आलेख : औपनिवेशिक सरकार के प्रतिबन्ध और रामरख सिंह सहगल की पत्रकारिता / गौरव सिंह

औपनिवेशिक सरकार के प्रतिबन्ध और रामरख सिंह सहगल की पत्रकारिता 
- गौरव सिंह 

    भारत का स्वाधीनता संग्राम एक तरफ औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति का संघर्ष करते हुए साम्राज्यवादी शक्तियों का विरोध करता है। वहीं दूसरी तरफ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के भीतर उपस्थित कुरीतियों का भी मुखर विरोध करता है। सच्चे अर्थों में,यह आंदोलन हिंदुस्तान की मुक्तिकामी चेतना का रूपक है। भारत का राष्ट्रीय आंदोलन अपने स्वरुप में बहुआयामी है। इसका स्वरुप, ना सिर्फ राजनीतिक है..ना सिर्फ सामाजिक.. ना सिर्फ सांस्कृतिक .. और ना ही सिर्फ साहित्यिक। इस आंदोलन के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पक्ष हैं। इन्हीं सबसे मिलकर यह विराट आकर ग्रहण करता है।

    स्वातंत्र्योत्तर भारत में हमने अपनी केंद्रोंमुखी अध्ययन प्रवृत्ति के कारण अकादमिक लोकतंत्र के साथ अन्याय किया है। राष्ट्रीय आंदोलन के बहुत सारे नायकों की भूमिका का ठीक-ठीक रेखांकन नहीं हुआ है। जिससे राष्ट्रीय आंदोलन के कई नेता उपेक्षित ही रह गए। इस राष्ट्रीय उपेक्षा का शिकार बहुत दिनों तक भगत सिंह और उनके सहयोगी क्रान्तिकारियों को रहना पड़ा। इन युवा क्रांतिकारियों की छवि प्रायः उन्मादी युवाओं की बनी रही। ऐसा माना जाता रहा कि गाँधीजी के अखिल नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी के संगठन के नीचे चलने वाला आंदोलन ही वास्तविक राष्ट्रीय आंदोलन है। परवर्ती शोध और अकादमिक सजगता ने इन युवा क्रांतिकारियों को इतिहास में उनका स्थान  दिलाया। अब हम जानते हैं कि भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि नवयुवक क्रान्तिकारी किसी उन्मादी विचारधारा से ग्रस्त होकर हिंसा का मार्ग अपनाये हुए युवक नहीं थे बल्कि उनके पास गहरी विश्वदृष्टि, व्यापक जन-सरोकार और गहन इतिहासबोध भी था। वे महज राजनीतिक स्वाधीनता के लिए प्रतिबद्ध नहीं थे बल्कि उनके पास समाजवादी विचारों पर आधारित समतामूक और न्यायपरक समाज का स्वप्न भी था। 

    शोध, अध्ययन, आलस्य और ऐतिहासिक उदासीनता के अभाव में जिस ज्यादती का शिकार राष्ट्रीय आंदोलन के क्रान्तिकारी नेताओं को होना पड़ा। ठीक उसी तरह साहित्यिक संसार के कई तेजस्वी और प्रबुद्ध सम्पादकों को भी यह उपेक्षा सहन करनी पड़ी। रामरख सिंह सहगल का नाम ऐसे संपादकों में प्रमुखता से लिया जाना चाहिए। 'चाँद' के यशस्वी सम्पादक रामरख सिंह सहगल ने न सिर्फ साहित्यिक पत्रकारिता की बल्कि उन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता के भीतर राजनीतिक और सामाजिक प्रतिरोध की एक संस्कृति विकसित की। उनकी क्रांतिकारिता और प्रतिरोधधर्मिता का अनुमान सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि चाँद के कई अंक उपनिवेशवादी अंग्रेज सरकार को प्रतिबंधित करने पड़े। उनके ऊपर भारी जुर्माने लगाए गए…! साथ ही उनको राज्यद्रोह के लिए जेल की यात्रा भी करनी पड़ी। 

    राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना को जन-जन  तक ले जाने में जितनी बड़ी भूमिका उस दौर के लेखकों एवं कवियों की है। उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका उस दौर के संपादकों की भी है, जिन्होंने अपनी पूँजी एवं श्रम लगाकर ऐसी साहसिक पुस्तकों एवं पत्रिकाओं का संपादन किया। यह एक बड़ी विडम्बना है कि राष्ट्रीय आंदोलन और नवजागरण का पूरा श्रेय सिर्फ कुछेक पत्रिकाओं, नायकों एवं संस्थाओं को दिया जाता रहा है। जबकि इसको सफल बनाने में कई संपादकों की महती भूमिका भी रही है। हिंदी नवजागरण की चर्चा करते हुए हम सरस्वती पत्रिका और उसके संपादक महावीरप्रसाद द्विवेदी की भूमिका को तो रेखांकित करते हैं। लेकिन उसी दौर की एक महत्वपूर्ण पत्रिका 'चाँद' एवं उसके संपादक रामरखसिंह सहगल को स्मरण करना आवश्यक नहीं समझते हैं। रामरखसिंह सहगल के योगदान को रेखांकित किये बिना हम उस दौर की क्रांतिकारी चेतना के स्वरूप को ठीक ढंग से नहीं समझ सकते हैं। 
   
      हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में जान फूंकने का सबसे अधिक उद्यम किया। हिंदी नवजागरण में भी सबसे महती भूमिका इन्हीं की  है। रामरख सिंह सहगल उस दौर के सबसे साहसी सम्पादकों में से एक थे। हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में जो प्रखरता सहगल जी लेकर आये थे उसकी मिसाल देते हुए प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त' ने कहा था-
        ' स्मृतियाँ धुँधली हो गयी हैं, लेकिन प्रायः आधी शती पहले रामरख सिंह सहगल हिंदी के क्षेत्र में जो प्रखरता लेकर आये थे और उन्होंने न केवल साहित्यिक बल्कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी जैसी अभूतपूर्व हलचल मचाई थी, उसकी याद मेरे मन में आज भी ताजा है। यह देखकर दुख होता है कि आज उनका नामलेवा भी कोई नहीं है। सहगल और 'चाँद' ने हिंदी के एक युग का इतिहास बनाया था लेकिन आज वे दोनों इतिहास की वस्तु हो गए हैं। इसमें संदेह नहीं कि सहगल बड़े जीवट के और जुझारू प्रवृत्ति के आदमी थे और खतरे उठाने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती थी। 'चाँद' तब अपनी सोलहों कलाओं के साथ आसमान में चमक रहा था।' 

       आज हिंदी पत्रकारिता के लोग रामरख सिंह सहगल का नाम तक नहीं जानते। सहगल स्वाधीनता आंदोलन के समय में इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका चाँद के संपादक थे। 1922 में उन्होंने 'चाँद' के प्रकाशन की शुरुआत की थी। कर्मवीर पंडित सुंदरलाल ने उस दौर में एक पुस्तक लिखी थी- 'भारत में अंग्रेजी राज' इस पुस्तक का संपादन रामरख सिंह सहगल ने ही 'चाँद' प्रेस से किया था। इस पुस्तक का पहला संस्करण 18 मार्च,1929 में किया गया। पहले संस्करण में 2000 प्रतियों का प्रकाशन किया गया। 22 मार्च ,1929 को अंग्रेज सरकार की ओर से जब्ती की आज्ञा लेकर पुलिस प्रकाशक के दफ्तर पहुँच गयी। इस बीच मात्र तीन दिन के भीतर ही 1700 किताबें किसी तरह पाठकों के पास पहुँचा दी गईं। बाकी 300 किताबें सरकार ने रेल या डाकखानों से ज़ब्त कर लीं। ग्राहकों के पते निकालकर देशभर में तलाशियाँ की गईं। इस जब्ती एवं तलाशी का पूरे देश में विरोध हुआ। स्वयं महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश सरकार की इस इस कार्यवाही का कड़ा विरोध किया। उन्होंने अपने पत्र 'यंग इंडिया' में इस कार्यवाही को 'दिन दहाड़े डाके' की संज्ञा दी।  गाँधी जी ने देशवासियों से अपील की कि किसी भी स्थिति में पुस्तक को अपने हाथ से उठाकर पुलिस को न दें। चाहे इसके लिए तलाशी के अपमान ही क्यों न सहन करना पड़े! गाँधी जी ने अनुरोध किया कि जैसे भी संभव हो अपनी पुस्तक को बचा लें। पुस्तक के अध्ययन के पश्चात् उस पर कई संपादकीय लिखे। अपने लेखों में उन्होंने पुस्तक की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह अहिंसा के प्रचार प्रसार की एक प्रशंसनीय कोशिश है। इस पुस्तक का संपादन कितना साहसी कार्य रहा होगा..! इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गाँधी जी ने यहाँ तक आग्रह किया कि जब भी ब्रिटिश सरकार के कानूनों को तोड़कर सत्याग्रह करने का अवसर आये तो इस पुस्तक के महत्वपूर्ण अंशों को नकल करके या छापकर और खुले वितरण करके लोग जेल जा सकते हैं। सत्याग्रह के दिनों में कई प्रान्तों में, विशेषकर मध्य प्रान्त में अनेक लोग इसी पुस्तक के लिए सत्याग्रह करके जेल गए।

