आलेख : ब्रिटिश भारत में विद्रोही हिन्दी पत्रकारिता का चेहरा (‘चाँद’ का ‘फाँसी’ अंक) / पंकज सिंह यादव

ब्रिटिश भारत में विद्रोही हिन्दी पत्रकारिता का चेहरा
(‘चाँद’ का ‘फाँसी’ अंक)
- पंकज सिंह यादव
     
स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में  राजनीतिक चेतना का प्रचार- प्रसार करने में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। भारत में राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना का प्रसार उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध  में हुआ जिसके फलस्वरूप भारत में एक संगठित राष्ट्रीय आन्दोलन का उभार हुआ, जिसने औपनिवेशिक शासन के आधिपत्य को अपनी लेखनी के माध्यम से चुनौती दी। इस राष्ट्रीय आन्दोलन और स्वाधीनता की भावना के प्रसार में उन्नीसवीं सदी के दौरान हुए प्रेस के विकास ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
व्यापक स्तर पर पूरे देश में राजनीतिक चेतना का संचार करने में प्रेस और साहित्य का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारत में समाचार पत्रों और साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की संख्या बिल्कुल नगण्य थी, पर बाद के दिनों में, विशेष तौर पर 1857 की क्रांति के फलस्वरूप, पत्र-पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों के प्रकाशन में तेजी से विकास हुआ। शुरुआती  दौर के ज्यादातर समाचार-पत्रों का रूख ब्रिटिश साम्राज्यवादी विचारधारा के समर्थक के रूप में था, जिसमें 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया', 'स्टेट्समैन, 'इंग्लिशमैन’, ‘मद्रास मेल’, ‘सिविल एंड मिलिट्री गजट’ इत्यादि पत्र थे,जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों और नीतियों के प्रचारक और समर्थक थे। पर उन्हीं पत्रों के ही समानांतर भारतीय भाषाओं में समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का भी क्रमश: विकास होता जा रहा था, जो सीधे तौर पर साम्राज्यवाद विरोधी चेतना से प्रेरित थे। ‘हिन्दू पैट्रियट’, 'अमृतबाज़ार', 'बंगाल गजट’, ‘इंडियन मिरर’ ‘मराठा’, ‘केसरी', ‘प्रभा’, ‘माधुरी’, ‘सुधा’ 'अलहिलाल’, ‘प्रताप' और ‘चाँद’ आदि कई महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं ने भारतीय जनमानस में अपनी लेखनी के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरोधी चेतना का प्रसार किया । वस्तुतः हिन्दी पत्रकारिता का विकास ही ‘हिन्दुस्तानियों के हित हेतु’ जैसी चेतना से प्रेरित था। बिपिन चंद्र ने अपनी  पुस्तक 'आधुनिक भारत का इतिहास' में प्रेस और साहित्यिक पत्रिकाओं के योगदान के बारे में लिखा है कि "वह प्रमुख साधन प्रेस था जिसके द्वारा राष्ट्रवादी भारतीयों ने देश भक्ति की भावनाओं, आधुनिक आर्थिक-सामाजिक, राजनीतिक विचारों को तैयार किया तथा एक अखिल भारतीय चेतना जगाई । उन्नीसवीं शताब्दी के  उत्तरार्द्ध में बड़ी संख्या में राष्ट्रवादी समाचारपत्र निकले । उनके पन्नों पर सरकारी नीतियों की लगातार आलोचना होती थी। भारतीय दृष्टिकोण को सामने रखा जाता था, लोगों को एकजुट होकर राष्ट्रीय कल्याण के काम करने को कहा जाता था तथा जनता के बीच स्वशासन, जनतंत्र, औद्योगीकरण आदि विचारों को लोकप्रिय बनाया जाता था। देश के विभिन्न भागों में रहने वाले राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं को भी परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करने में प्रेस ने समर्थ बनाया।”1 

