शोध आलेख : समावेशी लोकतंत्र के आईने में आधी आबादी के विकास का सच/आसीन खाँ

समावेशी लोकतंत्र के आईने में आधी आबादी के विकास का सच
- आसीन खाँ

       शोध सार : भारतीय जन-मानस के मन-मस्तिष्क में जातीय नफ़रत, लैंगिक भेद, धार्मिक भेदभाव व पूर्वाग्रह जैसे असमानताकारी भाव उसके समाजीकरण की प्रक्रिया एवं परवरिश के रूप में हस्तांतरित सामान्य संस्कार लगते हैं जिनके कारण देश में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिला जैसे वंचित वर्ग शोषित व प्रताड़ित होते रहे हैं। किसी भी प्रगतिशील, सभ्य, लोकतांत्रिक व समावेशी समाज में धर्मजाति व लिंग आधारित शोषण का बने रहना पीड़ादायक होता है। भारत में लैंगिक आधार पर होने वाले विभेद का परिणाम महिला उत्पीड़न, शोषण, भ्रूणहत्या एवं हिंसा जैसे कई रूपों में परिलक्षित होता है, जो एक समावेशी लोकतंत्र की राह में गंभीर चुनौती पेश करता है। देश में पहले से ही विद्यमान असमानतापूर्ण आर्थिक ढांचे से उत्पन्न वितरणात्मक असमानता का प्रभाव महिला वर्ग पर, सीधे-सीधे संसाधनों पर नियंत्रण एवं अधिकार के रूप में दिखाई पड़ता है। व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक तौर पर सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में समानता के भाव के साथ सहभागिता समावेशी लोकतांत्रिक विकास की बुनियाद है।
 
बीज शब्द : महिलाएं, वंचित वर्ग, लैंगिक भेद, उत्पीड़न, शोषण, सहभागी विकास, समावेशी लोकतंत्र, महिला श्रम शक्ति, कृषि क्षेत्र, असंगठित श्रम, गरीबी, बेरोजगारी, असमानता।
 
मूल आलेख : प्रसिद्ध नारीवादी चिंतक एवं लेखक सिमोन द बोउवर का कथन कि- “नारी पैदा नहीं होती बल्कि उसे नारी बना दिया जाता है”, विश्व विख्यात उद्धरण मात्र नहीं है बल्कि एक वाक्य में सम्पूर्ण विश्व के समाजीकरण का यथार्थ है। हमारे देश की कुल आबादी में लगभग आधी हिस्सेदारी महिलाओं की है जो राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक रूप से वंचित, उपेक्षित और हाशिये पर है। स्वाधीनता के बाद सात दशक से अधिक की विकास प्रक्रिया में भारतीय समाज के सभी वर्गों को पर्याप्त भागीदारी व हिस्सेदारी नहीं मिली है। जहां एक ओर सभी महिलाओं को पुरुषसत्तात्मक ढांचे से संघर्ष करना पड़ रहा है तो वहीं दूसरी ओर मुसलमान, दलित व आदिवासी वर्गों की महिलाएं 21वीं सदी में भी उपेक्षित व हाशिये पर हैं और वंचना की पीड़ा झेल रही हैं। भारत की जनसंख्या में 48 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी वाली महिला आबादी का जीवन बहुत कठिन और यतनाओं से भरा हुआ है।[1]
 
    जनगणना-2011 के आंकड़ों के विश्लेषण से हम यह पाते हैं कि भारत में 58.64 करोड़ महिलाओं में से एक तिहाई अशिक्षित हैं, लिंगानुपात अर्थात प्रति एक हजार पुरूषों पर महिलाओं की संख्या 940 है जो सामाजिक ढांचे के पुरुषसत्तात्मक होने को उजागर करता है। बाल लिंगानुपात समाज में महिलाओं के प्रति सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक प्रतिमानों का द्योतक होता है। बाल लिंगानुपात सूचकांक का चिंताजनक स्तर प्रति हजार 914 तक गिर जाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि बालिका भ्रूण को गर्भ में ही मार दिया जा रहा है।[2] राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, गृह मंत्रालय, भारत सरकार के 2012 के आंकड़ों के अनुसार अखिल भारतीय स्तर पर हुए कुल अपराधों में 41.7 प्रतिशत अपराध महिलाओं के खिलाफ़ हुए हैं जो 2011 की तुलना में 6.8 प्रतिशत अधिक हैं। भारत में महिलाओं के विरुद्ध घरेलू हिंसा, दहेज हत्या, मादा भ्रूणहत्या, यौन हिंसा, सामूहिक दुष्कर्म, छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म आदि घटनाएं बड़े पैमाने पर हो रही हैं। बड़े दु:ख की बात है कि आज देश का भविष्य और बचपन दोनों शोषण, दुष्कर्म और अन्याय की गिरफ़्त में हैं।[3]
 
