आलेख : हम बेकसों ने देखा है राज जालिमाना / निरंजन सहाय

हम बेकसों ने देखा है राज जालिमाना 
(प्रतिबंधित साहित्य और आज़ादी के तराने)
- निरंजन सहाय

सम्पूर्ण वांगमय  में काव्य/साहित्य की विशिष्ट स्थिति है।  इसलिए शब्द और अर्थ की प्रधानता के आधार पर भेद दिखाया गया।  भट्टनायक ने स्पष्ट किया कि शास्त्र शब्द प्रधान है, आख्यान अर्थात इतिहास-पुराण अर्थ प्रधान हैं और काव्य उभय प्रधान हैं।  (अभिनव संस्कृत काव्यशास्त्र -नामवर के नोट्स, शैलेश कुमार,मधुप कुमार,नीलम सिंह,राजकमल प्रकाशन-दिल्ली,  2016 पृष्ठ संख्या 20)

बहुत से लोगों को यह जानकार शायद ताज्जुब हो कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ने जो अभियान शुरू किए उनमें से ज्यादातर बोलने की आज़ादी और प्रेस की आज़ादी के मसले को लेकर शुरू किए गए।  सन 1883 में सबसे पहले जेल जाने वाले लोग लोकमान्य तिलक, आगरकर और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी  प्रेस की आज़ादी के सवाल को लेकर जेल गए।  पहला बड़ा राजनीतिक मुकदमा यानी तिलक का मुकदमा, प्रेस की आज़ादी के मसले से ही जुड़ा था।  नाटू बंधुओं को प्रेस की आज़ादी के सवाल पर ही देश निकाला दे दिया गया,जब तिलक पर दुबारा मुकदमा चलाया गया और उन्हें छह साल की क़ैद की सज़ा देकर 1908 में देश निकाला दे दिया गया। असहयोग आन्दोलन छेड़ने का बुनियादी कारण अली भाइयों के हिन्दुस्तानियों से पुलिस और सेना में काम न करने को कहने के हक के सवाल से जुड़ा हुआ था।  1922 में गांधी जी के लेखों को लेकर उनपर मुकदमा चलाया गया और उन्हें सज़ा दी गयी।  1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह बोलने की आज़ादी  के मसले को लेकर छेड़ा गया।  इस तरह भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ने नागरिक स्वतंत्रताओं और लोकतंत्र को भारत की जनता के सपने का एक बुनियादी हिस्सा बना दिया।  (आज़ादी  की लड़ाई का सपना, बिपिन चन्द्र,एनसीईआरटी,नवम्बर 2016 संख्या-12)

जिन्होंने अपनी लेखनी के कारण औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा कालकोठरियों में तिल-तिलकर मरने के लिए डाल दिए जाने के बावजूद, अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार को मरने नहीं दिया।  ऐसी सीलनभरी, अंधेरी कालकोठरियों में पत्थरों, टूटे हुए दाँतों और नाखूनों से दीवारों पर खुरचे हुए `इंकलाबी हर्फ़’ भारत की स्वतंत्रता के लिए उनकी जिजीविषा के ज़िंदा गवाह हैं।   (ब्रिटिश राज और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, डॉ. नरेंद्र शुक्ल, वाणी प्रकाशन,2017,प्रस्तावना )

