समीक्षा : बीस बरस : बुझते गाँव का महाआख्यान / प्रदीप कुमार सिंह

बीस बरस : बुझते गाँव का महाआख्यान 

- प्रदीप कुमार सिंह


शोध-सार : ‘बीस बरस’ रामदरश मिश्र का रिपोतार्ज़ शैली में लिखा गया उपन्यास है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के वर्षों में उभरने गाँव के अस्तित्वहीन होते चले जाने की व्यथा को लिए हुए है। लोगों का पलायन जैसे-जैसे गाँव से शहर की ओर बढ़ता गया, वैसे-वैसे लोगों का मोह भी गाँव से कम होता गया। गाँव एक तरह से पर्यटन स्थल या पिकनिक स्पॉट का पर्याय बनकर रह गए हैं। जिन ग्रामीण मूल्यों या समृद्धि का सपना कभी देखा गया था वह कभी उभरे ही नहीं, अपितु रहे-सहे मूल्य भी क्षत-विक्षत होते गए। उक्त उपन्यास में इसी संत्रास, निराशा, असहाय अवस्था, टूटन, विघटन आदि का शब्द विधान है। उपन्यासकार ने अपने परिवेश के उन अनुभवों को उपन्यास में रचा है जो अनुभवों की कल्पना नहीं करता या अतीत और भविष्य के सुनहले विराट जीवन को अपने ऊपर आरोपित नहीं कर लेता। बल्कि गाँवों के सम्पूर्ण यथार्थ के विविध कोणों को उसकी वास्तविकता में प्रकट करता है जिसमें स्वतंत्रता के बाद गाँव का गंवाईपन उसकी सादगी, आस्था और मूल्य सभी एक साथ चरमराकर टूटते नज़र आते हैं, जिसे उपन्यास के पृष्ठों में पुनः समेटने का प्रयास किया गया है।  

 

बीज शब्द : गाँव, आधुनिकता, भूमंडलीकरण, जातिवाद, शहरीकरण

 

शोध आलेख : ‘क्या रखा है गाँव में? कहते रहो और गाँव को प्रेम से छलते रहो’ रामदरश मिश्र का ‘बीस बरस’ उपन्यास अपने प्रकाशन के साथ ही पाठकों का ध्यान इस कथन की ओर आकर्षित करने में सफल रहा। आज से ढाई दशक पूर्व प्रकाशित यह उपन्यास अपने कथ्य, कहन की भंगिमा और भाषा की रवानी में अभूतपूर्व है। उपन्यास गाँवों को लेकर हमारे मानस में व्याप्त ‘मिथ’ एवं ‘सोच’ को अनेक स्तर पर क्षतिग्रस्त करता है, इस उपन्यास की ख़ासियत यह है कि यह पूरी तरह से गाँव की वास्तविक ज़मीन से पाठक को अवगत कराता चलता है। यह लेखक का वह गाँव नहीं है, जो ‘पानी के प्राचीर’ और ‘जल टूटता हुआ’ उपन्यास में उपस्थित है। बल्कि यह वह गाँव है जो ग्रामीण लेखकों की कलम से अभी तक ओझल होता आया है इसीलिए यह काफी हद तक बदला हुआ है। कहीं-कहीं तो यह इस कदर बदला हुआ है कि उस बदले हुए गाँव का सामना करने में उपन्यास के कथानायक ‘दामोदर’ को भी बड़ी मुश्किलों तथा कशमकश से गुजरना पड़ता है।


