आलेख : देश की बात - देवनारायण द्विवेदी / वर्षा गुप्ता

देश की बात - देवनारायण द्विवेदी
- वर्षा गुप्ता 
                                                                                                          
     
देवनारायण द्विवेदी की किताब ‘देश की बात’ पहली बार 1923 ई. में मिर्जापुर से प्रकाशित हुई थी। इसका दूसरा संस्करण भी मिर्जापुर से ही 1929 में प्रकाशित हुआ। तीसरा संस्करण जब 1932 में कोलकाता से प्रकाशित हुआ तब सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। जैसा कि सर्वविदित है कि 1904 ई.  में सखाराम गणेश देउस्कर की किताब ‘देशेर कथा’ अंग्रेजों के कोप का शिकार हो चुकी थी और उसके प्रकाशन के छः साल बाद 1910 में प्रतिबंधित कर दिया गया था। ‘देशेर कथा’ का जब हिंदी में अनुवाद ‘देश की बात’ नाम से हुआ तब उसे भी ब्रिटिश शासन के कोपभाजन होना पड़ा और किताब भी प्रतिबंधित हो गई।

   सखाराम गणेश देउस्कर की किताब अपने मूल रूप में बांग्ला में जितनी लोकप्रिय थी उतनी ही हिंदी में भी लोकप्रिय हुई। प्रो.मैनेजर पांडेय ने देवनारायण द्विवेदी की किताब ‘देश की बात’ की भूमिका में यह रेखांकित किया है कि लंबे समय तक यह भ्रम बना रहा कि देवनारायण द्विवेदी की किताब सखाराम गणेश देउस्कर की किताब का हिंदी रूपांतरण है, लेकिन पांडेय जी ने ही कर्मवीर में प्रकाशित एक समीक्षक को उद्धृत किया है जिसमें उक्त समीक्षक की मान्यता है कि “पहले तो मुझे यह जान पड़ा कि यह पुस्तक देउस्कर जी की पुस्तक का ही अनुवाद या भावानुवाद है, किंतु मेरी धारणा निर्मूल ठहरी। ‘देश की बात’ जिस ढंग से लिखी गई है, उसे देखकर नि:संकोच कहना पड़ता है कि लेखक को इसमें काफी सफलता मिली है।“ (उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज-5)।  

     1923 ई. में प्रभा पत्रिका के एक अंक में ‘देश की बात’ पर एक समीक्षा प्रकाशित हुई थी जिसमें समीक्षक का मानना था कि– “देवनारायण द्विवेदी ने यह पुस्तक लिखकर हिंदी का बड़ा उपकार किया है। इस पुस्तक को आपने बिल्कुल स्वतंत्र रूप से लिखा है। फिर भी वह अपने को लेखक न लिखकर संपादक लिखते हैं। देउस्कर जी के प्रति आपकी श्रद्धा सर्वथा स्तुत्य है। हमारी समझ से दिवेदी जी इस पुस्तक के संपादक नहीं लेखक हैं” (उद्धृत-देश की बात-देवनारायण द्विवेदी,पेज-5)। दरअसल, इस किताब को लेकर इस भ्रम का वास्तविक कारण यह है कि स्वयं देवनारायण द्विवेदी ने किताब की भूमिका में ही यह लिखा था कि, “यह पुस्तक मेरी कृति नहीं, वास्तव में यह स्वर्गीय पं.सखाराम गणेश देउस्कर महोदय की कृति है-क्योंकि उन्हीं महानुभाव की मन-मुग्ध-करी-गुंथम-चातुरी की अविकल नकल करने का मैंने दुस्साहस किया है। तजन्य साहित्य वाटिका में से जिन महानुभावों एवं पत्र-पत्रिकाओं के रंग-बिरंगे विचार पुष्पों को चुनकर मैंने अपनी विचारमाला की पुष्टि की है, उनका मैं चिरकृतज्ञ हूँ। यदि पाठकगण इसे पसंद करेंगे, तो मैं इसका द्वितीय खंड निकालकर माला को दो लड़ी बनाने का शीघ्र प्रयत्न करूंगा।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज-13) मुझे लगता है कि इस स्वीकारोक्ति की दो वजह हो सकती है। एक तो यह कि सखाराम गणेश देउस्कर की किताब ‘देशेर कथा’ और उसके दोनों हिन्दी अनुवाद इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि उस लोकप्रियता का उपयोग द्विवेदी जी ने अपने हिसाब से करना चाहा होगा। दूसरी बात यह कि यह उनकी विनम्रता का भी प्रमाण हो सकता है। वह विनम्रता जो तुलसी दास के पास थी, जो गांधी जी के पास थी। 

     देवनारायण द्विवेदी की किताब 'देश की बात' के संदर्भ में यह ध्यातव्य है कि सखाराम गणेश देउस्कर की किताब के साथ-साथ उनकी किताब पर पाबंदी के बाद जब पुलिस ने किताबों की प्रतियों को जब्त करने के लिए छापेमारी शुरू की तो उन्हें पता लगा कि इनकी कुछ प्रतियां नवजादिक लाल श्रीवास्तव के घर में मौजूद हैं। नवजादिक लाल श्रीवास्तव की पत्नी राम सँवारी देवी ने इन दोनों किताबों की एक-एक प्रति अपनी साड़ी में छिपाकर इन किताबों की रक्षा की। आज दोनों किताबें हमारे बीच अगर मौजूद हैं तो यह सब राम सँवारी देवी के साहस और समझदारी का ही परिणाम है। 

