औपनिवेशिक मानसिकता का विश्लेषण न्गुगी वा थ्योंगो के रचनात्मक अवदान के विशेष संदर्भ में
- विकास शुक्ल
न्गुगी वा थ्योंगो को केन्या के प्रसिद्ध उपन्यासकार, नाटककार एवं निबंधकार के रूप में ख्याति प्राप्त है। इन्होंने अपने रचनात्मक अवदान के माध्यम से सामाजिक-राजनीतिक संबंधों की पड़ताल का प्रयास किया है। थ्योंगो के समस्त लेखन में अफ़्रीका के भाषाई एवं सांस्कृतिक परिदृश्य में आये उपनिवेशवादी तत्त्वों को विश्लेषित करने का प्रयास दिखाई पड़ता है। थ्योंगो के लेखन की प्रमुख विशेषता यह है कि उसको केवल अफ्रीका महाद्वीप तक सीमित नहीं किया जा सकता बल्कि औपनिवेशिक मानसिकता के शिकार हुए ‘तीसरी दुनिया’ के लगभग सभी देशों में उपजे भाषाई सवालों, पश्चिमी देशों के साथ उनके सांस्कृतिक संबंधों का विश्लेषण करने में मदद मिलती है। इन संबंधों का विश्लेषण करने पर उपनिवेशी ताकतों का सीधा संबंध उनके आर्थिक हितों से जुड़ता दिखाई देता है। थ्योंगो ने न केवल उपनिवेशवाद का किसी देश पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका अध्ययन किया बल्कि उपनिवेशवाद के समाप्त हो जाने पर उस देश के आर्थिक, सांस्कृतिक हितों के साथ बुर्जुआ वर्ग के हितों को कैसे लाभ मिलता रहा? इस तथ्य/घटना को भी उतनी ही गम्भीरता से रेखांकित किया है। न्गुगी वा थ्योंगो के लेखन पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उपजे लम्बे शीत-युद्ध का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।
थ्योंगो का साहित्य किसी भी प्रकार के सांस्कृतिक वर्चस्व को नकारता है। वह जितना उपनिवेशवाद के सांस्कृतिक खतरों की ओर इशारा करते हैं उससे कहीं अधिक उपनिवेशवाद के वैचारिक निष्कर्षों पर आधारित लोकतांत्रिक प्रणालियों पर निर्भर राष्ट्रों की ओर भी। इन राष्ट्रों में महत्त्वपूर्ण मनुष्य नहीं पूँजी है। न्गुगी वा थ्योंगो को पूर्ण विश्वास है कि उपनिवेशवादी भाषा नीति के चलते अफ़्रीकी साहित्य की पहचान को धक्का लगा है। उपनिवेशवादी दौर में आधुनिक अकादमिक व्यवस्था का जन्म हुआ और उसमें सांस्कृतिक साहित्य का ऐसा पाठ्यक्रम रखा गया जिसका उस देश की जनता से कोई संबंध नहीं था। न्गुगी वा थ्योंगो का सम्पूर्ण विमर्श भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के आसपास घूमता है।
न्गुगी का जन्म केन्या के लिमुरू कस्बे में हुआ था। परिवार द्वारा ईसाई धर्म ग्रहण करने के बाद उनका नाम ‘जेम्स न्गुगी’ रख दिया गया। जब बाद में इन्होंने इसाई धर्म का त्याग किया तब उन्होंने अपना नाम ‘न्गुगी वा थ्योंगो’ कर लिया। इनका बचपन एक ऐसे परिवार में बीता जिसके सदस्यों ने उपनिवेशवाद के खिलाफ़ आजीवन संघर्ष किया था। इन संघर्षों का प्रभाव उनके लेखन स्पष्ट दिखाई पड़ता है। न्गुगी वा थ्योंगो ने लम्बे समय तक अंग्रेजी भाषा में लेखन करने के उपरांत अपनी निज भाषा (गिकूयु) में लिखने का निर्णय लिया। क्योंकि न्गुगी यह मानते हैं कि किसी भाषा प्रभाव के चलते उपनिवेशवादी चरित्रों को बढ़ावा मिलता है। आज जहाँ कोई भी लेखक अंग्रेजी भाषा में लिखकर जल्दी प्रसिद्ध होना चाहता है, वहीं न्गुगी ने अपने लोगों को उनकी भाषा में समझाने का निर्णय लिया। न्गुगी वा थ्योंगो ने दुनिया के कई प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन-अध्यापन किया। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा औपनिवेशिक वातावरण में हुई। इनकी मातृभाषा‘गिकुयू’ है जिसको कुछ विद्वान ‘किकुयू’ नाम से भी जानते हैं। इनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूलों में हुई, अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की पढ़ाई इन्होंने ब्रिटिशों द्वारा स्थापित कॉलेजें से प्राप्त की, जिसके बाद इनका दाखिला इंग्लैंड के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ लीड्स’ में हुआ। शिक्षा प्राप्त करने के क्रम में इन्होंने साम्राज्यवादी मानसिकता के प्रभाव से उभरी शोषणकारी व्यवस्था को भाषा, संस्कृति, साहित्य, परिवेश, आदि के स्तर पर समझने का प्रयास किया। न्गुगी ने तीसरी दुनिया के देशों में यूरोपीय मानसिकता के प्रभाव के चलते आये सांस्कृतिक परिवर्तनों में अंग्रेजी भाषा और उसके साहित्य की भूमिका को उजागर किया है। ब्रिटिशों द्वारा बनाये गये विश्वविद्यालयों के माध्यम से जिन अभिजात्य वर्ग के विद्वानों को शिक्षा दी गयी उनका उपयोग उन्होंने भारतीय तथा अफ़्रीकी भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी को स्थापित करने में किया। न्गुगी के अनुसार भाषा का सवाल अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि किसी समाज में संपत्ति, सत्ता और मूल्यों के संगठन के समूचे क्रम में भाषा का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। भाषा देशकाल के संदर्भ में किसी सुमदाय के आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकासक्रम का उत्पाद बनकर आती है। भारत में उपनिवेशवाद को खत्म हुए आज सत्तर से अधिक वर्ष बीत चुके हैं परन्तु उपनिवेशवाद की भाषा के समक्ष भारतीय भाषाएँ बौनी दिखाई देती हैं। इसके कारण शिक्षा जगत में आये परिवर्तनों के परिणाम घातक सिद्ध हुए हैं। यूरोपीय विश्वविद्यालयों में किसी शिक्षक का बिना यूरोपीय भाषा सीखे शिक्षण करना असंभव है परन्तु भारतीय विश्वविद्यालयों में अनेक ऐसे शिक्षक मिल जायेंगे जो यहीं से शिक्षा प्राप्त किये हुए हैं परन्तु इनमें कुछ अध्यापक अपनी मातृभाषा में अपनी कक्षाओं का एक सार भी नहीं लिख सकते। ये उसी यूरोपीय पद्धति पर बने विश्वविद्यालयों का परिणाम है जिसकी कल्पना मैकाले ने की थी। न्गुगी ने अफ़्रीकी विश्वविद्यालय के बहाने से तीसरी दुनिया के विश्वविद्यालयें की संरचना और उनमें चल रही साहित्यिक बहसों को उपनिवेश के माध्यम से समझने का प्रयास किया है जिनमें कुछ रोचक परिणाम सामने आये हैं।
