आलेख : अभ्युदय का भगत सिंह विशेषांक / श्रुति ओझा

अभ्युदय का भगत सिंह विशेषांक 
- श्रुति ओझा 



आज पूरा देश आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है, जिसे आजादी का अमृत महोत्सव नाम दिया गया है। इस महत्वपूर्ण मौके पर देश को आजादी दिलाने के लिए शहीद हुए नेताओं, क्रांतिकारियों के योगदान का स्मरण किया जा रहा है। अंग्रेजों के शोषण और कुत्सित नीतियों सेभारतीय जनता को मुक्त कराने के लिए जिन योद्धाओं ने अपनी जान तक न्यौछावर कर दी,भगत सिंह उन महान क्रांतिकारियों में अग्रणी हैं। भगत सिंह राष्ट्रीय भारतीय आंदोलन के सबसे प्रभावशाली क्रांतिकारी थे। इनकी बहादुरी की बहुत सी कहानियां हम सभी जानते हैं
।भगत सिंह एक क्रांतिकारी तथा बहादुर योद्धा होने के साथ-साथ एक बहुत अच्छे विचारक और राजनीतिज्ञ भी थे। उनका जन्म 28 सितंबर,1907 में लायलपुर के बंगा(जो अब पाकिस्तान) में हुआ था। उन्हें केवल 23 वर्ष की आयु में अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी पर लटका दिया था।1928 में अंग्रेजों के साइमन कमिशन के खिलाफ लाला लाजपत राय के नेतृत्व में जुलूस निकाला गया, जिसमें लाला लाजपत राय को पुलिस ने बुरी तरह से लाठियों से पीटकर घायल कर दिया। इसका बदला लेने के लिए एच. एस. आर. ए के सदस्यों सुखदेव, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद पुलिस अधीक्षक जेम्स स्कॉट की हत्या की योजना बनाई। लाजपत राय की मृत्यु के प्रतिशोध लेने के लिए भगत सिंह ने 17 दिसंबर,1928 को अंग्रेजी अधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी और वहां से भाग गए। उसके कुछ महीनों बाद फिर उन्होंने दिल्ली विधानसभा की असेंबली में बम फेंका और वहां से भागने की बजाय आत्मसमर्पण कर दिया। इन घटनाओं के बाद उन्हें 23 मार्च 1931 को राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी पर लटका दिया गया। उनकी फांसी के बाद भारतीय पत्रकारिता जगत में उनपर केंद्रित बहुत से लेख और विशेषांक छपे, जिनमें से अधिकांश  को अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया। उनमें से एक पत्रिका ‘अभ्युदय’ के प्रतिबंधित विशेषांक पर यहां हम बात करेंगे परंतु पत्रिका पर बात करने से पहले हम संक्षिप्त रूप में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और पत्रकारिता के इतिहास को समझने का प्रयास करेंगे क्योंकि इसे समझे बिना भगत सिंह के बलिदान को ठीक ढंग से रेखांकित नहीं किया जा सकता। 

मानव के विकास के साथ-साथ उसे अपने विचारों को अधिकाधिक मात्रा में संप्रेषित करने के लिए संचार व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती रही है। मौखिक, लिखित दोनों ही रूपों के माध्यम से वह अपने विचारों को संप्रेषित करता आया है। आरंभ में वह सिर्फ मौखिक रूप से ही विचार संप्रेषित करता था, परंतु जैसे-जैसे वह विकसित होता गया उसने अभिव्यक्ति के लिए संचार का लिखित रूप भी अपनाया। पत्र-पत्रिकाएं इसी लिखित संचार का एक रूप है। व्यक्ति के विचारों के प्रसारण में पत्र-पत्रिकाओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आरंभ से ही भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों की नज़र रही है,इनमें से कुछ को जीत हासिल हुई तो कुछ को हार का सामना करना पड़ा। सबसे लंबा शासन जिसने भारत पर किया, वह अंग्रेज ही रहे हैं।इनके शासन-काल में जनता बहुत ही त्रस्त रही और उनसे छुटकारा पाने के लिए उसने हिंसक-अहिंसक आंदोलनों का सहारा लिया। इन सुदीर्घ आंदोलनों में तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं का योगदान अविस्मरणीय है। इन पत्र-पत्रिकाओं ने आन्दोलन की भूमिका तैयार करने से लेकर उसे व्याप्ति और विस्तार देने हेतु सामान्य-जन तक संदेश पहुंचाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन पत्र-पत्रिकाओं में न सिर्फ तत्कालीन साहित्यिक-सांस्कृतिकअभिव्यक्ति देखी जा सकती है वरन इनके माध्यम से सामाजिक, राजनीतिक आंदोलनों के इतिहास को भी क्रमबद्ध रूप से जाना जा सकता है। देखा जाए तो भारत में पत्र-पत्रिकाओं का विकास भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के साथ ही हुआ। इन पत्र-पत्रिकाओं के लेखों से गुजरे बिना स्वाधीनता आंदोलनों की पृष्ठभूमि को समझना मुश्किल है। इन पत्र-पत्रिकाओं ने भारतीय आंदोलनों में व्यापक राष्ट्रीय भावनाओं से जनता को जागृत किया, साथ ही उन्हें स्वतंत्रता-प्राप्ति हेतु एकजुट कर आंदोलित और उत्प्रेरित भी किया। शायद यही कारण है कि अंग्रेजी हुकूमत ने इन पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगाना आरंभ कर दिया। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को राष्ट्रीय विचारधारा से संपृक्त करके उसे संघर्षशील चरित्र प्रदान करने में इन प्रतिबंधित पत्रिकाओं की अग्रणी भूमिका रही है। इन पत्रिकाओं ने ब्रिटिश शासन द्वारा शोषित-पीड़ित जनता की अभिलाषाओं की मूक वाणी को स्वर प्रदान किया। परंतु स्वतंत्रता आंदोलन में इन पत्रिकाओं की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद आज भी इन प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाओं के योगदान को इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान नहीं मिल सका है। इतिहास में इनका आंशिक उल्लेख मात्र ही प्राप्य है। इतिहास में इनकी अनदेखी को देखकर मैनेजर पांडेय अपनी संपादित पुस्तक 'देश की बात' की भूमिका में कहते हैं कि "यहां मैं हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की एक विडंबना की ओर संकेत करना चाहता हूँ। यह देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि हिंदी साहित्य के किसी इतिहास में आधुनिक काल के अंतर्गत अंग्रेजी राज के दौरान प्रतिबंधित हिंदी साहित्य का कोई उल्लेख नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में उसके विश्लेषण और मूल्यांकन की उम्मीद कैसे की जाए?अंग्रेजी राज के दौरान दो तरह की पुस्तकों पर पाबंदी लगी थी, उनमें कुछ वैचारिक थीं और कुछ सृजनात्मक। वैचारिक पुस्तकों में अधिकांशतः इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र से संबंधित थीं और सृजनात्मक के अंतर्गत कविता, उपन्यास, कहानी और नाटक की पुस्तकें। अगर साहित्य का इतिहास किसी भाषा में मौजूद ज्ञान की दशा का आकलन है, जैसा कि एस. जॉनसन ने कहा था कि हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी में लिखी गई और प्रतिबंधित इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र की पुस्तकों पर विचार होना चाहिए। ऐसा करने के लिए हिंदी साहित्य के इतिहास को हिंदी वाङ्गमय का इतिहास बनाना होगा जो वह अभी नहीं है। लेकिन जो लोग साहित्य का इतिहास लिखते समय या उसके बारे में सोचते समय इतिहास से अधिक महत्वपूर्ण साहित्य को मानते हैं, वह भी उन कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और नाटकों पर ध्यान नहीं देते जिन पर प्रतिबंध लगा था। उनके विश्लेषण और मूल्यांकन के बाद ही उनकी साहित्यिकता तय हो सकती है ना कि अंग्रेजी राज की तरह उन्हें उपेक्षित करने से। हिंदी साहित्य के इतिहास और कहीं-कहीं हिंदी आलोचना में भी एक राष्ट्रीय साहित्य धारा की चर्चा होती है और उसमें कहीं प्रतिबंधित रचनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान आंदोलन के पक्ष में प्रेरणादायी साहित्य लिखने वालों को दोहरा दंड मिला है अंग्रेजी राज ने उनपर प्रतिबंध लगाया तो हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने उन्हें उपेक्षा का दंड दिया।" 

