आलेख : हिन्दी का प्रतिबंधित साहित्य और साहित्य का इतिहास / मैनेजर पाण्डेय

हिन्दी का प्रतिबंधित साहित्य और साहित्य का इतिहास
- मैनेजर पाण्डेय

    
यह जो प्रतिबंधित साहित्य है, वह कई तरह से हिन्दी में उपेक्षित रहा है। सारी दुनिया में ऐसा नहीं होता, पर हम  हिन्दी की बात करें तो इतिहास और साहित्य दोनों में प्रतिबंधित साहित्य की न ठीक से पहचान हुई है और न लेखकों को उचित सम्मान मिला है। जैसे एक उदाहरण दूँ मैं, हिन्दी के बहुत तेजस्वी लेखक थे पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'। उग्र जी की चार किताबों पर पाबंदी लगी। हिन्दी में किसी लेखक की, महान प्रेमचंद से लेकर किसी और की चार किताबों पर पाबंदी नहीं लगी। यही नहीं, उग्र जी चूँकि स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े हुए थे तो नौ महीना जेल की सख़्त सजा काटकर बाहर निकले। इसलिए सरकार की चिंता उनको एकदम नहीं थी। वो जानते थे कि सरकार
 इससे ज्यादा मेरा क्या कर सकती है। नौ महीना एक बार होकर आए हैं, नौ महीना एक बार और होकर आ जाएँगे। उग्र जी मेरे अनुसार सबसे उग्र साम्राज्यवाद विरोधी लेखक थे। उग्र ने पहली जो किताब लिखी 1924 में और छपी वो लाल क्रांति के पंजे में। यह किताब रूस की बोल्शेविक  क्रांति पर है। ‘लाल क्रांति के पंजे में’ मने ज़ार और उसकी सत्ता। ज़ार और उसकी सत्ता के समर्थक सारे यूरोपीय देश जिसमें ब्रिटेन एक था क्योंकि ज़ार की शादी हुई थी ब्रिटेन में। तो इसलिए उन्होंने इस पर नाटक लिखा। जिन बातों को बहुत सारे लोग नहीं जानते हैं, वो सब उसमें है। किसी की दिलचस्पी हो रूस का क्रांतिकारी इतिहास जानने की तो उसको उग्र जी की वह किताब पढ़नी चाहिए। चार किताबों में एक तो यही है। इस नाटक के छपने के कारण उस पत्रिका पर भी पाबंदी लगी। इसके अलावा सबसे अंत में उन्होंने अपनी कहानियों का संग्रह तैयार किया जिसका नाम था ‘क्रांतिकारी कहानी’। उस पर भी पाबंदी लगी। देखिए, अंग्रेजी राज यद्यपि इस देश में लोकतंत्र ले आने का दावा करता था, पर लोकतंत्र विरोधी सारे काम करता था। मतलब भारतीयों के लिए अभिव्यक्ति की आजादी नहीं थी। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ये था कि वो अपने मन के हिसाब से विषय चुनकर उस पर लिखते। पर वो सुरक्षित नहीं थे। अब जैसे मान लीजिए कि कोई भारी क्रांतिकारी काम प्रेमचंद ने नहीं किया था सोज़े वतन लिखकर। सोज़े वतन में देशभक्ति से संबंधित कहानियाँ... तो अब देशभक्ति भी अंग्रेजों के लिए अपराध था। यही नहीं, उसी देशभक्ति के साथ जो... जिस किताब का उल्लेख किया एक सज्जन ने ‘पराधीनों की विजय यात्रा’। पराधीनों की विजय यात्रा का मतलब है 36 देशों के 36 स्वाधीनता आंदोलनों और संघर्षों में विजय की कहानी, जिसमें एक देश स्वयं इंग्लैंड भी था। वो भी कभी पराधीन था। उस पर भी पाबंदी लगी। तो मतलब आजादी भी अपराध। यही नहीं 1857 के पक्ष में कुछ भी लिखना अपराध हो गया। कम से कम पच्चीस किताबें ऐसी हैं जिसमें से तीन किताबें तो भगत सिंह के संगठन ने छापी थी, जिस पर पाबंदी लगी। यही नहीं उस समय साम्यवाद, समाजवाद आदि के पक्ष में लिखना भी अपराध था। उस पर जिसने भी लिखा, मेरे पास असंख्य सूचनाएँ हैं, किताबें हैं, मैं सब आपसे नहीं कह सकता, बस कुछ उदाहरण देता हुआ चल रहा हूँ। समाज में जो है सो है, पर वो किताब में नहीं आना चाहिए। यही नहीं बहुत पहले सुंदर लाल ने एक किताब लिखी ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’। ये किताब दो खंडो में है। आप सोचिए कि क्या स्थिति थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस किताब की पाबंदी के खिलाफ़ मुकदमा चला। उसमें जो किताब पर बोलने वाले वकील थे सरतेज बहादुर सप्रू, उन्होंने कहा कि 'इस किताब में एक बात, एक घटना भी झूठी नहीं है', तो इस पर सरकारी वकील ने कहा वो सुन लीजिए, 'जब सब बातें सच हैं तो किताब अधिक ख़तरनाक है'।  