आलेख : 'हिंद स्वराज' अंग्रेजी नीतियों के प्रति जागरण का स्वर / डॉ. श्वेता सिंह

'हिंद स्वराज' अंग्रेजी नीतियों के प्रति जागरण का स्वर 
- डॉ. श्वेता सिंह

भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक चिंतन परंपरा में अपना स्थान सुनिश्चित करने वाली बीसवीं शताब्दी की सबसे चर्चित पुस्तक के रूप में विख्यात, हिंद स्वराज मात्र एक पुस्तक नहीं बल्कि विचारों का वह पुंज थी, जिसने समूचे भारतीयों को अपने विचारात्मक प्रकाश से आलोकित किया था। शताब्दी गुजर जाने के उपरांत भी यह पुस्तक आज भी भारत और भारतीय परंपरा के गूढ़ रहस्यों के साथ उसकी सैद्धांतिक परंपरा को समझने हेतु उपयोगी है। इस पुस्तक के माध्यम से गांधी ने कुछ ऐसे प्रतिमानों को गढ़ा था, जो मात्र वैचारिक सीमा के विस्तार तक सीमित नहीं थे, बल्कि औपनिवेशिक भारत के विचारात्मक सीमा का भी अतिक्रमण कर रहे थे। हिंद स्वराज ने जितना भारतीयों को प्रभावित किया, उतना ही वैश्विक फलक पर गांधी के विचारों को प्रसारित किया। यही कारण था कि भारत और उसकी सनातन भारतीय परंपरा, संस्कृति को बगैर हिंद स्वराज के समझना जितना बीसवीं शाताब्दी के प्रथम दशक में कठिन था, वैसे ही आज है। भारतीय विचारकों का मानना है कि भारतीयता के स्वरूप को यदि सही अर्थों में समझने का प्रयास किया जाए तो हमें हिंद स्वराज से भी होकर गुजरना होगा। औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की विसंगतियों को समझने हेतु तथा भारतीय संस्कृति और सभ्यता के गूढ़ रहस्य का परिचय प्राप्त करने हेतु 1909 ई. की यह पुस्तक मील का पत्थर थी। जिसे दरकिनार कर भारत में अंग्रेजी राज के प्रभाव पर बात करना नीतिसंगत न था, क्योंकि अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की तमाम परतों को यह पुस्तक खोलने में सक्षम थी जिसे चित्रित करना प्रतिबंधित था। औपनिवेशिक भारत के युगीन परिदृश्य पर विचार करने के उपरांत हम यह पाते हैं कि पराधीन भारत का यह वही समय था जब दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की अस्मिता को लेकर संघर्ष छिड़ा हुआ था। सत्याग्रह की आरंभिक सफलताओं  के साथ  धीरे- धीरे गांधी की ख्याति देश-विदेश तक फैलने लगी । परंतु परिस्थितियां उतनी सरल न थी कि गांधी के सभी विचारों को सहजता से स्वीकार कर लिया जाए। अंग्रेज भी गांधी के साम्राज्यवाद विरोधी विचारों से परिचित हो चुके थे। इसके बावजूद भी यह उनके आत्मबल का ही परिणाम था कि मंद गति से ही सही परंतु अंग्रेजी साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ जनता में व्यापक चेतना का संचार होने लगा था। जिसे हम हिंद स्वराज के माध्यम से और गांधी के विचारात्मक संवाद  के माध्यम से देखते हैं। पुस्तक पर विचार के उपरांत गांधी और उनका हिंद स्वराज अनगिनत प्रश्नों के साथ ज्ञान की सीमित परिधि को विस्तार देते हुए प्रकट हो जाता है। जिससे हिंद स्वराज के माध्यम से  बापू के महत्वपूर्ण विचारों को आत्मसात करते हुए ही समझा जा सकता था। पुस्तक के संवादों पर विचार करने के उपरांत अनेकों प्रश्न अनायास ही उठ खड़े होते हैं जिसका उत्तर तलाशना जरूरी है। इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में भी यह पुस्तक क्यों पढ़ी जाए ? क्या औपनिवेशिक भारत की विसंगतियों को चित्रित करती यह पुस्तक भारतीयों के सम्मुख साम्राज्यवादी नियमों को समझने हेतु कोई मार्ग सुझाती है? क्या इस पुस्तक को पढ़े बगैर युगीन भारत और उसके भारत बोध को समझा जा सकता था जिसकी नीव हिंद स्वराज के माध्यम से गांधी ने रखने का प्रयास किया था? साथ ही कौन सा ऐसा कारण था कि अंग्रेजों ने इस पुस्तक को प्रतिबंधित करके इसकी प्रतियों को ज़ब्त कर लिया ? ऐसे तमाम प्रश्न मस्तिष्क के परतों को कुरेदते हैं जिसका उत्तर गांधी अपनी इसी पुस्तक में आत्मबल के साथ देते हुए कहते हैं  " मेरी एक छोटी सी किताब इतनी निर्दोष है कि बच्चों के हाथ में भी यह दी जा सकती है। यह किताब द्वेष-धर्म की जगह प्रेम- धर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म - बलिदान को स्थापित करती है; और पशु बल के खिलाफ टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है।"1  तो क्या गांधी जी के इस कथन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके आत्मबल के सम्मुख ब्रिटिश सरकार नतमस्तक थी? या  इसके  इतर कोई और कारण था जिसके परिणामस्वरूप हिंद स्वराज को प्रतिबंधित किया गया। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि  हिंद स्वराज जैसी पुस्तक को अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित किया गया। इतिहास गवाह है कि जब-जब बाहरी आक्रमणकारियों की नीतियों के खिलाफ कोई खड़ा हुआ है उसे या तो मौन कर दिया गया है या उसकी लेखनी को जब्त करते हुए उसकी चेतना को कुचल दिया गया है। इतिहास के पन्नों को खंगालने के उपरांत ऐसे अनेकों  उदाहरण सहजता से मिल जाते हैं जिन्हें मिटाने का प्रयास आक्रमणकारी जातियां सदा से करती आई हैं। हिंद स्वराज से पूर्व प्रेमचंद की प्रथम रचना  सोज़े-वतन पर भी ऐसे प्रतिबंध लगाए गए थे तथा अंग्रेजी राज के प्रति भड़काऊ टिप्पणी के आरोप में जिसकी प्रतियों को जब्त कर लिया गया था। इसके समानांतर   हिंद स्वराज पर  विचार करने के उपरांत बापू की यह पुस्तक भले ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सीधे नहीं खड़ी होती बल्कि परोक्ष रूप से जनता के विचारों को आंदोलित करने में सक्षम थी। जिसके माध्यम से गांधी ने शांतिपूर्ण ढंग से भारतीय जनता को जागृत करने और अंग्रेजी प्रशासन और पाश्चात्य सभ्यता के नकारात्मक परिणामों से भारतीय जनमानस को अवगत कराने का प्रयास भी किया था। परंतु अंग्रेजों के साम्राज्यवाद के प्रचार में शामिल भारतीय पीठुओं ने भी अंग्रेजों को बराबर भारत में चल रहे अंग्रेजी नीतियों के विरोध से अवगत कराने का कार्य किया। जिसके परिणामस्वरूप बर्बरता से योजनाओं को कुचला जाने लगा। जिस तरह बापू ने अंग्रेजी शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था की आलोचना दबे स्वर में की तथा भारतीयों को संगठित रहने का मर्म समझाया वह बीसवीं शताब्दी की कोई सामान्य घटना न थी । बापू ने हिंद स्वराज के माध्यम से अंजाम दिया। इसके साथ ही भारतीय एकता का संगठित रूप, भारतीय सभ्यता को अंग्रेजी सभ्यता से श्रेष्ठतम सिद्ध करना, भारत में सनातनी समाज व्यवस्था का प्रसार तथा  शिक्षा व्यवस्था का भारतीय रूप कैसा हो? जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों के साथ भारतीय अंग्रेजी प्रभाव से मुक्त होकर अपनी सभ्यता, संस्कृति का अनुसरण कैसे कर सकते थे इसका निवारण भी गांधी की यह पुस्तक प्रस्तुत करती है। 

जिस प्रपंच और चकाचौंध भरे वातावरण को अंग्रेजों ने भारतीयों के बीच पेश किया था। हिंद स्वराज के माध्यम से उसमें धीरे- धीरे ही सही परंतु परिवर्तन देखने को मिला। कुछ विचारकों का मानना था कि इस परिर्वतन का कारण भारतीय पत्र पत्रिकाओं की बढ़ती भूमिका थी। परंतु इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि अंग्रेजी राज के प्रपंचों से भारतीय जनता को परिचित कराने हेतु तथा भारतीय सनातानी सभ्यता, संस्कृति के प्रति भारतीयों के आकर्षण को बढ़ाने का कार्य हिंद स्वराज ने ही किया। बहुत ही नपे तुले शब्दों में गांधी ने युगीन समस्याओं पर भारतीयों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया है। यह चिंता बराबर से दिखाई देती है कि पाश्चात्य सभ्यता के मोह से भारतीय कैसे बाहर निकलकर स्वदेशी के प्रति आकर्षित हों, इसकी व्यापक चिंता गांधी के विचारों में स्पष्ट दिखाई दे रही थी । 

अब प्रश्न उठता है कि गांधी ने अपनी इस पुस्तक में संवाद शैली का ही प्रयोग क्यों किया जो उस युग के संदर्भ में कम प्रचलित थी? यह चिंतन का विषय हो सकता  है,  हिन्द स्वराज के संदर्भ में यह भी जान लेने की जरूरत है कि युगीन परिस्थितियां भारतीयों के लिए इतनी अनुकूल नहीं थीं कि भारतीय जनता को अंग्रेजी शोषणतंत्र के खिलाफ़ सीधे सचेत किया जा सके। यही कारण था कम प्रचलित शैली का चुनाव भारतीय जनमानस को जागृत करने हेतु गांधी ने किया। भारतीय उपनिषदों पर विचार करें तो हम यह पाते हैं कि कुछ उपनिषद ऐसे भी थे जिसमें इसी संवाद-शैली का प्रयोग प्रमुखता से किया गया था। जिससे प्रभावित होकर बापू ने भी इस कम प्रचलित शैली का प्रयोग युग के अनुरूप करना शुरू किया। उनका मानना था कि स्वराज रूपी फल का आस्वादन हम तब तक नहीं ले सकते  जब तक हम अंग्रेजी नीतियों की मानसिक गुलामी से स्वयं को मुक्त न कर लें। अंग्रेजी मन मस्तिष्क से मुक्ति ही स्वराज का द्वार सिद्ध हो सकती थी जिसे हिंद स्वराज के माध्यम से गांधी ने चरितार्थ किया।