वर्तमान समय में अगर हम हिंदी साहित्य का समग्र मूल्यांकन करना चाहते हैं तो मैनेजर पांडे के इन मन्तव्यों  को ध्यान में रखते हुए भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समय प्रतिबंधित की गई सभी पुस्तकों का संकलन और संपादन करना होगा साथ ही उनका एक समग्र विश्लेषण भी हमें करना होगा तभी हम हिंदी साहित्य का संपूर्ण मूल्यांकन कर सकते हैं। हिंदी साहित्य के विकास में हिंदी पत्रकारिता भी बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।इसलिए प्रतिबंधित पत्रिकाओं का मूल्यांकन करना आवश्यक हो जाता है। वैसे तो भारत में अंग्रेजी राज स्वतंत्रता और लोकतंत्र में अपने विश्वास की बात करता था लेकिन वास्तव में भारत पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए भारतीयों की अभिव्यक्ति की आज़ादी का दमन करना अपना कर्तव्य समझता था। किसी भी रूप में भारतीयों की अभिव्यक्ति अंग्रेजी राज को पसंद नहीं थी। अगर किसी पत्रिका या पत्र में सरकार विरोधी कोई अभिव्यक्ति होती थी तो वह अपने कानूनों तथा अधिनियम के तहत उन पर पाबंदी लगा देता था। उन्हें जब्त कर लेता था। ऐसे कानूनों के अंतर्गत 1907 से 1947 के बीच लगभग 1710 पुस्तकों, पत्रिकाओं और अख़बारों पर पाबंदी लगाई गई। यह सारी सामग्री भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार और  ब्रिटिश म्यूजियम और इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी लंदन में मौजूद है। 

कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता आंदोलन अपने विभिन्न चरणों से होते हुए विभिन्न विचारों और रूपों के साथ निरंतर आगे बढ़ता रहा। इसकी सफलता में विभिन्न भाषाओं के समाचार पत्रों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।इस दौर की पत्रिकाएँ जनता की आवाज़ बनकर उभरीं और साथ ही एक हथियार के रूप में भारतीय राष्ट्रीय नेताओं का साथ निभाया और अंत में आंदोलनकारियों को विजय दिलाई।

स्वतंत्रता आंदोलन से रू-ब-रू होने के उपरांत संक्षिप्त रुप से हिंदी पत्रकारिता के इतिहास को भी जानना आवश्यक है, क्योंकि स्वाधीनता आंदोलन में पत्रकारिता ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसलिए इस बात को समझना आवश्यक है कि पत्रकारिता का इतिहास आखिर भारत में रहा क्या है? वैसे हमें ज्ञात है कि वर्तमान जीवन में पत्रकारिता का विशिष्ट महत्व है। पत्रकारिता ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा जीवन तथा समाज की घटनाओं को तुरंत प्रस्तुत किया जा सकता है। इसी के माध्यम से हम विश्व से जुड़ पाते हैं। आज के सामाजिक, राजनीतिक व्यस्तता-प्रधान जीवन में समाचार पत्र हमारे रोजमर्रा के जीवन का एक अटूट हिस्सा बन गए हैं। यह एक समसामायिक इतिहास है, जिसे शीघ्रतापूर्वक लिखा जाता है। साहित्य के क्षेत्र में भी पत्रकारिता का विशिष्ट महत्व है।साहित्य की सभी विधाओं का विकास पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य में ही हुआ है। जिस प्रकार साहित्य में समाज का चित्रण होता है उसी प्रकार पत्रकारिता में भी समाज की संपूर्ण गतिविधियों का चित्रण होता है। पत्रकारिता वह माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने मस्तिष्क में उस दुनिया के बारे में समस्त सूचनाएं संकलित करते हैं जिसे हम स्वत: कभी नहीं जान पाते। समाज का प्रत्येक पहलू एवं राष्ट्र की चिंता पत्रकारिता के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। यह समाज और शासन के बीच महत्वपूर्ण कड़ी का कार्य करती है। पत्रकारिता का उद्देश्य जनता की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करना तथा सामाजिक क्रांति की दिशा में उन्हें जागृत करना है। इसीलिए पत्रकारिता को चौथेस्तंभ के रूप में स्वीकार किया गया है। अतः देखा जाए तो कोई भी विकास अचानक नहीं होता उसकी निरंतरता एवं विकासशीलता का एक क्रम होता है। हिंदी पत्रकारिता का भी अपना इतिहास है। भारत में पत्रकारिता का उद्भव अंग्रेजों के समय हुआ है। अंग्रेजों की दमनपूर्ण नीतियां भारतीय पत्रकारिता के उद्भव के लिए वरदान सिद्ध हुईं।

