संपादकीय : प्रतिबंधित साहित्य विशेषांक : अपनी माटी / गजेन्द्र पाठक

संपादकीय
प्रतिबंधित साहित्य विशेषांक : अपनी माटी
 गजेन्द्र पाठक


अपनी माटीका यह विशेषांक भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल कलम के उन सभी सिपाहियों की स्मृति को एक विनम्र श्रद्धांजलि है जो करोड़ों पराधीन देशवासियों के सपनों को शब्द दे रहे थे. वे सपने जिनकी किस्मत में आजादी का सूरज नहीं था. आज़ादी की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ के अवसर पर कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से जो अनेक आयोजन हुए, उसी कड़ी में यह विशेषांक एक छोटा सा प्रयास है. यह विशेषांक हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय एवं सी.एस.डी.एस. दिल्ली की उस परियोजना का एक संयुक्त आयोजन भी है जो 1850 से 1947 तक ब्रिटिश उपनिवेशवाद द्वारा प्रतिबंधित हिंदी -उर्दू लेखन को समर्पित है. 

 यह विशेषांक प्रतिबंधित हिंदी साहित्य से मेरे परिचय के प्रेरणा स्रोत गुरुवर मैनेजेर पाण्डेय की स्मृति को सादर समर्पित है. हिंदी आलोचना और इतिहास चिंतन के व्यापक परिसर में प्रो. मैनेजर पाण्डेय इस बात से निरंतर चिंतित और व्यथित रहे कि ऐसे लेखक जो अंग्रेजों के कोपभाजन बने वे दोहरे दंड के शिकार हुए. गुलाम भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा  उनकी रचनाओं को जब्त किया गया और नष्ट करने का प्रयत्न हुआ और आजाद भारत में हिंदी आलोचना और इतिहास ने उनपर विचार करने की जरुरत नहीं समझी. सखाराम गणेश देउस्कर और देवनारायण द्विवेदी केदेश की बातऔर नवजादिक लाल श्रीवास्तव की किताबपराधीनों की विजय यात्राके संकलन और संपादन के जरिये उन्होंने हिंदी अकादमिक जगत का ध्यान भारतीय इतिहास के उस उपेक्षित अध्याय की ओर आकृष्ट किया जिधर देखने की जरुरत अब तक कम लोगों ने महसूस की थी. वे स्पष्ट रूप से मानते थे कि हिंदी ही नहीं समस्त भारतीय साहित्य के आधुनिक काल और नवजागरण काल का इतिहास लेखन तब तक अधूरा और अविश्वसनीय है जब तक उस दौर का सम्पूर्ण प्रतिबंधित लेखन प्रकाशित नहीं हो जाता और प्रकाशन के बाद शोध और आलोचना की प्रक्रिया से होते हुए नए इतिहास लेखन का आधार नहीं बनता.

यू.जी.सी. की  ई-पी.जी. पाठशाला परियोजना के अंतर्गत जब उन्होंनेसाहित्य का इतिहास दर्शनके अंतर्गत कुछ इकाइयों के लेखन की जिम्मेदारी दी तब उसमें से एक इकाईहिंदी का प्रतिबंधित साहित्यभी थी. इस विषय पर मेरी असर्मथता और संकोच के कारण उन्होंने एन. जेराल्ड बरिएर की किताब पढने का सुझाव दिया और साथ में यह भी बताया कि यह महज संयोग नहीं कि वह किताब आपातकाल के साए में प्रकाशित हुई. आजादी के बाद अपने स्वाधीन देश में कलम पर पहरा का यह प्रयोग विचलित करने वाला था. उन्होंने यह भी बताया था कि पंजाब और सिखों के इतिहास पर काम करते हुए जेराल्ड को लन्दन में जो खजाना हाथ लगा वह कोहिनूर हीरे से भी कीमती है. वे भारतीय साहित्य के उन अनमोल हजारों कोहिनूरों को अपनी आँखों से देखने के कायल थे जिनके प्रकाशन और मूल्यांकन से हिंदी समेत समस्त भारतीय साहित्य के डेढ़ सौ वर्षों का नया इतिहास संभव था. इस विषय पर हमारे परियोजना कार्य के भी वे मार्गदर्शक थे और उन्हें उम्मीद थी कि हमारा काम इस दिशा में कुछ नए अध्याय जोड़ने में सफल होगा. इस परियोजना के अंतर्गत उनका उद्घाटन व्याख्यान इस अंक के पहले विशेष लेख के रूप में शामिल है. इस विशेषांक के लिए अपनी अस्वस्थता के बावजूद उन्होंने एक साक्षात्कार भी दिया. उनकी उपस्थिति इस विशेषांक की उपलब्धि है. जिस दिन हम अपने विभाग में अपने शोधार्थियों के साथ इस अंक को अंतिम रूप दे रहे थे उसी दिन उनके निधन की खबर मिली. उनकी अनुपस्थिति में इस अंक के प्रकाशन की कल्पना नहीं थी

गुरुवर की स्मृति को नमन के साथ मैं यह उम्मीद करता हूँ कि औपनिवेशिक काल के इतिहास लेखन में प्रतिबंधित साहित्य की ऐतिहासिक भूमिका के प्रति उनके विश्वास को कार्यरूप में तब्दील करने में भावी पीढ़ी अपना योगदान अवश्य देगी. यह विशेषांक इसी कड़ी में एक सामूहिक पहल है.

