साक्षात्कार : प्रतिबंधित साहित्य भारतीय स्वाधीनता की चेतना की अभिव्यक्ति है। – मैनेजर पाण्डेय / अमित कुमार

प्रतिबंधित साहित्य भारतीय स्वाधीनता की चेतना की अभिव्यक्ति है।
– मैनेजर पाण्डेय 
( मई, 2022 में सम्पन्न मैनेजर पाण्डेय से  अमित कुमार की बातचीत )
                           
(मैनेजर पाण्डेय से मुख़ातिब होते हुए) सर 'अपनी माटी' पत्रिका के 'प्रतिबंधित साहित्य' विशेषांक के लिए यह साक्षात्कार लिया जा रहा है, जिसके अतिथि संपादक गजेन्द्र पाठक हैं। चूँकि यह साक्षात्कार प्रतिबंधित साहित्य के विशेषांक के लिए लिया जा रहा है, तो बातचीत की शुरुआत प्रतिबंधित साहित्य से ही करना मुनासिब होगा।

अमित कुमार :  प्रतिबंधित साहित्य के क्या मायने है? 
मैनेजर पाण्डेय : ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय साहित्य के  प्रतिबन्ध की प्रक्रिया शुरू हुई है और उसके दो-तीन बड़े कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह था कि 1857 के विद्रोह के बारे में किसी किताब या पत्रिका में उसके पक्ष में यदि कोई लिखे तो तत्काल उस पर पाबंदी लगती थी, ताकि लोग उसे  पढ़ न पायें। दूसरी बात यह कि सत्ताएँ हमेशा बेवकूफी करती हैं इस अर्थ में कि सत्ता को यह आईडिया नहीं है कि जिन किताबों पर पाबंदी लगती है, उन किताबों को लोग खोज-खोजकर पढ़ते हैं। तो पहले नॉर्मल में जितने लोग पढ़ते उससे ज्यादा लोग प्रतिबन्ध लगने के बाद पढ़ते हैं। पर ये सत्ताएँ इस बारे में नहीं सोचती। वे अपने डंडे के जोर से सब करना चाहती हैं । वे  सोचती हैं कि डंडा मेरा चल रहा है बस! तो प्रतिबन्ध के दो मतलब हैं – हिंदी और उर्दू दोनों भाषाएँ लगभग मिली-जुली अब भी हैं, तब भी थीं और इन दोनों भाषाओँ का लेखन भी नागरी लिपि में भी होता था और फ़ारसी लिपि माने उर्दू वाली लिपि में भी होता था। दोनों पर पाबंदियां लगीं। तो मूल बात यही है।  सन् 1867, 1878, 1898, 1910 और 1930 में प्रेस और प्रकाशन सम्बन्धी कानून बने। उनका लक्ष्य था भारत की भाषाओं में प्रकाशित पुस्तकों, पत्रिकाओं, अख़बारों, परचों और दस्तावेजों पर पाबन्दी लगाना। सन् 1928 में ‘चाँद’ पत्रिका का ‘फाँसी अंक’ निकला।  उस पर भी  पाबंदी लगी क्योंकि 'फाँसी' अंक में 90 फ़ीसदी फाँसी की घटनाएँ हिंदुस्तान के स्वाधीनता सेनानियों और क्रांतिकारियों पर थी। 

