेल रहा है। गांव के हरियाली वाली वादियों को आत्मसात करते हुए डॉ प्रशांत पुलकित हो जाते हैं,कोयल की गले की मिठास का अनुभव करने लग जाता है।

सब दिन बोले लोयली भोर भिनरसवा ....वा ....वा...
बैरिन कोयलिया, आजु बोलय आधी रतिया हो रामा.....
सूतल पिया के जगावे हो रामा.....15

यहाँ प्रत्येक दिन कोयल सुबह ही डाली पर कूंकने लग जाती है। हे राम! आज तो आधी रात में ही कोयल ने कूंकना शुरु कर दिया है। सोए हुए प्रियतम या प्रिया को जगा लिया है। संथालिनें अपनी भेष-भूषा पर डॉ प्रशांत मोहितहो जाता है। आबनूस की मूर्तियाँ, जुड़े में गुथे हुए शिरीष और गुलमोहर के फूल! संथालिनें गाती हैं-

छोटी-मोती, पेरोइनी फूटे लाले-लाल
पासचे तेरी फूल देखी फूलम लाबेलब
पचसे तेरी आधा दिन लागीत।16

चारों ओर बंधाए हुए एक छोटे से पोखरे में पुरइन (कमल) के लाल-लाल फूल खिले हैं। उस फूल पर तुम मुग्ध हो। मुझे भी देखकर तुम मोहित होते हो। किंतु वह मोह, आधे दिन का ही तो नहीं... गांव में जमींदारों के प्रति लोगों में रोष है, क्रांतिकारियों का प्रचलित गीत है-

चकै के चकधुम मकै के लावा...
दुनिया के गरीबों का पैसा जिसने चूस लिया,
अरे हाँ, पैसा जिसने चूस लिया,
उसकी हडडी हडडी से पैसा फिर चुकाए जा!
हंस के गोली दागे जा!
हंस के गोली खाए जा।17

अरे चक्की के पाट और मकई के लावा वालों, दुनिया का पैसा किसने खाया। विशेषकर गरीबों की मेहनत से राज करने वालों, हम काम करने वालों का पैसा किसने चूसा है, इन अमीरों ने। अब इनसे हिसाब माँगने का समय गया है। अब तो क्रांति इस प्रकार से करो कि हंसती-हंसती गोली दागी और हंसते-हंसते गोली खाने के लिए भी तैयार रहो। मेरीगंज आंचल इतना मैला था कि किसी किसी के साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अच्छे-बुरे सम्बंध थे। कोठारिन बालदेव को चाहने लग जाती है, लेकिन वह हिम्मत नहीं कर पा रही है, उपन्यासकार लिखता है-

बिरह बाण जिहि लागिया
औषध लगे ताहि
सुसकि-सुसकि मरि-मरि जिवै,
उठे कराहि कराहि।18

 विरह के बाण इस प्रकार तीखे हैं कि जब वे किसी पर चूबते हैं, तो उसके घाव को शांत करने के लिए कोई दवा भी नहीं है। इसके घाव से केवल सिसकते रहते हैं, मर भी नहीं सकते और जी भी नहीं सकते हैं, केवल कहराते रहते हैं। इस प्रकार विरह पूर्ण प्रणय के गीत भी इस उपन्यास में देखने को मिलते हैं। जब मेरीगंज में बरसातका मौसम होता है तो गांव में मनोरतमा देखने लायक बन जाती है। कमली नदी में कमल खिलने लग जाते हैं और सारी नदी के गड्डों में कमल खिलकर मानों हंसने लग जाते हैं। घनघोर वर्षा होने पर गांव कीऔरतें निम्न गीत गाती है-

अरे मास साढ़ है! गरजे घन
बिजुरी- चमके साखी हे !
मेहे तजी कंता जाए पर देसा ..
कि उमड़ कमला माइ हे!”19

कमला नदी में बाड़ जाए तो कंत रूक जाए। इसलिए कमला नदी को उमड़ने के लिए आमंत्रित किया जाता है- जिनके कंत परदेश से लौटे आए हैं, उनकी खुशी का क्या ठिकाना। झुलनी रागिनी उन्हीं सौ भाग्यवतियों के हृदय के मिलनोच्छवास से खेतों में झूम रही है।स्वराज्य मिलने पर गांव में खुशी का माहौल पैदा हो जाता है, इस अवसर पर बाई जी गा रही है-

कही पे छापों गाँधी महतमा
चर्खा मस्त चलते हैं,
कहीं पे छापों वीर जमाहिर
जेल के भीतर जाते हैं।
अंचरा पे छापों झण्डा तरेगा
बांका लहरदार रे रंगरेजबाँ20

आजादी मिल गई लोगों में भारत के उन नेताओं की छवि इतनी मधुर लगती है कि वे उन्हें अपना आदर्श मानने के लिए उत्सुक होते हैं। कोई महिला गा रही है कि कहीं पर महात्मा गांधी की तस्वीर है, उस तस्वीर में गांधी जी बड़े मस्त रूप से चरखा चला रहे हैं। कहीं पर वीर जवाहरलाल जी हैं, जो जेल के भीतर बंद है। कहीं घऱ-द्वार पर झण्डा है जो हमारा तीन रंग का है, वह बडी़ उज्ज्वलता के साथ लहराह रहा है।

निष्कर्ष : सारांश रूप में कह सकते है कि मैला आंचल उपन्यास ग्रामीण संस्कृति का दस्तावेज है। इसमें विभिन्न प्रकार के लोकगीतों का समाहार हुआ है। ये लोकगीत यहां की लोक संस्कृति को प्रस्तुत करते हैं। रेणु जी सरल सजीव भाषा में परम्परा से प्रचलित लोक कथाए,लोक गीत, लोक संगीत आदि विभिन्न विधाओं को बाँधकर तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को हमारे सामने सफलता पूर्वक प्रस्तुत करते हैं।

संदर्भ :
1 फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 प्रथम संस्करण की भूमिका  पटना- 9 अगस्त, 1954
2 फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ. 11
3 विद्या चौहन, लोक साहित्य, सरस्वती प्रकाशन कानपुर, पृ. 45
4 वासुदेवशरणअग्रवाल, कला और संस्कृति, ,साहित्य भवनइलाहबाद,पृ. 698
5 फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.14
6.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.19
7.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.52
8.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.57
9.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.58
10.सुरेश सिन्हा, हिन्दी उपन्यास,लोक भारती प्रकाशन,इलाहबाद,पृ.330
11.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.75
12.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.82
13.श्यामाचरण दूबे, मानव और संस्कृति, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, पृ.145
14.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ. 93
15.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.105
16.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.116
17.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.121
18.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.137
19.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.145
20.फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आंचल, राजकमल प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली-2 पृ.168


डॉ. प्रकाश चंदसहायक आचार्य हिंदी
स्कूल आफ लिबरल आर्ट, शूलिनि विश्वविद्यालय सोलन, हिमाचल प्रदेश-173229
prakashchand1@shooliniuniversity.com,, 9418389068

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  फणीश्वरनाथ रेणु विशेषांकअंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue

अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन

सम्पादन सहयोग प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)

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