शोध आलेख : वैश्विक महामारी कोविड-19 की चिकित्सा में पातालकोट (मध्यप्रदेश) की जनजातीय औषधियों के चिकित्सकीय महत्व का विश्लेषण / डॉ. राहुल पटेल

वैश्विक महामारी कोविड-19 की चिकित्सा में पातालकोट (मध्यप्रदेश) की जनजातीय औषधियों के चिकित्सकीय महत्व का विश्लेषण

- डॉ. राहुल पटेल


शोध-सार  : प्रस्तुत शोधपत्र मानव वैज्ञानिक क्षेत्र कार्य का परिणाम है और मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट घाटी में निवास करने वाली आदिम जनजाति (पी.वी.टी.जी.) भरिया के देशज ज्ञानतंत्र और वहां पर पाई जाने वाली दो जड़ी-बूटियों 'केवकंद' और 'जंगली अदरक' के कोविड-19 के निदान में प्रभाविकता के विश्लेषण पर आधारित है। इस शोधकार्य में प्राथमिक द्वितीयक स्रोतों का उपयोग करते हुए यह समझने का प्रयास किया गया है कि भरिया समाज का देशज ज्ञानतंत्र कोरोना की महामारी से लड़ने में कितना कारगर है। पातालकोट के देशज चिकित्सकों यथा 'भुमका' और 'पड़िहार' एवं पातालकोट के तीन गाँवों यथा चिमटीपुर, रातेड़ और कारेआम के वासियों के सघन-गहन साक्षात्कार के द्वारा तथा दोनों ही जड़ी-बूटियों पर वैश्विक स्तर पर उपलब्ध लिखित दस्तावेजों से तुलना करके जड़ी-बूटियों के प्रभाव को परखने का प्रयास किया गया है। साथ ही साथ इस विमर्श को भी लाने का प्रयास किया गया है कि देशज ज्ञानतंत्र या परंपरागत औषधि और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में महामारी से लड़ने हेतु एक वृहत कार्य योजना तैयार करने और उनमें इंटीग्रेशन स्थापित करने की अविलंब आवश्यकता है।

 

बीज शब्द : पातालकोट, भरिया, केवकंद(कोस्टस स्पेसीयोसस), जंगली अदरक(जिंजीबर परप्यूरीयम), भुमका, पड़िहार।

 

शोध का उद्देश्य : वर्तमान शोधपत्र का उद्देश्य मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट में निवास करने वाली आदिम जनजाति समूह(पी.वी.टी.जी) भरिया के देशज ज्ञानतंत्र और नृजाति औषधि में उपयोग की जाने वाली दो जड़ी-बूटियों- 'केवकंद' (कोस्टस स्पेसीयोसस) और 'जंगली अदरक' (जिंजीबर परप्यूरीयम) के कोविड महामारी के निदान में उनकी क्षमता, प्रभाविकता और सम्भावना को तलाशना है।

 

शोध पद्धतिशास्त्र :-  प्रस्तुत अध्ययन में मानव वैज्ञानिक क्षेत्र कार्य, प्राथमिक स्रोत जिसमें पातालकोट के भरिया और गोंड समाज के लोगों के साक्षात्कार, अवलोकन और वहाँ के 'भुमका' एवं 'पड़िहार' लोगों के साक्षात्कार, जो वर्ष 2020 के आरंभिक माह में किया गया और यह वही काल था जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को एक महामारी के रूप में घोषित किया था और द्वितीयक स्रोतों में वेब ऑफ साइंस, स्कोपस, पबमेड, टेलर एंड फ्रांसिस, एल्जेवियर, साइंस डिरेक्ट, सेज से जुड़े टॉक्सीकॉलजी, मेडिसिन, फार्माकोलॉजी, एथनोमेडिसिन, फार्माकॉगनोसी, आयुर्वेद एवं कृषि वैज्ञानिकों के प्रतिष्ठित शोधपत्रों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया तथा क्रियात्मक मानवविज्ञान के सिद्धांतों का अनुप्रयोग किया गया है शोधकर्ता ने पूर्व में स्वयं के द्वारा किए गए शोधकार्य जो कि अंडमान-निकोबार की निकोबारी जनजाति, उत्तराखंड की जौनसारी जनजाति, तमिलनाडु की नीलगिरी पहाड़ियों में रहने वाली आदिम जनजाति टोडा, उत्तराखंड की थारू जनजाति, मध्य प्रदेश की बैगा नामक आदिम जनजाति और मध्यप्रदेश के पातालकोट क्षेत्र में निवास करने वाली आदिम जनजाति भारिया और गोंड के मध्य किए गए मानव वैज्ञानिक क्षेत्र कार्य के दस्तावेज खंगालने शुरू किए। शोधकर्ता  ने  इन जनजातियों में अपने शोधकार्य के दौरान एकत्रित की गई जड़ी-बूटियों के चिकित्सकीय महत्त्व का भी विश्लेषण किया।

 

मूल आलेख : विगत कई महीनों से पूरा विश्व  वैश्विक महामारी कोविड 19 के दुष्प्रभावों से जूझ रहा है। ऐसे में दुनियाभर के वैज्ञानिक, चिकित्सक, पुलिस अधिकारी, पुलिसकर्मीसैन्यकर्मी, स्वास्थ्यकर्मी और सरकारें अपने-अपने तरीके से  इससे लड़ने का प्रयास कर रहे हैं। नित नए-नए शोध-अविष्कार-अध्ययन हो रहे हैं ताकि कोविड-19 जो एक नए प्रकार की कोरोना वायरस जनित महामारी है, को हराया जा सके। कोरोना महामारी पूरे विश्व के जनमानस के लिए अत्यंत खतरनाक साबित हो रही है ऐसे में स्वास्थ्य संसाधनों की समस्या भी सामने रही है उचित स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने हेतु यह अति आवश्यक हो जाता है कि एलोपैथिक चिकित्सा व्यवस्था के विकल्पों की तलाश की जाए इसके अतिरिक्त परंपरा देशज ज्ञानतंत्र जो कि लोकऔषधि के द्वारा हमें बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराता था वह भी विलुप्त होता जा रहा है पूर्वजों से प्राप्त होने वाला ज्ञान नष्ट होता जा रहा है या फिर आने वाली पीढ़ियां लोकऔषधि/ जनऔषधि और परंपरागत ज्ञान को भूल रहे हैं जड़ी बूटियां नष्ट हो रही हैं ऐसे में लोकऔषधि विकल्प कोरोना से मानव समाज को बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है साथ ही साथ विलुप्त हो रही जड़ी- बूटियों को बचाने में भी यह अहम हो सकता है

