आलेख : औपनिवेशिक भारत में प्रतिबंधित पुस्तक ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट’ का आलोचनात्मक अध्ययन / शशि शर्मा

औपनिवेशिक भारत में प्रतिबंधित पुस्तक ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट’ का आलोचनात्मक अध्ययन 
- शशि शर्मा 

    ‘प्रतिबंधित’ शब्द का अर्थ निषेध है। प्रतिबंधित साहित्य से तात्पर्य उन साहित्यिक रचनाओं से है, जिस पर सरकार द्वारा पाबन्दी लगायी जाती है। प्रत्येक समाज का सत्य वहाँ के साहित्य में दर्ज होता है। साहित्य समाज को बदलने की पहल करता है। अतः ऐसा साहित्य जिसमें शासनकर्ता और शासन व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठायी गयी हो, अपने समय और समाज के सत्य का यथार्थ वर्णन किया गया हो, जनचेतना जाग्रत करने का प्रयास किया गया हो, उसे सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया जाता है। भारत में अंग्रेज़ी सरकार ने उन महत्वपूर्ण पुस्तकों पर पाबन्दी लगायी, जिसमें 1857 की क्रांति का समर्थन था। अंग्रेजी राज्य के दमन और शोषण के विरुद्ध प्रतिकार का स्वर था और जिसमें किसी भी देश के स्वाधीनता आंदोलन का समर्थन था।

    वर्ष 1976 में एन. जेराल्ड बैरीयर की पुस्तक ‘BANNED CONTROVERSIAL LITERATURE AND POLITICAL CONTROL IN BRITISH INDIA 1907-1947 प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में 1907 से लेकर 1947 तक प्रतिबंधित भारतीय भाषाओं की पुस्तकों का अध्ययन किया गया .  है। इसमें प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची भी दी गयी है। जेराल्ड के अनुसार बंगला में 226, गुजराती में 158, हिंदी में 1391, हिंदुस्तानी में 320, मराठी में 185, अंग्रेज़ी में 273, पंजाबी में 135, उर्दू में 468, द्रविड़ भाषाओं में 224 और अन्य में 538 पुस्तकों को अंग्रेज़ी हुकूमत ने प्रतिबंधित किया था।

    अंग्रेज़ महाराज नहीं चाहते थे कि भारतीय जनता चेतनशील बने तथा शासक वर्ग के विरुद्ध आवाज़ उठाये। इसलिए सरकार द्वारा तमाम कूटनीति और लूटनीति के साथ पुस्तकों को प्रतिबंधित करने की नीति भी अपनायी गयी। हिंदी भाषा की सभी विधाओं में लिखी जा रही पुस्तकों पर अंग्रेज़ी सरकार ने आँखे गड़ाई हुई थी। कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, पत्र-पत्रिकाओं जिसमें भी उनके खिलाफ़ लिखा जाता, उस पर पाबन्दी लगा दी जाती। औपनिवेशिक भारत में अंग्रेज़ सरकार ने प्रेमचंद के ‘सोजे वतन’ और ‘समर-यात्रा’ कहानी-संग्रह, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का ‘चिंगारियाँ’ नामक कहानी-संग्रह, नवजादिक लाल श्रीवास्तव की पुस्तक ‘पराधीनता की विजय यात्रा’, देवनारायण द्विवेदी की पुस्तक ‘देश की बात’ आदि तथा पत्रिकाओं में ‘हिंदी ग्रन्थमाला’ पत्रिका में प्रकाशित ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट’ शीर्षक निबंध ‘चाँद’ पत्रिका का ‘फाँसी’ अंक, आदि रचनाओं पर पाबन्दी लगाई।
     