प्रिंट मीडिया और सूचना के इस दौर में हैबरमास की यह अवधारणा ठीक ही है कि सूचना के संपर्क से ही सार्वजनिक मुद्दों को हर प्रभावित पाठक का सरोकार बना कर उनमें आलोचनात्मक रवैया और राजनैतिक चेतना विकसित की जाती है। 'चाँद' और उस दौर की तमाम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ इस बात का प्रमाण हैं।

‘चाँद’ पत्रिका का सम्पादन लाहौर के उद्यमी रामरख सिंह सहगल ने 1922 ई. में इलाहाबाद से शुरु किया था। अपने शुरूआती दौर में 'चाँद' एक स्त्री-केंद्रित पत्रिका के रूप में ही स्थापित थी, लेकिन उसने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया और स्त्रियों के मुद्दों को स्वाधीनता आन्दोलन से जोड़ा। इस सन्दर्भ में फ्रांचेस्का ओर्सीनी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी का लोकवृत्त 1920-1940’ में ठीक ही लिखा है – “ ‘चाँद’ का राष्ट्रवाद उसके दृष्टिकोण से ही स्पष्ट था। शुरू ही से हिन्दी जनपद में महिलाओं की जागृति और उनकी गतिविधियाँ देशव्यापी, परिघटनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखी जाने लगी। हालाँकि अधिकांश अपेक्षाकृत लम्बे लेख और विशेषांक उत्तर भारतीय महिलाओं और समाज पर ही केन्द्रित थे, समाचार वाला भाग समूचे भारत और विदेश की महिलाओं की जानकारी तथ्य और आंकड़े प्रस्तुत करता था मानो वे सभी उसी अदम्य लहर का हिस्सा थीं।... इसके अतिरिक्त, शिक्षित और नयी-नयी साक्षरता प्राप्त महिलाओं को संबोधित करते हुए ‘चाँद’ उन्हीं से संबंधित विषयों तक सीमित न रह कर, सामाजिक राजनैतिक पुनर्जन्म की उसी परियोजना के अन्तर्गत किसान और मज़दूर औरतों के मुद्दों को भी उठाने लगा; स्वराज की खोज में सभी तरह के दमन और भर्त्सना का विषय था।”2  
 
इस पत्रिका का आदर्श वाक्य ही हर प्रकार के दमन, शोषण और अन्याय के खिलाफ़ था - ‘आध्यात्मिक स्वराज हमारा ध्येय, सत्य हमारा साधन और प्रेम हमारी प्रणाली है। जब तक इस पावन अनुष्ठान में हम अविचल हैं, तब तक हमें इसका डर नहीं कि हमारे विरोधियों की संख्या और शक्ति कितनी है।' चाँद पत्रिका ने समसामयिक राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर सामग्री का संकलन कर महत्वपूर्ण विशेषांक प्रकाशित किये। इनमें से हर एक विशेषांक आज भी उतना ही प्रासंगिक और मूल्यवान है जितना कि तब था। इन विशेषांकों में ‘चाँद’ का ‘फाँसी अंक’ सबसे ज्यादा चर्चित और महत्वपूर्ण अंक रहा है, जिसमें प्रकाशित सामग्री को आधार बनाकर ब्रिटिश शासन द्वारा ज़ब्त कर प्रतिबंधित कर दिया गया।  

‘चाँद’ के इस 'फाँसी अंक' का सम्पादन हिन्दी के मशहूर कथाकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने किया। ‘विनयांजलि’ शीर्षक से लिखे सम्पादकीय में उन्होंने हिन्दुस्तान की दुर्दशा को रेखांकित किया-  “चाँद” की बहिनों, भाइयों और बुजुर्गों के हाथ में - दीपावली के शुभ अवसर पर “फाँसी-अंक” जैसा हृदय को दहलाने वाला साहित्य सौंपते हुए हमारा हाथ काँपता है। परन्तु हम नंगे हैं, भूखे हैं, रोगी हैं, निराश्रय हैं; हम मरे हुए, और तिरस्कृत हैं; हम स्वार्थी, पापी और भीरू हैं; हम पूर्वजों की अतुल सम्पत्ति को नाश करने वाली सन्तान हैं, बच्चों को भिखारी बनाने वाले माता-पिता हैं। रूढ़ि की वेदी पर स्त्रियों को बलिदान का पशु बनाने वाले पुजारी हैं!!”3
 