 

वर्तमान शोधपत्र इसी पृष्ठभूमि पर आधारित है। शोधपत्र का तर्काधार यह है कि वर्तमान वैश्विक महामारी से लड़ने में आधुनिक चिकित्सा पद्धति और एलोपैथी ने सबसे ज़्यादा सशक्त भूमिका का निर्वहन किया है। आम जनमानस और जनजातीय समाज ने यथा संभव इस व्यवस्था का लाभ लिया लेकिन पश्चिमी चिकित्सा व्यवस्था की  सीमाओं के कारण उन्होंने अपनी लोक औषधि, नृजाति औषधि और अपने देशज ज्ञानतंत्र पर लगातार विश्वास बनाये रखा और कोविड महामारी से लड़ाई लड़ी। यहाँ यह तात्पर्य कतई नहीं है कि हम इस विवाद में पड़ें कि कौन सी चिकित्सा पद्धति मजबूत है और कौन सी कमजोर। बल्कि यहाँ पर ज़्यादा महत्त्वपूर्ण और विचारणीय विषय यह है कि विकासशील देशों में जहाँ चिकित्सा पद्धतियों में बहुलता परिलक्षित होती है और आम जनमानस आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था को अफोर्ड नहीं कर पाता या उसकी पहुँच आधुनिक चिकित्सा तंत्र तक नहीं हो पाती वहाँ पर कोविड महामारी के दौर में ऐसी वैकल्पिक चिकित्सा व्यवस्था को सुदृढ़ और पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है जो आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था के सम्मुख किसी प्रकार की चुनौती पेश करते हुए उसके सहयोगी और पूरक व्यवस्था के रूप में कार्य करे। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ निरंतर प्रगति और प्रयासों के बावज़ूद चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत कुछ करने की गुंजाइश बची हुई है और आम जनमानस की सोच एवं जागरूकता को भी मरम्मत की अर्जेन्ट आवश्यकता है, वहाँ इस बात की भी प्रबल आवश्यकता है कि सदियों पुराने देशज ज्ञान तंत्र और लोक षधि को पुनः स्थापित किया जाये, उसको आधुनिक चिकित्सा पद्धति के साथ इंटीग्रेट किया जाए, उसके अनुभवजन्य ज्ञान को प्रयोगशालाओं और विज्ञान की कसौटी पर भी परखा जाए, हाँ इस तथ्य को भी दिमाग में रखा जाए कि देशज ज्ञान तंत्र आधारित नृजाति चिकित्सा व्यवस्था भी इम्पीरिसिज़्म का परिणाम है और ये नुस्ख़े वर्षों से आजमाए हुए और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हैं। जिनको अवैज्ञानिक कहा जाना उचित नहीं। यदि हम लोक चिकित्सा को इंटीग्रेट करना चाहते हैं तो वहाँ पर हमें गाँधी जी को तलाशना होगा कि यदि एक व्यवस्था कहीं पिछड़ गई है तो यह उस व्यवस्था की जो कि आगे निकल गई है उसकी जिम्मेदारी है कि उसको अपने साथ आने दे, उसको चुनौती समझे बल्कि अपना पूरक समझे। मानवविज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते मुझे लगता है कि गाँधी का ऐसा सोचना सर्वथा उचित था चाहे हम उसको मानव के चरणों के संदर्भ में देखें, या समाज की अनेक जातियों-जनजातियों के विकास के संदर्भ में या फिर आधुनिक चिकित्सा पद्धति और देशज चिकित्सा व्यवस्था के साम्य संदर्भ में। सोचिए यदि हमारे शरीर का एक अंग यानी एक पैर विद्रोह कर दे कि उसको आगे नहीं जाना तो क्या दूसरा आगे बढ सकता है? बिलकुल नहीं। बल्कि यह क्रिया हमारे लोकोमोशन यानी गमन को प्रभावित कर देगा। ठीक वैसे ही चिकित्सा व्यवस्था में भी लागू होता है। कहीं एक व्यवस्था कमज़ोर पड़ रही या चरमरा रही तो दूसरी पद्धति उसके पूरक के रूप में सामने सहयोगी के तौर पर खड़ी हो सकती है, इससे केवल आम जनमानस के प्राणों की रक्षा करना आसान हो सकता है जो कि चिकित्साशास्त्र का मुख्य ध्येय है चाहे वो लौकिक हो या प्रायोगिक, बल्कि आधुनिक स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर पर पड़ने वाले दबाव को काफी हद तक कम भी किया जा सकता है। महामारी के इस दौर में हमारे कोरोना वारियर्स, फ्रंट लाइन वर्कर्स, डॉक्टर्स, नीति-नियंता  सभी ने इसको महसूस किया है। चिकित्सा पद्धतियों की बहुलता भारत जैसे देश की आवश्यकता है और इन पध्दतियों के सिद्धांतों, उनके ज्ञान, उनके विश्वासों का एकीकरण, इंटीग्रेशन उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि हमारे शरीर के विभिन्न अंगों की कार्यप्रणाली में।

 