न्गुगी वा थ्योंगो की रचनाओं की लम्बी श्रृंखला है जिसमें उपन्यास, नाटक, निबंध, कहानी आदि सभी शामिल हैं। “न्गुगी ने अपने प्रारंभिक उपन्यासों में (The River Between, weep not child,1964 और A grain of Wheat) उपनिवेशकालीन अनुभव और स्वतंत्रता की खुशियों को साझा किया है। न्गुगी की रचनाओं का सबसे अधिक प्रभाव केन्या के युवाओं पर पड़ा जो उस समय स्कूलों और विश्वविद्यालयें में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं- Homecoming, Detained; A Writer’s Prison Diary, moving the Centre; the struggle for cultural freedoms”। ‘औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति’ पुस्तक में न्गुगी के कुछ महत्त्वपूर्ण निबंधों को संकलित करके उनका अनुवाद आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है। आनंद स्वरूप वर्मा पेशे से पत्रकार है और अफ्रीका उपमहाद्वीप पर लम्बे समय से लिखते रहे हैं। इन अनुभवों का उपयोग आनंद स्वरूप वर्मा ने अपने इन अनुवादों में किया है। इसके अतिरिक्त इन्होंने न्गुगी के प्रसिद्ध उपन्यास पेटल्स ऑफ़ ब्लड (1977) का अनुवाद ‘खून की पंखुड़ियां’ नाम से किया है। एक अन्य उपन्यास का अनुवाद राकेश वत्स ने‘मातीगारी’ नाम से किया है। जिसका अर्थ होता है- ‘जिसने देश के लिए गोलियाँ खाई हो’। हिंदी में यूरोपीय साहित्य की कई खेप अनूदित होकर आई। परन्तु अफ्रीका महाद्वीप के साहित्य में चल रही बहसों को अभी भी हम समझ नहीं सके हैं। विश्व की समस्त भाषाओं की अनूदित ज्ञान परम्परा से यूरोपीय भाषाओं को जो समृद्धि मिली उसका परिणाम यह हुआ कि अन्य भाषा में समाहित संस्कृति को असभ्य घोषित कर दिया गया। इस व्यवस्थित षड्यंत्र के खिलाफ़ जो कुछ लिखा गया उसको ब्रिटिश शासन द्वारा या तो प्रतिबंधित किया गया या फिर ज़ब्त कर लिया गया।
न्गुगी वा थ्योंगो का लेखन 1960 के बाद शुरू होता है। केन्या के उपनिवेशवाद के खिलाफ़ चली लम्बी लड़ाई का उनके लेखन पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ा है। इस लड़ाई का संघर्ष केवल राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक भी था। उदाहरण के रूप में ‘देदान किमाथी’ के नेतृत्व में केन्या की आज़ादी के लिए चले आन्दोलन को अंग्रेजों ने ‘माउ-माउ’ नाम दिया, क्योंकि इस शब्द का कोई अर्थ नहीं होता। इस नामकरण के साथ वे इस आन्दोलन को भी एक अर्थहीन आन्दोलन बताना चाहते थे। इस आन्दोलन से जुड़े योद्धा अपने आन्दोलन को ‘भूमि और मुक्ति सेना’ कहते थे लेकिन अगर इस नाम को प्रचारित किया जाता तो इससे आन्दोलन की अर्थवत्ता प्रकट होती। न्गुगी ने इन उदाहरणों के माध्यम से उपनिवेशवादी तत्त्वों की पहचान करते हुए अपने लेखन से उनको उजागर करने का प्रयास किया। भारत के स्वाधीनता संग्राम को ध्यान से देखें तो ऐसे अनेक उदाहरण हमारे समक्ष उपस्थित हो सकते हैं जिनमें अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय स्वाधीनता सेनानियों का चोर, डाकू, हत्यारा कहकर बदनाम करने का प्रयास किया जिससे आन्दोलन को कमजोर किया जा सके। इन प्रपंचों से बचने के लिए जो प्रयास सेनानियों द्वारा किये गए उनको प्रतिबंधित कर दिया गया।
औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति पुस्तक में अनेक निबंध है इन निबंधों में तीसरी दुनिया के देशों से संबंधित अहम सवालों पर विचार किया गया है। इन सवालों में भाषाओं के सांस्कृतिक वर्चस्व को समझाने में सहायता मिलती है। आज भारत के विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषाओं को परिधि में रखा जाये या अभी उनको केंद्र में आने के लिए और अधिक संघर्ष करने की आवश्यकता है या क्या अब यूरोपीय भाषा के माध्यम से ही भारत को समझना होगा? ऐसे अनेक सवालों को समझने के लिए वर्तमान समय में यह पुस्तक हमारी मदद करती है। यह सवाल आज विश्वविद्यालय के स्तर पर शोधार्थियों और शिक्षकों के समक्ष अहम है। इस पुस्तक में स्वतंत्र रूप से भाषा, साहित्य, उपनिवेश, नस्लवाद आदि से संबंधित लेख हैं। भारतीय साहित्य में अनुवाद के माध्यम से यूरोपीय साहित्य का एक बड़ा हिस्सा तो आया परन्तु अफ्रीकी साहित्य की भाषा संस्कृति, साहित्य का अध्ययन भारत में नहीं हुआ। न्गुगी ने अनेक उपन्यासों, नाटकों, निबंधों, कविताओं के माध्यम से अफ्रीकियों की समस्या को विश्व साहित्य के सामने रखा है। न्गुगी वा थ्योंगो लिखते हैं “प्रत्येक भाषा के दो पहलू होते हैं। एक पहलू सम्बद्ध भाषा की उस भूमिका को बताता है जो हमें अपने अस्तित्व के लिए किये जाने वाले संघर्ष के दौरान एक दूसरे के साथ सम्प्रेषण के योग्य बनाता है। इसकी दूसरी भूमिका उस इतिहास और संस्कृति के वाहक की है जो लम्बे अरसे तक सम्प्रेषण की प्रक्रिया के दौरान निर्मित होती है। ये दोनों पक्ष एक दूसरे से अविभाज्य हैं, इनसे द्वंद्वात्मक एकता का निर्माण होता है”। भारत के संदर्भ में हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं पर विचार करें तो हमें ज्ञात होगा कि जितना तीव्र प्रतिरोध का स्वर इन भाषाओं में दिखाई देता है उतना अंग्रेजी में नहीं दिखाई पड़ता। ब्रिटिश अधिकारियों ने अपनी नीतियों से भरसक यह प्रयास किया कि इन भारतीय भाषाओं की श्रृंखला को खंडित किया जाये। परन्तु इन भाषा प्रेमियों के अथक प्रयास से संघर्ष की राष्ट्रीय भाषा का विकास हुआ जिसमें ब्रिटिश अधिकारियों से संवाद करने की क्षमता थी। जब विभिन्न राष्ट्र स्वतंत्रता और समानता की शर्तों पर एक दूसरे से मिलते हैं तो वे एक दूसरे की भाषा में सम्प्रेषण की जरूरत पर जोर देते हैं। वे एक दूसरे की भाषा महज इसलिए स्वीकार करते हैं जिससे एक दूसरे के साथ संबंधों के विकास में मदद मिल सके। परन्तु अगर कोई साम्राज्यवादी देश जब किसी देश के साथ ऐसा करता है तो साम्राज्यवादी देश अपनी भाषा का उपयोग उत्पीड़ित देश में अपनी घेरा-बंदी मजबूत करने के लिए करता है। न्गुगी के शब्दों में “भाषा के हथियार को बाइबिल और तलवार के साथ शामिल कर दिया जाता है”। उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जिसे 19 वीं शताब्दी के साम्राज्यवाद के विस्तार से साथ देखा गया। इसने हमें ऐसे व्यवस्था में कैद कर दिया जहाँ अपनी भाषा में बात करने वालों बच्चों को दंड मिलता है। तथा साम्राज्यवादी भाषा को बोलने पर उनको पुरस्कृत किया जाता। हिंदी के विकास क्रम को ध्यान में रखें तो न्यायालयों तक पहुँचाने के लिए इसके संघर्ष को देखा जा सकता है। मैकाले की शिक्षा नीति के बाद जिन भारतीय अंग्रेजों की कल्पना