शोध आलेख : हिंदी साहित्य के विकास में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों का योगदान / राकेश कुमार

िंदी साहित्य के विकास में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों का योगदान
- राकेश कुमार

 
शोध-सार : वैसे तो हिंदी साहित्य की विकास परम्परा में अनेक क्षेत्रों के लोगों ने अपना योगदान दिया है,  जो विशेष उल्लेखनीय हैं। लेकिन इस शोध आलेख में हम छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों का अध्ययन प्राचीन समय से लेकर आधुनिक समय तक। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काल विभाजन के अनुरुप करेंगे जिससे कि यह पता चल सकेगा की हिंदी साहित्य के विकास में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों का योगदान भी अतुलनीय रहा है। उन्होंने भी अपने परिश्रम और कलम की ताकत से हिंदी साहित्य की सेवा की और उसे सींचा है।
 
मूल आलेख : हिंदी साहित्य की इतिहास परंपरा काफी पुरानी है, लेकिन हिंदी भाषा का साहित्य के रूप में प्रयोग अपभ्रंश के विकसित रूप खड़ी बोली हिंदी के रूप में होता है। हिंदी साहित्य के विकास को अनेक विद्वानों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से अनेक भागों में विभाजित किया है, किंतु सबसे प्रामाणिक और सटीक विभाजन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का माना जाता है। जिन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में बांटा है, जो इस प्रकार है आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल। आचार्य शुक्ल द्वारा किये गए विभाजन को ही अधिकांश लेखकों ने सही माना और उसी के अनुसार ही अपनी रचना एवं व्याख्या  की है। हिंदी साहित्य के विकास में केवल एक व्यक्ति का योगदान नहीं रहा, अपितु अनेक व्यक्तियों, समूहों और पत्र-पत्रिकाओं का योगदान रहा है, इसे समृद्ध और पल्लवित करने में। अन्य क्षेत्रों के समान ही छत्तीसगढ़ का भी हिंदी साहित्य के विकास में योगदान कम नहीं है, छत्तीसगढ़ में अनेक ऐसे कवि या लेखक हुए जिन्होंने माँ हिंदी के कोष को समृद्ध किया और अपने कलम की ताकत से इसे लगातार सींचते रहे। “भारत के अन्य क्षेत्रों की भाँति छत्तीसगढ़ के अंचल में भी हिंदी विकास का क्रम ब्रज और अवधि भाषा के बाद हुआ है। यहाँ भी हिंदी साहित्य की परंपरा अत्यंत गौरवपूर्ण रही है। यूं तो यहाँ की प्रमुख भाषा छत्तीसगढ़ी है, जिसके विकास का अलग से इतिहास है और लोक साहित्य की परंपरा में इसकी भी अलग से सकता है। पर इस लोक साहित्य की प्राचीनता से हिंदी साहित्य का इतिहास पहले आता है1 आज हम ऐसे ही छत्तीसगढ़ के रचनाकारों का अध्ययन करेंगे जिन्होंने हिंदी साहित्य की सेवा निश्चल भाव से की है।
 
छत्तीसगढ़ की प्रमुख भाषा हिंदी और लोक भाषा छत्तीसगढ़ रही है। यहाँ बहुतायत की संख्या में लोग छत्तीसगढ़ी भाषा का ही प्रयोग करते हैं, फिर भी हिंदी साहित्य की विकास परंपरा अत्यंत गौरवमयी रही। यहाँ के विद्वानों ने हिंदी साहित्य के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई विद्वानों ने छत्तीसगढ़ में हिंदी साहित्य के क्रमिक इतिहास को देखते हुए अपने-अपने अनुसार काल विभाजन किया। “किसी ने छत्तीसगढ़ में हिंदी के विकास को रचना काल के अनुसार पांच भागों में विभक्त किया है 1.चारण कवियों की शृंखला, 2.भक्तिकाल, 3.भारतेंदु युग, 4.द्विवेदी युग, 5.आधुनिक काल। किसी ने तीन काल में विभक्त किया है- 1.भारतेंदु काल, 2.द्विवेदी काल और 3.आधुनिक काल। और किसी ने सिर्फ दो काल में विभक्त किया है- प्राचीनकाल और आधुनिक काल”।2 परंतु इनमें से कोई भी काल विभाजन उचित एवं तार्किक सिद्ध नहीं होता है। छत्तीसगढ़ में हिंदी साहित्य के क्रमिक विकास को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काल विभाजन के अनुरूप किया जाए तो कोई अनुचित नहीं होगा, क्योंकि हिंदी साहित्य में आचार्य शुक्ल का काल विभाजन सबसे प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक काल विभाजन माना जाता है, इन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में बांटा है जो इस प्रकार है-
1. वीरगाथा काल (आदिकाल 1050 से 1375 तक)
2. पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल 1375 से 1700 तक)
3. उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल सन 1700 से 1900 तक)
4. गद्य काल (आधुनिक काल 1900 से अब तक)
 