स्टीफेन (1993) के अनुसार देशज ज्ञान एक ऐसा व्यवस्थित सूचना और ज्ञान  है जो कि अनौपचारिक सेक्टर के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा  रहता है, प्रायः अलिखित होता है और लिखित अथवा ग्रंथाधारित होने की बजाय मौखिक परंपराओं के माध्यम से संरक्षित और पीढ़ी दर पीढ़ी संचारित होता है। यह संस्कृति विशिष्ट ( कल्चर स्पेसिफिक) होता है और सांस्कृतिक तत्त्वों के ताने-बाने से गहनता से गुथा रहता है।(1)

 

वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन (2002) के अनुसार ट्रेडिशनल मेडिसिन अर्थात पारंपरिक षधि वह सकल षधि है जो कि किसी संस्कृति के ज्ञान और नित्य प्रयोगों, अनुशीलन और व्यवहारों का योग होता है चाहे वो स्पष्ट या समझने योग्य हो या हो, लेकिन उसका अनुप्रयोग व्याधियों/ रोगों की पहचान, रोकथाम, निदान और उन्मूलन तथा शारीरिक मानसिक संतुलन को स्थापित करने में होता हो। यह पूर्णतया व्यावहारिक अनुभवों और लौकिक ज्ञान पर आधारित होती है और पूर्व की पीढ़ियाँ अपनी सन्तति पीढ़ियों को इस ज्ञान को मौखिक और लिखित रूप से स्थानांतरित करती हैं।(2)

 

सिंडिगा (1995) के अनुसार देशज ज्ञान का मुख्य अंश प्राकृतिक तत्त्वों के गुणों यथा औषधीय वनस्पतियों, पशुओं और खनिज पदार्थों पर आधारित होता है।(3)

 

भसीन (2007) के अनुसार चिकित्सा बहुलता (मेडिकल प्लुरलिज़्म) किसी भी समाज में भिन्न-भिन्न सिद्धांतों पर निहित और लोकदर्शन/ लोकविचारों के समकालिक अस्तित्व पर आधारित चिकित्सा पद्धति एवं व्यवस्थाएँ  हैं जो वहाँ के लोगों के समग्र(होलिस्टिक) रोग निदान हेतु महत्त्वपूर्ण होती हैं।(4)

 

फोस्टर (1983) के अनुसार प्रत्येक समाज रुग्णताओं से निदान हेतु कोई कोई औषधीय प्रणाली विकसित कर लेते हैं जिसे नृजाति औषधि कहते हैं।(5)

 

ह्यूजेस (1968) के अनुसार रुग्णता से सम्बंधित मान्यताएँ और प्रक्रियाएँ जो कि देशज सांस्कृतिक विकास का परिणाम हैं और जो स्पष्टतः आधुनिक चिकित्सकीय सिद्धांतों से भिन्न हों उनको देशज या नृजाति औषधि के तहत रखा गया है।(6)

 

पोलगर (1962) एथनोमेडिसिन के संदर्भ में अवैज्ञानिक स्वास्थ्य व्यवहार चिकित्सकीय व्यवहार संस्कृति लोकप्रिय संस्कृति की बात करते हैं। नृजाति औषधि एक परंपरागत चिकित्सा पद्धति है जो कि स्वास्थ्य, व्याधि एवं रोग की सांस्कृतिक व्याख्या से सम्बंधित होती है।(7)

 

लोवी (1915)  के अनुसार नृजाति औषधि चिकित्सा एक बहुविधा संकुल है जो अनुभव जन्य ज्ञान(इम्पीरिसिस्म) का परिणाम है, जिसमें वनस्पतियों के विभिन्न अंशों, आध्यात्मिकता(स्पिरिचुअलिज्म) एवं प्रकृति प्रदत्त तत्त्वों का रोगों के निदान हेतु लाखों वर्षों से किया जाता रहा है।(8)

 

यह लोकऔषधि, जनऔषधि या जनजातीय औषधि के रूप में अधिक प्रचलित है और ज्यादा स्वीकार्यता मिली हुई है क्योंकि आदिम जनजातीय समूह वन्य उत्पादों का उपयोग अपनी रोजमर्रा की व्याधियों से निजात पाने हेतु इनका उपयोग व्यावहारिक रूप से करते रहते हैं।

कुमार एवं अन्य(2020) अपने अध्ययन में बताते हैं कि कोस्टस स्पेशियोशस एंटीडायबिटिक और एंटीइन्फ्लेमेटरी है।(9)

             

बिन्नी एवं अन्य (2010) के अनुसार केवकंद हिपैटोप्रोटेक्टिव है।(10)

            

 खरे(2016) और गुप्ता(2010) कहते हैं कि यह कुष्ठ रोग और सिरदर्द नाशक है।(11,12)

 

भट्टाचार्य(1973) के अनुसार इसमें एल्केलॉयड पाये जाते हैं जो मसल्स रिलैक्सेंट के तौर पर लाभकारी और एंटीस्पास्मोडिक होते हैं।(13)

 

बेनी(2004) के अनुसार यह डायबिटीज को नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण है। (14)

 

सराफ(2010) के अनुसार कोस्टस में एंटीमाइक्रोबीयल तत्त्व होते हैं।(15)

 

श्रीवास्तव (2019) के अनुसार इसमें डीओसजेनिन की उपस्थिति पाई जाती है जो इसको अत्यधिक गुणकारी बनाती  है।(16)  

 

केवचूथोंग एवं अन्य(2012) तथा नाकामुरा एवं अन्य(2009) इसमें फिनायलब्यूटेनॉयडस की उपस्थिति की बात करते हैं।(17, 18)

 

केटो एवं अन्य (2018) अपने अध्ययन में चूहों एवं मानव पर इसके एक्टिव प्रिंसिपल्स के प्रभावों का विश्लेषण करते हुए पाते हैं कि इसमें 'c' एंड 't' बैंगलेनीज होता है जो न्यूरोट्रॉपिक होता है, न्यूरोजेनेसिस को बढ़ाता है और याददाश्त की समस्या को दूर करता है। वह यह भी कहते हैं कि संवेगनात्मक अभावों में यह एक अच्छे पोषक के रूप में कार्य करता है।(19)