अच्छा, आगे चलकर एक और बात बढ़ी। अंग्रेजी सरकार ने कानूनी भाषा में यह कहा कि जो किताब या  लेख सरकार के विरुद्ध, अभियान चलाये अथवा  अराजकता फैलाये उनपर हम पाबंदी लगायेंगें। लेकिन उसमें अराजकता फैलाने व सरकार के खिलाफ लिखने के सैकड़ों कारण थे जैसे – मान लीजिये कि सरकार ने चार क्रांतिकारियों को फाँसी दे दी तो सरकार के लिए तो यह क़ानून के तहत था पर जनता के लिए तो वह अपराध था, सरकार की गुंडई थी । तो जनता ने प्रतिरोध में लेख लिखे और उस समय एक से एक क्रांतिकारी लेखक स्वयं भगत सिंह भी  छद्म नाम से हिंदी में लेख लिखते थे।  कानपुर से निकलने वाली संभवतः 'प्रताप' नाम की पत्रिका थी। गणेश शंकर विद्यार्थी उसके संपादक थे भगत सिंह उसमें छपते थे।  भगत सिंह अलग नाम से लिखते थे, ताकि पकड़े न जाएँ क्योंकि भगत सिंह उस समय फरार थे तो यह भी चिंता थी कि लेख लिखने के कारण पकड़े न जाएँ। प्रतिबंधित साहित्य पर और डिटेल्स तो मेरे लेखों और किताबों आदि में मिलेगा। 

अमित कुमार : विश्व साहित्य को यदि हम देखें तो  प्रतिबन्ध राजनीतिक के अलावा नैतिक कारणों से भी लगा, मसलन- डी. एच. लॉरेंस का उपन्यास ‘लेडी चैटर्ली लवर’, व्लदीमिर नाबोकोव का ‘लोलिता’ और हिन्दी में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के कहानी संग्रह ‘चॉकलेट’ को अश्लील साहित्य मानकर प्रतिबंधित किया गया। क्या इस तरह के साहित्य को जो समकालीन समाज की नैतिकताओं पर खरा नहीं उतरता, उसे प्रतिबंधित साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है?
मैनेजर पाण्डेय : अंग्रेजों ने रखा क्योंकि नैतिकता को वो अपने हिसाब से सोचते थे। जो विक्टोरियन पीरियड की नैतिकता थी, उसी को वे आदर्श मानते थे। तो उसी को वे हर जगह लागू करते थे, जहाँ-जहाँ उनका साम्राज्य था, इसलिए इन सब पर  लगा। 
                        
अमित कुमार : परन्तु ‘चॉकलेट को तो हिंदी समाज के लोगों ने प्रतिबंधित किया था न?
मैनेजर पाण्डेय : ऐसा है, चॉकलेट की कहानी थोड़ी भिन्न है। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के खिलाफ थे बनारसी दास चतुर्वेदी। बनारसी दास चतुर्वेदी पुराने आदमी थे, नैतिकतावादी सामंतवादी जो कहिये। चॉकलेट में होमोसेक्सुअल रिलेशन  का वर्णन था। उसी को आधार बनाकर उन्होंने गाँधी जी को एक चिट्ठी लिखी। अच्छा, उग्र जी उन लोगों में से थे जो लेखक भी थे और  स्वाधीनता सेनानी भी थे। पहले ही उग्र जी की चार-पाँच किताबों पर ब्रिटिश सरकार ने पाबन्दी लगायी थी। तो गाँधीजी को उन्होंने चिट्ठी लिखी कि आप इस किताब और लेखक दोनों के विरुद्ध एक बयान दीजिये क्योंकि ये जो (उग्र) है लेखक भी बना हुआ है और स्वाधीनता सेनानी भी बना हुआ है और लेखन इसका अश्लील है। गाँधी जी को चिट्ठी मिली। बनारसी दास चतुर्वेदी से गाँधी जी के अच्छे सम्बन्ध थे, आते-जाते थे। तो गाँधी जी ने एक चिट्ठी लिखी ‘यंग इण्डिया’ पत्रिका के लिए, जिसमें उन्होनें लिखा कि एक सूचना मुझे मिली है और ये सूचना प्रकाशित कर दो, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि ऐसी किताब छपे, और लोग इस तरह का अश्लील साहित्य पढ़ें। 