अंग्रेजी आचार-विचार की मानसिक गुलामी को आत्मसात कर चुके भारतीयों के सम्मुख गांधी के विचार अंग्रेजी गुलामी से बाहर निकलने का मार्ग सिद्ध कर रहे थे जो धीरे धीरे स्वराज प्राप्ति की मांग के साथ भारतीयों के बीच विकसित होते गए। बापू का यह स्पष्ट मानना था कि  जब तक हम  मानसिक गुलाम बने रहेंगे, तब तक हम भारतीय  सनातनी सभ्यता के महत्व और उसकी उपयोगिता को समझने में असमर्थ सिद्ध होंगे। जब तक भारतीय धर्मपरायण और कर्त्तव्यपरायण के बीच के सूत्र को आत्मसात कर आगे नहीं बढ़ते तब तक संगठन के व्यापक सिद्धांत से कोसो दूर रहकर अंग्रेजी नीतियों का ही प्रचार करते रहेंगे। गांधी यह स्वीकार कर चुके थे कि जिस तरह हमारे मन मस्तिष्क पर पश्चिम का प्रभाव बढ़ता जा रहा था वह निश्चित रूप में चिंता का विषय था। परंतु इससे भी अधिक चिंता इस बात की थी कि हमने अंग्रेजी सभ्यता के नकारात्मक प्रभाव को ही सकारात्मक रूप में ग्रहण कर लिया। और उनके सकारात्मक मूल्यों को ज्यों का त्यों छोड़ दिया। जब तक हम पश्चिम के विज्ञान और यांत्रिक कौशल के बीच शोषण की परतों को भली भांति नहीं समझ लेते तब तक हम  किसी भी रूप में इस शोषणतंत्र  के बीच फंसे भारतीयों को उनके अधिकार और कर्तव्य के प्रति जागृत करने में असमर्थ सिद्ध होते रहेंगे । गांधी के इन्हीं महत्वपूर्ण विचारों ने जनता को भीतर से आंदोलित करने का कार्य किया तथा भारत को अंग्रेजी गुलामी से निकालकर एक सुसंस्कृत भारत निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि जनता की सक्रियता धीरे - धीरे आंदोलन में बढ़ने लगी जिसे गांधी ने अपने भारत आगमन के पश्चात स्वराज के लिए प्रयोग किया।

 बीस छोटे अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में भारतीय सनातनी संस्कृति, सभ्यता का दर्शन, सत्याग्रह- आत्मबाल, सच्ची सभ्यता कौन सी? जैसे प्रश्नों को प्रमुखता से उद्घाटित किया गया था। जिससे औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी मानसिकता को भारतीय जनता भली भांति समझकर अंग्रेजी नीतियों के प्रति उनकी सतर्कता को बढ़ा सके। अब प्रश्न उठता है कि गांधी ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का विरोध क्यों किया जबकि उन्होंने वकालत की पढ़ाई इंग्लैंड से ही की थी? क्यों उन्होंने स्वीकार किया कि भारतीय शिक्षा पद्धति पश्चिमी शिक्षा प्रणाली से श्रेष्ठ है? ऐसे बहुत से प्रश्न हिंद स्वराज को पढ़ते हुए अनायास ही उठ जाते हैं। जिसका उत्तर बहुत हद तक हिंद स्वराज के माध्यम से गांधी देने का प्रयास करते हैं। इंग्लैंड में रहते हुए जो उनका अनुभव अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को लेकर था, अपने उसी अनुभव के आधार पर उन्होंने यह पाया कि यह पश्चिमी शिक्षा पद्धति गुलाम बनाने की पद्धति थी। जो कहने को तो सभी के लिए समान थी परंतु उसमें व्यापक भेद निहित था जिसे समझे बगैर उसके दुष्परिणामों को नहीं समझा जा सकता। गांधी का मानना था कि जो शिक्षा संवेदना नहीं पैदा कर सकती, एक दूसरे में भाईचारा नहीं पैदा कर सकती, वह मानव के लिए कल्याणकारी कदापि नहीं हो सकती। जो शिक्षा मनुष्य को मशीन बना दे वैसी शिक्षा से मनुष्य अपनी मनुष्यता खोता चला जाएगा जिससे संवेदनहीन समाज की निर्मिति होगी। शिक्षा की इसी यांत्रिक पद्धति के विरोध में ही उन्होंने भारतीय शिक्षा प्रणाली को महत्वपूर्ण बताकर उसकी श्रेष्ठता से भारतीय जनता का परिचय कराने का प्रयास किया। 

हिंद स्वराज के माध्यम से अंग्रेजी राज का जो तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया वह गांधी के अध्ययन और तार्किक दृष्टिकोण का ही परिणाम था। जिसे मुखर होकर उन्होंने अंग्रेजी संस्कृति, अंग्रेजी प्रशासन, अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था की कटु आलोचना के साथ हिंद स्वराज के माध्यम से भारतीय जनता तक पहुंचाने का कार्य किया। उनका मानना था कि हम जो बराबर अंग्रेजों और उनकी व्यवस्था को कोसते हैं, सही मायने में हम अपने दोष पर भी पर्दा डालते हैं लाख खामियों के बावजूद भी हमें उनसे बहुत सी चीज़े सीखने की आवश्यकता है। भारत की इस दीन-हीन दशा के जिम्मेदार अंग्रेज नहीं थे, बल्कि भारतीय स्वयं थे। बात बात में अंग्रेजों पर आरोप लगाना कि उन्होंने हमारी संगठित एकता को खंडित किया है यह ठीक नहीं। इस संबंध में गांधी का विचार था कि आज जो हमारी दुर्गति है वह हमारे कारण है, इसके लिए जितना अंग्रेज जिम्मेदार हैं, उससे कहीं अधिक भारतीय। हमने संगठित होकर रहने का मंत्र भुला दिया और स्वयं को जात धर्म के नाम पर खण्डित करते चले गये। अंग्रेजी संस्कृति और सभ्यता का अंधा अनुकरण करते हुए अपनी सभ्यता और संस्कृति को तुच्छ मानकर हीनताबोध से कभी उभर नहीं सके। मात्र इतना ही नहीं विदेशी सभ्यता और संस्कृति के साथ उसके आचार विचार तक को हमने अपनाकर श्रेष्ठता के मोह में लिप्त रहे। जिसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी विभेदकारी षड्यंत्र  के हम ग्रास बनते चले गए जो भारत की गुलामी का कारण बना। हिंद स्वराज पर विचार करने के उपरांत बहुत सी बातें स्पष्ट हो जाती हैं जो युगीन परिदृश्य को समझने हेतु कारगर थीं, जिसे बापू ने भी विस्तार से समझाने का प्रयास किया था। उनका मानना था कि वस्तुतः यह पाश्चात्य आधुनिक सभ्यता की समीक्षा है और उसको स्वीकार करने पर प्रश्नचिन्ह है। ब्रिटिश संसदीय गणतंत्र की कटु आलोचना है और अंततः भारतीय आत्मा को स्वराज, स्वदेशी, सत्याग्रह, तथा सर्वोदय की सहायता से रेखांकित करने का प्रयत्न है।