 

सिंह एवं अन्य(2015) जिंजीबर कुसुमुनार या परप्यूरीयम के मणिपुर राज्य में परंपरागत औषधि के रूप में इन्फ्लेमेशन, गठिया, घाव एवं दमा के इलाज में  वर्णित करते हैं। उनके अनुसार कनाडा में इसका उपयोग 'तरागन' (आर्टेमिसिया ड्रैकुन्कुलस) या 'रोजमेरी' के साथ अस्थमा के इलाज में होता है।(20) सिंह एवं शर्मा (2018) के अनुसार जंगली अदरक का उपयोग गठिया के इलाज में कारगर है।(21)


छायाचित्र-1: शोधकर्ता भुमका से जड़ी-बूटियों के संदर्भ में साक्षात्कार करते हुए

पातालकोट छिंदवाड़ा जिले में सतपुड़ा की पहाड़ियों में अंग्रेजी के 'यू' अक्षर के आकार में बने हुए खड्ड(गॉर्ज) में स्थित है जिसमें भरिया और गोंड जनजाति निवास करती है। इस का कुल क्षेत्रफल 79 वर्ग किलोमीटर है। यह छिंदवाड़ा जिला मुख्यालय से 78 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है तथा इस खड्ड की अधिकतम गहराई 1600 फुट है। घाटी 22.24° to से  22.29° उत्तर अक्षांश  78.43° से 78.50 ° पूर्वी देशांतर पर और समुद्र तल से 2750- 3250 फीट औसत ऊंचाई पर स्थित है इस घाटी के विषय में यह बात प्रचलित है कि यहाँ सूर्योदय प्रातः 9 बजे और सूर्यास्त सायंकाल 3 बजे तक होता है।

मानचित्र 1: पातालकोट के ग्रामों को प्रस्तुत करता हुआ मानचित्र (साभार: श्रीवास्तव , 2017 [22]) 


पातालकोट के 12 गाँव में मुख्य रूप से भरिया जनजाति निवास करती है और उनकी जनसंख्या 3000 है पातालकोट क्षेत्र अपनी जड़ी-बूटियों के कारण पूरे विश्व में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाए हुए हैं यहाँ पर अनेक प्रजाति की जड़ी-बूटी और वनस्पतियाँ पाई जाती हैं यहाँ पर निवास करने वाले भरिया और गोंड जनजाति के लोग अपनी बीमारियों के इलाज के लिए यहाँ के देशज चिकित्सक जिनको 'भुमका' एवं 'पड़िहार' कहते हैंपर निर्भर करते हैं 'भुमका' एवं 'पड़िहार' लोगों के रोगों के निदान के लिए अनुभवजन्य जड़ी-बूटी आधारित षधियों तथा झाड़-फूँक और आध्यात्मिक तरीकों से भी लोगों का इलाज करते हैं, आवश्यकतानुसार मुर्गे और बकरे की बलि भी देते हैं

 

भरिया जनजाति द्रविड़ियन प्रजाति के आदिमलोग हैं। हीरालाल एवं रसेल ने अपनी पुस्तक ट्राइब्स एंड कास्ट् ऑफ़ द सेंट्रल प्राविंसमें लिखा हैभारियाया भूमियाएक ही जाति के नाम है। भूमियाको कई ग्रंथकारी ने ग्राम देवता की पूजा करने वाले पुजारी के रूप परिभाषित किया है। भूमिया एक सम्मानसूचक नाम भूमियाअर्थात् धरती के राजाहै। भारिया  की प्रमुख उपजाति  समूह  भूमिया, भुईहर एवं पंडो है। इनके निवास स्थान को ढाना कहते हैं। एक ढाना में दो से लेकर पच्चीस तक घर होते हैं। भारिया जनजाति के लोग मध्यम कद, छरहरा बदन एवं सांवले रंग के होते हैं।

 

पातालकोट के भरिया जनजाति के लोगों में यह मान्यता प्रचलित है कि लंका का राजा रावण अपने भाई अहिरावण से मिलने के लिए पातालकोट के रास्ते से ही भूलोक जाता था। यहाँ के लोग रावण और मेघनाद की उपासना करते हैं और उनकी याद में आनंदोत्सव मनाते हैं। भरिया लोगों की उत्पत्ति के विषय में ऐसी मान्यता है कि यह लोग भारवाहक थे और 1817 में जब नागपुर के शासक रघुजी भोसले शीतवर्डी के युद्ध में अंग्रेजों से पराजित हो गए थे तब इन भारवाहकों ने पातालकोट के एक दुर्गम खोह में शरण ली थी और तभी से इनको 'भरिया' कहा जाने लगा। छिंदवाड़ा-पिपरिया-तामिया मार्ग से बिजोरी-हर्रई-बीजाढाना आदि ग्रामों से होते हुए पातालकोट जाने का रास्ता है। पहले यहाँ पर कोई संपर्क मार्ग नहीं था और सीढ़ियों के रास्ते लोग पातालकोट तक पपहुँचते थे

 