बरतानी हुकूमत की चालबाजियों का पर्दाफ़ाश सबसे पहले साहित्य के नागरिकों ने किया।  उन्हें अपने रचनात्मक दौर में  सक्रिय  रहते हुए  सबसे ज़्यादा ज़ुल्मो-सितम का सामना करना पड़ा।  ज़ुल्मो-सितम की अंतहीन कहानी उनके नसीब में तो लिखी ही  गयी, विडम्बना देखिए  साहित्य की अभिव्यक्ति करने वाले इन सर्जकों को साहित्य की मुख्यधारा के इतिहास ने शामिल करना  तक जरूरी नहीं समझा।  लगभग सभी भारतीय भाषाओं में इस तरह के साहित्य की प्रचंड धारा चली।  ऐसी प्रचंड धारा जिससे दुनिया के सबसे ताकतवर साम्राज्य की चूलें हिल गयीं।  इस लेख के आरम्भ में भट्टनायक की स्थापनाओं का उल्लेख इसलिए किया गया है ताकि उसके आलोक में साहित्य की इस दीगर विशेषता से हम वाकिफ हों और  हम यह समझने में कामयाब हों कि कैसे उस दौर की कविताओं में अपने समय का जो सच गुम्फित हुआ है उसमें शब्द और अर्थ दोनों की क्षमता अपनी पूरी शक्ति के साथ प्रकट हुई है।  यही कारण है कि पश्चिम की कविता जिस कॉमन रीडर की बात करती है उससे भारतीय कविता के आस्वादकों में फर्क करना बेहद मानीखेज हो जाता है।  भारतीय काव्यशास्त्र रीडर के लिए आस्वादक,सहृदय,रसज्ञ या भावक पदबंध का प्रयोग करता  है।  पर पश्चिम से अलग अर्थों में,`पाश्चात्यसाहित्य शास्त्र में द्वैध की परम्परा रही है।  शरीर और मन का द्वैध।  भारतीय परम्परा में समग्रता पर बल है।  पाश्चात्य चिन्तन में द्वैधता की सुदृढ़ परम्परा रही है जिससे शरीर और मन के बीच विरोध और संघर्ष का भाव है।  इसलिए यहाँ कवि और आलोचक भिन्न माने गए हैं।  संस्कृत काव्यशास्त्र में कवि और आलोचक दोनों एक ही परम्परा के माने गए हैं।  “संस्कृत में कवि और सहृदय एक ही तत्त्व के अभिन्न अंग माने गए हैं” भारतीय परम्परा बताती है कि प्रतिभा का वृत्त कारयित्री(रचना करने की प्रतिभा) और भावयित्री(आस्वाद करने की प्रतिभा) दोनों से मिलकर बनता है और कोई रचनाकार इन दोनों सामर्थ्यों से सम्पन्न हो तभी रचना युगधर्म का निर्वाह करने में कामयाब होती है।  “बरतानी हुकूमत के दरमियान सार्वजनिक जगहों जैसे रास्ते, दीवालों, कालकोठरियों की भित्तियों  आदि पर ऐसे अनेक गुमनाम कवियों/ शायरों ने रचनाएं सम्भव कीं जिन्होंने सार्वजनिक जीवन और व्यक्तिगत जीवन में  स्व के बरतानी हुकूमत द्वारा  अपहरण की अनेक कारस्तानियों को रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा होते देखा” प्रतिबंधित (यानी कानून की धाराओं  को आधार बनाकर जिन रचनाओं के प्रकाशन और वितरण को रोका गया) और जब्तशुदा साहित्य (जिन्हें राजद्रोह सम्बन्धी धाराओं के अंतर्गत तलाशी के दौरान ज़ब्त किया गया) की इस दुनिया को विस्तार से देखने-परखने की ज़रूरत है। 

1. यूँ होता तो क्या होता 
(हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा और प्रतिबंधित/जब्तशुदा साहित्य)