    हिंदी ग्रन्थमाला पत्रिका में प्रकाशित ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट अर्थात् भारतवर्ष की उन्नति का एकमात्र उपाय’ शीर्षक प्रतिबंधित निबंध ही इस लेख का वर्ण्य विषय है। इस महत्वपूर्ण निबंध के रचनाकार हैं माधवराव सप्रे, जिन्हें हमारा हिंदी समाज भूल गया है। सर्वप्रथम निबंधकार का परिचय जरूरी है। कर्मयोगी माधवराव सप्रे (1871-1926) हिंदी नवजागरण के पुरोधा साहित्यकार हैं। वे नवजागरणकालीन लेखकों की भाँति सुधी साहित्यकार होने के साथ प्रखर पत्रकार भी थे। सप्रे जी महाराष्ट्र से थे और मराठी भाषी थे। उन्होंने हिंदी प्रदेश तथा हिंदी भाषा की उन्नति के लिए ही आजीवन प्रयत्न किया। सप्रे जी का काल 1900 से लेकर 1920 तक फैला हुआ है। उनका चिंतन और लेखन एक ओर राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और इतिहास से जुड़ा हुआ है  तो दूसरी ओर साहित्य की समालोचना और कहानी लेखन से। उन्होंने तत्कालीन ज्वलंत विषयों पर कई महत्वपूर्ण निबंध लिखे जिनमें ‘इंग्लैण्ड की व्यापार नीति’, यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें’, ‘मन को मापना’, ‘हमारे सामाजिक ह्रासों के कुछ कारणों का विचार’, ‘किसानों की शिक्षा’, ‘भौतिक प्रभुता का फल’, ‘पूर्वी और पश्चमी सभ्यताओं में विभिन्नता’, ‘स्वदेशी साहित्य का महत्व’, ‘भारत की एक राष्ट्रीयता’, ‘राष्ट्रीय जागृति की मीमांसा’ आदि उनके निबंध उस दौर की प्रसिद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे विशेष रूप से सरस्वती, मर्यादा, प्रभा, विद्यार्थी, अभ्युदय, श्रीशारदा, विज्ञान, ज्ञानशक्ति, ललिता हितकारिणी आदि पत्रिकाओं में। इसके साथ ही उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’, ‘हिंदी ग्रन्थमला’ तथा, ‘हिंदी केसरी’ पत्रिका का संपादन भी किया।

    नागपुर से ‘हिंदी ग्रन्थमाला’ पत्रिका का प्रकाशन हिंदी-पत्रकारिता के इतिहास में युगान्तकारी पहल थी। इस पत्रिका में जॉन स्टुअर्ट मिल का सुप्रसिद्ध लेख ‘On liberty’ का महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘स्वाधीनता’ शीर्षक से भावानुवाद किया। इसके बाद से ही माधवराव सप्रे अंग्रेज सरकार की आँखों में चुभने लगे। सप्रे जी ने वासुदेवराव लिमये के आग्रह पर लोकमान्य तिलक की केसरी पत्रिका में प्रकाशित लेखों से प्रभावित होकर ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट अर्थात् भारतवर्ष की उन्नति का एकमात्र उपाय’ शीर्षक निबंध लिखा, जिसे वासुदेव लिमये ने 1906 में पुस्तकाकार प्रकाशित कराया। इस पुस्तक की 8000 प्रतियाँ छपी, जो उस समय की दृष्टि से उल्लेखनीय आँकड़ा है। सप्रे जी ने इस निबंध में कई मारक प्रसंगों का उल्लेख किया है। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा अपनायी गयी बंग-भंग की नीति की कड़ी आलोचना की। लोगों से बॉयकॉट अथवा बहिष्कार और स्वदेशी-वस्तु-व्यवहार की प्रतिज्ञा करने का आह्वान किया। कांग्रेस और स्वदेशी के संबंधों पर प्रकाश डाला तथा अंग्रेजों ने भारतीय व्यापार को किस प्रकार बर्बाद किया, इन सब विषयों पर गंभीरता से लिखा। सप्रे जी की दो टूक बात कहने की हिम्मत अपूर्व थी। उनके उग्र विचारों और अंग्रेजों के विरुद्ध लिखने के कारण अंग्रेज शासक ने 1909 में इस पुस्तक पर पाबन्दी लगा दी। 

    माधवराव सप्रे ने इस निबंध के माध्यम से सदियों से सोये हुए लोगों को जागरूक किया। उनकी निर्जीव पड़ी हुई आत्मा को सचेतन बनाया। उनके मन में स्वाभिमान और देशभक्ति की चिंगारी जगायी। अंग्रेजों की कूटनीति और लूटनीति के साथ भारत की दुर्दशा से लोगों को अवगत कराया। ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका में उन्होंने भारतवर्ष के संदर्भ में लिखा है– “जिस समय संपूर्ण यूरोप खंड अज्ञानांधकार में डूबा हुआ था, और इंग्लैंड देश के निवासी निरी जङ्गली अवस्था में थे, उस समय यह भारतभूमि बड़े-बड़े महात्मा ऋषि मुनियों के ज्ञान प्रकाश से जगमगा रही थी। आध्यात्मिक ज्ञान और वेदान्त विषय में तथा विज्ञान और साहित्य में इस देश की बराबरी कौन कर सकता था? सभ्यता के शिखर पर पहुँचे हैं, यूनानियों से या जगत विजयी रूमियों से हमारे पूर्वज आर्य किसी प्रकार भी कम न थे। परंतु दुर्भाग्यवशात् यह सुदशा दीर्घकाल तक न रही बिचारे इस अभागे देश पर विदेशियों ने कई बार आक्रमण करके प्रजा को अपना दासत्व स्वीकार कराया।”