     देवनारायण दिवेदी की इस पुस्तक को पढ़ने के बाद हमें यह महसूस होता है कि इस पुस्तक में द्विवेदी जी ने भारत की दयनीय दशा का प्रामाणिक वर्णन किया है। भारत जिसे 'सोने की चिड़िया' के नाम से भी जाना जाता था, वही देश किस प्रकार धीरे-धीरे गरीबी और फटेहाली की गिरफ्त में आ गया। अंग्रेजों ने भारत पर कैसे-कैसे अत्याचार किए, भारतीयों को किस कदर मजबूर किया, साथ ही भारतवासियों  का मानसिक तथा शारीरिक शक्ति धीरे-धीरे कैसे क्षरित की गई, इसका क्रमिक विश्लेषण 'देश की बात' पुस्तक  में हुआ है। द्विवेदी जी ने इस पुस्तक में कई ऐसे तथ्यों को उजागर किया है जिससे शायद बहुत से लोग आज भी अनजान हैं।

     इस किताब के महत्व के संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू के एक पत्र में मौजूद यह टिप्पणी उल्लेखनीय है कि, “एक ही किताब में देश की बहुत जरूरी बातें जमा की गई है। अंग्रेजी में तो इस विषय पर बहुत सी पुस्तके हैं लेकिन हिंदी में ऐसी किताबों की कमी है। इसलिए यह पुस्तक बहुत लाभ पहुंचा सकती है क्योंकि इस पुस्तक को पढ़ने पर हमें देश की वास्तविक दशा का पता चलेगा।“( उद्धृत-देश की बात-देवनारायण द्विवेदी,पेज-3)। 

     ‘देश की बात’ पुस्तक की शुरुआत श्यामसुंदर खत्री की एक कविता से होती है, जिसका शीर्षक है ‘आर्त्त पुकार’। इस कविता को पढ़ने के बाद इस बात की पुष्टि हो जाती है कि यह कविता पराधीन भारत की दुर्दशा और उसके शोषण का चित्रण है। इस कविता में भारत की जनता का हाहाकार जिस रूप में चित्रित है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह कविता समकालीन भारत की दुर्दशा का वास्तविक इतिहास है –

“सर्वेश! आज कैसी है दुर्दशा हमारी!”
वह देव-दुर्लभा श्री किस ठौर है सिधारी!
अब स्वप्न हो गया है स्वर्गीय सौख्य सारा;
मरघट किया गया है नन्दन-विपिन हमारा”  

     भारत रूपी ‘नन्दन-विपिन’ का ‘मरघट’ में तब्दील हो जाना कवि की चिंता का सिर्फ कल्पना लोक ही नहीं है बल्कि यथार्थ का वह क्रूर सत्य है जो ‘देश की बात’ की मूल चिंता है। खत्री जी की यह कविता स्वाधीनता की जिस चिंता और चेतना की उपज है उसी चिंता और चेतना को समर्पित ‘देश की बात’ में मंगलाचरण के रूप में इस कविता का मौजूद होना आकस्मिक और अकारण नहीं है। भारतमाता सदियों से जिस छल का शिकार हुई हैं, उसकी अभिव्यक्ति इस कविता में मौजूद है- 

“होकर अतिथि यहाँ जो धर साधु रूप आये;
स्वामी स्वयं बने वे हम दास ही कहाये।।
फुसला लिया हमें पर निकले विषैले विषधर;
है डँस लिया हमें तो साहाय्या-हीन पाकर।।“

            ‘देश की बात’ में उपक्रम शीर्षक प्रस्तावना की शुरुआत द्विवेदी जी इन पंक्तियों के साथ करते हैं- “मैं अपने हिन्दी प्रेमियों के समक्ष उसी देश की झलक झलकाकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करना चाहता हूँ जिस देश में जन्म लेने के लिए देवता लोग भी तरसते रहते हैं। जो देश पहले स्वर्ग से भी अधिक शांतिपूर्ण, रम्य और आनंदायक था, जिसने सारे संसार में पहले-पहल सभ्यता और शिक्षा का प्रचार किया था। अहा!, इस पुस्तक में उसी देश की झलक है, जिस देश की वृक्ष-लता, पत्र-पुष्प-विलक्षणा, उद्यान-भूमि, गगनस्पर्शी पर्वत-मालाएँ, गिरिराज के समान ऊंची लहरें लेता हुआ नीलांबुपूर्ण अथाह समुद्र, श्ववापदों शब्दों से भरा हुआ गगन कानन, ताल-तमाल-नारिकेल परिवेष्टित ग्राम और ऋषि-मुनियों की वेद-मंत्रों से गूँजती हुई कुटियों के स्मरण-मात्र से हृदय भर आता है। जिस देश के गौरव की विजय-पताका भूमंडल में फहरा रही थी, जिस देश की सुरम्य में भूमि प्रकृतिदेवी का क्रीड़ा –स्थान, धर्मतत्व-प्रसूता, शस्य श्यामला, धन-धन्य-संपन्ना और रत्न-गर्भा थी, समय के फेर से निर्धन हुई उसी दरिद्र-गर्भा का चित्र पाठकों के सामने इस पुस्तक में अंकित किया जाएगा।“(उद्धृत,देश की बात-देवनारायण द्विवेदी ,पेज-25)।  ईस्ट इंडिया कंपनी से पूर्व भारत की पूर्वावस्था, भारत के नाश का कारण,   उद्योग-धंधे  का सर्वनाश, रेल और नहरें, किसानों का पतन, आय और व्यय, कष्ट दमन के उपाय, आयात और निर्यात, एक्सचेंज, बंग-विच्छेद, क़ानूनों द्वारा भारत की हत्या, युगांतर, भारत की वर्तमान अवस्था और उसका भविष्य। 

