शोध आलेख : इतिहास में दर्ज भारतीय समाज का यथार्थ और उसका विरोधाभास : एक सामाजिक विश्लेषण / घनश्याम कुशवाहा

इतिहास में दर्ज भारतीय समाज का यथार्थ और उसका विरोधाभास : एक सामाजिक विश्लेषण 
- घनश्याम कुशवाहा 

शोध सार : वर्तमान में भारतीय इतिहास के अमृत महोत्सव का समय चल रहा है। यह समय हमें अपने अतीत के गौरवशाली इतिहास को याद करते हुए उसके आदर्शों को सँजोने और उसे अपने मूल्यों में समाहित करने का अवसर देता है। भारत के इतिहास में ऐसे तमाम अवसर आये जब उसे अपने आंतरिक सामाजिक विरोधों से जूझना पड़ा है। चाहे हम ब्रिटिश उपनिवेश के पहले की स्थिति पर नज़र डालें, चाहे ब्रिटिश उपनिवेश की ही बात करें, ऐसे बहुत से नायक हुए जिन्होंने देश की आज़ादी में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, बावजूद इसके वे नेपथ्य में चले गए। उनके योगदान को या तो भुला दिया गया या फिर उन्हें इतिहास के पन्नों में जगह नहीं मिली। इतिहास में ऐसे अनगिनत अवसर आये जब हमें अंग्रेजी हुकूमत के साथ-साथ अपने ही  लोगों से टकराना पड़ा। यह लेख भारतीय इतिहास में दर्ज समाज के यथार्थ और उसके विरोधाभास का सामाजिक चित्रण करता है।

बीज शब्द : भारतीय समाज, इतिहास, ब्रिटिश काल, विरोधाभास, स्वतंत्रता, जमींदार, किसान विद्रोह, पत्रकारिता।

मूल आलेख : प्रत्येक समाज की अपनी एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति होती है। जिसके माध्यम से वह अपने यथार्थ को व्यक्त करता है। समाज में संघर्ष और सहयोग की प्रक्रिया साथ-साथ चलती रहती है। इसी प्रक्रिया से गुजरकर सभी समाज अपने भविष्य का मुकाम तय करते हैं। प्रत्येक समाज अपने अतीत से सीख लेकर उसके बेहतर निर्माण हेतु सतत् प्रयत्नशील रहता है। भारतीय समाज भी उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है। हम अपने अतीत की भारतीय सामाजिक संरचना का अध्ययन करें तो पाते हैं कि भारत में विविधता न केवल उसके सामाजिक, धार्मिक, नृजातीय, भाषायी आधार पर है बल्कि यह विविधता उसकी अभिव्यक्ति में भी सन्निहित है जो उसे विश्व में एक अनूठे समाज के रूप में प्रदर्शित करती है। इतिहास के पन्नों पर नज़र डालें तो एक बार पुनः उसे उसके सामाजिक परिवेश में विश्लेषण करने की जिज्ञासा जाग उठती है जिसमें ऐसी ऐतिहासिक घटनाएँ घटित हुईं। उन घटनाओं को लिखा तो गया लेकिन उनका यथार्थ रूप इन पन्नों से गायब कर दिया। उन्हें या तो महत्वहीन करार दिया गया या फिर उनके योगदान को प्रतिबंधित कर दिया गया या फिर सरकार की नजरों में उन्हें मुल्जिम ठहरा दिया गया। साहित्य के क्षेत्र में ऐसे अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं जो सहज समाज की अभिव्यक्ति होते हुए भी समाज विरोधी करार दे दिये गये।

    सन् 1909 में प्रकाशित मोहनदास करमचंद गांधी के हिंद स्वराज या इंडियन होम रूल के गुजराती अनुवाद को भारत में इसके प्रकाशन पर ब्रिटिश अधिकारियों ने प्रतिबंधित कर दिया था।  कोई भी साहित्य जब व्यवस्था के विरोध में हो जाता है तो उसे सीमित या प्रतिबन्धित कर दिया जाता है। इस पुस्तक में ब्रिटिश सरकार की नीतियों और दमन के खिलाफ आवाज़ दर्ज है। 1909 में दक्षिण अफ्रीका से लौटते हुए जहाज पर हिन्दुस्तानियों के हिंसावादी पंथ को और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिए गए जवाब के रूप में यह पुस्तक लिखी गई थी। भारत ब्रिटिश सरकार की गिरफ्त में था और उनके मनमाने अत्याचार के खिलाफ़ भारत के तमाम क्रांतिकारियों ने अपनी जान की बाजी लगा दी। एक तरफ अपने ही देश के लोग अंग्रेजों से आज़ादी के लिए लड़ रहे थे तो दूसरी तरफ समाज का एक तथाकथित वर्ग अंग्रेजों का साथ देकर क्रांतिकारियों के मनोबल को तोड़ने का प्रयास कर रहा था। भारत का किसान तथा मजदूर एक साथ कई लड़ाईयाँ लड़ रहा था।