आज वैज्ञानिक प्रविधि के विकास के साथ ही भारत में पत्रकारिता का स्तर एवं स्वरुप बहुत आकर्षक हुआ है,परंतु आरंभ में ऐसा नहीं था। मुद्रण-कला के विकास और अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार के कारण आधुनिक पत्रकारिता के उदय के संकेत मिलते हैं। इससे पूर्व पत्रिकाओं का हस्तलिखित रूप भी भारत में विद्यमान था। "प्राचीन काल में समाचार पत्र जैसी कोई चीज नहीं थी। कभी-कभी कुछ ऐसी राजकीय घोषणाएँ होती थीं, जिन्हें डुग्गी पीटकर जनता के सामने पहुंचा दिया जाता था। इसके अलावा प्रचारात्मक पत्रक भी तैयार किए जाते थे,जिनमें किसी लड़ाई संकटकालीन स्थिति,चमत्कारपूर्ण घटना अथवा राज्यारोहण समारोह का वर्णन होता था। कई राजकीय घोषणाओं को शिलाखंडो, स्तंभों, मंदिरों पर उत्कीर्ण किया जाता था।"

भारत में प्रेस को पुर्तगालियों ने सर्वप्रथम गोवा में स्थापित किया। इसके तहत सबसे पहला पत्र अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ। इसका नाम ‘हिक्की बंगाल गजट’ था। इसके संपादक जेम्स आगस्टक हिक्की थे। इस पत्र में हिक्की ने भारत में कार्यरत अंग्रेजी और उनकी कंपनी के भ्रष्टाचार पर प्रहार किया, जिसकी सजा उन्हें मिली और उन्हें जेल जाना पड़ा। इसके उपरांत अन्य कई पत्र अंग्रेजी में छपे। परंतु हिंदी पत्र सर्वप्रथम बंगाल में छपा। भारत में हिंदी पत्रकारिता की जन्मभूमि का श्रेय बंगाल को जाता है। भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता के उदय का क्रम 1818 ईस्वी से प्रारंभ हुआ। भारतीय भाषाओं का प्रथम नियतकालीन बंगला पत्र दिग्दर्शन 1818 में प्रारंभ हुआ। इसके संस्थापक जे. डी. मार्शमैन थे। इसी के समानांतर पत्रकारिता जगत में राजा राममोहन राय का आगमन हुआ। राजा राममोहन राय के प्रयास और उनकी पत्रकार प्रतिभा तथा सूझबूझ और संघर्ष क्षमता का ही परिणाम था कि पत्रकारिता अपनी सही और सार्थक दिशा की तलाश कर सकी। राजा राममोहन राय के प्रयास से 1816 में ‘बंगाल गजट’, 1821 में‘संवाद कौमुदी’ तथा 1820 में ‘मिरातुल अखबार’ निकला। वैसे तो हिंदी पत्रकारिता का उदय बहुत ही संघर्षपूर्ण स्थिति में हुआ और उसने अपने तेवर का तीखापन बाद में प्राप्त किया। परंतु हिंदी के पहले पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन हिंदी पत्रकारिता की विकास-यात्रा का महत्वपूर्ण बिंदु साबित हुआ। समाचार और सूचनाओं की दृष्टि से यह अपने समय का महत्वपूर्ण साप्ताहिक पत्र था, किंतु आर्थिक कठिनाइयों के कारण इसे शीघ्र ही बंद करना पड़ा। उसके बाद 1845 में बनारस से प्रकाशित ‘बनारस अखबार’ को हिंदी प्रदेश से निकलने वाले प्रथम हिंदी दैनिक पत्र का गौरव प्राप्त हुआ। देखा जाए तो भारतीय पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता के विकास की ही कहानी है। दोनों ने एक दूसरे की सहायता की है। सन 57 के आंदोलन के बाद भारतीय प्रेस दो भागों में बंट गया। इसके परिणामस्वरुप ‘पयाम ए आज़ादी’नाम से एक पत्र का प्रकाशन हुआ, जो आज़ादी का संदेश लेकर आया। इसके संपादक अज़ीमुल्ला खां थे। इसके बाद ‘धर्म प्रकाश’, ‘रत्न प्रकाश’, ‘तत्वबोधिनी पत्रिका’ आदि पत्र निकाले गए। तदुपरांत हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में भारतेंदु हरिश्चंद्र का उदय हुआ। भारतेंदु का उदयक्रांतिकारी घटना बनकर हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नई परंपरा का सूत्रपात करता है। हिंदी के आरंभिक पत्रों में भारतेंदु के पत्र प्रमुख हैं। इस युग की हिन्दी पत्रकारिता में समाज-सुधार की प्रवृत्ति शेष सभी प्रवृत्तियों से अधिक प्रबल रही। इस पत्रकारिता के विकास में स्वदेश-प्रेम तथा भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेम भी एक कारण सिद्ध हुआ। जनता की निर्धनता,अंग्रेजों द्वारा शोषण एवं अत्याचार, अंधविश्वास आदि पत्रकारों को प्रेरणा देता रहा।1900 में सरस्वती पत्रिका के माध्यम से जिस साहित्यिक पत्रकारिता की सशक्त धारा प्रवाहित हुई उसकी पृष्ठभूमि इस युग की पत्रिकाओं ने तैयार की। इस युग में ‘कविवचनसुधा’, ‘बालाबोधिनी’, ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’,‘हिंदी प्रदीप’,‘भारत मित्र’, ‘सार सुधा निधि’, ‘भारत बंधु’,‘ब्राह्मण’, ‘बंग भारती’ आदि महत्वपूर्ण पत्रिकाएं हैं। इसके बाद 1900 में सरस्वती का प्रकाशन हिन्दी पत्रकारिता में काफी महत्वपूर्ण घटना सिद्ध हुई।  इसे चिंतामणि घोष ने प्रकाशित किया। इसका मुख्य उद्देश्य हिंदी के रसिकों के मनोरंजन के साथ-साथ भाषा का परिष्कार करना था।1903 से महावीर प्रसाद दिवेदी ने इसके सम्पादन का दायित्व बखूबी निभाया। सरस्वती के बाद हिंदी पत्रकारिता जगत ने नयी करवट ली। इसके बाद ‘अभ्युदय’, ‘प्रताप’, ‘माधुरी’, ‘चांद’, ‘मतवाला’, ‘विशाल भारत’ आदि पत्रों का प्रकाशन आरंभ हुआ। इन सभी पत्रिकाओं ने तत्कालीन जन आंदोलनों को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिकाएं अदा की।