 ईस्ट इंडिया कंपनी से पूर्व भारत की पूर्वावस्था -

     भारतीय नवजागरण की चेतना के अनुरूप देवनारायण द्विवेदी ने भारत के गौरवशाली अतीत और पतनशील वर्तमान का इस अध्याय में दुनिया के प्रसिद्ध विद्वानों के उदाहरणों द्वारा सोदाहरण विश्लेषित किया है। उन्होंने प्रो. ‘डे’ और प्रो.विल्किसन के हवाले से यह बताया है कि किस प्रकार ईसा से साढ़े तीन हजार वर्ष पहले चीन और भारत के बीच अंधाधुंध व्यापार होता था और मिश्र के दो हजार वर्ष पूर्व प्राचीन मकबरों में भारतीय नील और अन्यान्य वस्तुएँ अभी तक मौदूद हैं। प्राचीन भारत के वैभवशाली अतीत की चर्चा करते हुये वे जब मुगलकालीन भारत के पास आते हैं तब वह उनके लिए इसलिए भी उल्लेखनीय हैं कि मुगल बादशाहों का धन केवल तालों के भीतर ही बंद नहीं रहता था बल्कि समय-समय पर आवश्यकतानुसार उससे प्रजा की रक्षा भी होती थी और  धन सम्पदा का आलम यह कि लार्ड क्लाइव जिन्होंने भारत मे ब्रिटिश सत्ता को स्थापित किया था वे भी मुर्शिदाबाद के वैभव को देखकर चकित थे- “यह शहर लंदन शहर के समान विशाल,आबाद और धन-धान्य से परिपूर्ण है। अंतर केवल इतना ही है कि इन दोनों में पहले शहर(मुर्शिदाबाद)के लोग दूसरे शहर(लंदन)के लोगों की अपेक्षा बहुत अधिक धनी है।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज-33) और ईमानदारी का आलम यह कि “इस जिले में यदि किसी आदमी को रुपयों की अथवा बहुमूल्य वस्तुओं की थैली मिल जाती है, तो वह उसे किसी पेड़ पर लटका देता है और उसकी सूचना निकटवर्ती पहरा देने वाले को दे देता है-“(tract of India) 

     देवनारायण द्विवदी के जरीय ब्रिटिश सत्ता को आईना दिखाने का काम किया है जो बाद में भ्रम फैलाया गया कि जो भारत की समृद्धि के लिए काम कर रहे हैं वह एक सरासर झूठ है। इसके उलट सच यही था कि वे अपनी समृद्धि के लिए भारत का सर्वस्व हरण कर रहे थे। भारतेन्दु ने जो यह लिखा था कि “पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारि”  वह निरधार नहीं था। देवनरायण द्विवेदी ठोस अधारों के बल पर यह प्रमाणित कर रहे हैं कि भारत मे अंग्रेज़ो का आगमन दरअसल भारत के वास्तविक विनाश का कारण था। 

