शोध आलेख : हिंदी के अस्मितावादी साहित्य के इतिहास लेखन में परंपरा, अनुभूति और चेतना का प्रश्न : स्त्री साहित्येतिहास के विशेष संदर्भ में - प्रदीप कुमार

हिंदी के अस्मितावादी साहित्य के इतिहास लेखन में परंपरा, अनुभूति और चेतना का प्रश्न : स्त्री साहित्येतिहास के विशेष संदर्भ में
- प्रदीप कुमार

शोध सार : हिंदी के स्त्री साहित्य में मुख्य रूप से तीन धाराएं हैं। पहली, ऐसी स्त्री साहित्यकारों और कवयित्रियों की धारा जिनकी मूल संवेदना और रचना कर्म का विषय-वस्तु समकालीन पुरुष साहित्यकारों की परिपाटी और परंपरा में है। इस तरह के स्त्री रचनाकारों की स्त्री साहित्य में उपस्थिति भक्तिकाल से लेकर आजतक मिलती है। इनमें से अनेकों स्त्री रचनाकार स्त्री-पुरुष साहित्य को पृथक रूप से देखने के पक्ष में नहीं है। दूसरी, ऐसे कवयित्रियों की धारा है जिन्होंने लोककथाओं, कविताओं और गीतों के माध्यम से स्त्री जीवन की नितांत निजी, विशिष्ट, अज्ञात, अनभिज्ञ, अप्रसारित, अनछुए अनुभवों और अनुभूतियों को अभिव्यक्ति दी है। इसे सामान्य साहित्य की परंपरा में स्त्री साहित्य की विशेष उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है। तीसरी, स्वतंत्र्योत्तर काल की ऐसी स्त्री साहित्यकारों और उनकी रचनाओंगद्य/पद्यकी धारा है, जिन्होंने पश्चिम से आई स्त्रीवादी चेतना, दर्शन, उसकी निर्मितियों और सिद्धांतों के आधार पर स्त्री की अस्मिता, अधिकार और पहचान पुरुष संदर्भ से अलग कर देखने को अपने रचनाओं का केंद्रीय विषय बनाया है। हिंदी के अस्मितावादी स्त्री साहित्य के इतिहास लेखन में इन तीनों स्त्री साहित्य की धाराओंयथा, परंपरा, अनुभूति और चेतनाका प्रश्न विशेष महत्व का होगा।

बीज शब्द : हिंदी साहित्य, साहित्येतिहास, स्त्री साहित्य, अस्मिता, अस्मितावादी साहित्य का इतिहास, साहित्येतिहास के प्रश्न, स्त्री विमर्श, पुरुष परिपाटी का साहित्य, स्त्री अनुभूति, स्त्री चेतना, साहित्य में देशकाल और जनता की चितवृत्ति का संबंध।

मूल आलेख : हिंदी संस्कृत या फिर अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में स्त्री कवियों और साहित्यकारों के रचनाओं की उपस्थिति की लंबी परंपरा रही है। यही कारण है कि जब पिछले दशकों में स्त्री साहित्य के इतिहास लेखन के प्रयास आरंभ हुए और छिट-पुट लिखे भी गए तो उनमें प्राचीन और मध्यकालीन दौर के बहुतेरे ज्ञात-अज्ञात स्त्री कवयित्रियों-साहित्यकारों के रचनाओं को स्त्री साहित्य के इतिहास में स्थान मिला। इसके पीछे यह धारणा थी कि किसी भी स्त्री द्वारा रचित किसी भी प्रकार का मौखिकलिखित, प्रमाणिकअप्रमाणिक, अपनी या किसी अन्य आसपास की मिलती-जुलती भाषा-बोलियों में लिखे गए साहित्य को स्त्री साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है।