2 कथन से स्पष्ट है कि भारतीय जनमानस में व्याप्त अंग्रेजी राजव्यवस्था तथा समाज व्यवस्था के प्रति मोह को कैसे निकाला जाए? जिससे साम्राज्यवादी शासन के शोषण की अमानवीय परतों से परिचित कराते हुए साम्राज्य विस्तार की अंग्रेजी नीतियों का पर्दाफाश किया जा सके। जो भारत जैसे देश की मांग बन चुकी थी। इसके साथ ही भारत में कुछ ऐसी घटनाएं घट चुकी थीं  जिससे गांधी भीतर ही भीतर व्यथित थे। बीसवीं सदी का प्रथम दशक 1905 ई. से 1907 ई. के बीच की घटनाओं ने गांधी को भीतर से भारत के प्रति चिंतित कर दिया । कर्जन के बंगाल विभाजन के पश्चात सूरत अधिवेशन में शक्ति का जो विकेंद्रीकरण हुआ उससे गांधी चिंतित थे। उन्होंने कहा भी था कि " यह सच है कि ये जो दल हुए हैं, उनके बीच जहर भी पैदा हुआ है। एक दल दूसरे का भरोसा नहीं करता, दोनों एक दूसरे को ताना मारते हैं सूरत - कांग्रेस के समय करीब- करीब मारपीट भी हो गई। ये जो दो दल हुए हैं, वह देश के लिए अच्छी निशानी नहीं है, ऐसा मुझे लगता है। लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि ऐसे दल लंबे अरसे तक टिकेंगे नहीं।"3  विचारणीय है कि गांधी का यह कथन युगीन राजनीति में व्याप्त संगठन की कमी को रेखंकित करता है। शक्ति का जो विकेंद्रीकरण सूरत अधिवेशन के माध्यम से दिखाई दे रहा था वह धीरे-धीरे विस्तार ग्रहण करने लगा था। जिसे बापू ने अशांति और असंतोष के माध्यम से चित्रित करते हुए  नेतृत्वहीन संगठन कैसे अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष कर रहा था  उसपर उन्होंने अपना  मत स्पष्ट किया । हिंद स्वराज को पढ़ते हुए यह प्रश्न सहजता से उद्घाटित हो जाता है कि हिंद स्वराज नामक पुस्तक को गांधी जी ने गुजराती भाषा में ही क्यों लिखा ? जबकि हिंदी के साथ अंग्रेजी भाषा पर भी उनका जबरदस्त अधिकार था। कौन सा ऐसा कारण था कि हिंद स्वराज लिखने हेतु उन्हें अपनी मातृभाषा का चुनाव करना पड़ा ? प्रश्न भले ही साधारण प्रतीत हो रहा हो  परंतु इसके पीछे गांधी की व्यापक दृष्टि को समझना भी आवश्यक है। जिसे जाने बगैर मातृभाषा के प्रति गांधी के आकर्षण को नहीं समझा जा सकता। गांधी यह मानते थे कि मातृभाषा ही वह माध्यम है जो मन की समस्त भावनाओं को संपूर्णता में व्यक्त करने की क्षमता रखता है। बापू ने भी अपने मन के भावों को संपूर्णता में व्यक्त करने हेतु अपनी मातृभाषा का ही चुनाव किया है इसमें कोई संदेह नहीं। बापू की यह बराबर चिंता थी कि  भारत अपनी श्रेष्ठता को कैसे प्राप्त करे जिसे अंग्रेजीराज ने मलिन कर रखा था। उन्होंने अपने विचारों को साकार रूप प्रदान करते हुए भारतीय जनमानस के मन मस्तिष्क को अंग्रेजी मानसिक गुलामी से निकालकर एक सुसांस्कृतिक भारत की ओर ले जाना ही हिंद स्वराज का ध्येय समझा। जो गांधी के भारत आगमन के पश्चात और भी प्रमुखता से दिखाई देने लगा । भारतीय सभ्यता के प्रश्न पर जैसी मुखरता बापू ने हिंद स्वराज में दिखाई है वह काबिले तारीफ है। जिसके माध्यम से साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ़ ऐसे गंभीर प्रश्न उठने लगे थे, जो अंग्रेजों को झंकझोर रहे थे। जिसमें विदेशी सभ्यता के भारतीयकरण का मुद्दा भी महत्वपूर्ण था जिसे बापू ने गंभीरता के साथ देखा और उसके निवारण पर विचार किया। उनका मानना था कि जब तक हम अपने मूल से जुड़कर नहीं रहेंगे, तब तक अपनी बुद्धि विवेक को अंग्रेजी नीतियों के अधीन चलाते रहेंगे , जब तक अपनी संस्कृति को हीन और परसंस्कृति को श्रेष्ठ मानकर पराजय बोध से ग्रसित रहेंगे, तब तक भारत जैसे देश में स्वराज की कल्पना भी व्यर्थ साबित होगी। यह चिंतन का विषय है कि विदेशी संस्कृति का जो हमने अनुसरण किया है क्या हमनें उसकी खामियों पर विचार किया है?  कैसे हम विदेशी सभ्यता में संलिप्त होकर अपनी सभ्यता और संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं? ऐसे प्रश्न गांधी के सम्मुख बराबर से थे जिसे उन्होंने हिंद स्वराज के माध्यम से भारतीयों के बीच साझा किया और ब्रिटिश पार्लियामेंट के माध्यम से भारतीयों को जागृत करने का प्रयास करते हुए कहते है कि " यह सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली और खुद नाशवान है इससे दूर रहना चाहिए और इसलिए ब्रिटिश तथा दूसरी पार्लियामेंटें बेकार हो गई हैं। ब्रिटिश पार्लियामेंट अंग्रेज प्रजा की गुलामी की निशानी है यह पक्की बात है। आप पढ़ेंगे और सोचेंगे तो आपको भी ऐसा ही लगेगा। इसमें आप अंग्रेजों का दोष न निकालें। उन पर तो हमें दया आनी चाहिए। वे काबिल प्रजा हैं, इसलिए किसी दिन उस जाल से निकल जाएंगे।"