शोध आलेख : अपभ्रंश काव्य में लौकिक मुक्तक काव्य परम्परा / रामानन्द यादव

 अपभ्रंश काव्य में लौकिक मुक्तक काव्य परम्परा
- रामानन्द यादव



 

 शोध सार : अपभ्रंश का विकास प्राकृत की अंतिम अवस्था से हुआ। वर्तमान समय में हम जिस हिंदी साहित्य को जानते हैं, उसका विकास आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य से हुआ है। अपभ्रंश साहित्य सिर्फ सांप्रदायिक शिक्षा अथवा पंथ प्रचार तक ही सीमित नहीं था। अपभ्रंश साहित्य में सिर्फ जैन मुनियों, सिद्धों, नाथों और तंत्र मार्गियों की गुह्य और जटिल साधनाएँ तथा उपदेश ही नहीं मिलता है, बल्कि लौकिक या ऐहिक काव्य की भी एक सुदृढ़ और विस्तृत परंपरा है। लौकिक या ऐहिक काव्य से तात्पर्य अपभ्रंश की ऐसी कविताओं से है जो अपने समय के समाज से सीधे जुड़ी हुई हैं। यह ऐसी कविताएँ हैं जो उस समय के समाज को सहज रूप में प्रस्तुत करती हैं। अपने लोक की अनुभूतियों और व्यवहारों को बिना किसी लाग-लपेट के सीधे सरल रूप में प्रस्तुत करतीं हैं। ऐसी कविताएँ जो सिर्फ उपदेश अथवा ज्ञान देने के लिए नहीं लिखी गई न ही अपने धर्म, पंथ या संप्रदाय का प्रचार या महिमामंडन करने के लिए लिखी गईं। यह सीधी सरल, सहज भाव की कविताएँ हैं जो मूलतः साहित्यिक हैं। इसी लौकिक अपभ्रंश काव्य परंपरा का हिंदी साहित्य पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। यहाँ हम अपभ्रंश की उसी लौकिक मुक्तक काव्य परंपरा का परिचय प्राप्त कर रहे हैं। इस परिचय से हमें अपभ्रंश काव्य परंपरा में लौकिक मुक्तक काव्य की परंपरा को समझने का एक ठोस आधार प्राप्त होगा। इस परिचय से यह भी पता चलेगा की हिंदी, संस्कृत की शास्त्रीयता और शुद्धतावादी परंपरा की बजाय सिद्धों की समतावादी संधा अपभ्रंश की काव्य परंपरा के ज्यादा नजदीक है। अपभ्रंश साहित्य में सिर्फ परमात्म प्रकाश’, ‘योगसार’, और पाहुड़ दोहाजैसी धार्मिक या सांप्रदायिक रचनाएँ ही नहीं लिखी गई हैं, बल्कि अपभ्रंश में लौकिक मुक्तक काव्य लिखने की एक सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा भी मौजूद है। यह लौकिक मुक्तक पूरी तरह से साहित्यिक हैं। आधुनिक काल में इनका महत्त्व ज्यादा है। तब की अपभ्रंश भाषा से अब की हिंदी में बहुत कुछ बदल गया है, मगर मूल प्रकृति और प्रवृत्ति वही की वही है। हिंदी नई चाल में ढलने से बहुत-बहुत पहले अपभ्रंश से हिंदी में परिवर्तित हो गई थी। थोड़ी बहुत असहमतियों और वाद-विवाद के बावजूद अधिकांश विद्वान इस बात से सहमत हैं कि अपभ्रंश साहित्य का आरंभ ही हिंदी साहित्य का आरंभ है। अपभ्रंश रचनाएँ हिंदी साहित्य की नींव हैं। अपभ्रंश की रचनाएँ हिंदी साहित्य के आदिकाल से लेकर मध्यकाल तक मिलती हैं। अपभ्रंश से हिंदी की इस विकास प्रक्रिया को विस्तार से समझने-समझाने के लिए अब तक कई शोध प्रबंध प्रकाशित हो चुके हैं।1 विस्तार से समझने के लिए उनको देखा जा सकता है।

 

बीज शब्द : अपभ्रंश साहित्य, अपभ्रंश काव्य परंपरा, अपभ्रंश मुक्तक काव्य, अपभ्रंश लौकिक मुक्तक काव्य।

 