    हिन्दी साहित्य के साहित्येतिहास में स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान प्रतिबंधित और जब्तशुदा साहित्य की चर्चा तक नहीं मिलती है।   भारत के विभिन्न अभिलेखागारों में इन्द्राज किए गए अभिलेखों में उन किताबों(इतिहास और साहित्य), अखबारों, पत्रिकाओं और छिटपुट रचनाओं का उल्लेख है जिनपर बरतानी हुकूमत ने प्रतिबन्ध लगाया।  विचारक एन.जेराल्ड.बैरियर ने अपनी मशहूर किताब `बैंड कंट्रोवर्शियल लिटरेचर एंड पोलिटिकल कंट्रोल इन ब्रिटिश इंडिया 1907-1947’ (BANNED CONTROVERSIAL LITERATURE AND POLITICAL CONTROL IN BRITISH INDIA 1907-1947)  में यह ज़िक्र किया है कि हिन्दी की 1391 किताबें बरतानी हुकूमत द्वारा प्रतिबंधित की गयीं।  यदि हिन्दुस्तानी भाषा रूप के लिहाज से देखें तो यह संख्या 1711 ठहरती है।  सबसे दुखद बात तो यह है कि मुख्यधारा के साहित्य में भी इस साहित्य की उपस्थिति के उल्लेख तक को  जरूरी नहीं समझा गया।  इस सिलसिले में प्रो.मैनेजर पाण्डेय ने अपनी पुस्तक `भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा’ में बेहद माकूल विश्लेषण किया, `यह देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में  आधुनिक काल के अंतर्गत अंग्रेजी राज के दौरान प्रतिबंधित साहित्य का कोई उल्लेख  नहीं मिलता।  ....अगर साहित्य का इतिहास किसी भाषा में मौजूद ज्ञान की दशा आकलन है, जैसा  कि  एस.जॉनसन ने कहा था, तो हिन्दी साहित्य के इतिहास में हिन्दी में लिखी गयी और प्रतिबंधित इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र की पुस्तकों पर विचार होना चाहिए।   ऐसा करने के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास को हिन्दी   का इतिहास बनाना होगा जो वह अभी नहीं है।  लेकिन जो लोग साहित्य का इतिहास लिखते समय या उसके बारे में सोचते समय इतिहास से अधिक महत्त्वपूर्ण साहित्य को मानते हैं वे भी  उन कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और नाटकों पर ध्यान नहीं देते जिन पर प्रतिबन्ध लगा था।  .....हिन्दी साहित्य के इतिहासों और कहीं-कहीं हिन्दी आलोचना में भी एक राष्ट्रीय साहित्य धारा की चर्चा होती है, पर उसमें कहीं भी प्रतिबंधित रचनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती।  “स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान आन्दोलन के पक्ष में प्रेरणादायी साहित्य लिखने वालों को दोहरा दंड मिला है, अंग्रेजीराज ने उन रचनाओं पर प्रतिबंध लगाकर दंडित किया तो हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने उन्हें उपेक्षा का दंड दिया”   जब्तशुदा साहित्य में गीतों, ग़ज़लों और कविताओं की दुनिया लाजवाब है।  भारतीय साहित्य में एकात्मकता के लिहाज से भी यह पद्यसंसार उल्लेखनीय है।  विभिन्न भारतीय भाषाओं में एक साथ ऐसे उद्गारों की अभिव्यक्ति मिलती है।  इस सिलसिले में रामजन्म शर्मा का काम उल्लेखनीय है, उनकी किताब भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा 1987 में प्रकाशित हुई उसका शीर्षक है`जब्तशुदा गीत : आज़ादी और एकता के तराने’ ।  इसकी  भूमिका में डॉ. शर्मा ने लिखा है,`हिन्दी में इन गीतों की पुस्तकों का प्रकाशन मुख्यत: सन् 1922,1923,1928,1929, 1930,1931, 1932 एवं 1940 में हुआ।  ये पुस्तकें 500से 6000 तक मुद्रित की गयीं।  इन पुस्तकों की कीमत तीन पैसे,एक आना, चार आना से लेकर एक रूपए तक है।  पुस्तकों की पृष्ठ संख्या 2 से 77 तक है।  पुस्तक में 2 से 50 तक गीत हैं।  मुख पृष्ठ पर किसी शहीद (भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजगुरु आदि ) का चित्र छपा है।  डॉ. बरियार के अनुसार जब्तशुदा गीतों की पुस्तकें इस प्रकार हैं- हिन्दी- 264,उर्दू- 58. मराठी -33,पंजाबी-22,गुजराती -22, तमिल-19, तेलुगु-10,सिन्धी-9,बांग्ला-4, कन्नड़ 3 उडिया-11 है। ’ स्वाधीनता के बाद ऐसी अनेक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ।  अभी भी ये गीत साहित्य अध्ययन-अध्यापन की मुख्यधारा का हिस्सा बनने की बाट जोह रहे हैं।      

2. दिल को बहला ले, इजाज़त है, मगर इतना  न  उड़
(कानून,प्रतिबंध और उपनिवेश)