इसी दृष्टि को अपनाते हुए सुमन राजे नेहिंदी साहित्य का आधा इतिहासमें लिखा है- "महिला लेखन की एक अविच्छिन्न धारा रही है, आवश्यकता उसे खोज निकालने की है और उसे एक आकार देने की। ऋग्वेद में रोमशा, लोपामुद्रा, श्रद्धा, कामायनी, ........... ममता एवं उशिज आदि ऋषिकाओं के नाम मंत्र दृष्टा के रूप में प्राप्त होते हैं।"[i]

इसी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने अपने इस साहित्येतिहास की पुस्तक में वैदिककाल, उसके पश्चात् के थेरीगाथाओं, संस्कृत, अपभ्रंश प्रकृत आदि भाषाओं के महिला कवयित्रियों की रचनाओं से लेकर भक्तिकाल, रीतिकाल के साथ-साथ आधुनिक काल में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक के भी दक्षिण-उत्तर और भारत के अन्य हिस्सों के हिंदी तथा अन्य भाषाओं यथामराठी, कन्नड़, मैथिली आदि के महिला रचनाकारों के साहित्य कोहिंदी के स्त्री साहित्यके इतिहास में स्थान देती चलती हैं।

ऐसा करने के पीछे उनका तर्क है कि– “लेकिन, कुछ चीजें ऐसी हैं, जिसने मेरे इतिहासकार को चिंताजनक आश्चर्य में डाल दिया है। जैसे कि यह तथ्य, कि काल और देश के एक ही बिंदु पर मात्र भाषा बदलने से रचना की मूल चेतना बदल जाती है। यदि मध्ययुग का उदाहरण लें तो हिंदी प्रदेश की महिलाएं अरबी-फारसी, संस्कृत, अपभ्रंश और हिंदी की विभिन्न बोलियों में रचना कर रही थीं। काल में समानांतर होते हुए भी चेतना के स्तर पर वे पृथक-पृथक रचनाएं हैं। ऐसी स्थिति में यदि भाषागत आधार मानकर इतिहास लिखें तो सबकी मूल प्रवृत्तियां पृथक-पृथक हो जाएंगी। फिर जिसे शुक्ल जी शिक्षित जनता की चित्तवृत्ति कहते हैं, उसे किसके साथ जोड़ा जाएगा।[ii] सुमन राजे के इस प्रश्न के संदर्भ में दो बातें कही जा सकती हैं। पहला, जैसा कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने स्थापित किया है- साहित्य लेखन के प्रेरणा में तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक स्थितियों - जिसे शुक्ल जी शिक्षित जनता के चित्तवृत्ति के रूप में देखते हैं - के साथ-साथ किसी खास भाषा के साहित्य में चली रही परंपराओं का भी गहरा प्रभाव रहता है। दूसरा, यह कि प्रकारांतर से सामान देश-काल में दो अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग संवेदना, चेतना और प्रवृत्तियों वाले साहित्य लिखे जाने के पीछे उस भाषा विशेष के या उस भाषा का व्यवहार करने वाले उस देश-काल के समुदाय विशेष केशिक्षित जनों की चित्तवृत्तिमें अंतर हो सकता है, जो रचना के विषय और प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती हो। हिंदी आंदोलन और हिंदी उर्दू-विवाद के समय इसी उत्तर भारत में हिंदी और उर्दू में लिखे जाने वाले साहित्य की प्रवृत्तियों में अंतर दिखाई पड़ता था, जिसकी चर्चा करते हुए, एक दूसरे भाषा के विरुद्ध कीचड़ उछाले जाते थे। भारतेंदु युग में ब्रज और खड़ी बोली हिंदी में लिखे जाने वाले साहित्य के विषय भी बहुत कुछ अलग थे। आज के इसी दिल्ली शहर में हिंदी और अंग्रेजी में लिखे जाने वाले साहित्य के विषय और प्रवृतियां यदि अलग अलग हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि इन दो अलग-अलग भाषाओं में साहित्य लिखने वालों के सामाजिक परिवेश, क्षेत्र और चित्तवृत्तियाँ एक शहर एक समय में रहने के बावजूद अलग-अलग हो सकती हैं। अतः शुक्ल जी की साहित्य के इतिहास संबंधी चित्तवृत्ति की धारणा की अपनी सीमाओं के बावजूद उसकी उपादेयता है। अतः हिंदी के स्त्री साहित्य के इतिहास में उस देश-काल में समानांतर दूसरी भाषाओं में लिख रही महिलाओं के लेखन को स्थान देने के औचित्य गंभीरता से विचार की आवश्यकता है। फिर यदिहिंदी साहित्य का आधा इतिहासमें अरबी-फारसी, संस्कृत और दक्षिण भारतीय आदि भाषाओं के स्त्री साहित्य को नेपथ्य में रहकर भी देखा जाए तो केवल हिंदी और इसकी बोलियों में रचित स्त्री साहित्य की एक लंबी परंपरा की उपस्थिति मिलती है।