ब्रिटिशों ने की थी वे उसको प्राप्त हुए। भारतीय लोकतंत्र के प्रति निष्ठा के भाव की शपथ लेते हुए, भारतीय लोकतंत्र के विकास में ‘उपनिवेशवाद की भाषा’ और निर्माण प्रक्रिया को भाषाई अस्मिता के सवालों की दृष्टि से पुनः समझना चाहिए। साम्राज्यवादी देशों ने तीसरी दुनिया के देशों को प्रयोगशाला के रूप में जिन न्यायिक प्रणालियों का उपयोग किया उन्हीं के आधार पर बाद में उन देशों के लोकतांत्रिक मूल्य तैयार हुए। समय के साथ उस देश की आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक जरूरतों को पूरा न कर पाने के कारण उन मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लगते जा रहे हैं। यहाँ फिर एक बार यह समझना आवश्यक है कि न्गुगी का कोई अध्ययन केवल अफ़्रीकी भाषा और साहित्य तक सीमित नहीं है, उसका विस्तार तीसरी दुनिया के सभी देशों पर एक समान है। न्गुगी ने ‘ग्रेट नैरोबी लिटरेचर डिबेट’ के माध्यम से अन्य भाषा और साहित्य के अध्ययन के केंद्र और परिधि पर क्या हो इस पर विचार किया। निश्चित रूप से इस बात पर सभी सहमत थे कि साहित्य के अध्ययन में सभी भाषाओं को शामिल किया जाना चाहिए परन्तु कौन सी भाषा उसके केंद्र में होगी और कौन सी उसकी परिधि पर यह सवाल सबसे अहम है। किसी भी देश में दूसरी भाषा का अध्ययन उस देश के सांस्कृतिक वातावरण को ध्यान में रखकर किया जाता है। भारतीय विश्वविद्यालयों का ढांचा उसी उपनिवेशी चरित्र से निकला है जिसको स्थापित करने का काम ब्रिटिश अधिकारियों ने अपने लिए किया था। इनमें अपने अस्तित्व को बनाये रखने का मतलब है, अपनी मातृभाषा को दिवस के रूप में याद करना। एक ओर यूरोपीय भाषाओं को ध्यान में रखते हुए मद्रास, बम्बई, कलकत्ता में कॉलेज की स्थापना हो रही थी, दूसरी ओर हिंदी-उर्दू जैसी साझा संस्कृति के खिलाफ़ विवाद उभर रहा था। किसी विदेशी भाषा का अध्ययन करने के बाद हम अपने को उसमें खोजने का प्रयास करते है परन्तु ‘अंग्रेजी साहित्य’ के उपनिवेशकालीन पाठ्यक्रम में इसका सर्वथा अभाव दिखाई देता है।
न्गुगी वा थ्योंगो ने अपने उपन्यास मातीगारी में स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले महान क्रांतिकारियों की अपेक्षाओं को धूमिल होते दिखाया है। मातीगारी उपन्यास के नायक का पूरा नाम ‘मातीगारी मा न्जीरुंगी’ है (जिसका शाब्दिक अर्थ है वह देशभक्त जिसने गोलियाँ झेली हो)। यह उपन्यास मूल रूप से सन् 1986 में उनकी मातृभाषा गिकूयु में लिखा गया था। जिसका अनुवाद स्वयं न्गुगी वा थ्योंगो ने अंग्रेजी भाषा में किया। उपनिवेशवाद के खिलाफ़ अफ़्रीकी देशभक्तों ने लम्बे समय तक गोरिल्ला युद्ध लड़ा और हजारों अफ़्रीकी सैनिक इस युद्ध में शहीद हो गए। ‘Mau Mau Revolt’ के नाम से प्रसिद्ध एंग्लो और अफ़्रीकी युद्ध ने अफ्रीका से उपनिवेश को खत्म करने में सहायता पहुंचाई। यह उपन्यास केन्या में उपनिवेशवाद के खत्म होने की घोषण के बाद की घटना से शुरू होता है । ब्रिटिश सैनिकों से युद्ध करने के लिए जंगलों में गये देशभक्त जब वापिस आकर देश में नए संवैधानिक प्रशासन को देखते हैं तो वे