    सुभाष चन्द्र कुशवाहा लिखते हैं, “चौरी-चौरा की धरती ज़मींदारों के जुल्म से आक्रांत थी। चौरी-चौरा क्षेत्र में जंगल, उपजाऊ जमीन, गन्ने की प्रचुर पैदावार, अरहर की बड़ी दाल मंडी और रेल आवागमन की सुविधा से भोपा, चौरा और मुंडेरा जैसे विकसित बाज़ारों की अर्थव्यवस्था, ज़मींदारो के अनुकूल थी। ज़मींदारों को हर हाल में लगान और कर चाहिए था। ज़मींदारों के ज़ुल्म से आजिज़ किसान पहले से विद्रोह पर उतारू थे। पुलिस की भूमिका ज़मींदारों के हितों का संरक्षण करना तथा उभरते स्वर को दबाना मात्र था। ऐसे में चौरी-चौरा किसान विद्रोह, गरीबों के जीवन-मरण के प्रश्न और अन्य किसी विकल्प के अभाव में घटित हुआ था।”  भारतीय समाज एक ऐसे दौर से गुजर रहा था जब अंग्रेजों के शोषण और अत्याचार से देश की जनता पीड़ित थी, किसान लाचार था और जमींदार अंग्रेजों की खुशामद में अपने ही देश के लोगों पर ज़ुल्म ढा रहे थे। यह विडंबना ही कही जा सकती है कि ‘लम्बे समय तक चौरी-चौरा विद्रोहियों को गुंडे, गँवार, जाहिल या चोर-उचक्के जैसी उपमाओं से नवाज़ा जाता रहा।’  समाजशास्त्र की भाषा में इसे ‘स्टिग्मा थ्योरी’ कहा जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार “उन लोगों को कलंकित करना जिन्हें समूह के अस्तित्व में योगदान करने में असमर्थ माना जाता था या जिन्हें इसकी भलाई के लिए खतरों के रूप में देखा जाता था, उन्हें मजबूर करने या अलग-थलग होने का औचित्य साबित करने के लिए कलंकित और बहिष्कृत किया गया था।” 

    भारतीय समाज का यथार्थ भी इससे अलग नहीं है। भारतीय समाज में जाति एक कड़वी सच्चाई है जिसने मनुष्य को उच्च और निम्न वर्ग में विभाजित किया है। स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में चौरी-चौरा जैसे साहसिक कृत्य दलितों के शौर्य की गाथा को दर्शाते हैं। उनके अनुसार इतिहास को सबाल्टर्न दृष्टिकोण से भी देखने की जरुरत है। यह संभव ही नहीं है कि समाज का निचला तबका अपने देश के प्रति कर्तव्य और वफ़ादारी का निर्वहन करने में पीछे रहा हो। इसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह एक श्रमण संस्कृति को जीने वाला अनपढ़ या लेखनी से दूर रहा। “संभव है कि उनके गौरवमय इतिहास को ओझल करने के कुचक्र में ही चौरी-चौरा विद्रोह को ‘गुंडों का कृत्य’ कहा गया हो। यहाँ के प्रभावशाली जमींदार, जो चौरी-चौरा विद्रोह के नायकों को चुन-चुन कर गिरफ्तार कराने, अपने और अपने कारिंदों से झूठी गवाही दिलाकर उन्हें सजा दिलाने की भूमिका में थे, उन्होंने दलितों की कार्यवाही को ‘अपराधियों का कृत्य’ कह प्रचारित किया।...किसानों की इस कार्यवाही ने केवल ब्रिटिश सत्ता को चुनौती ही नहीं दी थी, बल्कि आसपास के बीसियों ज़मींदारों के नेतृत्व को नकारते हुए, उन्हें भी चुनौती दी थी।” किसानों का यह विद्रोह उनके स्वयं के आर्थिक शोषण के विरुद्ध था जिसका नेतृत्व किसानों के ही हाथ में था।