1900 से 1947 के समय में बौद्धिक लोगों ने स्वतंत्रता प्राप्ति और समाज-सुधार हेतु पत्रकारिता का आश्रय लिया और अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कर हिंदी पत्रिका को नई दिशा एवं दृष्टि प्रदान की। स्वतंत्रता के बाद हिंदी पत्रकारिता के विकास में एक उत्थान आया। पत्रकारिता की बाधाएं समाप्त हुईं और उसका विकास हो पाया। अब सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक जगत की प्रतिच्छवि पत्रकारिता में दिखाई पड़ने लगी।कुछ कमियों के बावजूद वर्तमान में भी हिन्दी पत्रकारिता अपने उन्हीं आदर्शों के साथ लोकतन्त्र के महत्वपूर्ण स्तम्भ के रूप से स्थापित है तथा अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता सिद्ध कर रही है।

जब भी कोई लेखन राजनीतिक सत्ता या जड़ समाज-व्यवस्था के खिलाफ जाता है तो उस पर प्रतिबंध लगाए जाने के हथकंडे अपनाए जाते हैं। हिन्दी पत्रिकाओं के साथ भी ऐसा ही रहा। जब-जब और जिन-जिन पत्रिकाओं ने समाज और शासन-व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाई तब-तब उन्हें प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश शासन व्यवस्था में भी बहुत सी पत्रिकाओं को प्रतिबंधित किया गया। इनमें प्रताप, अभ्युदय, वर्तमान, सैनिक, चांद, विप्लव, स्वदेशी आदि प्रमुख रहे  हैं। हिंदी की इन प्रतिबंधित पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों को देखने से उनके प्रतिबंधित किए जाने के कारण स्पष्ट हो जाते हैं। वर्तमान समय में प्रतिबंध के कारण जितने स्पष्ट हैं दरअसल पहले भी उतने ही स्पष्ट थे। अंग्रेजी सरकार अपने विरोध में उठने वाली आवाज़ को सहन नहीं कर सकती थी और उसे दबाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाती रही। अंग्रेजी सरकार उन सभी पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगा रही थी, जिससे उसकी नींव हिलने का खतरा था। इस दौर में उन सभी पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगाया गया जो आम जन को स्वाधीनता आंदोलन की चेतना से जोड़ती थी और अंग्रेजों की खोखली नीतियों का खुलासा करती थी। इसलिए पत्रकारिता के विकास के साथ ही प्रेस की स्वतंत्रता की भी बात आरंभ हो गई थी। भारतीय पत्रकारिता जब जनता की आवाज़ बनकर उभरने लगी तब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रोकने के लिए अधिनियम बनाने आरंभ कर दिए। 

इस लेख में ‘अभ्युदय’ पत्रिका के भगत सिंह विशेषांक का विश्लेषण करके जानने का प्रयास करेंगे कि किन कारणों से उसे अग्रेजी सरकार द्वारा प्रतिबंधित किया गया। देखा जाए तो भारत में बीसवीं शती का पूर्वार्द्ध पत्रकारिता के संघर्ष का काल था। उस समय अधिकांश पत्रिकाओं को प्रतिबंधित किया जाता रहा था। इन प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाओं में बहुत सी पत्रिकाएं ऐसी हैं, जिनकी सूचना-मात्र ही हमें मिल पाती है। ध्यान दिया जाए तो पता चलता है कि तुलनात्मक रूप से मासिक पत्र-पत्रिकाएं प्रतिबंध का शिकार अधिक हुईं। इसका मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि उन पत्रिकाओं में महीने भर का ब्यौरा प्रकाशित होता था, लेख प्रायः सुचिन्तित एवं मारक प्रभाव लिए होते थे। ‘अभ्युदय’ पत्रिका के अंकों को देखकर इसकी पुष्टि की जा सकती है। भारत की उग्र राजनीतिक धारा के प्रवाह में प्रवाहित होता हुआ हिंदी का पहला सप्ताहिक पत्र अभ्युदय ही था। इसके जन्मदाता पंडित मदन मोहन मालवीय थे। आरंभ में यह पत्र उदार विचारों का था किन्तु परिस्थितिवश बाद में यह उग्र विचारों का पक्षधर हो गया। इलाहाबाद से प्रकाशित इस पत्र के मई, 1931 का अंक भगत सिंह विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया गया। इस विशेषांक में उस समय के बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेताओं के लेख प्रकाशित हुए, जिसमें नेहरु, गांधी,पटेल आदि के लेख भी सम्मिलित हैं। पत्र में प्रकाशित सामग्री को आपत्तिजनक बताकर इस अंक को प्रतिबंधित कर दिया गया। आरंभ में इस अंक की हमें सिर्फ सरकारी सूचना ही प्राप्त होती थी, परंतु 2012 में चमन लाल जी ने क्रांतिवीर भगत सिंह - 'अभ्युदय और 'भविष्य' नाम से संपादित पुस्तक लोक भारती प्रकाशन से प्रकाशित करवाई, यह पुस्तक ‘अभ्युदय’ और ‘भविष्य’ पत्रिका के प्रतिबंधित अंकों का संकलन है।

इस पुस्तक की भूमिका में चमनलाल जी कहते हैं कि "आज तीनों मुल्कों की सारी जमीन में महात्मा गांधी हो या भगत सिंह,जिन्ना हो या मौलाना पाषाणी या मा. सूर्यसेन सिर्फ नाम भर है और इन नामों के साथ हम अपनी मर्जी से कुछ भी जोड़ देते हैं। उनका किया और दिया कुछ भी छोड़ देते हैं। विडंबना यह है कि सोवियत यूनियन के टूटने के बाद रूस के मास्को के अभिलेखागार में स्तालिन के दौर के स्तालिन के खिलाफ तथा हक में लिखे गए तमाम दस्तावेज सुरक्षित मौजूद हैं। परंतु भारत में देश की आज़ादी के लिए लड़े गए संग्राम के दस्तावेज तलाश करना भारी मशक्कत का काम है। जिसमें हमें नाकामी ज्यादा और कामयाबी कम मिली है। विडंबना यह भी है कि हिंदुस्तान में जब्तशुदा दस्तावेज लंदन के इंडिया हाउस आदि पुस्तकालयों में तो मिल जाते हैं। आज़ाद भारत या पाकिस्तान के संग्रहालयों, अभिलेखागारों, पुस्तकालयों में नहीं प्राप्त होते। अगर गाहे-बगाहे कोई शोधार्थी, इतिहासकार या कोई शोध संस्थान इन प्रतिबंधित साहित्य पर कुछ कार्य करना चाहती भी है तो उन्हें इनसे संबंधित मूल प्रति ही प्राप्त नहीं होती और अगर कोई मिल भी जाती है तो वह इतनी अव्यवस्थित होती है कि उसे पढ़ना एक मुश्किल काम होता है।"