उद्योग-धंधों का सर्वनाश -

    द्विवेदी जी ने इस पुस्तक में ‘उद्योग-धन्धे का सर्वनाश’ नाम के शीर्षक में यह बताने का प्रयास किया है कि भारत जैसे देश में उद्योग-धंधों का सर्वनाश कैसे हुआ? अंग्रेजों ने एक से बढ़कर एक पैंतरे अपनाएं, एक से बढ़कर एक गैर कानूनी हथकंडे भी अपनाएं भारतीयों का सर्वनाश करने के लिए। अंग्रेज भली-भाँति जानते थे कि भारतीय सर्वगुण संपन्न हैं। वह धन्य-धान्य से परिपूर्ण है इसलिए अंग्रेजों ने ऐसी जगह पर वार किया जिससे भारतीय कंगाल हो जाएं। अंग्रेजों ने भारतीयों के उद्योग-धंधे को ही नष्ट करने का तय किया। अंग्रेज यह जानते थे कि भारतीयों के हाथों में ऐसी-ऐसी कलाएं हैं जो अद्भुत है। वह सारी कलाकारी हाथ के माध्यम से ही करते हैं। उन्हें मशीनों की जरूरत नहीं होती थी। भारतीय हाथ से ही ऐसी-ऐसी कलाकारी करते थे कि विदेशी मशीन से भी वैसी कलाकारी नहीं कर पाते। इस विषय में सुप्रसिद्ध इतिहास लेखक मि.विल्सन ने लिखा है कि "हिंदुस्तान सूती और रेशमी माल ब्रिटेन के बाजारों में इंग्लैंड के बने हुए माल के मुकाबले में 50 या 60 प्रति सैकड़ा कम दाम पर बेचा जा सकता था और इसलिए विलायती माल की रक्षा के लिए 70 से 80 तक प्रति सैकड़े भारत के माल पर कर लगाना आवश्यक प्रतीत हुआ। यदि ऐसा न किया जाता और भारतीय माल के रोकने के लिए यह कर लगाया जाता तो पेसली और मैनचेस्टर के कारखाने प्रारंभ में ही बंद हो गए होते और भाप की शक्ति से भी शायद ही चल पाते। भारत की कारीगरी का नाश करके ही भाप की शक्ति से काम करने वाले कारखाने खोले गए हैं या जिलाये गए हैं। यदि भारत स्वतंत्र होता, तो वह इसका बदला चुकाता और ब्रिटिश माल को रोकने के लिए वह भी कर लगाता तथा इस तरह अपने उद्योग-धंधों को नाश होने से बचा लेता।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण द्विवेदी,पेज-42)।  इस कथन से यही प्रतीत होता है कि सच में भारतीयों पर कितने अत्याचार और शोषण हुए हैं। उन्हें अपने हाथों द्वारा बनाए मालों के ही उचित दाम नहीं मिल पा रहा था। भारतीयों के पास आत्मरक्षा का अवसर भी  नहीं था। वह पूरी तरह से विदेशियों के अधीन हो गया था। ब्रिटिश मालों को बिना किसी कर के उन पर लादा गया। धीरे-धीरे भारत में विलायती माल बढ़ने लगा और अन्य देशों में दिन-प्रतिदिन भारतीय माल कम होती गई। इस तालिका के माध्यम से समझ सकते हैं कि कितनी तीव्रता से भारतीय मालों की अवनति हुई-

विलायत में भारतीय माल की रफ्तनी -

रूई- सन १८१८में १२७१२४ गांठ गई थी, पर केवल १0 वर्ष में ही घटकर सन १८२८ में सिर्फ ४१०५ गांठ हो गई।
कपड़ा- सन १८०२ में तो १४८१७ गांठें गयी, किंतु सन १८२९ में सिर्फ ४३३ गांठें गयीं। यहां तक हुआ कि जाना तो दूर रहा, उलटे विलायत से भारत में इस समय सालाना साठ-सत्तर कारोड़ रुपए का केवल कपड़ा आ रहा है।  किंतु कच्चे नील और रेशम की रफ्तनी बढ़ने लगी। (उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज-49)। 
     
 अंग्रेजों ने भारतीय उत्पादों पर कर लगाया और दूसरी ओर इस देश में बिना कर दिए माल भेजने का बंदोबस्त कर इंग्लैंड का व्यापार बढ़ाना शुरू कर दिया। इंग्लैंड एक स्वतंत्र देश था इसलिए वह अपना व्यापार बढ़ाने के लिए कोई भी कानून बना देता था। अंग्रेजों का मकसद यही था कि किसी भी तरह से भारत में विलायती माल बिकने लगे और विलायत में माल बेचने वाले भारतीयों को हानि उठानी पड़े ताकि भारतीय स्वयं ही विलायत में अपना माल भेजना बंद कर दें। अंग्रेजों ने भारतीय व्यापार को नष्ट करने के लिए ऐसे-ऐसे अत्याचार किए जो बहुत ही दुखद है। भारत की चीजों पर इतना कड़ा टैक्स लगाया गया कि धीरे-धीरे उनकी जड़ ही खत्म होने लगी। यहाँ तक भारतीयों को कानूनन मजबूर किया गया विलायती मोटे सूत वाले कपड़े पहनने को, जो कि भारतीयों को बिल्कुल गंवारा नहीं था। इस विषय में टाम्स मनरो के कथन को देखा जा सकता है- “भारत का माल विलायती माल से कई गुना अच्छा होता है। एक हिंदुस्तानी शाल को मैं आठ वर्षों से काम में ला रहा हूं, पर अब तक उसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। विलायती शाल तीन वर्ष में नष्ट हो जाता है। सच बात तो यह है कि यूरोपियन शाल मुफ्त में मिलने पर भी मैं उसका उपयोग करना नहीं चाहता।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण द्विवेदी,पेज-47)। सूत काटने वाली स्त्रियों पर भी कई अत्याचार होते थे। यहाँ तक कि उनके चरखे भी तोड़ दिया करते थे और उन्हें धमकाया भी जाता था। देवनारायण द्विवेदी ने इस पुस्तक में लिखा है कि सिर्फ देश को कारीगरी के नाश का ही सामना नहीं करना पड़ा बल्कि उन्होंने इस पुस्तक में ऐसी स्त्रियों पर भी दृष्टि डाली हैं जिसे समाज में बेसहारा, निराश्रया की दृष्टि से देखा जाता है। द्विवेदी जी ने उन असंख्य विधवाओं के बारे में लिखा है कि "कंपनी की ज्यादतीयों से केवल भारत की कारीगरी का ही नाश नहीं हुआ बल्कि वे अनाथ विधाएं भी निराश्रया हो गई जो सूत काटकर उदर पोषण करती थी।"(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज-51)। 