    रामरख सिंह सहगल के संपादन में निकलने वाली इस पुस्तक से अंग्रेज सरकार भयभीत हो गयी थी. सरकार ने पुस्तक को प्रतिबंधित ही इसलिए किया था कि उसमें ब्रिटिश सरकार की आलोचना की गयी थी. ब्रिटिश सरकार ने इसके विरुद्ध दमनात्मक कार्यवाही की। इस पुस्तक में भारतीय पीनल कोड की आलोचना की गयी है। पंडित सुन्दरलाल ने इस पुस्तक में रेलवे के हानि एवं लाभों के सम्बन्ध में समीक्षात्मक रूप से लिखा। ब्रिटिश सरकार ने तर्क दिया कि इस मूल्यांकन में पक्षपातपूर्ण ढंग से लिखा गया। यदि यह बात सही भी हो तो इसको राजद्रोह किसी भी तरह नहीं कहा जा सकता है। यदि रेलवे की समालोचना करना भी राजद्रोह समझा जाए तब  तो राजद्रोह का अर्थ इतना विस्तृत हो जाएगा कि कोई भी निर्भीक लेखक या वक्ता अपने को इसके शिकंजे से बाहर नहीं समझ सकता। रेलवे की समालोचना करते हुए उन्होंने कहा कि रेल और तार से भारतवासियों का केवल लाभ ही लाभ हुआ है, नितान्त भ्रमात्मक और मिथ्या है। कम से कम इतना तो प्रत्यक्ष ही है कि रेल और तार से भारतवासियों को कुछ लाभ हो या न हो, गवर्नमेन्ट के लिए ये चीजें अनिवार्य हैं। रेल और तार के अभाव में भारत में अंग्रेजी राज्य एक दिन के लिए भी नहीं टिक सकता। फिर ऐसी बातें क्यों कही जाती हैं कि भारत में रेल और तार का प्रवेश केवल मात्र भारतवासियों के हो लाभ के लिए कराया गया था और राज्य विस्तार अथवा शासन की मजबूती के साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं था? शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से इस बात की बड़ी आवश्यकता है कि रेल, तार आदि के भारत में प्रवेश कराए जाने के वास्तविक कारणों और उनसे होनेवाले हानि और लाभ दोनों पर निर्भयतापूर्वक प्रकाश डाला परन्तु खेद है कि वर्तमान गवर्नमेन्ट की सुरक्षा के लिए इन बातों को अंधेरे में रखा जाना ही आवश्यक समझा जाता है। क्या वर्तमान गवर्नमेन्ट की भित्ति इतनी कमज़ोर, और इसकी उत्पत्ति-कथा इतनी कुत्सित और पापपूर्ण है कि सत्य के प्रकाश-मात्र से इसके ध्वंस हो जाने की आशंका की जाती है?

    रामरख सिंह सहगल को इस पुस्तक की ज़ब्ती से 50 हजार रुपये का नुकसान हुआ। अंग्रेज सरकार में उन पर मुकदमा भी चलाया गया। वे महीनों तक अदालत के चक्कर काटते रहे। ब्रिटिश सरकार ने सरकारी विद्यालयों में उनकी पत्रिका 'चाँद' का खरीदा जाने पर प्रतिबंध लग गया। इतनी शीघ्र ज़ब्ती के बावजूद भी जो कुछ प्रतियाँ बाहर चली गई थीं, वे अपनी निर्धारित कीमत से बहुत अधिक मूल्य में बिकीं। इस पूरे प्रकरण के परिप्रेक्ष्य में देखने पर हम इस पुस्तक के संपादक रामरख सिंह सहगल के महत्व को समझ सकते हैं। इस पुस्तक के लेखन में जितने साहस की आवश्यकता रही होगी, क्या उतने ही साहस की आवश्यकता इस पुस्तक के संपादन एवं प्रकाशन में भी नहीं रही होगी ? लेकिन विडंबना यही है कि जिस व्यक्ति ने इसके संपादन के लिए सबसे अधिक चुनौतियों का सामना किया, उसको इस पुस्तक और लेखक से याद नहीं किया जाता।