    छत्तीसगढ़ का हिंदी काव्य साहित्य हिंदी राष्ट्रीय साहित्य से पृथक नहीं है, अतः छत्तीसगढ़ में काव्य चेतना के संस्कार का अनुशीलन करते हुए उपर्युक्त काल क्रमों का ध्यान रखना आवश्यक है, इन कालों में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों की गतिविधि क्या थी? यह एक अनुशीलन का विषय है, अनुशीलन करके इस काल विभाजन के साथ समन्वय करने पर छत्तीसगढ़ में हिंदी विकास का क्रम स्पष्ट हो जाता है”।3
 
    हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल की समय सीमा 1050 से 1375 विक्रम संवत्तक रही। इससे पूर्व संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, की परंपराएं रही जिसका अंतर्भाव हिंदी साहित्य के पूर्व साहित्य के रूप में कर दिया गया। संस्कृत भाषा का प्रयोग छत्तीसगढ़ में चौथी सदी से आरंभ होकर कलचुरी वंश तक चलता है, लेकिन संस्कृत की अपनी विशिष्टता होने के कारण वह सर्वसाधारण के बीच प्रचलित न हो सकी और कालांतर में हिंदी सर्वसाधारण की भाषा बन गई। छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय राजवंश एवं राजाओं के होने के पश्चात् भी हिंदी के वीरगाथा युग के समान यहाँ विशुद्ध वीरकाव्य प्राप्त नहीं हुए, इसके संबंध में पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने लिखा है कि “हिंदी साहित्य में संस्कृत युग के बाद आदिकाव्य के अंतर्गत श्री राज रासो जैसे वीर गान का सर्वव्यापी प्रभाव पड़ा। किन्तु इस अंचल में उस गान की प्रतिध्वनि नहीं हुई। छत्तीसगढ़ में यों तो भाटों की परंपरा रही है, किंतु उनके काव्य का मौखिक रूप होने के कारण वे लोक साहित्य तक ही सीमित रह गये। वीर रस का कोई काव्य छत्तीसगढ़ में नहीं लिखा गया”।4 संपूर्ण छत्तीसगढ़ में पूर्व में चौदह रियासतें थीं और सभी रियासतों ने अपनी शक्ति के अनुसार हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। खैरागढ़ के राजदरबार के चारण कवियों की रचनाएं जो 15वीं से 16वीं शताब्दी तक प्राप्त होती है, ये सभी हिंदी साहित्य के आदि युग की प्रवृत्तियों के समान ही रही, लेकिन ये कुछ देर से परिलक्षित होती है। ये नौ चारण कवि थे जो एक ही वंश के थे इनमें सबसे प्रथम दलपत राम राव एवं अंतिम कमल राय थे। इन सभी ने खड़ी बोली हिंदी साहित्य की साधना की और हिंदी को समृद्ध बनाया। इन्हीं की वंश परंपरा में दलवीर आते हैं ये अपने समय के सफल कवियों में गिने जाते हैं। इन्होंने खैरागढ़ के राजा घनश्याम के लिए खड़ी बोली हिंदी में एक कविता लिखी जो इस प्रकार है-

“गुण न कटक देख, भूप भय रवाना नहीं।
झाड़ो तलवार और हिम्मत अड़ाना है,
कल-बल-छल और साहस बहादुरी के
शाप न घटाना और अकल बढ़ाना है”।5
 