मतलब सच से भी डरती थी ब्रिटिश सरकार। इसलिए ये योजना जो प्रतिबंधित साहित्य की है इसको ठीक से चलाया जाए और व्यवस्थित काम किया जाए तो साहित्य के इतिहास का भी सुधार हो। मतलब हिन्दी में साहित्य के जितने इतिहास लिखे गए, वह तो मेरा विषय ही है। एक किताब लिखी है मैंने, साहित्य और इतिहास दृष्टि, इसीलिए ये कह रहा हूँ। रामचंद्र शुक्ल से लेकर रामस्वरूप चतुर्वेदी तक जो इतिहास है उसमें किसी एक प्रतिबंधित किताब का उल्लेख नहीं। ये तो हिन्दी के बड़े लोग हैं। लेकिन क्यों बड़े हैं ये कुछ वो जानते हैं जो उनकी बड़ाई के गीत गाते हैं। बड़ाई के और बड़े कारण हैं रामचंद्र शुक्ल के, लेकिन प्रतिबंधित साहित्य का कोई उल्लेख नहीं। यही नहीं एक और चीज़ देखिए। हिन्दी साहित्य के इतिहासों में, अनेक इतिहासों में एक राष्ट्रीय काव्य धारा है जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी और ऐसे लोगों का नाम आता है। वो ऐसी कविताएँ लिखते थे जिससे लोक भी सुधरता था और परलोक भी, माने लोक इसलिए कि बड़ा नाम होता था कि राष्ट्रीय कवि हैं और परलोक इसलिए कि उससे पर्याप्त आमदनी भी होती थी। इसके ठीक विपरीत जो सचमुच राष्ट्रीय कवि थे, उनकी किताबें प्रतिबंधित हुईं और कई बार जेल यात्रा जिनको करनी पड़ी तो वो कहीं राष्ट्रीय काव्य धारा में नहीं आए। कौन-सी राष्ट्रीय काव्य धारा जी? राष्ट्र के लिए जो लोग बलिदान कर रहे थे उनके बदले जो राष्ट्र के गीत गाना थोड़ी है। देश गुलाम है और उस गुलामी के विरुद्ध अगर चेतना जगाने का काम आप नहीं करते, अपनी कविता में, कहानी में, उपन्यास में, नाटक में। मेरे सामने रखा हुआ है सात नाटकों का एक संग्रह। यह जयदेव तनेजा ने संपादित किया है। उसका नाम है, ‘सितम की इंतिहा’। ये नाटक भारत के गिरमिटिया मजदूरों से लेकर सारे लोगों पर लिखे गए। अब उनके बारे में आप बात नहीं करेंगे। आप बात करेंगे चंद्रगुप्त मौर्य के बारे में, जैसे हमारे आदरणीय प्रसाद जी करते थे ध्रुवस्वामिनी के बारे में। आप बात करेंगे चाणक्य के बारे में, बहुत सारे लिखे गए हैं। ये तो सुरक्षित है, न सरकार इसके खिलाफ़ कुछ कहेगी, न लोग ही। ये भी लोक, परलोक दोनों सुधारने का मामला है। इसलिए अब जैसे हिन्दी में साम्राज्यवाद विरोधी विचारक और आलोक के रूप में हमारे आदरणीय स्व. रामविलास शर्मा थे। रामविलास शर्मा ने बाकी सब चीजों की उग्र नीतियों की चर्चा की, पर साम्राज्यवाद विरोध की एक चर्चा नहीं की कि चार रचनाएँ उनकी प्रतिबंधित हुईं। ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित किया, ये रामविलास शर्मा के लेखन में कहीं नहीं। बल्कि रामविलास शर्मा उग्र के प्रसंग में, उसी दृष्टिकोण के लगभग हैं जिस दृष्टिकोण के बनारसीदास चतुर्वेदी हैं। बनारसीदास चतुर्वेदी स्वाधीनता आन्दोलन से थोड़े जुड़े हुए थे। गांधी जी के बहुत करीब थे। तो जो यथार्थवादी कहानियाँ लिखीं उग्र ने, अच्छा अपने यहाँ एक प्रवृत्ति है मित्रो, शालीनता की रेशमी चादर से ढककर अश्लीलता को छिपाना ही संस्कृति है। सच का सामना नहीं करेंगे। सच को रेशमी आवरण से ढककर छुपाये रखेंगे। कुछ लेखक ऐसे होते हैं जो साहस के साथ सच बोलते हैं और सच लिखते हैं। उग्र जी उन्हीं लोगों में से एक थे। तो बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘चॉकलेट’ नामक जो संग्रह था उग्र जी का, उसके खिलाफ़ गांधी जी को एक चिट्ठी लिखी और कहा कि ये आदमी स्वाधीनता आन्दोलन से भी जुड़ा है, साहित्य भी लिखता है लेकिन जो साहित्य लिखता है वो घासलेटी साहित्य है। बहुत दिनों तक मुझे घासलेटी का अर्थ समझ में नहीं आता था। मैं समझता था कि घास पर लेटकर जो पढ़ा जाए वो घासलेटी है। इधर जब मैं आया तो मालूम होगा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मिट्टी के तेल को घासलेट कहा जाता है। माने जिस साहित्य से बदबू आए, बनारसीदास चतुर्वेदी को बदबू आती थी। पर मैं एक और निवेदन करना चाहता हूंँ। कई बार छोटी-बड़ी घटनाओं से भी व्यक्ति का चरित्र सामने आता है। गांधी जी को जब उन्होंने लिखकर भेजा कि ये स्वाधीनता आन्दोलन से भी जुड़े हैं, आप इनके साहित्य की आलोचना कीजिए, और बनारसीदास चतुर्वेदी का इरादा ये था कि उनको बदनाम करें, पर गांधी ईमानदार थे। गांधी ने पहले तो उनके कहने पर कि ये सब है उनके साहित्य में, उसमें गंदगी है तो एक टिप्पणी लिखकर भेज दिया अपने प्रेस में छपने के लिए। फिर बाद में गांधी जी को लगा कि जो किताब मैंने पढ़ी ही नहीं है उसके बारे में राय क्यों दे रहा हूँ। तो गांधी जी ने अपने प्रेसवालों से कहा कि अभी छापो मत। किताब मँगवाई, पढ़ा और गांधी जी ने उस किताब की तारीफ़ करते हुए बनारसीदास चतुर्वेदी को चिट्ठी लिखी कि ‘समाज में ये बुराइयाँ हैं, उन्हीं को उन्होंने लिखा है। उन्होंने कहीं ऐसा रस लेकर नहीं लिखा है कि इसका प्रचार-प्रसार अधिक हो बल्कि उस पर हमला किया है इसलिए मैं इसका समर्थन नहीं कर सकता और अपना जो बयान दिया हूँ उसे वापस ले रहा हूँ।’
 
    अब गांधी ने तो ईमानदारी के तहत ये सब किया लेकिन बनारसीदास चतुर्वेदी ने वर्षों तक किसी को ये नहीं बताया कि गांधी जी ने मेरे पत्र के जवाब में क्या लिखा? बनारसीदास चतुर्वेदी के अंतिम दिनों में गांधी जी की जन्म शताब्दी मनाई जा रही थी तब वो पत्र सामने आया, जिसे गांधी जी ने बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा था। इसलिए कई बार सत्य, प्रेम, करुणा के नाम पर भी तमाशे होते हैं। प्रतिबंधित लेखक इसके भी शिकार हुए हैं और ख़ास तौर से पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' जैसे। उग्र ने अपने बारे में, जो उनके साथ घटा है उसे खुलकर लिखते हैं 'अपनी खबर' में जो उनकी आत्मकथा है, फिर दूसरों के बारे में खुलकर क्यों नहीं लिखते। इसलिए प्रतिबंधित साहित्य पर बात न करके हिन्दी में बहुत सारा अँधेरा मौजूद है। व्यक्तियों के चरित्र के बारे में भी अँधेरा है। साहित्य के विविध रूपों के बारे में भी अँधेरा है। इसलिए साहित्य के इतिहास को और अधिक सहज, सरल और सच के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए। जो सच है उसको कहिए। मान लीजिए कि उग्र जी ने ये सब लिखा है तो आप कहिए, हम कहाँ कह रहे हैं कि आप उसकी तारीफ़ कीजिए, आलोचना भी कीजिए, पर जो कहा है, किया है, वो साफ तो सामने आए। अब इसके बदले आप कविता में बोलने लगें कि वो घासलेटी साहित्य है। घासलेटी साहित्य, सुनने में ही समझना मुश्किल है। एक और बात आपसे कहना चाहता हूँ कि ये जो अंग्रेज़ी राज था, सत्य से डरता था। भारत में अंग्रेज़ी राज किताब की पाबंदी के सिलसिले में बाहर आया, जिसके बारे में सरकारी वकील ने कहा कि अगर किताब में सच लिखा है तो वो अधिक ख़तरनाक है। मतलब इतिहास को झूठ का पुलिंदा बनाना ठीक है लेकिन सच लिखना अपराध है। उसी तरह से विचारों के