    इस आन्दोलन में मुख्य रूप से हिस्सा लेने वाली जातियाँ डुमरी खुर्द और चौरा गाँव की थीं। पूर्वांचल, पूर्वी उत्तर-प्रदेश का एक पितृसत्तात्मक समाज रहा है। शुद्धता-अशुद्धता तथा उच्चता-निम्नता के क्रम पर आधारित जाति-व्यवस्था के परम्परागत ढाँचे इसके पोषण के मूलभूत आधार रहे हैं। “चाहे वे दलित जातियाँ हों या मुसलमान, पूर्वांचल के सामंती समाज में दोनों को अस्पृश्य ही समझा जाता था।” एक तरफ भारत, ब्रिटिश सत्ता से अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था तो दूसरी तरफ़ समाज में व्याप्त छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियों से भी जूझ रहा था। भारत एक साथ कई जंग लड़ रहा था। सामाजिक पदक्रम में विभाजित जातियों का विन्यासीकरण उनकी सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण करती है। ज़मींदारों की सामाजिक स्थिति उच्च होने के कारण उनके प्रति समाज का रवैया सम्मानजनक रहा तथा दलितों की निम्न सामाजिक स्थिति उनकी उपेक्षा का एक बहुत बड़ा कारण रहा। “...जिस काल में पंजाब, बंगाल और यहाँ तक कि अवध क्षेत्र क्रांतिकारी पहलकदमियाँ ले रहा था, गोरखपुर के आसपास के सैकड़ों जमींदार, राष्ट्रीय आन्दोलन को हिन्दू आन्दोलन में बदलने की पूरी कोशिश में लगे थे। वे हिन्दू-मुसलमानों को बाँटने में लगे थे।” 

    भारत में ब्रिटिश सत्ता ज़मींदारों के सहारे ही टिकी हुई थी। ज़मींदारों का उदय किसानों और गरीबों के शोषण तथा उत्पीड़न पर आधारित था। इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पाते हैं कि मध्यकाल में भी हिन्दू और इस्लाम धर्म के बीच सामाजिक-धार्मिक सद्भाव बना रहा। सभी धर्मों के प्रति आदर-सम्मान का भाव बना रहा। राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, “अकबर ने गो-हत्या बिल्कुल बंद कर दी थी और इस अपराध की सजा मृत्यु नियत की।”  वे पुनः लिखते हैं, “अकबर ने हिजरी 666 (1560-61) में आगरे में दो आलीशान महल बनवाये जिनमें एक का नाम था खैरपुरा और दूसरे का धर्मपुरा। खैरपुर में मुसलमान फ़कीरों के लिए ठहरने और खान-पान का इंतजाम था, धर्मपुरा में हिन्दू साधु ठहरते थे। साधुओं की संख्या बढ़ जाने पर जोगीपुरा नाम से एक और महल बनवाया गया। अकबर कुछ खिदमतगारों के साथ रात को स्वयं वहाँ सत्संग करने जाता और योग की बातें सीखता।” यहाँ इस सन्दर्भ को लाने का आशय यह है कि भारत के बाहर से आये मुस्लिम शासक भी अपनी प्रजा के हित का ख्याल रखते थे। वे एक शासक की तरह शासन करते। सभी धर्मों के प्रति समान सद्भाव और समान दृष्टिकोण रखते। “अकबर हिन्दुओं के बुरे रीति-रिवाजों को हटाने में भी आनाकानी नहीं करता था। उसने सती होने की मनाही कर दी। हिन्दुओं के आग्रह करने पर अकबर ने कहा- अच्छी बात है, लेकिन जैसे विधवा सती होती है, वैसे ही स्त्री के मरने पर पुरुष को भी सतता होना चाहिए। और कहने पर कहा- विधुर सतता न हो लेकिन यह जरुर इकरार करे कि वह फिर ब्याह नहीं करेगा।” इस कुरीति के खिलाफ़ अकबर ने मुखर होकर आवाज़ उठायी।