आगे उन्होंने हिन्दुस्तान की सदियों की गुलामी का ज़िक्र करते हुए यह आशा व्यक्त की है कि आने वाले वक़्त में हिन्दुस्तान की गुलामी की बेड़ियाँ टूटेंगी और देश का मुस्त‌क़बिल फिर से जगमगा उठेगा। देखिये- "प्यारी बहिनो, माताओ भाइयो और बुजुर्गो! 'फाँसी अंक' को दिवाली की  अमावस्या समझिए! देखिए, इसमें बीसवीं शताब्दी के हुतात्मा के दिये कैसे टिमटिमा रहे हैं, और देखिए, स्थान-स्थान पर कैसी ज्वलंत अग्नि धायं-धायं जल रही है; और बीच में जाग्रत -ज्योति – मृत्यु-सुंदरी - कैसा श्रृंगार किए छमछ‌मा कर नाच रही है? पूजो! भाग्यदीप भारत के राज्य -पाट, अधिकार-सत्ता और शक्तिहीन  नर-नारियाँ, यही तुम्हारी गृहलक्ष्मी हैं। .... तुम देखोगे कि ज्योंही यह तुम्हारे गले का फन्दा होने के स्थान पर हृदय का लाल तारा बनेगी तुम्हारी सहस्रों वर्ष की गुलामी दूर हो जायेगी? जैसे प्रबल रसायनिक के हाथ में आकर काल- कूट विष अमृत के समान प्रभावकारी हो जाता है, उसी प्रकार यह गले का फन्दा बहिनों का सौभाग्य सिन्दूर और भाइयों की कुमकुम पिचकारी बनेगी।...

निकट ही वह दिन है। कुछ मास व कुछ वर्ष व्यतीत होते दो-एक महान विप्लव की आंधी सायं-सायं करती चली आ रही है, जो पचासों वर्ष तक भारत को दिवाली के दिये न जलाने देगी, परन्तु उसके बाद जो दिये जलेंगे वे छुद्र मिट्टी के टिमटिमाते दिए न होंगे-  वे रत्नदीप; और उन्हें साक्षात राज्य लक्ष्मी अपने हाथों से जलावेगी!" 4 
 
‘चाँद’ के ‘फाँसी अंक’ का सम्पादकीय पाँच भागों में विभक्त है- दण्ड का निर्णय, अपराध का विकास, क़ानून और उसका विकास, क्रांतिवाद, फाँसी। ‘क़ानून और उसका विकास’ शीर्षक से लिखे  सम्पादकीय में ब्रिटिश शासन की नीतियों और न्याय प्रणाली को प्रश्नांकित किया गया- "अंग्रेज़ी क़ानून जो भारतवर्ष में प्रचलित है, उसका रूप और न्याय वितरण का ढंग ऐसा कुत्सित हो गया है कि साधारणतया लोगों को विश्वास हो गया है कि सत्य पक्ष ही हारता है। क़ानून जैसी गम्भीर नीति का ऐसे अपवाद में ग्रसित होना खेदजनक है।"5 