मूल आलेख : अपभ्रंशशब्द का प्रथम उल्लेख पतंजलि ने अपने महाभाष्यनमक ग्रंथ में किया है। नामवर सिंह पतंजलि से भी आगे जाकर इसकी खोजबीन करने का प्रयास करते हुए लिखते हैं, “प्राचीन ग्रंथों से पता चलता है कि संग्रहकार व्याडि को अपभ्रंश शब्द की जानकारी थी। संग्रहकार व्याडि का उल्लेख पतंजलि ने अपने महाभाष्यमें किया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि व्याडि महाभाष्यकार के समय (दूसरी शती ईस्वी पूर्व) से पहले हुए थे। लेकिन अभी तक व्याडि का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं हो सका है, इसलिए परोक्ष प्रमाण के आधार पर अपभ्रंश शब्द का इतिहास इतना पहले दिखाना युक्ति संगत नहीं प्रतीत होता।”2

   

    पतंजलि ने अपभ्रंशशब्द का प्रयोग भाषा के रूप में नहीं किया है। अपभ्रंश से उनका मतलब था संस्कृत से भिन्न शब्द, संस्कारहीन शब्द, व्याकरण की सीमा से परे आने वाले शब्द। पतंजलि ने उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट किया है। उन्होंने संस्कृत के गौःशब्द को साधु शब्द माना है और तत्कालीन समाज में इसके अन्य रूपों जैसे- गावी, गोणी, गोता और गोपोतलिका को अपभ्रंश माना है। और इन्हें असाधु शब्दों की श्रेणी में रखा है। इन्हीं गावी, गोणी... को पतंजलि अपभ्रंश कहते हैं। पतंजलि की राय अपभ्रंश के बारे में अच्छी नहीं थी। वह अपभ्रंशको अपभ्रष्ट’, च्युत, विकृत, बिगड़ा हुआ अथवा अशुद्ध के समकक्ष मानते थे। 

   

    अपभ्रंश मुक्तक काव्य का विस्तार पहली शताब्दी से लेकर 16वीं-17वीं शताब्दी तक विस्तृत है। कुछ आग्रही अभी भी अपभ्रंश में रचना करते मिल जाएँ तो कोई आश्चर्य कि बात नहीं है। जैसे अभी भी कुछ आग्रही संस्कृत में बोलने और लिखने का आग्रह करते मिल जाते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र के आचार्यों, आलंकारिकों और काव्यमर्मज्ञों ने कविता को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया है- 

(1) वृहद आकार में लिखे जाने वाले काव्य ग्रंथ जिनके पदों के बीच निरन्तर एक सम्पर्क सूत्र बना रहता है। इनमें एक निरंतरता बनी रहती है। ये पद्य पूर्वापर घटनाओं से सम्बद्ध और सर्गबद्ध होते हैं। इन्हें प्रबन्ध काव्य का नाम दिया गया है।

(2) बिना किसी बंधन के किसी भाव, रूप, वस्तु या प्रभाव को लेकर छोटे से छोटे रूप में निबद्ध काव्य रचना मुक्तक काव्य कही जाती है। मुक्तक काव्य का प्रत्येक छंद अपनी बात कहने में सक्षम होता है। उसे समझने या समझाने के लिए आगे या पीछे के पद देखने की आवश्यकता नहीं होती है। मुक्तक का मतलब ही होता है स्वतन्त्र पद, पूर्वापर निरपेक्ष रचना।  

मुक्तकों की चर्चा अग्निपुराणमें इस प्रकार  आती है-

 

मुक्तकं श्लोक एकैकश्चमत्काक्षमः सताम।3

(अर्थ- अर्थ द्योतन में स्वतः सक्षम श्लोकों को मुक्तक की संज्ञा दी गयी है।)

 