2012 से पहले अभ्युदय पत्रिका के भी इस अंक को खोजना बहुत मुश्किल का कार्य था। चमन लाल जी के प्रयास का नतीजा है कि हम इस पत्रिका को पढ़ पा रहे हैं और उस समय भगत सिंह की फांसी को लेकर आम जनता और नेताओं की प्रतिक्रिया क्या थी उसे जान पा रहे हैं।

अभ्युदय पत्रिका 1907 से 1948 तक निकलती रही।  इसके पहले संपादक कृष्णकांत मालवीय जी थे, उसके बाद पद्य कांत मालवीय ने इसके संपादन का भार संभाला जो अंत तक जारी रहा।  अभ्युदय का ‘भगत सिंह विशेषांक’ 8 मई 1931 को प्रकाशित हुआ। जिसे अंग्रेजों द्वारा जब्त कर लिया गया। इसमें भगत सिंह के मुकदमे और फांसी के हालात पर भरपूर सामग्री छापी गई थी। इस अंक में एक और अंक के प्रकाशन की घोषणा की गई थी। लेकिन इस अंक की जब्ती के बाद वह अंक कभी छप ही नहीं सका। कहते हैं अभ्युदय के इस अंक के माध्यम से भगत सिंह की देश में एक विशेष छवि निर्मित हुई थी। जिसे आज हम सब जानते हैं। इस अंक के प्रकाशन से पहले भगत सिंह की वह छवि समाज में विद्यमान नहीं थी जो इसके प्रकाशन के बाद उभरी। 

भारत में 1930 और 1931 का दौर वह दौर था जब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में दो महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। जिससे पूरा देश ब्रिटिश सत्ता के प्रति क्रोध से भर गया। 27 फरवरी1931 को चंद्रशेखर आज़ाद को पुलिस मुठभेड़ में वीरगति प्राप्त हुई थी। क्रांतिकारी आंदोलन के इस योद्धा की मृत्यु पर उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में शासन व्यवस्था के प्रति विरोध के विभिन्न लेख छपे थे। दूसरी घटना भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की थी, जिन्हें फांसी पर लटका दिया गया। जिसके कारण देश में अंग्रेजों के प्रति क्रोध का माहौल फैल गया। हिंदी पत्रकारिता ने फांसी की इस घटना को मोटे अक्षरों में काला या सफेद हाशिया देकर प्रकाशित किया। भगत सिंह की प्रशंसा और स्तुति में लेख और संपादकीय लिखे गए। अभ्युदय पत्रिका के लेखों में भी भगत सिंह की प्रशंसा, युवा जगत के लिए प्रेरणा तथा नसीहत और अंग्रेजों की नीतियों के प्रति विरोध के स्वर भरे पड़े हैं। इस पत्रिका के मुख्य पृष्ठ पर ही भगत सिंह की बड़ी सी फोटो और उन्हें समर्पित केसरी द्वारा लिखी कविता की चार पंक्तियां हैं -

“देश दशा देख देख निपट अशांत था वो
दमन दबाव देख हो गया दीवाना सा 
फूल सा चढ़ा दिया शरीर बलिदेवी पर 
चूम कर फांसी झुमकर मस्ताना सा”

इस पत्रिका का पहला लेख 'नकद नतीजा' नाम से श्री जयचंद्र विद्यालंकार ने लिखा है। जिसमें उन्होंने भगतसिंह के व्यक्तित्व के बारे में बताया है। साथ ही उन्होंने यह बताया है कि सामान्य जनता को भगतसिंह के बारे में जानकारी पहली बार असेंबली के बम कांड से ही प्राप्त हुई थी। इससे पहले भगत सिंह के बारे में सिर्फ क्रांतिकारियों या तब उनके साथ पढ़ने वाले विद्यार्थियों को ही जानकारी थी। उनका विरोधी और देश प्रेम से भरा रूप इस बम कांड के बाद ही जनता के समक्ष आया था। इस लेख में विद्यालंकार जी ने बताया है कि जब भगत सिंह से पूछा गया था कि उन्होंने असेंबली में बम क्यों फेंका तो भगतसिंह का जवाब था "हमने बहरों को सुनाने के लिए यह ऊंची पुकार उठाई है। पीड़ित गुलाम जनता आज अंतिम हद तक परेशान हो चुकी है यदि उसके अधिकार वापस ना किए जाएंगे तब वह एकाएक उठ खड़ी होगी।" इस जवाब से साफ ज्ञात होता है कि भगत सिंह जनता की आवाज़ बनकर उभरे थे और वह समाज के पीड़ित शोषित लोगों के लिए, उनकी स्वतंत्रता के लिए, उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। असेंबली में बम फेंकने के पीछे उनका मकसद सिर्फ जनता के अधिकार उन्हें वापस दिलाना था ना कि किसी की हत्या करना। भगत सिंह के मंतव्य और असेंबली में बम फेंकने के लिए उन पर जो मुकदमा चलाया  गया और उस मुकदमे में भगत सिंह के द्वारा जो बयान दिए गए थे उन बयानों की सूची भी सिलसिलेवार तरीके से इस अंक में छापी गई है। शीर्षक है 'असेंबली बम केस में सरदार भगत सिंह वगैरह का ऐतिहासिक बयान' इसमें भगत सिंह के द्वारा बम फेंकने के उद्देश्य तथा उसके कारणों का पता चलता है। जब उनसे कोर्ट में यह पूछा गया कि आप के बम फेंकने के पीछे कारण क्या था? इसका उत्तर भगत सिंह ने जो दिया उसे हू बहू इस अंक मे छापा गया है। भगत सिंह का कहना था "बहरी हो चुकी शासन व्यवस्था को जगाना हमारा कर्तव्य है। हमारा यह व्यावहारिक विरोध प्रदर्शन एक ऐसी संस्था के खिलाफ था जो अपने जन्म काल से न केवल अपना निकम्मापन प्रकट करती रही बल्कि शैतानी कर सकने की अपनी अत्यधिक शक्ति का प्रमाण भी देती रही है  ज्यों-ज्यों हमने इस पर गंभीरता पूर्वक विचार किया त्यों त्यों हम पर इस विश्वास की गहरी छाप पड़ती गई कि यह संस्था दुनिया को भारतवर्ष की बेचारगी और उसकी बेइज्जती दिखलाने के लिए ही कायम है। यह संस्था गैर जिम्मेदार और तानाशाही शासन के विकट प्रभुत्व का प्रतिरूप है। जनता के प्रतिनिधियों ने बार-बार राष्ट्र की मांग पेश की और उन राष्ट्रीय मांगों का अंतिम स्थान कूड़े की टोकरी ही रहा है।" आगे वे कहते हैं कि "मैं अपनी आत्मा के क्रंदन को नहीं दबा सकता था और इस निर्णय प्रहार ने हमारे हृदय के भीतर से वेदना का आक्रोश जबरदस्ती बाहर खींच लिया इसीलिए हमने असेंबली की फर्श पर बम फेंक दिए और यह सिर्फ इसलिए किया कि हम उन आदमियों की ओर से जिनके पास अपने ह्रदय को चीरने वाली वेदना को प्रकट करने का कोई साधन नहीं है घोर विरोध प्रदर्शित कर रहे हैं। हमारा एकमात्र उद्देश्य था कि हम लोग बहरों के कान खोल दें और बेपरवाहों को अनन्यमस्कों को यथासमय चेतावनी दे दें।" उनके इस बयान से ज्ञात होता है कि वह अंग्रेजी सत्ता की नीतियों से कितने दुखी थे।