ठीक सुमन राजे के तरह ही जगदीश्वर चतुर्वेदी भी स्त्री साहित्य का इतिहास का कलेवर लिए अपनी पुस्तक 'स्त्रीवादी साहित्य विमर्श' में लिखते हैं- "स्त्री साहित्य का आरंभ कविता से हुआ। सन 1388 से 1545 तक के युग को स्त्री काव्य के आदिकाल के रूप में जाना जाता है।"[iii]

ऐसे में प्रश्न उठता है कि स्त्री साहित्य जिसे मूलतः स्त्री अस्मिता के साहित्य के रूप में देखा जाता है, और जो स्त्रीवादी चेतना और विमर्श की वैचारिकी तथा स्त्रीवाद के सिद्धांतों से गहराई से सम्बद्ध है- की उपस्थिति हिंदी साहित्य के स्त्री लेखन में कहाँ-कहाँ और किन-किन रूपों में है।

हिंदी साहित्य का आधा इतिहासके हिंदी साहित्येतिहास वाले भाग को देखने पर पता लगता है कि भक्तिकाल, रीतिकाल, 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के बहुतेरे स्त्री साहित्यकारों ने साहित्य की संवेदना और विषय-वस्तु के स्तर पर पुरुष साहित्यकारों की परिपाटी का ही पालन किया है। संभवतः इसी को लक्षित करके श्री रमाशंकर शुक्ल रसाल जीहिंदी साहित्य का इतिहास(1931)में लिखते हैं– “स्त्री साहित्य जो भी हमारे सामने उपस्थित है, उसी शैली में हमें रचा हुआ मिलता है, जिस शैली से हमारा पुरुष साहित्य रचा हुआ प्राप्त होता है। स्त्रियों ने प्रायः पुरुष कवियों की ही सभी प्रधान शैलियों और विषयों का अनुकरण किया है और उन्हीं के समान साधारण तथा व्यापक साहित्य की रचना की है।[iv] परंतु साथ ही रसाल इस बात से खुश नहीं थे कि स्त्रियों में पुरुषों की शैली का अनुकरण हो। रसाल ने लिखा- "यदि पुरुषों ने कृष्ण और राम काव्य लिखा है तो स्त्रियों के भी एक विशाल दल ने भी साधारण रूप से ऐसा ही काव्य लिखा है। कला-काल में अवश्यमेव शिक्षा के अभाव से पुरुषों के साथ साहित्य रचना की दौड़ में नहीं दौड़ सकीं और रीति-ग्रंथों की रचनाएं नहीं कर सकीं किंतु आधुनिक काल में आकर फिर भी पुरुषों के साथ पूर्ववत चलने लगी हैं। केवल कुछ ही स्त्रियां हुई हैं जिन्होंने अपने समाज को सम्मुख रखकर स्त्रियोचित साहित्य की रचना करने का विचार करते हुए अपनी समाज की उपयुक्त विषयों पर लिखा है। खेद है इन देवियों का अनुकरण करके हमारी दूसरी बहनों ने स्त्री साहित्य के स्वतंत्र रूप का निर्माण करना जाने क्यों अच्छा नहीं समझा और उसे दूर ही रख दिया है। हमारी समझ से यदि हमारी बहनें इस ओर ध्यान दें और अपनी समाज के लिए स्वतंत्र तथा पृथक साहित्य के निर्माण का प्रयत्न करें तो बहुत अच्छा हो।"[v]