    अच्छा, बनारसीदास चतुर्वेदी साहित्य के साथ-साथ राजनीति में भी दखल रखते थे, इसलिए गाँधी जी ने उनकी साहित्य की समझ पर भरोसा किया। उन दिनों स्वयं गाँधी जी भी साहित्य में अश्लीलता की निंदा करते थे। ऐसी स्थिति में उन्होनें पुस्तक को बिना पढ़े ही अपनी टिप्पणी के साथ बनारसीदास चतुर्वेदी का पत्र ‘यंग इण्डिया’ में छपने के लिए भेज दिया। पर गाँधी जी भीतर से बहुत ईमानदार और सच्चे आदमी थे। तो गाँधी जी को यह लगा कि ये तो मैंने बनारसीदास चतुर्वेदी के कहने पर लिखा है। मैंने तो किताब पढ़ी नहीं, तो जब किताब  पढ़ी नहीं तो इसके बारे में राय कैसे दे सकता हूँ। तो उन्होनें अपने प्रेस को आर्डर दिया कि ‘रुक जाओ, हम जब दोबारा कहेंगे कि यह बयान छापो तो छापना, अभी मत छापो।’ पुस्तक को पढ़ा गाँधी जी ने। फिर गाँधी जी ने लम्बा पत्र बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा और प्रेस को भी लिखा। गाँधी जी ने कहा कि इसमें जो  चित्रण-वर्णन है, वह नैतिकता के विरुद्ध है। लेकिन जो लेखक हैं उन्होंने इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए नहीं बल्कि उसको डिसकैरेज करने के लिए लिखा है। इसलिए उनका कोई अपराध नहीं है। गाँधी जी ने अपनी चिट्ठी के अंत में लिखा कि मैंने आपकी चिट्ठी पढ़कर उसी को  आधार बनाकर लिख दिया था प्रेस को । मैं प्रेस से अपना स्टेटमेंट वापिस लेता हूँ और आपनी राय आपको भी बता दे रहा हूँ।

               बनारसीदास चतुर्वेदी बेईमान आदमी थे। जब तक गाँधी जी जीवित थे, तब तक उन्होंने किसी से यह  नहीं कहा कि गाँधी जी ने उनका खंडन भी लिखा है। जब गाँधी जी मर गए, उनकी शताब्दी होने लगी तो यह चिट्ठी धर्मयुग या किसी पत्रिका में छपी तो लोगों को मालूम हुआ कि गाँधी जी इतने ईमानदार थे कि यह सब देखकर के उन्हें मना कर दिया। तो चॉकलेट की कहानी यही है। मैंने इस पर लेख लिखा है ‘गाँधी : महात्मा गाँधी से चेथरिया पीर तक’ नाम से जो थोडा लम्बा भी है, चिठ्ठी भी है उसमें। 

अमित कुमार : तो क्या  प्रतिबंधित साहित्य के दायरे में वे  साहित्य भी आयेंगे जिन्हें नैतिक कारणों से प्रतिबंधित किया गया है ?
मैनेजर पाण्डेय : हाँ, बिल्कुल। 

अमित कुमार : कोई भी साहित्यिक प्रवृत्ति परंपरा और अपने समय की परिस्थितियों के परस्पर द्वंद्व से पनपती है। प्रगतिवादी साहित्य और प्रतिबंधित साहित्य की संवेदना और शिल्प को यदि हम देखें तो उसमें काफी समानता नजर आती है। क्या प्रगतिवादी साहित्य को प्रतिबंधित साहित्य की धारा का विकास कहा जा सकता है?
मैनेजर पाण्डेय : नहीं, वे अलग चीजें हैं। क्योंकि जो प्रगतिशील या प्रगतिवादी साहित्य है, उन सब पर कोई पाबंदी तो लगी नहीं, न सरकार की ओर से और न ही हिंदी के जो बड़े संपन्न लोग, आलोचक, लेखक थे उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं थी। इन लोगों ने प्रगतिवाद की आलोचना की, वह बात अलग है।  आलोचना तो एक-दूसरे की सब करते हैं। इसीलिए यह इस धारा का कोई विकास हो, ऐसी बात नहीं है। 