रेल और नहरें -

     गांधीजी ने हिंद स्वराज में रेल, डॉक्टर और वकील को देश का दुश्मन माना था। ब्रिटिश सरकार जगह-जगह पर नहरें बनाकर विकास कर रही थी लेकिन उसका मुख्य ध्यान रेल पर था। रेल के द्वारा वे भारत का कच्चा माल बंदरगाहों पर ले जाते थे और वहां से वह कच्चा माल ब्रिटेन पहुंच जाता था। एक तरह से रेल भारत की संपत्ति को लुटने का एक प्रतीक बन गई। यही कारण था कि गांधीजी रेल के विरोध में थे। 'देश की बात' में देवनारायण द्विवेदी ने 'रेल बनाम नहर' के द्वारा गांधीजी के हिंद स्वराज वाली उस बात को आगे बढ़ाया है।

           'देश की बात' की सबसे खूबसूरत और ताकतवर बात यह है कि उन्होंने अपने तर्कों के प्रमाण में ब्रिटेन के इतिहासकारों, अधिकारियों और विद्वानों को उद्धृत किया है। वे दरअसल उन्हीं के हथियार थे। उनपर हमला करने की कला में वे निष्णात थे। इंग्लैंड से निकलने वाली एक पत्रिका के 1900 ई. के एक अंक में उन्होंने एक अमेरिकन पादरी को उद्धृत किया है, "शिक्षा-प्रचार, स्वास्थ्य-रक्षा, नहर-खनन आदि कामों के लिए जिन्हें भारतवासी बहुत अधिक पसंद करते हैं, उसके लिए भारत सरकार कंगाल ही रहती है। पर भारत-सरकार के पास धन की चाहे जितनी कमी हो, रेल बनाने के लिए उसके पास खूब धन आ जाता है। क्यों? कारण यह है कि भारत की रेलों में अंग्रेजों की संपत्ति बढ़ती है। रेल के कारण भारत के बहुतेरे पुराने कारखाने नष्ट हो गए हैं, और करोड़ों आदमी राह के भिखारी हो गए हैं। पर उससे शासक जाति का धन बढ़ता है और इस अमूल्य अधीनस्थ देश को दृढ़ता के साथ चंगुल में फँसाने का उन्हें मौका मिलता है। फिर इसके लिए लोगों की चाहे जितनी हानि हो।"((उद्धृत-देश की बात-देवनारायण द्विवेदी,पेज-96)।  

      प्राचीन समय में जब वर्षा नहीं होती थी तब भारतवासी वैज्ञानिक रीति से वर्षा कराते थे। यज्ञ होता था ताकि धुआँ पैदा हो और बादल पैदा हो सके। इसके अलावा उस समय के हिंदू राजा किसानों को यही सलाह देते थे कि वह अपने राज्य में जगह-जगह पर बड़े-बड़े तालाब और सरोवर खुदवाएं। इसीलिए उन्हें कभी भी मुसीबतों का सामना नहीं करना पड़ता था। संकट की इस घड़ी में उन्हें अपने प्राण त्यागने नहीं पढ़ते थे। लार्ड वेलेसली के आज्ञानुसार डॉक्टर फ्रांसिस बुकानन ने दक्षिण भारत के कृषिकार्य की अवस्था देखकर जो रिपोर्ट लिखी थी, उसमें लिखा है कि “सौ वर्ष पहले भी दाक्षिणात्य हिंदू राज्यों में जलाशयों की बड़ी ही सुंदर व्यवस्था थी। उस रिपोर्ट में उस समय के राज्य के अधिकारी छोटे-छोटे हिंदू राजाओं के खुदवाये चार कोस लंबे और डेढ़ कोस चौड़े बहुसंख्यक तालाब और सरोवरों का वर्णन पाया जाता है।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज- 87)। 

एक्सचेंज -

      अंग्रेजों ने भारत को लूटने में कहीं से भी कोई कसर नहीं छोड़ा था। भारत के उद्योग-धंधे को नष्ट करने के लिए अब ना तो कारीगरों के अंगूठे कटवाए जाते और न किसी प्रकार का टैक्स ही लगाया जाता था क्योंकि अब अंग्रेजों ने एक्सचेंज का हथकंडा अपनाया जिसकी वजह से भारत को बहुत से मुसीबतों का सामना करना पड़ा। इस अस्त्र के माध्यम से अंग्रेजी सरकार भारत का माल सस्ती से सस्ती कीमत में खरीदती थी। “भारत में अंग्रेजी सरकार एक्सचेंज की भयानक दशा कर समय-समय पर उसकी ओट शिकार खेलकर धन लूटा करती है, सरकार के पास भारत का माल सस्ते मूल्य में खरीदने और इंग्लैंड का माल अच्छी से अच्छी कीमत में बेचने के लिए एक्सचेंज एक महा अस्त्र है। इस अस्त्र के द्वारा वह बिना रोक-टोक के अरबों रुपए विलायत भेज रही है। सन 1914 और 15 से यह दशा और भी भयानक हो गई, और तबसे उसने अपने व्यवसाय की रक्षा के लिए भारतीय उद्योग-धंधों को और भी पनपने नहीं दिया।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण द्विवेदी ,पेज-180)। एक्सचेंज के भाव से हिंदुस्तान के व्यापारियों को बहुत ज्यादा नुकसान का सामना करना पड़ता था।  “एक्सचेंज के भाव से विलायत के व्यापारियों को उन चीजों में जो भी वे हिंदुस्तान को भेजते हैं, पूरा लाभ है और उन्हें अनेक प्रकार की सुविधाएं हैं। इस लड़ाई में वैसे तो सभी देशों में रुपयों की कमी कर दी है पर उसमें भारत बेमौत मरा है।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज-185)। 

क़ानूनों द्वारा भारत की हत्या - 

       ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद से ही अंग्रेज कहते कुछ और थे और करते कुछ और थे। सही और गलत में फर्क ही समझते थे। भारतीयों के साथ उनका दुर्व्यवहार खत्म ही नहीं हो रहा था। “जब से भारत में राष्ट्रीय जागृति आरंभ हुई तब से तो इनके कुत्सित कार्यों की गिनती ही नहीं रह गई। ज्यों-ज्यों भारत में स्वतंत्रता का भाव पैदा होने लगा, त्यों-त्यों लोग उसके कुचलने के लिए नए-नए कानूनों की रचना करने लगे। संदेहवश बिना किसी पुष्ट प्रमाण के किसी को गिरफ्तार कर लेना, अभियोग के पहले हवालात में बंद रखना, किसी के मकान में जबरदस्ती घुस जाना आदि उन्हीं कानूनों के प्रत्यक्ष उदाहरण है।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण द्विवेदी,पेज- 212)। प्रेस को लेकर पहला कानून ‘प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन आफ बुक्स एक्ट’ के नाम से 1867 में बना था। जिसका उदेश्य था छापाखाना और समाचार पत्रों पर नियंत्रण रखना। इसका मकसद यह था कि ब्रिटिश भारत में बिना अपने जिले के मजिस्ट्रेट को लिखित सूचना दिए बिना कोई भी व्यक्ति पुस्तक या समाचार पत्र प्रकाशित करने के लिए प्रेस नहीं खोल सकता है। अगर कोई भी व्यक्ति ऐसा करते हुए पाया जाता है तो उसे दो हजार का जुर्माना या दो वर्ष की सादी सजा मिलेगी। इन नियमों से भारतीयों को विशेष हानि का सामना नहीं करना पड़ा। परंतु 1910 के ‘इंडियन प्रेस एक्ट’ ने सबको हिला कर रख दिया था। इसमें शर्त थी 500 रुपये   से लेकर 2000 रुपये  तक की रकम जमानत देने की बात की गई थी। इसका सभी भारतवासियों ने विरोध किया था परंतु परिणाम कुछ न निकला। इसका परिणाम यह हुआ कि कई लाख रुपये सरकार को सिर्फ जमानत से मिलें। जिनमें से कई पत्र ऐसे थे जिन्हें तीन-चार बार जमानत देनी पड़ी थी।

     जिस प्रकार प्रेस द्वारा भारतीयों के लिखने की स्वतंत्रता को सरकार ने छीना उसी प्रकार ‘सेडीशस मीटिंग्स एक्ट’ द्वारा लोगों के बोलने की भी स्वतंत्रता छीन ली। 1907 ईस्वी में एक कानून बनाया गया कि "जिन सभाओं से सार्वजनिक शांति के भंग होने की संभावना हो, उन सार्वजनिक सभाओं को रोकने के लिए उचित व्यवस्था करना इस विधा न का उद्देश्य है। इस विधान का प्रयोग उसी प्रांत में होगा, जिसके लिए भारत सरकार सूचना निकालेगी।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज-216)। 

आन्तष्करणिक क्षति - 

            हमारे भारत देश की आज जो भी आन्तष्करणिक या मानसिक क्षति हुई है उसका सिर्फ एक ही कारण है- गरीबी। जैसे-जैसे यहां की जनता निर्धन होती गई वैसे-वैसे उनका मानस और बाहुबल भी क्षीण होता गया। गरीबी एक ऐसी यातना है जिससे मनुष्य का मनोबल कमजोर पड़ता जाता है। वह समाज से विरक्त अपने आपको महसूस करने लगता है। उसके अंदर का मनुष्यत्व मरता जाता है। वह उचित, अनुचित में अंतर भी नहीं समझ पाता। इस विषय में ‘देस की बात’ पुस्तक में स्वर्गीय दादाभाई नैरोजी ने लिखा है कि “अंग्रेजों के संपत्ति शोषण से भारतीय केवल निर्धन ही नहीं हो रहे हैं वरन उनका नैतिक पतन भी हो रहा है। भारत की यह हानि साधारण हानि नहीं है, और न धन-नाश से कम दुखदाई ही है। सब देशों में ही धन-नाश के साथ-साथ देशवासियों का ज्ञान और अनुभव भी नष्ट होता जाता है"(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज-55)। अंग्रेजों की मान्यता यह थी कि भारतीयों का मानस क्षीण करके ही हम अपना मस्तक इनसे ऊंचा कर सकते हैं। यही वजह रहा कि आज अंग्रेज भारतवासियों का नाश करके उन्हें ही नीच दृष्टि से देख रहे हैं, जबकि पहले अंग्रेज भारतीयों से डरा करते थे। दादा भाई नौरोजी ने बहुत दिनों तक भारत के भिन्न-भिन्न देशी राज्यों में रहकर पूर्ण अनुभव प्राप्त करके लिखा है कि “यद्यपि मुंबई में करोड़ों रुपयों का व्यापार होता है, पर उनमें भारत का मूलधन 10 करोड़ से ज्यादा नहीं है। सो भी इस 10 करोड़ का अधिकांश देशी राज्य के व्यापारियों का है। ब्रिटिश-भारत के रहने वालों का धन तो इतना कम है कि व्यापार में लगने योग्य मूलधन का वे संग्रह ही नहीं कर सकते।“ (उद्धृत-देश की बात-देवनारायण द्विवेदी,पेज-58)। अंग्रेज़ो ने भारतीयों के आन्तष्करणिक या मानसिक क्षति पाहुचने के लिए नशीले पदार्थों का सहारा लिया। जबकि भारतीय ऐसी चीजों को कभी भी पसंद नहीं करते थे, फिर भी उन्होंने भारतीयों से अफीम की खेती तक कारवाई ताकि भारतीयों को इसके सेवन की लत लग जाए और उनका चरित्र-बल नष्ट हो जाए। इसी तरह अफीम के समान शराब का प्रचार-प्रसार बढ़ाने के लिए यहां अत्यंत निंदनीय उपाय का अवलंबन किया गया था और कहा गया था कि अगर प्रत्येक साल शराब की बिक्री न बढ़ी तो बंगाल के कलेक्टरों और डिप्टी कलेक्टरों को खुलेआम डांट फटकार सुनाई जाय। इसी तरह धीरे-धीरे भारतीय शराब का भी सेवन करने लगे जबकि पहले भारतीय इसके नाम से ही घृणा करते थे।  

किसानों का पतन -

          1918 में मैथिली शरण गुप्त की ‘किसान’ कविता प्रकाशित हुई थी। द्विवेदी युग के समापन के साथ हिन्दी साहित्य में किसान साहित्य के केंद्र मे आ गए थे। प्रेमचंद, मैथिली शरण गुप्त और प्रेमचंद का लेखन इस बात का प्रमाण है। भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में गांधी जी के आगमन के साथ साहित्य के स्वर में काफी बदलाव हुआ। चंपारण का किसान आंदोलन हो या फिर अवध का किसान आंदोलन हो राजनीति और साहित्य दोनों का स्वर बदल गया और स्वाधीनता आंदोलन के अग्रदूतों  के साथ-साथ बुद्धिजीवियों लेखकों को भी यह महसूस होने लगा कि किसान के दुख-दर्द से जुड़े बगैर स्वाधीनता आंदोलन की कोई कल्पना निरर्थक है। देवनारायण द्विवेदी की किताब ‘देश की बात’ में अपने समय का सच किसानों के पतन के रूप में दिखाई पड़ रहा है। उन्होंने अंग्रेज इतिहासकार विशप हिवर के  भारत भ्रमण का हवाला देते हुए 1826 में भारत का स्मरण दिलाया है कि “कोई भी देसी राजा प्रजा से इतना अधिक कर वसूल नहीं करता, जितना अधिक कि हम लोग वसूल करते हैं।“ उन्होंने कर्नल ब्रिग्स को उद्धृत किया है जिसने 1830 में लिखा था कि “भारत के वर्तमान कर के समान यूरोप या एशिया का कोई भी राजा इतना अधिक राजस्व जमींदार की प्रायः समस्त आय-कभी वसूल नहीं करता था” (उद्धृत-देश की बात-देवनारायण द्विवेदी,पेज-69)।    उन्होंने सरकारी आकड़ों के आधार पर 1769 ईस्वी में बंगाल के प्रलयकारी अकाल का वर्णन किया है। उस अकाल में लगभग एक करोड़ से ज्यादा लोगों की मौतें हुई थी। अन्न भी बहुत महंगा हो गया था। इतनी दयनीय स्थिति होने पर भी अंग्रेजों ने कर वसूलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। फिर दूसरे वर्ष भी ऐसा ही अकाल बंगाल में देखने को मिला था। यहां भी अंग्रेजों ने अपना ही लाभ देखा। द्विवेदी जी ने अंग्रेज़ो के बारे में एक कहावत का उल्लेख किया है- "वर मरे या कन्या, सुमंगली से काम" मानो यह कहावत अंग्रेजों के लिए ही बनी हो। भारत मरे या जिए उन्हें तो बस टैक्स से मतलब था। जो किसान कर नहीं चुका पाते थे उन्हें कड़ी-से-कड़ी सजा भी दी जाती थी। उन्हें पिंजरे में बंद कर कड़ी धूप में रखा जाता था। यहां तक कि लोगों को जान से प्यारे अपने बच्चों को भी बेचना पड़ जाता था। कर चुकाने के लिए ऐसी करुणामयी स्थिति को सुनकर ही दिल दहल उठता है। किसानों के लिए कर चुकाना किसी सजा से कम नहीं था। ‘देश की बात’ में उन्होंने 1784 के भयंकर अकाल  के संदर्भ में 2 अप्रैल 1784 को लौर्ड हैस्टिंग्स के काउंसिल बोर्ड को लिखे पत्र का उल्लेख किया है- “मुझे कहते हुए बहुत दु:ख होता है कि, बक्सर के आगे बनारस की ओर सब गाँवों को मैंने बिल्कुल बंजर पाया। मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि शहर बनारस के अतिरिक्त समूचे प्रदेश में अराजकता फैली हुई है। शासन-प्रणाली बिगड़ गई है और लोगों पर अत्याचार हो रहे हैं। वहां वाणिज्य का नाश हो गया है और खेती की जड़ ही नष्ट हो जाने के कारण कर-वसूली शीघ्र ही कम हो जाने का भय है।‘’ (उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज-70)। भारत के किसानों की दयनीय स्थिति की चर्चा करते हुए द्विवेदी जी ने लिखा है कि, “आज से पचीस वर्ष पहले देहातों में लोग दिन का अधिक समय खेलकूद, दंड-कसरत में बिताया करते थे। सबके सब खूब हष्ट-पुष्ट होते थे। इस समय की अपेक्षा उस समय खेती पर भी लोग कम ध्यान देते थे, पर आज से अधिक सुखी थे। किंतु आज दिन-रात लोगों को काम करना पड़ता है। दिन पर दिन शरीर दुर्बल हुआ जाता है। खेलने-कूदने का नाम निशान भी मिटा जा रहा है। खेती भी खूब जोरों से हो रही है पर खाने का ठिकाना नहीं। इन पंक्तियों के लेखक का व्यक्तिगत अनुभव है कि इस समय भारत में 96 प्रति सैकड़ा किसान कर्जदार हैं। बाकी 4 प्रति सैकड़ा में से भी हजार में 10 ही ऐसे निकलेंगे जो संपन्नतापूर्वक भरपेट अन्न और आवश्यकतानुसार घी-दूध खाते होंगे।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण  द्विवेदी,पेज-85)। अपने इस व्यक्तिगत अनुभव को उन्होंने कानपुर के कलक्टर मि.बार्ड के कथन से प्रमाणित किया है। जिन्होंने  लिखा था, “मेरे हिसाब से एक पुरुष का वार्षिक खाने-पीने का खर्च 16 रु. ,स्त्री का 13 रु.10 आना तीन पैसे और बालक का 9 रु.5 आना 2 पैसा होता है।“(उद्धृत-देश की बात-देवनारायण द्विवेदी,पेज-85) । 