लेकिन 4-5 वर्ष पूर्व यहाँ पर एक पक्की सड़क सरकारी तंत्र द्वारा निर्मित की गई जो छिंदी को सीधे चिमटीपुर गांव से जोड़ती है। इस सड़क मार्ग से चिमटीपुर रातेड़ और कारेआम गांव को जोड़ा जा सका है और इसने पृथक्कृत भरिया लोगों को बाहरी दुनिया से जोड़ने में सहूलियत दी है। अब आवश्यकता पड़ने पर गांव में एंबुलेंस भी पहुंच सकती है। यातायात के साधन अभी भी बहुत विकसित नहीं हुए हैं फिर भी पूर्व से स्थितियां काफी बदल गई हैं। इनकी   मूल   बोली   ‘भरनोटी’  या   ‘भारियाटी  हैं और इसमें मराठी के भी शब्द मिलते हैं जो इनकी उत्त्पत्ति की मान्यता को मराठवाड़ा से जोड़ता है। भरिया लोग 'आँजूढईया पद्धति' के माध्यम से कृषि करते हैं। यह पद्धति स्थानांतरित कृषि या झूम कृषि का ही स्वरूप है। हालांकि अब स्थानांतरित कृषि मृतप्राय हो रही है और ये लोग अपने-अपने खेतों में ही फसल उगाने का कार्य करते हैं क्योंकि वन नीति 2006 के नियमों ने भरिया समाज के भी वनों में आवागमन को नियंत्रित एवं निरुद्ध कर दिया है। फसल के नाम पर कोदो, कुटकी, जगनी, मक्का, बलहर, चेरी टोमाटो, चना, मटर, गेहूँ आदि उगाते हैं। खरीफ यहाँ की मुख्य फसल है। इनके प्रमुख देवी-देवताओं में बड़ादेव, भीमसेन, बाघदेव, मढुआदेव,  ग्रामदेवी, खेड़ापति, मेठोदेवी, भैसासुर और हरदुललाला हैं जिनकी ये उपासना करते हैं। इनके मध्य भड़म, सैतम और कर्मा-सैला लोक नृत्य प्रसिद्ध हैं। इनमें मृत्यु उपरांत शव को दफनाने की प्रथा प्रचलित है। प्रस्तुत लोकगीत में भारिया समाज की सशक्त झलक देखने को मिलती है।

 

हम तो पतालकोट के रहवासी,
गड्ढा में डेरा डाले हैं।
गोही की रोटी और महुए को लचका,
बना बना कर खाते हैं।
हम तो पतालकोट के रहवासी,
गड्ढा में डेरा डाले हैं।
हम तो ढोल-मजीरा बजा-बजा के,
अपना दिल बहलाते हैं।


(साभार अनुसूइया, ग्राम रातेड़, स्रोत क्षेत्रकार्य 2020)

 

आई.यू.सी.एन. के रेड लिस्ट में लुप्तप्राय वनस्पतियों की सूची में दोनों ही जड़ी-बूटियाँ

मध्यप्रदेश के पातालकोट क्षेत्र की यह दोनों ही जड़ी-बूटियाँ 'इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर' (आईयूसीएन) के रेड लिस्ट में लुप्तप्राय वनस्पतियों की शृंखला में आती हैं। अनेक अध्ययनों में यह जड़ी-बूटियाँ हिमाचल तथा उत्तरप्रदेश में विलुप्त होने की कगार में खड़ी मिलती है तो उत्तराखंड में लगभग विलुप्त हो चुकी अवस्था में दिखती हैं। विश्व के अनेक हिस्सों में भी इन दोनों ही जड़ी-बूटियों का अत्यधिक दोहन होने की वजह से यही हश्र हुआ है। विभिन्न दस्तावेजों और शोधपत्रों का विश्लेषण करने के पश्चात शोधकर्ता पाता है कि दोनों ही जड़ी-बूटियाँ संजीवनी से कम नहीं हैं और कोविड-19 के विरुद्ध लड़ाई में और इसके लक्षणों को न्यूनीकृत करने में इन दोनों की अहम भूमिका हो सकती है। वर्तमान परिस्थितियों में एलोपैथिक इलाज महत्त्वपूर्ण है लेकिन आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के अपने आयाम हैं और इसके दुष्प्रभाव भी नहीं है। ऐसे में परम्परागत देशज चिकित्सा पद्धति और जड़ी-बूटियों का उपयोग अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

 

लॉकडाउन की लंबी अवधि का सदुपयोग

शोधकर्ता ने सोचा कि लॉकडाउन की अवधि काफी लंबी है और इस समय का सदुपयोग इन जड़ी-बूटियों को उगाने में किया जा सकता है। जब उसने इन दोनों ही जड़ी-बूटियों के उपजने एवं उगाने की परिस्थितियों का अध्ययन किया तो पाया कि केवकंद लगभग 13 डिग्री तापमान में उगाया जा सकता है जबकि वन अदरक को उगाने हेतु औसतन 19 से 28 डिग्री का तापमान ठीक रहता है। दोनों ही के लिए अच्छी आर्द्रता की आवश्यकता होती है। वन अदरक उगने में समय लेती है लेकिन प्रयागराज में उगाई जा सकती है। जबकि केवकंद हिमाचल-उत्तराखंड से लेकर असम हिमालय तक और पश्चिमी घाट, तमिलनाडु और केरल की पहाड़ियों की ढलानों पर समुद्र तल से 900 से लेकर पंद्रह सौ मीटर की ऊँचाई पर पनपती है। ऐसे में यह एक मुश्किल काम था इसके कंद को मैदानी क्षेत्र प्रयागराज में अपने बगीचे में उपजाना। शोधकर्ता ने उन शोधपत्रों का अध्ययन करना प्रारंभ किया जिनमें केवकंद और जंगली अदरक को उगाने के तरीकों पर विशेष जानकारियाँ उपलब्ध थी। कृषि वैज्ञानिकों द्वारा रचित शोधपत्रों को पढ़ने के पश्चात उसने केवकंद को रुई के फाहे में लपेटकर अपने घर के एक अंधेरे और नमी भरे कोने में रख दिया। कई प्रयासों के बाद आश्चर्य की बात रही कि लगभग 12 दिनों में  कई कंदो में आँखें निकल आए।


छायाचित्र-2: शोधकर्ता द्वारा प्रयागराज में उगाई गई केवकंद और जंगली अदरक


इन कंदों को शोधकर्ता ने पातालकोट के जड़ी-बूटी के जानकार मट्टू लाल बागदरिया जो कि रातेढ़ गांव के के रहने वाले हैं, से क्षेत्रकार्य के दौरान प्राप्त किया था। दोनों ही कंदों को उपजाने के प्रयास के पीछे शोधकर्ता का विचार है कि यदि आम जनमानस
इन दोनों ही जड़ी बूटियों को अपने किचन गार्डन या बगीचे में आदतन उगाने लगे और इनका उपयोग करें तो अनेक प्रकार के स्वास्थ्य लाभ हो सकते हैं।

 

अध्ययन में समाहित जड़ी-बूटी 'केवकंद' (कोस्टस स्पेसीयोसस) और 'जंगली अदरक' (जिंजीबर परप्यूरीयम) के चिकित्सकीय महत्त्व का विश्लेषण

 

वर्तमान अध्ययन में समाहित  पहली जड़ी-बूटी 'कोस्टस स्पेसीयोसस' है जिसको  संस्कृत में 'कंदअथवा 'केमुक' बंगाली में 'केव', हिंदी में 'केव', 'केबु', तमिल में 'कोस्टम'/ कोत्तम आदि नामों  से तो मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पातालकोटवासी  इसको  'केवकंद' के नाम से जानते हैं। दूसरी जड़ी-बूटी 'जिंजीबर परप्यूरीयम' है जिसको संस्कृत में 'वन अदरक', हिंदी में 'बंडा', 'बनअदा', कन्नड़ में अगालाशुनती, तमिल में कुटुमअंजल और पातालकोटवासी इसे 'जंगली अदरक' कहते हैं।

 

दोनों ही जड़ी-बूटियाँ कोरोना महामारी के लक्षणों को और उनके प्रभावों को कमतर करने में सहयोग कर सकती हैं

कोरोना काल में वैश्विक महामारी कोरोना के  जो लक्षण अनेक शोधों में बताए गए हैं उनमें खाँसी, तेज बुखार, बदन दर्द, सिर दर्द, निमोनिया, खराश, कफ़, साँस लेने में समस्या, मानसिक अवसाद आदि प्रमुख लक्षणों के साथ कमजोर इम्यून सिस्टम प्रमुख कारक रहे हैं ऐसा प्रतीत होता है। उपर्युक्त दोनों ही जड़ी-बूटियाँ इन लक्षणों को और उनके प्रभावों को कमतर करने में सहयोग कर सकती हैं। केवकंद के अनेक उपयोगी तत्त्व हैं जो कि कोरोना के लक्षणों से लड़ने में हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। शोधकर्ता ने वेब ऑफ साइंस, स्कोपस, पबमेड, टेलर एंड फ्रांसिस, एल्जेवियर, साइंस डिरेक्ट, सेज से जुड़े टॉक्सीकॉलजी, मेडिसिन, फार्माकोलॉजी, एथनोमेडिसिन, फार्माकॉगनोसी, आयुर्वेद के प्रतिष्ठित शोधपत्रों का तुलनात्मक अध्ययन किया और देखा कि-

 

शोध परिणाम :-

कोस्टस या केवकंद में उपस्थित गुणकारी तत्त्व

केवकंद में स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अनेक एन्टी-ऑक्सीडेंट तत्त्व जैसे कि एस्कॉर्बिक एसिड, बीटा-कैरोटीन, अल्फा-टेकोफेनॉल, ग्लुटाथिओन, फेनोल, फ्लैवोनॉइड्स, क्विनोन आदि पाये जाते हैं अर्थात यह वनौषधि एन्टीऑक्सीडेंट का भंडार है जो हमारे शरीर पर कुप्रभाव डालने वाले फ़्री-रैडिकल्स को निकालते हैं और एंटीबॉडीज एवं प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। कोस्टस या केवकंद में 'एरेमेन्थिन' नामक तत्त्व पाया जाता है जो एक तरफ प्लाज्मा में ग्लूकोज के स्तर को, एल.डी.एल. यानि कि बैड कोलेस्ट्रॉल और ट्राईग्लिसरोइड के स्तर को घटाता है तो दूसरी तरफ एच.डी.एल. यानि अच्छे कोलेस्ट्रॉल, प्लाज्मा इंसुलिन और सीरम प्रोटीन के स्तर को बढ़ाता है। यह तत्त्व एंटीफंगल के तौर पर भी कार्य करता है। 'डीयोसजेनिन' जैसे नैनो पार्टिकल्स जो स्टेरॉइडल सपोजेनिन के वर्ग में रखे गए हैं इसकी कंद में पर्याप्त मात्रा में मिलते है और मधुमेह, लिपिड में उपस्थित विकारों, कोलेस्ट्रोल आदि के स्तर को नियंत्रित करते हैं, मोटापे को रोकते हैं, हाईपर कोलेस्टेरोलीमिया एवं डिस्लिपिडेमिया के कुप्रभाव से बचाते हैं। यह कैंसर को भी रोकता है। इसके अतिरिक्त सूजन, प्रदाह, हृदय रोग से भी बचाता है तथा मस्तिष्क के लिए तनावरोधी की तरह कार्य करता है। 'डीओससिन' नामक स्टेरॉयड इसको वायरस-रोधी, रक्त संचरण को बढ़ाने वाला, कफोतसारक(कफ काटने का गुण), कैंसर रोधी, यकृत-रक्षक के रूप में स्थापित करता है। अनेक अध्ययनों में इस बात की पुष्टि हुई है कि रक्त में शर्करा की मात्रा को घटाने में और मधुमेह की समस्या को दूर करने में केवकंद बहुत ही गुणकारी है। इसमें उपस्थित 'कोस्टयूनोलॉइड' एक लैक्टोन होता है जो कैंसर-रोधी, अल्सर-रोधी, वायरस-रोधी, माइकोबैक्टीरिया-रोधी अथवा तपेदिक-रोधी होता है। 'करक्यूमिन' नामक तत्त्व की उपस्थिति इसको ट्यूमर-रोधी, वायरस-रोधी, प्रदाह-
रोधी और बैक्टीरिया-रोधी बनाता है। यह ग्राम-पॉजिटिव और ग्राम-नेगेटिव दोनों ही तरह के बैक्टीरिया को नियंत्रित करता है। 'टिगोजेनिन' नामक स्टेरॉइडल सपोजेनिन तत्त्व मानसिक अवसाद को कम करने वाला, तनाव रहित करने वाला और सबसे महत्त्वपूर्ण यह तत्त्व बुखार, दर्द और निमोनिया को जड़ से समाप्त करने में सहायक है। 'क्लेब्सिएला न्यूमोनी' जो  बैक्टीरियाजनित निमोनिया का एक शक्तिशाली कारक है, को यह समाप्त करने की क्षमता रखता है। हालाँकि वायरल जनित निमोनिया पर इसके प्रभाव को समझने हेतु और अधिक अध्ययनों की आवश्यकता है। 'ग्रैसिलिन' नामक उपस्थित तत्त्व ट्यूमर या कैंसरकारी कोशिकाओं को बढ़ने से रोकता है।  'इमिप्रामीन' नामक तत्त्व जो इसकी पत्तियों में होता है वह एक प्रभावकारी एन्टीडिप्रेसेंट होता है और तनावग्रस्त रोगी को ठीक करता है। इसमें पाए जाने वाले तेल दर्द की अनुभूति एवं सूजन को कम करते हैं।  इस तरह से केवकंद में पाए जाने वाले तत्त्व गंभीर रोगों यथा निमोनिया, पीलिया, गठिया, जोड़ों के दर्द, बदनदर्द, गले का दर्द/फैरिनजाइटिस, मानसिक विकार को दूर करते हैं, कृमिनाशक, टॉन्सिल की समस्या को दूर करने वाले, कवक रोधी तथा दमा एवं टीबी/तपेदिक रोधी हैं। यह कफ और पित्त की बीमारी का शमन करता है, अपच को दूर करता है, ज्वरनाशक और रेचक है तथा श्वास संबंधी रोगों का मज़बूती से दमन करता है। पातालकोट में अपने शोध अध्ययन के दौरान शोधकर्ता ने अनेक 'भुमकाओं' का साक्षात्कार किया था और सभी ने यह बताया था कि पातालकोट के आदिवासी केवकंद की पत्तियों की भजिया-पकौड़ी बनाकर नियमित रूप से सेवन करते हैं। इसके अतिरिक्त इसकी कंद को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर बेसन की पकौड़ी में हर दूसरे- तीसरे दिन खाते हैं। आवश्यकतानुसार इसके अर्क का भी सेवन करते हैं।