    महिला वर्ग के जनसांख्यिकीय आंकड़ों के अध्ययन से उजागर होता है कि देश में किस तरह से महिलाओं को समाज की विभिन्न गतिविधियों- सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक- में हाशिये पर रखा जा रहा है। भारतीय समाज में पुत्र को परिवार का वारिस व पुत्री को दायित्व या बोझ समझने की परंपरागत मानसिकता आज भी मौजूद है। हमारे परिवेश में वैचारिकता एवं व्यावहारिकता में समानांतर अंतराल है और यह बढ़ता ही जा रहा है। उल्लेखनीय है कि हम जहां एक ओर शहरी महिलाओं के रहन-सहन, चाल-चरित्र, चिंतन, शिक्षा, व्यवसाय आदि को सारे भारत का प्रतिदर्श समझने की भूल करते हैं वहीं दूसरी ओर ग्रामीण महिला आज भी अपनी बुनियादी आवश्यकताओं जैसे- ईंधन, शुद्ध पेयजल, शौचालय व्यवस्था आदि के लिए संघर्ष कर रही है।[4]
 
    पूंजीवाद को प्रोत्साहित करने वाली नव उदारवादी विकास नीतियों ने लैंगिक विभेद और जाति व्यवस्था पर प्रहार किया है और एक हद तक इनको कमजोर करने में सफलता भी पाई है, परंतु इसने वंचितों के बीच ही कई प्रकार की असमानताओं को भी जन्म दिया है।[5] महिला वर्ग की बात करें तो इनमें ग्रामीण-शहरी अंतर व अंतराल बढ़ा है, खासतौर से आर्थिक गतिविधियों में सक्रियता और सहभागिता को लेकर। ग्रामीण महिलाएं शहरी महिलाओं की तुलना में घरेलू हिंसा की अधिक शिकार होती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में उनको स्वास्थ्य और पोषण संबंधी असमानताओं, रोजगार के अवसरों के अभाव, संपत्ति पर मालिकाना हक न होने जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है, वहीं पुरुषों की तुलना में उन्हें घरेलू कार्यों और बच्चों की देखभाल की अधिक  ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है। महिलाओं की गरीबी व बेरोजगारी वास्तव में आर्थिक अवसरों की कमी और स्वतंत्रता के अभाव से जुड़ी है। गरीबी व बेरोजगारी का ग्रामीण महिलाओं पर कहीं अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।[6]
 
    यद्यपि हमारे सामाजिक परिदृश्य में आज भी महिलाओं की निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी को अनदेखा किया जाता है परंतु ग्रामीण महिलाओं की निर्णय लेने में भागीदारी लगभग शून्य कही जा सकती है, क्योंकि उन्हें आर्थिक संसाधन, शिक्षा और सहयोग आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी सभी महिलाओं की स्थिति एकसमान नहीं है और भू-क्षेत्रों के अनुसार उनकी आवश्यकताएं एवं प्राथमिकताएं भी अलग-अलग हैं। उनकी विविध आवश्यकताओं को पूरा किए बिना समावेशी विकास के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।[7] कृषि अर्थव्यवस्था एवं ग्रामीण क्षेत्रों में विकास कार्यों को आगे बढ़ाने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। वे स्थायी विकास के लिए अपेक्षित रूपांतरकारी आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक बदलावों को अंजाम देने में उत्प्रेरक के रूप में काम करती हैं। संपूर्ण भारत में कृषि क्षेत्र में महिलाओं की व्यापक भागीदारी को देखते हुए ग्रामीण महिलाओं का सशक्तिकरण न केवल व्यक्तिगत, पारिवारिक और ग्रामीण समुदायों की खुशहाली के लिए आवश्यक है अपितु ग्रामीण अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक उत्पादकता के लिए भी महत्वपूर्ण है। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के कार्यक्रमों और प्रतिवेदनों के अध्ययन से पता चलता है कि सामान्य रूप से सभी महिलाओं और विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं का फायदा उठाने के लिए अब भी कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए अब सरकार महिलाओं के स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों पर काफी ध्यान दे रही है।[8]
 