    खड़ी बोली हिंदी का छत्तीसगढ़ में आज से साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व इतना शुद्ध रूप मैं उपयोग होना किसी आश्चर्य से कम नहीं। कविता में हिंदी का इतना शुद्ध रूप देखकर मन विस्मित हुए बिना नहीं रह सकता। ऐसे ही और अनेक विभूति हुए जो हिंदी साहित्य की साधना में रमे रहे और उसके विकास में अपना योगदान देते रहे। रत्नपुर के राजकवि गोपाल मिश्र एक उल्लेखनीय नाम है जिन्होंने औरंगजेब की क्रूरता पूर्ण शासन की धज्जियां उड़ाने वाली रचना खूब तमाशा की रचना की। इनकी अन्य रचनाएँ सुदामा चरित्र, भक्ति चिंतामणि, रामप्रताप, जैमिनी अस्वमेघ आदि भी इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ है। इनके पुत्र माखन भी एक अच्छे कवि थे इनकी अपूर्ण रचना रामप्रताप को इन्होंने ही पूर्ण किया। इनके पश्चात् रत्नपुर के बाबू रेवाराम का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है, ये संस्कृत और हिंदी दोनों के ही बड़े अच्छे साहित्यकार थे इन्होंने लगभग 13 ग्रंथों की रचना कर संस्कृत एवं हिंदी के कोष को प्रशस्त किया है। इसके बाद कुछ अन्य कवि भी हुए जो अपने राजाओं के आश्रम में रहकर साहित्य की सेवा करते रहे। इन्हें वीरगाथा युग का कवि तो नहीं कहा जा सकता परंतु ये सभी उसी समय के समान ही राज्याश्रित थे, इसके कारण ही इनका उल्लेख यहाँ किया गया है।
 
    पूर्व मध्यकाल भक्ति काल 1375 से 1700 विक्रम संवत् हिंदी साहित्य के क्रमिक विकास का अगला चरण है जो दो धाराओं में सगुण और निर्गुण धारा में विभाजित था। निर्गुण धारा के प्रवर्तक कबीरदास जी है। भले ही कबीरदास जी का संबंध छत्तीसगढ़ से ना रहा हो लेकिन इनके अधिकांश शिष्य छत्तीसगढ़ से ही थे। इनके पंथ के प्रमुख स्थानों में एक बनारस है, तो दूसरा कवर्धा है। कवर्धा छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ का प्रमुख स्थान माना जाता है यही से कबीर पंथ के साहित्य का प्रचार-प्रसार हुआ। छत्तीसगढ़ में कबीर के कई शिष्य थे किंतु उनके प्रमुख शिष्य धरमदास छत्तीसगढ़ के बांधवगढ़ के निवासी थे जो आगे चलकर कबीर के उत्तराधिकारी  हुए और कबीर के पंत को आगे बढ़ाया। इन्होंने ही कबीर के विचारों और उपदेशों को बीजक नाम से संगृहीत किया है, इनकी प्रमुख रचनाऐ श्री गुरु माहात्म्य, ज्ञान चिंतक, ज्ञान प्रकाश, विवेक सागर, धर्म बोध, ज्ञान स्थिति बोध, ब्रह्म विलास, उग्र गीता आदि हैं। जगजीवन दास चंदेल क्षत्रिय थे, इन्होंने छत्तीसगढ़ में सतनामी संप्रदाय की स्थापना की। इनकी वाणी से हिंदी साहित्य को बड़ा बल प्रदान हुआ। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ में एक और शाखा का जन्म हुआ जिसके आदि प्रवर्तक गुरु घासीदास हुए उन्होंने सत्य को ही ईश्वर और धर्म माना और अपनी वाणी से लोगो का उद्धार करने में लग गये। इनके अनुयायी सतनामी कहलाए और इनके मरणोपरांत गिरौदपुरी में हर साल मेला आयोजन होता है। भक्ति काल में प्रवाहित दूसरी धारा सगुण भक्ति की थी सगुण भक्ति धारा के कवियों में श्री वल्लभाचार्य जी का स्थान प्रथम आता है भले ही इनका कार्यक्षेत्र ब्रजभूमि रहा हो किंतु इनका जन्म रायपुर के चम्पारण नामक स्थान पर हुआ। “ब्रज एक पावन तीर्थ स्थान है, जहाँ भारत के विभिन्न प्रांतों की श्रद्धालु जनता का आगमन प्राचीन काल से हो रहा है, फलतः वल्लभाचार्य के अनुयायी पर्याप्त संख्या में हर प्रांत में पाये जाते हैं, फिर भी छत्तीसगढ़ को इस बात का गर्व तो है ही कि उसने वल्लभाचार्य जैसे पुष्टिमार्ग के संस्थापक को जन्म दिया”।6 इनकी दार्शनिक दृष्टि शुद्धाद्वैतवाद की थी इनका लक्ष्य शंकराचार्य के मायावाद और निर्वतवाद से मुक्ति की थी। इनके प्रमुख ग्रंथ श्रीमद्भागवत की सुबोधिनी टीका, तत्वदीप निबंध, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, ब्रज सूत्र भाषा, सोलह प्रकरण ग्रंथ आदि हैं। इनकी रचना अणुभाष्य को पूर्ण इनके पुत्र विट्ठलनाथ ने किया था। वल्लभाचार्य के पश्चात् सगुण धारा की प्रवृत्ति को प्रभावित करने का कार्य इनके पुत्र विट्ठलनाथ एवं नाती गोकुलनाथ ने किया। इन दोनों की रचनाएं हिंदी साहित्य के विकास की दृष्टि से सशक्त रचनाएं हैं। इनके पश्चात् छत्तीसगढ़ में सगुण धारा के कवियों के रूप में गोपालचंद्र मिश्र, माखन लाल मिश्र, बाबू रेवाराम, पहलाद दुबे, पंडित शिवदत्त शास्त्री, तेज नाथ शास्त्री, अमराव बख्शीं आदि आते हैं। गोपाल कवि की  शठ शतक, माखन कवि की छंद विलास, प्रह्लाद दुबे की जयचंद चंद्रिका, गंगाधर मिश्र की कोसलनंद, बाबू रेवाराम की कृष्णलीला, पंडित तेज नाथ शास्त्री की रामायण सार संग्रह, अमराव बख्शी की रामलीला रामायण नाटक, कवित्त रामायण, फतेह विनोद, फतेह विलास, आदि रचनाओं ने छत्तीसगढ़ में हिंदी साहित्य के विकास में विशेष योगदान दिया है।