 

 

जंगली अदरक में उपस्थित गुणकारी तत्त्व

अनेक वैज्ञानिक शोधों के विश्लेषण पर यह बात सामने आती है कि जंगली अदरक में पाए जाने वाले फिनाइल ब्यूटेनॉइड्स, जेरूमबोन, करक्यूमिनॉइड्स, टरपेनॉइड्स तत्त्व शक्तिशाली एंटी-ऑक्सीडेंट के रूप में कार्य करते हैं और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ बुखार, रूमेटिज्मसिर-दर्द, बदन- दर्द अस्थमा और प्रदाह के निवारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जंगली अदरक से बनी हुई काली चाय का सेवन पातालकोट के आदिवासी प्रातःकाल खाली पेट करते हैं। इस चाय में दूध का उपयोग निषिद्ध है। यह काली चाय उनकी इम्यूनिटी को बढ़ाती है और खांसी, जुखाम, बलगम की समस्याओं को तीन-चार दिन के उपयोग के पश्चात खत्म कर देती है। पातालकोट की वन अदरक आम अदरक की तुलना में अत्यधिक प्रभाव सिद्ध है। कोरोना ग्रस्त मरीजों में रोग मुक्त होने के पश्चात याददाश्त के कमज़ोर होने या भुलक्कड़पन की जो समस्या रही है उसमें भी जिंजिबर परप्यूरीयम के तत्त्व अत्यंत लाभकारी सिद्ध हो सकते हैं। नकाई (2016) जैसे अनेक अध्ययन बताते हैं कि याद रखने की क्षमता को बढ़ाने वाले तत्त्व जंगली अदरक में प्रचुर मात्रा में उपस्थित हैं जो मानव मस्तिष्क को मज़बूत करने में सक्षम हैं।

              

अतः विभिन्न शोधपत्र जो इस अध्ययन में शामिल किए गए हैं वह पातालकोट के जड़ी-बूटियों के ज्ञाता 'भुमका' या 'पड़िहार' के दावों की पुष्टि करते हैं।

 

निष्कर्ष : वर्तमान अध्ययन के आधार पर यह कह सकते हैं कि यह दोनों ही वनौषधियाँ कोरोना वैश्विक महामारी के कई लक्षणों से लड़ने में सक्षम प्रतीत होती हैं। इसके अतिरिक्त इनमें से एक केवकंद लॉकडाउन के दौरान उत्त्पन्न होने वाले अवसाद एवं तनाव दोनों को कम करने में सक्षम है। केवकंद में पाये जाने वाले तत्त्व पल्मोनरी संक्रमण में इसके एक कारकऐस्परजिलस नाइगरको समाप्त करने में अचूक हैं। रेस्पाइरेटरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन के ईलाज में बड़ी मात्रा में प्रयुक्त एन्टीबायोटिक्स के परिणाम स्वरूप उत्त्पन्न एन्टीबायोटिक रेजिस्टेंस के निदान हेतु केवकंद बहुत ही महत्त्वपूर्ण ड्रग के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। श्वसनीशोथ या श्वसनी के श्लेष्मकला के प्रदाह में भी यह अचूक औषधि है। श्वसन नली की लाइनिंग के ऊतक की कोशिकाओं की उत्तेजना/ सूजन को भी यह तेजी से कम करती है। चीन के युनान विश्वविद्यालय में भी केवकंद के औषधीय महत्त्व पर शोध हुए हैं। कोरोना ग्रस्त मरीजों में रोग मुक्त होने के पश्चात याददाश्त के कमज़ोर होने या भुलक्कड़पन की जो समस्या रही है उसमें भी जिंजिबर परप्यूरीयम के तत्त्व अत्यंत लाभकारी सिद्ध हो सकते हैं।