आश्चर्यचकित रह जाते हैं। उपनिवेशवाद से लम्बा वैचारिक संघर्ष होने के क्रम में जिन संस्थाओं का विकास यूरोपीय देशों द्वारा किया गया, तीसरी दुनिया के देशों में संवैधानिक स्थिति को सुचारू रूप से चलाने के लिए उन्हीं संस्थाओं का उपयोग किया जा रहा है। इन संस्थाओं के कामों में उपनिवेशवादी चरित्र को देखकर लम्बे युद्ध के बाद वापिस आये देशभक्तों को बहुत पीड़ा होता है। उदाहरण के रूप में मातीगारी उपन्यास का नायक मातीगारी ‘सत्य और न्याय’ की खोज में विश्वविद्यालयों, न्यायालाय, अस्पतालों, चर्च, मंत्रालयों का चक्कर लगाता है परन्तु उसको सत्य और न्याय की झलक प्राप्त नहीं होती। हर संस्था में भ्रष्टाचारी अपने चरम पर होता है। कुछ समय बाद उसको एहसास होता है कि जिन परिवर्तनों के लिए उसने इतना लम्बा युद्ध लड़ा और अब ‘शांति की पेटी’ बांध कर वह अपने माताओं, पत्नियों, भाईयों, बच्चों के साथ सुख का जीवन जीना चाहता था वह अब संभव नहीं है। केवल शासन तंत्र के स्वरूप में परिवर्तन होकर रह गया, चरित्रों में नहीं। एक कविता के माध्यम से श्रमिक अधिकारों को लेकर मातीगारी सबसे सवाल पूछता है परन्तु उसको ज़बाब नहीं मिल पाता। वह विश्वविद्यालयों का भ्रमण करता है जहाँ उसको पैरटोलाजी का पाठ करते प्रोफ़ेसर और छात्र दिखाई देते हैं। फैक्ट्री में मजदूरों के हालत में कोई परिवर्तन नहीं आया आज भी उनको उनके श्रम का उचित मूल्य नहीं मिलता। वह देखता है की लोग सत्ता के भय से ग्रस्त हैं उसे हर तरफ अन्याय ही अन्याय दिखाई देता है और वह लगभग अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में देशभर में घूमता है। मातीगारी बार-बार एक वाक्य दोहराता है ‘जहाँ भय बस जाता है वह देश दुःखों का घर बन जाता है’। उपन्यास के अंत में वह तय करता है कि उसे दूसरी आज़ादी के लिए एक बार फिर शांति की पेटी खोलकर हथियारों की पेटी बांधनी होगी और जंगल की ओर लौटना होगा। भारत के संघर्षशील वर्ग को यह उपन्यास हिंदी के किसी लेखक के द्वारा लिखा गया जान पड़ता है। क्योंकि इसमें भारत के स्वाधीनता आन्दोलन की स्पष्ट झलक दिखाई पड़ रही है। भारतीय राजनीति में उभरते दक्षिणपंथी रूझानों और उसके पूंजीवादी प्रेम के कारण भारत में पूंजीवादी वर्ग और श्रमशील वर्ग के बीच बढ़ती दूरी का अहसास हो रहा है। इस उपन्यास को तत्कालीन सरकार के द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। इस उपन्यास की लोकप्रियता इस बात से तय की जा सकती है सरकार ने मातीगारी को पकड़ने के लिए आदेश जारी किया। परन्तु कुछ समय बाद ही जब उनको पता चला कि मातीगारी कोई मनुष्य नहीं बल्कि एक उपन्यास का पात्र मात्र है तो वह खिसिया जाती है। न्गुगी के खिलाफ़ वह गंभीर कारवाई करती है। जिसके बाद उनको जेल भी जाना पड़ता है। इस उपन्यास के अंत में जो सवाल मातीगारी सबसे पूछता घूम रहा है, वे सवाल केवल उसके सवाल नहीं रह जाते। बल्कि वे सत्ता के खिलाफ़ सभी नागरिकों के सवाल बन जाते हैं और मातीगारी केवल एक पात्र न होकर बहुत से पात्रों में बदल जाता है।