    हिन्दू-इस्लाम एकता के प्रतीक के रूप में गाजीपुर का गंगौली गाँव अपनी एक अलग मिसाल रखता है। देश-दुनिया की राजनीति से परे इस गाँव में रहने वालों को तो बस अपनी गँवईयत ही पसंद है। राही मासूम रजा अपने उपन्यास ‘आधा गाँव’ में लिखते हैं कि गंगौली गाँव में मुसलमानों की संख्या अधिक है लेकिन इस गाँव में रहने वाले मुसलमानों तथा हिन्दुओं में सांप्रदायिक विद्वेष की भावना नहीं थी। गंगौली गाँव में जमींदारी प्रथा विद्यमान थी। वे लिखते हैं, “जब तक मियाँ लोग सिर्फ़ यह सुनते रहे कि जमींदारियाँ ख़त्म होने वाली है उस वक्त तक हँसते रहे, इस किस्म की बातें करने वाले का मजाक उड़ाते रहे कि जमींदारी कैसे ख़त्म हो सकती है। यह बात समझ में आनेवाली भी नहीं थी। गाँव के बूढ़े किसानों को भी यह यकीन नहीं था कि जमींदारी ख़त्म हो सकती है। परुसराम की बातें सुनकर वह खुश होते, पर उनके दिलों में बैठा हुआ सदियों का डर उन्हें टोक देता। ज़मींदारी मजहब की तरह मजबूत थी। शख्सियत उसके चुंगल में थी। उनका जी चाहता कि ज़मींदारी खत्म हो जाये कि वह अपनी ज़मीन के मालिक बन जायें, मगर उनमें यह आरजू करने का हौसला नहीं था, इसलिए जब एक रात को बारह बजे डुग्गी बजी और ऐलान हो गया कि जमींदारियाँ ख़त्म हो गयीं तो इस बात को ज़मींदारों की तरह बूढ़े किसानों ने भी तस्लीम नहीं किया।”

    यहाँ इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि भले ही गंगौली गाँव की सामाजिक-धार्मिक संरचना में आपसी सौहार्द और भाईचारा व्याप्त था लेकिन ज़मींदारी प्रथा अपने मूल चारित्रिक वेश में थी। किसान तथा मजदूर इस सामंती प्रथा से दु:खी और परेशान थे। वे इस प्रथा से मुक्ति चाहते थे। ज़मींदारी प्रथा को अंग्रेजी सत्ता का संरक्षण तथा किसानों से कर वसूल करने का अनैतिक लाइसेंस प्राप्त था। “अंग्रेजों से कहीं ज्यादा बेरहमी से पेश आने वाले हिंसक ज़मींदारों की हिंसा के विरुद्ध, अहिंसा के पुजारियों ने कोई आवाज़ नहीं उठाई, उलटे उनको संरक्षण प्रदान किया… यथार्थ हमारे सामने है और चौरी चौरा के हिंसक विद्रोह को ‘गुंडों का कृत्य’ बताने वाले अहिंसा के पुजारी भी 1942 तक आते-आते ‘करो या मरो’ तक जा पहुँचते हैं तो सिर्फ़ इसलिए कि औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ने के लिए बलिदान की जरुरत थी।” 

    इन्द्रनारायण द्विवेदी ने अपने एक लेख में किसानों की समस्याओं को उठाते हुए स्पष्ट किया है कि “'संयुक्त प्रान्त किसान सभा’ का अवध के गरीब किसानों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। इस सभा ने कोई किसान आन्दोलन विकसित भी नहीं होने दिया।” सुभाष चन्द्र कुशवाहा अपनी पुस्तक ‘अवध का किसान विद्रोह’ में लिखते हैं, “किसान विद्रोह के सम्बन्ध में गान्धीजी की भूमिका पूरी तरह संदिग्ध रही, क्योंकि जब बाबा रामचन्द्र गिरफ्तार किये गए तब वहाँ गान्धी मौजूद थे लेकिन उन्होंने गिरफ़्तारी का विरोध नहीं किया। गान्धीजी ने लगातार अवध किसान आन्दोलन के सीधे संपर्क में आने से खुद को बचाया था जबकि वे 1920-21 में इस क्षेत्र के दौरे पर रहे।”  वे लिखते हैं, “गान्धीजी लगान या जमींदारों को दी जाने वाली सेवाओं को रोकने के पक्ष में नहीं थे। वह ज़मींदारों को असहयोग आन्दोलन का मुख्य आधार स्तम्भ मानते थे। वह चाहते थे कि किसान, नेहरू की राय मानें। सभी सरकारी आदेशों को मानें। किसान नेताओं को गिरफ्तार किये जाने पर पुलिस कार्य में व्यवधान न डालें।” किसानों के बढ़ते क्रांतिकारी रुख से कांग्रेस परेशान थी। किसान मुख्यतः आर्थिक समस्याओं से टकरा रहा था। किसानों के ऊपर ज़मींदारों का अनावश्यक रूप से बढ़ते कर का बोझ उन्हें आंदोलित होने को विवश कर रहा था।