    आचार्य भामह ने पद्य रचनाओं के प्रबन्ध और मुक्तक नाम से दो भेद तो किए हैं, परन्तु उन्होंने मुक्तकों की परिभाषा नहीं दी है। आचार्य दंडी मुक्तकों को प्रबंध के आधीन मानकर उनका उल्लेख भर करते हैं। आचार्य वामन ने तो यहाँ तक कह दिया कि मुक्तक काव्य में चारुता ही नहीं आती है। आनन्दवर्धन ने अपने ग्रंथ ध्वन्यालोक में मुक्तकों की परिभाषा देते हुए उसके महत्त्व को स्थापित करने का प्रयास किया था। उन्होंने रस के आधार पर मुक्तकों के मूल्यांकन का सुझाव प्रस्तुत किया था। ध्वन्यालोकके टीकाकार अभिनव गुप्त ने आनन्दवर्धन की इस व्याख्या को विस्तारित किया। कुल मिलाकर जिस भी पद या पद्य का आगे-पीछे के पदों या पद्यों से कोई सम्बन्ध न हो, अपने विषय को स्पष्ट करने स्वतः समर्थ हो ऐसे पद या पद्य को मुक्तक कहते हैं। जो आगे-पीछे के पदों से मुक्त हैं, वही मुक्तक हैं। यह स्वयं में पूर्ण हैं। आचार्य हेमचन्द ने मुक्तकों कि परिभाषा को और सरलता से व्याख्यायित करते हुए लिखा है, ‘अनिबद्धं मुक्तकादि।’4 वहीं कविराज विश्वनाथ मुक्तक को शब्द से जोड़कर अर्थ प्रकट करते हैं। कहते हैं, 

छन्दो बद्ध पदं पद्यं तेन मुक्तेन मुक्तकम्।’5

               

    यह तो स्पष्ट है कि प्रबंधकाव्य एक व्यवस्था आधारित काव्य रचना है जबकि मुक्तक काव्य आकाश में उड़ता आजाद पक्षी है। जो किसी भी भाव, अर्थ को लेकर अपना रूप प्रकट कर सकता है। जरूरी नहीं है कि अगले पद तक उसका वह भाव या अर्थ से लगाव रह ही जाए। वह भिन्न भी हो सकता है विपरीत भी हो सकता है। 

   

    अपभ्रंश के मुक्तकों का सर्वप्रथम साहित्यिक साक्ष्य कालिदास की रचना विक्रमोर्वशीयके चतुर्थ अंक में मिलता है। इन पदों का अभी तक काल निर्धारण नहीं हो सका है क्योंकि स्वयं कालिदास का समय विवादग्रस्त है। कुछ लोग उन्हें पहली शती के आसपास का मानते हैं तो कुछ लोग तीसरी शती का, वहीँ कुछ लोग चौथी शती का मानते हैं। अगर हम अपभ्रंश की विकास परंपरा को आधार मानकर चलें तो कालिदास का समय जो भी हो वह आचार्य भरत के बाद का ही ठहरता है। आचार्य भरत ने कालिदास से बहुत पहले उकारबहुलाभाषा और विभ्रष्ट शब्द रूपों का परिचय दिया था। उकारबहुलाअपभ्रंश की सर्वमान्य विशेषता है। आचार्य भरत के यहाँ अपभ्रंश की सिर्फ उपस्थिती थी इसीलिए सिर्फ उल्लेख करते हैं। कालिदास के सामने अपभ्रंश में अच्छी रचनाएँ रही होंगी इसलिए उन्होने अपनी रचना में भी अपभ्रंश के कुछ पद प्रस्तुत कर दिए। आचार्य भरत का समय कालिदास से पूर्व का है। इसलिए यह अनुमान किया जा सकता है कि अपभ्रंश साहित्य ठीकठाक मात्रा में कालिदास के पूर्व से मौजूद रहा होगा। इसीलिए कालिदास के यहाँ बाकायदा अपभ्रंश के दोहे मिलते हैं और आचार्य भारत के यहाँ अपभ्रंश का मात्र उल्लेख होता है। इससे अपभ्रंश की विकास परंपरा का एक सुसंगत तर्क आधारित आधार भी तैयार होता है।

  

    यदि हम कालिदास को चौथी शती का मानकर चले तो हमे इनके तुरंत बाद ही पांचवी-छठी शती के प्राकृत व्याकरणकार चंड के यहाँ भी एक अपभ्रंश दोहा मिल जाता है। इसके बाद भोज के सरस्वतीकंठाभरणमें अपभ्रंश के अठारह दोहे मिलते हैं। फिर भी विक्रमोर्वशीयके पंद्रह छंद आरम्भिक साक्ष्य होने के कारण ज्यादा महत्त्व के हैं। इन्हें कुछ लोग कालिदास रचित मानते हैं। तो कुछ लोग किसी संग्रह से उद्धृत या लोक में प्रचलित मौखिक परंपरा में प्रसिद्ध मानकर चलते हैं। जो भी हो पुरूरवा के विरह और कातरता को महाकवि ने अपभ्रंश में व्यक्त करके अपभ्रंश मुक्तक काव्य का महत्त्व साहित्य में सदा के लिए स्थापित कर दिया है।