औपनिवेशिक भारत में औपनिवेशिक मानस के अनुकूलन के लिए बरतानी हुकूमत ने दो काम किए-
आत्मविस्मरण के विस्तार का प्रयास किया। भारतीय समाज में नयी स्मृतियों को जोड़ने का काम किया। इतिहासकार डॉ. नरेंद्र शुक्ल ने प्रतिबंधित साहित्य के सिलसिले में अत्यंत महत्त्वपूर्ण शोध किया।  उन्होंने भारत के अनेक सरकारी अभिलेखागारों से प्राप्त विभिन्न सामग्रियों के आधार पर स्वाधीनता के लिए संघर्षरत भारतीयों की शाब्दिक अभिव्यक्तियों बनाम अंग्रेज सरकार के मंतव्यों  का विस्तृत अध्ययन किया है।  उन्होंने अपने अध्ययनों के आधार पर यह पाया कि राज्य अपने ख़िलाफ़ जनसमूह को तैयार करने वाली शाब्दिक अभिव्यक्तियों  के लिए केवल प्रतिबंध का हथियार ही इस्तेमाल नहीं करता बल्कि इससे आगे की हदबंदियों को भी विभिन्न आयामों से लैस करता है , बकौल नरेंद्र शुक्ल,`औपनिवेशिक प्रशासन ने पाया कि भारत में वह प्रेस से जुड़े जिन लोगों के सम्पर्क में है, उसके मोटे तौर पर तीन वर्ग किए जा सकते हैं-
1.वे लोग जो सरकार की नीतियों के समर्थक थे तथा अपने पत्रों में सरकार की नीतियों की प्रशंसा करते हैं। 
2 . दूसरे, वे लोग, जो अपने पत्रों में सरकार की नीतियों का विरोध तो करते हैं, किन्तु संवैधानिक सुधारों की प्रक्रिया में सरकार के साथ थे और औपनिवेशिक प्रशासन के खुले विरोध से बचते थे। 
3. तीसरे वर्ग में वे लोग थे जो हर हाल में सरकार के विरोध में पर आमादा थे तथा सरकार के साथ जिनके सहयोग करने की सम्भावना नगण्य थी।  

“ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने इन तीनों वर्गों से निपटने के लिए अलग-अलग रास्ता अख्तियार किया।  उसने ऐसी नीति तैयार की कि पहले वर्ग के लोगों को खुश रख सके व साथ बनाए रहे।  लगातार कुछ ऐसे प्रयास करे जिससे दूसरे वर्ग के लोग पहले वर्ग में परिवर्तित होते रहें, तथा तीसरे वर्ग का प्रेस, जो बिल्कुल  ही सरकार के विरोध पर अमादा थे, उसे पूरी तरह कुचल दिया जाय”’ भारतीय आज़ादी का पहला फलसफा बोलने और लिखने की आजादी से ही शुरू हुआ।  

बरतानी हुकूमत ने इस सिलसिले में अनेक कानूनों को ढाल की तरह इस्तेमाल किया।  शासन लगातार अभिव्यक्ति की कोशिशों पर पहरादारी करती रही और नए- नए कानून वजूद में आते रहे।  ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने भारत में राजनीतिक मुद्रित साहित्य के प्रसार से उत्पन्न होने वाले खतरों को भाँपते हुए प्रेस और मुद्रित साहित्य के विनियमनीकरण हेतु 1867के प्रेस अधिनियम के बावजूद ,1878 में सी कस्टम (जिससे भारत के बाहर से आनेवाले राजद्रोहपूर्ण मुद्रित साहित्य की जब्ती का रास्ता खुला) तथा 1878 में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट पारित किये।  भारतीय प्रेस तथा राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने वर्नाकुलर प्रेस एक्ट, 1878 का प्रखर विरोध किया जिस कारण अंतत: 1882 में इस क़ानून को हटाना पड़ा।  हालाँकि प्रतिबंध की राजनीति का खेल  लगातार जारी रहा।   1885 में जब `कॉपीराइट  बिल’ से, किसी `तार’ को किसी भी समाचार-पत्र द्वारा पुनर्प्रकाशन तब तक के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया जब तक कि पहली बार प्रकाशन के 24 घंटे बीत न जाय, तब स्थानीय भाषा वाले अखबारों ने इस नियम का उग्र स्वर में विरोध किया।  उनका मानना था कि यह नियम साधनसम्पन्न अंग्रेजी अखबारों के लिए तो ठीक है क्योंकि उनके पास तार प्राप्त करने के इंतजाम हैं,  लेकिन बाक़ी समाचारपत्रों को इनसे हानि होगी।  कुछ पत्रों ने तो सरकार पर यहाँ तक  आरोप लगाया कि, सरकार ऐसे देशी समाचारपत्रों को बंद करना चाहती है जो साधनविहीन है और अपने समकालीन अंग्रेजी पत्रों पर आश्रित है। ’ इस प्रकार शासकों ने प्रतिबंध को दमन के सबसे कारगर हथियारों में से एक के रूप में इस्तेमाल किया।   