प्रतिबंधित साहित्य को समर्पित हिंदी के पहला शोध कार्य का श्रेय भगवान दास माहौर को है. ‘चाँदके संपादक रामरख सहगल और माहौर जी की चंद्रशेखर आजाद से आत्मीय घनिष्ठता थी. माहौर जी भुसावल बम कांड में जेल जा चुके थे. यह सिर्फ़ एक सूचना नहीं है बल्कि इस विषय की गंभीरता और प्रासंगिकता का एक ठोस साक्ष्य है. प्रतिबंधित साहित्य पर शोध की परम्परा का इतिहास सिर्फ़ अकादमिक दिलचस्पी का विषय नहीं है बल्कि उस आत्मीय लगाव का परिणाम है जो देश के लिए कुर्बानी के सिलसिले में खून और स्याही के बीच सर्जनात्मक रिश्ते की पहचान से संभव है.

यह विशेषांक इतिहास की एक बड़ी परिधि के परितः इन्हीं बड़े व्यासों से निर्मित एवं निर्धारित खाली स्थानों की पड़ताल और  पुनः  जोड़ने सहेजने की एक कोशिश भी है. 

राधावल्लभ त्रिपाठी जी का व्याख्यान भी इस अंक में शामिल किया गया है. इसे पढ़ कर पता चलेगा कि प्राचीन भाषायें भी अपने समय के साथ चलने की इच्छा रखती हैं और चलती भी हैं. स्वाधीनता आन्दोलन की चेतना ने भारत की समस्त भाषाओं को प्रभावित किया और ब्रिटिश हुक्मरानों को वैसे कानून बनाने पर मजबूर किया जिससे वे हमारी कलम पर, जुबान पर पहरा दे सकें. ‘कलम पर पहराशीर्षक से पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर जी का आलेख भी इसी कड़ी में परियोजना के अंतर्गत आयोजित व्याखानमाला का एक अमूल्य हिस्सा है और एक इस अंक की एक उपलब्धि है.

इस विशेषांक में शामिल अधिकांश आलेख मेरे अनुरोध पर लिखे गए हैं. एक योजना के तहत मैंने मित्रों से, शोधार्थियों से उनकी दिलचस्पी के आधार पर एक बड़ा वृत्त बनाने की कोशिश की है. ऐसा वृत्त जिसकी परिधि इतिहास और आख्यान के कई अचर्चित और उपेक्षित कोणों से होकर गुजरती है. सर्वश्री शकील सिद्दीकी, संतोष भदौरिया, निरंजन सहाय, आशुतोष पार्थेश्वर, जाकिर हुसैन, शशिकला जायसवाल, भीम सिंह, मधुलिका बेन पटेल, प्रकाश कोपेर्डे, जे. आत्माराम, राजकुमार, अखिल मिश्र, अख्तर आलम, निरंजन यादव, घनश्याम कुशवाहा, , मोहम्मद रियाज, , संगीता मौर्य, आशुतोष पाण्डेय, सोनम तोमर, भावना, विनीत पाण्डेय, श्रुति पाण्डेय, अरहमा खान, श्वेता सिंह, वर्षा गुप्ता, मधुरा केरकेट्टा, अमित कुमार, ज्योति यादव, अजित आर्या, विकास शुक्ल, पंकज यादव, अभिषेक उपाध्याय, श्वेता यादव, गौरव सिंह, ब्रजेश सिंह कुशवाहा, तेजप्रताप, मनीष सोलंकी, आशीष वर्मा, धर्मवीर, आशुतोष, सरस्वती और मुक्ति जैन ने अपने रचनात्मक सहयोग से इस अंक को जिस तरह समृद्ध किया है उनके प्रति आभार प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. मेरे निवेदन का मान रख कर इन्होने प्रतिबंधित हिंदी और उर्दू साहित्य पर जिन अलग- अलग दृष्टियों से विचार किया है वह भविष्य में इस दिशा में कार्य करने वाले शोधार्थियों के लिए प्रामाणिक सन्दर्भ स्रोत होगा, ऐसा मेरा पूरा विश्वास है.

 इन सभी आलेखों पर टिप्पणी करने की यहाँ न जरुरत है और न ही अवकाश. यह जिम्मेदारी आपकी है. यह अंक  अनेक विघ्न- बाधाओं के बावजूद आपके सामने है. वैसे भी सम्पादकीय दायित्त्व  लेखक और पाठक के बीच मध्यस्थता की अनुपस्थिति का आकाश भाव ही होना चाहिए. संपादक का काम और अध्यक्षता का काम लगभग समानधर्मा होता है. कम बोलने वाला लेकिन सबको जोड़ने वाला. 

यह विशेषांक एक ऐसा आयोजन है जिसमें एक साथ तीन पीढ़ियाँ शामिल हैं. ये तीनों पीढ़ियाँ स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल अपने शब्द कर्मियों को शब्द पुष्पों से याद कर रही हैंसंपादन और प्रूफ के क्रम में आशुतोष, अजित, गौरव, विनीत, श्रुति, श्वेता, आदित्य, अभिषेक और सुरेन्द्र को अथक सहयोग के लिए  हार्दिक धन्यवादमाणिक ने इस विशेषांक के लिए जिस विश्वास और धैर्य का परिचय दिया उसके लिए उनके प्रति हार्दिक आभार प्रकट करता हूँइस अकादमिक अभियान में आपके मूल्यवान सुझावों और रचनात्मक सहयोग का सदैव इंतजार रहेगा.

सादर, 

गजेन्द्र पाठक 

( 30.11.2022 )



 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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