 

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इतने पूर्व में जाकर अपभ्रंश पद्यों के साक्ष्य को अपनाना सही नहीं मानते हैं। वह इनका आरम्भ सातवीं शताब्दी से मानते हैं। उनका मानना है, “अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की सांप्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है।”6 ‘परमात्म प्रकाशऔर योगसारके संपादक ए.एन. उपाध्ये ने जोइन्दु का समय छठी शताब्दी माना है। इससे योगसारके लेखक जोइन्दु प्रथम अपभ्रंश मुक्तक कवि बन जाते हैं। व्याख्याकारों ने परमात्म प्रकाशऔर योगसारका प्रभाव रामसिंह कृत पाहुडदोहापर दिखाने का प्रयास किया है। परन्तु इस दावे में बहुत ज्यादा दम नहीं है। वैसे भी रामसिंह का समय 10वीं शताब्दी लगभग मान्य हो चला है। रामसिंह के समय पर बहुत ज्यादा विवाद नहीं है।

   

    अपभ्रंश भाषा के साहित्यिक विकास में राउलवेलएक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है जो कि धर्म से मुक्त शुद्ध साहित्यिक रचना है और अपनी प्रकृति में पूर्णतः ऐहिक है। यह शिलांकित काव्य मालवा के धार नामक स्थान से खुदाई में प्राप्त हुआ था। इसके रचनाकार नें अपना नाम रोडा दिया है। इसमें कुल 143 पद हैं। इन सभी पदों की प्रवृत्ति पूर्णतः शृंगार रस में डूबी हुई है। इसमें किसी राजकुल की विभिन्न रानियों/नायिकाओं का वर्णन है। इसमें विभिन्न प्रदेशों की रानियों/नायिकाओं के रूप, रंग, सज्जा, वस्त्र आभूषण का रोचक वर्णन है। यह शिलालेख अभी मुम्बई के म्यूजियम में मौजूद है।  राउलवेल की प्रामाणिक उपस्थिती से इस काल के साहित्य में अपभ्रंश की ऐहिक काव्य परम्परा को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है। यह शिलाकाव्य पूरा का पूरा शुद्ध शृंगारी है। इसे कुछ लोग मुक्तकमानते हैं कुछ लोग खण्डकाव्यमानते हैं। परन्तु एक बात सिद्ध है इसमें प्रबंध काव्य होने का कोई लक्षण नहीं है। इसका प्रत्येक पद स्वयं में स्वतंत्र अर्थ रखता है और अपने बारे में पूर्ण सूचना देता है। इसमें 6 भिन्न-भिन्न प्रदेशों की नायिकाओं के रहन-सहन, हाव-भाव और उनके वस्त्र आभूषणों का कावयमय परिचय दिया गया है।

 

    सावयधम्म दोहाजो कि देवसेनकी रचना मानी जाती है का लेखक अपनी कृति दर्शन सारमें स्वतः अपना समय संवत् 990 की माघ सुदि बताता है जिससे देवसेन भी 10वीं शताब्दी के साबित होते हैं। इसके साथ ही साथ वैराग्यसारके रचयिता सुप्रमाचार्य भी 10वीं शताब्दी के आसपास के ही माने जाते हैं। 12वीं शती के जिनदत्तसूरि की तीन रचनाएँ प्रसिद्ध हैं- 

चर्चरी,

कालस्वरूप कुलक,

उपदेश रसायन-रास। 

   

    यह सभी रचनाएँ मुक्तक परंपरा के होने के बावजूद धार्मिकता प्रधान रचनाएँ हैं। इसमें संप्रदाय की, धर्म की, संप्रदाय की ज्यादा चर्चा की गई है। इस प्रकार की रचनाओं में बहुत साहित्यिक संभावनाएँ नहीं होती हैं। इनका उल्लेख सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि कालक्रम से विकास प्रक्रिया को स्पष्ट समझा जा सके।  

   