1977 में न्गुगी वा थ्योंगो का उपन्यास खून की पंखुड़ियाँ प्रकाशित हुआ। सेम के फूल का रंग प्राकृतिक रूप से सफ़ेद एवं बैगनी होता है परन्तु ऐतिहासिक कारणों के चलते उसका रंग अब लाल हो गया है। यह लाल रंग प्रतीक है उन अफ़्रीकी नागरिकों का जिन्होंने अपने जीवन और देश के लिए लम्बा संघर्ष किया। माना जाता है कि सेम सबसे पहले अफ्रीका में पैदा हुई थी। स्वाहिली तथा गिकूयु बोलने वाले लोगों का प्रमुख भोजन यही सेम हुआ करती थी। मुनीरा नाम का पात्र जो मूलतः शिक्षक है और फूल और पत्तियों की समझ विकसित करने के लिए वह छात्रों को खेतों में ले जाता है। खेत में जाने पर वह बच्चों को फूलों, पत्तियों, रंगों, जड़ों और उनमें लगने वाले कीड़ों के बारे में बताता है। तभी एक छोटे बच्चे को एक फूल मिलता है जिसका रंग लाल नहीं है बल्कि उसमें पीलापन आ गया है। वह मुनीरा से सवाल पूछता है कि इसका रंग पीला क्यों हो रहा है। मुनीरा बच्चे को बताता है कि यह फूल ऐसा है जिसको कीड़े ने खा लिया है इसलिए इसमें फल नहीं आ सकता है। इससे बचने के लिए कीड़े को मार देना चाहिए। अगर किसी फूल तक रौशनी न पहुंचे तब भी इसका रंग इसी तरह फीका पड़ जाता है। यह सुनाने के बाद बच्चा कुछ देर सोचने के बाद कुछ सवाल मुनीरा से करता जो इस उपन्यास का मुख्य बिंदु बन जाता है वह कहता है- “क्यों चीजें एक-दूसरे को खाती हैं? क्यों खाई हुई चीज को वापिस नहीं किया जा सकता है? क्यों भगवान ने ऐसा होने दिया?...इन प्रश्नों ने मुनीरा को झकझोर दिया उसने बच्चे को शांत करने के लिए उसके गले से बस इतना शब्द निकल सका कि यह प्रकृति का नियम है”। इस सवाल को केंद्र में रखकर थ्योंगो ने सम्पूर्ण उपन्यास का तानाबाना बुना है। अब्दुल्ला के दुकान पर छिड़ी बहस में इस पर विवाद हो रहा होता है कि हम लोगों के जीवन में सबसे कीमती वस्तु क्या है? कोई कहता है कि सबसे कीमती बीयर की बोतल है, कोई कहता है हमारी जमीनें सबसे कीमती हैं, कोई जंगलों की ओर इशारा करता है, इतने में वांजा ने दबे हुए स्वर में कहा यहाँ सबसे कीमती हमारा ‘पसीना’ है। जिसको लगातार हमसे छीना जा रहा है। मजदूरी के नाम पर केवल बेंतों का दर्द मिलता है। एक पीढ़ी के बाद दूसरी फिर तीसरी....न जाने कितनी पीढ़ियों ने अपने जीवन उपनिवेशवाद के खिलाफ़ युद्ध में खत्म कर दिया। यह उपन्यास इन परिस्थितियों से उपजी मानसिक, शारीरिक, आर्थिक समस्या को उजागर करता है। इलमोरोग गाँव में व्यक्तियों ने सभी कष्ट झेले परन्तु अपने बेटों को खोने का कष्ट उनमें से सबसे अधिक है। रोजगार की खोज में बड़े शहरों में गये बेटों में से बहुत कम बेटे वापिस गाँव आ सके। उपनिवेशवादी दौर में जिन नये शहरों का विकास हुआ उन शहरों में उत्पादन करने के लिए गांवों से सस्ते दामों में श्रम को शहरों में ले जाया गया। जिसके चलते न जाने कितने परिवार उजड़ गये। लेखक ने इलमोरोग गाँव का वर्णन करते हुए बताया कि जब पहली बार वहाँ रेलवे ट्रेनों का संचालन शुरू हुआ तो यहाँ गाँव हरा-भरा था। समय के साथ धीरे-धीरे इस गाँव के सारे जंगल खत्म हो गये। बरसात न होने के कारण इलमोरोग की जमीने बंजर हो गयी, अब उन बंजर जमीनों को आजादी के नाम पर साम्राज्यवादियों के सहयोग से बनी सरकार को सौंप दिया गया है। उस सरकार के सांसदों ने कई बार उस पर सड़क बनाने का बाद गाँव वालों से किया है परन्तु पक्की सड़कों का इंतजार गाँव वालों को आज भी है।