    स्वदेशी का प्रश्न और उससे जुड़ी बहिष्कार की भावना ये दोनों ही तत्कालीन समय के ज्वलंत प्रश्न थे। यही वजह है कि उन्होंने इस निबंध में स्वदेशी की महत्ता की घोषणा की। इस निबंध का प्रचलित शीर्षक है ‘स्वदेशी आंदोलन और बॉयकॉट’ लेकिन इसी शीर्षक के बाद सप्रे जी ने जोड़ा है ‘अर्थात् भारतवर्ष की उन्नति का एकमात्र उपाय।’ इस लेख का यही मर्म है। उनकी पीड़ा देश की उन्नति को लेकर थी, जिसके लिये उन्होंने स्वदेशी का अंगीकार और विदेशी का बहिष्कार दोनों उपायों की विस्तार से चर्चा की। बंग-भंग के पश्चात् देश भर में एक छोर से दूसरे छोर तक जागरण की लहर ने जोर पकड़ा। आजतक जो देश मुर्दे की नींद सोया हुआ था उसमें प्राकृतिक चेतना की ज्योति जलती हुई दिखाई देने लगी। अपनी वाक्पटुता के लिए प्रसिद्ध बंगाली लोगों में जैसे आंतरिक स्फूर्ति आ गयी, देश के लिए और अपने लिए दूसरों का मुँह ताकना छोड़कर, वे सभी एकजुट हो गए –“जब उन लोगों ने देखा कि भीख माँगने की पद्धति (Constitutional agitation) से कुछ लाभ नहीं होता, तब उन्होंने यह निश्चय किया कि हम लोगों को अपनी उन्नति अपने आप करनी चाहिए, इसलिए उन्होंने विदेशी-वस्तु के त्याग और केवल स्वदेशी-वस्तु के व्यवहार की अटल प्रतिज्ञा की।”

    सप्रे जी का मानना था कि अंग्रेजों की अधीनता से छुटकारा पाने के लिए इस देश के लोगों को दृढ-निश्चय और एक्य-भाव से अपने कार्य की सिद्धि करनी चाहिए, नहीं तो हमें केवल वाक्पटुता का प्रदर्शन करते हुए, निरंतर दासत्व में ही रहना पड़ेगा। अतः इस देश के सभी लोगों को विदेशी वस्तु का बहिष्कार करना होगा और स्वदेशी वस्तु का व्यवहार करना होगा। 