    सुधीर विद्यार्थी ने अपनी पुस्तक 'क्रांतिकारी आंदोलन: एक पुनर्पाठ' में जिज्ञासा प्रकट की है कि आखिर कर्मवीर पंडित सुंदरलाल ने अपनी आत्मकथा में कहीं रामरख सहगल का जिक्र क्यों नहीं किया है? जिस क्रांतिकारी संपादक ने उनकी पुस्तकों को प्रकाशित करने का जोखिम उठाया, आखिर उस व्यक्ति के प्रति उन्होंने कृतज्ञता क्यों नहीं ज्ञापित की..? यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित है। लेकिन यह सच्चाई है कि इस पुस्तक के संपादन से सबसे अधिक कठिनाइयाँ अगर किसी को झेलनी पड़ी तो वह रामरख सहगल को ही। सहगल के पुत्र नरेंद्र सहगल के शब्दों में-

                              'पं. सुंदरलाल लिखित 'भारत में अंग्रेजी राज' का प्रकाशन एक बड़ा झटका था। दो खंडों में प्रकाशित और खादी की जिल्दवाली इस पुस्तक के पृष्ठ सी.आई.डी. गायब करती रही और डाकखाने में ही उठाकर नष्ट कर दिया। यह 'मरे को मारे शाह मदार' लोकोक्ति को चरितार्थ करता है। इन सबके कारण पिता जी पर भारी कर्ज हो गया, 'चाँद' को पुस्तकालयों से मंगाने पर रोक लग गयी। इस कर्ज पर उस जमाने में 1500 रुपये महीने सूद अदा करना पड़ता था। इस कारण 'चाँद' प्रेस को एक लिमिटेड कम्पनी के शेयर बेचने के लिए पिताश्री गया पहुंचे और व्यक्ति विशेष से अगले दिन मिलने का समय निश्चित हुआ..….. काफी लम्बा मुकदमा चला और पिताश्री को निर्दोष और कम्पनी को दिवालिया करार दिया गया। बना-बनाया महल देखते- देखते ढ़ह गया और वे हाथ मलते रह गये। इसे प्रभु इच्छा ही कहना चाहिए क्योंकि इलाहाबाद में तीन मकान के मालिक को किराए के मकान में बाकी ज़िन्दगी गुजारनी पड़ी।'