तात्पर्य कि 1930-40 तक हिंदी के स्त्री साहित्यकारों ने मूल रूप से पुरुष साहित्यकारों के भांति ही साहित्य रचना कर्म में प्रवृत रहीं। पुरुषों की तरह ही उनके लेखन के विषय भक्तिकालीन सगुण-निर्गुण भक्ति, रीतिकालीन शृंगारिकता के साथ-साथ आधुनिक काल में प्रेम, देशभक्ति, नवजागरण, समाज सुधार, बदलती स्थितियों में स्त्री-पुरुष के संबंध, समाज में स्त्री की बदलती हुई भूमिका आदि रहे। 

इतना ही नहीं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक के भी अनेकानेक स्त्री साहित्यकारों स्त्री और पुरुष द्वारा रचित साहित्य को फर्क कर देखने के हिमायती नहीं हैं।हिंदी लेखिकाओं का एक वर्ग ऐसी लेखिकाओं का भी है जो स्वतंत्र 'महिला लेखन' या 'स्त्री दृष्टि' नाम के वर्गीकरण स्वीकार नहीं करते। .. महाश्वेता देवी जैसी प्रतिष्ठित लेखिका अपने को स्त्री लेखिका की कोटि में रखे जाने का विरोध करती हैं। निर्मला जैन जैसी सुलझी आलोचक एवं मृदुला गर्ग जैसी यशस्वी लेखिका 'स्त्री दृष्टि' एवं 'स्त्री लेखन' की कोटि को स्वीकार नहीं करती।[vi] राजी सेठ भी स्त्री पुरुष लेखन के भेद के बजाय सृजन की क्रिया और मूल्यवत्ता के सवाल को महत्वपूर्ण मानती हैं– “स्त्री अपनी अस्मिता, और समानता के अधिकार की स्वीकृति के लिए लड़ रही है, पुरुष के पास यह सब पहले से मौजूद है, हालांकि इसका अर्थ यह नहीं है कि दोनों का क्षेत्र पूर्ण का अलग अलग हैं। स्त्री या पुरुष के अनुभवों और पुरुष स्त्री के अनुभवों को लेकर लिखते आए हैं साहित्य में ऐसा परकाया प्रवेश सदा से संभव है।[vii] कृष्णा सोबती अपने स्त्री होने से पहले लेखक होने को बता देती है।[viii]

इस तरह हम देखते हैं कि स्त्री साहित्य में एक धारा वह है जो पुरुषों की तरह साहित्य लेखन करते हुए स्त्री-पुरुष साहित्य के अंतर को अधिक महत्त्व नहीं देती। इसे हिंदी के सामान्य मुख्यधारा के साहित्य अथवा स्त्री साहित्य अथवा अस्मितावादी साहित्य में से किसी एक श्रेणी में रखा जाए या यदि इसकी सभी श्रेणियों में उपस्थिति हो तो उसका स्वरूप क्या होगा पर सम्यक रूप से विचार करना हिंदी के अस्मितावादी साहित्य के इतिहास लेखन की दिशा में एक बड़ी चुनौती है।