अमित कुमार : हम देखते हैं कि औपनिवेशिक दौर में देश-विदेश की अन्य  भाषाओं से बड़ी मात्रा में अनुवाद हुए। प्रतिबंधित साहित्य में स्वाधीनता की चेतना जगाने में इन अनूदित किताबों की क्या भूमिका रही? 
मैनेजर पाण्डेय :  ऐसा है कि मैंने तीन-चार किताबें खोज कर सम्पादित की- सखाराम गणेश देउस्कर की बांग्ला में लिखी किताब ‘देशेर कथा’ जिसका हिन्दी अनुवाद ‘देश की बात’ नाम से बाबूराव विष्णु पराडकर ने किया । दूसरी किताब (देश की बात)  भी उसी नाम से है, जिसके लेखक हैं- देवनारायण द्विवेदी। यद्यपि सम्पतिशास्त्र पर पाबंदी नहीं लगी थी पर वह था वैसा ही और एक किताब थी मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव की 'पराधीनों की विजय-यात्रा' उस पर भी पाबंदी लगी थी, उसको भी खोजकर छपवाया मैंने। तो ऐसी किताबें हैं, जिसमें से अधिकांश अनुवाद की हैं। अच्छा, 'पराधीनों की विजय यात्रा' जो किताब है, उसमें दुनिया के देशों में जो पराधीनता थी और उसके विरुद्ध जो संघर्ष हुआ वह सब इतिहास इसमें शामिल है। तीस के आस-पास  लेख हैं इस किताब में।  असल में, अग्रेजों ने उस पर पाबंदी इसलिए लगायी थी कि उनको लगा कि भारतीय लोग जब इसको पढ़ेंगे तो सोचेंगे कि विश्व के अन्य देश जब पराधीनता का विरोध कर सकते हैं, तो हम क्यों नहीं करें। अच्छा, इस पुस्तक में अनेक पराधीन देशों के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास का इस ढंग से विवेचन किया गया है कि वह भारतीय स्वाधीनता के लिए प्रेरणादायक साबित हो।  इसलिए उस पर पाबंदी लगी। इसमें चाहे अमेरिका के स्वाधीनता संघर्ष पर निबन्ध देखिए या रूस के क्रांतिकारी आन्दोलन का विवेचन देखिए या फिर भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के उदय, उत्थान और विस्तार पर विचार, आपको सर्वत्र इतिहास, राजनीति और साहित्य का संयोग दिखाई देगा। तो ऐसी किताबों ने स्वाधीनता की चेतना विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।  

अमित कुमार : हिंदी नवजागरण को लेकर एक धड़ा ऐसा है, जो हिंदी नवजागरण को बस साहित्यिक नवजागरण तक ही सीमित मानता है।  बांग्ला नवजागरण और महाराष्ट्र के नवजागरण में जिस तरह की रैडिकल  चेतना थी वैसी चेतना हिंदी नवजागरण में देखने को कम मिलती है। दूसरे शब्दों में, जिस तरह से  महाराष्ट्र नवजागरण और बंगाल नवजागरणकालीन दौर में समाज सुधारक पैदा हुए किन्तु  हिंदी पट्टी में इस तरह के समाज सुधारकों का अभाव रहा। इसके समाजशास्त्रीय क्या कारण हो सकते हैं?
मैनेजर पाण्डेय : ऐसा है देखो, हिंदी प्रदेश में समाज सुधार की प्रवृत्ति की जो समस्याएँ थी वह तीन हैं। पहली थी दलितों के साथ दुर्व्यवहार, तो हिंदी के जो बड़े लेखक थे वह 99 परसेंट अपर कास्ट के थे। इसलिए उसमें उनकी दिलचस्पी नहीं थी। दूसरी थी स्त्रियों की पराधीनता। उसमें भी अपर कास्ट के लोगों में स्त्रियों की स्वाधीनता की कोई भावना नहीं थी। हिंदी में स्त्रियों की मुक्ति पर महादेवी वर्मा से पहले किसी ने रैडिकल स्टैंड नहीं लिया। एक पहले की किताब है – ‘सीमंतनी उपदेश’ उसपर भी लिखा है मैंने। कुछ किताब ऐसी थी जिसका व्हेयरअबाउट (whereabouts) मालूम नहीं होता। ‘सीमंतनी उपदेश’ को  कभी सम्पादित किया था डॉ. धर्मवीर ने। डॉ. धर्मवीर भी यह बताने की स्थिति में नहीं थे कि किसने लिखा था और कहाँ से छपा था? पर  किताब है और उनके सामने थी तो उन्होंने उसकी तारीफ़ करते हुए उसको प्रकाशित किया और उसपर लिखा भी। ऐसी चीजों में हिंदी क्षेत्र के पंडितों-ज्ञानियों की कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। 