    ‘चाँद’ पत्रिका के ‘फांसी’ अंक का संपादन आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने किया था। आचार्य चतुरसेन इसके अथिति सम्पादक थे। कहना न होगा कि आचार्य चतुरसेन को इस संपादन के लिए रामरख सिंह सहगल ने ही तैयार किया। इसको ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। इस अंक में भारतीय क्रांतिकारियों ने छद्म नाम से अनेकों आलेख लिखे थे. इसके कई आलेख भगत सिंह द्वारा लिखित बताये जाते हैं। साथ ही कुछ आलेख शिव वर्मा के भी बताये जाते हैं, जो हरिनारायण कपूर के नाम से लिखा करते थे। क्रांतिकारी आन्दोलन और क्रान्तिकारी पत्रकारिता के इतिहास में चाँद का यह विस्फोटक ‘फांसी’ अंक अपनी ऐतिहासिक भूमिका रखता है। इसमें क्रान्तिकारी और शहीद चापेकर बंधु,  सत्येन्द्र कुमार बसु’ कन्हाईलाल दत्त’ मदनलाल ढींगरा, अमीरचंद, भाई भाग सिंह, भाई वतन सिंह, मेवा सिंह, पं. काशीराम, अली शाह, गन्धा सिंह, करतार सिंह, विष्णु गणेश पिंगले, जगत सिंह, बलवंत सिंह, डॉ मथुरा सिंह, बंता सिंह, धन्ना सिंह आदि के  सम्बन्ध में बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री है. विप्लव यज्ञ की आहूतियां के नाम से लगभग 50 क्रांतिकारियों के रेखाचित्र चाँद के इसी फांसी अंक में प्रकाशित हुए. इसके प्रकाशन में रामचरित उपाध्याय, जनार्दन झा ‘द्विज’, विशम्भरनाथ शर्मा कौशिक, जी पी श्रीवास्तव, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, जयदेव विद्यालंकार, प्रफुल्लचंद्र ओझा ‘मुक्त’, आदि का सहयोग रहा. इसी अंक में रामरख सिंह सहगल की पत्नी विद्यावती द्वारा रचित देवी जॉन की जीवनी भी प्रकाशित हुई थी. इस अंक में १८५७ की क्रांति के क्रूर दमन का चित्र भी छापा गया था. इस विशेषांक की हजार प्रतियों को छापने में 12500 रुपये खर्च हुए थे. इस विशेषांक ने हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को एक नया आयाम प्रदान किया. लेकिन इस अंक के संपादन सबसे अधिक श्रेय रामरख सिंह सहगल को दिया जाना चाहिए, क्योंकि इस अंक के लिए सबसे बड़ी कीमत ‘चाँद’ प्रेस एवं रामरख सिंह सहगल को चुकानी पड़ी थी. लेकिन इतनी औपनिवेशिक यातना के बावजूद भी उन्होंने न तो अपनी पत्रकारिता का तेवर बदला, न ही क्रान्तिकारी आन्दोलनकारियों को प्रश्रय देना बंद किया. ‘चाँद’ के फांसी अंक के प्रतिबन्ध के बाद उनके पास क्रांतिकारियों का जमावड़ा होना शुरू हो गया था. बड़ी संख्या में नवयुवक क्रांतिकारी उनके पास आने लगे. उन्होंने लिखा है- 

     ‘फाँसी अंक’ के प्रकाशन में करीब 2500 रुपये व्यय हुए थे जिसमें कुछ कापियाँ और कुछ रुपये पार्टी को भी दिए गये थे। इस प्रकाशन का प्रत्यक्ष परिणाम यह निकला, कि चटगाँव-पंजाब तक के क्रान्तिकारियों ने मुझे घेरना शुरू कर दिया। मुझे वे अपना एक प्रमुख सहायक समझने लगे और जहाँ जक मुझसे भी बन पड़ा मैंने किसी भी नवयुवक को हताश नहीं लौटाया। लेखनी द्वारा, धन अथवा परामर्श द्वारा, जो भी मैं कर सका, करता रहा। परिणाम यह हुआ कि मेरा घर तथा कार्यालय इन तूफानी- क्रान्तिकारियों का एक प्रमुख अड्डा बन गया।'
 
        चाँद के फांसी अंक की जब्ती एक ऐसी कार्यवाही थी, जिसने ब्रिटिश सरकार के साम्राज्यवादी चरित्र की पोल खोलकर रख दी. ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के ऊपर जिस तरह के संकट की बात क्रांतिकारियों द्वारा की जा रही थी, वह सच्चाई सबके सामने आ गयी थी. पत्रकारिता के ऊपर इस तरह के अंकुश को साम्राज्यवादी सरकार की विकृति के रूप में देखा गया. क्या ब्रितानी सरकार इस अंक को इतना खतरनाक मानती थी कि उसके प्रचार-प्रसार से उसकी जड़ें हिल जाएँगी. निश्चय ही यह स्वंतत्रता संग्राम की प्रेरक शक्तियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज था जो भावी आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त करता. इसमें निहित क्रान्तिकारी चेतना न सिर्फ देश की राजनीतिक स्वाधीनता का स्वप्न देख रही थी बल्कि देश के क्रान्तिकारी नवयुवक किस तरह के स्वतन्त्र एवं समतामूलक समाज का स्वप्न देख रहे थे, यह भी इस अंक में देखा जा सकता है. इन अर्थों में यह अंक भारतीय नवजागरण को समझने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, क्योंकि इसमें सामाजिक एवं राजनीतिक दोनों ही स्तरों पर मुक्ति की आकांक्षा एवं समस्याओं की समीक्षा दिखाई देती है. इस अंक के प्रकाशन में रामरख सिंह सहगल ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. ‘क्रांतिकारी आन्दोलन:  एक पुनर्पाठ’ में सुधीर विद्यार्थी लिखते हैं- 