 

वर्तमान में चूंकि आयुष मंत्रालय भी शोध कर रहा तो जनजातीय, देशज और परम्परागत औषधि की महत्ता की जानकारी आम जनमानस को भी स्पन्दित करेगी यही उद्देश्य है। तीव्र बुखार, निमोनिया, बदन दर्द, गले में दर्द, खाँसी, खराश, कफ़, साँस लेने में समस्या, कमजोर इम्यूनिटी जैसी समस्याओं के ईलाज में, जो कोरोना के प्रमुख लक्षण हैं, दोनों ही रामवाण औषधि हैं अगर इस सूचना का प्रवाह होगा तो इसका बड़ा प्रभाव पड़ेगा एक ओर यह देश की परंपरागत, देशज, लोकऔषधि को पुनर्जीवित करने हेतु महत्त्वपूर्ण होगा तो दूसरी तरफ जनजातियों की विधा को भी उचित सम्मान मिल सकेगा साथ ही साथ आम जनमानस जैव विविधता संरक्ष के प्रति भी जागरूक होगा।

वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या यह है कि देशज/नृजातीय औषधि और आधुनिक/ पश्चिमी चिकित्सा पद्धति के मध्य अनेकानेक कारणों एवं कारकों जैसे कि झोलाछाप चिकित्सकों, स्वयंभू चिकित्सकों, अप्रशिक्षित गुणी, झाड़-फूँक कर्ता, उपहासपूर्ण प्रक्रियाओं के माध्यम से रोग निदान आदि के कारण दूरी बनी हुई है लेकिन एक सामंजस्यपूर्ण कार्य योजना/कार्यनीति के माध्यम से इन कारकों एवं मुद्दों को सुलझाया जा सकता है। इनको सुलझाना इसलिए भी अत्यंत आवश्यक है क्योंकि ये मुद्दे दोनों ही पद्धतियों की प्रस्थितियों के मध्य गंभीर खाई को प्रतिबिंबित करते हैं और यह मुद्दे देशज ज्ञान एवं नृजाति चिकित्सा के लिए घातक हैं। दोनों में वास्तविक एकीकरण (इंटीग्रेशन) के लिए यह अतिआवश्यक है कि एक ऐसी कार्ययोजना बने जो आधुनिक एवं परंपरागत औषधि के मध्य अर्थपूर्ण अंतर-विधायी सहयोग को प्रोत्साहित करे। ऐसा करने के बाद ही परंपरागत औषधि को अधीनतापूर्ण स्थिति से ऊपर उठा कर स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की मुख्यधारा में समाहित किया जा सकता है। देशज चिकित्सा के गुणी, लोक चिकित्सकों और शमन, ओझा आदि को आधुनिक औषधि के विभिन्न पहलुओं से जोड़कर, उनको प्रशिक्षण देकर दोनों चिकित्सा प्रणालियों के मध्य अंतराल/ शून्यता को काफी हद तक भरा जा सकता है। इसके साथ देशज तंत्र को साक्ष्य-आधारित, प्रयोगशाला- आधारित बनाने, इसकी औषधियों का वैज्ञानिक आधारों के द्वारा विश्लेषण करने और वृहत डेटाबेस बनाने, दोनों चिकित्सा पद्धतियों के मध्य सैद्धांतिक, दार्शनिक, ज्ञानतत्वमीमांसात्मक पहलुओं के विभेदों एवं असहमतियों का निराकरण करने की नितांत एवं अविलंब आवश्यकता है। यह भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि परम्परागतऔषधि और देशज ज्ञानतंत्र कतई अवैज्ञानिक नहीं है और कई पीढ़ियों से परखा हुआ अनुभवजन्य ज्ञान होता है लेकिन प्राकृतिक और प्रयोगशाला आधारित विज्ञानों की तरह इनकी प्रभाविकता को भी जाँचने- परखने की भी आवश्यकता है और इस विधा के जानकारों को इसका स्वागत करना चाहिए तथा कतई इसको दूसरे अर्थ में लेने की या अहं से जोड़ने की जरूरत नहीं है।

 

आभार : शोधकर्ता इलाहाबाद विश्वविद्यालय को इस शोधकार्य हेतु आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए आभार व्यक्त करता है। साथ ही साथ डॉ. नीति राज सिंह(संयुक्त संचालक, आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्था, भोपाल, मध्य प्रदेश सरकार) श्री रवि कनौजिया, (एरिया मैनेजर, तामिया एवं पातालकोट) श्री रामदयाल (अधीक्षक, नवीन आदिवासी बालक आश्रम, चिमटीपुर) चिमटीपुर, रातेड़ और कारेआम के निवासियों, वहाँ के भुमका और पड़िहार तथा इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय के संकायाध्यक्ष प्रो. शेखर श्रीवास्तव, इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के परीक्षा नियंत्रक एवं इस विषय में ख्यातिलब्ध प्रो. रामेंद्र कुमार सिंह का सादर धन्यवाद ज्ञापित करता है जिन्होंने इस शोधकार्य को संपन्न करने में सदैव मार्गदर्शन प्रदान किया।

 

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डॉ राहुल पटेल
सहायक आचार्य (स्तर तृतीय), मानवविज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय (केंद्रीय विश्वविद्यालय) प्रयागराज-211002.
rahul.anthropologist@gmail.com, 09451391225

 

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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