4  यह विचारणीय है कि जिस तरह हम विदेशी सभ्यता और संस्कृति के पिछलग्गू बनते जा रहे थे इससे हमारा नैतिक पतन भी तीव्र गति से होना भी स्वाभाविक था। जिसे पहले ही गांधी ने पहचानकर भारतीयों को उससे आगाह करते हुए चांडाल सभ्यता से बचने की सलाह दी थी “ जहां यह चांडाल सभ्यता नहीं पहुंची है , वहां हिंदुस्तान आज भी वैसा ही है। उसके सामने आप अपने नए डोंगों की बात करेंगे, तो वह आपकी हंसी उड़ाएगा। उसपर न तो अंग्रेज राज करते हैं, न आप कर सकेंगे। जिन लोगों के नाम पर हम बातें करते हैं उन्हें हम पहचानते नहीं हैं ना वह हमें पहचानते हैं आपको और दूसरों को उनमें देश प्रेम है, मेरी सलाह है कि आप देश में -जहां रेल की बाढ़ नहीं फैली है उस अगर लोग अपने झगड़े आपस निपटाने लगे तो तीसरा पक्ष उनके ऊपर अपनी दोस्त नहीं जमा पाए जब लोग आपस में लड़कर या अपने संबंधियों के बीच में डालकर मामले निपटा लेते थे तो वह अधिक मर्दानगी का घोतक थाभाग में छः माह के लिए घूम आए और बाद में देश की लगन लगाए बाद में स्वराज की बात करें।”5 बापू का यह कथन युगीन परिदृश्य की विसंगतियों को प्रमुखता के साथ उद्घाटित करने में सक्षम था।  यह भारतीयों के लिए भी अपमान का विषय था कि इतनी सघन आबादी वाले देश में कोई व्यापार के उद्देश्य से अपना प्रसार शुरू करता है और धीरे- धीरे सम्पूर्ण भारत को अपना गुलाम बनाकर पूरी निरंकुशता के साथ उसपर शासन आरंभ कर देता है। परंतु इस पर विचार करने की आवश्यकता है कि  कोई बाहरी व्यापार के उद्देश्य से आए और पूरे देश को अपना गुलाम बना ले। क्या भारतीयों की भारतीयता इतनी मर चुकी थी कि उन्होंने अपनी सभ्यता और संस्कृति को तिलांजलि देकर नवीन सभ्यता और संस्कृति का दामन थामा? या उन्हें इसकी कोई चिंता ही नहीं थी? गहनता से विचारने पर हम यह पाते हैं कि इसका कारण यह था कि हम अपने अहम के प्रसार में इतना मदमस्त रहे कि धीरे- धीरे अपने ही भाईयों से बैर करने लगे परस्पर आपसी एकता की भावना को हमने विस्मृत कर दिया जिसका परिणाम हुआ कि देश में विदेशी कंपनी का शासन स्थापित हो गया। जिससे जनता का परिचय करवाने हुए बापू कहते हैं कि “इस तरह हमने कंपनी के लिए ऐसे संयोग पैदा किए, जिससे हिंदुस्तान पर उसका अधिकार हो जाए। इसलिए हिंदुस्तान गया, ऐसा कहने के बजाय ज्यादा सच यह कहना होगा कि हमने हिंदुस्तान अंग्रेजों को दिया।"6 गांधी जी का यह कथन भारतीयों के प्रति उनके आक्रोश का ही परिणाम नहीं था। बल्कि उन्हें बराबर इस बात की चिंता सता रही थी कि हिन्दुस्तान दिनों- दिन क्यों इतना कमज़ोर होता जा रहा है? क्यों अंग्रेजी प्रभाव के कारण भारत अपनी श्रेष्ठता को खोता जा रहा है? यह चिंतन का विषय था। जिसका दोष मात्र अंग्रेजों और उनकी व्यवस्था पर मढ़ दिया जाए तो उचित न होगा। हमने जिस तरह से अपनी सभ्यता और संस्कृति को महत्वहीन मानकर विदेशी सभ्यता और संस्कृति को महत्वपूर्ण स्वीकार कर लिया था वहीं से भारत अपनी श्रेष्ठता खोता जा रहा था। जिससे राजनीतिक रूप में ही नहीं बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक रूप में भी हमने  अपने धर्म को  सीमित करके देखना शुरू कर दिया था जिससे बाहर भीतर से हम अंग्रेजी सभ्यता के वाहक बनते चले गए। बावजूद इसके भी कुछ कार्य ऐसे हो रहे थे जिससे भारतीय ज्ञान परम्परा का प्रचार प्रसार मंद गति से ही सही परंतु हो रहा था। जनता को अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रति आकर्षित करने का प्रयास भारतीय मनीषियों द्वारा भी जारी था। जिसके कारण हिंसा के स्थान पर अहिंसा का महत्व बढ़ता चला गया जिसे धीरे-धीरे भारतीयों ने भी स्वीकार किया हिंसा हमारा धर्म कदापि नहीं हो सकता सनातन धर्म का सूत्र ही है 'अहिंसा परमो धर्मः'  जो अहिंसा को संपूर्ण जीव जगत के लिए कल्याणकारी स्वीकार करता है। प्रत्येक जीव परमात्मा का अंश है उसके प्रति अहिंसा का भाव ही सच्ची प्रार्थना है जिसे सभी को स्वीकारना चाहिए। परंतु खेद का विषय है कि हमने इस परंपरा को विस्मृत कर हिंसा के मार्ग का चुनाव कर रखा है जिससे भारत दिनों- दिन पिछड़ता जा रहा है।