    इन परिस्थितियों के आलोक में प्रतिबंधित और जब्तशुदा साहित्य का अध्ययन किया जाना चाहिए।  प्रतिबंधित यानी बरतानी हुकूमत द्वारा जिनके ख़िलाफ़ नोटिफिकेशन किया गया।  जब्तशुदा यानी क्रांतिकारियों के घर या ठिकानों से तलाशी के दरमियान जिन किताबों या अध्ययन सामग्री को जब्त किया गया।  बरतानी हुकूमत द्वारा1867 में प्रेस और पुस्तक रजिस्ट्रिकरण आया, इसकी दो धाराएँ 9 `क’ और `ख’ उल्लेखनीय है।   धारा  `क’ के मुताबिक़ किसी भी प्रकाशित पुस्तक  की एक प्रति सरकार को देनी होगी।  धारा `ख’ के अनुसार एक वर्ष के भीतर जिन किताबों या प्रकाशन को सरकार चाहे उसकी दो प्रतियाँ और मंगा सकती है।  इसी अधिनयम की धारा 11 के अनुसार सरकार समय-समय पर 9 `क’ के अंतर्गत आयी किताबों को परीक्षणोंपरान्त रद्दी में डाल सकेगी।  लेकिन 9`ख’ के तहत जो पुस्तकें या सामग्री आएंगी वे इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी जाएँगी और एक प्रति सरकार के सचिव के पास जाएगी।  ये वो किताबें थीं जिनका बरतानी हुकूमत परीक्षण करती थी कि ये किताबें भारतीय जनजागरण के पक्ष में तो नहीं या फिर हुकूमत की कारगुजारियों का पर्दाफाश तो नहीं कर रहीं या फिर स्व के जागरण का आह्वान तो नहीं कर रहीं। 
 यही संकलन प्रतिबंधित साहित्य के नाम से जाना गया जो नेशनल लाइब्रेरी कोलकाता में संकलित हुआ।  इसे  साम्राज्यवादी शासन ने अपने हितों के लिए संकलित किया पर आज हम इसे  साम्राज्यवादी चरित्र को बेनकाब करने वाले साहित्य के रूप में देख  रहे हैं। 