    यहाँ उपस्थित गाँव भारत के अधिकांश गाँवों की तरह गाँव से क़स्बा बनने की प्रक्रिया में है जहाँ कृषि की जगह मकान, दुकान, मोटरसाइकिल, पक्की सड़कें आदि दिखाई देंगी। इसीलिए बीस बरस के बदलाव का गाँव दामोदर के सामने मौजूद होकर भी न होने जैसी पीड़ा का अनुभव कराता है जिस वजह से उसके मन में गाँव की बीस बरस पहले की स्मृतियाँ बीत कर भी नहीं बीतती हैं। उपन्यास के पटल पर मुख्य भूमिका के रूप में उपस्थित ‘शिवपुरा’ एक विकासशील गाँव है जिसकी विकास यात्रा ही उपन्यास की कथा भूमि है। इस गाँव की आधार भूमि के अंतर्गत कुछ और भी गाँव आते हैं जैसे:- ‘सहोड़वा’, ‘चिउंटहा’, ‘बसावनपुर’, ‘शिवपुरा’, ‘हाटा’, ‘बाँसगाँव’ आदि। ये सारे गाँव ‘शिवपुरा’ के बहुत ही आस-पास एक-दो मील के अंतर में बसे हुए हैं जिससे कथा को केंद्रीय विस्तार मिलता है। प्रसंगानुसार केंद्रीय कथा के सूत्र भी इन गाँवों तक लम्बा गए हैं, “बीस बरस उपन्यास है किन्तु प्रचलित अर्थ में नहीं। इसमें आयी घटनाएँ और पात्र परस्पर उस रूप में विन्यस्त नहीं हैं जिस रूप में उपन्यास में होते हैं। कथा-प्रवक्ता दामोदर इन सबसे गुजरता है- कभी प्रत्यक्ष रूप से, कभी अपनी स्मृतियों के माध्यम से, कभी दूसरों के अनुभवों और संवादों के द्वारा। लेखक दामोदर के माध्यम से यात्रा करता है नये गाँव के जीवन-यात्रा की।”1 सारी कथा इसी पर घूमती हुई हमें  ग्रामीण जीवन की वास्तविक पहचान कराती है। कथानक में ‘दिल्ली’, ‘जौनपुर’, ‘बनारस’ और ‘गोरखपुर’ जैसे महानगरों का भी उल्लेख आया है। परंतु दिल्ली को छोड़कर बाकी महानगरों का महत्त्व उतना ही है जितना मैला आँचल में ‘पटना’ और आधा गाँव में ‘अलीगढ़’ का है। दिल्ली की कथा केंद्रीय कथा के साथ शुरू से अंत तक नाभिबद्ध नज़र आती है और ‘दामोदर’ के माध्यम से इस यात्रा की मुख्य कड़ी बन जाती है। दामोदर जो पेशे से लेखक और दिल्ली से निकलने वाले प्रचलित अखबार ‘नव ज्योति’ के प्रधान संपादक हैं। वह बीस बरस बाद अपने गाँव वापस लौटें हैं जिस वजह से ‘शिवपुरा’ की कथा में दिल्ली के प्रसंग अनायास जुड़ते चले गए हैं।