हिंद स्वराज के माध्यम से बापू ने जनता में यह संदेश प्रसारित करने का प्रयास किया था कि " हिंदुस्तान अंग्रेजों से नहीं, बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है, उसकी चपेट में वह फंस गया है। उसमें से बचने का अभी भी उपाय है, लेकिन दिन-ब-दिन समय बीतता जा रहा है। मुझे तो धर्म प्यारा है इसलिए पहला दुःख मुझे यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं यहां हिंदू मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से जा रहा है हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।" 7  जिसका कारण अंग्रेजों की विभेदकारी नीतियां थी जो परस्पर विभेद को जन्म देती आई थीं  भारत की संगठित एकता हो खंडित करने हेतु तरह-तरह के प्रलोभन  तथा जाति विशेष को अपने अधीन करने हेतु अधिनियम एक्ट के माध्यम से दोनों कौमों की संगठित एकता को कमज़ोर करने का प्रयास किया। जिसे मार्ले  मिंटो एक्ट के माध्यम से देखा जा सकता है। यह वही समय था जब गांधी का हिंद स्वराज अंग्रेजी नीतियों को भारत के सामान्य जन तक पहुंचाने में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर रहा था। इस विपरीत परिस्थिति में गांधी अपने ही भारत को खंडित होता देख व्यथित हो रहे थे। उनका मानना था कि " दोनों कामों के बीच अविश्वास है इसलिए मुसलमान लॉर्ड मार्ले से कुछ हक मांगते हैं। इसमें हिंदू क्यों विरोध करें? अगर हिंदू विरोध ना करें, तो अंग्रेज चौकेंगे। मुसलमान धीरे-धीरे हिंदुओं का भरोसा करने लगेंगे और दोनों का भाईचारा बढ़ेगा। अपने झगड़े अंग्रेजों के पास ले जाने से हमें शर्माना चाहिए। ऐसा करने से हिंदू कुछ खोने वाले नहीं हैं; इसका हिसाब आप खुद लगा सकेंगे।"8  अंग्रेजी नीतियों के अधीन भारत की दशा दिनों-दिन सोचनीय होती जा रही थी जिसका कारण मात्र सामाजिक और आर्थिक नहीं था बल्कि उससे भी बढ़कर राजनीतिक था। जिसके बूते अंग्रेजी साम्राज्यवादी नीतियों का प्रचार-प्रसार तेजी से हो रहा था। इसके लिए भारतीयों के बीच अपना प्रचार करने हेतु अंग्रेजों ने भारतीयों का ही चयन किया। उन्हें प्रशिक्षित करते हुए अपनी विचारधारा से दीक्षित करने का प्रयास किया जिससे काली चमड़ी के बीच अंग्रेजी बुद्धि विवेक के भारतीय अंग्रेज तैयार किए जा सकें। इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे भारतीयों का एक वर्ग अंग्रेजी नीतियों को भारत में तेजी से प्रचारित प्रसारित करने लगा। परंतु जैसे-जैसे अंग्रेजों को इसका अनुमान हुआ कि बगैर भारतीयों को न्यायिक पद प्रदान किए उन्हें न तो अपनी शक्तियों से परिचित करवाया जा सकता था और न ही उन्हें गुलाम ही बनाया जा सकता था। धीरे धीरे अंग्रेजों के कार्यों से उनकी यह मंशा साफ प्रकट होने लगी। जिन विभागों से भारतीयों को अबतक दूर रखा गया था अब धीरे धीरे उसमें भारतीयों का प्रवेश होने लगा। यह अकारण नहीं था कि अंग्रेजी सरकार ने कुछ विभाग भारतीयों को भी प्रदान किए जिसमें पुलिस प्रशासन, न्याय विभाग, चिकित्सा विभाग जैसे कुछ विभाग भी शामिल थे। इन तीनों विभागों के माध्यम से अंग्रेजों ने भारतीयों के बीच अपना प्रचार प्रसार करना आरंभ कर दिया जिसे वकील के माध्यम से हिंद स्वराज में समझाते हुए गांधी कहते हैं “ यह समझना भूल है कि अदालतें जनहित में बनाई गई थीं। वे अपना शक्ति प्रदर्शन अदालतों के जरिए करते हैं। अगर लोग अपने झगड़े आपस निपटाने लगे तो तीसरा पक्ष उनके ऊपर अपनी धौंस नहीं जमा पाए। जब लोग आपस में लड़कर या अपने संबंधियों को बीच में डालकर मामले निपटा लेते थे तो वह अधिक मर्दानगी का घोतक था।”9 इन्हीं विभाजनकारी नीतियों के खिलाफ़ गांधी मजबूती के साथ खड़े थे। जो लोग स्वयं को भारत का सपूत मानते थे, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के वाहक के रूप में स्वयं का परिचय देते थे ऐसे लोगों से गांधी की अपील थी कि जब तक हम अपनों पर अविश्वास करते रहेंगे और न्याय के लिए अपना भेद अंग्रेजों से साझा करते रहेंगे। तब तक भारत से समस्याओं का अंत होना असंभव था। अंग्रेजी न्याय व्यवस्था ही तो वह माध्यम थी जिसने भेदकारी नियम लागू किए और भारतीयों को उसे जबरन मानने को बाध्य भी किया। सांप्रदायिक मुद्दों को भड़काकर जनता को हिंदू - मुसलमान के बीच बांटने का पूरा षड्यंत्र न्याय व्यवस्था का ही था। जिसे गांधी बखूबी हिंद स्वराज के माध्यम से समझाने का प्रयास करते हैं। उनका यह मानना था कि हमारे बीच यही इसी तरह धर्म संप्रदाय को लेकर भेद विद्यमान रहे तो बाहरी घुषपैठी भारत और भारतीयों को आपस में बांटकर इसी तरह अपना हित साधते रहेंगे। हमे आंतरिक रूप से शक्ति संपन्न होने की आवश्यकता है और यह तभी संभव हो सकता है