    भारतीय परिवेश में महिला श्रम के साथ कार्य निर्धारण, कार्य मूल्यांकन, पारिश्रमिक आदि में व्यापक भेदभाव देखने को मिलता है। महिला-पुरुष में श्रम विभाजन का सबसे विभेदकारी व दोषपूर्ण स्वरूप घरेलू कार्यों के रूप में देखा जा सकता है जो उनके भावनात्मक शोषण का कारण व आधार बना है। घरेलू कार्य महिलाओं द्वारा किये जाते हैं और उन्हें उनका कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता, यहां तक कि इन कार्यों को आर्थिक गतिविधियों में शामिल ही नहीं किया जाता है।[9] श्रम विभाजन के इस विभेदकारी स्वरूप के कारण महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की रह जाती है। भारत में श्रम बाजार के परिदृश्य के संदर्भ में भी साफ तौर से कहा जा सकता है कि संगठित व असंगठित क्षेत्रों में विषमता तथा इनमें कार्यरत पुरुषों व महिलाओं की स्थितियों में लगभग अन्याय की सीमा तक असमानता देखने को मिलती है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को शोषण, असमानता, उत्पीड़न व अन्याय का शिकार होना पड़ता है। महिलाओं को अधिक श्रम करना पड़ता है और रोज़गार पाने से लेकर उनके श्रम के मूल्यांकन तक में भेदभाव आम बात है। आर्थिक गतिविधियों के निर्धारण में इस प्रकार की असमानता ने मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व आर्थिक स्तरों पर महिलाओं के प्रति समाज में एक उपेक्षित सोच को जन्म देने का काम किया है।[10]
 
    राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन के 2011-12 के आंकड़ों के अनुसार देश की कुल श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी 24 प्रतिशत है। विभिन्न प्रकार के कार्यालयों, कंपनियों, बैंकों आदि में उच्च प्रबंधकीय पदों पर केवल 14 प्रतिशत महिलाएं हैं। श्रमिकों के लैंगिक समानता के मानदंड पर भारत का स्थान 134 देशों में 120वां रहा। एनएसएसओ द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार देश की 86 फ़ीसद महिलाओं के श्रम का आर्थिक मूल्यांकन न के बराबर है और उन्हें आर्थिक रूप से पुरुषों पर आश्रित माना जाता है। इसका कारण यह है कि महिलाओं द्वारा किये जाने वाले घरेलू कार्यों जैसे- भोजन पकाना, कपड़े धोना, बच्चों की परवरिश व शिक्षा, साफ-सफाई आदि कार्यों को औपचारिक रूप से श्रम नहीं माना जाता है और इनका आर्थिक मूल्यांकन नहीं किया जाता है।[11]  देश की कुल श्रमशक्ति में शामिल अधिकांश महिलाएं असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, जहां कार्य की दशाएं एवं स्थितियां भेदभावपूर्ण व शोषण को बढ़ावा देने वाली होती हैं। इनमें मुख्य रूप से कृषि, पशुपालन, निर्माण कार्य, घरेलू नौकर, दुकानों पर काम और छोटे-मोटे अन्य कार्य शामिल हैं। महिला श्रमिक सबसे अधिक कृषि क्षेत्र में काम करती हैं। कृषि क्षेत्र में महिला श्रम का लगभग 75 फ़ीसदी योगदान है। खेती-किसानी के विभिन्न काम पारंपरिक रूप से बंटे हुए हैं। जहां जुताई और उपज को बाजार में बेचने जैसी गतिविधियों में पुरुषों का वर्चस्व है, जो इन दिनों काफी हद तक मशीनों से होने लगी हैं, वहीं महिलाएं निराई, रोपाई, फ़सल कटाई जैसे कार्यों में लगी होती हैं; जिनमें कड़ी मेहनत लगती है।12]
 