3. उठ के उस बज़्म से आ जाना कुछ आसान न था

बरतानी हुकूमत ने अपने साम्राज्यवादी  मंसूबों को पूरा करने के लिए जिन रणनीतियों पर काम करना शुरू किया उनमें एक को हम `राजसहायता’ बनाम `काली सूची’ पदबंध के आलोक में समझ सकते हैं।  सरकार ने प्रलोभनों का खजाना खोल दिया।  खुद को कल्याणकारी साबित करने के लिए पत्र-पत्रिकाओं और मुद्रित सामग्री हेतु विज्ञापन और अनुदान का प्रलोभन दिया गया।  वे लोग या संस्थान  जो यथास्थितिवाद से अपनी सुविधा के संसार को महफूज रखना चाहते थे वे सरकार या सरकारी नीतियों की विरुदावली गाने लगे।  कभी सूचना की शक्ल में तो कभी कलावादी  साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में।  यानी सत्ता की चाकरी बनाम लोकोन्मुखता का संघर्ष उस दौर में भी पूरी शिद्दत से जारी था।  बरतानी हुकूमत प्रेस तथा मुद्रित साहित्य को नकद लाभ देकर, पत्र-पत्रिकाओं की अधिक प्रतियाँ खरीदकर, सरकारी विज्ञापन की भारी-भरकम सहायता देकर अपने वफादार लोगों/संस्थानों को तैयार कर रही थी।  इधर की दुनिया  जितनी सम्पन्न उतनी ही दारुण दुःख से भरा उन लोगों का फ़साना जो बरतानी हुकूमत के ख़िलाफ़ लिखकर भारवासियों में जनजागरण अभियान चला रहे थे।  उनके ख़िलाफ़ हुकूमत `प्रतिरोधात्मक प्रचार’ के हथकंडे का इस्तेमाल कर रही थी।  विरोधियों के लिए काली सूची तो समर्थकों के लिए राजसहायता।  काली सूची में शामिल पत्र/पत्रिकाओं को विज्ञापनों से वंचित कर दिया गया।  इस अभियान में विभिन्न प्रांतीय सरकारें बढ़-चढ़ कर  हिस्सा ले रही थीं।  उदाहरण के लिए 1918 में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउन्सिल सदस्य ने काली सूची से जुड़े जब मुद्दे उठाए और काली सूची के बाबत यह पूछा कि कहाँ-कहाँ इसे सरकारें अपना रही हैं तब सरकार की ओर विलियम विंसेट ने 22 समाचार पत्रों की सूची मुहैया करायी, जिनमें –

1.पंजाब से  प्रकाशित होने वाले पत्र –1.ट्रिब्यून-लाहौर2. इंग्लिश बुलेटिन-लाहौर 3.ऑब्जर्बर-लाहौर 4.आर्य गजट-लाहौर 5.उर्दू बुलेटिन-लाहौर 6. शान्ति-रावलपिंडी7.पंजाब-लाहौर 8.पंजाब समाचार।  
2. दिल्ली से एक ` हिन्दी समाचार’ को रखा गया। 
3. संयुक्त प्रांत से इन पत्रों को शामिल किया गया था- 1,प्रताप-कानपुर 2. अवध-लखनऊ 3. एडवोकेट-लखनऊ 4.नई रोशनी- इलाहाबाद 5.अवधवासी-लखनऊ 6.उत्साह-उरई आदि शामिल थे। ’ बाद में यह सूची बढ़ती गयी।  हिंदवासी-हैदराबाद, सिंध-हैदराबाद, लरकाना-हैदराबाद, हिन्दू-हैदराबाद, अमृत बाज़ार पत्रिका-कोलकाता, सर्चलाइट-पटना,यंग इंडिया-अहमदाबाद  जैसे अनेक पत्र शामिल हुए।  यह सूची लगातार लंबी होती रही।                                   
 
   यहीं ठहरकर एक उदाहरण के द्वारा यह देख लेना भी जरूरी है कि कैसे सरकार समर्थक पत्र भारत के उन जन आंदोलनों के ख़िलाफ़ मुहिम चला रहे थे जो आज़ादी के संघर्ष की नुमाइन्दगी कर रहे थे।  संयुक्त प्रांत से प्रकाशित होने वाले पत्र ज्ञानशक्ति- गोरखपुर ने अपने 09 दिसम्बर 1921 के अंक में खिलाफत और असहयोग आन्दोलन के ख़िलाफ़ एक लेख लिखा जो बरतानी हुकूमत को इतना पसंद आया कि इसकी हजारों प्रतियाँ जनता के बीच बँटवाई गयीं।  इस लेख का एक अंश देखिए-