    उपन्यास ‘रिपोर्ताज’ शैली में प्रारंभ हो ‘शिवपुरा’ गाँव की ज़मीन में प्रवेश करता है, जहाँ आज़ादी के चालीस-पैंतालीस वर्ष बाद भी सड़कें घूल-धूसरित और कटी-फटी हैं। हाँ कहीं-कहीं सड़कों पर खड़ंजे जरूर बिछा दिए गए हैं, जिनसे फूट-फूट कर ईंटें अपनी गमनीयता की गवाही दे रहे हैं कि उन्हें बिछे कई वर्ष हो गए हैं। साथ ही इक्का-दुक्का रिक्शे और मोटरसाइकिल आदि भी चलने लगे हैं। यहीं से गाँव में आधुनिकता के संकेत मिलने शुरू होते हैं, “अब तो आया कीजिए चाचा जी, अब तो मैंने मंगलपुर में दुकान खोल ली और अपने पास मोटरसाइकिल है, आपको गाँव छोड़ आया करूँगा और जब कहेंगे वहाँ से ले आया करूँगा।”2  प्रस्तुत संवाद में मंजुल द्वारा अपने पास मोटरसाइकिल होने का दावा गाँव में आधुनिक उपकरणों के प्रवेश की पुष्टि करता है जिस वजह से ‘शिवपुरा’ गाँव अब, गाँव से क़स्बा और फिर महानगर हो जाने के बहुत करीब मालूम पड़ता है, इसीलिए जब मंजुल अपने चाचा दामोदर से मिलने दिल्ली जाता है तो उन्हें यह सब बताता है ताकि वह छुट्टियों में अपने गाँव आने का मन बनाएँ। यहीं से उपन्यासकार बीसवीं शताब्दी के गाँव की यात्रा पर निकल पड़ता है, जहाँ पाठक अपने मन में यह धारणा बना लेता है कि आज़ादी के बाद दशकों का अज्ञान, गरीबी, बेकारी आदि सब कुछ गाँवों से नष्ट हो चुका होगा और एक नए भोर की नई तस्वीर, लहलहाते खेत, बाढ़ की छाती पर दौड़ती हुई सड़कें, अभयदान की मुद्रा में खड़े अस्पताल, प्रेम के रस से सिंचे हुए देश के गाँव-गाँव से उठते हुए समवेत कंठों के गान, दूर-दूर तक फैली हुई जड़ता की चट्टानों को बेध-बेध कर जगह-जगह झरते ज्ञान और विद्या के झरने..... देखने को मिलेंगे। परंतु गाँव के विकास का जो वास्तविक नज़ारा दामोदर को देखने को मिलता है उसकी रिपोर्टिंग वह इस प्रकार करता है, “सवेरे-सवेरे मंजुल की मोटरसाइकिल पर बैठकर गाँव के लिए रवाना हुआ। नदी शुरू में पड़ती है। काफी दिनों से सुना जा रहा था कि इस पर पुल बनने वाला है लेकिन सुनते-सुनते युग बीत गया। बरसात बीत जाने पर पीपे का पुल बना दिया जाता है। यह क्रम अनादि काल से चलता आ रहा है। नदी की रेत से लड़ाई करती हुई मोटरसाइकिल खड़ंजे वाली सड़क पर आ गयी और उस पर उछलती-कूदती गाँव की ओर भागने लगी। रास्ते में अपने जाने-पहचाने अनेक गाँव पड़ते गये। उन्हें देखता रहा कि कैसे हो गये हैं? और लगा कि उनकी शक्ल-सूरत में निश्चय ही कुछ बदलाव आया है। सड़क खड़ंजा ही सही, सड़क तो है और यह सड़क गाँवों के बीच से जा रही थी। छोटे-मोटे वाहन सड़क पर आ-जा रहे थे। किसी-किसी गाँव के पास हाईस्कूल बन गये थे जिससे सड़क पर तमाम दुकानें खुल गयी थीं। चाय की दुकानें तो जगह-जगह दिखाई दे रही थीं। गाँवों के खपरैल के मकान धीरे-धीरे पक्के मकान में बदल रहे थे। जहाँ मैंने बगीचे देखे थे, वहाँ ईंट के भट्ठे सुलग रहे थे। धूँए से आकाश भरा हुआ था। यह देखकर अच्छा लगा कि सरकार के न चाहने के बावजूद लोगों ने बहुत कुछ बदला है, आधुनिक लहर को गाँव में हाँक कर ले आये हैं।”3  