    कृषि क्षेत्र में महिला श्रम के व्यापक योगदान के बाद भी उन्हें किसान नहीं माना जाता है। वर्ष 2011 में, किसान स्वामित्व कानून बन जाने के बावजूद कृषि क्षेत्र की अधिकांश महिलाएं असमानता, भेदभाव एवं आर्थिक व शारीरिक शोषण से मुक्त नहीं हो सकी हैं। यद्यपि अब महिलाएं उद्योग व सेवा क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं परंतु भारतीय अर्थव्यवस्था में 93 प्रतिशत श्रम शक्ति असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है जिसमें महिला श्रम की प्रधानता है। कृषि क्षेत्र के अलावा गैर-कृषि असंगठित क्षेत्र के व्यवसायों में महिलाएं बड़ी संख्या में कार्यरत हैं। इस आधार पर कह सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र का विकास सीधे तौर से वंचित वर्ग और महिलाओं के सामाजिक व आर्थिक विकास और अर्थव्यवस्था के समावेशीकरण से जुड़ा है।
 
हाल के वर्षों में देश के विभिन्न भागों में हुए किसान आंदोलनों और पंजाब, हरियाणा उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों से देश की राजधानी दिल्ली की ओर कूच करने के उपरांत हुए पड़ाव के बाद राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन में महिला किसानों की उल्लेखनीय सहभागिता न केवल किसान नेताओं के लिए हर्षित कर देने वाली घटना थी अपितु इस आंदोलन की ओर विश्व समुदाय का ध्यान खींचने वाली बात रही है । आंदोलन के दौरान महिला किसान अपनी स्वतंत्र पहचान कायम करके अग्रिम पंक्ति में खड़ी दिखाई दी। किसान आंदोलन के नेताओं ने महिलाओं  की सक्रिय नेतृत्वकारी भागीदारी को ससम्मान सराहा और महिला श्रम को आदर दिया। उल्लेखनीय है कि पंजाब, हरियाणा उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे प्रान्तों, जहां गहरी पितृसत्तात्मक सामंती सामाजिक संरचना मौजूद है, वहां किसान आंदोलन में महिलाओं का स्वतंत्र किसान के रूप में उभरकर आना बेशक बड़ी घटना है। इस रूप में किसान आंदोलन, महिला सशक्तिकरण आंदोलन के रूप में भी काम करने  वाला सिद्ध हुआ है।
 
    2018 में नासिक से  मुंबई तक के महिला किसानों के मार्च के दौरान पीपुल्स आर्काइव्स ऑफ रूरल इंडिया (PARI) ने महिला किसानों पर एक लेख लिखा। इससे राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के श्रम बल का मुद्दा फोकस में आया। इसके बाद 2020 में तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन में हज़ारों महिलाओं ने सहभागिता की। टिकरी बार्डर पर भारतीय किसान यूनियन से जुड़ी महिला आंदोलनकारी हरप्रीत कौर बताती हैं कि उनके क्षेत्र (भटिंडा जिला) में किसानों की बढ़ती आत्महत्या की समस्या के कारण किसानों के विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं की अधिक व्यक्तिगत हिस्सेदारी है। क्योंकि उनकी समस्या कृषि संकट तो है ही, इस  संकट के चलते उनके पुरुषों की आत्महत्याओं के कारण महिलाओं में विधवा होने का संकट भी बढ़ रहा है। कमोबेश ऐसी स्थिति से अन्य प्रान्तों की महिलाओं को भी गुजरना पड़ा है। इसलिए पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश  और राजस्थान की महिलाओं ने दिल्ली के चारों तरफ़ किसानों के आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया। इन महिलाओं ने घरेलू जिम्मेदारियों को निभाते हुए आंदोलन को धीमा नहीं पड़ने दिया। इसके लिए उन्होंने विशेष रोटेशन सिस्टम तैयार किया। जिसके अनुसार हर पांच-दस दिनों के बाद परिवार की कुछ महिलाएं आंदोलन से घर लौट जाती थी और उनके स्थान पर परिवार की ही दूसरी महिलाएं आंदोलन में शामिल हो जाती थी। कई महिलाओं ने आंदोलन स्थलों पर स्वैच्छिक तौर पर खाना पकाने, दवा वितरण, बैठकों के आयोजन, प्रेस ब्रीफिंग की गतिविधियों के माध्यम से अपनी एकजुटता दिखाई। ऐसी ही एकजुटता राजस्थान में भी सीटू से जुड़ी आशा कार्यकर्ताओं ने भी दिखाई। उन्होंने शिविर लगाकर आंदोलनकारियों को मुफ्त में दवाइयां बांटी। इन महिलाओं के जज्बे को देखकर अखिल भारतीय  किसान सभा के नेता अमरा राम, जिन्होंने जयपुर दिल्ली राजमार्ग के शाहजहांपुर बॉर्डर पर आंदोलन का नेतृत्व किया था, का कहना है कि “महिला किसान अगली पंक्ति में आकर लड़ाई लड़ रही हैं और हम उनका अनुसरण कर रहे हैं”। संयुक्त किसान मोर्चा ने भी 13 जनवरी 2021 को प्रेस नोट में लिखा था कि कृषि में महिलाओं का योगदान अतुलनीय है और यह आंदोलन महिलाओं का भी एक आंदोलन है। किसान आंदोलन और इससे पूर्व शाहीन बाग आंदोलन की विशेषता यह है कि इन्होंने भारतीय महिलाओं की  रूढ़िवादी छवि को चुनौती दी है। इन आंदोलनों से पता चलता है कि आधुनिक विरोध स्थल प्रतिरोध और शक्ति के साथ साथ लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण के लिए भी महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। यह सही है कि पिछले कुछ वर्षों से महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया बदला है खास तौर से देशभर में हुए किसान आंदोलनों में महिलाओं की उत्साह जनक सहभागिता के बाद से। परंतु इन सुखद और सकारात्मक उदाहरणों के बाद भी हम इस ज़मीनी सच को नज़रअंदाज नहीं कर सकते हैं कि देश की महिला आबादी के लिए अभी बहुत कुछ करना शेष है।
 