     रीतिकाल की समय सीमा 1700 से 1900 विक्रम संवत्तक रही। इस समय में छत्तीसगढ़ के कुछ साहित्यकार ऐसे हुए जिन्होंने भक्ति काव्य और रीतिकाव्य परंपरा को परिपुष्ट करने में अपनी सहायता प्रदान की। जिनमें रत्नपुर के गोपालचंद्र मिश्र का नाम बड़े आदर्श के साथ लिया जा सकता है। “गोपाल मिश्र का रीतियुग से संबंध होने के कारण इनकी काव्य कला में रीत्यात्मकता का भी प्रभाव पूर्ण परिलक्षित होता है किंतु उनकी शृंगारिक अनुभूतियों में हिंदी के रीति युगीन कवियों की भक्ति शृंगार तुलसीदास जी की भांति सात्विकता को लिए हुए है। उनके काव्य में समस्त रसों का परिपाक दिखलाई देता है। वे छत्तीसगढ़ के छंद सम्राट कवि हैं, उनकी काव्यगत प्रवृत्तियाँ तथा कृतित्व की गरिमा के आधार पर इन्हें हिंदी काव्य साहित्य में आचार्य कवि केशवदास के समकक्ष रखा जा सकता है”।7 इनके ही समकालीन अन्य रीतिकालीन कवियों में माखन लाल मिश्र, चंद्र मिश्र, रेवाराम आदि का नाम लिया जा सकता है। जिन्होंने भक्तिपरक रचनाओं के साथ रीतिपरक रचनाएं भी की है। रीतिकाल के मध्य भाग के पश्चात् अर्थात 1850 के बाद इसमें नई प्रवृत्तियों ने जन्म लिया ज्यो-ज्यो राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियां बदलने लगी, त्यो-त्यो साहित्य ने भी अपना रुप बदला। जहाँ पहले भक्ति और रीतिपरक रचनाएँ हो रही थी वहीं अब भारतेंदु युग में भारतीयता एवं राष्ट्रीयता की भावना ने स्थान ले लिया। भारतेंदु युग मे छत्तीसगढ़ के कुछ साहित्यकारों के नामों का उल्लेख कुछ इस प्रकार है। सबसे पहले तो ठाकुर जगमोहन सिंह का नाम आता है, जिन्होंने श्यामा स्वप्न, प्रलय, प्रेम हजारा, प्रेम संपत्ति लता, मेघदूत, कुमार संभव सार, श्याम सरोजनी, ज्ञान प्रदीप आदि ग्रंथों की रचना कर हिंदी साहित्य के विकास में अपना योगदान दिया। इनके अलावा भी कुछ अन्य साहित्यकार और हैं जिनकी रचनाऐ हिंदी साहित्य के विकास में मूल्यवान रही है। हीरालाल की दुर्गायन, जगन्नाथ प्रसाद भानु की छंद प्रभाकर, काव्य प्रभाकर, छंद सारावली, अलंकार दर्पण, हिंदी काव्यालंकार, अलंकार प्रश्नोत्तरी,  रस रत्नाकर। इन्हें भारत वर्षीय हिंदी साहित्य सम्मेलन में साहित्य वाचस्पति की उपाधि से नवाजा गया था। सैयद अमीर अली मीर इन्होंने हिंदी के प्रचार के लिए मीर मंडल की स्थापना की थी। इनके ग्रंथ बूढ़े का ब्याह, नीति दर्पण, सदाचारी बालक आदि हैं। पंडित रामदयाल तिवारी एक अच्छे साहित्यकार थे इनकी रचनाएँ गांधीं मीमांसा, गांधीज्म एक्सरेड, स्वराज्य प्रश्नोत्तरी, हमारे नेता आदि हैं। मेदिनी प्रसाद पांडेय की शृंगार सुधा संग्रह, गणेशोत्सव दर्पण, पद्य सुमन,  सत्संग विलास। अनन्त राम पांडेय एक अच्छे साहित्यकार और निबंधकार भी थे इनकी रचनाओं का संग्रह अनन्त लेखावली नाम से प्रकाशित है। इनका कपटी मुनि नाटक भी काफी प्रसिद्ध रहा है। दाऊद कृष्ण किशोरदास की रचना श्रीराधा कृष्ण चंद्रिका आदि साहित्यकार हुए जिन्होंने रीतिकाल के साहित्यिक विकास में छत्तीसगढ़ से अपना योगदान दिया।