    जैसे-जैसे दामोदर गाँव की ओर बढ़ते जाते हैं। बीस बरस पहले के गाँव को लेकर उनके हृदय में व्याप्त स्मृतियाँ एक-एक करके खंडित होने लगती हैं और उसे बीस बरस पहले वाले अपने गाँव की मृत्यु का अहसास होने लगता है, “अपने गाँव के पास की सड़क के इस नये रूप से गुज़रना बहुत अच्छा लग रहा था। गाँव की बड़की बारी आ गयी। उसे देखते ही जी धक्क से रह गया- यह आमों की बारी तो उजड़ गयी है। कहाँ गया वह कोनहवाँ पेड़, वह मिठौया, वह अमतहवा, वह लहसुनिया वह.....। सारे पेड़ों के तो नाम थे और सबके साथ हमारे निजी संबंध थे। वे पेड़ चाहे अपने रहे हों, चाहे दूसरों के, सब की छाँह में घूमे हैं, विश्राम किया है, खेले हैं और चुरा-चुरा कर सबके फल खाये हैं, फलों के साथ उनके मालिकों की झिड़कियाँ खायी हैं। कहाँ गये वे पेड़? जो बचे हैं वे भी अधटूटे हुए, उदास-उदास निरर्थक से। मार्च का आरंभ हो गया लेकिन किसी में बौर नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। हाँ कटे पेड़ों द्वारा खाली किये गये स्थान पर ईंट का भट्ठा धुँआ उगलता हुआ दिखाई पड़ा।”4 जब आधुनिकता के नाम पर गाँवों के विकास एवं निर्माण का बदला स्वरूप दामोदर के सामने आता है तो उस विषैले वातावरण में मानो दामोदर का दम घुटने लगता है। अपना ही गाँव अब उसे एक अजीब-सा गाँव प्रतीत हो रहा है जिसे उसके मन में चल रहे उलझनों का अजायबघर कहा जा सकता है। किस्म-किस्म के लोग और उनसे जुड़ी स्मृतियों से उसके मन में हमेशा धधकते रहने वाला गाँव अब उसके मन में एक पल को भी चैन नहीं ले पा रहा है।


    दामोदर अपने बीस बरस पुराने उस गाँव को ढूंढ़ रहा था जहाँ जमींदार थे, सेठ-साहूकार थे, ब्राह्मण-क्षत्रिय थे, हरिजन-कहार थे, किसान-मजदूर थे, पढ़े-बेपढ़े, भले-बुरे सभी तरह के लोग थे। जिसमें नेता और उनके गुंडे, लठैत भी। चोर-बदमाश भी, लुच्चे और लफंगे भी। कुल मिलाकर वह सभी कुछ मौजूद था जो आमतौर पर एक भारतीय गाँव-ज्वार में होना चाहिए। फिर उनसे जुड़ी समस्याएँ। बेशुमार समस्याएँ। समस्याएँ तो आज भी अपना नया रूप धारण कर मौजूद हैं। परंतु गाँव और गाँव वालों का व्यवहार अब वो नहीं रह गया। इसीलिए गाँव पहुँचते ही दामोदर को अपने ग्रामीण अस्तित्व से अलग शहरी अस्तित्व का बोध होने लगता है, “मोटरसाइकिल घर के दरवाजे पर लगी। बच्चों ने मुझे देखा और एक हलचल-सी मच गयी- दिल्ली वाले बाबा आ गये, दिल्ली वाले बाबा आ गये।”5 दामोदर अपने गाँव में जिस अपनत्व का भाव लेकर आए थे वो सब एक ही पल में टूट जाते हैं जैसे ही उसकी अस्मिता के साथ दिल्ली वाले बाबा होने का भाव जोड़ दिया जाता है। मानो यह गाँव अब उसका गाँव रहा ही नहीं हो?


    होली के उत्सव को लेकर भी उसके मन में बार-बार यही सवाल कौंधता है कि ‘क्या हो गया है गाँव को?’ फागुनी हवा उसी उद्दाम भाव से बह रही है और फसलें भी उसी मस्ती में झूमती हुई बज रही हैं। लेकिन आदमी को क्या हो गया है, “पहले तो परंपरा रही है कि होली में किसी की कोई कितनी भी कीमती चीज़ सम्मति में डाल दो वह निकाल नहीं सकता था और लौंडे उन्माद में आकर किसी की फसल डाल देते थे, किसी की कीमती लकड़ी, किसी का छप्पर छाने के लिए रखा हुआ खर पतवार। और जो डाल दिया गया सो डाल दिया गया। लोग लौंडों पर चीखते-चिल्लाते हुए भी, गाली-गुफ़्ता देते हुए भी निकाल नहीं सकते थे। अब तो साहस का यह आलम हो गया है कि सम्मति ही उखाड़ कर फेंक दी जा रही है।”6 यानी अब गाँव में तीज-त्यौहारों के प्रति उतनी ही आस्था बची रह गई है जितने से निजी लाभ सिद्ध होता हो। अब लोगों में अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति वह आदर भाव नहीं रहा जो दामोदर अपनी पीढ़ी के लोगों में महसूस करते थे। इस आदर भाव की वास्तविकता को दामोदर के हम उम्र रहे जगदीश भाई के कथन द्वारा स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है, “आप  हम लोगों के समय की होली की बात मत सोचिये। अब तो छुत-छुड़ाना रह गया है।”7 गाँवों में भी अब सांस्कृतिक उत्सव ठंडा पड़ता जा रहा है। स्वार्थोत्सव एवं अपनी जोड़-तोड़ में व्यस्त लोगों में अब फुरसत ही नहीं कि वे होली या अन्य सांस्कृतिक पर्वों में एक साथ मिलकर अपनी ठेठ आदमियत का साक्षात्कार कर सकें। अपने बँटते हुए सुख-दुख को कुछ समय के लिए एक साथ जोड़ सकें।