    कोरोना महामारी के दौरान मार्च, 2020 और उसके बाद सरकारों द्वारा घोषित देशबंदी के कारण देश भर में आर्थिक व व्यावसायिक गतिविधियां ठप हो गई। परिणामस्वरूप असंगठित क्षेत्र ने श्रमिकों को निकाल दिया, विशेष रूप से अनौपचारिक क्षेत्र ने। भारतीय अर्थव्यस्था के निर्माण क्षेत्र में महिला, दलित और अन्य वंचित वर्गों के लोगों की बहुलता है जिन्हें महामारी के दौरान अपने रोजगार से हाथ थोना पड़ा। इन कामगारों में बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल थी।[13]  वैसे तो स्वतंत्रता के बाद वंचितों की स्थितियों में काफी सुधार हुआ है परंतु उनको हाशिये पर धकेलने और उनके बहिष्कार की स्थितियां आज भी बनी हुई हैं, विशेष रूप से महिलाओं को लेकर; जो किसी भी प्रगतिशील व सशक्त लोकतंत्र के लिए न केवल चिंता की बात है अपितु उसके समावेशीकरण के प्रयासों पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न भी है।
 
    राजनीतिक परिदृश्य में दोषपूर्ण पुरुषवादी वर्चस्व एवं भेदभावपूर्ण व्यवहार ने महिलाओं के प्रतिनिधित्व व सहभागिता के साथ-साथ उनकी भूमिका को भी सीमित बना कर रखा है। निर्णय प्रक्रिया में सहभागिता के अभाव के कारण प्राय: महिलाओं को संसाधनों के दोषपूर्ण वितरण, अपने हितों की उपेक्षा एव दूसरी वंचनाओं से लगातार जूझना पड़ता है। भारतीय समाज के असमान सामाजिक ढांचे में विकास की एक पूंजीवादी व्यवस्था विद्यमान है जो असंतुलित वितरण के रूप में साफ देखी जा सकती है। शक्ति, संपदा और अवसरों का असमान वितरण अथवा वितरणात्मक असमानता एवं विषमता के कारण समाज का एक विशेष वर्ग ही लाभान्वित होता रहा है और बड़ी संख्या में उपेक्षित जन जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल हैं, वे गरीबी से पीड़ित हैं और उनको हाशिये पर धकेल दिया गया। इतना ही नहीं उनके लिए अवसरों की उपलब्धता या फिर उन तक पहुंच को खास तरीकों से सीमित कर दिया गया है।[14]
 