इसके इतर भक्तिकाल रीतिकाल से लेकर अब तक चली रही स्त्री साहित्य की एक दूसरी धारा है- जिसके केंद्र में 'स्त्री की अनुभूति' है। स्त्री साहित्य में "अनुभूति" की महत्ता सर्वस्वीकृत है। लेखिकाओं में "अनुभूति" की महत्ता को सर्वप्रथम महादेवी वर्मा ने रेखांकित किया।[ix] स्त्री लेखन में उसके नितांत निजी अनुभूतियों के संसार की अभिव्यक्ति हुई है। जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं स्त्री अनुभूतियों एवं व्यवहार में से चुनने का प्रश्न हो तो अनुभूतियों को चुना जाना चाहिए। अनुभूतियां ही उसके वास्तव मन को उद्घाटित करती हैं। यही वजह है कि स्त्रीवादी आलोचना ने अनुभूति की प्रमाणिक अभिव्यक्ति को स्त्री साहित्य का बुनियादी तत्व माना।[x]हिंदी साहित्य का आधा इतिहासमें स्त्री की नितांत निजी अनुभूतियों की अत्यंत मार्मिक उदाहरण बहुतायत में मिलते हैं। उन अनुभूतियों में हमें मीरा आदि कवयित्रियों में धारा के विपरीत खड़े रह सकने का साहस और अपनी अस्मिता के अस्तित्व की रक्षा की अदम्य इच्छाशक्ति समाज, लोक और सत्ता विद्रोही तेवर भी दिखते हैं। महिलाओं द्वारा सृजित लोक कथाओं, कविताओं एवं गीतों में उनके अंतःस्थल की सहज अनुभूति की अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं। इन रचनाओं में स्त्री जीवन और उसकी अनुभूतियों की ऐसी अनेक मार्मिक उदभावनाएं हुई हैं जिस ओर कभी शायद ही किसी साहित्यकार की दृष्टि गई हो। इस तरह निजी अनुभूतियों की नितांत विशिष्ट अभिव्यक्ति स्त्री साहित्य की इस धारा की अप्रतिम उपलब्धि कही जा सकती है।

स्त्री साहित्य लेखन की यह धारा सामान्य साहित्य से अनेकों अर्थों और दृष्टियों में विशिष्ट होने के कारण हिंदी के अस्मितावादी स्त्री साहित्य के इतिहास लेखन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। स्त्री की अनुभूति का प्रश्न अस्मितावादी स्त्री साहित्य के इतिहास लेखन का महत्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है।