    आधुनिक काल 1900 से प्रारंभ हो जाता है हिंदी साहित्य के विकास में आधुनिक काल में भी अनेक ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने अपनी साहित्यिक सेवा देकर हिंदी का गौरव बढ़ाया है। 19वीं से 20वीं सदी के बीच जिन साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य के विकास में अपना योगदान दिया है उनमें गणपति लाल चौबे, रामा राव चिचोंलकर, माधवराव सप्रे, श्रीनंदलाल बनवारी प्रसाद, चुन्नी लाल मुन्शी, नंदलाल शुक्ल, मुंशिक कुमार, मोहम्मद याकूब, बहादुर सिंह, ठाकुर प्यारे सिंह, बैरिस्टर प्यारे लाल, राम दयाल तिवारी, जीवन प्रसाद दुबे, सैयद अमीर अली मीर, खंडेराव मराठे, बिसाहू राम सोनी, विश्वनाथ दुबे, हीरालाल काव्योपाध्याय, सुंदरलाल शर्मा, सुखदेव प्रसाद चतुर्वेदी, मुरली प्रसाद पुरोहित, स्वामी विद्या प्रकाश, आदि उल्लेखनीय हैं। सुन्दरलाल शर्मा एक उत्कृष्ट कोटि के साहित्यकार हैं जिन्होंने हृदय तरंग, फुटकर काव्य, ध्रुव चरित्र, पहलाद नाटक, आख्यान नाटक, विक्टोरिया वियोग, सीता परिणय, पार्वती परिणय, श्रीकृष्ण जन्म, कंस वध आदि रचनाएं लिखकर हिंदी साहित्य की सेवा की और इन्हें साहित्य जगत में अच्छा सम्मान मिला। हिंदी साहित्य परंपरा के साथ-साथ चलने के कारण छत्तीसगढ़ के साहित्यिक परंपरा में आधुनिक काल आते-आते साहित्य गद्य साहित्य का रूप ले लेती है। गद्य साहित्य के दो रूप दिखाई देते हैं 1. भाव प्रधान या ललित साहित्य जिसमें कहानी नाटक उपन्यास आते है। 2. विचारप्रधान या वैचारिक साहित्य जिसमें निबंध, आलोचना, संस्मरण, लेख, यात्रा आदि आते हैं। इन दोनों प्रकार के साहित्य का विकास छत्तीसगढ़ के अंचल में खूब हुआ। छत्तीसगढ़ में गद्य साहित्य के विकास में माधवराव सप्रे जी की भूमिका अतुलनीय रही हिंदी गद्य के विकास में इनका कार्य अनूठा रहा है। द्विवेदी युग के प्रारंभ होने के पश्चात् साहित्य में बहुत कुछ उथल-पुथल हुए, वैचारिक स्तर हो या व्याकरणिक स्तर सभी स्तरों पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। राष्ट्रीय भावना जागृत होने लगी, विदेशी शासन के प्रति आक्रोश आदि भावना दिखाई देने लगी। छत्तीसगढ़ का साहित्य और साहित्यकार इससे अछूते नहीं रह सके इनकी भी रचनाओं में उग्रता, मानवतावादी धारा दिखाई देने लगी। इस युग के प्रमुख साहित्यकारों में लोचन प्रसाद पांडेय, सुखलाल प्रसाद पांडेय, बलदेव प्रसाद मिश्र, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शीं, मुकुटधर पाण्डेय, श्री राम दयाल तिवारी आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। निबंध विधा के साहित्यकारों में दो नाम प्रमुख रहे हैं पहला बिसाहू राम इनके निबंध आध्यात्मिक विषयों पर केंद्रित रहे हैं। दूसरा अनंतराम पांडेय इनके निबंध  समालोचनात्मक विषयों पर रहे हैं। इन के पश्चात् समकालीन निबंधकारों में लोचन प्रसाद पांडेय, गोपाल दामोदर तामस्कर, वनमाली प्रसाद शुक्ल, राम दयाल तिवारी, बाबू कुपदीय सहाय आदि उल्लेखनीय हैं। डॉक्टर बलदेव प्रसाद ने मानस से संबंधित लेख लिखकर जो इनके ग्रन्थ मानस माधुरी, मानस से राम में संग्रहित है, इससे उन्होंने काफी प्रभावित किया। जीवनी विधा में प्यारेलाल गुप्त की पंडित लोचन प्रसाद पांडेय व्यक्तित्व व कृतित्व, श्री ठाकुर की ठाकुर प्यारे सिंह की जीवनी, चंद्रशेखर, विश्वनाथ  वैश्म्पायन की क्रांतिकारी आजाद की जीवनी विशेष उल्लेखनीय पुस्तकें हैं। हिंदी गद्य साहित्य के विकास में ऐसे ही अनेक विद्वान हैं जिन्होंने हिंदी साहित्य की सेवा निस्वार्थ भाव से की है उनमे से कुछ साहित्यकारों की चर्चा हम क्रमवार करेंगे-
सुखलाल पांडे इनकी रचनाएँ बाल शिक्षक पहेली, बाल गीत, पद्य पंचामृत, मैथिली मंगल, भूलभुलैया, मातृ मिलन आदि। इनकी रचनाएँ सरस्वती, प्रभा, हितकारिणी पत्रिकाओं में छपती थी।