जब हम आपसी एकता बनाए रखते हुए एक दूसरे पर विश्वास करें। झूठे प्रलोभनों और भेदवादी कानून के खिलाफ़ संगठित होकर अपनी आवाज़ बुलंद करें तब कहीं हम स्वराज की कल्पना कर सकते हैं। जिसे गांधी जी ने वकीलों के माध्यम से शोषण के भेदवादी रहस्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया है ”वकील के बिना अदालतें चल ही नहीं सकती और बिना उनके अंग्रेजों के लिए हुकूमत करना संभव नहीं है अगर अंग्रेज जज हो अंग्रेज वकील हो तथा अंग्रेज ही पुलिस हो तो अंग्रेज अंग्रेजों पर ही राज कर सकते हैं। भारतीय जजों भारतीय वकीलों के बिना अंग्रेज भारत में कुछ नहीं कर सकते। शुरुआत में वकील कैसे तैयार किए गए कैसे उनको आगे बढ़ाया गया अगर आप यह समझ जाएं तो जैसे मैं इस पेशे से नफरत करता हूं आप भी करने लगेंगे”10 इस मत से यह स्पष्ट है कि भारत की जनता को वकीलों ने गुमराह करने का प्रयास किया था सोची समझी रणनीति के तहत जनता को बांट दिया गया। बहुत से ऐसे झगड़े थे जिन्हें आसानी से सुलझाया जा सकता था परंतु उसे जबरन जाति, धर्म, संप्रदाय के माध्यम से उलझाया गया। परंतु मात्र अंग्रेजों पर दोषारोपण कर देना इसका समाधान नहीं हो सकता। गांधी के विचारों के आधार पर चिंतन करें तो इसमें हमारी अपनी कमी है हमने जाति धर्म के मतभेद के बीच मित्र और शत्रु के बीच के अंतर को विस्मृत कर शत्रु को भारत विजय का अधिकार दे दिया।

बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक तक ऐसे बहुत से कानून थे जो लागू किए गए जिससे जनता में व्याप्त असंतोष दिखाई दे रहा था। परंतु जनता के असंतोष को चालाकी के साथ हिन्दू – मुसलमान के जातिगत असंतोष में तब्दील कर दिया। जिसका परिणाम हुआ कि “वकीलों के कारण हिंदू- मुसलमानों के बीच कुछ दंगे हुए हैं, यह तो उन्हें अनुभव है वह जानते होंगे। उनमें कुछ खानदान बर्बाद हो गए हैं। उनकी बदौलत भाइयों में जहर दाखिल हो गया है। कुछ रियासतें वकीलों के जाल में फंस कर कर्जदार हो गई हैं। बहुत से गरासिए इन वकीलों की कारस्तानी से लूट गए।”11 गांधी जी का यह कथन अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के दोषों को रेखांकित करता है। वे इसे भिन्न-भिन्न तरीके से समझाते हुए कहते हैं हम और आप गलत शिक्षा के चंगुल में गिरफ्त हैं। यह ऐसी शिक्षा व्यवस्था है जिसमें हमारी इंद्रियां को कुंद कर दिया है। परंतु यदि हम अक्षर ज्ञान को आभूषण के रूप में आत्मसात कर ले तो मुझे खेद के साथ कहना पड़ेगा कि ऐसी शिक्षा हमारे लिए गैर जरूरी साबित होगी। बापू इसी नियम को विस्तार से समझाते हुए कहते हैं कि “करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनाई थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उसके काम का नतीजा यही निकलता है। यह कितने दुःख की बात है कि हम स्वराज की बात भी परायी भाषा में करते हैं।”12 इसमें तनिक भी संशय की गुंजाइश नहीं है कि हमनें विदेशी भाषा को अपने मस्तक का श्रृंगार बना लिया है। हिंदी को लेकर जो हीनता बोध हमारे दिलो दिमाग में व्यापत हुआ यह अंग्रेजी भाषा का ही परिणाम है। हमने स्वयं को सभ्य दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है फिर चाहे रहन-सहन का ढंग हो या अंग्रेजी भाषा का प्राथमिकता के साथ प्रयोग ही क्यों न हो हर स्तर पर हमनें विदेशी सभ्यता का अनुसरण किया है। जिससे भारत की अपनी भाषा का लोप होता चला गया और अंग्रेजी भाषा प्रभाव के साथ भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने लगी। परंतु सुविधा संपन्न भारतीयों ने इसे महत्वहीन समझा जिसे समझाते हुए गांधी कहते हैं कि ” आप को समझना चाहिए कि अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बड़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। अब अगर हम अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोग उसके लिए कुछ करते हैं, तो उसका हम पर जो कर्ज चढ़ा हुआ है, उसका कुछ हिस्सा ही हम अदा करते है।”13 ऐसे बहुत से प्रश्न अनायास ही हिंद स्वराज को पढ़ते हुए उठते हैं। साथ ही यह बात भी विचारणीय है कि ‘हिंद स्वराज' का जो पाठक है वह कौन है? क्या वह गांधी का शंकालु अंश है? या साधारण जनमानस के बीच का प्रतिनिधि जो अपने देशवासियों के मन में व्याप्त शंका को मूर्त रूप प्रदान कर रहा था।