इस पत्रिका में महात्मा गांधी द्वारा लिखा लेख भी प्रकाशित है जिसका शीर्षक दिया है,'शहीद भगत सिंह' गांधीजी इसमें भगत सिंह के चरित्र की विशालता के बारे में लिखते हैं कि "भगत सिंह की देशभक्ति उसके साहस और भारतीय मानव समाज से उसके गहरे प्रेम की कई कहानियां समाज में सुनी हैं मैंने। उसके संबंध में जो कुछ सुना था, मैं समझता हूँ उसका साहस अतुलनीय था।" साथ ही वे आगे भगत सिंह के इस बम कांड वाले कार्य को लेकर के नौजवानों को नसीहत भी देते हैं कहते हैं "मैं देश के नौजवानों को उनके उदाहरण का अनुसरण करने के विरुद्ध सावधान करना चाहता हूँ। हमें हर सूरत में उनकी कुर्बानी उनके श्रम और उनके असीम साहस का अनुकरण करना चाहिए परंतु हमें उस के इन गुणों को उस प्रकार से इस्तेमाल ना करना चाहिए जिस प्रकार उन्होंने किया था। हमारे देश का उद्धार हत्या के जरिए नहीं होना चाहिए।" 

साथ ही महात्मा गांधी अपने इस लेख में आगे अंग्रेजों को चेतावनी भी देते हैं वह कहते हैं "सरकार के बारे में मैं यह अनुभव करता हूँ कि उसने एक स्वर्णिम अवसर खो दिया। इस अवसर पर वह क्रांतिकारियों के हृदय को जीत सकती थी परंतु उसने अपनी पाशविक शक्ति का प्रदर्शन करने में जो उतावलापन दिखाया वह साबित करता है कि वह बड़ी-बड़ी ऊंची और शानदार घोषणाओं के बावजूद शक्ति को छोड़ना नहीं चाहती। आज पूरा भारतीय समाज भगत सिंह और उसके साथी के इस बलिदान को जाया नहीं जाने देगा। जिस स्वतंत्रता को पाने के लिए भगत सिंह और उसके साथी मरे हैं उस मौके को आवेश में आकर भारतीय युवक खोएंगे नहीं।" गांधी जी के इन शब्दों से ज्ञात होता है कि भगत सिंह की फांसी को लेकर वो कितने दुखी थे तथा अंग्रेजी सरकार की इस पाशविक व्यवहार से उनके अंदर भी एक आक्रोश था जिसकी वजह से वो अंग्रेजी सरकार को सीधे चेतावनी दे देते हैं।

आगे इस अंक के  'भगत सिंह का बलिदान' लेख में सरदार पटेल लिखते हैं कि "अंग्रेजी कानून इस बात पर घमंड करता था कि किसी ऐसी गवाही पर किसी को दंड नहीं दिया जा सकता जिस गवाही पर कोई जिरह न की गई हो। तो भी इन आदमियों को ऐसी गवाही पर फांसी पर लटका कर मार दिया गया है जो गवाही घटना के बाद इकट्ठी की गई थी और जिस पर कोई जिरह भी नहीं की गई। ना ही अदालत में अभियुक्तों के पक्ष की रक्षा के लिए कोई निष्पक्ष वकील मुकर्रर कराया गया और इन आदमियों को फांसी पर लटका दिया गया। वह कहते हैं कि फांसी की सजा रद्द करने के लिए जो प्रार्थना अखिल देश ने की थी उनकी अवहेलना से वर्तमान शासन की और विदेशी सत्ता की छवि जिस प्रकार प्रकट हुई है वैसे पहले कभी नहीं हुई थी पर विक्षोभ के आवेश में हमें अपने कर्तव्य से तनिक भी विचलित ना होना चाहिए। इन वीर देशभक्तों की आत्माओं को शांति मिले।" सरदार पटेल के इन शब्दों से पता चलता है कि भगत सिंह की फांसी कितनी गैरकानूनी थी। उसमे कानून के किसी भी नियम का पालन नहीं किया। वही कानून जिसे खुद अंग्रेजी सत्ता ने बनाया था। उसने खुद ही उस कानून की अवहेलना की और तीनों नौजवानों को फांसी पर लटका दिया।