    सप्रे जी का मानना था कि स्वदेशी और बॉयकॉट या बहिष्कार एक ही प्रक्रिया के दो रूप हैं। हम सिर्फ जोर स्वदेशी पर देते हैं। प्रायः यह भ्रम हो जाता है कि सिर्फ स्वदेशी के आग्रह से हम उन्नति का मार्ग प्राप्त कर लेंगे- ‘‘यद्यपि यह बातें बाहर से देखने में भिन्न–भिन्न देख पड़ती हैं और यद्यपि उनका वर्णन भिन्न–भिन्न शब्दों में किया जाता है, तथापि यथार्थ में ये दोनों बातें एक ही हैं ये भिन्न नहीं हैं। ये एक ही वस्तु के दो भिन्न रूप हैं।’’
सप्रे जी ने इस बात का भी व्यापक विश्लेषण किया है कि जब तक हम बॉयकॉट के जरिये विदेशी माल की खपत को हतोत्साहित नहीं करेंगे, विदेशियों को अंगूठा नहीं दिखायेंगे, तब तक हमारे अपने उद्योगों को पनपने का अवसर प्राप्त नहीं होगा। अमेरिका, इटली, चीन और खुद अंग्रेज सरकार द्वारा समय–समय पर अपनाए गये स्वदेशी के नारे का उदाहरण देते हुए उन्होंने अपनी अस्मिता के महत्व को पहचानने पर जोर दिया। वे लिखते हैं, ‘‘आयरलैंड, अमेरिका, इटली, चीन और इंग्लैंड देशों के उदाहरणों को देखकर भी यदि हम लोग न सुधरे तो हमारे समान अभागे और कोई न होंगे।’’ सप्रे जी ने इस निबंध में यूरोपीय देशों और चीन तथा जापान जैसे एशियाई देशों का उदाहरण देते हुए ‘स्वकीय का स्वीकार और परकीय का त्याग’ के भाव को अपनाने की हिदायत दी। वे लिखते हैं –“चौथा उदाहरण खुद हमारे अंग्रेज़ महाराज का है। इन लोगों ने तो, एक समय, अपने निज के व्यापार के लाभार्थ, बहिष्कार (बॉयकॉट) से भी अधिक तीव्र अत्यंत अनुचित उपायों का अवलंबन किया था। प्राचीन समय में भारतवर्ष कारीगरी के कामों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। उस समय यहाँ के बने अनेक पदार्थ इंग्लैंड और अन्य देशों को भेजे जाते थे। इंग्लैंड के लोग हमारे व्यापार की बराबरी नहीं कर सकते थे। तब उन लोगों ने कानून बनाकर, हिंदुस्तानी वस्तुओं पर बहुत भारी कर लगाकर, हमारे व्यापार को अपने देश से बहिष्कृत कर दिया।” हमें भी अंग्रेज़ों को उन्हीं के तरीकों से सबक सिखाना होगा।

    सप्रे जी ने अन्य लेखकों की भाँति अंग्रेजों की भक्ति नहीं की। उन्होंने अंग्रेजों के कुशासन व्यवस्था की निंदा की। उन्होंने अंग्रेजों के ‘डिवाइड एंड रूल’ की नीति को भाँप लिया था। वे लोगों को बाँटकर उनकी शक्ति को क्षीण कर लोगों पर शासन करना चाहते थे। भारतीयों को सभ्य बनाने की बात तो केवल दिखावा मात्र थी, अंग्रेज़ यहाँ व्यापारी बनकर आये थे। यहाँ का व्यापार ठप्प करने और अपने व्यापार की उन्नति करना ही उनका मक़सद था। वे लिखते हैं –“अंग्रेज़-व्यापारी हर साल तीस करोड़ का कपड़ा इस देश में बेचकर हमारा धन लूट ले जाते हैं। क्या इस बात से हमारा जी जलना न चाहिए। जिस मनुष्य का जी इस बात से नहीं जलता कि तीस करोड़ की हमारी हमारी संपत्ति केवल विलयती कपड़ा खरीदने में विदेश को चली जाती है, वह ‘स्वदेशी’ का अनुयायी कैसे हो सकता है?”

    उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ-साथ अंग्रेज़ी राजभक्ति करने वालों लोगों को भी फटकार लगायी। वे लिखते हैं –“क्या यह खेद और लज्जा की बात नहीं है कि ये लोग सरकार की अप्रसन्नता और अफसरों की नाराज़गी की तो इतनी परवा करें, परंतु अपने देश की भलाई का कुछ भी विचार मन में न लायें? जो लोग स्वयं अपनी, अपने कुटुंब की, अपने पड़ोसी की, अपने समाज की और अपने देश की भलाई की कुछ भी चिंता न करके केवल विदेशियों को खुश करने का प्रयत्न करते हैं, वे देश के हितकर्ता नहीं कहे जा सकते।” सप्रे जी ने उन लोगों को भी आड़े हाथ लिया जिनका मानना था कि स्वदेशी आंदोलन के कारण देशी वस्तु बहुत महँगी हो जाएगी और इस प्रकार महँगी वस्तु खरीदने से लोगों को हानि होगी। वे लिखते हैं –“इस कथन में कुछ भी सत्य का अंश नहीं है, कि चार करोड़ का विलायती माल लेने के बदले पाँच करोड़ का स्वदेशी माल लेने से इस देश के एक करोड़ की हानि होती है। हाँ, इसमें संदेह नहीं कि ग्राहकों को, स्वदेशी वस्तु खरीदने से, एक करोड़ रुपये अधिक देने पड़ते हैं। स्मरण रहे कि ये एक करोड़ रुपये किसी अन्य देश में चले नहीं जाते – वे सब इसी देश में रह जाते हैं; और, अर्थशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार, वही द्रव्य, नए-नए  कारखाने खोलने के समय, पूँजी का काम देता है।”