हिंदी के स्त्री साहित्य की एक तीसरी धारा है, जिसका संबंध पश्चिम से आए स्त्रीवादी आंदोलनों की वैचारिकी और उसके आधार पर स्त्रीवादी साहित्य की निर्मिती के सिद्धांतों से है। रेखा कस्तवार लिखती हैं- “हिंदी में स्त्री चिंतन की परंपरागत दृष्टि से मुक्त वाद, विवाद और संवाद की शुरुआत 'शृंख्ला की कड़ियां' से मानी जाती है।[xi] परंतु इससे पहलेजॉन स्टूअर्ट मिलकी पुस्तकस्त्रियों की पराधीनताआदि पश्चिम के स्त्री संबंधी आधुनिक विचारों, जीवन दर्शन और दृष्टि के प्रभाव स्वरूप 19वीं शताब्दी में शुरू हुए समाज सुधार आंदोलनों के कारण स्त्री मुक्ति और उसके जीवन से संबंधित प्रश्नों को केंद्रीय महत्त्व मिलने लगा था। सामाजिक रूढ़ियों एवं बंधनों को ढीला करके स्त्री की अवस्था में सुधार लाने के प्रयासों में तेजी आई थी स्त्री शिक्षा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, बहू-पत्नी प्रथा, आदि को स्त्री पहचान, स्त्री स्वतंत्रता और स्त्री आंदोलन के साथ जोड़ कर देखने की प्रवृत्ति बढ़ी थी। जिसके फलस्वरूप 1945-50 तक आते-आते हिंदी स्त्री साहित्य के लेखन के लिए ऐसी भावभूमि का निर्माण हो चुका था जहां से हिंदी स्त्री साहित्य लेखन के एक तीसरी धारा का प्रस्फुटन हो सके। यह तीसरी धारा स्त्री को उसके पुरुष संदर्भ से अलग हटकर एक स्वतंत्र अस्मिता के निर्माण की चेतना लिए था, जिसके निर्माण में पश्चिम के स्त्रीवादी आंदोलनों का गहरा प्रभाव था  यह बात समझी लगी जाने लगी थी किस्त्री पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं और एक दूसरे से भिन्न एवं स्वायत्त भी हैं। सामाजिक विकास की प्रक्रिया में पूरक तत्त्व पर इस कदर जोड़ दिया गया कि पुरुष ने स्त्री की अस्मिता एवं सत्ता को ही हजम कर लिया। स्त्री पुरुष अलग-अलग हैं, इनकी परंपराएं, मूल्यबोध, संवेदनाएं और यथार्थ जीवन की लड़ाईयों के क्षेत्र भी अलग-अलग हैं। सामाजिक जीवन में दोनों की अवस्था और सम्मान और असंतुलित है। ………. पुरुष के संदर्भ से स्त्री की अस्मिता जब भी निर्मित होगी, स्त्री मातहत होगी। स्वायत्त छवि उभर कर सामने नहीं पाएगी। पुरुष संदर्भ में स्त्री के कार्यभारों एक लाभ यह होता है कि स्त्री को पुरुष वर्ग समूचा हजम कर जाता है, पितृसत्ता हजम कर जाती है। यह भी कह सकते हैं कि स्त्री की अस्मिता से जुड़े उपर्युक्त कोटियाँ पुरुष के प्रभुत्व को मजबूत करती हैं, स्त्री के शोषण और असमानता को बनाए रखती हैं और स्त्री दोयम दर्जे का नागरिक बनी रहती हैं।[xii]

इसी तरह की चेतना और वैचारिकी को केंद्र में रखते हुए स्वातंत्र्योत्तर काल में ज्यादातर स्त्री साहित्यकारों ने 'पर्सनल इज पॉलीटिकल' के नारे को बुलंद करते हुए जीवन, परिवार और समाज के बीच होने वाले संघर्षों, नितांत निजी अनुभव और अनुभूतियों और स्त्री सत्य का खुलासा करती स्त्री की जुबानी स्त्री साहित्य की रचना करने का पक्षधर रही, ताकि समाज में स्त्री की त्रासद स्थितियों का बोध समाज को हो सके। "स्त्री जब लिखती है तब अपने निजी जीवन और निजता को दांव पर लगा रही होती है। अपने घर-परिवार और समाज का भय और प्रतिक्रिया का डर अवचेतन रूप से उसकी कलम को संचालित करसेल्फ सेंसरका काम करता है।"[xiii] फिर भी स्वातंत्र्योत्तर काल के स्त्री रचनाकारों ने स्त्रीवादी आंदोलनों और उसके वैचारिकी के सिद्धांतों को आत्मसात करते हुए हिंदी जगत के स्त्रियों की समस्याओं, चिंताओं, अधिकारों और अस्मिताओं के प्रश्न को बड़ी बेबाकी और तमाम तरह के व्यक्तिगत आरोपों और लांछनों के खतरे उठाने के बावजूद साहस से अभिव्यक्ति दी है।