इसी अंक के एक लेख में  मालवीय जी हमारे देश के युवकों में बढ़ती हिंसा की प्रवृत्ति का कारण तत्कालीन समय की स्थिति को मानते थे। उस समय की शासन व्यवस्था को मानते थे। वह कहते हैं कि "युवकों के क्रांतिकारी होने में सरकार का बड़ा हिस्सा है। इस पर भी मेरी युवकों को सलाह है कि वह हिंसा से दूर रहे। आगे वह कहते हैं कि भगत सिंह की फांसी से बात अधिक स्पष्ट हो जाती है कि विदेशियों के शासन में भारत को आदर नहीं मिल सकता है। भारत में ही यह संभव हो सकता है कि महात्मा गांधी जैसे अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के व्यक्ति के प्रार्थना करने पर भी फांसी की सजा घटाई नहीं गई। वायसराय ने उनकी प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया। लोगों से मेरा अनुरोध है कि देश को स्वतंत्र कराने की शपथ ली जाय और जब तक भारत स्वतंत्र ना हो जाए तब तक शांत ना होइए। यही भगत सिंह की जीती जागती यादगार होगी।" मालवीय जी के इस कथन से समझ आता है कि युवाओं में हिंसात्मक प्रवृति अंग्रेजो की शोषित दमनकारी नीतियों की वजह से आई और भगत सिंह की फांसी अंग्रेजो की इन अमानुषिक नीतियों का एक उदाहरण बनकर जनता के समक्ष आई थी। जिसकी वजह से मालवीय जी क्रुद्ध थे और जनता को आज़ादी के लिए लड़ने और उसमें जीत हासिल करने के लिए प्रेरित कर रहे थे। उनके लेख से यह भी स्पष्ट होता है गांधी जी द्वारा दी गई फांसी टालने और सजा कम करने की अर्जी भी अंग्रेजो ने नहीं मानी। जबकि अभी तक मेरी जानकारी में यही बात थी कि गांधी जी अगर चाहते तो अंग्रेजो से बोलकर फांसी रुकवा सकते थे। इस लेख को पढ़कर मुझे ज्ञात हुआ कि गांधीजी ने कोशिश की थी परंतु अंग्रेज सरकार ने उसे नहीं माना था।

आगे पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखा लेख 'त्यागी भगत सिंह' है। इसमें नेहरु जी ने युवा जन समुदाय को नसीहत देते हुए यह समझाने का प्रयास किया है कि "उत्तेजना और जोश के साथ भगत सिंह का सम्मान करते समय हमें यह ना भूलना चाहिए कि हमने अहिंसा के मार्ग से अपने लक्ष्य की प्राप्ति का निश्चय किया है। मैं साफ कहना चाहता हूँ कि मुझे ऐसे मार्ग अवलंबन किए जाने पर लज्जा नहीं होती। लेकिन मैं अनुभव करता हूँ कि हिंसा मार्ग का अवलंबन करने से देश का सर्वोत्कृष्ट हित नहीं हो सकता और इससे सांप्रदायिक होने का भी भय है।भगत सिंह से हमें यह सबक लेना चाहिए कि हमें देश के लिए बहादुरी के साथ मरना चाहिए। हमें यह नहीं मालूम कि हमें देश की स्वतंत्रता के लिए और अन्य कितने भगत सिंह का बलिदान करना पड़ेगा पर फिर भी हमें हिंसा की जगह अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए।" नेहरू जी अपने इस लेख में युवाओं से हिंसा मार्ग की बजाय अहिंसा का मार्ग अपनाकर देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिए आग्रह करते हैं।

आगे और कई लेख हैं जिनमें भगत सिंह की गाथाएं और उनकी बहादुरी के चर्चे किए गए हैं। एक निबंध में श्री हेतु नटराज लिखते हैं कि "भगत सिंह आज़ादी का परवाना था। हां सचमुच आज़ादी का परवाना था।  तभी तो भारत की आज़ादी की दीपशिखा पर पतंग की भांति बलि चढ़ गया।  वह युवक था ऐसा युवक जिसकी नस में प्रतिक्षण बिजली दौड़ती थी और जिसका खून किसी ज्वलंत भविष्य की चिंता में सदा खौलता रहता था। कृतियों के बल पर वह पानी में आग लगाकर असंभव को संभव कर दिखाना जानता था। तभी तो आज भारतीय स्वतंत्रता के यज्ञ में अपनी और अपने साथियों की पूर्णाहुति देकर व देश के इतिहास में एक नया और गौरव पूर्ण अध्याय जोड़ गया। वह आज़ादी की जलती हुई दीपशिखा पर पतंग की भांति अपनी और अपने साथियों की बलि देकर उसने आज़ादी की पूरी कीमत चुका दी।  कहते हैं ना रंग लाती है हिना पत्थर पर पीस जाने के बाद ठीक उसी प्रकार शहीद भगत सिंह ने भी हिंदुस्तान की वेदी पर अपने आप को निछावर कर दिया। आज भगत सिंह नहीं है परंतु हर गली हर चौराहे पर इन पंक्तियों को सुना जाता है 'फांसी के तख्ते पर झूल गया मस्ताना भगत सिंह'।" इससे उस समय की जनता की मनःस्थिति को समझा जा सकता है कि भले ही अंग्रेजों ने एक भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाया हो परंतु पूरे भारतीय समाज में हर घर, हर परिवार, हर गली में उस सामी भगत सिंह मौजूद थे। जो देश की आज़ादी के लिए फांसी पर झूलने को तैयार है।

इस अंक में भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव तीनों के चरित्र और उनकी वीर गाथाओं की चर्चा भी की गई है। जिसमें उनकी शिक्षा से लेकर असेंबली के बम कांड तक की कथा बताई गई है। आगे इस अंक में भगत सिंह के पत्रों को भी सम्मिलित किया गया है। जिसे उन्होंने जेल में रहने के दौरान अपने दोस्तों तथा भाई को लिखा था,  साथी क्रांतिकारियों को लिखा था। उनके इन पत्रों से ज्ञात होता है कि भगत सिंह भारत माता की गुलामी की जंजीर को तलवार के बल से काटने का विश्वास रखने वाले केवल लाल क्रांति के योद्धा ही नहीं थे वरन राजनीति के दांवपेंच जानने वाले चतुर राजनीतिज्ञ भी थे। इन पत्रों के माध्यम से पता चलता है कि भगत सिंह राजनीतिक बातों की किस तरह तह तक पहुंचते थे। इन पत्रों के आधार पर जाना जा सकता है कि वह पूर्ण स्वाधीनता को क्या समझते हैं। साथ ही शासन व्यवस्था में समझौते से उनका क्या तात्पर्य है समझौते का अर्थ समझाते हुए वे कहते हैं कि "समझौता भी एक ऐसा हथियार है जिसे राजनीतिक जद्दोजहद के बीच में पद पद पर इस्तेमाल करना आवश्यक हो जाता है।जिससे कठिन लड़ाई से थकी हुई कौम को थोड़ी देर के लिए आराम मिल सके और आगे युद्ध के लिए अधिक ताकत के साथ तैयार हो सके; परंतु इन सारे समझौतों के बावजूद जिस चीज को हमें भूलना ना चाहिए वह हमारा आदर्श है जो हमेशा हमारे सामने रहना चाहिए।"