    असहयोग आन्दोलन की अनुगूँज के बावजूद भी किसान आन्दोलन उससे अलग था। जवाहरलाल नेहरू ने भी इस बात को स्वीकारा था। उन्होंने लिखा है, “असहयोग तथा किसान आन्दोलन, दोनों अलग-अलग थे। यद्यपि दोनों ने एक-दूसरे पर बड़ा प्रभाव डाला था।” जमींदारों तथा भूस्वामियों ने अंग्रेजी सरकार को इस बात के लिए राजी कर लिया था कि किसान आन्दोलन राजनैतिक मकसद के लिए किया जा रहा है और उसकी समाप्ति के लिए इसके समानांतर कोई संगठन खड़ा करना होगा। इसी योजना के तहत उसने ‘हितकारी सभा’ का गठन किया तथा उसके असफल होने पर ‘अमन सभा’ का गठन किया। देखा जाये तो स्वतंत्रता का पूरा इतिहास ज़मींदारों की गद्दारियों से भरा पड़ा था। एक तरफ़ गान्धी ने उन्हें कांग्रेस का आधार स्तंभ बताया था और सदा उनको साथ लेकर अपना आन्दोलन चलाया। गान्धी का विश्वास था कि जमींदारों का हृदय परिवर्तन कर वे उन्हें राष्ट्र सेवा में लगायेंगे लेकिन सत्ता सुख और भोग की लालसा लिए ज़मींदारों के जिस वर्ग चरित्र का निर्माण ब्रिटिश शासन में हुआ था उनसे यह उम्मीद करना बेमानी था। उस समय के लगभग सभी अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं ने चौरी-चौरा आन्दोलन की निंदा की। “गोरखपुर का ‘स्वदेश’ जिसका प्रकाशन इस घटना के समय स्थगित था, पुनः प्रकाशित होने पर प्रथम अंक में ही ‘चौरी चौरा की दुर्घटना’ शीर्षक सम्पादकीय में इस हिंसक घटना की निंदा की और घटना पर प्रायश्चित व्यक्त करते हुए लिखा, गोरखपुर वास्तव में अपने कुकृत्य के लिए बहुत लज्जित है। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का मूल स्वर विभिन्न प्रकार के लोगों को स्वतंत्रता संग्राम के प्रति उत्प्रेरित कर उनमें राष्ट्रीयता की भावना का संचार करता था। उनकी प्रेरणा हमेशा ध्वंसात्मक नहीं, रचनात्मक रही।” 

    इस घटना पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और अख़बारों की लेखनी पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि स्वतंत्रता-आन्दोलन के आरंभिक दौर की हिंदी पत्रकारिता गान्धी से प्रभावित रही है। इन पत्र-पत्रिकाओं ने देश के लोगों में देशप्रेम की भावना जगाने का काम किया और आज़ादी के प्रति जन जागरूकता में भी महती भूमिका निभाई। पत्रिकाएँ ब्रिटिश सरकार की आँखों की किरकिरी बनी रहीं और समय-समय पर उन्हें सरकार के दमन का सामना भी करना पड़ा। “सन 1923 की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार आपत्तिजनक लेखों के प्रकाशन के सन्दर्भ में इस वर्ष के प्रतिबंधित पत्र ‘स्वदेश’ एवं ‘वर्तमान’ दोनों को चेतावनी दी गई। यह दौर जहाँ संवैधानिक आन्दोलनकारियों के राजनीतिक उत्कर्ष का समय था, वहीँ राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय पत्रकारिता के विकास का भी उत्कर्ष काल था।”  असहयोग आन्दोलन के पश्चात् सक्रिय हुई देशव्यापी क्रान्तिकारी गतिविधियों को उत्तेजना और सक्रियता वस्तुतः हिंदी पत्र-पत्रिकाओं से ही प्राप्त हुई। अपनी ओजपूर्ण लेखनी से इन पत्र-पत्रिकाओं ने क्रान्तिकारी आन्दोलन को जन आन्दोलन से जोड़ने तथा युवा वर्ग को आज़ादी की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने को प्रेरित किया। इस दौर में हिंदी पत्र-पत्रिकाओं ने किसानों पर सरकारी अधिकारियों एवं जमींदारों के अत्याचारों के प्रति रोष व्यक्त किया और उनके कृत्यों की निंदा की तथा किसानों को संघर्ष के लिए उत्प्रेरित किया। साम्प्रदायिकता का विरोध किया, अखण्ड भारत की स्थापना पर ज़ोर दिया तथा साथ ही अपने राष्ट्रीय कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों के प्रति जागरूकता का परिचय दिया।