लोचन प्रसाद पांडे- दो मित्र, प्रवासी, नीति कविता, रघुवंश सार, प्रेम प्रशंसा, छात्र दुर्दशा, साहित्य सेवा, मेवाड़ गाथा, माधव मंजरी, बाल विनोद, पद्य पुष्पांजलि, कविता कुसुममाला, महानदी, पुष्पांजलि, चरित माला आदि। “इनके साहित्य का मूल्यांकन खड़ी बोली हिंदी साहित्य के प्रारंभिक इतिहास की पृष्ठभूमि में किया जा सकता है। आधुनिक हिंदी को प्रशस्त करने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा”।8 पांडे बंधु के नाम से विख्यात रायगढ़ के लोचन प्रसाद पांडेय और मुकुटधर पाण्डेय ये पांच भाई थे इन दो के अलावा पुरुषोत्तम प्रसाद पांडे, विद्याधर पांडेय, बंशीधर पांडे ये सभी हिंदी के अच्छे और बड़े साहित्यकार थे। जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा साहित्य विकास में अपना योगदान दिया।

डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र- जीवन विज्ञान, साकेत सन्त, रामराज्य, तुलसी दर्शन, मानस में रामकथा, जीवन संगीत, क्रांति, गाँधी आदि। इन्हें हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से नवाजा गया था।
सरयू प्रसाद तिवारी- सीता अन्वेषण, अज्ञातवास, मधु सीकर, मधु बोल। इनका गद्य कम मिलता है, लेकिन ये पद्य के अच्छे रचनाकार थे।