    अपने निबंध में उन्होंने कांग्रेस और स्वदेशी के संबंध पर भी विचार किया। उनका मानना था कि चाहे कांग्रेस द्वारा राजनैतिक आंदोलन किया जाए, या चाहे स्वदेशी द्वारा औद्योगिक आंदोलन किया जाए, दोनों बातों का परिणाम एक ही होगा, क्योंकि ये दोनों ही कार्य अंग्रेज़ों के स्वार्थहित के विरुद्ध हैं। 

    सप्रे जी ने अपने निबंध में निडर और साहस के साथ अंग्रेज़ के शातिर व्यापारी उद्योग के बारे में दो टूक बातें लिखीं। सप्रे जी ने अंग्रेज़ों द्वारा भारतीय व्यापार को बर्बाद करने की सच्चाई को इन शब्दों  में बयां किया –“सन् 1765 ई. से, इस देश में, ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यवस्थित राजसत्ता का आरंभ हुआ और तभी से हमारे व्यापार को नष्ट करने के, उपर्युक्त ज़ालिम उपाय बंद होकर, व्यवस्थित और सभ्यता के उपायों की योजना होने लगी।” अर्थात् इस देश के व्यापार को बरबाद करने के हेतु इंग्लैंड के लोग कानून बनाने लगे। कंपनी के डायरेक्टरों ने यह हुक्म जारी किया कि “बंगाल के लोगों को रेशम का कपड़ा बुनने से रोकना चाहिए। वहाँ के लोग सिर्फ कच्चा रेशम तैयार करें। उस रेशम के कपड़े इंग्लैंड के कारखानों में बुने जाएँगे। रेशम लपेटनेवालों को कंपनी ही के कारखानों में काम करना चाहिए। यदि वे बाहर (किसी दूसरी जगह) काम करें तो उनको सख्त  सजा दी जाए।” अंग्रेज़ लोगों ने इस देश के जुलाहों पर बहुत अत्याचार किया। उनसे यही कहा गया कि “तुम लोग कपड़ा बुनने का काम छोड़ दो, हम लोगों को सिर्फ कच्चा माल दिया करो। हम लोग, तुम्हारे लिए, कपड़ा बुन देंगे।” इस आज्ञा का पालन सख़्ती से किया जाने लगा। परिणामस्वरुप भारतवर्ष का व्यापार मिट्टी में मिल गया और इंग्लैंड के कारखाने के मालिकों की जेब भारी हो गयी। उनका व्यापार खूब फलने-फूलने लगा। अंग्रेज़ों ने अपनी स्वार्थ बुद्धि से अपने देश को मालामाल करने के लिए इस देश का व्यापार बर्बाद कर दिया और यहाँ के लोगों कों कृषि पर निर्वाह करने और केवल कच्चा माल तैयार करने के लिए मजबूर किया।

    माधवराव सप्रे ने औपनिवेशिक भारत की वास्तविकता का यथार्थ अंकन इस निबंध में किया। अंग्रेज़ सरकार नहीं चाहती थी कि यहाँ के लोगों में स्वाधीनता की चेतना जगे और वे सरकार के विरुद्ध आवाज़ उठायें। यही वजह है कि अंग्रेज़ सरकार ने जन-चेतना के भय के कारण सप्रे जी की पुस्तक को प्रतिबंधित कर दिया। 

संदर्भ ग्रन्थ सूची –
आधार ग्रन्थ 
संपा. विजयदत्त श्रीधर: माधवराव सप्रे रचना-संचयन, साहित्य अकादमी, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2017
संपा. मैनेजर पाण्डेय: माधवराव सप्रे : प्रतिनिधि संकलन, एन.बी.टी प्रकाशन, दिल्ली 

सहायक ग्रन्थ, पत्रिका तथा वेबसाइट्स 
epg pathashala: हिंदी का प्रतिबंधित साहित्य और हिंदी साहित्य का इतिहास 
संपा. रमेश अनुपम: माधवराव सप्रे : कहानी एवं निबंध संचयन 
डॉ. सच्चिदानंद जोशी: यथावत (ई-पत्रिका), आत्मनिर्भरता और स्वदेशी (आलेख)
संपा. विजयदत्त श्रीधर: आँचलिक पत्रकार (पत्रिका), माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान, भोपाल 

शशि शर्मा 
शोधार्थी हैदराबाद विश्वविद्यालय 
shashiip1996@gmail.com

 
 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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