    कालिदास के विक्रमोर्वशीयके बाद हमें ऐहिक मुक्तक काव्य प्रमुखता से आचार्य हेमचन्द्र के यहाँ मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण ग्रंथ सिद्धहेमशब्दानुशासन में उदाहरण देने के लिए अपभ्रंश दोहों का उल्लेख किया है। उन्होंने उदाहरण देने की प्रक्रिया में शब्द या पंक्ति देने की बजाय पूरा का पूरा पद ही दे दिया है। इस प्रक्रिया के सम्भावित कारणों की व्याख्या करते हुए पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी लिखते हैं, “यदि हेमचन्द्र पूरे उदाहरण न देता तो पढ़ने वाले, जिनकी संस्कृत और प्राकृत आकर-ग्रंथों तक तो पहुँच थी किंतु जो भाषासाहित्य से स्वभावतः नाक चढ़ाते थे, उसके नियमों को न समझते।”7 कहने कि आवश्यकता नहीं कि संस्कृत की तरह अपभ्रंश काव्य का कोई मान्य ग्रन्थ या काव्य संग्रह उस काल तक प्रचलित नहीं रहा होगा जिससे हेमचन्द्र उदाहरण देते। इसलिए हेमचन्द्र ने पूरे-के-पूरे पद को उद्धृत करना जरूरी समझा होगा। इन पदों की प्रवृत्ति विविधतापूर्ण है जैसे- वीरता, शृंगार, प्रेम, भक्ति, नीति इत्यादि। नामवर सिंह ने इस अनिश्चित प्रवृत्ति को लक्षित किया है, “कहा नहीं जा सकता कि हेमचन्द्र ने यह मधुर मधुचक्र किन-किन काव्यग्रन्थों से तैयार किया है। इनके रचयिता कवियों का नाम अज्ञात है। हेमचन्द्र के व्याकरण में जो नीति, अन्योक्ति अथवा धर्म संबंधी रचनाएँ हैं। उनमें से कुछ का आदि स्रोत तो जैन काव्य-ग्रन्थों में मिल गया है। लेकिन शौर्य और शृंगार के ऐसे बहुत से दोहे हैं जिनका आदि स्रोत अभी तक अज्ञात है।”8 यह सभी पद अपने आप में एक दूसरे से स्वतंत्र है। कोई पद या दोहा अर्थ की पूर्णता के लिए अन्य पद या दोहे पर आश्रित न होकर अपने आप में परिपूर्ण है। उद्धृत पदों का कोई सन्दर्भ हेमचन्द्र ने नहीं दिया है। इसी से कुछ विद्वान अनुमान लगाते हैं कि हो न हो ये पद स्वयं हेमचन्द्र ने लिखे हों। इस संभावना पर विचार करने में सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें संकलित कुछ दोहे पूर्व की रचनाओं में मिल जाते हैं। जैसे- इसमें संकलित पांच दोहे ऐसे हैं जो थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ रामसिंह कृत पाहुड-दोहामें मिल जाते हैं। इसी तरह तीन दोहे जोइंदू के परमात्मप्रकाश के दोहों से मिलते-जुलते हैं। हेमचन्द्र के शब्दानुशासनके पदों और पूर्व ज्ञात स्रोत पदों में थोड़ा बहुत हेर-फेर मिलता है फिर भी इसी के आधार पर इसे हेमचन्द्र का तो नहीं ही माना जा सकता है। यह भी पता लगाना मुश्किल है कि यह फेर बदल स्वयं हेमचन्द्र ने किया था या कहीं से ग्रहण कर लिया था। दोहों में फेरबदल की प्रवृत्ति को देखते हुए आर. पिशेल ने अनुमान व्यक्त किया है कि हेमचन्द्र ने उन दोहों को किसी सतसई ढंगके संग्रह से लिए होंगे। रामकिशोर इस प्रवृत्ति और संभावना पर विचार करते हुए लिखते हैं, “लौकिक मुक्तकों के अंतर्गत अपभ्रंश में जो प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं वे सभी प्राकृत के मुक्तक संग्रह गाहासतसई’, ‘वज्जालग्गमें मिल जाती हैं। रचना शैली की दृष्टि से अपभ्रंश ने प्राकृत की परंपरा से बहुत अधिक प्रभाव ग्रहण नहीं किया।”9 इसके अलावा किसी ग्रन्थ या व्याकरण में हेमचन्द्र को कवि नहीं माना गया है। 

   