  दूसरी बात मैं आपसे कह रहा हूँ, यह बात थोड़ी विवादस्पद है, फिर भी कह रहा हूँ। हिंदी क्षेत्र में दलितों के साथ और स्त्रियों के साथ उतनी दुर्गति नहीं थी जितनी इन क्षेत्रों में थी। हजारों बंगाली विधवाएँ बनारस में रहती थी नहीं तो वृन्दावन में। वे अब भी रहती हैं, भीख माँगकर खाती-पीती हैं। आपको बनारस में या वृन्दावन में दो-चार हिंदी क्षेत्र की विधवाएँ मिल जाएँ तो मिल जाएँ, वह भी मुश्किल से। तो इसलिए उनके खिलाफ जागरण और आन्दोलन की प्रवृत्ति हिन्दी क्षेत्र में  नहीं पैदा हुई। उसी तरह से महाराष्ट्र में दलितों के साथ जो अतिरेकी व्यवहार था, जिसका स्वयं फुले ने विस्तार से चित्रण-वर्णन और विद्रोह किया है, ऐसी प्रवृत्ति हिंदी क्षेत्र में नहीं थी। इसलिए हिंदी क्षेत्र में राजा राममोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर  ज्योतिबा फुले और  अम्बेडकर जैसे लोग नहीं हैं।

   यह सही बात है कि जाति व्यवस्था का जो असल प्रभाव था वह सारे समाज पर था। जाति व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें हर जाति अपने से नीचे की जाति खोजती है और उसको तरह-तरह से परेशान करती तथा सताती है। जातिवाद के खिलाफ कोई भी आन्दोलन इधर नहीं बना क्योंकि हिन्दी पट्टी में उतना अतिवाद था भी नहीं जितना महाराष्ट्र में था। महाराष्ट्र में तो दलितों को, फुले की जीवनी आप पढ़े और देखें तो मालूम हो जाएगा कि वहाँ दलित अपने साथ एक बर्तन लिए चलते थे कि अगर थूकना हो तो उसी में थूकते थे, जमीन पर नहीं थूकते थे। क्योंकि अगर जमीन पर थूकेंगे तो दूसरे लोग उसपर चलेंगे। तो इतनी ज्यादती हमारे क्षेत्र में कही नहीं थी। इसलिए भी ज्यादा आन्दोलन महाराष्ट्र में  हुए। यही सब कारण हैं। 

अमित कुमार : कुछ समाजशास्त्री इसका भौगोलिक कारण भी बताते हैं कि हिन्दी पट्टी देश के अन्य प्रदेशों से घिरा था, जबकि बंगाल और महाराष्ट्र समुद्र किनारे बसे होने की वजह से उनका आवागमन यूरोपीय देशों से था। जिसकी वजह से लोग शिक्षा और अन्य कारणों से विदेश आते-जाते रहते थे। इस प्रकार उनमें अपनी सभ्यता-संस्कृति की तुलना और मूल्यांकन की चेतना जागृत हुई। चूँकि हिन्दी पट्टी लगभग मध्य भाग में  स्थित है, तो इसमें जो भी चेतना विकसित हुई, वह सेकेंडरी सोर्स और अनुवाद के माध्यम से विकसित हुई। 
मैनेजर पाण्डेय : हाँ, संभव है। इसमें कोई आश्चर्य की बात मैं नहीं समझता। यह जिसने भी लिखा-पढ़ा या कहा है, वह काफी हद तक सही है। 