न्गुगी वा थ्योंगो का रचना संसार बहुत विस्तृत है। उनके नाटकों के खेले जाने से सत्ता में भय पैदा हो जाता है। आनंद स्वरुप वर्मा लिखते है “इस उपन्यास के प्रकाशित होने से पहले ‘रीवर बिट वीन’ और ‘ए ग्रेन ऑफ़ व्हिट’ उपन्यास प्रकाशित हो चुका था। इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद न्गुगी के खिलाफ़ केन्या के तत्कालीन राष्ट्रपति जोमो केन्याटा की सरकार सक्रिय हो गयी। क्योंकि उन्हीं दिनों उनका प्रसिद्ध नाटक ‘आई विल मेरी व्हेन आई वांट’ (न्गाहिक नदीन्दा) प्रकाशित हुआ था। इसका मंचन परम्परागत रंगकर्मियों से न करा कर स्थानीय किसानों और मजदूरों से कराया गया था। यह मंचन बेहद सफल रहा था और इसमें केन्या में आजादी के बाद राष्ट्रीय स्तर पर उभरे पूंजीपतियों द्वारा किये जा रहे शोषण का अत्यंत यथार्थवादी ढंग से चित्रण किया गया था”। केन्याटा की पुलिस ने न्गुगी की गिरफ्तार कर लिया, नाटक के मंचन पर प्रतिबंध लगा दिया और उस थियेटर को ध्वस्त कर दिया गया जहाँ इसका मंचन हो रहा था। भारतेंदु के नाटक अंधेर नगरी के मंचन को ध्यान में रखते हुए इस नाटक के स्वरूप को समझा जा सकता है।
विरोधी शब्दों को प्रतिबंधित करने का इतिहास दुनिया में बहुत पुराना है। परन्तु भाषा, साहित्य और संस्कृति के माध्यम से अपने संस्कारों से विमुख करने का काम केवल उपनिवेशवादी देशों में सम्पन्न हुआ। भारत में ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के लिए एक भाषा की जरूरत थी, खड़ी बोली के रूप में हमने एक ऐसी भाषा का निर्माण किया जिसके माध्यम से राष्ट्रीयता का प्रसार करने में मदद मिली। वहीं चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे प्रसिद्ध नेताओं में स्वाधीनता की लड़ाई में हिंदी के योगदान का सम्मान भी किया और अपने भाषाई अस्तित्व के लिए लड़ाई भी लड़ी। भारत एक बहुभाषी देश है। भारत के सम्पूर्ण सांस्कृतिक अस्तित्व को किसी एक भाषा के माध्यम से समझ पाना चुनौतीपूर्ण है। ब्रिटिश सरकार ने इस बहुभाषिकता को भारत के लिए खतरा बताते हुए अपने भाषाई हित को पूरा करने का प्रयास किया। जिसके लिए अनेक शिक्षा नीतियों, प्रतिबंधों, अध्यादेशों का सहारा लिया गया। इतिहास में मनुष्यों का अनुभव भाषा एवं संस्कृति की संयुक्त स्मृति के रूप में संरक्षित रहता है। यही संघर्ष के समय मनुष्य की चेतना को बल प्रदान करता है। इसलिए मनुष्यों में इसके प्रति लगाव पैदा होता है। अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाओं के द्वारा वह चेतना प्राप्त करना तथा आयातित चेतना के साथ अपने देश के जनतांत्रिक मूल्यों का विकास करना असंभव है।
विकास शुक्ल
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
सम्पर्क Vishu.jnu2017@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )