आलेख : हिंदी का प्रतिबंधित साहित्य (1900 ई. से 1950 ई. तक) / डॉ. अखिल मिश्र

हिंदी का प्रतिबंधित साहित्य (1900 ई. से 1950 ई. तक)
- डॉ. अखिल मिश्र

सत्ता के विरोध में स्वर को कमजोर करने के लिए साहित्य को प्रतिबंधित किया जाता है। ऐसा बहुत बार हुआ है, विशेषकर भारत में आजादी की पृष्ठभूमि में निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं को ज़ब्त किया गया, संपादकों को गिरफ्तार किया गया, रिपोर्टों को ज़ब्त किया गया, प्रेस पर छापे पड़े, प्रेस के मालिकों को भी जेल जाना पड़ा, उनपर आर्थिक दंड लगाए गए। सत्ताएँ जनान्दोलनों से डरती हैं। कहा जाता है तानाशाह और हत्यारे दोनों कायर होते हैं और कोई भी सत्ता जनता को कानून अथवा किसी प्रकार के दूसरे भय को सृजित करा कर बराबर उसे वशीभूत करना चाहती है, क्योंकि कोई भी सत्ता हो, पूर्ण न्याय की प्रतिष्ठा नहीं कर सकती है। उसकी कार्यप्रणाली में कहीं न कहीं व्यक्ति, समाज की स्वाधीनता आदि पर अंकुश रखने की आवश्यकता पड़ती है। रचनाकार को इसका प्रतिरोध करना पड़ता है और साहित्य का जन्म ही प्रतिरोध से हुआ है। दुनिया भर के साहित्य के प्रादुर्भाव के समय को देखा जाए तो उनका जन्म सत्ता एवं व्यवस्था के प्रतिकार से हुआ है इसलिए सत्ताएँ समय-समय पर साहित्य को प्रतिबंधित करती रही हैं।                         
        
प्रतिबंध के प्रबंधन का सामान्य अध्ययन रोकना होता है लेकिन राजनीतिक परिवेश में इसका अर्थ उचित कार्यवाही से है। प्रशासन संगठन, सभा आदि को गैरकानूनी घोषित कर दंडात्मक रुख अपनाता है। कई बार भाषण देने पर, यात्रा करने पर निषेधाज्ञा लागू कर दी जाती है।  साहित्यकार 'व्यवस्था के विरुद्ध' जनता को जागरूक करता है और अपने हक की लड़ाई के लिए प्रेरित करता है। वर्चस्व की प्रवृत्ति होती है कि साहित्य में होने वाले विरोध के स्वर को, विरोध की कविता को औरों के सामने जाने से रोके। साम्राज्यवादी शक्तियों के संदर्भ में हम इस बात को स्पष्टता से समझ सकते हैं। साम्राज्यवादी शक्तियां अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए उन गतिविधियों का दमन करना चाहती हैं जो गुलामों मे, उपनिवेशों में स्वतंत्र होने की और मुक्त होने की चेतना भरती हैं। साहित्य में उन्हें जब-जब जनता को जागृत करने की चेतना जहां-जहां दिखाई दी उस साहित्य को साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया। 
  
युग का साहित्य स्वाभाविक तौर पर अपने समाज का दर्पण होता है। समाज के बदलाव की स्थितियां क्रमागत रूप से साहित्य में दिखाई पड़ती हैं और कई बार साहित्य समाज को भी बदलने की पहल करता है। जब कभी ऐसा लगता है कि साहित्य शासक के विरुद्ध जोर से आवाज उठाता है तब उसकी आवाज पर पाबंदी लगा दी जाती है। भारतीय अभिलेखागारों में ऐसी साहित्यिक रचनाएं प्रचुर मात्रा में प्राप्त पर हैं जो कभी प्रतिबंधित की गई थी। हालांकि प्रतिबंधित साहित्य मूलतः काल सापेक्ष होता है। साहित्य समाज की विचारधाराओं को प्रतिबिंबित करता है जो समय के साथ-साथ उजागर भी होता है और धुँधला भी। साहित्य की अपनी चिंताएं होती हैं। वह चिंताएं केवल वर्तमान की नहीं होती हैं उनमें भविष्य की चिंता भी शामिल होती है। इन चिंताओं की अनुभूति और अभिव्यक्ति साहित्य में स्पष्ट दिखाई पड़ती है। इन्हीं चिंताओं के निराकरण में उसका स्वर उत्तरोत्तर उच्च होता जाता है। जब यह स्वर तत्कालीन सत्ता (धार्मिक सत्ता, राजनीतिक सत्ता) से सीधे मोर्चा लेती है तो इन सत्ताओं का सिंहासन डोलने लगता है। ऐसा होने से बचाने के लिए सत्ता (धर्म और राजनीति की सत्ता) और साहित्य को लोगों तक पहुंचने से रोकने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है। प्रतिबंधित साहित्य का आशय साहित्य की रोक से नहीं है बल्कि एक विशेष समयकाल/देशकाल में उस साहित्य की जनमानस तक पहुंच से रोकने से है। आरंभ में ही कहा गया है कि प्रतिबंधित साहित्य वस्तु सापेक्ष नहीं बल्कि समय सापेक्ष होता है यही कारण है कि कई प्रतिबंधित साहित्य एक समय के बाद प्रतिबंध से मुक्त भी किए गए और भी उपलब्ध हैं। 
            
     प्रतिबंधित रचनाओं की संख्या इतनी है कि यदि उन्हें हिंदी साहित्य में शामिल कर लिया जाए तो साहित्य के इतिहास की रूपरेखा में आमूलचूल परिवर्तन आ सकता है क्योंकि उन साहित्य के इतिहास में इस विपुल साहित्य को स्थान नहीं मिला है। इनका स्वर, इनकी प्रवृत्ति, इनकी भाषा सब उस साहित्य से अलग है जिन्हें प्रतिबंधित नहीं किया गया। भारत में प्रतिबंधित साहित्य से संबंधित पहला श्रेष्ठ शोध 1976 में 'एन जेराल्ड बैरीयर' की किताब 'बैंड कंट्रोवर्शियल लिटरेचर एंड पॉलीटिकल कंट्रोल इन ब्रिटिश इंडिया' 1907-1947 में देखने को मिलता है। सन उन्नीस सौ सात से लेकर 1947 के बीच में ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य पर लगाए गए प्रतिबंधों का इस किताब में अध्ययन किया गया है। यहां तक कि भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार और ब्रिटिश संग्रहालय इंडिया के पुस्तकालय में मौजूद प्रतिबंधित रचनाओं की सूची भी इस किताब में है। एन. जेराल्ड बैरीयर ने इस पुस्तक में यह बताया है की इन 40 सालों के भीतर बंगला में 226, गुजराती में 158, हिंदी में 1391, हिंदुस्तानी में 320, मराठी में 185, अंग्रेजी में 273, पंजाबी में 135, उर्दू में 168, दक्षिणी भाषाओं में 224 और अन्य भाषाओं में 538 रचनाओं को ब्रिटिश शासन के अंतर्गत प्रतिबंधित किया गया था। 
              
साहित्य में यह स्थिति आश्चर्य पैदा करती है कि इतनी विपुल मात्रा में साहित्य की संख्या है जो उस बीच में प्रतिबंधित कर दी गई थी और हम सबके सामने नहीं आ सकीं। एन. जेराल्ड बैरियर ने प्रतिबंध की राजनीति का भी मुद्दा अपने पुस्तक में उठाया है। सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक बात यह है कि उन रचनाओं को प्रतिबंध तो लगाया जाता था लेकिन उन्हें सुरक्षित रखने के लिए इंग्लैंड भी भेजा जाता था। इन प्रतिबंधित साहित्यिक रचनाओं को जेराल्ड बैरियर ने तीन उपश्रेणियों में विभाजित किया है। पहली श्रेणी वह जिसके अंतर्गत धर्म संबंधी, ब्रिटिश विरोधियों और धर्मनिरपेक्ष राजनीति वाला साहित्य शामिल है। स्वाभाविक तौर पर यह समझना कठिन नहीं है कि इस ब्रिटिश शासन के अधीन एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी था और जिसके विरोध में जनता में एक स्वर भी गूँजता था जिसका संबंध ईसाई धर्म से, उसके प्रचार से और मिशनरियों के अधिक हस्तक्षेप से है। दूसरी श्रेणी के अंतर्गत भारत से प्रेम करने वाले देशभक्तों, भक्त लोगों की जीवनी और अन्य रचनाएं शामिल हैं और इसी में तीसरी श्रेणी देशभक्ति से जुड़ी हुई कविताओं और गीतों की है। हालांकि बैरियर ने यह भी लिखा है कि कई रचनाएं ऐसी भी हैं जो अपने स्वभाव और प्रकृति से इन तीनों श्रेणियों का अतिक्रमण करती हैं। सोचने वाली बात यह है कि बैरियर ने अपने जिस शोध में हिंदी की 1391 प्रतिबंधित रचनाओं का जिक्र किया है उस पुस्तक का भी जिक्र हिंदी साहित्य के इतिहास में कहीं नहीं मिलता।
              
जिन आधारों पर ब्रिटिश शासन के द्वारा साहित्य पर प्रतिबंध लगाया जाता था उसके मानदंड कुछ इस प्रकार थे कि जिस रचना में अट्ठारह सौ सत्तावन के आंदोलन का समर्थन दिखाई देता हो वह रचना प्रकाशित नहीं हो सकती। वह रचना भी प्रकाशित नहीं हो सकती जिसमें अंग्रेजी राज्य के दमन और शोषण के खिलाफत करने वाली हो। दुनिया के किसी भी देश की स्वाधीनता आंदोलन के समर्थन में लिखा हुआ लेख पूरी तरह से प्रतिबंधित था। यहाँ तक कि रूसी क्रांति और मार्क्सवाद के बारे में भी कुछ जानकारी देने वाली रचनाएं पूरी तरह से प्रतिबंधित थी।

अंग्रेजी सरकारों ने जिन कहानियों, उपन्यासों, निबंधों, पत्र-पत्रिकाओं आदि पर प्रतिबंध लगाया था, उनमें प्रेमचंद का सोजे वतन और समर यात्रा तथा अन्य कहानियों से हम परिचित हैं। साहित्य की शायद ही कोई विधा हो जो उस दौर में प्रतिबंध का शिकार न हुई हो। पांडे बेचन शर्मा उग्र के तीन कहानी संग्रह उसी दौर में प्रतिबंधित हुए। सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक 'देशेर कथा' और उसके हिंदी अनुवाद पर पाबंदी लगा दी गई। नवजादिक लाल श्रीवास्तव की किताब 'पराधीनता की विजययात्रा' पर पाबंदी लगी। देवनारायण द्विवेदी की किताब 'देश की बात' प्रतिबंध का शिकार हुई। 

आज जब यह पुस्तकें प्रतिबंधित होने की दशा से बाहर निकली तब उन्हें पढ़कर हम देखते हैं तो प्रतीत होता है कि हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय कविता और राष्ट्रीय साहित्य नाम का जो लेखन है, जिसे हम देखते पढ़ते आ रहे हैं वह कितना अपूर्ण है। यह कुछ पुस्तकें तो मात्र उदाहरण है। संग्रहालयों में अभिलेखागारों में मौजूद ऐसी हजारों किताबें रखी पड़ी हैं। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जो भी प्रतिबंधित साहित्य को नजरअंदाज करते हुए जो साहित्य का इतिहास लिखा गया उसकी विडंबना को देखते हुए डॉ मैनेजर पांडेय लिखते हैं, "यह देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के अंतर्गत अंग्रेजी राज के दौरान प्रतिबंधित हिंदी साहित्य का कोई उल्लेख नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में उनके विश्लेषण और मूल्यांकन की उम्मीद कैसे की जा सकती है?" 

अंग्रेजी राज के दौरान दो तरह की पुस्तकों पर पाबंदी लगी थी। उनमें से कुछ वैचारिक थी और अधिकांश रचनात्मक। वैचारिक पुस्तकों में अधिकांश का सम्बंध इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र से था तो सृजनात्मकता के अंतर्गत कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक निबंध आदि पुस्तकें आती थीं। हिंदी के साहित्य इतिहास की परंपरा को जाँचते परखते हुए एस. जानसन ने कहा था कि "हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी में लिखी गई और प्रतिबंधित हुई इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र की पुस्तकों पर विचार होना चाहिए। ऐसा करने के लिए हिंदी साहित्य के इतिहास को हिंदी वांग्मय का इतिहास बनाना होगा जो वह अभी नहीं है।" 
               
हिंदी साहित्य के इतिहास और कहीं-कहीं हिंदी आलोचना में भी एक राष्ट्रीय साहित्यधारा की चर्चा होती है पर उनमें कहीं प्रतिबंधित रचनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान आंदोलन के पक्ष में प्रेरणादाई साहित्य लिखने वालों को दोहरा दंड मिला। प्रथमशः अंग्रेजी राज ने उन रचनाओं पर प्रतिबंध लगाकर दंडित किया तो दूसरी तरफ हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने उन्हें उपेक्षा का दंड दिया (देश की बात की भूमिका)। उनके विश्लेषण और मूल्यांकन के बाद ही तो उनके साहित्यिकता तय हो सकती है न कि  अंग्रेजी राज की तरह उन्हें अवांछित मानकर उपेक्षित करने से। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान इतनी बड़ी संख्या में प्रतिबंधित रचनाओं की सूची देखकर और साहित्य इतिहास में उनकी अनुपस्थिति देखकर इस दोहरे दंड की बात सही ही लगती है। साहस और सच का जोखिम भरा रास्ता चुनने का यह अभिशाप उनके साथ भी जुड़ा हुआ है जो देश के लिए चुपचाप शहीद हो गए। अट्ठारह सौ सत्तावन के भीषण नरसंहार के बाद कठोर प्रेस कानून और अभिव्यक्ति पर लगाई गई पाबंदी की बात स्वाभाविक तौर पर समझ में आती है। व्यक्तिकेंद्रित इतिहास दृष्टि की संकुचित भावना के बंधन में रहकर व्यापक रूप से प्रतिरोध के उन स्वरों को हम तब तक नहीं समझ सकते जब तक बीसवीं शताब्दी के ब्रिटिश शासन में प्रतिबंध के शिकार हुए साहित्य को हम अपने सामने नहीं रखते।

अंग्रेजों के भारत में पांव पसारने के साथी भारतीय संस्कृति, प्राचीन ज्ञान और मूल्यों पर पाश्चात्य प्रभाव दृष्टिगत होने लगा। सभ्यताओं के बीच के खाई से जागरूक लोग भारतीय जनता को चेतना से युक्त करने का प्रयास कर रहे थे। परंपरागत चिंतन और पाश्चात्य प्रभाव से राष्ट्रीय चेतना का ढांचा बुना जाने लगा जिसको साहित्य, कला, राजनीतिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों और बौद्धिक साहित्यिक संगठनों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिली। बीसवीं सदी में गांधीजी के सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, अंग्रेजों की निर्ममता का अभिशप्त रूप जलियांवाला बाग हत्याकांड, भगत सिंह राजगुरु व सुखदेव की फांसी जैसी घटनाओं ने पूरे देश को झकझोर दिया। अंग्रेजी स्रोतों के सामने भारतीय दृष्टिकोण को साहित्यकारों ने कविता, नज्म, गजल, लेखों, नाटकों आदि विधाओं में व्यक्त किया। इनमें अधिकांश रचनाएं प्रतिबंधित हुई जिस कारण यह पढ़ी कम गई लेकिन गाई ज्यादा गयीं। श्रुति एवं वाचिक परंपरा के द्वारा यह सफर करती हुई लोक चेतना के लक्ष्य को प्राप्त करती रहीं। सरकार विरोधी रचनाओं के सृजन के खतरे को जानते हुए भी लेखकों और प्रकाशकों ने अपने नाम और पते के साथ कदम बढ़ाए और उसके बाद गिरफ्तारी, पुलिस अत्याचार, जुर्माने, जब्ती आदि झेलते हुए साहित्य का जो वितान रचा गया वह ब्रिटिश हुकूमत के लिए भयभीत करने वाला और असहनीय था। कड़े प्रेस कानून के तहत उन्हें जप्त कर लिया जाता था। कुछ ही प्रतियां गुप्त रूप से बची रही जो भारत के विभिन्न अभिलेखागारों तक पहुंची। 1905 से 1931-32 तक के राजनीतिक सरगर्मी पर सबसे अधिक साहित्य रचा गया जिसने आजादी के संघर्ष में अपनी महती भूमिका निभाई। 1922 में किशनचंद जेबा द्वारा रचित एक नाटक 'जख्मी पंजाब' जो जलियांवाला बाग हत्याकांड और त्रासदी पर आधारित था, लाहौर से प्रकाशित हुआ। उस समय भारत सत्याग्रह के राह पर अग्रसर हो रहा था। नाटक का कुछ अंश पढ़कर हम इस की भावना को जान सकते हैं 

"अगर चलती रही गोली यूं ही निर्दोष जानों पर,
तो कौवा और कबूतर ही रहेंगे इन मकानों पर
मिटा डालेंगे इस तरह हाकिम अपनी प्रजा को
हुकूमत क्या करेगी फिर वह मरघट और मसानों पर।।"

तो इसी समय में सुभद्रा कुमारी चौहान की भी कविता 'जलियांवाला बाग में बसंत' के नाम से प्रकाशित हुई। 1930 में भोलानाथ वैभव ने 'आजादी की तोप' के नाम से विदेशी कपड़ों के बहिष्कार और पश्चिमी फैशन पर व्यंग करते हुए एक सशक्त पुस्तक लिखी, जिसे प्रतिबंधित कर दिया गया। 1931 में भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिए जाने के विरोध में विपुल साहित्य रचा गया जिसे प्रतिबंधित कर दिया गया जिसमें प्रभु नारायण मिश्रा की गया से प्रकाशित 'लाहौर की सूली' अपने आप में अप्रतिम है। 
                     
  पत्र पत्रिकाओं के मामले में भी ब्रिटिश सरकार बहुत सतर्क थी। दैनिक पत्र में वर्तमान काफी चर्चित एवं लोकप्रिय था जो कानपुर से प्रकाशित होता था। इसके संपादक रमाशंकर अवस्थी थे। वर्तमान को अनेक बार आपत्तिजनक लेख एवं कविताएं प्रकाशित करने पर सरकारी चेतावनी एवं जमानत की राशि जमा करनी पड़ी थी। अंततः 6 फरवरी 1934 के वर्तमान के अंक में पंडित जवाहरलाल नेहरू के पूर्वी बंगाल में राजनीतिक भूकंप शीर्षक लेख जिसमें बंगाल में सरकारी दमन नीति पर विस्तृत प्रकाश डाला गया था, को प्रकाशित करने के अपराध में वर्तमान का अंत सरकार द्वारा जप्त कर लिया गया और पत्र से पंद्रह सौ रुपए की जमानत मांगी गई। वर्तमान का यह प्रतिबंधित अंक प्राप्त नहीं हो सका है।

भारत की उग्र राजनीतिक धारा के प्रवाह में पहला पत्र हिंदी का साप्ताहिक अभ्युदय था जिसके जन्मदाता पंडित मदन मोहन मालवीय थे। मई 1931 में इलाहाबाद के अभ्युदय ने भगत सिंह विशेषांक प्रकाशित किया जिसमें महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू आदि के लेख प्रकाशित हुए। पत्र में प्रकाशित इस सामग्री को आपत्तिजनक घोषित करते हुए अभ्युदय के इस विशेषांक को जप्त कर लिया गया। इसके अलावा अभ्युदय ने पुनः 18 नवंबर सन 1931 को किसान अंक प्रकाशित किया जिसमें किसान आंदोलन से संबंधित विस्तृत लेख में कविताएं प्रकाशित हुई। इसे प्रांतीय सरकार ने प्रतिबंधित घोषित किया। कानपुर से प्रकाशित होने वाले पत्र प्रताप ने अपने मार्ग की कठिनाइयों की कुछ भी परवाह न करते हुए राष्ट्र की अनवरत सेवा की। गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादकत्त्व में 23 नवंबर 1920 से प्रताप का दैनिक संस्करण भी निकलने लगा। प्रताप ने हमदम के नाम से एक अंक निकाला जिसमें राष्ट्रीय कविताएं प्रकाशित हुई। इस अंक को जप्त कर लिया गया। शंखनाद क्रांतिकारी साप्ताहिक पत्र था जिसका प्रकाशन सन् 1930 ईस्वी में बनारस से शुरू हुआ। इसकी उग्र विचारधारा का ही परिणाम था कि शंखनाद की 1932-1933 के प्रकाशित प्रायः सभी अंकों को राजद्रोहात्मक बताते हुए जप्त कर लिया गया। इटावा के हिंदी पाक्षिक पत्र हलधर का 15 और 30 जुलाई 1939 का अंक भारतीय दंड विधान में वर्णित दंडनीय सामग्री प्रकाशन के कारण उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जप्त किया गया। साहित्यिक पत्रिका सुधा जिसमें कभी-कभी राजनैतिक विषयों पर भी लेख होते थे, भगत सिंह के लिए शीर्षांकित कविता प्रकाशित करने के अपराध में लखनऊ के सुधा का जुलाई सन 1931 का अंक सरकार के द्वारा जप्त कर लिया गया।

6 अप्रैल 1919 को जब गोरखपुर से स्वदेश प्रकाशित हुआ तो इसे अपनी उग्र विचारों एवं स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की भावना के कारण आरंभ से ही सरकारी कोपदृष्टि का शिकार होना पड़ा। प्रकाशन के पूर्व ही स्वदेश के 500 रुपए की जमानत की मांग की गई। हिंदी पत्रकारिता के क्रांतिकारी प्रकाशनों के इतिहास में गोरखपुर से प्रकाशित स्वदेश की विजयांक विशेष रूप में उल्लेखनीय रहा। 7 अक्टूबर 1924 के स्वदेश के विजायांक में ऐसी विद्रोही तथा क्रांतिकारी पाठ्य-सामग्री थी कि वह सरकार द्वारा तत्काल जप्त किया गया। इस अंक में प्रसिद्ध व्यक्तियों की कुल 39 लेख और कविताएं प्रकाशित हुई। इस विशेषांक के संपादक पांडे बेचन शर्मा उग्र थे। स्वदेश की आंदोलनप्रियता और स्वातंत्र्यलिप्सा उसके प्रथम पृष्ठ पर अंकित इस पंक्ति से समझी  जा सकती है-

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं
वह हृदय नहीं वह पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।। 

इसी प्रकार टोडर सिंह तोमर के संपादन में कानपुर से प्रकाशित होने वाला मासिक पत्र वालंटियर भी उग्र विचारधारा से संबंधित पत्र था, जिसके नवंबर एवं दिसंबर के संयुक्त अंक को आपत्तिजनक एवं सरकार विरोधी सामग्री मानते हुए अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया वालंटियर का यह प्रतिबंधित अंक कुल 32 पृष्ठों का है, जिसके प्रथम पृष्ठ पर गंगा नारायण अवस्थी की चरखा-महात्म्य कविता काफी विचारोत्तेजक है। इसी प्रकार सन 1922 में चाँद का प्रकाशन हिंदी साहित्य और भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। चाँद के अनेक अविस्मरणीय विशेषांको का प्रकाशन हुआ जिसमें मारवाड़ी अंक, फांसी अंक सर्वाधिक चर्चित रहे। इस पत्रिका का फांसी अंक नवंबर सन 1928 में प्रकाशित हुआ जिसमें विचारोत्तेजक एवं क्रांतिकारी सामग्री प्रकाशित हुई। ब्रिटिश सरकार ने घबराकर तुरंत उसे जप्त कर लिया। चाँद की फांसी अंक के संपादक चतुरसेन शास्त्री थे जिन पर इसके संपादन के आरोप में मुकदमा भी चलाया गया। चाँद के फांसी अंक की विनयांजलि के अंतर्गत संपादक लिखते हैं, ‘चाँद की बहिनों, भाइयों और बुजुर्गों के हाथ में दीपावली के शुभ अवसर पर फांसी जैसा हृदय को दहलाने वाला साहित्य सौपते हमारा हाथ काँपता है।‘ हृदय को दहलाने वाले साहित्य के प्रकाशन से अंग्रेजी सरकार भयभीत हो गई। आचार्य देव शर्मा अभय एवं भीमसेन विद्यालंकार द्वारा संपादित मासिक पत्रिका अलंकार राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक चेतना वाली पत्रिका थी। दिसंबर 1934 का अंक अपनी उग्र वैचारिकता के कारण अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रतिबंधित किया गया। जिसकी एक प्रति आज भी भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद है। पत्रिका का यह प्रतिबंधित अंक लगभग 61 पृष्ठों का है। नेशनल प्रेस कानपुर द्वारा मुद्रित और प्रकाशित क्रांति पत्रिका क्रांतिकारी पिता एवं उग्र विचारों की भाव-भूमि इसी बात से समझी जा सकती है कि अंग्रेज सरकार ने क्रांति के लगातार दो अंको को प्रतिबंधित किया, जिसमें सितंबर 1939 और अक्टूबर 1939 के अंक शामिल हैं। प्रसिद्ध क्रांतिकारी एवं साहित्यकार यशपाल द्वारा संपादित मासिक पत्र विप्लव के 1939 के फरवरी अंक जो चंद्रशेखर आजाद को समर्पित था, को क्रांतिकारी रुझानों से भरा होने और अपने उग्र विचारों के कारण अंग्रेजी सरकार का कोप भाजन बनना पड़ा। देश के स्वतंत्रता की घोषणा के कुछ महीने पहले ही 1946 में गोरखपुर के गीता प्रेस से निकलने वाली पत्रिका 'कल्याण' का सितंबर माह का अंक प्रतिबंधित कर दिया गया। इसपर धार्मिक उन्मादता का आरोप लगाते हुए प्रतिबंध का यह कारण बताया गया कि "इसमें हिंदुओ से, खासकर हिन्दू महिलाओं से अपील की गई थी कि वो मुस्लिमों के अत्याचारों का विरोध तलवार से करें।" (साप्ताहिक रिपोर्ट, सीआईडी 1946)