अमित कुमार : हिंदी नवजागरण का एक लक्षण यह भी है कि इसमें हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक रूप से दो धड़ों में बँटे दिखाई देते हैं, जिससे नब्बे के बाद के इतिहासकारों जैसे सुधीर चन्द्र, रणजीत गुहा और  वसुधा डालमिया आदि इतिहासकारों ने रेखांकित किया। क्या हिन्दू-मुस्लिम का यह तनाव प्रतिबंधित साहित्य में भी दिखाई देता है?
मैनेजर पाण्डेय : नहीं, देखिये जो हिंदी साहित्य का प्रतिबंधित साहित्य है वह केवल एक बात को ध्यान में रखता है कि अंग्रेजी राज के विरुद्ध जो भी लिखे, चाहे दलित लिखे, चाहे पंडित लिखे सब पर  पाबंदी लगती थी।  इसलिए यह सब नहीं था। हिंदी में भी नहीं था और अन्य भारतीय भाषाओँ में भी कम था। 

अमित कुमार :  आलोचक का एक दायित्व यह है कि समय की कसौटी पर साहित्य का मूल्यांकन करता है। इसके साथ ही वह  साहित्य के इतिहास में उपेक्षित रह गए रचना या रचनाकारों को प्रकाश में लाता है। आपने प्रतिबंधित साहित्य, सम्पत्तिशास्त्र तथा लोकगीतों और गीतों में 1857 आदि पुस्तक को प्रकाश में लाने का काम किया है। इस तरह आपने साहित्येतिहास में हुई उपेक्षा को अपनी आलोचनात्मक चेतना द्वारा उस गैप को भरने का प्रयास किया है। क्या साहित्येतिहास लिखने का विचार आपने मन में कभी आया ?
मैनेजर पाण्डेय : देखो, ऐसा है कि साहित्य का इतिहास लिखना एक बड़ा काम है। मुझे वह फुर्सत नहीं मिली कि मैं वह बड़ा काम करूँ। इसलिए मैंने प्रवृत्तियों को सामने रखा उसपर लेख लिखे, किताबें सम्पादित और  प्रकाशित की। ताकि आगे चलकर कोई साहित्य का इतिहास लिखे तो ठीक है। यही है। मैंने नहीं किया। 

अमित कुमार : कभी मन में था कि साहित्य का इतिहास लिखता?
मैनेजर पाण्डेय : हाँ, जाहिर है, लिखता तो सब आता उसमें।