निष्कर्ष : यह विचार करने की आवश्यकता है कि क्यों अपने समय की सबसे चर्चित और महत्वपूर्ण पुस्तक होने के बावजूद भी हिंद स्वराज को प्रतिबंधित करते हुए जब्त कर लिया गया? इसका उत्तर गांधी ने अपनी पुस्तक में कहीं नहीं दिया है। बावजूद इसके भी पुस्तक स्वयं ही इसका उत्तर अपने सभी अध्यायों के माध्यम से पाठक को दे देती है, जिसे बहुत ही कलात्मक ढंग से संवाद के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। जिस तरह से गांधी ने युगीन यथार्थ को मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयास किया था। उसे स्वीकार करना किसी भी साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था के प्रचारक के लिए असहनीय था । इसका कारण यह था कि जिस ज्ञानात्मक संवेदना के कारण भारतीय जनता को पश्चिमी मोह निद्रा से जगाने का प्रयास गांधी ने अपनी इस पुस्तक के माध्यम से किया था वह सही मायने में अंग्रेजी नीतियों का भांडा फोड़ था। अंग्रेजी नीतियों और शासन व्यवस्था के साथ पाश्चात्य आधुनिक सभ्यता की कटु आलोचना हिंद स्वराज में प्रमुखता से समाहित है। साथ ही औपनिवेशिक मानसिकता के प्रति भारतीय जनमानस को सचेत करने का प्रयास भी गांधी का ध्येय था जिसे उन्होंने हिंद स्वराज के माध्यम से मूर्त रूप प्रदान किया है। पश्चिमी सभ्यता का खण्डन और भारतीय सनातनी समाज व्यवस्था को भारत में लागू करने की वकालत का जो प्रयास गांधी ने किया उससे अंग्रेजों की चिंता बढ़ती चली गई। इसके साथ ही कैसे विदेशी सभ्यता, विदेशी संस्कृति के छलावे में फंस कर भारतीय अपनी सनातनी सभ्यता, संस्कृति से विमुख हो रहे थे इसपर गहनता से विचार इस पुस्तक में किया गया था। इतना ही नहीं अंग्रेजी प्रशासन व्यवस्था, अंग्रेजी न्याय व्यवस्था, अंग्रेजी चिकित्सा व्यवस्था, अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था की तमाम विसंगतियों की तरफ भारतीयों का ध्यान आकर्षित करते हुए चांडाल सभ्यता से बचे रहने की हिदायत दी थी तथा यह भी समझाने का प्रयास किया था कि इस विभेदकारी संस्कृति का अनुकरण करने का ही परिणाम था कि भारत में सांप्रदायिकता अपने चरम पर थी जिसे अंग्रेजों ने साम्राज्य विस्तार के लिए भड़काया जिसे हिंदू – मुसलमान के बीच के सांप्रदायिक झगड़ों के माध्यम से देखा जा सकता था। अपनी इस छोटी सी पुस्तक से ही गांधी ने एक तरह का आंदोलन खड़ा कर दिया था जो विचारों का आंदोलन था जिसने भारतीय जनता को अंग्रेजी विभेदकारी नीतियों के खिलाफ़ संगठित करने का कार्य किया। परिणामस्वरूप हिंद स्वराज को अंग्रेजी नीतियों का दोषी मानकर जब्त करते हुए प्रतिबंधित कर दिया गया।

संदर्भ : 
  1. हिंद स्वराज , महात्मा गांधी, प्रभात पेपरबैक्स, आसफ अली रोड, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 05
  2. हिंद स्वराज गांधी का शब्द-अवतार , गिरिजा किशोर, सस्ता साहित्य मण्डल, एन.77, पहली मंजिल, कनॉट सर्कस, नई दिल्ली, संस्करण 2009, पृष्ठ संख्या 03
  3. हिंद स्वराज , महात्मा गांधी, प्रभात पेपरबैक्स, आसफ अली रोड, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 45
  4. हिंद स्वराज , महात्मा गांधी, प्रभात पेपरबैक्स, आसफ अली रोड, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 58
  5. हिंद स्वराज , महात्मा गांधी, प्रभात पेपरबैक्स, आसफ अली रोड, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 85
  6. हिंद स्वराज , महात्मा गांधी, प्रभात पेपरबैक्स, आसफ अली रोड, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 60
  7. हिंद स्वराज , महात्मा गांधी, प्रभात पेपरबैक्स, आसफ अली रोड, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 63
  8. हिंद स्वराज , महात्मा गांधी, प्रभात पेपरबैक्स, आसफ अली रोड, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 75
  9. हिंद स्वराज गांधी का शब्द-अवतार , गिरिजा किशोर, सस्ता साहित्य मण्डल, एन.77, पहली मंजिल, कनॉट सर्कस, नई दिल्ली, संस्करण 2009, पृष्ठ संख्या 126
  10. हिंद स्वराज गांधी का शब्द-अवतार , गिरिजा किशोर, सस्ता साहित्य मण्डल, एन.77, पहली मंजिल, कनॉट सर्कस, नई दिल्ली, संस्करण 2009, पृष्ठ संख्या 126
  11. हिंद स्वराज , महात्मा गांधी, प्रभात पेपरबैक्स, आसफ अली रोड, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 78
  12. हिंद स्वराज , महात्मा गांधी, प्रभात पेपरबैक्स, आसफ अली रोड, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 114
  13. हिंद स्वराज , महात्मा गांधी, प्रभात पेपरबैक्स, आसफ अली रोड, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 115

डॉ. श्वेता सिंह
पूर्व शोध छात्रा, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
swetachoti0729@gmail.com 

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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