आज़ादी की लड़ाई में गांधीजी और चरखा एकदूसरे का पर्याय बन गए थे। चरखे को ही स्वराज की लड़ाई में एक प्रमुख हथियार के रूप में देखा जा रहा था इसलिए गाँधी जी पर लिखी गयी तमाम रचनाएँ भी ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दीं गयीं। स्वराज संग्राम का बिगुल (प्रतिबंधित, 25 अगस्त, 1930), गांधी जी का चर्खा (प्रतिबंधित 30 मार्च , 1930), वन्देमातरम गांधी गौरव, (प्रतिबंधित 9 दिसम्बर, 1931), महात्मा जी की पुकार (प्रतिबंधित 30 मार्च, 1931), महात्मा गांधी की आंधी (प्रतिबंधित 10 दिसम्बर, 1930), स्वदेशी वस्तुओं के आग्रह में 'स्वराज गीतांजलि (प्रतिबंधित 21 दिसम्बर, 1931), गांधी संग्राम (प्रतिबंधित 9 दिसम्बर, 1941), राष्ट्रीय तरंग (प्रतिबंधित दिनांक: 30 मार्च, 1931) जैसी रचनाओं ने गाँधी जी के समर्थन में ऐसे आवाज बुलंद की कि भय के मारे अंग्रेजी हुकूमत को इसे प्रतिबंधित कर देना पड़ा।

निष्कर्ष : हम कह सकते हैं कि प्रतिबंधित साहित्य वह अमूल्य थाती है जो संग्रहालयों में पड़ी शोधार्थियों की राह ताक रही है। किन्हीं काल विशेष में किसी रचना का प्रतिबंधित हो जाना निश्चित ही उसकी चेतना और विद्रोहधर्मिता के साथ साथ उसके साहस को दिखाता है। प्रतिबंधित साहित्य का महत्व इसलिए भी है क्योंकि अपने समय में प्रतिबंधित होने के बावजूद यह देश से जुड़े लगभग हर मसलों पर स्पष्ट चर्चा करता है। इस साहित्य में न केवल गुलामी से निजात पाने की जद्दोजहद दिखाई पड़ती है बल्कि किसान, मजदूर, स्त्री एवं दलित जैसे अंतिम छोर पर खड़े बिंदुओं के विषय में भी भरपूर रुचि दिखाई पड़ती है। यहां तक कि विदेशों में गुलामों से भी बदतर जीवन जीने वाले प्रवासी मजदूरों की स्थितियाँ भी प्रतिबंधित साहित्य से अछूती नहीं रही हैं। यह वर्चस्ववादी सत्ता से चाहे वह धर्म की सत्ता हो या राजनीति की, से सीधे सीधे टकराने की हिम्मत जुटाता है और लोगों के ज़ेहन में बसकर उस 'व्यवस्था' को सुधारने के लिए प्रेरित करता है।


डॉ. अखिल मिश्र
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर
akhilmishra777@gmail.com 

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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