अमित कुमार : आपको याद होगा कि 2011 में अज्ञेय की जन्मशती पर अशोक वाजपेयी द्वारा आयोजित संगोष्ठी में आपने अज्ञेय को हिन्दी का महत्त्वपूर्ण कवि बताते हुए एक व्याख्यान दिया था, जिसके बाद विवाद पैदा हुआ। वह मसला क्या था?
मैनेजर पाण्डेय : देखिये ऐसा है, अज्ञेय पर मैंने एक लेख लिखा था,  उस लेख के कारण स्वयं मार्क्सवादियों ने मेरी  इतनी निंदा की जिसकी कल्पना आप नहीं कर सकते।  हुआ यह था कि अशोक वाजपेयी ने अज्ञेय की शताब्दी पर संगोष्टी की । अशोक वाजपेयी जी ने मुझसे कहा कि हम अज्ञेय जी पर संगोष्ठी कर रहे हैं। आप को बुलाना चाहते हैं, आप आयेंगे उसमें? तो मैंने कहा कि ‘हाँ जरूर आऊँगा।’ तो बोले कि ‘कुछ बोलेंगे भी कि खाली आयेंगे।’ हमने कहा कि ‘मैं बोलूँगा भी।’ ‘तो बोले कि आइये फिर।’ गया मैं। तो लेख मैंने जो तैयार किया था वह संक्षेप में पढ़ा । जहाँ तक मुझे याद है, वह शीर्षक था  'देश का विभाजन और अज्ञेय का साहित्य'। उसमें मैंने प्रगतिशीलों  की पर्याप्त आलोचना  भी की कि जिस समय देश का विभाजन हो रहा था उस समय हिंदी के सारे बड़े प्रगतिशील कवि   नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह और त्रिलोचन मौजूद थे। तो मैंने कहा कि भई ये लोग दुनिया भर की प्रगतिशीलता की चर्चा करते थे और लिखते थे। पर हिन्दी प्रदेश और हिन्दुस्तान की जो विभाजन सम्बन्धी स्मृतियाँ थी उसपर इन्होनें क्यों नहीं लिखा? उस समय के कवियों में केवल अज्ञेय ने अक्टूबर, 1947 से नवम्बर, 1947 के बीच ‘शरणार्थी’ शीर्षक से 11 कविताएँ लिखी थीं और साथ ही अनेक कहानियाँ भी, जो 1948 में ‘शरणार्थी’ नाम से प्रकाशित हुई। तो मैंने  कहा कि अज्ञेय को इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण मानना चाहिए और इस पर बात करनी चाहिए। अब सारे जो  हमारे तथाकथित मार्क्सवादी मित्र लोग थे वे नाराज हो गए। नाराज होने के पीछे तीन कारण थे – पहला यह कि आप अशोक वाजपेयी के समारोह में गए ही क्यों? दूसरा यह कि गए तो आपने भाषण क्यों दिया? तीसरा यह कि दिया तो अज्ञेय के पक्ष में क्यों दिया? मैंने सोचा कि मौखिक बातचीत से बात बनती नहीं है। फिर मैंने बाद में एक लेख लिखा और सारे कारण बताये। मैंने कहा कि मैं लिखकर दे रहा हूँ मन करे तो आप भी लिखकर जवाब दीजिये। मैंने भी उसे  देखूंगा। किसी ने जवाब-ववाब नहीं दिया तो हमने कहा कि भाई मान लीजिये कि अज्ञेय  आपके चाहने और मेरे न चाहने के बावजूद हिंदी के एक बड़े लेखक हैं। यह बात सब लोग मानते हैं, तो इनका कुछ तो योगदान होगा। मेरी समझ में इनका जो योगदान है वह मैं बता रहा हूँ। आपको नहीं लगता तो इसका खंडन कर दीजिये। तो किसी ने कुछ नहीं कहा जिनको  मुझे गरियाना था तो गाली दे दिया और तसल्ली कर ली। किसी ने कुछ लिखा-विखा नहीं। 

अमित कुमार : 1964 में लिखी ‘अंधेरे में’ कविता में मुक्तिबोध बाल गंगाधर तिलक को इतिहास के एक नायक के रूप में देखते हैं, जबकि यह स्पष्ट है कि बाल गंगाधर तिलक ने वैचारिक तौर पर हिन्दुत्ववादी शक्तियों को खूब सींचा। आजादी के बाद उन्हीं शक्तियों ने मुक्तिबोध की पुस्तक ‘भारत : इतिहास और संस्कृति को बैन करने की माँग की। इस प्रसंग को देखते हुए स्वयं मुक्तिबोध द्वारा तिलक को इतिहास के नायक ने रूप में देखना क्या अन्तर्विरोधपूर्ण नहीं लगता ? 
मैनेजर पाण्डेय : ऐसा है  हिंदी के दो प्रगतिशील ऐसे हैं, जिनसे बड़े प्रगतिशील  मेरी जानकारी में कोई है नहीं। एक तो मुक्तिबोध और दूसरे विष्णुचन्द्र शर्मा। विष्णुचन्द्र शर्मा ने तिलक की एक जीवनी लिखी – स्वराज के मन के मंत्रदाता'। यह शीर्षक  क्यों? क्योंकि  तिलक ने कहा था  'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’  उस जमाने में यह कहना क्रांतिकारी काम था और बहुत बड़ा काम था। तो इसी को शीर्षक बनाकर उन्होंने जीवनी लिखी। मुक्तिबोध की भी आत्मकथा लिखी है विष्णु चन्द्र जी ने ‘मुक्तिबोध की आत्मकथा’ नाम से।  मुक्तिबोध अगर तिलक को अपनी कविता में इतिहास नायक बना भी रहे हैं, तो वे अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों के विरुद्ध  उनकी प्रतिरोधी चेतना के लिए बना रहे हैं। 