प्रसंग में भी संकीर्णता बहुत थी अंग्रेजी राज में। भगत सिंह के संगठन ने बाद के दिनों में तीन किताबें या दो किताबें बुकलेट के तौर पर निकालीं, उस पर सब पर पाबंदी लगा दी। एक और है, अंग्रेजों का झूठ का प्रचार किया ये इंग्लैंड में भी बाद में सामने आ गया कि भारतीय विद्रोही सैनिकों ने अंग्रेज औरतों के साथ बदतमीजी की। वहाँ की पार्लियामेंट के एक मेंबर थे, जो क्रांतिकारी और विचारक भी थे। मैं इस समय नाम भूल रहा हूँ, याद पड़ने पर बताऊँगा। उन्होंने बयान दिया इंग्लैंड में कि ये सब झूठ है। ऐसा कुछ नहीं है कि भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज़ औरतों के साथ बदतमीजी की या दुर्व्यवहार किया, ये सब अंग्रेजों का फैलाया झूठ था। असल में इसलिए ये प्रचार ज़रूरी था कि 1857 में भारतीय पक्ष के पराजय के बाद जैसा दमन अंग्रेज़ों ने किया वैसा दमन बहुत कम होता है। आप में से किसी की दिलचस्पी हो तो मैंने एक किताब तैयार की है जिसका नाम है ‘गीतों और लोकगीतों में 1857’। 1857 में कौन-कौन सी ज्यादतियाँ अंग्रेजी सरकार ने कीं, उन गीतों को पढ़कर आपको पता लगेगा। गीतों की सुविधा ये है कि गीत मौखिक होते हैं। उस पर पाबंदी कोई लगा नहीं सकता, क्योंकि पाबंदी ज़बान पर नहीं कलम पर और लिखित पर लगती है। इस सब के बारे में लिखने के बदले आलोचक और इतिहासकार सब तारीफ़ करना ही अपना काम समझते हैं। आलोचना में भी, और इतिहास लेखन में भी इसलिए प्रतिबंधित साहित्य पर व्यवस्थित काम हिन्दी में हुआ ही नहीं। बल्कि उससे बेहतर काम तो स्वयं अंग्रेजों ने किया। जेरॉल्ड बैरियर नाम के एक लेखक ने, भारत में जो प्रतिबंधित साहित्य है- उसका इंडेक्स तैयार किया और साथ ही भूमिका में डिटेल दिया है कि कैसे प्रतिबंध लगाने के कानून बने। कानून क्रमशः कड़े से कड़े होते गए। तो सच के प्रति यूरोपीय लोगों में जो ईमानदारी होती है उसी का परिचय जेरॉल्ड बैरियर की ये किताब देती है। आप लोगों में जिनको ऐसे साहित्य में दिलचस्पी हो तथा खोज में लगे हों, उन्हें जेरॉल्ड बैरियर की किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए क्योंकि उसके स्रोत बहुत हैं। मतलब वहाँ के म्युजियम लाइब्रेरी और यहाँ से जो किताबें अंग्रेज उठा ले गए थे और वो वहाँ के अधिकारियों के घरों में रखी हुई हैं, वहाँ से भी जेरॉल्ड बैरियर ने जानकारी इकट्ठा की है। इसको आप पढ़िये। इससे आपकी जानकारी भी बढ़ेगी तथा ज्ञान के प्रति, सच्चाई के प्रति जो ईमानदार कोशिश है, उसका भी प्रमाण आपको मिलेगा। ये जो हिन्दी साहित्य में इतिहास लेखन और आलोचना की पद्धति और परंपरा चली आ रही है, उसमें सच को छुपाने, ढकने की प्रवृत्ति ज्यादा है, सच को खोलकर सामने लाने की प्रवृत्ति बहुत कम। और सच भी क्या, व्यक्तिगत राग-द्वेष मतलब निराला जी से उग्र जी की बनती नहीं थी। रामविलास जी के लगभग सर्वस्व थे निराला। तो इसलिए निराला से उनकी नहीं बनती थी तो उनकी निंदा की। और उनके सारे गुणों को और चेतना की उग्रता को दबा दिया। कहना ठीक नहीं समझा। ये सब इतिहास के लिए अपराध और दोष है। इसलिए संक्षेप में मैं यही कहूँगा कि अब भी हिंदी साहित्य के इतिहास और आलोचना के प्रसंग में प्रतिबंधित साहित्य पर विस्तार से खोज करने, काम करने और विवेचन करने की ज़रूरत है। अभी तो मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि आप लोग इस काम में लगे हैं और लगे रहिए। 

मैनेजर पाण्डेय
( समादृत साहित्यकार )

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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