    आर. पिशेल के अनुमान को सत्यापित करने या गलत साबित करने के लिए हमारे पास पर्याप्त स्रोत उपलब्ध नहीं है। हेमचंद्र के ये दोहे अपभ्रंश साहित्य के लिए वरदान सिद्ध हुए हैं। इनकी मार्मिकता की गहराई और भावों की ऊँचाई को देखकर ही इन्हीं पदों के आधार पर हेमचन्द्र को अपभ्रंश काव्य की अन्तिम सीमा कहा गया। इनके अनूठेपन की तरफ ध्यान आकर्षित करते हुए नामवर सिंह लिखते हैं, “चाहे इनके रचयिता जैन कवि हों अथवा जैनेतर लोक कवि इतना निश्चित है कि संपूर्ण अपभ्रंश साहित्य में इनका सौन्दर्य सबसे अलग है।”10 इसके वीरता के वर्णन वाले पदों की विशेषता को बताते हुए आगे लिखते हैं, युद्धों का वर्णन तो अपभ्रंश के अनेक चरितकाव्यों और पुराणों में भी मिलता है लेकिन उनमें हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों के टाप की आवाज और शस्त्रों के नाम की लम्बी सूची ही अधिक मिलती है; सच्चे वीर-हृदय का उत्साह वहाँ कहाँ? यदि ऐसा शौर्य देखना हो तो हेम व्याकरण के इन उदाहरणों को देखें।”11 इससे इन पदों की विशेषता स्वतः सिद्ध हो जाती है।

   

     शब्दानुशासनके पदों का विस्तार से हिंदी अर्थ सहित हिंदी व्याख्या पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी ने पुरानी हिंदीमें प्रस्तुत किया है। उन्होंने कुल 175 पदों की व्याख्या प्रस्तुत की है। इनमें से कुछ पद आधे भी हैं। अन्तिम वाला तो दो पंक्तियों का गद्य ही है। नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगके परिशिष्ट में 128 पदों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है। शालिग्राम उपाध्याय ने इन पदों को अलग से पुस्तक रूप में अपभ्रंश व्याकरणशीर्षक से व्याख्यायित करते हुए प्रस्तुत किया है। 

 

    मेरुतुंगाचार्य ने शायद हेमचन्द्र के बाद सबसे ज्यादा अपभ्रंश दोहे अपने ग्रन्थ प्रबंधचिंतामणिमें संकलित किए हैं। । यह ग्रन्थ मूलरूप में संस्कृत में लिखा गया है। इसके रचनाकार का नाम मेरुतुंग सूरि दिया हुआ है। इस ग्रन्थ में ऐतिहासिक प्रबंध और कथाएँ भरी पड़ी हैं। प्रबंध चिंतामणि को भारतीय इतिहासलेखन का नमूना भी कहा जा सकता है। जो कथाओं के रूप में लिखा गया है। इन्हीं ऐतिहासिक प्रबन्धों और कथाओं के बीच-बीच में कथा का सार या नैतिक उपदेश देने के लिए अपभ्रंश के दोहे दिए गए हैं। जहाँ तक ऐतिहासिक प्रबन्धों और कथाओं का सवाल है जो कि संस्कृत में लिखी गई हैं उनका लेखक तो निश्चित तौर पर मेरुतुंग ही है। अपभ्रंश पदों का उसने विभिन्न जगहों से संचयन किया है। यहाँ पर अपभ्रंश के पदों का बीच-बीच में प्रयोग कथा की मार्मिकता बढ़ाने या कथा का सार प्रस्तुत करने के लिए किया गया है। संस्कृत कथाएँ जैन धर्म से सम्बन्धित हैं। इन कथाओं में जैन मत को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है। इस प्रकार की प्रचारात्मक कथाओं की ऐतिहासिकता संदिग्ध ही कही जाएगी जो चमत्कारों से भरी पड़ी हैं। पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने लिखा है, “कोई भी उद्धृत कविता उसने (मेरुतुंग ने) स्वयं नहीं रची है। कथाओं में प्रसंग-प्रसंग पर जो कविता उसने दी है वह अवश्य ही उससे पुरानी है। कितनी पुरानी है इसका ऊर्ध्वतम समय तो स्थिर नहीं किया जा सकता, किंतु- प्रबंध-चिन्तामणिकी रचना का समय उसका निम्नतम् उपलब्धि काल अवश्य है।”12 यानी कथाओं का उन कविताओं से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। वह मार्मिकता बढ़ाने या भावपूर्ण सार प्रस्तुति के लिए रखे गए हैं। 

   