“अभी तुम लोग इस योग्य नहीं हो, अभी भारतवासी सत्याग्रह नहीं कर सकते।  गांधी जी ने स्पष्ट कहा था कि भारतवासी अभी सत्याग्रह योग्य नहीं हैं।  पर थोड़े ही दिन बाद कांग्रेस के दिल्ली वाले अधिवेशन में गांधी जी ने फिर सत्याग्रह की घोषणा कर दी।  न मालूम इतने दिनों में कहाँ से योग्यता टूट पड़ी... गांधी जी मनुष्य हैं।  उनसे गलती होनी सम्भव है।  सम्भव ही नहीं है, बार-बार उन्होंने गलती की है और ग़लती करते आते हैं। ....इसलिए हम कहते हैं कि ठहरो!”  
इस तरह हम पाते हैं कि दमन और पुरस्कार दोनों गतिविधियाँ साथ-साथ चल रहीं थी। 

4. हसरतें हमारी आज़ाद ख़याल 
 
स्वाधीनता संग्राम के दौरान लिखे गए साहित्य में जनपक्षधरता की जो चेतना उपस्थित है, वह अनेक दृष्टियों से उल्लेखनीय है।  कविताएँ, गीत और ग़ज़लों की रचना कहन शैली में की गयी है।  उनमें संवाद की आत्मीयता, स्व का बोध और बरतानी हुकूमत की चालबाजियों का पर्दाफाश करने जैसी विशेषताएँ आसानी से मिल जाती हैं।  ऐसे साहित्य का बेहतरीन संकलन अमृत लाल रावल ने किया है।  उनका संकलन दो भागों में प्रकाशित है- ‘आज़ादी के तराने, भाग-1’ और ‘आज़ादी के तराने, भाग-2’ ।  इन दोनों भागों की यात्रा उस समय को मूर्त कर देती है, जब  ताप के ताए दिनों के बल पर भारत ने गुलामी के अँधेरे से निकल कर स्वाधीनता के सूरज की रौशनी का दीदार किया।  इस अंश में उन गीतों पर विचार होगा जो इन संग्रहों में संकलित हैं।  भाग-2 के अंत में उन 125 रचनाकारों के नाम और ठिकाने का उल्लेख है जिन्हें अपने गीतों,गजलों और कविताओं के कारण बेंत, जुर्माने और कारावास की सज़ा भुगतनी पड़ी।  

संग्रह में किसानों की दुर्दशा और उनके सपने तथा विद्रोह; अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ ख़ूनी क्रांति की तरफदारी; गांधी,नेहरु,चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह सरीखे नेताओं के प्रति समर्पण का जज्बा; युवाओं-युवतियों को अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ जनसैलाब बन उखाड़ फेकने का आह्वान, स्वाधीनता आन्दोलन के विभिन्न  प्रतीकों के प्रति समर्पण,आजादी के संघर्ष के विभिन्न अभियानों जैसे- खिलाफत, असहयोग आँदोलन  आदि के प्रति अलख जगाना, आजादी का ख़्वाब,जंग का ऐलान,संगठन की ताक़त का बयान, देश के लूटे जाने का दुःख और अंग्रेजी राज के प्रति दुआ जैसे मजमून,अहिंसा; स्वाधीनता संग्राम का हिस्सा बनने का संकल्प,सामूहिक उत्थान और स्वाधीन भारत के लिए प्रार्थना शामिल हैं।  इस फेहरिश्त को और भी बड़ा किया जा सकता है। 
 
रचना शैली के आधार पर विचार करें तो हम पाते हैं दोहा, चौपाई जैसे आजमाए छंदों के साथ, बहर शैली का प्रयोग भी नज़र आता है।  इन पद्यरूपों में जिन प्रतीकों का प्रयोग किया गया है वे भारतीय आम जीवन के स्वाभाविक अंग हैं।  गरम दल और नरम दल का जैसा विभाजन इतिहास की पुस्तकों में दिखाई देता है, वैसा गीतों में नहीं दिखाई पड़ता।  जैसे चरखे की तुलना मशीनगन से करना।  इनकी सबसे बड़ी बात यह है कि ये या तो गेय हैं या फिर मंचन योग्य वार्तालाप शैली में रचे-पगे।  इनमें से अनेक गीत प्रभातफेरियों में गाए  जाते थे और यह सामूहिक आवाज़ एक साथ भारत के स्व की पहचान कराने  और आजादी के सपने को मूर्त करने काम कर रहे थे।  