    गाँव के गंवईपन के टूटने की यही रफ़्तार रही तो वह दिन दूर नहीं जब वास्तविक गाँव हमारे मन में अतीत बनकर सालने का अहसास मात्र रह जाएगा, इसीलिए दामोदर होली के दिन अपने बीस बरस पूर्व की स्मृतियों को पुनः स्मरण करते हैं, “मैं याद कर रहा था- यही दरवाज़ा है, होलिका-दहन की रात को अंदर से लेकर बाहर तक भरा होता था। लोग गाते थे, बाहर नाचते थे और गाँव के चारों ओर दूर-दूर तक लड़के फैले होते थे सम्मति बटोरने के लिए। लोग सो नहीं पाते थे। चाहते थे इस मस्त, उद्दाम दो दिवसीय समारोह के क्षण-क्षण का रस बटोर लें। हाय रे, यह रंगीला फागुन बीत रहा है और फिर साल भर बाद आयेगा और कौन जाने अगले फागुन से भेंट हो न हो। जितना हो सके इसे अपने में भर लो, साल भर जीने की शक्ति देगा।”8 परंतु अब सारा गाँव जैसे नीरस हो गया है, न कोई उत्साह न कोई ताज़गी। उपन्यास इसी नीरसता के ताने-बाने को अपने कलेवर में लेकर आगे बढ़ता चलता है, जहाँ ग्रामीण जीवन का सजीव अंकन, समाज, प्रकृति और परिवेश के संबंधों की संवेदनशीलता में व्याप्त हो चुकी स्वार्थपरता का समन्वय उपन्यासकार ने किया है। इन अर्थों में ‘बीस बरस’ उपन्यास को गाँवों में आए बदलावों का अंबार भी कहा जा सकता है।