    प्रबंध-चिन्तामणिमें उद्धरित कुछ अपभ्रंश दोहों में मुंज का नाम आता है। इन्हें भोज के चाचा मुंज द्वारा रचित कहा जाता है। कुछ दोहे मुंज की प्रेमिका मृणालवती को संबोधित है। इस तरह के दोहों को भी मुंजरचित कहा जाता है क्योंकि मुंज मृणालवती का प्रेमी था। अतः स्वाभाविक है कि वह उसे संबोधित करते हुए अपने हृदय के भाव व्यक्त करे। अगर इन मुंज नाम वाले दोहों और मृणालवती संबोधन वाले दोहों को मुंज का मान भी लें फिर भी बहुत सारे ऐसे दोहे बचते हैं जिनमें मुंज या मृणालवती का जिक्र नहीं है। या इनकी प्रेमकथा से उनका लेना-देना नहीं सिद्ध होता है।

   

    ऐसे में यही कहा जा सकता है कि मेरुतुंग ने अपने समय में प्रसिद्ध या पूर्व में रचित ऐसे भावपूर्ण दोहों को अपनी रचना में शामिल करने का प्रयास किया है जो उसकी रचना की प्रसिद्धि को बढ़ाने में सहायक हों। और संस्कृत मर्मज्ञों के साथ-साथ भाषाके रसिक भी उसकी रचना का आनंद उठा सकें। वह भाषाकाव्य के दोहों के माध्यम से विशाल पाठक समुदाय तक पहुँचने की महत्त्वाकांक्षा में इन पदों को शामिल कर गया है और आज यह कहा जा सकता है कि उसकी दूरदर्शिता बहुत हद तक सफल भी रही है। हेमचन्द्र के अलावा सोमप्रभाचार्य ने अपने ग्रंथ कुमारपाल प्रतिबोधमें अपभ्रंश दोहों को स्थान दिया है। इसके अलावा कुछ अपभ्रंश दोहे प्राकृत पैंगलमऔर पुरातन प्रबन्ध संग्रह में भी मिलते हैं।

 

    अपभ्रंश मुक्तक काव्य का प्रभाव भक्तिकाल की रचनाओं पर देखा जा सकता है। अपभ्रंश की लौकिक मुक्तक काव्य परंपरा ने सबसे ज्यादा रीतिकाल को प्रभावित किया है। रीतिकाल की कविताओं पर लौकिक मुक्तक काव्य परंपरा का प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रकट होता है।

 