द्वारिका प्रसाद तिवारी- सुराज गीत, शिव स्तुति, गांधीं गीत, जवाहर ज्योति, सन् सन्तावन की क्रान्ति, गोस्वामी तुलसीदास की जीवनी, कांग्रेस विजय, भजन संग्रह, राम केवट संवाद।

श्रीकांत वर्मा- भटका मेघ, भाषा दर्पण, दिनारंभ, जलसागर, मगध, झाड़ी, संवाद कहानी, घर, दूसरे के पैर, जिरह, अपोलो का रथ, फैसले का दिन, प्रसंग, बीसवीं शताब्दी के अंधेरे में। इनकी साहित्य की प्रतिभा आजादी के बाद उभरी थी। ये हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकारों में गिने जाते हैं। इन्हें मध्यप्रदेश सरकार ने शिखर सम्मान दिया था।
अमृत लाल दुबे- मानस मुक्ता (पचास कविताओं का संग्रह), मुलिया (छ: कहानियों का संग्रह)।

डॉ. शंकर शेष- बंधन अपने-अपने, बाढ़ का पानी, चन्दर के द्वीप, दरिया, घरौंदा, फंदी, द्रोणाचार्य, चेहरे, पोस्टर, एक प्याला, काफी, हुलिया, अजायबघर, त्रिभुज का चौथा कोण। शंकर से एक श्रेष्ठ गद्यकार थे जो आगे चलकर सुप्रसिद्ध नाटककार हुए।

हरि ठाकुर- लोहे का नगर, गीतों का शिलालेख, नए विश्वास के बादल, ठाकुर प्यारेलाल की जीवनी, छत्तीसगढ़ के रत्न।
    
कपिल नाथ कश्यप- वैदही विछोह, बावरी राधा, युद्ध आमंत्रण, सीता विलाप, राम राज्य, सीता की अग्निपरीक्षा, स्वतंत्रता के सेनानी, आहृान, सुलोचना विलाप, पुरुषार्थ प्रेम पीयूष, बिखरे फूल, न्याय, श्री राम जन्म, चित्रलेखा।
मुकुटधर पाण्डेय- स्मृति पुंज, परिश्रम, हृदय दान, शैलवाला, मामा, पूजा का फूल, कानन कुसुम। इन्हें छायावाद के प्रवर्तक के रूप में भी जाना जाता है। इन्हें पद्मश्री की उपाधि एवं डी. लिट. से सम्मानित किया गया है।

    हिंदी साहित्य को आगे बढ़ाने वालों में  मुक्तिबोध, शानी, हरिशंकर परसाई, विनय कुमार पाठक, श्याम लाल चतुर्वेदी, प्रेरणा कुमारी, त्रिवेणी वैष्णव,  सुखी राम निषाद, भैया लाल ताम्रकार, देवीप्रसाद वर्मा, राम नारायण शुक्ल, विमल पाठक, पालेश्वर शर्मा, केशव पांडेय, अरुण अग्रवाल, रूपनारायण वर्मा रेणु, अमृतलाल नागर, पुरुषोत्तम, दयाशंकर शुक्ल, उमाशंकर शुक्ल, हीरालाल शुक्ल, डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, ध्रुव नारायण वर्मा, नंदकिशोर तिवारी, कुंजबिहारी, पुन्नालाल बख्शी, नारायण लाल परमार, कुंतल गोयल, केदार नाथ ठाकुर आदि साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य के विकास में अपनी सराहनीय भूमिका निभाई। इन साहित्यकारों की रचनाओं ने हिंदी साहित्य के विकास को प्रशस्त किया।

    समकालीन समय में छत्तीसगढ़ से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाले साहित्यकारों में- विनोद कुमार शुक्ल, रवि श्रीवास्तव,  सियाराम शर्मा, संजीव बख्शी, आनंद हर्षुल, कैलाश बनवासी, जया जादवानी, लोक बाबू, विनोद साव, मीतादास, एकांत श्रीवास्तव, नासिर अहमद सिकंदर, शरद कोकास, बसंत त्रिपाठी, मनोज रूपड़ा, कमलेश्वर साहू, बुद्धि लाल पाल, रजत कृष्ण, संजय श्याम, आलोक वर्मा, भास्कर चौधरी, घनश्याम त्रिपाठी, पूनम वाशम, अंजन कुमार, जयप्रकाश साव आदि वर्तमान समय में छत्तीसगढ़ से हिंदी साहित्य की सेवा में अपना अतुलनीय योगदान दे रहे हैं।