    उपन्यास के छोटे से कलेवर में जितनी समस्याएँ हैं उतने ही पात्र भी इसमें शामिल हैं जो गाँव के बदलाव के पाट एक-एक कर हमारे सम्मुख खोलते जाते हैं। उपन्यास में लगभग  सभी वर्णगत जातियों के पात्र मौजूद हैं जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, कहार और हरिजन प्रमुख हैं। पशु, पक्षी, गाय, बैल या अन्य किसी जानवर का जिक्र पात्र आदि के रूप में नहीं किया गया है। सभी पात्र अंतर्विरोधों, तनावों एवं उनसे उत्पन्न टकराहटों में साँस लेते नज़र आते हैं जिसकी अभिव्यक्ति लेखक दामोदर के माध्यम से करता है। ‘शिवपुरा’ गाँव के इस वातावरण में मंजुल, दामोदर, डॉ. साहब, जगदीश भाई, सुरेश, सुखदेव, पवित्रा, बसंता, बंदना, लच्छूलाल हरिजन, काशीनाथ फौजी, मंगल तेली जैसे प्रतिनिधि पात्र भी मौजूद हैं जो गाँव की दंभी और साजिशों से भरी मूल्यहीनता का पर्दाफाश करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं। बीस बरस बाद अपने गाँव लौटे दामोदर जैसा शिक्षित व्यक्ति भी इनकी करतूतों से एकबारगी को हिल उठता है। परंतु वह अंततः इन स्वार्थी ताकतों को आसमान दिखाकर अपने मूल्यों की रक्षा करने में सफल होता है, “अब आप हो गये निपट परदेसी। हम लोग तो परदेस में रहते हुए भी अंत में अपने गाँव ही लौटे। लौटना ही था लेकिन आप तो दिल्ली में ही बस गये। आपके बाल-बच्चे भी वहीं के हो गये हैं। अब, आप गाँव कहाँ लौटेंगे? हाँ यह बात काफी हद तक सही है। तो? तो यह कि आप अपने खेतों के बारे में क्यों नहीं कुछ सोचते? यानी। कब तक इन्हें यों ही छोड़े रहेंगे। इन्हें बेच क्यों नहीं देते? इन्हें छोड़े कहाँ हूँ। मेरे भतीजे तो जोत-बो रहे हैं। अरे आप दुनिया को नहीं समझते। कब किसके मन में क्या बात आ जाये, कहा नहीं जा सकता। हम लोग आपके शुभ चिंतक हैं इसलिए चिंता होती है कि कल कहीं आपके ये सारे खेत हाथ से निकल न जाएँ।”9 उक्त कथन में उपस्थित पात्र प्रवीण जो गाँव का सामान्य नेता भी है। अपनी चतुर बुद्धि से दामोदर को उसके खेत बेचने के लिए प्रोत्साहित करता है। साथ ही उसे उसके परिवार से काटने का भी प्रयास करता है ताकि वह अपनी ज़मीन बेचकर हमेशा के लिए गाँव से कट जाए। परंतु दामोदर अपनी बुद्धि का परिचय देते हुए बात को टाल देता है।  
 

    उपन्यास में ऐसी ही कुछ पुरातन विसंगतियाँ नई पीढ़ी के युवाओं में भी देखने को मिलती है, जिसमें सबसे पहले आता है वर्णभेद और जाति प्रथा की समस्या। जिसे दामोदर और उसके भतीजे मंजुल के बीच होने वाले जातिवादी बहस के द्वारा समझा जा सकता है, “ज़रा हरिजन टोले की ओर चलना चाहता हूँ मंजुल। ज़रा देखना चाहता हूँ कि यह दुनिया कितनी बदली है। बहुत बदली है चाचा जी। x x x x आप नहीं समझेंगे चाचा जी। इन हरिजनों के असहयोग, गुस्ताखी और ऊँची मजदूरी के कारण हम लोगों का काम होना मुश्किल हो गया है। ठीक कहते हो, सदियों से जो दुख और अपमान इन हरिजनों ने भोगा है उसे वे ही समझ सकते हैं, ऊँचे वर्गों और जातियों के लोग नहीं। हम आज भी चाहते हैं कि वे हमारे सामने लाचारगी से बिछे रहें। हमारे जायज़-नाजायज़ हुक्म की तामील करते रहें। नहीं यह सब अब कौन करता है चाचा जी? लेकिन छोटे-बड़े का लिहाज तो नहीं भूल जाना चाहिए। वे प्रणाम तो कर सकते हैं, हमें आता-जाता देख चारपाई पर से उठ तो सकते हैं। और हम उनके लिए क्या कर सकते हैं इसका भी कोई धर्मशास्त्र तुम लोगों ने बनाया है? अरे बाबा जब हम उन्हें आदमी मानने से भी इनकार करते हों तो वे हमें प्रणाम क्यों करें। वे अपने घर में या घर के सामने चारपाई पर आराम कर रहे हैं, अपनी थकान मिटा रहे हैं तो वहाँ से बार-बार गुजरते हुए बड़े लोगों को देखकर चारपाई पर से क्यों उठें?”10 नई पीढ़ी के ब्राह्मण तथा अन्य उच्च वर्ग के लोग आज भी निचली जातियों के साथ वैसा ही क्रूरतापूर्ण-अमानुषिक व्यवहार कर रहे हैं जैसा उनके पूर्वज शताब्दियों से उनके साथ करते आ रहे थे। भारत के गाँवों में आज भी जमींदार, महाजन तथा इसके साथ ही अन्य कई शोषक शक्तियाँ सक्रिय हैं, जो हमेशा निचले वर्गों को दबाये रखने में विश्वास करती है।   