उनका साहित्य में मुख्य रूप से स्त्री-पुरुष संबंधों की संक्रांति और परिवार, स्त्री का देह पर अधिकार, बलात्कार का दंश और स्त्री अस्मिता, मातृत्व के अधिकार, आर्थिकता और स्त्री मुक्ति के स्वर, बेघर होती स्त्री, उच्च वर्गीय और मध्यवर्गीय समाज की स्त्रियों में व्याप्त अकेलापन और असुरक्षा का भाव, उत्तराधिकार-संपत्ति के अधिकार का प्रश्न, विवाह, परिवार एवं उत्तराधिकार का प्रश्न, मां-बेटे के संबंध, बाँझत्व तथा पुरुषत्वहीनता और स्त्री मुक्ति, स्त्री की जिजीविषा, स्त्री पहचान, अस्मिता और उसके विस्तार का प्रश्न, घर के बाहर तथा अंदर के संघर्ष और राजनीति की चुनौतियों का प्रश्न, पितृसत्ता-अर्थसत्ता-राजसत्ता के अंतर्संबंधों का और उसके प्रतिरोध का स्वर, सर्जन की संभावनाओं के बहुआयामी संदर्भ, लैंगिक समानता, समान नागरिक संहिता, कामकाजी महिला के परिवार और कर्म स्थल के संघर्ष, उपनिवेशवाद, वैश्वीकरण तथा बाजार और स्त्री, स्त्री की यौनिकता, समाज में अकेली स्त्री जीवन के जीवन, वेश्यावृत्ति और स्त्री आदि प्रमुखता से उपस्थित है।

इस प्रकार हम पाते हैं कि इन सभी प्रश्नों से जूझती, टकराती और संघर्ष करती हिंदी स्त्री साहित्य की इसी तीसरी धारा में नितांत निजी अनुभूतियों की उपस्थति होने के बावजूद पश्चिम से आयीस्त्रीवादी चेतनाकी केन्द्रीयता है। अनुभूतियाँ भी इस चेतना रंग में डूबकर अभिव्यक्त हुई हैं।

अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि हिंदी के स्त्री साहित्य के लेखन में इन तीनों प्रश्नों का केन्द्रीय महत्त्व होने के कारण इसके अस्मितावादी स्त्री साहित्य के इतिहासलेखन इन प्रश्नों का महत्त्व स्वयंसिद्ध रहेगा। इन प्रश्नों से सम्यक् रूप से टकराए बिना हिंदी के अस्मितावादी स्त्री साहित्य के इतिहासलेखन का कार्य नहीं किया जा सकेगा।



संदर्भ :
[i] राजे, सुमन; हिंदी साहित्य का आधा इतिहास; भारतीय ज्ञानपीठ - नई दिल्ली, 2006; पृष्ठ 18
[ii] वही, पृष्ठ 9 -10
[iii] चतुर्वेदी, जगदीश्वर; स्त्रीवादी साहित्य विमर्श; नयी दिल्ली : अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2011 पृष्ठ 25
[iv] राजे, सुमन; हिंदी साहित्य का आधा इतिहास; भारतीय ज्ञानपीठ - नई दिल्ली, 2006; उद्धृत, पृष्ठ 62
[v] चतुर्वेदी, जगदीश्वर; स्त्रीवादी साहित्य विमर्श; नयी दिल्ली : अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2011; उद्धृत, पृ. 15-16
[vi] वही, पृष्ठ 189-90
[vii] गुजराल, तरसेम; समय, संवाद और स्त्री प्रश्न; दिल्ली : भावना प्रकाशन, 2015; पृष्ठ 138 
[viii] कस्तवार, रेखा; स्त्री चिंतन की चुनौतियां; नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन; 2006; पृष्ठ 09
[ix] चतुर्वेदी, जगदीश्वर; स्त्रीवादी साहित्य विमर्श; नयी दिल्ली : अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2011 पृष्ठ 186
[x] वही, पृष्ठ 3
[xi] कस्तवार, रेखा; स्त्री चिंतन की चुनौतियां; नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन; 2006; पृष्ठ 152
[xii] चतुर्वेदी, जगदीश्वर; स्त्रीवादी साहित्य विमर्श; नयी दिल्ली : अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2011 पृष्ठ 1-2
[xiii] लवलीन, स्त्री लेखन : बहुत कठिन है डगर, समय माजरा, जनवरी-फरवरी, 2001, पृष्ठ 99

 

प्रदीप कुमार
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली – 110067
PRADEEPBELHI@GMAIL.COM, +91 – 7982389213

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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