अमित कुमार : मुक्तिबोध पर आरोप यह लगता है  कि इतने बड़े प्रगतिशील कवि  होकर भी हिंदी पट्टी में जाति की जो  समस्या थी उस पर उन्होंने एक भी कविता नहीं लिखी । इसे आप  किस प्रकार देखते हैं?
मैनेजर पाण्डेय : उसका कारण वही था, जो मैंने आपको पीछे कहा कि मुक्तिबोध को हिंदी क्षेत्र में जाति की समस्या वैसी भीषण नहीं लगती थी जैसे महाराष्ट्र में थी। उसका कारण यही था। अच्छा देखो, मुक्तिबोध उन लोगों में से थे कि जब तक कि  कोई बात उनको महत्त्वपूर्ण न लगे  तो लोग क्या कहेंगे इस भरोसे पर वे नहीं लिखते थे।

अमित कुमार : यदि हम मुक्तिबोध की रचनावली को देखते हैं तो यह पता चलता है कि मुक्तिबोध ने वैचारिक लेखन में वैश्विक चिंताओं पर सबसे ज्यादा पन्ने खर्च किए हैं, बजाए कि भारतीय समाज में क्या  हो रहा है? 
मैनेजर पाण्डेय : ऐसा है, उस समय सारे कम्युनिस्ट  आन्दोलन की यही बीमारी थी। इसलिए अगर  मुक्तिबोध के यहाँ यह थी तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। 

अमित कुमार : भगत सिंह ने जिन साम्प्रदायिक शक्तियों की विभाजनकारी नीतियों को 1931 ई. के आस-पास समझ लिया था और उन पर लिखा भी, किन्तु मुक्तिबोध  में इस तरह का लेखन कम मिलता है। आप इसे कैसे देखते हैं?
मैनेजर पाण्डेय : ऐसा है, देखो चलते-चलते एक बात कहता हूँ। ये जो भारतीय समाज में  क्रांतिकारी और प्रगतिशील आदि-आदि लोग थे, उन  सबको एक डंडे से हांकना ठीक नहीं है। भगत सिंह के डंडे से तिलक को हांकना ठीक नहीं है, मुक्तिबोध को भी हांकना ठीक नहीं है। देखो हम तो यह मानते हैं और वर्षों से मै यह कहते आ रहा हूँ कि  जिसके यहाँ जो अच्छा है वह लो, और आपके हिसाब से जो अच्छा नहीं है उसे छोड़ दो। उनकी निंदा करने का कोई अर्थ नहीं। बस यही है।
                                                                              
अमित कुमार
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली,
सम्पर्क : amitkr36jnu@gmail.com, 9063277380

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

3 टिप्पणियाँ

  1. उम्दा। अमित जी को बधाई , प्रो गजेंद्र पाठक सर एवं श्री मणिक जी के प्रति आभार। प्रश्न प्रासंगिक थे जवाब ज्ञानवर्धक।

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  2. बेहद महत्त्वपूर्ण अंक के प्रकाशन हेतु संपादक महोदय का आभार

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  3. शानदार साक्षात्कार है। अमित जी को अच्छे प्रश्न पूछने के लिए बधाई और उनका उत्कृष्ठ जवाब देने के लिए सर का आभार।

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