    गाँव में आधुनिकता के प्रवेश से नई पीढ़ी के मन में दलित समाज के प्रति व्याप्त यातनाओं की पुरातन परंपरा समाप्त हो जायेगी। यह मात्र एक भ्रम के और कुछ साबित नहीं हुआ। आज भी गाँवों की दशा में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया हो तथा गाँधीजी की कल्पना साकार हो उठी हो। यह कल्पना ‘शिवपुरा’ गाँव के संदर्भ में पूरी तरह गलत साबित होती है। सवर्ण जातियाँ आज भी वहाँ प्रभावशाली हैं। आज भी समाज में वह अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाह रहे हैं। अपनी जातिगत श्रेष्ठता के दंभ के आधार पर। जिसकी वास्तविकता का अहसास हमें गाँव की दलित युवती पवित्रा जो पेशे से एक सरकारी शिक्षक है उसके प्रति सवर्ण जाति के पुरुषों की कामुक भावना के माध्यम से समझ आ जाता है, जिसका वर्णन सुखदेव कुछ इस प्रकार करते हैं, “ऊँची जातियों के लोग अभी भी हमारी बहू-बेटियों को अपनी बहू-बेटी की तरह नहीं मानते और उनके भीतर उनसे खेलने की जो सदियों से हविश ज़ोर मारती रही है, वह अभी मरी नहीं है।”11 जिस वजह से वह आज भी उन्हें अपनी संपत्ति समझते हैं। ‘शिवपुरा’ की एक अन्य सबसे बड़ी समस्या भूत-प्रेत की कथाओं के परिपालन की है। भूत-प्रेत का साया एवं उनके किस्से जो कई पीढ़ियों से चले आ रहे थे आज भी ज्यों का त्यों मौजूद हैं, इसीलिए युवा पीढ़ी को रात-बिरात गाँव में या गाँव के आस-पास अकेले निकलने में बहुत डर लगता है, “गाँव की इस गली में चुड़ैल है, बँसवारी में चुड़ैल है, गड़ही में बुड़वा है, गाँव के बाहर के बगीचे के आमुक पेड़ पर भूत है, सेमल पर जिन्न है, वहाँ गड़ंत है। बाबा रे बाबा भूत ही भूत भरे थे और गाँव के बड़े बूढ़ों की उनसे कभी न कभी, कहीं न कहीं टकराहट हो चुकी थी।”12 इसके विपरीत गाँव में दूर-दूर तक कोई अच्छा अस्पताल नहीं था। कई गाँवों के लिए एक छोटी-सी नाम मात्र की डिस्पेंसरी जरूर थी जिसमें नाम मात्र की एक नर्स तैनात थी। वह भी लापरवाही में भारत के अन्य किसी भी अस्पताल के डॉक्टरों से बीस कदम आगे थी, “सिस्टर हमारे गाँव में एक औरत प्रसव-पीड़ा से मर रही है। मेरा आदमी आपको बुलाने आया था। आपने कहा था- थोड़ी देर में आती हूँ। वहाँ उस औरत की हालत-खराब हो रही है। अरे कोई एक गाँव और एक घर ही तो मेरे जिम्मे नहीं है। देख रही है न इतने लोग बैठे हैं। अभी-अभी एक केस से लौटी हूँ।”13 ऐसे हालात आज भी गाँवों में आम बात है जिस वजह से ‘सुमेर बाबा की पतोह’ जैसी न जाने कितनी ग्रामीण महिलाएँ चिकित्सा के अभाव में प्रसव-पीड़ा या अन्य बीमारी से अपनी जान से हाथ धो बैठने को मजबूर है।