    समावेशी लोकतंत्र एक व्यापक अवधारणा है, जिसका उद्देश्य हर स्तर पर नये समाज का पुनर्निमाण करना है, जहां पर सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व एवं सहभागिता सुनिश्चित हो। यह जन अवधारणा भी है और इसका यह उद्देश्य है कि सभी मनुष्य बिना किसी भेद के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक स्तर पर अपने कल्याण का नियमन व नियंत्रण स्वयं करें अर्थात लोग निर्बाध रूप से स्वयं अपना निर्धारण करें। महिलाओं के विकास और सशक्तिकरण के लिए यह जरूरी है कि उनको महिला के रूप में स्वतंत्रता, सम्मान, स्वीकृति, प्रतिनिधित्व और भागीदारी के समान अवसर व अधिकार उपलब्ध हों और वह उनका बिना झिझक उपयोग करे। समावेशी लोकतंत्र और समावेशी विकास न केवल राजनीतिक समावेशीकरण की बात करता है अपितु स्पष्ट रूप से सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में समावेशीकरण को भी आवश्यक मानता है जिसमें लिंग के आधार पर सभी प्रकार की वंचनाओं का निषेध शामिल है। समन्वित व समावेशी आर्थिक विकास तभी संभव है जब आर्थिक संवृद्धि के लाभों का वितरण और आर्थिक ढांचागत परिवर्तन लैंगिक समानता के साथ जनसामान्य के जीवन स्तर को ऊपर उठाने में सहायक हों। स्पष्ट रूप से समाज के निचले तबकों, वंचित व उपेक्षित वर्ग के लोगों की स्थिति में सुधार, उत्पादन के तौर-तरीक़ों में परिवर्तन, शिक्षा के स्तर में सुधार, कुशल श्रम बल, जीवन मूल्यों की संकीर्णता से मुक्ति और प्रतिधित्व के साथ-साथ सहभागी लोकतांत्रिक व्यवस्था समावेशी आर्थिक विकास की अनिवार्यताएं हैं।[15]
 
    देश का संविधान महिलाओं को न केवल समानता का दर्ज़ा देता है अपितु उनके पक्ष में सकारात्मक रुख़ अपनाने के उपायों के लिए भी सरकारों को सक्षम बनाता है। तत्कालीन सरकार ने 73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों के जरिये पंचायतों एवं स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने का एक सराहनीय प्रयास किया है परंतु राज्य विधान सभाओं व संसद में महिलाओं की भागीदारी को लेकर अभी तक कोई गंभीर पहल नहीं की गई है। भारत सरकार ने, महिलाओं के मुद्दों के प्रति संवेदनशील होकर महिला नीति बनाई है। राष्ट्रीय महिला नीति- 2016 में महिला जीवन के विभिन्न पहलुओं और उनके महत्व को स्वीकार करते हुए उनके विकास से संबंधित महत्वपूर्ण विषयों को शामिल किया है साथ ही महिलाओं को सक्रिय कारक के तौर पर मान्यता प्रदान करते हुए ऐसे कई उपाय सुझाए गए हैं, जो बड़े ढांचागत मुद्दों को संभालने के लिए किए जाते हैं। इस नीति में बुजुर्गों, रजोनिवृति की उम्र वाली महिलाओं तथा महिलाओं की अन्य शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी स्थितियों को खासतौर से रेखांकित किया गया है। नीति दस्तावेज़ के अनुसार यह नीति एक ऐसे समाज की रचना करने का गंभीर प्रयास है जिसमें महिलाएं जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी पूर्ण क्षमता प्राप्त कर सकें और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया पर प्रभाव डालने में समर्थ बन सकें। महिलाओं के विकास के लिए भारतीय सामाजिक परिदृश्य में वास्तविक रूप में महिलाओं के अस्तित्व की स्वीकार्यता और उनकी राजनीतिक व सामाजिक भागीदारी के साथ-साथ आर्थिक सहभागिता अभी प्रतीक्षित है।[16]
 
निष्कर्ष एवं सुझाव: विश्व के अधिकांश देश जहां एक ओर इक्कीसवीं सदी के आधुनिकतम वैज्ञानिक व भौतिक परिवर्तनों के दौर से गुजर रहें हैं वहीं दूसरी तरफ़ भारत में वंचित वर्ग में शामिल महिलाएं मध्ययुगीन कष्टकारी जीवन जीने को अभिशप्त हैं। इनके लिए अभी भी आर्थिक समानता, सामाजिक न्याय व मानवाधिकारों की बात बेमानी सी लगती है। भारत की आधी आबादी में विद्यमान शोषण, उत्पीड़न व पिछड़ेपन की स्थितियां समाज व अर्थव्यवस्था के समावेशीकरण की वास्तविकता को उजागर करके उसके अंधेरे पक्ष को सामने लाती हैं जिन पर हमारा शासन तंत्र न तो गंभीरता से ध्यान देता है और न ही सही अर्थ में इनके निवारण में रुचि लेता हुआ दिखाई देता है।
 