वहीं 'क्रांतिवाद' शीर्षक सम्पादकीय विचार में 1857 के स्वाधीनता-संघर्ष के नायकों, काकोरी कांड के शहीदों और काला पानी तथा फाँसी की सजा पाये युवकों को भी कृतज्ञतापूर्वक याद किया है और उनके देश हित में दिए गये सर्वोच्च बलिदान को महिमामंडित किया है- “... कुछ ऐसे वीर जो तलवार लेकर राजसत्ताओं के विरोध में आवाज़ उठाकर मर मिटे। अमेरिका, यूरोप और एशिया के ऐसे असंख्य वीरों के नाम इतिहास के पृष्ठों में चमक रहे हैं। हम उन पवित्र नामों में सर्वथा बदनाम सन् 1857 की भारत-क्रांति के नायक धुंधपन्त, नाना साहब, पंजाब और बंगाल के फाँसी पाए हुए और कालेपानी की नारकीय यातनाओं को भोगे हुए कुछ नवयुवकों को भी, और जिनकी रस्सी का ख़ून अभी भी गीला है, उन काकोरी के प्यारों को भी गिनेंगे, जिन्होंने आज तक अपने भाइयों से कृतज्ञता तथा सहानुभूति नहीं प्राप्त की, जिनके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व वीरता-पूर्वक बलिदान किया था।”6 
आगे वे लिखते है- “न्याय और उदारता के आधार पर जो आवाज उठाई जाय, वह चाहे राजसत्ता के विपरीत हो, चाहे धर्म-समाज के विपरीत, वह चाहे किसी एक व्यक्ति की तरफ से हो, चाहे समस्त जन साधारण की तरफ, वह क्रांति है - पाप कदापि नहीं” 7 
 
चाँद का यह फाँसी अंक साहित्यिक नज़रिये से भी बेहद महत्वपूर्ण है, जिसमें फाँसी (विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’), फंदा (आचार्य चतुरसेन शास्त्री) और एक जल्लाद (पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’) जैसी साहित्यिक और पठनीय कहानियाँ हैं, जिसमें औपनिवेशिक न्याय-प्रणाली और शासन व्यवस्था का प्रतिकार किया गया है।

‘फाँसी’ कहानी रेवतीशंकर और पं. कामताप्रसाद नामक दो पात्रों के जीवन पर आधारित है। रेवतीशंकर एक धनी और सम्पन्न रियासतदार पिता के पुत्र हैं। वहीं कामताप्रसाद मध्यम श्रेणी के परिवार से हैं, जो लखनऊ के मेडिकल कालेज से एल.एम.एस करके डॉक्टरी की प्रैक्टिस कर रहे हैं। दोनों में गहरी मित्रता है। रेवतीशंकर के इसरार पर वे एक वेश्या जिसका नाम सुंदरबाई है, के यहाँ जाते हैं। सुंदरबाई कामताप्रसाद के व्यक्तित्व से प्रभावित होती है और उनके प्रेम में पड़ जाती है। जब यह बात रेवतीशंकर को मालूम पड़ती है तो वे ईर्ष्या से भर जाते हैं और वे उसकी हत्या कर देते हैं। पर हत्या में वे जिस चाकू का प्रयोग करते हैं वो कामताप्रसाद की मँगवाई डाक्टरी की चाकू थी। इस आधार पर पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर लेती है और न्यायालय से उन्हें फाँसी की सजा दे दी जाती है और वे अपने बचाव में कुछ भी नहीं करते। और कहते हैं- “रेवतीशंकर, मैंने तुम्हे फँसाकर या तुम्हारे ऊपर संदेह उत्पन्न कराके अपने प्राण बचाना कायरता और मित्रता के प्रति विश्वासघात समझा। यदि मैं पहले ही कह देता कि तीसरा चाकू तुम ले गये थे, तो वह इनवायस की शहादत, जो मेरे लिए मौत का फंदा हो गई, कभी उत्पन्न न होती। ... परन्तु मेरे छूटने का अर्थ था तुम्हारा फँसना। । न्याय बलिदान ही लेता है, मेरा न  लेता तो तुम्हारा लेता। हम दो के अतिरिक्त तीसरे की कोई गुंजाइश नहीं थी।” 8 
    
हालांकि कामताप्रसाद को फाँसी हो जाती है। इस घटना के बाद रेवतीशंकर आत्मग्लानि से भर उठते हैं और एक सुसाइड नोट लिखकर ख़ुद ज़हर खाकर आत्महत्या कर लेते हैं, जिसमें उन्होंने सुंदरबाई की हत्या का जुर्म स्वीकार किया। जब यह बात कामताप्रसाद के पिता को मालूम होती है तो वो कहते हैं- “न्याय का यह दण्ड, हत्या विधान है। ...यह न्याय नहीं बर्बरता है, जंगलीपन है, हत्याकांड है। ऐसे न्याय का जितना जल्दी शीघ्र नाश हो जाये तो, अच्छा है।” 
 
आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी ‘फन्दा’ : 1914 से 1917 के बीच राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त कर देने के उद्देश्य से जर्मनी में एक योजना बनाई गई थी लेकिन यह योजना विफल रही। इसी इंडो-जर्मन षडयंत्र केस की पृष्ठभूमि पर यह कहानी आधारित है। जिसमें स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए आत्मबलिदान की भावना को व्यक्त किया है। इस कहानी में एक पात्र विनोद है जो पेशे से अध्यापक है, उस पर इस षडयंत्र का अभियोग लगाकर फाँसी की सजा दे दी जाती है। जब उनको फाँसी दी जाती है तो पादरी उनसे कहता है कि" मैं प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर तुम्हारी आत्मा को शांति प्रदान करें" तो इसके जवाब में वो कहते है- “चुप रहो, मैं प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर मेरी आत्मा को ज्वलंत अशांति दे, जो तब तक न मिटे जब तक मेरा देश स्वाधीन हो जाय, और मेरे देश का प्रत्येक व्यक्ति शांति न कर ले।”9     
 
‘विप्लव यज्ञ की आहुतियाँ’ शीर्षक प्रभाग में भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास के अनाम- सनाम सैंतालिस ऐसे वीर नायकों की संक्षिप्त जीवन-गाथा और उनके ब्रिटिश सरकार से संघर्ष की दास्ताँ को बयान किया है जो बहुत ही मार्मिक हैं, जिन्होंने हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। ब्रिटिश सरकार ने इन क्रांतिकारी नायकों को फाँसी की सजा दी थी। इस प्रभाग के ज्यादातर लेख मौजूदा दौर के कांतिकारियों द्वारा ही लिखे गये था लेकिन उनके नामों को सम्पादक चतुरसेन शास्त्री जी ने बदल दिया था, जिससे कि उन क्रांतिकारियों के सन्दर्भ में कोई सूचना ब्रिटिश राज को न मिले। 'चाँद' के स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में 'फाँसी अंक’ का पुनर्प्रकाशन किया गया जिसकी प्रस्तावना सुरेश सलिल ने लिखी। उन्होंने आचार्य चतुरसेन शास्त्री के एक संस्मरण ‘पहले सलामी’ का ज़िक्र किया है, जिसमें उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है, देखिये- "एक दिन भोर के तड़के ही पुलिस के दल-बदल ने मेरा घर घेर लिया।... मैं समझ गया था कि पुलिस के मेधावी जनों ने ‘चाँद’ के ‘फाँसी अंक’ से इन क्रांतिकारियों (भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त आदि) के संबंध की संभावना से ही यह धावा किया था। यद्यपि मुझे उक्त अंक के लिए, बीसवीं शताब्दी की राजनीतिक हुतात्माओं के सम्पूर्ण चित्र और चरित्र दी उन लोगों से प्राप्त हुए थे, परंतु यह भी सत्य है कि मैं उन युवकों के संबंध में तथा उनके कांतिकारी कार्यों के संबंध में बहुत कम जानता था। उन लोगों द्वारा जो मैटर मिला था, उसके मैंने खंड-खंड कर डाले थे। एक-एक चरित्र को पृथक करके उसके नीचे लेखक का कोई एक काल्पनिक नाम दे डाला था..."10 

‘कूका विद्रोह के बलिदान’ लेख में कूका विद्रोह के नेता सतगुरु रामसिंह और उनके तमाम नामधारी सिक्खों की कुर्बानियों को याद किया गया है। वहीं ‘बोमेली युद्ध के चार शहीद’ में बबर अकाली आन्दोलन से जुड़े चार वीर नायकों कर्मसिंह, उदयसिंह, विशन सिंह और महेन्द्र सिंह के संघर्षों के बारे में लिखा गया है, जिन्होने गुलामी की जंजीरों को तोड़‌ने की कोशिश भी की। इसके अलावा चापेकर बंधुओं, कन्हाईलाल दत्त, सत्येन्द्र कुमार बसु, मदनलाल ढींगरा, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, रामप्रसाद 'बिस्मिल’, बाबू हरनाम सिंह, उधम सिंह, बंता सिंह धामियां, राजेन्द्रनाथ लहरी, रौशन सिंह, गेंदालाल दीक्षित, भाई वतन सिंह, खुदीराम बोस, करतार सिंह सराभा, अवधबिहारी, पं० कांशीराम आदि की वीरतापूर्ण शहादत के बारे में मार्मिक ढंग से लिखा गया है। 