     ‘देश की बात’ पुस्तक पढ़ते हुए मैथिलीशरण गुप्त की वे पंक्तियां “हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी” की चिंता एक अंतर धारा के रूप में प्रतिध्वनि होती रहती है।  द्विवेदी युग की जो चिंता थी वह इस किताब में अपने उत्कर्ष पर है। देश के भविष्य को लेकर वे निराश नहीं है। ‘भारत-भारती’ में भी भविष्य खंड था ‘देश की बात’ में भी भविष्य खंड है।  भारत की निकट भविष्य को वे समुज्जवल मानते हैं। स्वतंत्रता की लहर जिस गति से देश में विकसित हो रही थी उसे देखते हुए उन्हें इस बात में पूरा यकीन था कि सन 1935 तक देश अपना अवश्य स्वतंत्र हो जाएगा और संसार की कोई भी शक्ति उसमें बाधा नहीं पहुंचा सकती है। 

      देवनारायण द्विवेदी अन्य देशों की स्वाधीनता आंदोलन की तुलना में भारत के स्वाधीनता आंदोलन के जिस विशेषता का उल्लेख करते हैं वह अहिंसात्मक होने से जुड़ी हुई है। उन्होंने लिखा है कि “अन्यान्य  देशों की जागृति जब-जब वहाँ की सरकारों द्वारा रौंदी गई तब-तब वे देश सैकड़ों वर्षो तक हाथ-पैर हिलाने के योग्य नहीं हुए; किंतु भारत में यह बात नहीं हुई। यहाँ बहुत अल्प समय में ही एक लहर के बाद दूसरी लहर उठी है और उठ रही है। इस आधार पर यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि अब भारत की आजादी के दिन बिल्कुल करीब हैं। संभव है कि, बहुत से लोग हमारे इस कथन को पागल का प्रलाप समझेंगे। यह समझते होंगे कि अभी भारतीय जनता में राष्ट्रीयता का ऐसा उच्चाभाव पैदा नहीं हुआ है कि उसकी स्वतंत्रता इतने समीप समझी जाए।“(उद्धृत,देश की बात- देवनारायण द्विवेदी,पेज-25)।       

   देवनारायण द्विवेदी के ‘देश की बात’ देश के इतिहास, वर्तमान और भविष्य की चिंता से ‘लबरेज’ है। यह चिंता उनके इतिहास बोध की विशिष्टता का परिणाम है और वे भारत के जिस स्वाधीन भविष्य की कल्पना कर रहे हैं, वह किसी ज्योतिषशास्त्र पर आधारित नहीं है, बल्कि भारत की आम जनता की संघर्षशील और अपराजेय जिजीविषा की पहचान से उपजी हुई समझ का परिणाम है। 

वर्षा कुमारी 
 सम्पर्क : drwarshagupta29@gmail.com  
 
 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

1 टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर आलेख लिखा है द्विवेदी जी की पुस्तक पर आपने। इस लेख को पढ़ने पर मालूम होता है कि ' देश की बात' पुस्तक पर प्रतिबंध क्यों लगा। भारत को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। किसानों का पतन कैसे हुआ। अंग्रेजों ने भारत पर कैसे-कैसे अत्याचार किए। शुभकामना आपको।

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