निष्कर्ष : अपनी तमाम विविधता और विषमता को समेटे भारतीय समाज अपने बाह्य और आंतरिक कमजोरियों से संघर्ष करता हुआ आज इस मुकाम पर पहुँचा है। यह संघर्ष निरंतर जारी है। इतिहास प्रत्येक समय की गवाही देता है और उसका एक तटस्थ मूल्यांकन करता है। विदेशी सत्ता से आज़ादी की लड़ाई लड़ना तथा अपनी आंतरिक कमजोरियों से जूझना अपने ही लोगों से, इसके विरोधाभास को दर्शाता है। एक तरफ देश की आज़ादी के लिए किसान, मजदूर तथा भारत के मतवाले, अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे तो दूसरी तरफ़ वे अपने ही लोगों के द्वारा किये जा रहे शोषण, अत्याचार और अन्याय को झेल रहे थे। राजनीतिक  प्राप्ति की लालसा लिए आन्दोलनरत राष्ट्रीय पार्टियाँ भी साम्प्रदायिकता का अपना स्वाभाविक खेल, खेल रही थीं। देश की सामाजिक-धार्मिक सद्भाव को भी बनाये रखना आवश्यक था। कहा जाये तो भारत एक साथ कितने ही संघर्ष को झेल रहा था। यही भारतीय समाज का यथार्थ रहा है। अतः यह कहा जा सकता है कि भारत का विरोधाभास ही भारत का यथार्थ है।

सन्दर्भ : 
1.अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा, ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर इन इंग्लिश। सी. हर्स्ट एंड कंपनी पब्लिशर्स, 2003. (पृ.139).
2.सुभाष चन्द्र कुशवाहा, चौरी-चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन, पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2014, (पृ.xii-xiii).
3.वही पृ. Xiii
4.इनसाइक्लोपीडिया.कॉम 
5.सुभाष चन्द्र कुशवाहा, चौरी-चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन, पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2014, (पृ.90.)
6.वही पृ. 90.
7.वही पृ. 91.
8.अकबर, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, 1957 पृ. 271.
9.वही पृ. 272
10.वही पृ. 252
11.आधा गाँव, राही मासूम रजा, राजकमल पेपरबैक्स, 1984, पृ. 292.
12.सुभाष चन्द्र कुशवाहा, चौरी-चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन, पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2014, पृ. 289-290.
13.अभ्युदय, 13, 20, 27 अगस्त और 3 सितम्बर, 2021.
14.फाइल नं.1/फरवरी, 192, होम डिपार्टमेंट, पोलिटिकल ब्रांच, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली.
15.अवध का किसान विद्रोह, सुभाष चन्द्र कुशवाहा,राजकमल पेपरबैक्स, 2018, पृ. 84.
16.वही पृ. 86.
17.‘अंग्रेजी राज और प्रतबंधित हिंदी पत्रिका’ डॉ. संतोष भदौरिया, स्वराज संसथान संचालनालय, संस्कृति विभाग, मध्य प्रदेश. 2001. पृ.112.
18.वही पृ. 113.

घनश्याम कुशवाहा 
सहायक प्रोफेसर, समाजशास्त्र
पंडित दीनदयाल उपाध्याय पीजी गर्ल्स कॉलेज सेवापुरी, वाराणसी  

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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