मिसाल के तौर पर, काकोरी कांड के शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खाँ के शव को जब उनके पैतृक गाँव ले जाया जा रहा था तब लखनऊ स्टेशन पर उनके अंतिम दर्शन के लिए उमड़ी भीड़ के सन्दर्भ में एक वर्णन देखिए- "जिस समय आपका शव फैज़ाबाद से शाहजहाँपुर ले जाया जा रहा था, तो लखनऊ-स्टेशन पर सैकड़ों मनुष्यों की भीड़ जमा थी। एक अंग्रेज़ी अखबार के संवाददाता ने लिखा-
"The public of Lucknow thronged all the stations to see the last remains of their beloved Ashafaqa and the old men were weeping as - if they had lost their own son.” 11 ("लखनऊ की जनता अपने प्यारे अशफ़ाक़ के अन्तिम पुण्य-दर्शनों के लिए बेचैन होकर उमड़ आई थी और वृद्ध लोग इस प्रकार रो रहे थे, मानो उनका अपना ही पुत्र खो गया हो।”) 

वहीं भगत सिंह, जिन्होंने 'बलवंत' छद्‌म नाम से अपने क्रांतिकारी रहनुमा करतार सिंह सराभा की जीवनी लिखी, उनके बलिदान के बारे में वे लिखते हैं- "आज दुनिया में फिर प्रश्न उठता है, उनके मरने का लाभ क्या हुआ? वे किस लिए मरे? उत्तर स्पष्ट है। मरने के लिए मरे। उनका आदर्श ही देश-सेवा में मरना था, इससे अधिक वे कुछ नहीं चाहते थे। मरना भी अज्ञात रहकर चाहते थे। उनका आदर्श था – Unsung unhonored and unwept.

"चमन ज़ारे मुहब्बत में उसी ने बाग़वानी की,
कि जिसने अपनी मिहनत को ही मिहनत का समर जाना। 
नहीं होता है मोहताजे नुमायश फ़ैज़ शबनम का
अंधेरी रात में मोती लुटा जाती है गुलशन में।"13 
 
'निःसंदेह 'चाँद' का यह 'फाँसी अंक' हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है, जिसमें लोकतंत्र और समतावादी मूल्यों के लिए किये गए संघर्ष को दर्ज किया गया है। ब्रिटिश शासन के दमन और अन्याय का जैसा प्रतिकार इस अंक में हुआ वह बेहद महत्वपूर्ण है। ‘चाँद’ का यह अंक भारत की स्वाधीनता के संघर्ष का जीवंत इस्पाती दस्तावेज है।

सन्दर्भ : 
1.आधुनिक भारत का इतिहस, बिपिन चंद्र, ओरियंट ब्लैकस्वान प्राइवेट लिमिटेड, हैदराबाद, 2018, पृष्ठ 197
2.हिन्दी का लोकवृत्त 1920-1940, फ्रांचेस्का आर्सीनी, हिन्दी अनुवाद, नीलाभ, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2011, पृष्ठ 318
3.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 1
4.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 1
5.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 8
6.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 10
7.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 11
8.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 25
9.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 27
10.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, प्रस्तावना, सुरेश सलिल, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 105
11.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, प्रस्तावना पृष्ठ 1
12.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 323
13.चाँद फाँसी अंक, सम्पादक, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, स्वर्ण जयंती, शाहदरा, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 271

 पंकज सिंह यादव
शोध छात्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
pankajbhu.vns94@gmail.com

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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