निष्कर्ष : मौजूदा समय में अपभ्रंश साहित्य कि जो छवि है वह सांप्रदायिक या धार्मिक साहित्य की बना दी गई है। वर्तमान में जो अपभ्रंश साहित्य प्राप्त है, वह बहुत कम मात्र में है। ऐसी आशंका है कि इसका अधिकांश साहित्य नष्ट हो गया है जो मिलता है वह भी पूर्ण या प्रामाणिक नहीं है। पुरानी और जर्जरित पोथियों में कुछ पंक्तियाँ या पन्ने ही गायब हो चुके हैं। सच्चाई यह है की जो अपभ्रंश साहित्य प्राप्त हुआ है वह केवल जैनियों के संरक्षण के चलते प्राप्त हुआ है। इसीलिए अधिकांश अपभ्रंश रचनाएँ वही मिलती हैं जो किसी न किसी रूप में जैन संप्रदाय से जुड़ी हुई हैं। अपभ्रंश की लौकिक या गैर सांप्रदायिक रचनाएँ बहुत ही कम मात्रा में प्राप्त हुई है। जितनी मिलती हैं उनकी गुणवत्ता और भाव से पता लगता है की एक दौर में उनकी प्रचुर मात्रा रही होगी। पंथ विशेष की शिक्षा और उपदेश वाली अपभ्रंश रचनाएँ विपुल मात्रा में मौजूद है। मगर साहित्य रसिको के लिए उसमें रुचि की विषयवस्तु बहुत कम है। इससे अपभ्रंश साहित्य के प्रति साहित्यिक पाठकों में एक दुराव पैदा हो चला है। अपभ्रंश काव्य परंपरा पर चर्चा करते ही उसे धार्मिक या सांप्रदायिक साहित्य कहकर उसे कोने मे कर दिया जाता है। अपभ्रंश साहित्य का अर्थ सिर्फ सिद्धों, जैनों, नाथों, शैवों और तांत्रिकों के पंथ से जुड़ा साहित्य बना दिया गया है। जोकि पूरी तरह से गलत है। यह एक भ्रांति है कि अपभ्रंश साहित्य पूरी तरह से सांप्रदायिक साहित्य है। अपभ्रंश साहित्य में सिर्फ ज्ञान, उपदेश और कर्मकांडों की ही बात नहीं की गई है इसमें जीवन से जुड़ी हर वह बात भी है जो हमारी अनुभूतियों से जुड़ी हुई है। इसमें हर वह गुण और विशेषता मौजूद है जो आधुनिक साहित्य से जुड़ी हुई है। इसमें लौकिकता और सांसारिक-कार्यव्यापार की घटनाओं का इतनी सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है कि यह रचनाएँ आधुनिक अर्थों में विशुद्ध साहित्यिक कही जा सकती हैं। परिमाण में भले ही ऐसी रचनाएँ कम हैं मगर जितनी उपलब्ध हैं वह बहुत ही सुंदर और सशक्त हैं। जबकि अपभ्रंश साहित्य में साहित्यिकता का अभाव बताया जाता रहा है जोकि गलत धारणा है। हमने ऊपर अपभ्रंश साहित्य में मौजूद लौकिक साहित्यिक रचनाओं को देखा है। उनकी संख्या और अनुभूति के स्तर को देखते हुए उनके साहित्यिक महत्त्व का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। इन रचनाओं में बड़ी संख्या में गैर-धार्मिक और साहित्यिक रचनाएँ मौजूद हैं। अपभ्रंश साहित्य में शुरू से ही लौकिक साहित्य कि एक परंपरा रही है जो धार्मिक साहित्य के साथ-साथ या समानान्तर चलती रही। विशेषकर अपभ्रंश के मुक्तक साहित्य में बड़ी मात्रा में लौकिक मुक्तक काव्य प्राप्त होते हैं। इस प्रकार से हम देखते हैं कि अपभ्रंश काव्य परंपरा में जिस लौकिक मुक्तक काव्य को हम अल्प मात्रा में प्राप्त या अप्राप्य समझ कर उपेक्षित करते चले आ रहे हैं उसकी एक विशाल परंपरा मौजूद है। जो कालिदास के यहाँ थोड़े से दोहों के रूप में प्राप्त होना शुरू होती है और आगे चलकर रोडा, हेमचन्द्र, और मेरुतुंग के यहाँ प्रौढ़ काव्य का रूप ग्रहण कर लेती है। इन कविताओं से अपभ्रंश साहित्य की गुणवत्ता का पता चलता है। अपभ्रंश लौकिक मुक्तकों की उपस्थिती, परिमाण और गुणवत्ता दोनों स्तरों पर इतनी तो है ही जिससे उसके गंभीर और महत्त्वपूर्ण साहित्यिक अवदान को आँका जा सके। जरूरत है तो इसे जानने, समझने तथा संरक्षित करने की जिससे नई पीढ़ी अपभ्रंश साहित्य की इस लौकिक साहित्यिक परंपरा से परिचित हो सके और यह कविताएँ अपनी सार्थकता को प्राप्त कर सकें।

 

सन्दर्भ :

  1. नामवर सिंह, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पंचम संशोधित संस्करण, 2006 
  2. वही, पृ.20
  3. रामकिशोर, अपभ्रंश मुक्तक काव्य और उसका हिंदी पर प्रभाव, हिंदी परिषद प्रकाशन, प्रयाग, प्रथम संस्करण, 1981 पृ.15
  4. वही, पृ.17
  5. वही, पृ.17
  6. रामचन्द्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, आठवाँ संस्करण, 2012- पृ.1,
  7. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पुरानी हिंदी, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, चतुर्थ संस्करण, पृ.108
  8. नामवर सिंह, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पंचम संशोधित संस्करण, 2006 पृ.209
  9. रामकिशोर, अपभ्रंश मुक्तक काव्य और उसका हिंदी पर प्रभाव, हिंदी परिषद प्रकाशन, प्रयाग, प्रथम संस्करण, 1981 पृ.13
  10. नामवर सिंह, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पंचम संशोधित संस्करण, 2006 पृ.209
  11. वही, पृ.209
  12. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पुरानी हिंदी, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, चतुर्थ संस्करण, पृ.18 

 

रामानन्द यादव
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
ramanandjnu@gmail.com, 9359923628


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue

सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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