कुछ बानगियों का उल्लेख करना मौजू होगा-
तब्दील गवर्नमेंट की कम न होगी। 
गर कौम असहयोग पै तैयार न होगी। । 
बन जाएँगे हर शहर में जालियाँवाला बाग।   
इस मुल्क से गर दूर यह सरकार न होगी। 


चला दो चर्खा हर एक घर  में , ये चर्ख तब तुम हिला न सकोगे।  
बंधा तभी सिलसिला सकोगे, उन्हें कबड्डी खिला सकोगे । । 
हमारे चर्खे में ऐसा फन है, जो आजकल की मशीनगन है। 
फिर मैनचेस्टर वो लंकाशायर , का जीत इससे किला सकोगे। ।   

जालिमों को है उधर बंदूक अपनी पर गरूर,
है इधर हम बेकसों का तीर वंदे मातरम् ।
कत्ल कर हमको न कातिल तू, हमारे खून से,
तेग पर हो जाएगा तहरीर वंदे मातरम् । 

संसार जानता है हमको नहीं बताना 
हम बेकसों ने देखे हैं राज जालिमाना। । 
तैमूरलंग की भी देखी थी हमीं ने कूवत। 
औरंगजेब को भी देखा था आबोदाना। । 
वह  दृश्य नादिरी का आँखों में फिर रहा है । 
देखा था चापलूसों का मालो जर खजाना। ।     

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दर्द से अब बिलबिलाने का ज़माना हो चुका,
फ़िक्र करनी चाहिए मर्ज़े कुहन के वास्ते ।
हिन्दुओं को चाहिए अब कस्द काबे का करें,
और फिर मुस्लिम बढें गंगो-जमन के वास्ते ।।

संतरी भी मुज़्तरिब है जबकि हर झंकार से,
बोलती है जेल में जंजीर वंदे मातरम् ।

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गोलियां चारों तरफ से घेर लेंगी जब मुझे
और तन्हा छोड़ देगा जब मेरा मरकब मुझे
और संगीनों पे चाहेंगे उठाना सब मुझे
ए वतन उस वक्त भी मैं तेरे नगमे गाऊंगा
मरते-मरते इक तमाशा-ए-वफा बन जाऊंगा!
जब दरे-जिंदां खुलेगा वरमला मेरे लिए
इंतकामी जब सजा होगी रवा मेरे लिए
हर नफ़स जब होगा पैगामे कज़ा मेरे लिए
ऐ वतन उस वक्त भी मैं तेरे नगमे गाऊंगा
बादाकश हूं, ज़हर की तल्खी से क्या घबराऊँगा!
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सीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीका,
चलवाओ गन मशीनें, हम सीना अड़ा देंगे ।
दिलवाओ हमें फांसी ऐलान से कहते हैं,
खूं से ही हम शहीदों के, फौज बना देंगे ।
मुसाफिर जो अंडमान के, तूने बनाए, जालिम,
आजाद ही होने पर हम उनको बुला लेंगे ।
साड़ी ना पहनब विदेशी हो पिया देशी मंगा दे।
देशी चुनरिया, देशी ओढ़नियां, देशी लहंगवा सिला दे हो।।
पिया देशी मंगा दे ।। साड़ी—-।।
देशी चोली, देशी गोली देशी ही रंग में रंगा दे हो।
पिया देशी मंगा दे ।। साड़ी—-।।
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गांधी जी ने लिखा मित्र वर बृटिश हुकूमत भारी पाप।
दलिद्र इसने बनाया भारत दुख से जनता करै विलाप।।
नाश हाथ की भई कताई स्वास्थ हरन अबकारी कीन।
भारी बोझ नमक के कर का दबी है जासे जनता दीन।।

इस तरह के गीतों, गज़लों और कविताओं ने जिस अभियान को सम्भव किया उन्हीं की स्वाभाविक परिणति हुई और हम स्वाधीन हुए।  यदि इन्हें साहित्य के इतिहास का हिस्सा नहीं बनाया गया तो साहित्य की विश्वसनीयता अनेक सवालों से घिरेगी।  

 निरंजन सहाय
प्रोफेसर एवम अध्यक्ष, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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