साथ ही इन पत्रों के माध्यम से नौजवानों को फ़र्ज़ याद दिलाते हैं उनके लक्ष्यों को उन्हें याद दिलाते हैं और कांग्रेस के उद्देश्य क्या है वह उन्हें बताते हैं। वह युवाओं को कहते हैं कि हमें पूर्ण स्वाधीनता की मांग करनी है और हमें पूर्ण स्वाधीनता हासिल भी करनी है। इसके लिए हमें शांत नहीं रहना। हमें अपने कर्तव्यों का पालन करते रहना है। आगे एक पत्र में जो वह अपने भाई को लिखते है। उस पत्र में अपने भाई को मातम ना मनाने का आदेश देते हैं और एक कविता के माध्यम से कहते हैं प्रिय भाई तुम्हारी आंखों में आंसू देख कर मुझे बहुत दर्द हुआ। तुम्हारे आंसू मुझसे बर्दाश्त नहीं हुए। प्यारे भाई हिम्मत से तालीम हासिल करते जाना और सेहत का ख्याल रखना और क्या लिखूं हौसला रखना
उसे यह फ़िक्र है हर दम नई  तर्जे जफ़ा क्या है, 
हमें यह शौक़  है देखें सितम की इंतहा क्या है।  
दहर से क्यों खफ़ा रहे, चर्ख का क्यों गिला करें, 
सारा जहां अदू सही आओ मुक़ाबला करें।  
कोई दम का मेहमान हूँ  अहले महफ़िल, 
चिरागे सेहर  हूँ  बुझा चाहता हूँ । 
आबोहवा में रहेगी, ख़याल की बिजली, 
यह मुश्ते खाक है फ़ानी रहे रहे ना रहे।  
अच्छा खुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं।  
आनंद से रहना।

अंक के अंत में एक लेख के माध्यम से भगत सिंह की फांसी की कार्यवाही में अंग्रेजों ने जिन जिन नियमों की अवहेलना की उसका भी ब्यौरा एक कानून के विद्यार्थी के द्वारा लिखा गया है, जिसका शीर्षक है 'सरदार भगत सिंह की फांसी की कथा फांसी की कार्यवाही सर्वथा गैरकानूनी थी' इसके अंतर्गत फांसी के समय, फांसी की अवधि को लेकर जो अंग्रेजों ने लापरवाही बरती उस पर बात की गई है जिसमें कहा गया है कि "जेल मैन्युअल पृष्ठ 273 परिच्छेद 31के  872वें पैरे में पहले में लिखा है कि 1 अप्रैल से 31 जुलाई तक 6:00 प्रातः काल 1 अगस्त से 31 अक्टूबर तक 7:00 बजे प्रातः काल और1 नवंबर से 31 मार्च तक 8:00 बजे प्रातः काल फांसी दी जानी चाहिए लेकिन जेल के किसी भी कानून में यह नहीं लिखा है कि फांसी शाम को भी दी जाए फिर हम नहीं समझते कि सरकार ने किस कानून के अनुसार उन्हें 7:00 बजे फांसी दी।" साथ ही फांसी के समय की अवधि को लेकर के भी बात की गई है जिसका पालन अंग्रेजों ने नहीं किया अंग्रेजों ने इन तीनों कैदियों को जेल के दौरान उनके सगे संबंधियों से भी मिलने नहीं दिया। साथ ही फांसी लग जाने के बाद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की लाशों को भी उनके सगे संबंधियों को नहीं दिया गया और ना ही उनके सगे संबंधियों को उनका अंतिम संस्कार ही करने दिया गया।

इसी लेख में आगे भगत सिंह द्वारा गाया गया अंतिम गीत भी प्रकाशित है। यह वही गीत है जो भगत सिंह को बहुत प्रिय था जिसे वह हमेशा गाते रहते थे।

‘मेरा रंग दे बसंती चोला 
इसी रंग में वीर शिवा ने मां का बंधन खोला 
मेरा रंग दे बसंती चोला।’

इस अंक में 'फूलों का गुच्छा’ नाम से कुछ कविताओं को भी संकलित किया गया है जिसके तहत 'शहीद की अंतिम विदाई' 'शेर भगत सिंह' 'आखरी सलाम' ''सज़ा को जानते हैं' 'हम खुदा जाने खता क्या है' 'कुटीर का पुष्प' आदि शीर्षकों से कविताएं प्रकाशित है और भी बहुत कुछ है इस अंक में सभी का जिक्र इस लेख में कर पाना मुश्किल है। 

इस प्रकार निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पत्रिकाओं को प्रतिबंधित करने के उस पराधीन दौर में भी कुछ ऐसे पत्राकार थे, जिन्होंने जोखिम लेकर भगत सिंह जैसे हमारी आज़ादी के संघर्ष के वीर शिरोमणि की गाथा तथा उनके बलिदान की पूर्ण कथा प्रकाशित करने का पराक्रम किया। जिससे समाज भगत सिंह की अहमियत को जान और समझकर कृतज्ञतापूर्वक उनके बलिदान को याद कर सकता है।

संदर्भ :-
1. देव नारायण द्विवेदी, भूमिका मैनेजर पांडे, देश की बात स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली 2013 पृ 8-9 
2. डॉ लक्ष्मीनारायण सुधांशु, हिन्दी साहित्य का बृहद इतिहास, तेरहवा भाग, नागरी प्रचारणी सभा, वाराणसी 
3. संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 56    
4 संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 90 
5.  संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य,  लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 92    
6. संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 62  
7.  संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य,  लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 63    
8.  संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 63 
9.  संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य,  लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 64  
10. संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 69 
11. संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 71    
12. संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 91  
13. संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 124   
14. संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 134 
15. संपादक चमनलाल, क्रांतिवीर भगत सिंह अभ्युदय और भविष्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021 प्रयागराज पृ॰ 142    

श्रुति ओझा (शोधार्थी)
हैदराबाद विश्वविद्यालय 
Shruti12790@gmail.com

 
 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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