निष्कर्ष- हिंदी साहित्य की विकास की जो धारा प्रवाहित हो रही थी उससे छत्तीसगढ़ भी अछूता नहीं था। भले ही छत्तीसगढ़ की अपनी भाषा और संस्कृति रही हो फिर भी उसने हिंदी साहित्य के विकास में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और उसे समृद्ध किया। हिंदी साहित्य के काल विभाजन के अनुरूप छत्तीसगढ़ के साहित्य और साहित्यकारों को देखते हैं, तब पता चलता है कि हर एक कालखंड में अलग-अलग साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य के विकास में अपना अतुलनीय योगदान दिया है। सभी ने हिंदी के विकास में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया चाहे वह आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल या आधुनिक काल हो। सभी कालों की अपनी एक अलग विशेषता रही इन्हीं विशेषताएं के अनुरूप ही साहित्यकारों ने अपनी साहित्यिक रचनाएं लिखीं। अंत में हम कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य के विकास में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों का योगदान सराहनीय रहा उन्होंने हिंदी साहित्य के क्रमिक विकास को अपनी रचनाओं के द्वारा प्रशस्त किया।

संदर्भ :

  1. मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन द्वितीय भाग द्वितीय संस्करण, प्रकाशक भारतेंदु हिंदी साहित्य समिति बिलासपुर म.प्र., 1998, पृष्ठ 131।
  2. मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन द्वितीय भाग द्वितीय संस्करण, प्रकाशक भारतेंदु हिंदी साहित्य समिति बिलासपुर म.प्र., 1998 पृष्ठ 132।
  3. मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन द्वितीय भाग द्वितीय संस्करण, प्रकाशक भारतेंदु हिंदी साहित्य समिति बिलासपुर म.प्र., 1998, पृष्ठ 132।
  4. मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन द्वितीय भाग द्वितीय संस्करण, प्रकाशक भारतेंदु हिंदी साहित्य समिति बिलासपुर म.प्र., 1998, पृष्ठ 133।
  5. मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन द्वितीय भाग द्वितीय संस्करण, प्रकाशक भारतेंदु हिंदी साहित्य समिति बिलासपुर म.प्र., 1998 पृष्ठ 134।
  6. प्यारेलाल गुप्त, प्राचीन छत्तीसगढ़ प्रथम संस्करण, प्रकाशक रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर म.प्र., 1973, पृ. 300-301
  7. मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन द्वितीय भाग, द्वितीय संस्करण, प्रकाशक भारतेंदु हिंदी साहित्य समिति बिलासपुर म.प्र., 1998, पृष्ठ 141।
  8. मदन लाल गुप्त, छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन द्वितीय भाग द्वितीय संस्करण  प्रकाशक भारतेंदु हिंदी साहित्य समिति बिलासपुर म.प्र., 1998, पृष्ठ 149।
  9. मदनलाल गुप्त, छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन द्वितीय भाग द्वितीय संस्करण प्रकाशक भारतेंदु हिंदी साहित्य समिति बिलासपुर म.प्र., 1998।
  10. प्यारेलाल गुप्त, प्राचीन छत्तीसगढ़, प्रथम संस्करण, प्रकाशक रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर म.प्र., 1973।
  11. छत्तीसगढ़ की विभूतियाँ एवं लौकिक प्रसून प्रथम संस्करण 1976 छत्तीसगढ़ सांस्कृतिक मंडल बी.एच..एल. भोपाल।
  12. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोक   भारती प्रकाशन,नई दिल्ली,आठवां संस्करण 2012।
  13. डॉक्टर विमल कुमार पाठक, छत्तीसगढ़ के हीरे, श्री प्रकाशन, दुर्ग छ.ग. 2010।
  14. डॉ. राजकुमार बेहार, श्रीमती निर्मला बेहार, छत्तीसगढ़ के गौरव रत्न, छत्तीसगढ़ शोध संस्थान रायपुर।  
  15. डॉ. नगेंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रकाशन मयूर पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2018

 

राकेश कुमार
शोधार्थी (हिन्दी), कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय भिलाई नगर, दुर्ग छ.ग.
Yrakesh143.ry@gmail.com, 9691938999
   
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

Post a Comment

और नया पुराने