    उपन्यास की केंद्रीय भूमिका के रूप में उपस्थित ‘शिवपुरा’ गाँव में गरीबी एवं अभाव के अनेक चित्र मौजूद हैं। कुछेक लोगों को छोड़कर पूरा गाँव गरीबी की इस आँच से तप रहा है। नौकरी शुदा लोग हों, चाहे खेती-किसानी करने वाले। गरीबी सबके यहाँ घर किए बैठी है। आज़ादी के चालीस-पचास साल बाद भी लोग जहालत में पल रहे हैं। उपन्यास विशुद्ध रूप से ग्रामीण-परिवेश को लेकर चलता है। अंचलीय जीवन जिन विसंगतियों, विडंबनाओं, अभावों, अंधविश्वासों एवं आधुनिक विकृतियों में साँसें ले रहा है इस सबकी अतीव पैनी और धारदार अभिव्यक्ति इस उपन्यास में हुई है। आज़ादी के बाद भारतीय गाँव-देहात बुरी तरह टूट रहे थे, तथा वे जिस तरह से भय, आतंक और अपमान की ज़िंदगी जीने को विवश थे। इन तमाम स्थितियों की यथार्थ अभिव्यक्ति दामोदर की स्मृतियों में व्याप्त है। ग्राम-परिवेश को जीवंत रूप में प्रस्तुत करने के लिए उपन्यासकार ने कहीं-कहीं लोक उपादानों का सहारा लिया है जिसमें लोक गीतों, सूक्तियों, मुहावरों, प्रकृति-परिवेश, भाषा आदि तत्व प्रमुख हैं। ऋतुओं या मौसमों के साथ फसलों की कटाई-बुआई के परिदृश्य उपन्यास में मौजूद नहीं हैं, जिसका एक कारण आधुनिक गाँव का चित्रण करना भी माना जा सकता है जो अपनी प्रकृति में लगभग मॉर्डन हो चुका है।


    उपन्यास में भाषा की प्रमुखता इसका लोक उपादानों से सराबोर होना है जिससे उपन्यास की आँचलिकता का रंग और गाढ़ा हो गया है। भाषा की दृष्टि से उपन्यास को समृद्ध कहा जा सकता है। बीस बरस के अंतराल वाले इस गाँव में व्याप्त घने-घटाटोप अंधियारे में भी दामोदर को एक दमकती किरण दिखती है जिसका मूल, शिवराम की पत्नी ‘वंदना’, नई पीढ़ी की दलित शिक्षिका ‘पवित्रा’, शिक्षक ‘मंगल साहू’ आदि का विद्रोहवादी स्वर है। यही वह वास्तविक सत्य है, जो टूटते गाँव, समाज और उसके मूल्यों को बचा सकता है। उन्हें परस्पर जोड़े रख सकता है, क्योंकि बदलाव संशाधनों का नहीं लोगों की मानसिकता एवं उनकी सोच का भी होना चाहिए। तभी हम वास्तविक रूप में अपने गाँवों को आधुनिक कह सकते हैं अन्यथा यह मात्र विनाश है हमारे गाँवों के लिए।

           

संदर्भ  :
1.  मिश्र, रामदरश, बीस बरस, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण, 1996, पृष्ठ संख्या- 05
2.  वही, पृष्ठ संख्या-08
3.  वही, पृष्ठ संख्या-08
4.  वही, पृष्ठ संख्या-12
5.  वही, पृष्ठ संख्या-13
6.  वही, पृष्ठ संख्या-15  
7.  वही, पृष्ठ संख्या-18
8.  वही, पृष्ठ संख्या-24
9.  वही, पृष्ठ संख्या-56
10.  वही, पृष्ठ संख्या-88
11.  वही, पृष्ठ संख्या-95
12.  वही, पृष्ठ संख्या-45
13.  वही, पृष्ठ संख्या-59 

 

प्रदीप कुमार सिंह
हिन्दी अध्ययन केंद्र, गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर, गुजरात- 382030
ps440440@gmail.com, 7503935817

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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