    भारत में सच्चे अर्थ में लोकतंत्र तभी सार्थक हो सकता है जब राष्ट्रीय विकास के सभी क्षेत्रों- राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक, में महिला व पुरुष सहभागी हों और देश के सभी वर्गों व क्षेत्रों से संबद्ध महिलाएं व्यक्तिगत व सामूहिक निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हों। जब तक समाज के सभी शोषित, पीड़ित, वंचित व उपेक्षित लोग सामाजिक व राजनीतिक लोकतंत्र से लाभान्वित होकर उत्पादन प्रक्रिया व उत्पादन के साधनों में सहभागी और हिस्सेदार बनकर सुरक्षित, भयमुक्त तथा गरिमापूर्ण जीवन जीने नहीं लग जाते; विशेष रूप से महिलाएं, तब तक समावेशी लोकतांत्रिक विकास की अवधारणा आदर्श के अलावा कुछ नहीं है।[17] विकास के समावेशीकरण के लिए यह आवश्यक है कि समाज के वंचित, उपेक्षित, बहिष्कृत व हाशिये के लोगों का (खास तौर से महिलाओं का) राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक सशक्तिकरण करके विकास प्रक्रिया में इन वर्गों की निर्बाध सहभागिता एवं सहअस्तित्व को सुनिश्चित किया जाए, अन्यथा समाज व राष्ट्र की ज़मीनी वास्तविकता समावेशी विकास के वास्तविक अर्थ से कहीं दूर आदर्श के अंधेरों में दम तोड़ती रह जाएगी।
 
संदर्भ सूची :

1.   कणिका तिवारी, महिला सशक्तिकरण का आत्मावलोकन’, कुरुक्षेत्र, अगस्त 2013, पृ.4.
2.   भारत की जनगणना-2011 रिपोर्ट, भारत सरकार.
3.   राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, गृह मंत्रालय, भारत सरकार.
4.   ममता जैतली एवं प्रकाश शर्मा, आधी आबादी का संघर्ष’, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006.
5.   सुधा पई, वंचित वर्ग का बहिष्कार और हाशिये की स्थिति, योजना, अगस्त 2013, पृ.44.
6.   उमेश कुमार राय एवं रेखा अजवानी, (सं.) मीडिया: अतीत, वर्तमान एवं भविष्य’, श्री नटराज
        प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृ.124.
7.   पूर्णिमा जैन, जेंडर जस्टिस एंड इंक्लुजन’, रावत पब्लिकेशन, जयपुर, 2018.
8.   राकेश श्रीवास्तव, ‘ग्रामीण महिलाओं का सशक्तिकरण: आगे की राह कुरुक्षेत्र, जनवरी 2018,
        पृ.5.
9.   गौरव कुमार, ग्रामीण महिला सशक्तिकरण के सामाजिक-आर्थिक आयाम’, कुरुक्षेत्र, अगस्त
        2013, पृ.14.
10. सुभाष सेतिया, असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों की स्थिति’, योजना अक्टूबर 2014, पृ.67.
11. सुभाष सेतिया, उपरोक्त, पृ.68.
12. फूल सिंह सहारिया एवं देशराज वर्मा, (सं.) महिला सशक्तिकरण: यथार्थ एवं आदर्श’, बाबा
        पब्लिकेशन, जयपुर, 2017, पृ.166.
13. http://www.apnimaati.com/2021/07/19.html
14. फूलसिंह सहारिया एवं देशराज वर्मा, (सं.) महिला सशक्तिकरण: यथार्थ एवं आदर्श’, बाबा
        पब्लिकेशन, जयपुर, 2017, पृ.21.
15. गिरीश मिश्रा, आर्थिक संवृद्धि, रोजगार और दरिद्रता निवारण’, योजना अक्टूबर 2013, पृ.29.
16. कृष्ण चंद्र चौधरी, भारत में महिला सशक्तिकरण संपूर्ण पहलू’, प्रकाशन विभाग, सूचना और
        प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 2018.
17. नामदेव, समावेशी लोकतंत्र: आदर्श और यथार्थ’, योजना, अगस्त 2013, पृ.53.

 

आसीन खाँ 

सह आचार्य(अर्थशास्त्र)

बाबू शोभाराम राजकीय कला महाविद्यालय, अलवर

aseenalwar@gmail.com, 9460601973


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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