  'चाँद' के विरुद्ध अँग्रेज सरकार के इस कठोर कदम की हर तरफ आलोचना हुई। जनता में भी इसकी बहुत तीव्र प्रतिक्रिया थी। लोग मान रहे थे कि यह तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर गहरा कुठाराघात है और इसकी निन्दा की जानी चाहिए। हम जान सकते हैं कि 1929 के उस जमाने में देश में प्रेस की क्या स्थिति थी, लेकिन इसके साथ ही इस तथ्य को भी नजरन्दाज नहीं किया जाना चाहिए कि तब के सम्पादक और प्रकाशक मुक्ति-संघर्ष के बड़े सवाल पर बहुत मजबूती से अपने पाँव जमाए हुए थे। उन्हें न तो जब्ती का डर था, न प्रेस के बन्द होने और न ही अपनी जेल यात्रा का थोड़ा भी खौफ उन्हें सता रहा था। ये सारे तथ्य साम्राज्यवादी सत्ता के दमनकारी चरित्र को तो बताते ही हैं, साथ ही उस पूरे संघर्ष का भी खुलासा करते हैं जिसे 'चाँद' के सम्पादक रामरख सिंह सहगल ने झेला और लड़ा। यह कम बड़ी बात नहीं है कि देश में क्रान्तिकारियों के खुले सशस्त्र संग्राम के साथ ही तत्कालीन समाचार पत्र-पत्रिकाएँ भी उसमें बराबर की भागीदार थीं। कलम इस मोर्चे पर कहीं पीछे नहीं रही, बल्कि क्रान्तिकारी संघर्ष को पैनाने और उसे विचार का जामा पहनाने का जरूरी कार्य ये कलमकार ही पूरा करते रहे।"
 
           एक तरफ चाँद के ‘फांसी’ अंक की धूम पूरे देश और दुनिया में मच रही थी, वहीं दूसरी तरफ इसके कारण उनको तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था. चाँद प्रेस और रामरख सिंह सहगल उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार की आँखों में फांस की तरह गड़ने लगे. उनके विरुद्ध सरकार ने पुलिस और कानूनी हथियारों का प्रयोग अन्यायपूर्ण ढंग से किया गया. इसकी बड़ी भारी कीमत रामरख सिंह सहगल को उठानी पड़ी.आज  इन मानसिक यंत्रणाओं का अनुमान ही लगाया जा सकता है. रामरख सिंह सहगल ने न सिर्फ इन मुसीबतों का सामना किया बल्कि इसके प्रतिरोध में लगातार संपादन करते रहे. यह अंक सिर्फ साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी उतना ही महत्वपूर्ण है. इसमें क्रान्तिकारी आन्दोलन से सबंधित कई ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त होते हैं. इस ऐतिहासिक प्रकाशन के सन्दर्भ में वो लिखते हैं-
                                                                        
              ‘उस ऐतिहासिक प्रकाशन के सिलसिले में मुझे लगभग सभी चोटी के क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और इसके बाद तो एक ऐसा अटूट सिलसिला कायम हो गया, जिसके स्मरण मात्र से अतीत की मधुर स्मृतियाँ मेरे सामने चित्रपट पर पड़े हुए अक्स की भाँति नाच उठती हैं। फाँसी अंक के प्रकाशन के समय मुझे विशेष रूप से 'बलवंत' (सरदार भगतसिंह), हरिनारायण कपूर (श्री शिव वर्मा जो अभी-अभी जेल से छूटे हैं,) सुखदेव, राजगुरु आदि मित्रों का सहयोग प्राप्त था। सच पूछिए तो यह उन्हीं लोगों के अथक परिश्रम और प्रोत्साहन का फल था कि फाँसी अंक इतना सफल रहा। उस विशेषांक में जो दुर्लभ सामग्री प्रकाशित हुई थी, उसने देश ही में नहीं, बल्कि विदेशों में भी तहलका मचा दिया था.’

        रामरख सिंह सहगल बेहद कल्पनाशील एवं साहसिक संपादक थे. उनके भीतर खतरे उठाने का साहस तो था ही.. साथ ही उनकी पत्रकारिता में विलक्षण प्रयोगधार्मिता भी दिखाई देती है। नई बातों को सोचकर कार्यान्वित करना उनके स्वभाव में था। उनके पास अपने समय को पहचानने वाली आँखें थीं और जनता तथा पाठकों की नब्ज़ पर सदैव उनका हाथ रहता था। साथ ही जनपक्षधरता और राष्ट्रभक्ति की एक व्यापक भावना उनके मन में थी। रामरख सहगल बेहद सजग एवं चौकन्ने पत्रकार थे। ‘चाँद’ के साथ ही उन्होंने साप्ताहिक पत्र ‘भविष्य’ का प्रकाशन भी किया। 'भविष्य' ने बलिदानी पत्रकारिता में बहुत जल्दी ही एक अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया. इस पत्रिका की क्रांतिधर्मिता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके प्रकाशन के छह महीने के भीतर ही उसके कई संपादक एक-एक कर पकड़ लिए गये। ‘भविष्य’ इन परिस्थितियों में अधिक दिन नहीं चला, पर उस दौर में वह जनता का चहेता अखबार बन गया। इसका प्रमुख कारण है कि इसमें तत्कालीन भारतीयों की स्वाधीनता की आकांक्षा की अभिव्यक्ति हुई थी।

    रामरख सिंह सहगल ने बलिदानी पत्रकारिता का ऐसा मानदण्ड स्थापित किया कि उसके समकालीन किसी भी सम्पादक में वह तेवर और साहस नहीं दिखाई देता। कम से कम हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के भीतर ऐसा संपादक दुर्लभ है, जो समकालीन राष्ट्रीय आंदोलन में इतनी सक्रिय भूमिका निभाता रहा हो। स्वाधीनता आंदोलन के युवा क्रांतिकारियों (भगत सिंह, आजाद, सुखदेव, राजगुरु आदि ) को प्रायः सभी लोग संदेह की दृष्टि से देखते रहे। जबकि रामरख सिंह सहगल न सिर्फ उनके सम्पर्क में रहे बल्कि उनके क्रान्तिकारी विचारों को भी अपनी पत्रिकाओं में स्थान देते रहे। असहयोग आंदोलन , सविनय अवज्ञा आंदोलन की क्रमिक विफलता के बाद उस दौर में देश की युवा पीढ़ी गाँधीवादी प्रतिरोध के तरीकों से एक तरह का मोहभंग रखने लगी थी। रामरख सिंह सहगल इन युवा क्रान्तिकारी विचारों के समर्थन की मुद्रा में दिखाई देते हैं। वो यहाँ तक कहते हैं कि मैं जीवन के प्रथम प्रभात से ही हिंसक और क्रान्तिकारी विचारों का समर्थक रहा हूँ…! उनका यह कथन अपने आप में राष्ट्रीय आंदोलन की दशा और दिशा को समझने के क्रम में महत्वपूर्ण है। महात्मा गाँधी के समानानंतर राष्ट्रीय आंदोलन की कई धाराएँ है.. उसको समझे बिना हम स्वाधीनता आंदोलन के दौर को ठीक से नहीं समझ सकते। इसको समझने के लिए हमें रामरख सिंह सहगल जैसे संपादकों को जानने की आवश्यकता है।


संदर्भ :
1. क्रांतिकारी आंदोलन: एक पुनर्पाठ- सुधीर विद्यार्थी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
2. क्रांतिवीर भगत सिंह 'अभ्युदय' एवं 'भविष्य'- संपादक- चमनलाल, लोकभारती प्रकाशन
3. चाँद चयन, संपादकीय खंड, चयनकर्ता एवं संपादक- प्रियंवद
4. चाँद चयन, लेख खंड: आलोचना एवं पुस्तक परिचय खंड, चयनकर्ता एवं संपादक- प्रियंवद
5. चाँद व माधुरी: संयुक्त चयन, विविध व परिशिष्ट खंड, चयनकर्ता व संपादक- प्रियंवद
6. चाँद संकलन, 1922-1931, स्त्री शिक्षा, नई किताब प्रकाशन 
7. चाँद संकलन, 1922-1931 विधवा प्रश्न बाल विवाह, नई किताब प्रकाशन घर


गौरव सिंह 
शोधार्थी, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद 

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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